एक समान्तर शशि कपूर / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
एक समान्तर शशि कपूर
सुशोभित


मुख्यधारा के लोकप्रिय अभिनेता शशि कपूर का समान्तर सिनेमा से ताल्लुक़ अपने में एक रोचक कथा है। 1970 के दशक में शशि कपूर भारत के सबसे व्यस्त अभिनेताओं में से एक थे। वह अनेक शिफ़्टों में काम करते थे। वास्तव में कई शिफ्टों में एक साथ बहुत सारी फ़िल्मों में काम करने की तरक़ीब शशि ने ही निकाली थी। उनके बड़े भाई राज कपूर इस बात से नाराज़ रहते थे और उन्हें 'टैक्सी' कहकर पुकारते थे। कारण, शशि हमेशा ही एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो तक शूटिंग के लिए यात्रा करते पाए जाते थे। 1974 में आई उनकी फ़िल्म 'चोर मचाए शोर' बहुत बड़ी हिट साबित हुई थी। उसके बाद उस समय के सबसे लोकप्रिय अभिनेता अमिताभ बच्चन के साथ उन्होंने जोड़ी जमाई ( इस युति को 'शशिताभ ' कहकर पुकारा गया) और सह-अभिनेता के रूप में बहुत सारी फ़िल्मों में काम किया। इनमें 'रोटी कपड़ा और मकान', 'दीवार', 'त्रिशूल', 'कभी-कभी', 'काला पत्थर', 'सुहाग', 'नमक हलाल' आदि प्रमुख थीं। ये सभी बहुत क़ामयाब फ़िल्में थीं। शशि कपूर के नाम का डंका बज रहा था।

और इसके बावजूद वह ख़ुश नहीं थे, चिड़चिड़े और बेसब्र हो गए थे। वह जानते थे कि लोकप्रिय सिनेमा के दुष्चक्र में फँस गए हैं और इस फेर में स्तरहीन फ़िल्में भी करने लगे हैं। इनमें से कुछ फ़िल्में तो इतनी बुरी थीं कि उनकी बेटी संजना ने भी उन पर शर्मिंदगी जताई थी। उन्होंने अपनी माँ जेनिफ़र से पूछा- पापा ऐसी फ़िल्में कैसे कर सकते हैं? माँ ने सफ़ाई देते हुए कहा- क्योंकि पापा को पैसा कमाना पड़ता है। लेकिन यह उत्तर ख़ुद शशि कपूर को संतुष्ट नहीं कर सकता था। उन्होंने जेनिफ़र से अपनी पीड़ा साझा की। उन्होंने कहा- मैं बहुत सफल हूँ, लेकिन मन का काम नहीं कर पा रहा हूँ। जैसी फ़िल्में चल जाती हैं, वैसे ही रोल मुझे मिलने लगते हैं। इस पर जेनिफ़र ने दोटूक कहा- अगर कोई तुम्हें अपनी पसंद का रोल नहीं दे रहा है, तो ख़ुद अपने लिए अच्छी फ़िल्में बनाओ। शशि को यह बात जँच गई।

बहुत अरसे से शशि के मन में फ़िल्म-निर्माता बनने का सपना था। अपने भाई राज कपूर की ही तरह वह केवल स्टार ही नहीं, अभिनेता और फ़िल्ममेकर के रूप में भी प्रतिष्ठित होना चाहते थे। उन्होंने तय किया कि वह उस समय बॉलिवुड में बन रही मसाला-फ़िल्मों से हटकर सार्थक, कलात्मक फ़िल्में बनाएँगे। यह 1970 के दशक का उत्तरार्द्ध था और समान्तर सिनेमा आन्दोलन जोर पकड़ चुका था। श्याम बेनेगल उसके अगुवा थे। शशि ने श्याम से सम्पर्क किया। श्याम के पास एक कहानी थी, जो रस्किन बॉन्ड के उपन्यास 'अ फ़्लाइट ऑफ़ पिजन्स' पर आधारित थी। 1857 के ग़दर की पृष्ठभूमि पर आधारित यह कहानी शशि को बहुत पसंद आई और उन्होंने इस परियोजना में न केवल धन लगाना स्वीकार किया, बल्कि मुख्य अभिनेता के रूप में काम करने का भी प्रस्ताव रखा। श्याम बेनेगल के लिए तो यह मुँहमाँगी मुराद थी। इस तरह वर्ष 1979 में 'जुनून' बनाई गई। फ़िल्म में न केवल शशि और उनकी पत्नी जेनिफ़र मुख्य भूमिकाओं में थे, बल्कि जेनिफ़र के पिता जैफ्री केंडल और शशि-जेनिफ़र की संतानों कुणाल, करन और संजना ने भी इसमें बाल-कलाकारों के रूप में अभिनय किया। इस तरह समान्तर सिनेमा के एक फ़िल्मकार के लिए शशि ने न केवल अपनी पूँजी और सितारा हैसियत का निवेश किया, बल्कि उनकी फ़िल्म से एक निजी, पारिवारिक और आत्मीय राब्ता भी क़ायम किया।

