शब्द भंग / अभिमन्यु अनत / पृष्ठ -1
एक बच्ची को गोद में लिए विभा को कमरे में घूम-घूमकर अपनी बाँहों को हिण्डोला बनाये रखना पड़ा था। आधे घण्टे से अधिक समय तक वह अपनी भोजपुरी, क्रिओली, हिन्दी और फ्रेंच-मिश्रित लोरी गुनगुनाती रही थी। निशा के सो जाने के बाद उसने उसे एक छोटे पलंग पर सुला दिया था और मच्छरदानी को ऊपर से खींचकर अपने कपड़े उतारे थे। कपड़े उतारते समय आईने में रोबीन को उसने अपनी सूरत घूरते हुए देखा था। अपने ऊपर की अन्दरूनी और हल्के कपड़ों के साथ वह उसकी बगल में लेटने लगी थी तो भी रोबीन की नजरें उसी पर टिकी थीं। लेकिन उसकी नजरों में उन दोनों भावों में से कोई भाव नहीं था। वो भाव जो....
विभा को पहले अपना प्रश्न याद आया, फिर रोबीन के उत्तर। शायद ढाई वर्ष पहले...। अपने ऊपर से कपड़े के उस आखिरी टुकड़े को उतार-कर जब वह पति की ओर मुड़ी थी तो उसकी आँखों के उस भाव को देखकर उसके मुँह से निकल पड़ा था— —इस तरह क्या देख रहे हो ?
—तुम जितनी सुन्दर हो उससे कई गुना अधिक सुन्दर है तुम्हारा बदन। —क्या मतलब ? मैं और मेरे बदन दो अलग चीजें हैं क्या ? —बिलकुल। —पागल हो तुम ? —कल तो तुमने मुझे कुछ और कहा था। —कल तुमने इस तरह मुझे थोड़े ही देखा था।
—कल तो तुम आईने में सिंगार कर रही थीं। वह तो एक दूसरी ही सुन्दरता देखने का आनन्द था। उस दूसरी बार रोबीन की आँखों में आनन्द की जगह एक चाह थी और उस चाह में एक ज्वाला थी। इस बार उन आँखों में न तो वह आनन्द था, न ही वह चाह। रोबीन की बगल में लेट कर विभा उसके चेहरे को देखती रही फिर अपनी उँगलियों से उसकी नंगी छाती पर विचरने दिया। रोबीन ने जब काफी देर बाद भी अपने सिर को विभा की गरदन के ऊपर नहीं रखा तो खुद विभा वैसा कर बैठी। उसने अपने ओठों को उसके दाहिने कान के पास ले जाकर धीरे से कहा— —क्या सोच रहे इस तरह ? वह कुछ नहीं बोला। विभा ने पहले उसके कान के निचले भाग को चूमा फिर गरदन पर अपने ओठों को फिसलने दिया। उसकी अँगुलियाँ रोबीन की छाती पर काले बालों में उलझती-सुलझती रहीं। और जब उसी तरह कई मिनट कई सेकेण्ड की तरह फिसल गये और विभा ने अपने ओठों और अँगुलियों के स्पर्श का अपने पति पर कोई असर नहीं पाया तो उसने एक बार फिर पूछा— —तुम उसी बात को सोचने लगे न ?
