शशांक / खंड 3 / भाग-6 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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बोधिदुरम का कटना

राजपुरुष चारों ओर बन्धुगुप्त का पता लगाने लगे, पर वह पकड़ा न गया। एक नागरिक बन्धुगुप्त को पहचानता था। उसने बन्धुगुप्त को महाबोधि के पथ पर दक्षिण की ओर जाते देखा था। दो दिन पीछे राजपुरुषों को उससे पता लगा कि बन्धुगुप्त नगर से भाग गया है। सुनते ही स्वयं शशांक, यशोधावलदेव, वसुमित्रऔर अनन्तवर्म्मा पाटलिपुत्र से महाबोधि विहार की ओर चले।

दोपहर का समय है। महाविशाल बोधिाद्रुम नामक पीपल के पेड़ की छाया में बैठे विहारस्वामी जिनेन्द्रबुध्दि और संघस्थविर बन्धुगुप्त बातचीत कर रहे हैं। उनके सामने ही वज्रासन था। कई भिक्खु आसपास खड़े हुए यात्रिायों से वज्रासन की पूजा करा रहे थे। बोधिद्रुम के पीछे के महाविहार से असंख्य शंख और घण्टों की ध्वनि तथा धूप की सुगन्धा आ रही थी। इतने में एक भिक्खु दौड़ा दौड़ा आया और कहने लगा ”प्रभो! विष्णुगया से एक अश्वारोही आवश्यक संवाद लेकर आया है, उसे यहाँ ले आऊँ?” जिनेन्द्रबुध्दि ने सिर हिलाकर आज्ञा सूचित की। भिक्खु चला गया और थोड़ी देर में एक अश्वारोही योध्दा को लिए लौटा। उसने प्रणाम करके जिनेन्द्रबुध्दि से कहा ”प्रभो! कुछ गुप्त संवाद है”। जिनेन्द्रबुध्दि बोले 'ये संघस्थविर बन्धुगुप्त हैं। महासंघ की कोई बात इनसे छिपी नहीं है, तुम बेधाड़क कहो”। उसने फिर प्रणाम करके कहा ”सम्राट और महानायक यशोधावलदेव बहुत सी अश्वारोही सेना लेकर महाबोधि की ओर आ रहे हैं। हम लोगों के गुप्तचर ने कल रात को उन्हें प्रवरगिरि1 के नीचे शिविर में देखा था। बड़े तड़के मैं संवाद पाते ही चल पड़ा। अब वे विष्णुपदगिरि को पार कर चुके होंगे”।

इतना सुनते ही बन्धुगुप्त घबराकर उठ खड़े हुए। यह देख जिनेन्द्रबुध्दि बोले ”संघस्थविर! कोई डर नहीं है, घबराओ मत। अश्वारोही को विदा करके वेबन्धुगुप्त को साथ लिए महाबोधि विहार में गए। उस समय भी महाबोधि विहार के ऊपर चढ़ने के लिए दो स्थान पर सीढ़ियाँ थीं, उस समय भी विहार के दूसरे खण्ड में भगवान् शाक्यसिंह की पत्थर की खड़ी मूर्ति थी। दोनों दक्षिण ओर की सीढ़ी से चढ़कर दूसरे खण्ड में पहुँचे और वहाँ से भुइँहरे में उतरे। वहाँ एक रक्ताम्बरधारी भिक्खु बैठा पूजा कर रहा था। जिनेन्द्रबुध्दि ने उसे बाहर जाने को कहा। उसे वहाँ से निकल जाना पड़ा। जिनेन्द्रबुध्दि ने गर्भगृह का द्वार बन्द करके बन्धुगुप्त के हाथ में एक दीपक देकर कहा ”मैं आपको ऐसे स्थान पर ले चलकर छिपा देता हूँ जहाँ सौ वर्ष ढूँढ़ता ढूँढ़ता मर जाय तो भी आपके पास तक कोई नहीं पहुँच सकता। विहार के चौड़े प्राकार के बीचोबीच सुरंग है जो बोधिद्रुम के नीचे से होकर गया है”। इतना कहकर जिनेन्द्रबुध्दि ने दीवार पर हाथ फेरा। हाथ रखते ही एक छोटासा द्वार खुल पड़ा। दोनों उसके भीतर घुसे।

रक्ताम्बरधाारी भिक्खु गर्भगृह के द्वार पर आसन जमाए किवाड़ की ओर कान लगाए उन दोनों की बातचीत सुनता था। सुरंग बोधिद्रुम और वज्रासन के नीचे गयाहै इतना भर सुन पाया। इसके अनन्तर वह बहुत देर तक बैठा रहा, पर और कोई शब्द उसे सुनाई न पड़ा। वह धीरे-धीरे लोहे की सीढ़ी के सहारे मन्दिर के ऊँचे शिखर परचढ़ गया। वहाँ से उसने देखा कि दूर पर निरंजना नदी के किनारे किनारे बहुत सी अश्वारोही सेना घटा के समान उमड़ती महाबोधिविहार की ओर दौड़ी चली आ रही है। यह देख वह मन्दिर के शिखर पर से उतरा। उतर कर उसने देखा कि गर्भ गृह का द्वार खुला है और वहाँ सन्नाटा है। वह विहार से निकल कर राजपथ पर जा खड़ा हुआ।

