शमशेर बहादुर सिंह : बात बोलेगी हम नहीं / अशोक अग्रवाल
अजय सिंह मुझे अपने साथ रात्रि निवास के लिए अपने घर ले आए। उन दिनों वह लाजपत नगर इलाके की दयानंद कालोनी में रहते थे। उसी दिन मैंने पहली बार शमशेर बहादुर सिंह को देखा। एक छोटे से कमरे में बिछे तख्त पर वह अजय और शोभा की छोटी बिटिया भाषा के साथ खिलवाड़ कर रहे थे। उस समय की तीन साला छोटी बच्ची आज प्रसिद्ध पत्रिकाओं आउटलुक और द वायर की वरिष्ठ पत्रकार के रूप में भाषा सिंह के नाम से जानी जाती है। तख्त पर ढेर सारी पत्रिकाएं रखी हुई थीं। अजय सिंह ने उन्हें मेरा परिचय दिया और खुद कमरे से बाहर हो गए । कमरे की दीवार से ठुके लकड़ी के ताखों पर किताबें ही किताबें दिखाई दे रही थीं।
मेरा नाम सुन शमशेरजी उठे और किताबों के ढेर में मेरे कहानी संग्रह ‘उसका खेल’ को ढूंढ निकाला और मुस्कुराते हुए पूछा कि क्या इसका लेखक मैं ही हूं। मेरे हां में सिर हिलाते ही उन्होंने कहानी संग्रह मुझे थमाते हुए कहा इसे जरा सरसरी निगाह से उलट-पुलट लो। मैंने देखा कि पूरी किताब का शायद ही कोई पन्ना ऐसा रहा होगा जहां किसी न किसी शब्द या वाक्य को उन्होंने लाल रंग से न रंगा हो।
कुछ दिन पहले श्री निर्मल वर्मा ने एक समारोह में आकस्मिक हुई मुलाकात में मुझे बताया था कि मेरे कहानी संग्रह ‘उसका खेल’ को मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् द्वारा अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया है। उसके निर्णायक मंडल में निर्मल वर्मा, शमशेर बहादुर सिंह और कुंवर नारायण थे। पुरस्कार प्राप्ति से अधिक प्रसन्नता मुझे निर्णायक मंडल के बारे में जानकर हुई थी। मैं समझ गया कि मेरी यह किताब निर्णय हेतु शमशेर जी को उसी समय मिली होगी। मुझे हैरानी इस बात से हुई कि निर्णायक की भूमिका का निर्वाह उन्होंने कितनी संजीदगी से किया था। इस समय पुरस्कार प्राप्ति का सारा अहंकार जाता रहा।
उन्होंने देर तक शब्दों के इस्तेमाल और उनके फालतू निर्वहन से बचने की सलाह देते हुए मुझे लेखन के कुछ जरूरी पाठ समझाए। भाषा को व्यर्थ के प्रतीकों और प्रतिमानों से भारी-भरकम बनाने की बजाय पानी की तरह पारदर्शी कैसे बनाया जा सकता है, इसे भी मेरी एक कहानी के माध्यम से बताया। इस दिशा में लेखक को सतत प्रयास करते रहना चाहिए। अच्छा लिखने के लिए यह कितना जरूरी है इसका बोध भी कराया।
उनसे फिर छोटी-छोटी मुलाकातें वर्ष 1978 से 1981 के बीच मॉडल टाउन स्थित मलयजजी के घर में हुईं। वर्ष 1981 में शमशेरजी के कविता संग्रह ‘बात बोलेगी’ के प्रकाशन संदर्भ में और उसके बाद उनके गद्य संकलन ‘शमशेर बहादुर सिंह की कुछ गद्य रचनाएं’ की पांडुलिपि को अंतिम रूप देने के सिलसिले में।