'जुनून' ने शशि को वह रचनात्मक-संतोष दिया, जिसके लिए वह बॉलिवुड की मुख्यधारा में तरस रहे थे। 'जुनून' ने सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता और फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी। निर्माता के रूप में शशि कपूर ने दोनों पुरस्कार स्वीकार किए। उन्हें रौशनी नज़र आई। इसके बाद उन्होंने निर्माता-अभिनेता के रूप में श्याम बेनेगल की ही 'कलयुग', गोविंद निहलानी की 'विजेता' और गिरीश कर्नाड की 'उत्सव' में भी सहभागिता की। वहीं अपर्णा सेन की '36 चौरंगी लेन ' में उन्होंने धन लगाया और अपर्णा को काम करने की पूरी स्वतंत्रता दी। 'कलयुग' ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता था। वहीं ' 36 चौरंगी लेन' को तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिले और उसे बाफ़्टा में भी पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। कालान्तर में ‘न्यू देल्ही टाइम्स' के लिए शशि कपूर ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। शशि को एक कलाकार के रूप में पूर्णता का अनुभव हुआ। कलात्मक-उत्कर्ष के लिए ऐसी तड़प कपूरों में प्राय: नहीं पाई गई थी। राज कपूर की दो फ़िल्मों ('श्री 420' और 'जिस देश में गंगा बहती है ') ने राष्ट्रीय पुरस्कार जीते थे, लेकिन राज कपूर उसके लिए बेचैन नहीं थे। शम्मी कपूर और ऋषि कपूर ने कभी कला-सिनेमा की परवाह नहीं की, फिर रणधीर, राजीव और कपूरों की चौथी पीढ़ी की बात तो रहने ही दें। शशि इकलौते ऐसे कपूर थे, जो व्यावसायिक सफलता नहीं, रचनात्मक-संतोष के लिए विकलते थे।

इसकी भी एक पृष्ठभूमि थी। शशि थिएटर से शुरू से जुड़े थे। यही कारण था कि कपूरों में से केवल शशि ने ही पृथ्वी थिएटर बनाने की सोची और रंगमंच के क्षेत्र में अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के योगदान को जारी रखने का निर्णय लिया। वह पत्नी जेनिफ़र और श्वसुर जैनी के साथ शेक्सपीयरियन थिएटर करते थे। युवावस्था में शशि कपूर मर्चेंट-आइवरी की अनेक अन्तरराष्ट्रीय अंग्रेज़ी फ़िल्मों में भी अभिनय कर चुके थे, जिनमें 'द हाउसहोल्डर', 'शेक्सपीयरवाला', 'बॉम्बे टॉकी', 'हीट एंड डस्ट' शामिल थीं। वास्तव में 'शेक्सपीयरवाला' तो थिएटर और बॉलिवुड के टकराव पर ही आधारित थी। जैफ्री केंडल के जीवन से प्रेरित इस फ़िल्म में 1960 के दशक में भारत के कोने-कोने में घूमकर शेक्सपीयर के ड्रामा का मंचन करने वाले एक नाट्य-समूह की कथा थी, जिसके अस्तित्व को बॉलिवुड की बढ़ती लोकप्रियता संकट में डाल देती है। फ़िल्म में थिएटर को श्रेष्ठ कला और लोकप्रिय सिनेमा को फूहड़, चलताऊ मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत किया गया था। और नायक के रूप में शशि कपूर का दिल बेशक़ 'शेक्सपीयरवालों' के साथ था!

ऐसे में क्या आश्चर्य कि मुख्यधारा की फ़िल्मों में सफलता अर्जित करने के बावजूद शशि कपूर ने बाद में समान्तर सिनेमा की ओर न केवल रुख किया, बल्कि अपनी मौजूदगी से उसको बल भी दिया। उन्होंने तो अपनी फ़िल्म-निर्माण कम्पनी का नाम भी 'शेक्सपीयरवाला' की तर्ज़ पर 'फ़िल्मवालाज़' ही रखा था!