शालभंजिका / भाग 1 / पृष्ठ 1 / मनीषा कुलश्रेष्ठ
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गोआ की मेरी यात्रा, मेरी अपनी खोई आत्मा की खोज की एक शुरुआत थी। मैं जान गया था कि दूसरे मनुष्यों के साथ के बिना मनुष्य नहीं हुआ जा सकता था। मैं बहुत अकेला भटक लिया, मैं सही-सलामत पुरानी दुनिया में वापस आना चाहता था। मैं अपने पुराने इश्क की तरफ लौट रहा था, फिल्म और पद्मा। मुझे शून्य से शुरू करना था, बिना किसी हेल्युसिनेशन (मतिभ्रम) का शिकार हुए। गोआ ने मेरा जीवन ही बचा लिया। वहाँ रह कर मुझे खुद से लम्बी जिरह करने का अवसर मिल गया।
'गोआ फिल्म फेस्टिवल' के शुरू होने में कुछ दिन बाकी थे, मैं ज्यूरी में था। मैं मुम्बई से उकता कर, कुछ दिन पहले ही चला गया था और एक दिन पणजी के एक सुनसान चर्च की सीढ़ियों पर, बियर के सुरूर में बैठा था कि मेरा मोबाइल घनघनाया।
"सुना फिर फिल्म आजमाना चाहते हो?"
"किसने कहा?" "पुराने साझे यारों ने... लिख ली?"
"नहीं… "
"सोच ली?"
"न… ह "
"फिर क्या... !"
"है, बस एक थॉट… एक लड़की को लेकर।"
"एक थॉट पर पैसा लगा दें तो तुम्हारी तरह घर बेचना पड़ेगा… छवि बता रही थी कि…"
"चुप रहो, उसका नाम भी मत लो, क्या उसने तुम्हें यह नहीं बताया कि उसे एलीमनी भी चाहिए थी, घर भी। पैसा था नहीं तो घर बेच कर चार साल उसके साथ सोने की कीमत चुका दी, बेटी पालने की हर महीने चुका रहा हूँ… कीमत।"
"कैसा बोलने लगे हो। जाने दो। तुम दोस्त हो मेरे। कद्र है मेरे को तुम्हारी... तुम चाहो तो स्क्रिप्ट लिख कर मुझे दे दो, इसे कोई और बना लेगा।"
"बेकार है यह बात, बनाऊँगा इसे मैं ही, या नहीं बनाऊँगा। या तो यह मेरा मास्टरपीस होगी या ऐसी फ्लॉप कि फिर तुम मुझे उस दुनिया में देखोगे ही नहीं। छोड़ दूँगा फिल्म बनाना।" "ठीक है मेरे गुरुदत, मगर कब तक? हम इस जनवरी में एक पिच्चर फ्लोर पे उतारना चाहते हैं।"
"लड़की ढ़ूँढ़ रहा हूँ, बस मिलते ही शूटिंग होगी।"
" अभी कहाँ हो?"
"बाद में बताऊँगा।" "देखो चेतन, तुम होगे महान स्क्रीनप्ले राइटर, या पिट चुके फिल्म-मेकर, तुम दोस्त हो पहले। तुम्हारे टूटते मस्तूल को किसी शहतीर की नहीं, बेन्द्रे की ज़रूरत है, यह बात याद रखो और लौट कर मुम्बई आओ, लड़कियाँ यहाँ भी बहुत हैं।"
सीढ़ियों से उतर कर मैं एक सस्ते रेस्तराँ में जा बैठा और खिड़की से बाहर ताकता रहा, भीतर की सीली, नमकीन और बासी हवा में साँस लेते हुए मुझे नहीं पता था कि मैं क्या नई शुरुआत करना चाहता था। बेन्द्रे अगर फोन करके ऑफर करता है तो बड़ी बात है, वह अनुभवी है, कान नहीं, आँख से सुनता है, वह अगर फाइनेंस करेगा तो औरों के लिए। चाहे दस शर्त रखेगा, मुझे बिलकुल आजाद छोड़ता है।
"चेतन, ये नहीं है कि तुम स्पेशल हो, तुम जब फिल्म बनाते हो, मेरे अन्दर का कलाकार सेटिसफाई होता है… क्या है कि मैं तो बना नहीं सकता न, इस तरह का पिच्चर। तुम फिल्म के जरिए सूफी पोएट्री बनाते हो। एण्ड आय लव सूफी पोएट्री। तुम सही कहते हो फ्रेण्ड कि फिल्म की दुनिया में जिन्दगी की असल बात नहीं कहते, बल्कि मन की बात को आधे सच आधे झूठ में लपेट कर कलात्मक तमाशे की तरह कहते हैं। सही है, मन की बात पूरी की पूरी सच कह दें तो सारा तमाशा खत्म। खूबसूरती खत्म। 'एडविन पोर्टर' की ईजाद ये 'मूवी' खत्म हो जाए।"