इस किताब में उनकी 35 वर्ष पुरानी दो किताबों ‘दोआब’ और ‘प्लॉट का मोर्चा’ के अलावा उनकी अप्रकाशित डायरियां सम्मिलित थीं। जिसका संपादन स्वयं मलयज कर रहे थे। मलयजजी ने अपने सुंदर हस्तलेख में ‘प्लाट का मोर्चा’ की सारी कहानियों को नए सिरे से लिखा था। दोपहर का भोजन करते हुए मलयजजी खामोश रहते और बहुत कम बोलते। शमशेरजी से अधिकतर वार्तालाप चलता रहता। मैं जब कभी उनकी कविताओं और उनके गद्य लेखन की बात करना तो वह तत्काल वार्ता का रुख बदलते हुए अपने द्वारा अनुदित लुई कैरोल के प्रसिद्ध बाल उपन्यास ‘एलिस इन वंडरलैंड’ की चर्चा प्रारंभ कर देते। वह अपने इस उपन्यास के अनुवाद को अपना सबसे महत्वपूर्ण कार्य बताते जिससे उन्हें सर्वाधिक आनंद प्राप्त हुआ था। इसके अलावा साप्ताहिक ‘दिनमान’ में प्रकाशित हुई उस लेखमाला का जिक्र करते जिसके माध्यम से उन्होंने उर्दू भाषा का प्राथमिक पाठ हिंदी भाषियों को पढ़ाया। अपनी कविताओं के बारे में बात करने में वह हमेशा संकोच का अनुभव करते। ‘प्लॉट का मोर्चा’ के समर्पण पृष्ठ पर लिखी इबारत इस तरह थी—
मेरे छोटे से आँगन में टूटे-फूटे दो सदाबहार
के गमले हैं कभी मैं उनकी तरफ़ देखता
हूँ, तो कभी अपने इस पहले कहानी संग्रह
की तरफ़। और कुछ कहते नहीं बनता ।
उस समर्पण की दिलचस्प कथा सुनाते हुए वह बेहद भावुक हो आए। उन्होंने बताया कि अज्ञेयजी ने अपने इलाहाबाद प्रवास के दिनों में अपने घर में ढेर सारे विभिन्न प्रजातियों के फूलों के गमले सँजोकर रखे थे जिनकी देखभाल वह बेहद प्यार और दुलार के साथ करते थे। जब उन्होंने इलाहाबाद छोड़ने का निर्णय लिया तो उनके सामने सबसे बड़ा संकट इन्हीं फूलों के गमलों का आया। उन्होंने उन दो सदाबहार के गमलों को भेंट स्वरूप मेरे कमरे तक पहुंचाया। शेष गमलों को भी उन्होंने अपने मित्रों के बीच वितरित कर दिया।
मेरा वह समर्पण अज्ञेयजी के लिए था, लेकिन वह इतना प्रतीकात्मक हो गया कि पाठक उसे समझ नहीं पाए। इस बार उस समर्पण के साथ अज्ञेयजी का कोई चित्र देना उचित रहेगा।
शमशेरजी की सलाह पर मैंने अज्ञेयजी का एक रेखाचित्र समर्पण के साथ देने का निश्चय किया। लेखक सम्पादक मित्र हरि भटनागर की कलाकार पत्नी प्रीति भटनागर ने अज्ञेयजी का एक सुन्दर रेखाँकन बनाया। शमशेर बहादुर सिंह की कुछ गद्य रचनाएँ में ‘प्लाट का मोर्चा’ खण्ड के समर्पण-पृष्ठ पर इसी रेखाँकन का इस्तेमाल हुआ है।
दुर्भाग्य से इस पुस्तक के सम्पादक हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि और आलोचक मलयज जी का आकस्मिक निधन 26 अप्रैल 1982 को हो गया, जिसके कारण इस पुस्तक का प्रकाशन टलता चला गया। बाद में सुश्री रंजना अरगड़े ने इस अधूरे काम को अन्तिम रूप दिया। ‘शमशेर जी की कुछ गद्य रचनाएँ’ वर्ष 1989 में प्रकाशित हो सकी।