सुरंग का मार्ग पकड़े हुए जिनेन्द्रबुध्दि बन्धुगुप्त के साथ नीचे उतरे। जहाँ सुरंग का अन्त हुआ वहाँ लोहे का एक छोटा सा द्वार दिखाई पड़ा। उन्होंनेबन्धुगुप्त को उसके खोलने का ढंग बताकर कहा ”आप बेखटके यहाँ छिपे रहें। महाबोधिविहार के अधयक्ष के अतिरिक्त और किसी को इस सुरंग का पता नहीं है। यदि किसी प्रकार किसी को इस सुरंग का पता लग जाय, और कोई ढूँढ़ता ढूँढ़ता यहाँ तक आने लगे तो आप चट यह लोहे का किवाड़ खोलकर आगे निकल जाइएगा। निरंजना


1. प्रवरगिरि = बराबर पहाड़।

के उस पार आप निकलेंगे। वहाँ बीहड़ वन में होते हुए आप कुक्कुटपादगिरि1 पर चले जाइएगा।” जिनेन्द्रबुध्दि ने ऊपर आकर गुप्त द्वार बन्द कर दिया और गर्भगृह के बाहर आकर उन्होंने देखा कि वहाँ कोई नहीं है। वे फिर आकर बोधिदु्रम के नीचे आसन जमाकर बैठ गए।

आधा दण्ड बीतते बीतते कई सहò अश्वारोही सेना ने आकर महाबोधिविहार और संघाराम को घेर लिया। सम्राट शशांक और यशोधावलदेव ने आकर विहारस्वामी जिनेन्द्रबुध्दि से बन्धुगुप्त का पता पूछा। उन्होंने कहा ”बन्धुगुप्त तो इधर बहुत दिनों से नहीं दिखाई पड़े”। शशांक को उनकी बात पर विश्वास न आया। चारों ओर बन्धुगुप्त की खोज हुई, पर कहीं पता न लगा। यशोधावलदेव की आज्ञा से संघाराम के एक एक भिक्खु ने बोधिादु्रम के नीचे का वज्रासन स्पर्श करके शपथ खाई कि ”मैंने बन्धुगुप्त को नहीं देखा है”। सब भिक्खुओं ने झूठी शपथ खाई। केवल एक भिक्खु ने शपथ नहीं खाई। यह वही रक्ताम्बरधारी भिक्खु था।

यशोधावलदेव ने जब बन्धुगुप्त का पता पूछा तब उसने कहा ”बन्धुगुप्त कहाँ हैं यह तो मैं नहीं कह सकता, पर वे किस मार्ग से गए हैं यह मैंने सुना है”। यशोधावल ने बड़े आग्रह से पूछा ”किस मार्ग से?” भिक्खु बोला ”सुरंग के मार्ग से”।

“सुरंग कहाँ है?”

“वज्रासन और बोधिदु्रम के नीचे”।

क्रोधा से विहारस्वामी जिनेन्द्रबुध्दि का मुँह लाल हो गया; बड़ी कठिनता से अपना क्रोधा रोककर सम्राट ने कहा ”महाराजाधिराज ! बोधिदु्रुम के नीचे से सुरंग नहीं है”।

शशांक-है या नहीं यह तो अभी देखा जाता है।

जिनेन्द्र-सर्वनाश, महाराज! बोधिद्रुम पर हाथ न लगाएँ।

शशांक-क्यों, क्या होगा?

जिनेन्द्र-सृष्टि के आदि से बुध्दगण इसके नीचे बैठ बुध्दत्व प्राप्त करते आए हैं, इसका एक पत्ता छूने से भी महाराज का मंगल न होगा।

शशांक-अमंगल ही होगा न?

सम्राट ने कई सैनिकों को बोधिद्रुम काटने की आज्ञा दी। भिक्खु लोग रोनेचिल्लाने लगे। बोधिाद्रुम की डालें और टहनियाँ कट कटकर गिरने लगीं। धीरेधीरे पेड़ी भी खोद डाली गई। वज्रासन का भारी पत्थर अपने स्थान से हट गया। नीचे सुरंग निकल आया, पर उसके भीतर बन्धुगुप्त का कहीं पता न लगा। दिन डूबतेडूबते सुरंग के छोर पर का लोहेवाला द्वार जब तोड़ा जाने लगा उस समय बन्धुगुप्त गगनस्पर्शी कुक्कुटपादगिरि के पास पहुँच गए थे। शशांक और यशोधावलदेव विफलमनोरथ


1.कुक्कुटपादगिरि = गुरपा पहाड़।

होकर पाटलिपुत्र लौट गए।

इस घटना के चवालीस वर्ष पीछे जब चीन देश से एक धार्म्मात्मा भिक्खु आया तब उससे विपथगामी भिक्खुओं ने कहा कि महाराज शशांक ने धार्मद्वेष के कारण परम पवित्रा बोधिाद्रुम को कटाया था इससे पृथ्वी फट गई और वह उसके भीतर समाकर घोर नरक में जा पड़ा। अन्त में अशोक के वंशधार पूर्णवर्म्मा की भक्ति और सेवा के प्रभाव से एक रात में ही बोधिद्रुम फिर ज्यों का त्यों हो गया। जड़ से उखाड़ा हुआ वृक्ष किस प्रकार एक ही रात में बढ़कर साठ हाथ का हो गया यह बताना इस आख्यायिका का विषय नहीं, पर धार्मप्राण चीनी परिव्राजक ने यह कहानी ज्यों की त्यों अपने भ्रमणवृत्तान्त में टाँक ली।