इरफ़ान का ख़त / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
इरफ़ान ने रोगशैया से संसार के नाम जो अन्तिम पत्र लिखा था, वह बार-बार पढ़ने और मनन करने योग्य वस्तु है। इरफ़ान ने लिखा था, "जब मुझे बताया गया कि मुझको हाई-ग्रेड न्यूरोएंडोक्राइन कैंसर है, तो यह मेरे लिए एकदम नया शब्द था। यह शब्द मेडिकल-साइंस के लिए भी बहुत जाना-पहचाना नहीं था, क्योंकि इस बारे में कम ही सूचनाएँ संकलित की जा सकी थीं। इन मायनों में मैं एक 'ट्रायल-एंड-एरर' गेम का हिस्सा था, जबकि मुझे लगता था कि मैं किसी दूसरे ही गेम का हिस्सा हूँ!"
इस दूसरे गेम का हिस्सा बनने के लिए इरफ़ान ने बहुत मनोयोग से परिश्रम किया था। उनके लिए कुछ भी सरलता से नहीं हुआ था। उनके संघर्ष के दिन कुछ ज़्यादा ही लम्बे खिंचे, जिनमें उन्होंने अनेक छोटी, महत्त्वहीन भूमिकाएँ करते हुए स्वयं के उत्कर्ष के दिनों को खपाया। वह छोटे शहर से आए थे और थिएटर के मंच पर तपे थे। उनकी पहली फ़िल्म 'सलाम बॉम्बे' 1988 में आई थी, लेकिन उन्हें 2003 में जाकर 'मक़बूल' और 'हासिल' से पहचान मिली, यानी उन्होंने 15 वर्षों तक अपना मुकाम बनाने का प्रयास किया। जब उनके पैर जमे, तो वह आगामी एक दशक से भी अधिक समय तक फ़िल्मों की दुनिया की एक महत्त्वपूर्ण धुरी बने रहे। समय के साथ उनके अभिनय में मँजाव आता गया। परदे पर उनको देखकर आप जान जाते थे कि यह अभिनेता अपनी त्वचा के भीतर संयत है, इसने अपनी 'ज़ीरो-डिग्री' पा ली है, यह कैमरे की आँख से सहज हो गया है। चरित्रों में कायाप्रवेश करना अब उसके लिए सायास नहीं है, वह स्वत:स्फूर्त यह कर जाता है।
इरफ़ान इस बात को मन ही मन जानते थे कि वह अब स्थिर हो गए हैं और स्थापित हो चुके हैं। उनके लिए भूमिकाएँ लिखी जा रही थीं और देश-दुनिया के दर्शक उनके काम को परखने लगे थे। वह उस 'गेम' का हिस्सा थे, जो हर प्रतिभाशाली व्यक्ति का मनोरथ होता है- अपने कौशल को निखारना, उसे माँजना, उसे प्रेक्षकों के सम्मुख रखना, उनकी प्रतिक्रियाएँ टोहना, और इस सबके दौरान अपने भीतर यह जानना कि अपने जीवन में मैं वही कर रहा हूँ, जिस काम के लिए उन्हें विधाता ने भेजा था। वे प्रकृतिस्थ हैं। उन्हें मिल रहा मान-सम्मान-प्रतिष्ठा उनका स्वाभाविक अधिकार है।
लेकिन अचानक–इरफ़ान अपने अन्तिम पत्र में लिखते हैं- "मुझे बतलाया गया कि आपका स्टेशन आ गया है, जबकि मैं तूफ़ानी गति से चल रही एक रेलगाड़ी में सवार था और आने वाले कल की उधेड़बुन में डूबा था। “इरफ़ान ने कहा, "नहीं आपसे भूल हुई है, अभी मेरा स्टेशन नहीं आया, अभी मुझे आगे जाना है। किन्तु वह मेरा वहम था।”इरफ़ान लंदन में इलाज करा रहे थे और उन्होंने पाया कि उनके अस्पताल के ठीक सामने लॉर्ड्स क्रिकेट मैदान है। उन्हें अपने बचपन के दिन याद आए, जब वह क्रिकेट के दीवाने हुआ करते थे और किंवदंतियों में शुमार इस महान स्टेडियम को जीवन में एक बार देख लेने का सपना सँजोए थे। अब वहअपने कमरे की खिड़की से इसे दिनभर देख सकते थे, लेकिन जैसे इसका कोई मूल्य शेष नहीं रह गया था। स्वप्नभंग हो चुका था। जिन दिनों में इस छवि का उजलापन भरा था, वे रीत चुके थे। परिप्रेक्ष्य आँखों के सामने बदल गया था। जो कल तक प्रिय था, जिसके लिए प्राण विकलते थे, अब उसके कोई अभिप्राय शेष नहीं रह गए थे।
तब जाकर इरफ़ान ने लिखा, "मुझे लगा मैं एक बड़े-से समुद्र में तैरता लकड़ी का टुकड़ा हूँ, जिसे लहरें उछाल रही हैं, जबकि मैं समझता था कि मैं ख़ुद के नियंत्रण में हूँ, या मैं अपनी नियति की कहानी स्वयं लिख सकता हूँ।"
इरफ़ान के उस पत्र में इसीलिए एक महान प्रज्ञा का आलोकन है, क्योंकि इरफ़ान ने यत्नपूर्वक अपना स्थान बनाया था और वह सोच सकते थे कि अब मुझे अपने परिश्रम का फल भोगना है, जिसके मैं सुयोग्य हूँ। किन्तु अब दृश्यपटल से हटाए जाने की चेष्टा पर भी वह सम्यक् हो गए थे। आरम्भिक निषेध और बेचैनी के बाद अब एक स्वीकृति चली आई थी। अभिनेता जान गया था कि यह पटकथा उसने नहीं लिखी है, फिर भी वह उपयुक्त संवाद बोल रहा था- अभिनेता के लिए उपयुक्त संवाद से बड़ी संजीवनी क्या होगी? इरफ़ान का पत्र उनका अन्तिम संवाद था!
जब 'पानसिंह तोमर' की शूटिंग समाप्त हुई, तब इरफ़ान ने कहा था कि मैं इस पात्र से इतना जुड़ चुका हूँ कि इससे विलग नहीं होना चाहता। मैं नहीं चाहता था कि इस फ़िल्म की शूटिंग कभी समाप्त हो। इरफ़ान ने पदकवीर धावक की देहभाषा, बोली-बानी, मन-तरंग को अपने भीतर पूर्णत: परिभाषित कर लिया था। वह उसमें डूब गए थे। फिर भी उन्होंने स्वयं को सम्हाला और फ़िल्म पूरी कर एक दूसरी भूमिका की ओर चले गए। कदाचित्, वह जीवन में भी इरफ़ान होने की भूमिका में इतने तल्लीन हो गए थे कि इससे अलग नहीं होना चाहते थे। और जब उन्हें बताया गया कि तुम्हारा समय पूरा होता है, तुम्हें एक दूसरी भूमिका के लिए अब तैयारी करना है, तो वह इससे किंकर्तव्यविमूढ़ रह गए थे। किन्तु अभिनेता ने स्वयं को दूसरे अभिनय के लिए भी राजी किया और फिर उसी दिशा में चल पड़ा। जैसे 'आनंद' का राजेश खन्ना समुद्र तट पर नंगे पाँव गाते चला गया था-
“एक दिन सपनों का राही /
चला जाए सपनों से आगे /
कहाँ?“