उन दिनों शमशेरजी के निवास के नज़दीक ही त्रिलोचन जी भी रहा करते थे। बाबा नागार्जुन का आना-जाना लगा रहता था। जब वह आते तो कम से कम पखवाड़ा भर मॉडल टाउन में ही निवास करते। इन तीनों महाकवियों को शीत के कुहासे भरे दिनों में प्रातःकालीन बेला में मॉडल टाउन के फुटपाथ पर भ्रमण करते जिन्होंने देखा है उनका कहना है कि उन्हें देखकर लगता था कि देवलोक से तीन फरिश्ते श्वेत दाढ़ी लहराते और मासूम बच्चों की तरह हवा में हंसी बिखेरते इस धरती पर उतर आए हैं।
शमशेरजी का अपने हस्तलेख में लिखा पोस्टकार्ड मुझे पहली बार मिला। उन दिनों वह उज्जैन में प्रेमचंद सृजन पीठ पर नियुक्त थे। पत्र में उन्होंने मुझे सूचित किया कि वह एक दिन के लिए मेरठ अपने किसी नज़दीकी रिश्तेदार से मिलने आ रहे हैं। रास्ते में हापुड़ भी पड़ेगा और उनकी इच्छा मुझसे मिलने की है। मैं उन्हें पत्र द्वारा सूचित कर सकूँ तो उन्हें सुविधा होगी। अपने आलस और अकर्मण्यता के चलते मैं उन्हें कोई उत्तर नहीं दे सका।
वह जून माह के तपते हुए दिन थे। दोपहरी का एक बज रहा था और मैं अपने दफ़्तर में कुर्सी पर बैठा पँखे के नीचे भी पसीने से नहा रहा था। उसी समय गेट के खुलने की आवाज़ आई और मैंने खिड़की से झाँककर देखा कि एक रिक्शा रुका है और उसमें बैठे मेरे मित्र महेन्द्र मित्तल के साथ शमशेर जी उतर रहे हैं। मैं भागा-भागा गेट तक पहुँचा और उनका बैग उठा उनके साथ वापस लौटा। कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला था। मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह हंसे और बोले कि मुझे बहुत अच्छा लगा जब तुम्हारा कोई उत्तर मुझे नहीं मिला। मुझे विश्वास हो गया कि तुमने अपने लेखक को अभी तक बचाकर रखा हुआ है। मेरे भीतर उपज रही ग्लानि और लज्जा के भाव को उन्होंने अपनी सहज हंसी से मुझे एक क्षण में मुक्त कर दिया।
यहाँ तक पहुँचने में उन्हें ख़ासी असुविधा का सामना करना पड़ा था। मेरे नाम के अलावा उन्हें कुछ पता नहीं था। संभावना प्रकाशन के पते में उन्हें रेवती कुँज का सिर्फ़ कुँज शब्द स्मरण था। उन्होंने रिक्शावाले से कहा कि वह उन्हें किसी प्रिण्टिंग प्रेस में ले जाए और फिर उससे पूछा कि क्या कोई ऐसा मोहल्ला है जिसके आगे कुँज लगता है। रिक्शावाला उन्हें गांधी गँज स्थित प्रिण्टिंग प्रेस ले आया। संयोग से इस प्रेस के सँचालक मेरे मित्र महेन्द्र मित्तल थे जो ख़ुद भी लेखक थे और शमशेर बहादुर सिंह के नाम से अच्छी तरह परिचित भी। महेन्द्र मित्तल शमशेर जी को रिक्शा में बिठाकर मेरे यहाँ तक ले आए।
भोजन का समय हो रहा था। शमशेर जी भी थके हारे लम्बी यात्रा करते यहाँ तक आए थे। मैंने उन्हें मुँह-हाथ धोने और कुछ विश्राम करने के लिए कहा ताकि तब तक भोजन की तैयारी की जा सके। इसी बीच, पता नहीं उन्होंने कैसे भांप लिया कि मैं पेट का रोगी हूँ तो शमशेर जी तत्काल नीचे फ़र्श पर बैठ गए और मुझे पेट सम्बन्धी समस्याओं से निजात पाने के लिए कुछ योगासन स्वयं करके सिखाने लगे। मेरे बार-बार के आग्रह करने के बावजूद वह तब तक नहीं रुके जब तक मुझे उन योगासनों को सिखा नहीं दिया। दोपहरी के ढलते ही उन्होंने मेरठ के लिए बस पकड़ने की बात कह दी।
