शशांक / खंड 1 / भाग-12 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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नायक समागम

सन्ध्या का अंधेरा अब गहरा हो चला है। बाहरी टोले की एक पतली गली से एक युवती जल्दी जल्दी नगर की ओर लपकी चली जा रही है। मार्ग में बहुत कम लोग आते-जाते दिखाई देते हैं। जो दो एक आदमी मिल भी जाते हैं उन्हें पीछे छोड़ती वह बराबर बढ़ती चली जा रही है। अधेरा अब और गहरा हो गया; सामने का मार्ग सुझाई नहीं पड़ता। युवती विवश होकर धीरे धीरे चलने लगी। अकस्मात् पीछे के पैर की आहट सुनाई पड़ी। वह खड़ी हो गई, आहट भी बन्द हो गई। युवती इधर उधर देखकर फिर चलने लगी। कुछ देर में उसे जान पड़ा जैसे कोई उसके पीछे पीछे आ रहा है। वह फिर खड़ी हो गई, पैर का शब्द फिर थम गया। युवती इधर उधर ताककर एक अट्टालिका के कोने में छिप गई। वहाँ से उसने देखा कि सिर से पैर तक कपड़े से ढकी एक मनुष्यमूर्ति दबे पाँव धीरे धीरे गली में चली जा रही है। अधेरे में वह उसका मुँह न देख सकी। जब वह मनुष्य आगे निकल गया तब युवती निकलकर उसके पीछे पीछे चली।

वस्त्र से ढका हुआ जो मनुष्य चला जाता था वह कुछ दूर जाकर आप ही आप बोल उठा “न, इधर नहीं गई। चलें, लौट चलें”। युवती ने सुन लिया और फिर एक घर की आड़ में अंधेरे में छिप गई। वह मनुष्य धीरे धीरे लौटने लगा। जब वह अधेरे में दूर निकल गया तब वह युवती फिर निकलकर जल्दी जल्दी चलने लगी। आधा दण्ड भी नहीं बीता था कि पीछे फिर वही पैरों की आहट सुनाई पड़ने लगी। अब तो वह कुछ डरी और मार्ग के झाड़ों और पेड़ों में जा छिपी। थोड़ी देर में वह कपड़ों से ढका हुआ मनुष्य फिर दिखाई पड़ा। वह कुछ दूर जाकर फिर लौट पड़ा और ठीक उसी स्थान से होकर चला जहाँ युवती छिपी थी। पास पहुँचते ही उसके मुँह से निकला “न, इस बार वह निकल गई। तरला, तू ने गहरा झाँसा दिया”। जब वह कुछ दूर निकल गया तब युवती झाड़ों से निकल बीच रास्ते में आ खड़ी हुई और पुकारने लगी। “अरे बाबाजी, ओ अचारी बाबा! उधार कहाँ जाते हो?” कपड़ों से ढका हुआ वह मनुष्य चौंक कर खड़ा हो गया। युवती हँसकर बोली “बाबाजी! कोई डर नहीं, मैं हूँ तरला।” वह वस्त्र का आवरण हटा तरला के पास आया और उसने उसके मुँह को अच्छी तरह देखा। फिर मुसकराकर बोला “क्या सचमुच तरल ही है? हे लोकनाथ! कृपा करो।”

तरला-बाबाजी! इतनी रात को किसके पीछे निकले थे?

देशा -बहुत ठण्ड है-थोड़ी आग लेने निकला था।

तरला-कहते क्या हो, बाबाजी! अरे, इतनी गरमी में तुम्हें जाड़ा लग रहा है? क्या वात ने जोर किया है?

देशानन्द चुप। तरल ने फिर पूछा “यदि किसी के पीछे नहीं निकले थे तो कपड़े के भीतर सिर क्यों ढाक रखा था?”

देशानन्द-कोई पहचान लेता तो?

तरला-तो क्या किसी स्त्री से मिलने अभिसार को चले थे?

देशानन्द-न, न, हम लोग संसार त्यागी भिक्खु हैं। हम लोग क्या अभिसार करतेहैं?

