शंकर और भारती / पवित्र पाप / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
शंकर और भारती
सुशोभित


शंकर ‘ब्रह्मचारी’ थे और मात्र 32 वर्ष की आयु में देह त्यागने तक आजीवन ब्रह्मचारी ही रहे। फिर भी, ‘किम् आश्चर्यम्’, कि अपने जीवन की सबसे कठिन परीक्षा का संधान उन्होंने ‘यौन अनुभूतियों’ पर संवाद के माध्यम से किया था। यह चमत्कार भला कैसे संभव हुआ?

कथा ही है। किंतु अद्भुत! आदि शंकराचार्य ‘वेदान्ती’ थे। उनके काल में मंडन मिश्र कट्टर ‘मीमांसक’ के रूप में प्रतिष्ठित थे। षट्दर्शन में वेदान्त को यूं तो मीमांसा का अनुवर्ती ही स्वीकारा गया है और उसे ‘उत्तर-मीमांसा’ कहकर पुकारा गया है, लेकिन दोनों में पर्याप्त भेद हैं। मीमांसा के मूल में कर्मकांड है और ‘पूर्व-मीमांसा’ को ‘कर्म-मीमांसा’ कहा गया है। वहीं वेदान्त के मूल में ज्ञानमार्ग है और वह ‘ज्ञान-मीमांसा’ या ‘उत्तर-मीमांसा’ कहलाया है। प्रकारांतर से मीमांसा और वेदान्त के बीच वही भेद है, जो वेद और उपनिषद के बीच है।

‘उत्तर-मीमांसा’ के शलाकापुरुष के रूप में शंकर अपने ‘अद्वैत-वेदान्त’ की ध्वजा फहराने निकले थे। वह ‘सनातन’ का अश्वमेध था। बौद्धों के ‘अनित्य’ और ‘अनात्म’ के चिंतन से चले आए दोषों का समाहार करना उसका प्राथमिक लक्ष्य था। और यूं तो शंकर का सीधा मुक़ाबला महायानियों के ‘माध्यमिक’ दर्शन से था, किंतु माहिष्मती नगरी (वर्तमान मंडलेश्वर) के मंडन मिश्र से पार पाए बिना वह अश्वमेध संभव ना था।

मंडन तब काशी में विराजे थे। शंकर पहुंचे शास्त्रार्थ करने।

मंडन कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। कुमारिल घोर मीमांसक थे। मीमांसा दर्शन के ‘भाट्टमत’ के प्रवर्तक। शास्त्रार्थ में वे बौद्धों को परास्त कर चुके थे, इस तरह एक अर्थ में शंकर का काम सरल ही कर चुके थे। मंडन के साथ ही मध्व भी उनके अनुयायी थे, जो शंकर के कट्टर विरोधी और दुर्दम्य द्वैतवादी थे। यानी कुमारिल के अनुयायियों से शंकर का एक निरंतर मतभेद रहा था। शंकर-मंडन के शास्त्रार्थ की कथा किंवदंतियों में अग्रणी है। काशी में दोनों का शास्त्रार्थ हुआ। कोई कहता है इक्कीस दिन चला, कोई कहता है बयालीस दिन। अंत में मंडन परास्त हुए। शंकर उठने को ही थे कि मंडन की भार्या आगे बढ़ी। कोई उनका नाम भारती बताता है, कोई सरस्वती। विदुषी थीं। बोलीं, ‘मैं मंडन की अर्द्धांगिनी हूं, इसलिये मंडन अभी आधे ही परास्त हुए हैं। मुझसे भी शास्त्रार्थ कीजिए।’ शंकर अब भारती से शास्त्रार्थ करने बैठे। इक्कीस दिनों में उन्हें भी परास्त किया।

विजेता-भाव से शंकर उठने को ही थे कि भारती ने ‘ब्रह्मास्त्र’ चला। बोलीं : ‘मान्यवर, अब ‘कामकला’ के बारे में भी विमर्श हो जाए!’

शंकर ब्रह्मचारी थे। हठात असमंजस में पड़ गए। सर्वज्ञाता थे किंतु एक स्त्री की शक्ति कहां व्यापती है, यह आभास उन्हें पहली बार हुआ।

उन्हें संकोच में देख भारती का बल बढ़ा। कहा, ‘प्रीति के चार प्रकार हैं, संभोग के आठ। सात रतविशेष हैं, काम की दस अवस्थाएं हैं। ‘दंतक्षत’ और ‘बिंदुमाला’ के बारे में कुछ बताइए। ‘औपरिष्टक’ और ‘वरणसंविधान’ पर आपके क्या विचार हैं? संभोग को ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ बताया गया है और वात्स्यायन को ‘ऋषि’ स्वीकारा गया है। इतने व्यापक विषय पर चर्चा किए बिना आपकी विजय नहीं स्वीकारी जाएगी।’

शंकर अन्यमनस्क हो गए। फिर कुछ देर ठहरकर प्रकृतिस्थ भाव से बोले, ‘मैं तो ब्रह्मचारी हूं। कामसुख का मुझे कोई अनुभव नहीं। किंतु कुछ दिनों का अवसर मिले तो लौटकर बताऊं।’

मंडन और भारती राज़ी हो गए। किंवदंती है कि शंकर ने एक भोगी नरेश की देह में ‘परकाया प्रवेश’ किया। चौबीस ‘कर्माश्रया’, बीस ‘द्यूताश्रया’, सोलह ‘शयनोपचारिका’ और चार ‘उत्तर कला’, इस तरह कुल चौंसठ कलाओं का व्यवहार किया। प्रवीण होकर लौटे। और अबकी भारती को ‘कामकला’ पर विमर्श में भी परास्त किया। मंडन और भारती दोनों शंकर के शिष्य बने। शंकर ने मंडन को एक धाम का गुरुभार सौंपा।

अद्भुत कथा है। विलक्षण रूपक। संकेत यह भी है कि कायांतरण बिना ‘काम’ का परिशोधन संभव नहीं, और जो काम में कायांतरण की चेतना से चूका, वह पथभ्रष्ट होगा। कि शंकर संचरण और अंतरण का यह रहस्य जानते थे। अपनी अवस्था से अवान्तर एक उत्तरकाया से उन्होंने काम को भोगा : एक कूटदेह से। और उस अनुभूति का शोधन अपनी मूल मनश्चेतना से किया, जिसका कौमार्य अभी अक्षुण्ण था। इस तरह वे अंश से पूर्ण हुए, पूर्ण से पूर्णतर।

भर्तृहरि ने तीन ‘शतक’ रचे थे। नृप थे तो ‘नीति शतक’। भोगी थे तो ‘श्रंगार शतक’। योगी हुए तो ‘वैराग्य शतक’। मंडन से शास्त्रार्थ का अवसर शंकर के लिए वैराग्य से श्रंगार और फिर पुन: वैराग्य में वापसी का विरल प्रसंग था।

और उपनिषदों के भाष्य भले ही पहले लिख चुके हों लेकिन तभी जाकर शंकर ने ‘ईशावास्योपनिषद्’ के उस कथन को पूरा-पूरा समझा होगा : ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः।’ ‘जिसने त्यागा, उसी ने भोगा’, जिसमें यह व्यंजना भी अंतर्निहित कि ‘जिसने भोगा, उसी ने त्यागा!’