शब्द भंग / अभिमन्यु अनत / पृष्ठ -2

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उसने करवट बदल ली और बगल के छोटे से पलंग को देखने लगा जिस पर निशा सो रही थी अपने टेडी बीयर के साथ। अभी तीन महीने पहले ही इस पलंग को उसने मामूथ के यहाँ से लिया था। उसकी तीन किस्त अभी चुकानी बाकी थीं। निशा साल-भर की होने को थी। इधर इन दो सालों से रोबीन को बार-बार यह एहसास होता कि उसकी तनख्वाह पर्याप्त नहीं। अब उसे इस बात का एहसास होने लगा था कि विभा से उसकी अच्छी-खासी नौकरी छुड़वाकर उसने भारी भूल की थी। और इस बात का भी पछतावा होता था कि अपनी अहमन्यता में आकर उसने ससुराल की ओर से मिलने वाली सम्पत्ति को लेने से इन्कार कर दिया था। अब सोचता था कि उधर से जो कुछ मिल रहा था उसे लेकर अपनी बेटी के नाम तो कर सकता था। विभा ने जब कहा था कि वैसा करके वह भूल कर रहा है। तो रोबीन बोला था कि उसे सहज धन से घृणा है। इधर कुछ महीनों से वह लाटरी भी खरीदने लगा था। सहज धन की चाह पैदा हो गयी थी उसके भीतर। वास्तव में वह सहज धन की नहीं बल्कि एक सहज जीवन की ललक थी। सहज जीवन की भी नहीं, एक बेहतरीन जीवन की चाह थी वह। अपनी पत्नी के लिए बेहतर व्यक्तित्व, अपनी बेटी के लिए बेहतर परवरिश, बेहतर शिक्षा, बेहतर भविष्य और पूरे परिवार के लिए बेहतर घर।