शशांक / खंड 1 / भाग-11 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यशोधावल की बात

बौद्ध मन्दिर के भीतर घोर अन्धकार है। घृत का एक दीपक टिमटिमा रहा है, किन्तु उसके प्रकाश में देवप्रतिमा का आकार भर थोड़ा थोड़ा दिखाई पड़ रहा है। सामने पुष्प, गन्धा और नैवेद्य सजाकर रखा है। देखने से जान पड़ता है कि मन्दिर में कोई नहीं है। मन्दिर के एक कोने में एक लम्बे आकार का पुरुष बैठा है। वह न कुछ बोलता है, न हिलता डुलता है; जान पड़ता है कि ध्यानमग्न है। इतने में द्वार पर से किसी ने पुकारा “स्थविर महाराज मन्दिर में हैं या नहीं?”

भीतर से उत्तर मिला “कौन?”

“शक्रसेन।”

“भीतर चले आओ”

वही हमारा परिचित वृद्धकन्धो पर पेड़ की डाल रखे मन्दिर में घुसा। लम्बे डीलवाले पुरुष ने पूछा “वज्राचार्य्य! यह पेड़ की डाल कहाँ पाई?”

“यह मेरा घोड़ा है, इसी के बल से यशोधावल के हाथ से बचकर मैं आ रहा हूँ। नहीं तो अब तक तुम यही सुनते कि वज्राचार्य्य का परिनिर्वाण हो गया।”

“तब क्या तुम कुछ कर न सके?”

“करना धारना तो मैं जानता नहीं, हाँ! शशांक अब तक जीवित है।

“तब तुम गए थे क्या करने?”

“बन्धुगुप्त! मैं क्या करने गया था, इसे जानबूझकर न पूछो। मैं शशांक को मारने गया था, पर मार न सका।”

“क्या दाँव नहीं मिला?”

“दाँव मिला था। शशांक, माधवगुप्त और चित्रा तीनों गंगा किनारे खेल रहे थे। उनके साथ कोई रक्षक भी नहीं था।”

“तब फिर?”

“तब फिर क्या? मार नहीं सका, और क्या? बन्धुगुप्त मेरा हाथ न उठ सका। तुमने जो वज्र मुझे दिया था, वह अब तक वस्त्र के भीतर छिपा है। मैं उसे बाहर न निकाल सका। स्थविर! नरहत्या करने से तुम्हारा हृदय पत्थर का हो गया है, तुम्हारे अन्त:करण की कोमल वृत्तियाँ सब लुप्त हो गई हैं। मैं क्यों लौट आया, यह तुम नहीं समझ सकते। तुम्हारा उपदेश सुनकर मैं शशांक को मारने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ से चला था। जिस समय दूर से मैंने उनको असहाय अवस्था में गंगा के बालू पर बैठे देखा था, तब तक भी मैं विचलित नहीं हुआ था। पर जब मैं उनके पास गया तब ऐसा जान पड़ा मानो वज्र की मुट्ठी से किसी ने मेरा हाथ थाम लिया है। तुम्हारे उपदेश के अनुसार शशांक को मैंने उसके जीवन का भीषण भविष्य तो सुना दिया, पर उसकी हत्या न कर सका। स्थविर! भाग्यचक्र में सब बँधे हैं, ललाट में जो लिखा है वह कभी टलने का नहीं। तुम्हारे ऐसे सैकड़ों संघस्थविर, मेरे ऐसे हजारों वज्राचार्य्य मिलकर भी उस चक्र की गति तिल भर फेर नहीं सकते। स्थविर! गंगा की रेत में उस बालक का मुख देखकर समझ लिया कि शक्रसेन या बन्धुगुप्त से उसका एक बाल भी बाँका नहीं हो सकता।”

“तुम भीरु हो, तुम कायर हो, तुम पुरुष नहीं हो। तुम बालक का मनोहर मुखड़ा देखकर मोहित हो गए। मार1 की आसुरी माया ने तुम्हें घेर लिया, इसी से तुम उस बालक की हत्या न कर सके। वज्राचार्य्य! तुम मागधा संघ के मुखिया हो। उत्तरापथ का आर्यसंघ भी तुम जिधर उँगली उठाओ उधर चल सकता है। वज्राचार्य्य!


1. मार = संसार को मोह में फँसानेवाला, जिसने बुद्धभगवान् को सुखभोग के अनेक प्रकार के प्रलोभन दिखाए थे।

क्या तुम भी भाग्यचक्र की ओट लेकर बैठे रहना चाहते हो? शुक्रसेन! भोलेभाले बच्चों और बूढ़ी स्त्रियों को छोड़ इस युग में भाग्यचक्र और मानता कौन है? छि! छि! तुमसे एक सड़ा सा काम न हो सका! आर्यसंघ की उन्नति के लिए तुम एक सामान्य बालक की हत्या तक न कर सके! वज्राचार्य्य! तुम्हें अपना कलंकी मुँह छिपाने के लिए कहीं स्थान न मिलेगा। युग युगान्तर तक, जब तक बौद्धधर्म इस संसार में रहेगा, तुम्हारी अपकीर्ति बनी रहेगी। वृद्ध्! तुम वहीं समा क्यों न गए? कौनसा मुँह लेकर लौट आए?”

