शशांक / खंड 3 / भाग-5 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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भाग्य का पलटा

पुराने मन्दिर के भुइँहरे में कुशासन पर बैठे महास्थविर बुध्दघोष और संघस्थविर बन्धुगुप्त बातचीत कर रहे हैं। भाग्यचक्र के अद्भुत फेर से वे आजकल हारे हुए हैं। जिस समय वे यह समझ रहे थे कि अब बौध्दसंघ निष्कण्टक हो गया, बौध्दराज्य की नींव अब दृढ़ हो गई उसी समय उन्होंने देखा कि बौध्दसंघ पर भारी विपत्ति आया चाहती है, बौध्दराज्य की आशा मिट्टी में मिला चाहती है। जिस दिन शशांक ने सभामण्डप में प्रकट होकर माधवगुप्त को सिंहासन से उतारा उसी दिन हंसवेग माधवगुप्त को लेकर पाटलिपुत्र से चलता हुआ। बुध्दघोष भी उस समय राजसभा में उपस्थित थे। वे भी सभा छोड़कर भागे, पर नगर में बने रहे। वे जानते थे कि पाटलिपुत्र के अधिकांश निवासी बौध्द हैं इससे शशांक मुझ पर सहसा कोई अत्याचार करने का साहस न कर सकेंगे। बन्धुगुप्त उस दिन राजसभा में नहीं गए थे।

माधवगुप्त के राजत्वकाल में हंसवेग की मन्त्राणा के अनुसार यशोधावलदेव के हाथ से सब अधिकार ले लिए गए थे। उस समय बन्धुगुप्त भी कभी कभी राजसभा में आकर बैठते थे, पर डर के मारे यशोधावल के सामने कभी नहीं होते थे। अकस्मात् भाग्य ने पलटा खाया। कहाँ तो राज्य में उनकी इतनी चलती थी, उनकी मन्त्राणा के अनुसार कार्य होते थे कहाँ वे आज फिर डरे छिपे अपराधियों की दशा को प्राप्त हो गए। स्थाण्वीश्वर के सम्राट प्रभाकरवर्ध्दन कठिन रोग से पीड़ित चारपाई पर पड़े थे। उनके जेठे पुत्र पंचनद में हूणों का आक्रमण रोक रहे थे। शशांक के सिंहासन प्राप्त करने के दूसरे ही दिन बुध्दघोष और बन्धुगुप्तभागने की सलाह कर रहे थे। बन्धुगुप्त ने पूछा ”अब क्या उपाय है?”

बुध्द -बस एक भगवान शाक्यसिंह का भरोसा है-

ये धार्म्मो हेतुप्रभवा

हेतुस्तेषां तथागतोऽवदत्।

तेषां च यो निरोधा

एवं वादी महाश्रमण:ड्ड

बन्धु.-इस समय अपना सूत्रापिटक रखो। धार्म कर्म की बात इस समय नहीं सुहाती है।

बुध्द -संघस्थविर! तुम सदा धार्मशून्य रहे। अब तो त्रिारत्न का आश्रय ग्रहणकरो।

बन्धु.-बाप रे बाप! त्रिरत्न का आश्रय तो इतने दिनों से लिए हूँ। त्रिरत्न क्या मुझे यशोधावल के हाथ से बचा लेगा?

बुध्द -संघस्थविर! ऐहिक बातों को छोड़ परमार्थ की चिन्ता करो।

बन्धु.-भाई! मुझसे तो अभी ऐहिक नहीं छोड़ा जाता। यह बताओ कि अब किया क्या जाय।

बुध्द -शक्रसेन कहाँ होगा, कुछ कह सकते हो।

बन्धु.-इधर तो उसका कुछ भी पता न लगा। उसी ने तो सब चौपट किया। वह न होता तो क्या शशांक कभी बचता? उसकी सहायता न होती तो क्या शशांक आज लौट आता? मेरे मन में तो आता है कि अब भी हम लोगों की खोज में होगा। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है, चटपट यहाँ से चल दो।

बुध्द -ऐसे संकट के समय में संघ को निराधाार छोड़ पाटलिपुत्र से कैसे भागूँ?

बन्धु.-तो क्या यहीं मरोगे?