कुछ अलौकिक पलों को दुबारा निराकार तौर पर जीने की आत्मछलना का ही दूसरा नाम है 'स्मृति'। एक स्मृति जिसमें वह थी और मैं था, अब मैं उस पर फ्रेम लगाने की कोशिश में हूँ। एक सुनहरा फ्रेम। समय को पलटना चाहता हूँ, मूवी कैमरे की गुस्ताख आँख से। फरवरी के शुरू की हवा अब तक मेरी यादों में बह रही है। जब मैदानों की घास धूप में नहा रही थी। वृक्षों की परछाइयाँ करीब सरक रही थीं। हम मानो अपने ही सपनों में मँडरा रहे थे। मैं कोई दूरी, , दर्द या उपेक्षा नहीं महसूस करता, बस स्मृतियों में फ्रेम लगाने की कोशिश में हूँ। प्रकाश, लेन्स और कैमरे के एक बटन की हरकत से चुरा लिए गए पलों की तरह।
"तुम सीधे-सीधे फोटो नहीं खिंचवा सकती? कभी गुलाबी फूल वाली कनेर के पेड़ की डाल पकड़ लोगी, कभी अमलतास की फूल लदी डण्डी लेकर खड़ी हो जाओगी। कभी बबूल के फूल कान में पहन लोगी कभी... तुम हमेशा फोटो खिंचाने में शालभंजिका क्यों बन जाती हो?"
मेरे सामने कागज का एक टुकड़ा था। एक पुरानी काली-सफेद फोटो को सादे कागज पर उतारा, मगर कुछ धुँधला प्रिंटआउट जिसके पीछे घसीटी हुई चार-पाँच लाइनें थीं।
"आखिरी दिन, रात के आठ बजे घना कोहरा, घंटाघर के बगल से निकली एक लड़की, गली के मुहाने पर पुरानी नीली कार में इंतजार करता एक दुबला-सा लड़का, लम्बी ड्राइव... शहर के बाहरी हिस्से में... एक भग्न, निर्जन मंदिर, शिरीष के मीलों फैले जंगल, शिरीष के पीले फूलों के खिलने के मौसम में पगला देने वाले नीले चाँद का निकलना। रेलवे क्रॉसिंग और लड़की का शिरीष की एक फूलों भरी डाल तोड़ लेना - "शालभंजिका?"
"मैं इसी टुकड़े पर उम्मीदें टिकाए बैठा था। 500 पन्नों की, पूरी 2 घंटे 20 मिनट की पिक्चर के लिए यह स्क्रिप्ट कुछ छोटी नहीं? कुछ... "
"तुम होगे बहुत बड़े स्क्रीनप्ले राइटर।” मैंने दोहराया, मैं मुस्कुराया। कागज पलटा, काला-सफेद अण्डाकार चेहरा, लम्बी, गहरी आँखें। बहुत छोटे घुँघराले बाल बस, ठोड़ी छूते हुए। "यहाँ है मेरी पूरी पाँच सौ पन्नों की स्क्रिप्ट।" मैं सीटी में गुनगुनाने लगा - हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया।
दरअसल, अब मैं ढूँढ़ रहा था एक चेहरा। मेरे पुराने फक्कड़ दिनों के खाली वॉलेट में बरसों लगी एक तस्वीर से मिलती-जुलता चेहरा। जिसकी आँखों में यंत्रणा देता आमंत्रण हो, 'वार एण्ड पीस' की नताशा-सा। माने की पेंटिंग 'लंचन ऑन द ग्रास' की-सी स्त्री हो, अपनी सम्पूर्ण नग्नता में भी अति सहज, अपनी नग्न सुन्दरता से अनभिज्ञ, अमृता शेरगिल की सेल्फ-पोर्ट्रेट- सी। बोदलेयर की मालाबार लेडी, जिसकी बगलों में बारिश में भीगे शिरीष की गन्ध हो। आँखों में कभी न मिटने वाली उदासी हो।
"व्हाट चार्म कैन सूद हर मैलेंन्कली?"
