कन्यादान / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
एक विज्ञापन फ़िल्म के कारण कन्यादान शब्द चर्चा में आया। यह सार्थक चर्चा ही कहलावेगी। क्योंकि शब्द अनेक आशयों और धारणाओं को व्यक्त करते हैं और उनसे अभिव्यंजित होने वाली ध्वनि की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
दान शब्द में देने का भाव है। देने के लिए दो बातों का होना ज़रूरी है। एक तो दान किसी वस्तु या सम्पदा का किया जाता है या यदि किसी मूल्य का किया जाता है तो उसे भी हस्तांतरणीय मानकर किया जाता है। दूसरे दान देने वाला उस वस्तु या सम्पदा या मूल्य का स्वामी माना जाता है। कन्या तो वस्तु नहीं है, मन-प्राण-चेतना से सम्पन्न एक व्यक्ति है! दूसरे, उसका दाता- जो पिता, पालक या अभिभावक हो सकता है- उसका स्वामी नहीं है। अधिक से अधिक वह उसका संरक्षक या हितचिंतक ही हो सकता है। कन्यादान शब्द इतना प्रचलित है और लोक-रीति का अंग बन गया है कि इससे व्यंजित होने वाली ध्वनि की सहज ही उपेक्षा अगर हो जावे तो आश्चर्य नहीं।
कठोपनिषद् में नचिकेता का वाजश्रवा से व्यग्र होकर यह कहना कि मुझको किसको दान दोगे?, इस प्रश्न में व्यक्ति की अस्मिता का ही उद्घोष है, जो दान दिए जाने की भावना से म्लान होती है।
क्या विवाह-रीति में कन्या का दान किया जाता है? ऐसा तो नहीं। विवाह तो दो व्यक्तियों के वैसे परस्पर सम्बंध का नाम है, जिसे समाज के द्वारा मान्यता दी जाती है। अलबत्ता सम्बंध सदैव ही समाज की मान्यता के मुखापेक्षी नहीं होते, क्योंकि मनुष्य की आदिम-आत्मा के जिस धरातल पर प्रणयाकांक्षा उद्भूत होती है, वह संस्थानीकरण, श्रेणीकरण और लोकमान्यता से परे है। ख़ैर, परिणय की रीति में कन्यादान से बेहतर शब्द पाणिग्रहण है। उससे भी अगर यह भाव निकलता हो कि वर ने वधू का पाणिग्रहण किया तो उसमें त्रुटि है, अर्थ तो यही निकाला जाना चाहिए कि वर और वधू दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया है।
फिर यह भी पूछिये कि यह गोत्र क्या होता है? इसकी क्या वैज्ञानिक परिभाषा है? विवाह में अग्नि को कन्या का गोत्र कैसे दिया जाता है? सन्तान को पुरुष का गोत्र क्यूं मिलता है स्त्री का क्यों नहीं? गोत्र, वंश, कुल भारत में ही क्यों होते हैं, अन्यत्र क्यों नहीं होते, क्योंकि जीन और डीएनए जैसे नृतत्वशास्त्रीय-पद तो सार्वभौमिक होते हैं। गोत्र कन्या ही क्यूं त्यागती है वर क्यूं नहीं?
अब दान की बात करते हैं। मेरे सामने महामहोपाध्याय डॉ। वामन पाण्डुरंग काणे का ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ (प्रथम खण्ड) खुला हुआ है। यह हिन्दू-रीति पर सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना गया है। इसमें एक अध्याय दान के स्वरूप पर एकाग्र है। इसमें कहा गया है कि याग, होम और दान में भेद होता है। याग में देवता के लिए वैदिक मंत्रों के साथ कुछ वस्तुओं का त्याग होता है, होम में अपनी किसी वस्तु की आहुति किसी देवता के लिए अग्नि में दी जाती है, किंतु दान में किसी दूसरे को अपनी वस्तु का स्वामी बना दिया जाता है। यहां ‘वस्तु’ शब्द की छटा ध्यातव्य है! दान-रीति पर सनातन-परम्परा में पृथक से भी ग्रंथ हैं, यथा- गोविन्दानंद का दानक्रियाकौमुदी, हेमाद्रि का दानखण्ड, नीलकण्ठ का दानमयूख, विद्यापति की दानवाक्यावलि, वल्लासेन का दानसागर एवं मिश्र-मिश्र का दानप्रकाश। काणे साहब ने दान और प्रतिग्रह के भेद को भी बतलाया है।