तरला-बाबा! चलो उजाले में चलें।

देशा -क्यों तरला? यह स्थान तो अच्छा है।

तरला-कोई हम दोनों को यहाँ एक साथ देखेगा तो चारों ओर निन्दा करेगा।

देशा -यह तो ठीक है।

तरला-अच्छा तो मैं चलती हूँ, तुम यहीं रहो।

देशा -तुम अभी लौटोगी न?

तरला-सो कैसे? मैं तो जाती हूँ नगर की ओर, फिर इधर क्या करने आऊँगी?

देशा -अरे नहीं, तरला। तुम जाओ मत, थोड़ा ठहरो। मैं तुम्हें ऑंख भर देख तो लूँ। तुम्हारे ही लिए मैं दो कोस दौड़ा आया हूँ!

तरला-तुम तो कहते थे मैं आग लेने निकला था।

देशा -वह तो एक बात का बतक्कड़ था। बात कुछ और ही है।

तरला-क्या बात है, बताओ।

देशा -हृदय की पीड़ा।

तरला-किसके लिए?

देशा -तुम्हारे लिए।

तरला-देखती हूँ, इस बुढ़ाई में भी तुम्हारे हृदय में रस उमड़ा पड़ता है।

देशा.-छि! तरला! यह क्या कहती हो? मैं तो समझता था कि तुममें कुछ रसिकता होगी। पर

तरला-चिढ़ क्यों गए? क्या हुआ?

देशा -तुम्हारी बात सरासर अरसिकता की हुई।

तरला-कौन सी बात?

देशा -अब मैं अपने मुँह से क्या कहूँ?

तरला-यही जो मैंने तुम्हें बूढ़ा कहा?

देशा -अच्छा? अब तुम नगर की ओर जाओ।

प्रेम सेम का कुछ काम नहीं, मैं भी लौट जाता हूँ।

तरला-बाबाजी, रूठ क्यों गए? तुम्हारे ऐसे बहुदर्शी आचार्य्य के लिए थोड़ी थोड़ी बातों पर चिढ़ जाना ठीक नहीं।

देशा -तरला! अब तुम्हें सचमुच रस का बोधा हुआ। युवावस्था में जो प्रेम होता है वह प्रेम नहीं है, आभास मात्रा है। जब तक वयस् कुछ अधिक नहीं होता तब तक मनुष्य प्रेम की मर्य्यादा नहीं समझ सकता। जैसे

तरला-जैसे दूध पक कर खोया होता है, जो दूधा से अधिक मीठा होता है।

देशा -बहुत ठीक कहा। मेरे मन की बात तुमने खींच निकाली। तुम्हारी इन्हीं सब बातों पर न मैं लट्टू हूँ-मर रहा हूँ।

तरला ने देखा कि आचार्य्य की व्याधि धीरे धीरे बढ़ रही है। उसके प्रेम के बढ़ते हुए को रोकना चाहिए। वह आचार्य्य से बोली “छि! छि! बाबाजी, आप करते क्या हैं? मैं एक सामान्य स्त्री हूँ, दासी हूँ। मुझसे आपको ऐसी बात कहनी चाहिए? आप परमपूज्य आचार्य्य हैं। आपने भगवान् बुद्धकी सेवा में अपना जीवन उत्सर्ग किया है। आपके मुँह से ऐसी बात नहीं सोचती।”

देशा -तरला! मैं मर रहा हूँ। चाहे मैं कोई हूँ, मेरा जीवन अब तुम्हारे हाथ है, चाहे रखो चाहे मारो। यदि तुम कृपा दृष्टि न करोगी तो प्राण दे दूँगा।

तरला मन ही मन हँसी, समझी कि रोग के सब लक्षण धीरे धीरे प्रकट हो गए। उसे चुप देख देशानन्द ने उसके दोनों पैर पकड़ लिए और बोला “कहो तरला! मेरे माथे पर हाथ रख कर, शपथ खाकर कहो”। तरला अधीर होकर कहने लगी “हैं हैं बाबाजी, यह क्या करते हो? छोड़ो, छोड़ो इस चलती सड़क के बीच...।” उसने अपने दोनों पैर छुड़ा लिए। देशानन्द भी धूल झाड़ता उठ खड़ा हुआ और बोला-”तो शपथ करो।”

तरला-क्या शपथ करूँ?

