शरीफजादा / मिर्ज़ा हादी रुस्वा / पृष्ठ-1
शरीफ़जादा
हमारे इनायत फरमा (कृपालु, मेहरबान) मिर्ज़ा आदिम हुसैन साहब के वालिद माजिद मिर्ज़ा बाक़र हुसैन मरहूम हज़रत अबास की दरगाह के पास कहीं रहते थे। पुख्ता मकान था। दस रुपया माहवार बिला शर्ते-ख़िदमत नवाब मुकर्रमद्दौला बहादुर की सरकार से पाते थे। इसमें खुदा ने यह बरकत दी थी कि बाफिरागत (खली) गुजर-बसर करते थे-तीन सौ रुपये का बीवी के हाथ-गले में कहना था, सौ-पचास का घर में समान था, दस-बीस रुपये वक्त-बेवक्त सन्दूकचे से निकल ही आते थे। आबिद हुसैन की वालिद ने कभी आप चूल्हा नहीं फूँका मामा। (मेहरी) हमेशा नौकर रही। आबिद हुसैन की कोई तक़रीब (उत्सव) ऐसी नहीं हुई जिसमें दस-बीच अज़ीज़ जमा न हुए हों, डोमनियां न आई हों। आबिद हुसैन की आशी अपने मक़सद और हौसले के मुआफिक अच्छी तरह की। अहरचे इस तक़रीब में मिर्ज़ा साहब मरहूम किसी कद्र मक़रूज़ (कर्ज़दार) हो गए थे मगर जहेज़ बेचने की नौबत नहीं आई। शादी के बरसवें दिन एक लड़का पैदा हुआ और उसकी छठी भी धूम-धाम से हुई। जब तक मां-बाप जिन्दा रहे, मिर्ज़ा आबिद हुसैन को खाने-पीने की तरफ से फ़िराग़त थी। मुहल्ले में एक मौलवी साहब रहते थे, उनसे फारसी पढ़ते थे, स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने जाते थे।
जब मिर्जा़ बाक़र हुसैन ने इन्तकाल किया, आबिद हुसैन मिडिल क्लास तक पहुँच गए थे। अगरचे वालिद का सदमा बहुत सख्त हुआ था मगर जो-तों करके मिडिल पास हो गए।
वालिद के मरने के बाद घर के इन्तज़ाम का कुछ भार इनके सर पर पड़ा मगर अख़राजात से किसी कद्र इत्मिनान था; इसलिए कि नवाब की सरकार से सात रुपया माहवार इनकी वालिद को मिलता रहा। मगर इनकी बदकिस्मती से पूरा साल न गुजरने पाया था कि नवाब कर्बला-ए-मुअल्ला चले गए और वहां जा के दो ही महीने के बाद इन्तकाल फरमाया।
अब यह एंट्रेंस क्लास में थे। जब बाहर की आमदनी बिल्कुल मोकूल (खत्म) हो गई तो अख़राजाते-रोज़मर्रा के लिए घर का आसासा (सामान) बिकने लगा। यहां तक कि सोने-चाँदी का असबाब बिक गया, तांबे के बरतनों की नौबत आई वह भी एक-एक करके बिक गए-यहाँ तक कि सिवाय दो-तीन पतीलों और दो लोटों के कुछ बाकी न रहा।
यह अब तक स्कूल में पढ़ने जाते थे और तमाम उम्मीदें इम्तिहान के पास होने पर मन्हिसर थीं। यहाँ तक कि इम्तिहान का जमाना करीब आया। हेडमास्टर ने फीस तलब की। बावी की चूड़ियां गिरवी रख के दस रुपये फीस के जमा किए। इम्तिहान के दो दिन बाकी थे कि वालिद हैजे से चलती हुईं। और ठीक उसी दिन इन्तिकान किया कि जिस दिन इन्हें इम्तिहान में शरीक होना चाहिए था। इस हादसा-ए-नागहानी की वजह से बेचारे इम्तिहान से महरूम रहे। सारी मेहनत की-कराई ख़ाक में मिल गई।
मां का मरना था गोया इनके सर पर आसमान टूट पड़ा। ख़ानादानी का पूरा-पूरा बोझ दफ़ातन (अचानक) आन पडा़। घर का असबाब और बावी का जहेंज़ मां के जीते-जी बिककर सरफ (खर्च) हो चुका था और जो कुछ रहा-सहा था वह उनकी तजहीज़ों-तकफीन और रसूमे-फातिहा वगैरह में सरफ हो गया। अब घर में एक हबा नहीं है जिसे गिरवी रखें या बेच लें। घर में एक खुद है, एक बीवी, एक लड़का कोई तीन बरस का एक लड़की छह महीने की गोद में। अभी तक सूरते-रोजगार नहीं और न कहीं से उम्मीद है। मगर इस्तक़लाल यह है कि अभी तक पढ़े जाते हैं।