कितने प्रकार के दान होते हैं? भूदान, गोदान, अन्नदान, विद्यादान, अश्वदान, दीपदान, पुस्तक-दान आदि प्रसिद्ध हैं। जो समर्थ था, वह अतीत में पर्वत-दान भी करता था। एक दासी-दान का भी उल्लेख वैदिक साहित्य में मिलता है, वह पृथक से पिष्टपेषण और वितण्डा-प्रपंच का विषय है। दान को गृहस्थाश्रम का विशिष्ट लक्षण या गुण बतलाया गया है, किंतु क्या कन्यादान पर्याप्त शास्त्रोक्त है? क्योंकि विवाह-संस्कार में कन्यादान का भाव दान के मूल प्रकारों में निहित नहीं है। वैसे अग्निपुराण में अवश्य महादान के तहत जो दस दान बतलाए हैं, उसमें वधू का दान उल्लिखित है। वहीं संस्कारकौस्तुभ में भी कन्यादान की छह विधियाँ वर्णित हैं। विवाह-संस्कार में वर पक्ष का जैसा वर्चस्व लोक में स्वीकृत है और उसके सम्मुख वधू पक्ष की जैसी गौण और विनयी छवि प्रचलित है, उसके मूल में- सुनने में भले कर्णकटु लगे- पुरुषसत्ता ही है। अश्वारोही वर में विजेता के भाव की प्रतिष्ठा की गई है। विवाह में गौरव और अभिमान वर पक्ष की भाव-भंगिमा में दृष्टव्य होता है, जबकि सम्बंध तो साम्य के धरातल पर ही सुफल हो सकते हैं। आख़िर कोई किसी से अपनी बिटिया ब्याहकर उऋण थोड़े ना होता है, ना ही वर वधू को स्वीकार करके उस पर कोई कृपा या उद्धार करता है। यह देने और स्वीकार करने की समूची भाषा ही दोषपूर्ण है। समय के साथ इन पर प्रश्न तो उठेंगे ही।
आपत्ति के मूल में एक मनोवैज्ञानिक विचलन यह है कि बौद्धिकों के द्वारा सुधार के आग्रह एक वर्ग से ही क्यों किये जाते हैं, दूसरे समुदायों से क्यों नहीं? तिस पर मैं कहूं कि यह आपत्ति तो अपनी जगह बिलकुल दुरुस्त है। आप देखेंगे कि कुरीतियाँ हर वर्ग में हैं, किंतु उदारपंथियों की कृपादृष्टि वृष्टि की भाँति सब पर समान रूप से नहीं बरसती। यह भेद-दृष्टि कलह रचती है, वहीं जड़ और दुराग्रही और उद्धत भी बनाती है। इसका समाधान यह है कि आपकी लोकरीतियों पर टीका-टिप्पणी करने वाले की मंशा कैसी है, यह दूसरी बात है, किंतु अगर उसकी मंशा में न्याय-भावना नहीं है, तब भी इससे एक ग़लत परिपाटी सही नहीं हो जाती। उसे तो अपने तईं स्वयं को संशोधित करना ही होगा। कोई समाज दूसरों से तुलना करके स्वयं को सुधारने से नहीं रोक सकता। वैसे सुधार तो सभी समुदायों को अपने भीतर लाने ही चाहिए।
मेरे निजी मत में यह हिन्दू-समाज के लिए सतर्क और सचेत होने का समय है, क्योंकि उसमें यह भावना विकसित हुई है या की जा रही है कि उसे आक्रामक होकर अस्मिता का संघर्ष करना होगा। यही तो झगड़े की जड़ है। यह भावना कि हमें अपमानित किया जा रहा है, हम पर प्रहार किया जा रहा है, उन्हें छोड़कर हम पर बात की जा रही है- धीरे-धीरे एक रूढ़ि बनती जा रही है, जो हिन्दू-समाज को उद्धत और अधीर बना रही है। बोध और चेतना के स्तर पर सजग रहने का यह समय है, क्योंकि मैं देख रहा हूँ ऐसे ही चलता रहा तो कालान्तर में सतीप्रथा और पशुबलि को भी उचित ठहराने के प्रयास किए जाने लगेंगे। हिन्दुओं में माँसाहार तो पहले ही बढ़ रहा है, जो मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा पापाचार है। बुराई से लड़ाई में स्वयं बुरा बन जाने के उदाहरणों से इतिहास पहले ही भरा पड़ा है।
आलिया भट्ट-अभिनीत विज्ञापन- जो इस लेख का आलम्बन है- में यह संदेश दिया गया है कि कन्यादान सही शब्द नहीं, उसके बजाय कन्यामान होना चाहिए, क्योंकि कन्या दान देने की वस्तु नहीं है, अव्वल तो वह वस्तु नहीं व्यक्ति है। यह बात तो सही है। इसकी आलोचना या विरोध करने का कोई कारण दिखलाई नहीं देता। समाज को इस हस्तक्षेप को स्वीकार करना चाहिए। विवाह और परिवार नामक संस्थाओं और लोकरीतियों का क्या मूल्य और महत्व है, वह पृथक-विषय है, उन पर प्रहार का आक्षेप लगाकर संवाद से नहीं बचना चाहिए। कन्यादान शब्द पर चर्चा करने से धर्म की अवमानना नहीं हो जावेगी, यह तो इस लेख में कही गई बातों के आलोक में अब स्वत:सिद्ध ही है। कन्या में मान की प्रतिष्ठा युगानुकूल आकांक्षा है, यह शीघ्र फलीभूत होवे। अस्तु।