सीता का परित्याग / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
क्या राम ने सीता का परित्याग किया था? क्या सीता की अग्निपरीक्षा लेने के बावजूद तब केवल लोकापवाद के भय से उनका परित्याग कर दिया गया था, जब वे गर्भवती थीं?
इन प्रश्नों पर अनेक कोणों से विचार किया जा सकता है, केवल एक चीज़ नहीं की जा सकती, और वो है इस कृत्य का बचाव। वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में सीता की अग्निपरीक्षा का वर्णन है।
राम ने अत्यंत कठोर शब्दों का उपयोग किया था, जिससे ना केवल सीता लज्जित हुईं, लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमान को भी कष्ट हुआ। ‘प्राप्तचारित्रासन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता।’ ‘मुझे तुम्हारे चरित्र पर संदेह है।’ इस पर सीता ने सतीत्व की शपथ खाई और अग्निपरीक्षा दी।
स्मरण रहे कि पवित्रता को सिद्ध करने का वह उत्तरदायित्व स्त्री का था, पुरुष का नहीं, जबकि पवित्रता स्वयं एक संदिग्ध मूल्य है। निश्चय ही, यौन-शुचिता उस विभ्रम का आधार है।
फिर इसके बाद उत्तर कांड में सीता त्याग का प्रसंग, वह भी लोकापवाद के आधार पर।
स्पष्ट है कि अग्निपरीक्षा अकारथ रही। राम ने गर्भिणी का परित्याग कर दिया। सीता फिर लौटकर राजमहल में नहीं आईं। युद्ध कांड में वर्णित अग्निपरीक्षा प्रसंग और उत्तरकांड में वर्णित सीता त्याग और शम्बूक वध प्रसंग उन विवेकशील हिंदुओं को विचलित करते रहे हैं, जो राम को मर्यादा पुरुषोत्तम मानते हैं।
इस आक्षेप का सबसे सशक्त प्रतिकार यह है कि युद्ध कांड में वर्णित अग्निपरीक्षा प्रसंग और उत्तरकांड में वर्णित सीता त्याग प्रसंग ‘प्रक्षिप्त’ हैं। यानी वे आदिरामायण का हिस्सा नहीं, ये परवर्ती कल्पनाएं हैं।
आदिरामायण में सीता त्याग का उल्लेख नहीं है। महाभारत में अग्निपरीक्षा और सीता त्याग दोनों का ही उल्लेख नहीं है। हरिवंश, वायुपुराण, विष्णुपुराण, नृसिंहपुराण में भी नहीं। किंतु बृहतकथा और कथासरित्सागर में उल्लेख है। कालिदास के रघुवंश में सीता परित्याग का वर्णन है। भवभूति के उत्तररामचरितम् में तो इसका अत्यंत नाटकीय वृत्तांत है। धोबी के लोकापवाद की कथा भागवत और पद्मपुराण में भी है।
तमिल रामायण, आनंद रामायण, गुजराती रामायण सार, यहां तक कि रामचरितमानस के लवकुशकांड में भी लोकापवाद की कथा है, किंतु स्पष्ट है कि लवकुशकांड प्रक्षिप्त है और मानस के अधिकृत संस्करणों में प्रकाशित भी नहीं किया जाता। यहां प्राचीन और परवर्ती साहित्य में कोई दुविधा नहीं दिखती।
प्राचीन रामकथा में सीता त्याग नहीं है, प्रक्षिप्त उत्तरकांड के बाद अस्तित्व में आए परवर्ती साहित्य में इसका उल्लेख है। किंतु कौतुक तो यह है कि इस प्रकार से दुविधा निवारण के प्रयास करना तो दूर, उलटे इस बारे में चर्चा छेड़ने पर येन-केन-प्रकारेण यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाने लगता है कि सीता त्याग उचित था।
जब कोई कहता है कि राम ने गर्भिणी का परित्याग किया, तो इस पर तीन प्रकार से प्रतिक्रिया दी जा सकती है-
1) यह असत्य और दुष्प्रचार है और वाल्मीकि रामायण में इसका कोई वर्णन नहीं।
2) अगर यह सत्य है तो यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। एक सामान्य पुरुष भी अपनी पत्नी से यह नहीं कहता कि तुम दूसरे पुरुष के यहां रहकर आई हो, अग्निपरीक्षा दो। एक सामान्य पुरुष भी अपनी पत्नी को तब नहीं त्याग सकता, जब वह गर्भिणी हो, तब मर्यादा पुरुषोत्तम की बात तो रहने ही दें।
3) राम ने जो किया, वह उचित था। वह ‘राजधर्म’ था। राम तो सीता से बहुत प्रेम करते थे और सीता को त्यागकर शोकाकुल हो गए थे किंतु सामूहिक अवचेतन की तुष्टि के लिए वह आवश्यक था। वह उस काल के अनुरूप था।
पहला तर्क, विद्वान व्यक्ति देता है।
दूसरा तर्क, विवेकवान व्यक्ति।
तीसरा तर्क, कोई अंधभक्त ही दे सकता है।
इस संसार में विद्वत्ता का महत्व है, विवेक का महत्व है, किंतु भक्तिवत्सलता का कोई अधिक मूल्य नहीं है। इसी आलोक में सीता-परित्याग के प्रश्न पर हमें विचार करना चाहिए।