"व्हाट आर्ट कैन वाश हर गिल्ट? "
गोल्डस्मिथ की इन पंक्तियों पर जो यूँ की यूँ उतर आए वह औरत कहाँ ढ़ूँढ़ूँ? अब तक मैं कुछ-कुछ वैसी ही दिखती केवल तीन लड़कियों से मिला हूँ। मुम्बई में, हैदराबाद में... मैंने अपनी बिन लिखी स्क्रिप्ट के किरदार के लिए हर उस लड़की से मुलाकात की है जो जरा-सी भी उसके जैसी थी। चाहे वह सुपरमार्केट में कैश काउंटर पर बैठी लड़की हो, या कॉफी हाउस की वेट्रेस जो हू-ब-हू वही लगती थी मगर... वह हँसती हुई बहुत बुरी थी और आवाज उसकी बैठी हुई थी। एक तैराकी की चैम्पियन के पीछे तो मैं तीन दिन पड़ा रहा, बल्कि स्विमिंग पूल के लॉकर रूम के बाहर इंतजार तक किया। जबकि उसका जबड़ा ही केवल उस किरदार से मिलता था। एक स्कूल टीचर भी थी, मगर बात जमी नहीं।
भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों की एक ही सड़क होती है, बीच के तीन जोड़ हम देख नहीं पाते, हम अपने भविष्य को आसमान की तरफ जाती सीढ़ियों जैसा समझते हैं, पर वह तो यहीं पसरा होता है, लगभग तय-सा, हमारी ही प्रतीक्षा में, यह इसीलिए बता रहा हूँ कि 'गोआ फिल्म फेस्टिवल' के ठीक आखिरी दिन मुझे ग्रेशल मिली। 'कला अकादमी' की सीढ़ियाँ हम जल्दी-जल्दी साथ-साथ उतरे, मैं चौंका, मुझे उदयपुर का जगदीश मंदिर याद आ गया, बचपन में मैं और पद्मा ऐसे ही साथ उतरते थे। वह तो बहुत जल्दी में थी, कि मानो कहीं आग लगी हो। मुझसे भी कहीं जल्दबाजी में! जबकि एक घण्टे में मेरी फ्लाइट थी, डबलिम एयरपोर्ट से। मेरी टैक्सी प्रतीक्षा में थी नीचे, मगर वह मुझे पीछे छोड़ तेजी से उतर कर पोस्टर पेंट कर रहे एक लड़के के पास जा खड़ी हुई और कमर पर हाथ रख कर गौर से देखने लगी पोस्टर को। जो शायद अगले दिन होने वाले प्ले के स्टेज के लिए तैयार हो रहा था। मेरी नजर उसकी पीठ पर जम गई थी, लम्बा धड़, लम्बी गरदन और कनपटी से नीचे ठोड़ी तक छोटे घुँघराले बाल, मैं ठिठक गया, उसने हाथ कमर के पीछे बाँध रखे थे, एक हाथ में जेकेरेण्डा के जामुनी फूलों की डाली भी थी। उफ्फ! 'शालभंजिका'!
मैं उसके सामने मुड़ने की प्रतीक्षा में ठिठक गया। मैं बाकी की तीन सीढ़ियाँ उतर गया, मेरे ठिठक कर रुक जाने को उसकी स्त्रियोचित छठी इन्द्रिय ने महसूस किया, वह मुड़ी और स्थिर भाव से मुझे देखा, उसकी आँखें आक्रमण करती प्रतीत हुईं कि बाकी का चेहरा देख ही नहीं सका। समूची देह वही थी। वही कदो-बुत, वही यौवन की उच्छृंखलता में कटे देह के कगार, फिसलनें और उठान, ढलाव। मेरा घड़ी में वक्त देखने का मन नहीं हुआ, वक्त देखा तो बस वक्त ही देखता रह जाऊँगा। मैंने जाना स्थगित कर दिया, अनियत काल के लिए। यूँ भी फिल्म फेस्टिवल में देखी फिल्मों, 'कला अकादमी' की खूबसूरत इमारत, कलाकारों का जमघट, एम्फीथियेटर, आर्ट गैलेरी, लाइब्रेरी, सेमिनार हॉल, रिकॉर्डिंग रूम। माण्डोवी नदी के किनारे हरा-भरा अहाता। इन सब ने मेरे बरबाद मन को सँवारा था।
दूसरी बार मैं उसके नाटक को देखने जब गया, तब वह चे गुएरा के पोस्टर के नीचे खड़ी सिगरेट पी रही थी, उसकी कलाई पर चौड़े पट्टे वाली घड़ी थी जिसे वह बार-बार देख रही थी। मेरे पीछे आती निग़ार ने मुझे हैरानी से पूछा था, "जानते हो उसे?"
