सुचित्रा / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
सुचित्रा सेन की अपरिभाषेय रूप-छवि के बारे में सोचते हुए हमेशा किसी भूमिगत नदी की याद आती है। भूमिगत धाराओं की थाह पाना तो दूर, उनकी टोह लगा पाना भी सुगम नहीं होता। आत्म-विलोपन का यही वह दुर्लभ गुण है, जिसने सुचित्रा सेन को एक पहेली बना दिया था। सुचित्रा ने एक बार कहा था, “मैं एक अभिनेत्री हूँ, आप मुझे परदे के सिवा और कहीं नहीं पा सकते।”यह सच है। आज सुचित्रा के बारे में सोचें, तो पारो याद आती है, माया याद आती है, अर्चना और आरती याद आती हैं, लेकिन सुचित्रा तक हम नहीं पहुँच पाते। वह अपने भीतर बहती गुप्तधारा-सी थीं, त्वचा के तट पर उन्हें नहीं पाया जा सकता था।
सुचित्रा ने परदे पर एक 'अभिमानिनी' नायिका के रूपक को साकार किया था। यह ऐसी नायिका थी, जो आत्मोत्सर्ग में सक्षम थी, किन्तु इसमें भी उसका तीक्ष्ण आत्मचेतस एक अपूर्व कांति से दीपता था। ' कनुप्रिया' की तरह वह प्रेम करने में समर्थ थी तो उलाहना देने में भी। 'देवदास' में पारो की भूमिका निभाना जैसे उनकी नियति थी। पारो का आहत अहं 'देवदास' की अन्तर्कथा है। याद करें वह दृश्य, जब पारो स्वयं को देवदास को सौंप देने के लिए उसके पास जाती है और देवदास उसे लौटा देता है। पारो का समूचा शेष-जीवन लौटने के इस क्षण का उत्तर-आख्यान है। देवदास की मृत्यु शराबनोशी से नहीं, पारो के उस अभाव से हुई थी, जिसे ख़ुद उसने अपने एक असावधान निर्णय से रचा था। वह एक दोहरा ध्वंस था।
फिर, गुलज़ार की फ़िल्म 'आँधी' में सुचित्रा अभिमानिनी नायिका के इस रूपक को और आगे ले गईं। फिल्म में आरती देवी के पास एक दृढ़ देहभाषा है, जिसमें 'नो-नॉनसेंस' की एक लगभग एरोगेंट चेतावनी है। किन्तु 'नौ बरस लम्बी अमावस ' को वह तब भी नहीं भूलतीं। इस लम्बी अमावस के तमाम खोए हुए चंद्रमा उनकी आँखों के एक क़तरे में चमकते हैं, किन्तु उनका आत्माभिमान यथावत रहता है।
सन् 47 में दिबानाथ सेन से ब्याह रचाने के पाँच वर्ष बाद सुचित्रा ने सिनेमा की दुनिया में प्रवेश किया और सफलतम पारी खेली। लेकिन 1978 में 'प्रोणोय पाश' करने के बाद सिनेमा की दुनिया को उन्होंने अलविदा कहा, तो उसके बाद सार्वजनिक रूप से कभी नजर नहीं आईं। वर्ष 2005 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार का प्रस्ताव उन्होंने महज़ इसीलिए ठुकरा दिया, क्योंकि इसके लिए उन्हें कोलकाता छोड़कर दिल्ली जाना पड़ता। राज कपूर की एक फ़िल्म में काम करने का प्रस्ताव इसलिए ठुकराया, क्योंकि राज कपूर द्वारा झुककर फूल देने का तरीक़ा उन्हें पसंद नहीं आया था। सत्यजित राय उन्हें लेकर 'देवी चौधुरानी' बनाना चाहते थे, लेकिन सुचित्रा द्वारा इनकार करने के बाद उन्होंने यह फ़िल्म बनाने का विचार ही त्याग दिया! ( अभिनेताओं के प्रति ऐसा आग्रह राय का शगल था। वह अकसर कहते थे कि यदि छोबी बिस्वास उनकी फ़िल्म 'जलसाघर' में काम करने से इनकार कर देते, तो यह फ़िल्म कभी नहीं बनाते।)
उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की जोड़ी एक ज़माने में बांग्ला सिनेमा की सबसे लुभावनी जोड़ी थी। इन दोनों ने 'अग्निपरीक्षा', 'शाप मोचन', 'इंद्राणी', 'सप्तपदी' जैसी यादगार फ़िल्मों में काम किया। यह एक गर्वीला युगल था- अभिजात और आत्मचेतना से भरपूर। इसकी तुलना 'अपुर संसार' और 'देवी' जैसी फ़िल्मों में सौमित्र चटर्जी और शर्मिला ठाकुर की जोड़ी से करें- एक सजल-माधुर्य जिनके प्रणय की अन्तर्वस्तु रही। यह रोचक है कि सौमित्र चटर्जी 'चारुलता' और 'कापुरुष' में माधबी मुखर्जी के सम्मुख निष्प्रभ नजर आते हैं, जबकि उत्तम कुमार के साथ ढेरों हिट फ़िल्में देने वालीं सुचित्रा सेन अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका का निर्वाह सौमित्र चटर्जी के समक्ष 'सात पाके बाँधा' में करती हैं। पूछा जा सकता है कि क्या सौम्य सौमित्र और गर्वीली सुचित्रा रुपहले परदे पर एक-दूसरे के अधिक ग्रंथिपूर्ण पूरक नहीं बनते? यह अकारण नहीं है कि बिमल रॉय की 'देवदास' में सौमित्र सरीखे ही अन्तर्मुखी नायक दिलीप कुमार के समक्ष सुचित्रा की आभा निखर उठती है।
ब्रितानी फ़िल्म समालोचक डेरेक मैल्कम ने कहा था, "सुचित्रा के व्यक्तित्व में ऐसा जादू है कि उन्हें कैमरे के सामने अभिनय करने की आवश्यकता ही नहीं है! उनमें एक अपिरभाषेय ठहराव है!” कौन जाने, इस ठहराव के भीतर एक उद्दाम प्रवाह भी हो! भूमिगत धाराओं का विलुप्त हो जाना एक धोखादेह मिथक है, जिसका रंज मनाने की कोई तुक नहीं। सुचित्रा के द्वारा निभाए चरित्रों को हम कभी भुला नहीं सकते और शायद इसीलिए उनके भीतर अन्तर्धारा-सी मौजूद सुचित्रा को भी नहीं।