इम्तिहान के छह महीने और बाकी हैं, किसी तरह हो अबकी जरूर पास होना चाहिए। आखिर कुछ न बन पड़ा। एक फत्तू कुंजड़ा रहता था। मकान उसके पास सौ रुपये पर गिरवी रखा, रहन-बा क़ब्ज़ा था। खुद महमूद के नाले पर एक कच्चा-सा मकान एक रुपया माहवार किराया पर लेकर रहने लगे। ख़ैर इम्तिहान के जमाने तक के लिए इत्मिनान हो गया। जी तोड़ मेहनत की। खुदा-खुदा करके पास भी हो गए। अब नौकरी की तलाश है।
आज बहुत परेशान घर से निकले हैं, मुंह उतरा हुआ हैं। आंखों में हलके पड़ गए हैं, मारे जोअफ़ (कमजोरी) के कदम नहीं उठता। (दिल में कहे जाते हैं)-
‘‘अफ़सोस ! आज हमारे बीवी बच्चों का दूसरा फ़ाका है। रास्ते में जो लोग मिलते हैं उनके चेहरे किस कद्र बशाश (खिले) नज़र आते हैं। कुंजडों की दुकानें मेवों और तरकारियों से भरी हुई हैं। नानबाई हुई हैं। नानबाई गर्म-गर्म शीरमाले और खमीरी रोटियां तंवर से निकाल रहे हैं। नहारी के पतीले से गर्म-गर्म भाप निकल रही है। फ़ज्जू की दुकान पर सोहन हलवा भी ताजा बना हुआ है। तमाम रास्ता महका हुआ है। हलवाइयों की दुकान पर पूड़ियां-कचौरियां कैसी पटी पड़ी हुई हैं। इसमें कुछ भी हमारा और हमारे गरीब बीवी-बच्चों का हिस्सा नहीं। सर्राफा की दुकानों पर पैसो का ढेर है लोग कैसे छनाछन रुपये भुनाते हैं। हमकों एक पैसा तक नहीं मय्यसर कि अपने बच्चों के लिए चने भुना के ले जाएं।
एंट्रेंस का सर्टिफिकेट जेब में है। अगर थोड़ा-सा शीरा मुमकिन होता तो बला से इसी को चाटते या बीवी-बच्चों को चटाते। अफ़सोस ! मैंने बड़ी गलती कीः जैसे ही मिडिल पास किया हुआ था, रुड़की कॉलेज में चला जाता। दो साल किसी-न-किसी तरह गुजर जाते। देखो, ‘‘रामचरन मेरे ही साथ मिडिल में पास हुआ था। अब सुना है कि रायबरेली में उसे सब ओवरसीरी मिल गई है। काश ! मेडिकल ! कॉलेज ही चला जाता। हेडमास्टर ने उस जमाने में कैसा-कैसा कहा ! अफसोस ! मैंने अपने हाथ से अपने पांव में कुल्हाड़ी मारी। तीन बरस मुफ़्त ज़ाया हुए। अब क्या हो सकता है ?’’
इन्हीं खयालात में ग़लताँ-पेचां लड़खडाते ठोकरें खाते गोल दरवाज़े तक पहुँच गए। अब करीब दस बजे का वक्त था। जो लोग दफ्तरों में नौकर थे, इक्कों पर सवार हो-होके दफ्तर जा रहे थे। दो-एक इक्केवालों ने इन्हें भी टोका, ‘‘मुंशी साहब इधर आइये, हज़रतगंज चलिएगा ?’’ यह बेचारे हज़रतगंज ही की तरफ जाने वाले थे, मगर पैसा कहां था जो सवार होके जाते ! चुपके हो रहे। सड़क के किनारे पा-प्यादा हुए।
मियां तो नौकरी की तलाश में गए, अब बीवी का हाल सुनिए। यह बेचारी सुबह से उठकर टोपी काढ़ने में मसरूफ़ थीं, एक पल्ला तो कई दिन से तैयार था, दूसरे में कुछ काम बाकी था। बारे, वक्त में दोनों पल्ले तैयार हो गए। अब इसके फिरोख्त करने की फ़िक्र हुई। मकान में एक खिड़की थी। वहाँ जाके पुकारीं -’’ ‘‘हमसाई !’’ हमसाई खिड़की के पास आईं। आबिद हुसैन की बीवीः हमसाई ! तुम्हारे मियां घर में है ?
हमसाईः क्या टोपी तैयार हो गई ?
आबिद हुसैन की बीवीः हां बहन ! खुदा-खुदा करके आजद तैयार हुई। जरा अपने मियां को दिखा दो।
हमसाईः टोपी मियां के पास ले गई।
मियां:हां यह टोपी खूब तैयार हुई।
हमसाईः भला कितने की होगी ?
मियां: बाजार में दिखाने से हाल मालूम होगा मेरे अंदाजे में तो कोई दस ग्यारह आने की होगी।
बीवी अच्छा तो बेच ला दो। बेचारी के यहाँ आज तीसरा फ़ाक़ा है। बच्चे ग़श की हालत में पड़े है।
मियां तीसरा फ़ाक़ा ! तुमने मुझसे न कहा। बनिये के यहाँ से कुछ ला देता।
बीवीः चुप रहो खिड़की के पास खड़ी है; कहीं सुन न ले। बड़े गैरतदार लोग हैं। चाहे दम निकल जाए, मुंह से न कहेंगे। क़र्ज दाम भी नहीं लेते। बीवी-मियां दोनों की एक राह है। जब फ़ाका होता है, बच्चों तक को घर से निकलने नहीं देते ।