देशा -यही कि मुझसे मुँह न मोड़ोगी।

तरला-बाबाजी, बात बड़ी भारी है। चटपट कुछ कह देना कठिन है। इस भरे यौवन में, इस मधुर वसन्त में, किसी एक पुरुष से कैसे मैं कोई प्रतिज्ञा कर सकती हूँ?

देशानन्द मन ही मन सोचने लगे कि स्त्री जाति का व्यवहार ही ऐसा है। किन्तु इस समय कुछ कहता हूँ तो सारा बना बनाया खेल बिगड़ जायगा। अच्छा कुछ दिन सोच विचार लेने दो। जायगी कहाँ? अब तो हाथ से निकल नहीं सकती। जिनानन्द के पास तो झख मारकर इसे आना ही होगा। उधर तरला सोच रही थी कि असहाय के सहाय भगवान् होते हैं। वसुमित्र को मैं बड़ी लम्बी चौड़ी आशा बँधा आई हूँ। उससे कह आई हूँ कि जैसे होगा वैसे छुड़ाऊँगी। पर किस उपाय से छुड़ाऊँगी, यह जब सोचती हूँ तब वार पार नहीं सूझता। पार लगाने वाले भगवान् ने यह अच्छा अवलंब खड़ा कर दिया है। इस बुङ्ढे बन्दर की सहायता से मैं वसुमित्र को छुड़ा सकूँगी। इसे यदि मैं नचाती रहूँगी तो मेरा कार्य सिद्धहो जायगा। इसकी सहायता से मैं सहज में संघाराम के भीतर जा सकती हूँ और वहाँ इसे लगवाकर वसुमित्र को छुड़ाने की युक्ति रच सकती हूँ। उसे चुप देख देशानन्द बोला “क्या सोचती हो, बोलो”।

तरला-तुम किस धयान में हो?

देशा -तुम्हारे।

तरला-तो मैं भी तुम्हारे ही धयान मे हूँ।

देशानन्द ने तरला का हाथ पकड़ लिया और बोला “सच कहो, तरला! एक बार फिर कहो। “सच कहो”।

तरला-बाबाजी! क्या करते हो, हाथ छोड़ो, हाथ छोड़ो, कहीं कोई आ न जाय।

देशानन्द ने उदास होकर हाथ छोड़ दिया और कहा “अच्छा तो मुझे कब उत्तर मिलेगा?”

तरला-कल।

देशा -निश्चय।

तरला-निश्चय?

देशा -तो चलो तुम्हें घर पहुँचा आऊँ।

तरला-अच्छा, आगे आगे चलो।

वृद्धआगे आगे चला। धीरे धीरे नगर का प्रकाश सामने दिखाई पड़ा। नगर में जाकर तरला निश्चिन्त हुई। घर के पास पहुँचकर तरला ने सोचा कि अब बुङ्ढे को लौटाना चाहिए। यदि वह मेरे सेठ का घर देख लेगा तो मेरे कार्य में बाधा पड़ सकती है। कुछ दूर आगे निकलकर वह वृद्धसे बोली “अब तुम मत आओ, लौट जाओ। मेरा पति कहीं तुम्हारे ऐसे युवा पुरुष के साथ मुझे देख पाएगा तो अनर्थ कर डालेगा”। तरला उसे युवा पुरुष समझती है, बुङ्ढा तो इसी बात पर लहालोट हो गया, उसे अपने शरीर तक की सुधा न रही। तरला उसका धयान दूसरी ओर देख चलती बनी। बहुत ढूँढ़ने पर भी बुङ्ढे ने उसे कहीं न पाया।