देवदास और पारो : तीन / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
देवदास की वेदना ये नहीं है कि पारो उसे नहीं मिली।
देवदास की वेदना ये है कि पारो का नहीं मिलना उसे मिला!
और अब वो नहीं जानता कि पारो के नहीं मिलने को अपने भीतर कहां रखे!
देवदास स्वयं को मिटाकर पारो के अभाव का समकक्ष होना चाहता है, यही कुल कहानी है!
देवदास प्रेमी उतना नहीं है जितना कि विरही है। और हठ उसके भीतर बहुत है : ‘चंद्र खिलौना लैंहो’ वाला।
चंद्रमा ही चाहिए। चंद्रमुखी नहीं।
और अपनी चंद्रमा के माथे पर एक दाग़ वह छोड़ जाएगा, कि जाओ इस भेंट को शिरोधार्य करो!
पारो देवदास के पास ‘प्रणयिनी’ बनकर गई थी। उसे देवदास के पास उसकी ‘मां’ बनकर लौट आना था।
किंतु दर्प! और आहत अहं!
दो गर्वीले जब प्रेम करते हैं तो गर्व उनके प्रेम त्रिकोण की तीसरी भुजा होता है।
देवदास-पारो-चंद्रमुखी, यह प्रेम त्रिकोण नहीं है। देवदास-पारो-आत्मगौरव, यह प्रेम त्रिकोण है!
एक चंद्रमुखी में ही आत्मगौरव नहीं है।
एक वही प्रेम करना जानती है!