शरीफजादा / मिर्ज़ा हादी रुस्वा / पृष्ठ-2

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मियां: बड़े आली-खानदान के हैं। खुदा ने अब मुसीबत डाली है। इनके बाप के कारखाने ही और थे। अच्छा तो लाओं मैं जल्दी से टोपी बेच लाऊँ।

यह कह के मियां हुसैन अली ने अलगनी पर से अंगरखा उतार के पहना। टोपी पहनी। वह टोपी जेब में रखी। घर से निकले। जल्दी-जल्दी पारचे वाली गली पहुँचे। दो–एक दुकानदारों को वह दोनों पल्ले दिखाये। किसी ने ग्यारह आने लगाए किसी ने बारह आने लगाए। एक साहेब शौकीन एक दुकान पर टोपियां देख रहे थे उन्होंने यूं ही सरसरी निगाह से दोनों पल्लें देख के आँख से इशारा किया। यह दुकानदार से टोपी ले थोड़ी दूर जाके खड़े हो रहे। थोड़ी देर में वह आ गए।

ख़रीददारः तो अच्छा कितने की दीजिएगा ?

हुसैन अलीः हज़रत मेरा तो माल नहीं है। जिसका है, उसने कह दिया कि एक रुपये से कम नहीं देना। अब आपको अख़्तियार है, लीजिए या न लीजिए।

ख़रीदारः (फिर एक मरतबा टोपी के दोनों पल्लों को उलट-पलट के देखा) अच्छा, खैर एक ही रुपया ले लो तुम्हारी ही जिद सही ।

हुसैन अलीः दुरुस्त है। ऐ हुजूर ! माल नहीं है ?

खरीदारः इसमें शक नहीं, बनी अच्छी है। और इसके साथ ही मिल सकती है ?

हुसैन अलीः जी और कहां ? मेरे पास एक ही कारीगर है। इस दाम की दस-बारह दिन में एक टोपी तैयार होती है । ख़रीदारः अच्छा अबकी टोपी जो बने तो हम ही को देना। तुम्हारा मकान कहाँ है ?

हुसैन अलीः आप अपना दौलतख़ाना बता दीजिए, जिस दिन टोपी तैयार हो जाएगी लेकर हाज़िर हो जाऊँगा।

ख़रीददारः यह क्या झवाई टोला में हकीम साहब के मकान के क़रीब नवीब मुहम्मद अबास साहब कमरे में बैठे रहते हैं, उन्हीं से पूछ लेना-मीर साहब कहाँ रहते हैं। बल्कि मैं वहीं मिलूँगा। ऐ लो, यह एक रुपया बातों में देना ही भूल गया।

हुसैन अलीः क्या हर्ज है, फिर मिल जाता।

ख़रीददार तो रुपया देकर उधर रवाना हुआ, इधर मियां हुसैन अली खुश-खुश कदम बढ़ाते हुए घर की तरफ़ चले।

आहा ! क्या ऐसे लोग अभी ज़िन्दा है जो दूसरों का काम करके खुश होते है ? हां, है। और ऐसे लोगों में हैं जिनको मग़रूर बंदा-ए-जर (दौलतवाले) हक़ारत की नजर से देखते हैं, जिनका चाल-चलन बहुत ही सीधा-सादा है। इसलिए लोग उन्हें बेवकूफ़ समझते हैं। उन्होंने वह आला दर्जें की तालीम नहीं पाई जो खुदगरजी के उसूल सिखाती है। इसलिए उन्हें सादालोह का खिताब दिया जाता है। उन्होंने वह इल्मे-मंजलिस नहीं हासिल किया जिसमें ज़ाहिरदारी बेतमीडज़ ख़याल किये जाते हैं। उन्होंने वह लगू (झूठा) फलस्फा नहीं पढ़ा जो मजहब के मकद्दस उसल में शक डाल देता है। इसलिए जाहिल के लक़्ब़ से याद किये जाते है। ये लोग गवर्नमेंट की मसलहतों को नहीं समझते, न उसमें नुक्ताचीनी करते हैं,

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