देवदास और पारो : दो / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
साहिर साहब ने बहुत गहरी बात कही है-
‘तेरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल लेकिन
तेरे सुक़ून से बेचैन हो गया हूं मैं।’
मंज़र ये है कि आशिक़ था और माशूक़ा थी। दोनों ने प्यार किया था। फिर जैसा कि होता है, रास्ते जुदा हो गए। माशूक़ा ने मेहंदी रचा ली। बरसों बाद महबूब से कहीं टकरा गई। महबूब ने देखा कि वो ख़ुश है। सुक़ून से जी रही है। उसका वह सुक़ून शायर को खटक गया, जितनी उसकी तड़प कभी नहीं चुभी थी।
सुक़ून से बेचैन? तो क्या शायर यह चाहता था कि वो सुक़ून से ना रहे?
नहीं, वैसा तो नहीं है। विदा के वक़्त दुआओं में शायर ने यही चाहा होगा कि तुम हमेशा ख़ुश रहना। यह दुआ फल जाए, यह ख़याल भी मन में रहा ही होगा। झूठ-मूठ दुआ नहीं की होगी। कोई प्यार करने वाला नहीं करता।
तब भी, जिसे कभी चाहा हो, उसे ग़ैर के साथ ख़ुश देखकर तकलीफ़ होती है। जबकि ऐसा भी नहीं है कि उसे परेशां हाल देखकर ही दिल को कोई बहुत तसल्ली मिल जाती।
इंसान का दिल बहुत पेचीदा शै होती है।
‘तेरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल लेकिन
तेरे सुक़ून से बेचैन हो गया हूं मैं।’
जैसे देवदास पारो के सुक़ून से बेचैन हो गया था।
देवदास समझ नहीं पाया कि क्या हुआ। पारो चुपचाप ब्याह करके चली गई, एक बार भी रोई नहीं, कम से कम उसके सामने तो नहीं। देवदास को पारो का वह सुक़ून खटक गया। एक विशेषाधिकार जो वह उस पर अपना समझता था।
पारो ने देवदास के लिए अपना प्रेम बचाकर रखा था, एक-दो साल नहीं, सालों-साल, बचपन से लेकर तरुणाई तक, और फिर एक दिन उसने वह पूंजी ले जाकर हाथीपोता गांव के भुवन चौधरी महाशय को सौंप दी! बस ऐसे ही। जैसे इस सबका कोई मोल ही ना हो!
देवदास का अधिकारबोध निमिषभर में खेत रहता है!
अभी अभी पारो यहां थी, अभी चली गई, और ऐसी गई कि अब कभी लौटेगी नहीं, इस अभाव को वह कैसे पूरे? दिल की खोह में ऐसा क्या रख दे कि उसकी गूंज मर जाए?
देवदास मर रहा है, पारो बहुत शांत-संयत है। देवदास को पारो की वह प्रतिमा खटक जाती है। बेंत मारकर उसके माथे पर निशान बना देता है। चंद्रमा पर दाग़। वो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि पारो को अब किसी बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता।
देवदास के भीतर एक केंद्र था, जो डिग गया। जैसे ही वो केंद्र डिगा, उसके अस्तित्व का महल ढह गया। यह केंद्र था-- पारो के प्रति उसकी अधिकार चेतना! यह सम्भव ही नहीं था कि पारो कहीं और चली जाती, और ऐन यही हो गया था!
जो पारो एक बार देवदास से रोकर-सिसककर मिल लेती तो शायद वह मरने से बच जाता।
ये और बात है कि देवदास यह कभी नहीं चाहेगा कि पारो की आंख में आंसू आएं। या शायद वो ख़ुद से यही कहेगा कि वो ऐसा नहीं चाहता! कौन जाने!
इंसान का दिल कोई कम पेचीदा शै नहीं होती, इसके राज़ समझना मुश्क़िल है।
लेकिन साहिर साहब ने बहुत ही गहरी बात कही, मनुज के मन का रहस्य गांठ की तरह खोलकर सामने रख दिया, और वो भी कैसी लज़्ज़त से, कैसे तरन्नुम में-
‘किसी की हो के तू इस तरह मेरे घर आई
कि जैसे फिर कभी आए तो घर मिले न मिले
नज़र उठाई मगर ऐसी बे-यक़ीनी से
कि जिस तरह कोई पेश-ए-नज़र मिले न मिले
तू मुस्कुराई मगर मुस्कुरा के रुक सी गई
कि मुस्कुराने से ग़म की ख़बर मिले न मिले।
रुकी तो ऐसे कि जैसे तिरी रियाज़त को
अब इस समर से ज़ियादा समर मिले न मिले
गई तो सोग़ में डूबे क़दम ये कह के गए
सफ़र है शर्त शरीक-ए-सफ़र मिले न मिले!’