देवदास और पारो : एक / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
रबींद्रनाथ ठाकुर का एक गीत है। उसका अंतर्निहित भाव कुछ कुछ इस प्रकार है :
सृष्टि का निर्माण पूर्ण हुआ। देवता अपलक उसे निहारते रहे। संपूर्ण कृति थी। कहीं एक रत्ती कमी नहीं। तभी एक देवता ने कहा : ‘अरे, वह तारा कहां है? वही तो सबसे विलक्षण था!’ सबसे विलक्षण तारा गुम था!
जब तक उसके खो जाने की प्रतीति नहीं थी, सब पूर्ण था! जैसे ही उसके खो जाने की प्रतीति हुई, सब अपूर्ण हो गया! पूरे का पूरा ‘तारामंडल’ अप्रासंगिक हो गया! जो एक तारा गुम गया, अब उसी का मोल था!
लगता है, जैसे सृष्टि का विस्तार उस एक खोए हुए तारे की खोज की आकुलता से ही हुआ हो! जो ‘तारा’ खो जाता है, वही तो सबसे मूल्यवान होता है! देवदास के लिए ‘पारो’ वही खोया हुआ तारा थी!
दो गर्वीले लोग जब प्रेम करते हैं, तो वो उस खोए हुए तारे को खोज रहे होते हैं। वो उससे कम पर राज़ी नहीं होते। और चूंकि वह तारा खो चुका है, अब केवल उसका अभाव है, इसलिए वे स्वयं को वेदना में झोंक देते हैं।
स्त्री अपनी तरह से ऐसा करती है, पुरुष अपने तरह से ऐसा करता है।
पारो ने परपुरुष से विवाह करके वैसा किया। देवदास ने आत्मध्वंस करके वैसा किया।
देवदास के आत्मनाश में फिर भी ‘अहंकार’ था। पारो के आत्मनाश में फिर भी ‘जीवेषणा’ थी।
पहले पारो ही तो देवदास के पास अपना प्रेम लेकर गई थी। और उसने उसे लौटा दिया था। इतना तो निश्चित है कि देवदास प्रेमी नहीं है। परंपरा से ही देवदास को एक उदात्त प्रेमी की तरह देखने की भूल की जाती रही है। किंतु वह प्रियम्वद नहीं है। वह पारो पर अपना ‘अधिकार’ मानता है। उसके द्वारा बाल्यावस्था से ही जीता हुआ कोई ‘उपनिवेश’। उसे पाने के संतोष से अधिक उसको खोने का विषाद उसको खलता है। यह एक विशुद्ध ‘पुरुष दृष्टि’ है। जीतने की भाषा में सोचना!
पारो आधी रात को अपना सर्वस्व लेकर उसके पास आती है, वो उसको लौटा देता है। पारो लौट आती है। उसके ‘आत्मगौरव’ को ठेस पहुंचती है।
पारो बहुत ‘गर्वीली’ है। देवदास में भी उच्च कुलीन होने का ‘दर्प’ है, लेकिन पारो का आत्मगौरव देवदास से बड़ा है। इसीलिए उसका आत्मनाश भी बड़ा है। उसमें मरने तक की सुविधा नहीं!
पारो ‘तिष्यरक्षिता’ की तरह है। वह इस बात को स्वीकार नहीं कर सकती है कि उसके प्रणय प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया। स्त्री के लिए वह बहुत कठिन होता है!
पारो लौटती है तो देवदास के पास फिर लौटकर जाने का कोई उपाय नहीं छोड़ती। वह लौटने के तमाम पुलों को तोड़कर चली जाती है।
इधर, देवदास को अब लगता है कि उसने भूल कर दी। यह एक पुरुष का ‘अन्यमनस्क’ चित्त है। प्रीति, लगाव, अनुराग और स्नेह उसके मन में पारो के प्रति हमेशा से ही था, एक क़िस्म का अधिकार-बोध था, किंतु जब तक पारो ने उस प्रीति को पुकारा नहीं था, अपनी आग्रहपूर्ण चेष्टा से प्रेम की एक भंगिमा नहीं दी थी, तब तक वह उससे अनभिज्ञ ही था।
अब सहसा, उसके मन में अनुराग जाग उठता है। यह स्वाभाविक प्रेम नहीं है। यह पुकारे जाने पर जागने वाला लगाव है। इसके मूल में स्वयं के विशिष्ट होने का अभिमान है। यह अधिकार के बोध से उपजी प्रीति है कि एक स्त्री उसे अपना ईष्ट स्वीकार कर चुकी है।
किंतु पारो तो जा चुकी!
देवदास के मन में पारो के प्रति अनुराग की भावना ऐन उसी क्षण में जागती है, जिस क्षण में पारो हमेशा के लिए देवदास को त्याग देने का निर्णय कर लेती है। शायद रात और दिन की तरह इन दोनों को कभी मिलना नहीं था।
देवदास का आत्मध्वंस पारो के उस अभाव का परिणाम है, जो उसने स्वयं एक असावधान क्षण में रचा था। यह उसका स्वयं से प्रतिशोध है। सवाल स्त्री को प्राप्त करने का नहीं है, देवदास को स्त्री की भूख नहीं। उसे संताप उस एक सितारे का है, जो कि उसका था, उसके पास था, लेकिन उसने उसे गंवा दिया!
देवदास की वेदना ये नहीं है कि पारो उसे नहीं मिली, उसकी वेदना ये है कि पारो का नहीं मिलना उसे मिला, और अब वो नहीं जानता कि इस नहीं मिलने को अपने भीतर कहां रखे!
पारो वह तारा है, जो खो गया है। जब तक उसके खोने की प्रतीति नहीं थी, सबकुछ पूर्ण था। जैसे ही उसके खोने की चेतना हुई, सबकुछ अधूरा रह गया। इतना अधूरा कि इसे आत्मोत्सर्ग से ही पूर्ण किया जा सकता था!
मैं देवदास और पारो को पुरुष और स्त्री के दो प्रतिनिधि रूपकों की तरह देखता हूं!
देवदास से मुझे लगाव है। वह अहंमन्य था, आत्मनाश को उद्यत, जो मिल गया उसे नाकुछ, जो खो गया उसको सर्वस्व समझने वाला अन्यमनस्क!
वीर पुरुष महाकाव्यों का निर्माण करते हैं। और अन्यमनस्क नायक महान आख्यानों का!