जीवन के आखिरी सालों में शमशेर जी अस्वस्थ हो चले थे। सुश्री रंजना अरगड़े उन्हें अपने साथ उनकी देखभाल करने के लिए सुरेंद्र नगर ले आईं। वर्ष 1992 में सुरेंद्र नगर से लिखा उनका एक पत्र मुझे मिला कि वह शमशेरजी के साथ नैनीताल पहुंच रही हैं। डॉक्टर ने कहा है कि संभवत हवा पानी के परिवर्तन से शमशेर जी को लाभ मिलेगा। क्या मैं हापुड़ से नैनीताल उन्हें देखने आ सकता हूं। संयोग से मेरा छोटा भाई उन दिनों नैनीताल में ही रह रहा था। वहां मुझे ठहरने की कोई समस्या नहीं थी।
निश्चित तिथि को मैं नैनीताल पहुंचा। रंजना अरगड़े के बहनोई राजकीय ऑब्जर्वेटरी में वरिष्ठ वैज्ञानिक के साथ-साथ वहां का संचालन भी देख रहे थे। ऑब्जर्वेटरी के परिसर में ही उनका निवास स्थान था। नैनीताल पहुंचकर मैं अपने पुराने मित्र प्रसिद्ध कहानीकार बटरोही से मिला और उन्हें शमशेर जी के आगमन की सूचना दी। बटरोही ने भी मेरे साथ चलना निश्चित किया। अगली प्रातः सुबह आठ बजे के आस-पास हम मल्लीताल से ऑब्जर्वेटरी के लिए पैदल निकले। साथ चलते हुए बटरोही लगातार कथाकार शैलेश भटियानी के जीवन से संबंधित उनके दुर्दम्य संघर्ष की महागाथा सुनाते रहे। लगभग 5 किलोमीटर की दूरी सड़क मार्ग से पैदल पार करते हुए हम ऑब्जर्वेटरी पहुंचे। संभवत मैं शैलेश मटियानी के जीवन के कुछ ही पृष्ठों से परिचित हो पाया होऊँगा।
रंजना अरगड़े शमशेरजी के साथ जहां ठहरी थीं वहां के खुले प्रांगण से नैनीताल की लुभावनी पहाड़ियां अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ अवस्थित थीं। सर्दियों की धूप में कुर्सियों पर बैठे हुए सुगंधित हवा के झोंके तरोताजा कर रहे थे। दो आदमी भीतर से एक आरामदायक कुर्सी खींचकर लाए जिसके ऊपर पूरे पैर फैलाते हुए थोड़ा सा सिर ऊपर कर लेटा जा सकता था। रंजना अरगड़े और उनके बहनोई शमशेरजी को दोनों हाथों से संभाले धीरे धीरे बाहर लाए और उन्हें आरामकुर्सी पर लिटा दिया। रंजना अरगड़े शमशेरजी के पास गईं और उनके कान के करीब बहुत धीरे से कुछ बोलीं जिसके बाद शमशेरजी ने आंख खोलकर मेरी ओर देखा और फिर अपनी पुरानी मुद्रा में लौट गए।
रंजना अरगड़े हमारे पास रखी मेज पर चाय की केतली और प्याले टिका स्वयं भी वहीं बैठ गईं और शमशेर जी और उनकी बीमारी के बारे में बहुत कुछ बताती रहीं । रंजना अरगड़े निरंतर बीच-बीच में शमशेरजी की ओर देखती रहीं। कोई एक घंटे बाद हम वापस लौटे। शमशेर जी से यह मुलाकात पूरी तरह संवादहीन रही।
लौटती बार हम एकदम गुमसुम थे। शमशेरजी की क्षीणकाय छाया हमारे साथ साथ चल रही थी।
हमारी इस मुलाकात के लगभग एक साल बाद हिंदी के इस कालजयी कवि ने 12 मई 1993 के दिन हम सभी से अंतिम विदा ले ली।