गुलज़ार का हास्यबोध / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित

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गुलज़ार का हास्यबोध
सुशोभित


गुलज़ार की संजीदा शख़्सियत और शायराना मिज़ाज की इतनी चर्चा हुई है कि उनके हास्यबोध की अकसर अनदेखी कर दी जाती है। जबकि उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर आला दर्जे का है। अपनी फ़िल्म 'अंगूर' में उन्होंने शेक्सपीयर को आँख दबाते हुए दर्शाया था, क्योंकि फ़िल्म ही शेक्सपीयर की 'कॉमेडी ऑफ़ एरर्स' पर आधारित थी। लेकिन देखें तो स्वयं गुलज़ार अपने चौड़े फ्रेम के चश्मे के पीछे बहुधा आँख दबाते मालूम हो सकते हैं- एक अदृश्य-सी आईविंक उनकी अनेक करामातों से झाँकती है। यह सबसे ज़्यादा उनके स्क्रीनप्ले या संवाद-लेखन में दिखता है। मिसाल के तौर पर हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म 'बावर्ची' का आरम्भिक दृश्य याद करें। वयोवृद्ध हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय को बड़े सवेरे चाय की तलब लगी है, किन्तु महाराज नौकरी छोड़कर भाग गया है। वह पुकारते हैं, “मुन्ना, ओ मुन्ना!“ मुन्ना सो रहा होता है और यह शोर सुनकर चादर हटाकर जाग उठता है। यह मुन्ना कौन है? ये उनके सुपुत्र ए.के. हंगल हैं, जो स्वयं अब रिटायरमेंट की उम्र के हो चुके हैं। यह गुलज़ार का टिपिकल सॉफ़्ट-ह्यूमर है। जिन फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने किया है, या जिनके संवाद उन्होंने लिखे हैं, उसमें वह ऐसी ही बारीक़ तुरपाई करते हैं। 'बावर्ची' में ही जब राजेश खन्ना अपने विभिन्न उस्तादों से मिली विद्या का वर्णन करते हैं, तो वह गुलज़ार की डिटेलिंग का एक नमूना है।

1971 की फ़िल्म है 'गुड्डी'। इसमें किशोरी जया भादुड़ी का संवाद है, "हेडमास्टर के सामने आज तो रोने-धोने की ऐसी एक्टिंग करी कि मीना कुमारी की छुट्टी कर दी!“ मुझे पूरा यक़ीन है, इस संवाद पर गुलज़ार और मीना ने मिलकर ख़ूब ठहाके लगाए होंगे। उस समय गुलज़ार और मीना में गहरी मैत्री थी। 1971 में ही गुलज़ार की निर्देशक के रूप में पहली फ़िल्म 'मेरे अपने' आई थी, जिसमें मीना की मुख्य भूमिका थी। 'मेरे अपने' में महमूद ने एक भ्रष्ट नेता का कैमियो किया था। उससे जो तराशे हुए संवाद गुलज़ार ने बुलवाए हैं, उन्हें कभी सुनिएगा। गुलज़ार और महमूद का वह मणिकांचन-संयोग है। 'मेरे अपने' के अनेक दृश्यों में हम फ़िल्म ‘आनंद' के पोस्टर शहर की गलियों में लगे देखते हैं। गुलज़ार यहाँ एक काउंटर-रेफ़रेंस के ज़रिये अपने ही संवादों से सजी एक अन्य फ़िल्म को प्रचारित भी कर देते हैं।

लिहाज़ा, अब 'आनंद' की बात करें। पूरी फ़िल्म ही सहज और निर्मल-हास्य की फुलझड़ियों से भरी है। जैसे कि दारा सिंह और असित सेन के साथ फ़िल्माए गए राजेश खन्ना के दृश्य। या फिर जॉनी वॉकर को मुरारीलाल कहकर उनकी पीठ पर राजेश खन्ना के द्वारा धौल जमाना और तू डाल-डाल, मैं पात-पात की तर्ज़ पर जॉनी वॉकर का इस स्वांग में सम्मिलित हो जाना। एक त्रासद-अन्त वाली फ़िल्म में ऐसे स्वस्थ-हास्य के दृश्य रचना गुलज़ार की प्रतिभा थी। उनके बिना हृषिकेश की फ़िल्में अधूरी जान पड़ती थीं।