उत्तर न मिलने पर विभा ने अपने सिर को रोबीन की छाती पर रख दिया। पसीने की ठण्डक थी वहाँ। अपने गरम चेहरे पर उस ठण्डक से वह ठण्डक नहीं ला सकी। लगभग दस मिनट बाद उसने अपने सिर को तकिए के हवाले कर दिया तथा कुछ समय बाद उसकी आँखें बोझिल होती गयीं। ...और रोबीन अपलक अपने आगे के खालीपन को ताकता रहा। अपने सिरहाने की धूमिल गुलाबी रोशनी में वह दस मिनट से लटके फानूस को अपलक देख रहा था। उसके भीतर की बत्तियाँ बुझी थीं। इससे पहले अपनी आँखें खोलकर उसने करवट ली थी। उसे अब भी नींद नहीं आ रही थी। करवट बदलकर अपनी पत्नी के साँवले चेहरे को देखा और फिर बुदबुदाया— —क्या बजा होगा विभा ? बस ‘ऊहूँ’ करके विभा ने करवट बदल ली। अपने दोनों हाथों को तकिये पर सिर के नीचे ले जाकर वह कुछ जोर से बोला था— —निशा आज दूध के लिए नहीं जागी ? विभा ने फिर करवट ली और अपने चेहरे को उसकी ओर करके आँखें बन्द रखे हुए उनींदे स्वर में बोली थी— —सोने दो। —दिन में निशा को सुलाते-सुलाते बिलकुल नहीं सोई थीं क्या ? —सो जाओ रोबी। और रोबीन ने अपनी पत्नी के अनुरोध को आदेश मानकर झट से आँखें बन्द कर लीं। आँखें बंद किये-किये कुछ ही क्षण बाद उसने फिर से पूछा था— —बारह पार हो गया।
—रोबी। उसने आँखे खोलकर विभा को निहारा। —तुम सोयी होती हो तो बहुत सुन्दर दीखती हो। —सोने दो मुझे। तुम भी दिन-भर के थके हो, सो जाओ। नींद नहीं आ रही। विभा ने अपनी बोझिल पलकों को खोलकर रोबीन की ओर देखा। —इस तरह बातें करते रहोगे तो नींद कैसे आयेगी ? —चुप था, तो नींद आयी थी ? —चुप सो जाओ। उसकी बोझिल पलकें झपक गयीं। रोबीन उसे देखता रहा था, फिर पीठ के बल होकर ऊपर के फानूस को एक टक देखता रह गया था। अपनी शादी के तीसरे सप्ताह बाद वह अपनी पत्नी को लेकर क्यूर्पीप की दूकानों के चक्कर काटने निकला था। विभा से बोला था कि अपनी तनख्वाह पहली बार उसके हाथों में रखने से पहले उसने उसकी पसन्द का कोई तोहफा उसके लिए खरीदने का निश्चय कर रखा था। उसकी जिद पर विभा उसके साथ हो गयी थी। रोबीन पहले उसे कपड़ों की दूकानों में घुमाता रहा। जब उधर कोई चीज उसे पसन्द नहीं आयी तो वह उसे लिए चीनी सामान की उस भव्य दूकान पर पहुँचा जहाँ यह फानूस विभा को पसन्द आ गया था। अपनी तनख्वाह की आधी रकम को दूकान पर छोड़कर वह इस फानूस को ले आया था। घर पर दूसरे दिन जब फानूस जा चुका था तो विभा को बाहों में कसकर उसने उसके कान में धीरे से कहा था—
—तुम्हारी पसन्द का जवाब नहीं। झूमर पर से आँखें हटाकर रोबीन विभा को निहारता रहा। जँभाई आयी, पर नींद नहीं। उसने कहा— —विभा ! —....... —विभा ! तुमने खिड़की बन्द कर रखी है इसीलिए कमरे में इतनी उमस है। आँखें बन्द किये-किये ही विभा ने कहा— —खोलने से मच्छड़ आ जायेंगे। —निशा पर तो झालर है। —तुम मुझे सोने क्यों नहीं देते ? —तुम्हें शुरु से यह घर पसन्द नहीं। अब मुझे भी यह घर अच्छा नहीं लगता। आगे-पीछे ऊँची इमारतों से घिर हुआ है। हमें कल बदल लेना चाहिए। —सो जाओ। —नींद नहीं आ रही। —बड़बड़ाते रहोगे तो नींद कैसे आयेगी ? —कल पता नहीं बोर्ड का क्या निर्णय होगा। —सो जाओ रोबी।
—तुम कहती हो तो निर्णय मेरे पक्ष में होगा। —हे भगवान् ! खुद नहीं सो रहे हो, कम-से-कम मुझे तो सोने दो। किसी रोगी जैसे स्वर में विभा ने गुजारिश की। फिर भी रोबीन बोलता ही गया— —मेरा भी तो यही विश्वास है। वे दोनों तो मेरे चार साल बाद एम.बी.सी. से जुड़े हैं। मेरे अपने पास उनसे ज्यादा अनुभव और प्रमाण-पत्र भी हैं। फिर भी डर बना हुआ है...कई जगहों पर... —मुझे सोने दो। विभा ने तकिये को नीचे से खींचकर अपने काम पर रख लिया। —अगर यह तरक्की मुझे नहीं मिली तो फिर तरक्की का दूसरा अवसर पता नहीं कब मिले। विभा, सुन रही हो ? —रोबी ! तुम....तुम इस तरह व्यग्र रहोगे तो बिलकुल सो नहीं सकोगे। तुम्हें सोना जरूरी है, नहीं तो बोर्ड के सामने कल ठीक से पेश नहीं हो पाओगे। —मैं सोना तो चाह रहा हूँ पर...ओके विभा....