शबाना / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
इतनी सिने तारिकाओं की भीड़ में शबाना को कैसे पहचानें, उन्हें कैसे खोजें, कहाँ पाएँ? वास्तव में यह बिलकुल भी कठिन नहीं, क्योंकि शबाना हमेशा वहाँ मौजूद हैं। वह हमेशा प्रस्तुत हैं। मसलन, दीप्ति नवल में जो स्वाभाविक निस्संगता है, उचाटपन, अनिच्छुकता है, और स्मिता जैसी स्वाभिमानिनी और जैसी विद्रोहिनी हैं, शबाना उनसे भिन्न है। वह इनकी तुलना में कहीं स्नेहल-प्रेमिल हैं, समर्पिता हैं। स्वयं को सौंप देने के लिए तत्पर। ईश्वर ने इस स्त्री को जैसे प्रेम देने के लिए ही बनाया था। अति तो यह है कि 'अंकुर' और 'निशान्त' में 'वर्गशत्रु' के प्रति भी वह प्रेमिल हैं, बशर्ते प्रेम किया जाए और अधिकार दिया जाए। वह हमेशा वहाँ, उस बिंदु पर मौजूद हैं, जहाँ पर आप उन्हें खोजना चाहते थे।
याद कीजिए, मृणाल सेन की फ़िल्म 'खंडहर', जिसमें वह हमेशा छज्जे पर, झरोखों में, देहरी पर प्रस्तुत और उपस्थित जान पड़ती हैं- वरण और हरण तक के लिए तैयार! प्रेम उनकी धुरी है। प्रेम कर पाना उनकी सबसे बड़ी आकांक्षा। 'अर्थ' में उनकी पीड़ा ही यही है कि प्रेम करने के अधिकार को उनसे छीना जा रहा है। 'स्पर्श' में देखिए, प्रेम देने के लिए वह कितनी उद्यत हैं। 'पार' में भीषण दुर्दैव के बावजूद वह कुंठित और अवरुद्ध नहीं होतीं, उलटे और कोमल व निष्कवच हो जाती हैं। वह अधिकार देकर अधिकार पाती हैं। आवेग को अपनी देह पर अंगीकार करती हैं। और अपने पुरुष को उलाहना देने से कभी पीछे नहीं हटतीं। 'निशान्त' में गिरीश कर्नाड, 'अंकुर' में अनंत नाग, 'अर्थ' में कुलभूषण खरबंदा और 'स्पर्श' में नसीर को उन्होंने जैसे उलाहने दिए, उन्हें कौन भूल सकता है? वह अपने नायकों को अपने अधिकार के बोध से निस्तेज करने में सक्षम हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वह प्रेम करने में सक्षम हैं।
एक स्त्री जब प्रेम में डूबती है, तो स्वयं को सौंप देना चाहती है। एक पुरुष जब प्रेम में डूबता है, तो सोचने लगता है कि क्या वह कभी प्रेमिका को प्राप्त कर भी सकता है? कहीं वह उसे खो तो नहीं रहा? शबाना की फ़िल्मों में अगर उनके नायक उनके समक्ष इसी तरह की ऊभचूभ में नज़र आते हैं, तो यह शबाना की अभिनेत्री से बढ़कर उनकी स्त्री का ही यश है।
शबाना और स्मिता के बीच अकसर तुलना की जाती है। अस्सी के दशक में तो यह स्थिति निर्मित हो गई थी कि ये दोनों अभिनेत्रियाँ सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार बारी-बारी से अपनी झोली में डाल रही थीं। 'खंडहर' और 'पार' के लिए शबाना ने राष्ट्रीय पुरस्कार जीता, तो 'भूमिका' और 'चक्र' के लिए स्मिता ने। 'अर्थ' में दोनों आमने-सामने थीं और मुक़ाबला बराबरी का था, लेकिन राष्ट्रीय पुरस्कार शबाना के खाते में गया। कहने वाले कहते हैं कि उसमें स्मिता का अभिनय अधिक प्रखर और तीव्र था, लेकिन अन्तत: वह शबाना की फ़िल्म है।
स्मिता कहती हैं, "मैं ऐन तुम्हारी आँखों के सामने हूँ, पर तुम मुझे कभी हासिल नहीं कर पाओगे।"
और शबाना कहती हैं, "मैं तुम्हारी हूँ- पूरी की पूरी- बशर्ते तुम भी केवल मेरे!”
इन दो वाक्यों में समूचा स्मिता-शबाना द्वैत आ गया है!