गुलज़ार-हृषिकेश युग्म की एक अन्य फ़िल्म है 'चुपके-चुपके', जिसमें गुलज़ार ने अपने भाषाशास्त्रीय ज्ञान का प्रयोग हास्य-दृश्यों में किया है। यह फ़िल्म अब व्यूअर्स-फ़ेवरेट बन चुकी है। अलबत्ता धर्मेन्द्र वहाँ मुझे निजी रूप से मिसफ़िट जान पड़ते हैं, क्योंकि राजेश खन्ना या परवर्ती कलाकार अमोल पालेकर के एफ़र्टलेस-माधुर्य और इनोसेंस के उलट धर्मेन्द्र के हावभाव में एक क़िस्म की रॉ सेक्शुएलिटी उस फ़िल्म में प्रदर्शित हुई है, जो चित्र के भावबोध के अनुरूप नहीं। किन्तु अमिताभ बच्चन ने 'चुपके-चुपके' में एकदम सधे हुए सुर लगाए हैं। संवाद अदायगी की टाइमिंग परफ़ेक्ट है। यही 1975 का साल था, जिसमें अमिताभ-हृषिकेश की जोड़ी ने एक अन्य फ़िल्म 'मिली' में एक भिन्न ही नायक को प्रस्तुत किया था। अमिताभ करिश्माई शख़्सियत वाले बहुत प्रतिभाशाली और संवेदनशील अभिनेता रहे हैं, जिन्हें उनकी अपार सफलता ने ही लील लिया था, 80 के दशक के स्टीरियोटाइप्स में।

लेकिन यहाँ हम गुलज़ार की बात कर रहे हैं। गुलज़ार का हास्यबोध इतना परिष्कृत है कि यह नियत था कि वह चिल्ड्रेन्स फ़िक्शन पर काम करते। उन्होंने बाल-फ़िल्म 'किताब' बनाई है। 'परिचय' और 'मासूम' में भी बचपन के बहुत संदर्भ हैं। गीतकार के रूप में गुलज़ार ने बाल-साहित्य के दो अमर गीत लिखे हैं- “लकड़ी की काठी” और "चड्डी पहनके फूल खिला है!“ 'जंगल बुक' धारावाहिक 1989 में दूरदर्शन के स्वर्णकाल में प्रसारित हुआ था। गुलज़ार के लिरिक्स ने तब ज़माना जीत लिया था- 'एक परिन्दा था शर्मिन्दा था वो नंगा, इससे तो अण्डे के अन्दर था वो चंगा’- यह एक अलग ही श्रेणी का पर्सेप्टिव माइंड है, जो रोज़-रोज़ दिखलाई नहीं देता। गुलज़ार ने अन्यत्र 'पाजी नज़्में' भी लिखी हैं। वह पंजाबी हैं। एक क़िस्म का 'पाजीपन' उनके ह्यूमर से बराबर बरामद होता है। एक 'पाजी नज़्म' में गुलज़ार ने ईश्वर से कहा था, "इक ज़रा छींक ही दो तुम तो यक़ीं आए कि सब देख रहे हो” (क्योंकि पुजारी धूप दे रहा है, धुआँ कर रहा है, दिया-बत्ती के हज़ार खटकरम हैं!) ईश्वर से छींक देने की फ़रमाइश करने वाले कवि का यह बाँकपन देखते हैं? यह गुलज़ार का सिग्नेचर स्टाइल है।

गुलज़ार शाइर हैं, मुसव्विर भी हैं, फ़िल्मसाज़ हैं, आवाज़ से अदायगी करते हैं। लेकिन गुलज़ार में लतीफ़े कहने की जो फ़ितरत है, उस पर सिनेमा के किसी आलिम को तबीयत से बैठकर एक दिन रिसर्च ज़रूर करनी चाहिए। दावे से कहता हूँ, सफ़ेद कुर्ता पहनने वाले इस बाबा की पोटली से हज़ार नगीने निकलेंगे!