"नहीं, जानना चाहता हूँ। तुम जानती हो?"
"परिचय जैसा तो नहीं पर हाँ जानती हूँ। नई थिएटर आर्टिस्ट है, जय के ग्रुप की।"
उस दिन किसी कोंकणी नाटक का शो था, जिसमें वह भूमिका निभा रही थी। मैं देखना चाहता था मगर हाउसफुल! कोंकणी लोग दिल से कलाकार होते हैं यह पता था, नाटक देखना, थियेटर जाना गोआ के लोगों के कल्चर में है, यह नई खबर थी। अब देखना था तो बस खड़े होकर, कुछ देर खड़े होकर देखा, पूरा प्ले तो नहीं देख सका, मगर अनजान जबान के नाटक - संवादों के बावजूद यह जान लिया कि वह अभिनय कर सकती है।
तीसरी बार जय मुझे उससे मिलवाने ओल्ड गोआ ले गया, ओल्ड गोआ यानी बहुत-से पुराने खण्डहर - खण्डहर गिरजे। गम्भीर सुरों में मन को छूने वाली प्रार्थनाएँ, शांत-फुसफुसा कर बतियाते लोग। पुर्तगाली इमारतें, दीवारों पर पुर्तगाली गवर्नरों के तैलचित्र।
शाम ढल रही थी, धूप अपनी फ्रॉक के फ्रिल्स समेट रही थी, एक खण्डहर चर्च के पीछे सटे-सटे घरों का मोहल्ला था, आगे अहाता।
"वो रहा उसका घर और वह देखो। वही है न!" वहाँ वह छोटा-सा ब्लाउज-मिनी स्कर्ट पहने अपनी गूज़ (बतख) के पीछे दौड़ रही थी, मैं मुस्कुरा दिया। उसे देख कर मुझे 'बाथ शीबा' याद आ गई। जो नहाते-नहाते ही नग्न सुनहले पंख वाली बतख के पीछे भागी थी। "मर्लिन, मम्मी तुमको इस ईस्टर को पका ही देंगी, अगर तुम न सुधरीं तो। लड़ाका कहीं की, जलकुकड़ी!" बतख उसकी बाँहों में फड़फड़ा रही थी और चोंच से आक्रमण कर रही थी। मैं एकदम उसके पीछे खड़ा था, मेरे साथ जय... वह चौंक गई।
एक साधारण मध्यमवर्गीय घर था, जिसके अगले हिस्से को एक रेस्तराँ बना दिया गया था।
"फिल्म-विल्म नहीं... हमें तो बेटे के पास आस्ट्रेलिया जाना है।"
ग्रेशल ने हमें जाते हुए एक चिट पर अपना फोन नम्बर देकर कान पर उँगलियों को कान से सटा कर फोन करने का इशारा किया तब उसकी आँखें कंचों की तरह चमक रहीं थीं।
एक दिन मैंने उसे फोन करके पणजी बुलाया, नीली दीवारों और सफेद खिड़कियों वाले रेस्तराँ में जिसकी दीवारें भीतर से पीली थीं। सिगरेट के धुएँ, प्रॉन बॉलचॉओ और फेनी की मिली-जुली महक से भरा था रेस्तराँ। "ग्रेशल, हमारा असली चरित्र वही होता है जब हमें कोई नहीं देख रहा होता है। तुम्हें पता भी नहीं था कि कैमरे की आँख से मैंने तीन बार तुममें उस लड़की को देखा है, जिस पर मैं फिल्म बनाने जा रहा हूँ।" मैंने उसे बताया पहली बार 'पद्मा' के बारे में, संक्षेप में। "ऐसी लड़कियाँ होती हैं क्या?" यही बात फोन पर बेन्द्रे ने कही थी, "कहीं होती हैं ऐसी लड़कियाँ क्या? होती हों तो ढूँढ़ ला ऐसा चेहरा। बनाते हैं फिल्म।"
"स्क्रिप्ट कहाँ है?" "चेहरा मिल जाए बस... बल्कि मिल गया।"
"आर यू श्योर?"
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