बुध्द.-मरने से मैं इतना नहीं डरता।

बन्धु.-महास्थविर! बन्धुगुप्त भी मरने से नहीं डरता, पर यशोधावल के हाथों मरना-बाप रे बाप!

बुध्द -तो फिर तुम भागो।

बन्धु.-कहाँ जाऊँ?

बुध्द -सीधो महाबोधि विहार में चले जाओ, वहाँ जिनेन्द्रबुध्दि होंगे।

“अच्छी बात है” कहकर बन्धुगुप्त उठ खड़े हुए। बुध्दघोष ने हँसकर कहा ”इसी क्षण जाओगे?”

“इसी क्षण”।

“अच्छी बात है। भगवान् तुम्हारा मंगल करें”।

बन्धुगुप्त मन्दिर से निकल पड़े। बुध्दघोष अकेले रहे। आधाी घड़ी भी न बीती थी कि बाहर घोड़ों की टापें सुनाई पड़ीं।

बुध्दघोष उठ खड़े हुए। इसी बीच हरिगुप्त, देशानन्द और कई नगररक्षी मन्दिर के भीतर घुस आए। देशानन्द ने बुध्दघोष को दिखाकर कहा ”यही महास्थविर बुध्दघोष है”। दो नगररक्षकों ने चट महास्थविर का हाथ पकड़ लिया। हरिगुप्त ने कहा ”महास्थविर बुध्दघोष! महाराजाधिराज की आज्ञा से राजद्रोह के अपराध में तुम बन्दी किए गए”। बुध्दघोष ने उत्तर न दिया। रक्षक उनके हाथ बाँधाकर उन्हें मन्दिर के बाहर ले गए। हरिगुप्त ने पूछा ”देशानन्द!बन्धुगुप्त कहाँ है?” देशानन्द ने कहा ”संघाराम में होगा”। सब लोग मन्दिर के बाहर हुए।

आधा दण्ड बीते भुइँहरे की एक गुप्त कोठरी से एक दुबला पतला बुङ्ढा भिक्खु निकला और मन्दिर के चारों ओर ढूँढ़कर मन्दिर के बाहर चला। थोड़ी देर में संघस्थविर बन्धुगुप्त फिर मन्दिर में आए और भुइँहरे में जाकर आसन मार भूमि पर रेखा खींचने लगे। आधी घड़ी के भीतर वही दुबला पतला भिक्खु फिर मन्दिर में आने लगा पर भुइँहरे में किसी की आहट पाकर खड़ा हो गया। मन्दिर के द्वार पर मनुष्य की छाया देख बन्धुगुप्त काँप उठे। लेखनी रखकर चट उठ खड़े हुए और द्वार की ओर बढ़े। वृध्द भिक्खु को इसकी कुछ आहट न मिली।

बन्धुगुप्त ने एक फलांग में जाकर वृध्द का गला धार दबाया और पूछने लगे ”तुम कौन?” वृध्द बहुत कुछ बल लगाकर छूटने का यत्न करने लगा। इस हाथापाई में उसके सिर की पगड़ी नीचे गिर पड़ी। बन्धुगुप्त उल्लास से चिल्ला उठा ”अच्छा! शक्रसेन! अब तो तेरा प्राण लिए बिना नहीं छोड़ता”।

भूखे बाघ की तरह संघस्थविर वृध्द शक्रसेन के ऊपर चढ़ बैठा। वृध्द हाथ पैर पटकने लगा। इतने में कुछ दूर पर फिर घोड़ों की टाप का शब्द सुनाई पड़ा।बन्धुगुप्त पगड़ी से शक्रसेन के हाथ पैर बाँधा चट मन्दिर से भाग निकला। उसके भागने के कुछ देर पीछे हरिगुप्त ने आकर शक्रसेन का बन्धान खोला। शक्रसेन ने कहा ”अभी, अभी बन्धुगुप्त भागा है”। हरिगुप्त ने घबराकर पूछा ”कहाँ?”

शक्र -यह तो नहीं कह सकता।

हरि -किस ओर गया है?

शक्र -यह मैं नहीं देख सका।

हरि -कितनी देर हुई?

शक्र -अभी, अभी दो चार पल भी न हुए होंगे। दोनों चट बन्धुगुप्त की खोज में बाहर निकले।