“स्थविर! तुम भी वृद्धहुए, बालक नहीं हो। संघ की सेवा करते तुम्हारे बाल पक गए। तुम्हें मैं अधिक क्या समझाऊँ? थोड़ा ऑंख खोलकर देखो, जीव मात्रा भाग्यचक्र में बँधो हैं। यदि भोलेभाले बच्चो और स्त्रियों को छोड़ और कोई भाग्यचक्र नहीं मानता, तो तुम इतनी देर तक गणना करके क्यों मरते रहे? अब तक तुम शशांक की जन्मपत्री फैलाए क्या बैठे हो? बन्धुगुप्त हम दोनों ने एक ही दिन प्रव्रज्या1 ग्रहण की, साथ रहकर आजन्म संघ की सेवा की, सुख दु:ख, संपद् विपद् में बराबर एक दूसरे के पास रहे, तुम क्या मेरा स्वभाव तक भूल गए? बच्चों के गिड़गिड़ाने और स्त्रियों के ऑंसू बहाने पर मुझे कभी विचलित होते देखा है? तुम मुझे व्यर्थ धिक्कारते हो। मुझे पूरा निश्चय है कि शशांक मेरे हाथ से नहीं मारा जा सकता। स्थविर! वह अब बच्चा नहीं है, युवावस्था के किनारे आ रहा है। मुझे उसके मुख पर राजसी गम्भीरता दिखाई दी। डर उसे छू नहीं गया है। वह सब प्रकार से मगध का राजा होने योग्य है। तुम वृथा चेष्टा करते हो। अंग, बंग, कलिंग, गौड़ और मगध में ऐसा कोई नहीं है जो उसकी गति रोक सके।”

इतना कहकर वृद्धबैठ गया। स्थविर के मुँह से कोई शब्द न निकला। बहुत देर पीछे स्थविर ने धीरे से पूछा “तो क्या गणना मिथ्या है?”

“गणना को मिथ्या कैसे कहूँ! गणना में तुमसे कहीं भूल हुई होगी।”

“अच्छा ठहरो, मैं फिर से गणना करके देखता हूँ”-यह कह संघ स्थविर

ने दीपक की बत्ती उस काई और ताड़पत्र, लेखनी और मसि लेकर वह गणना करने लगा।

आधे दंड के उपरान्त किसी ने आकर बाहर से मन्दिर के द्वार की साँकल खटखटाई। वज्राचार्य्य ने पूछा “कौन है?” द्वार पर से वह व्यक्ति बोला “मैं हूँ, बुद्ध्मित्र।” कपोतिक संघाराम2 से एक बहुत ही आवश्यक संवाद लेकर दूत आया है, वह भीतर जाय?


1. बौद्धभिक्खुओं की दीक्षा, संन्यास।

2. कपोतिक संघाराम-पाटलिपुत्र नगर का एक प्राचीन बौद्धमठ जो सम्राट अशोक का बनवाया हुआ था।

वज्राचार्य्य-कह दो, थोड़ा ठहरे।

बन्धुगुप्त सिर उठाकर बोला 'गणना कभी मिथ्या होनेवाली नहीं। आज दोपहर तक शशांक का मृत्युयोग था, किन्तु नक्षत्र के प्रतिकूल होने पर भी सूर्य की दृष्टि अच्छी थी।”

वज्राचार्य्य-हाँ, एक बात कहना तो मैं भूल ही गया। मेरे वहाँ पहुँचने पर एक नई बाधा खड़ी हुई अर्थात् यशोधावलदेव-

बन्धु -क्या कहा?

वज्रा -युवराजभट्टारकपादीय महानायक यशोधावलदेव। बन्धुगुप्त! तुम उनके पुत्र की हत्या करने वाले हो। क्या इतने ही दिनों में रोहिताश्व के गढ़पति को भूल गए ?

बनुगुप्त अब तक बैठा था, यह बात सुनते ही वह घबराकर उठ खड़ा हुआ और कहने लगा “शक्रसेन! हँसी न करना, ठीक ठीक कहो। क्या सचमुच यशोधावलदेव नगर में आए हैं? यदि ऐसा हुआ तो भारी विपत्ति समझो। केवल मेरे ही ऊपर नहीं सारे संघ पर विपत्ति आई समझो। ठीक ठीक बताओ, क्या सचमुच यशोधावल ही को तुमने देखा?”

वज्राचार्य्य-यह क्या कहते हो, क्या दस वर्ष मे ही मैं यशोधावल को भूल जाऊँगा? घबराओ न, देखो कपोतिक संघराम से कोई दूत आया है। बुद्ध्मित्र! दूत को भीतर ले आओ

एक तरुण भिक्खु एक वृद्धभिक्खु को साथ लिए मन्दिर के भीतर आया। दोनों ने प्रणाम किया। वज्राचार्य्य ने पूछा “कहो, क्या संवाद है?” वृद्धबोला “महास्थविर को विश्वस्त सूत्रा से पता लगा है कि रोहिताश्व गढ़पति महानायक यशोधावलदेव आज बीस वर्ष पर फिर नगर में आए हैं। इसीलिए उन्होंने मन्त्रणा सभा करने का विचार किया है।”

वज्राचार्य्य-यशोधावल के आने का पता मुझे लग चुका है। कल प्रात:काल पुराने दुर्ग के मुँडेरे पर मन्त्रणासभा होगी। सूर्य की किरनों के दुर्ग के कलशों पर पड़ने के पहले सभा का सब कार्य समाप्त हो जाना चाहिए।

वज्राचार्य्य का आदेश सुनकर दोनों भिक्खुओं ने प्रणाम किया और वे मन्दिर के बाहर गए।

बन्धु -तो सचमुच यशोधावलदेव आ गया है। शक्रसेन! अब इसबार किसी की रक्षा नहीं। सोया हुआ सिंह जागा है। उसे इसका पता अवश्य लग गया है कि उसके पुत्र का मारनेवाला मैं ही हूँ। यह न समझना कि वह केवल मेरी ही हत्या करके शान्त हो जाएगा। वह सारे बौद्ध्संघ को उखाड़ने की चेष्टा करेगा।

वज्राचार्य्य-सचमुच भारी विपत्ति है।

बन्धु -तुम मेरी बात समझ रहे हो न? जान पड़ता है, यशोधावल के ही हाथ से मेरी मृत्यु है। अच्छा ठहरो, गणना करके भी देख लूँ।

वृद्धने फिर दीपक जलाया और ताड़पत्र पर अंक लिखकर गणना करने लगा। अकस्मात् उसके मुँह का रंग फीका पड़ गया। ताड़पत्र और लेखनी दूर फेंक वह उठ खड़ा हुआ और ऊँचे स्वर में बोल उठा “सच समझो, वज्राचार्य्य यशोधावल मुझे अवश्य मारेगा। गणना का फल तो कभी मिथ्या होने का नहीं। अब किसी प्रकार मुझे बचाओ। यशोधावल की प्रतिहिंसा बड़ी भीषण होगी”।

वज्राचार्य्य हँसकर बोला “स्थविर! इतने अधीर क्यों होते हो। यशोधावल तुम्हारे प्राण लेने अभी तो आता नहीं है। तुम तो भाग्यचक्र पर विश्वास नहीं करते न?”

बन्धु -सखा शक्रसेन! क्षमा करो। न समझ कर ही मैंने दो चार कड़ी बातें तुम्हें कही थीं। यशोधावल का बड़ा डर है। उसके निरस्त्रा शृद्मलाबद्धपुत्र को मैंने बकरे की तरह काटा है। अवश्य उसे इसका पता लग गया है। वह मुझे छोड़ नहीं सकता।

वज्राचार्य्य-अब भी तुम मृत्यु से इतना डरते हो?

बन्धु -तुम तो हो पागल, तुम्हें मैं क्या समझाऊँ? मैं अभी मरना नहीं चाहता। अभी मुझे बहुत कुछ करना है।

वज्रा -चित्ता स्थिर करो, घबराने से क्या होगा। यदि मृत्यु आनेवाली ही होगी तो व्याकुल होकर सिर पटकने से क्या बच जाओगे? बन्धुगुप्त! तुम आर्यसंघ के नेता हो। ऐसी अधीरता तुम्हें शोभा नहीं देती।

बन्धु-वज्राचार्य्य! जैसे हो वैसे अब मेरे प्राण बचाओ। मुझे कहीं छिपने का स्थान बताओ। ऐसा जान पड़ता है कि मन्दिर के एक एक खम्भे के पीछे अधेरे में एक एक यशोधावलदेव पुत्र की हत्या का बदला लेने के लिए तलवार खींचे खड़ेहैं।

वज्रा -अच्छा चलो, तुम्हें गुप्तगृह में छिपा आऊँ।

बन्धु -चलो।

वज्राचार्य्य ने बन्धुगुप्त का आसन लपेटकर उठा लिया। आसन उठाते ही उसके नीचे काठ की एक चौड़ी पटरी दिखाई दी जिसे हटाते ही एक गुप्तद्वार प्रकट हुआ। वज्राचार्य्य ने दीपक हाथ में ले लिया और सीढ़ियों से होकर वह नीचे उतरने लगा। बन्ु गुप्त भी डरता डरता साथ साथ चला। वह पीछे फिर फिर कर ताकता जाता था। मन्दिर में अधेरा छा गया।