शालभंजिका / भाग 1 / पृष्ठ 2 / मनीषा कुलश्रेष्ठ
बहुत खाली दिन थे वो, मैं पोस्टग्रेजुएशन कर चुकी थी और एक सात साल लम्बे प्रेम से टूट कर उबरी थी। मैं बहुत अकेली थी, मेरे पास बढ़ती उम्र थी, विरासत में मिला नारियल और काजू के पेड़ों से ढँका छोटा-सा कॉटेज था, जिसे मम्मी और मैंने मिल कर एक छोटे रेस्तराँ की शक्ल दे दी थी। ओल्ड गोआ से पंजिम लौटते हुए, उस छोटे-से रेस्तराँ से इतने पर्यटक तो आ ही जाते थे कि हमारी जिन्दगी ठीक-ठाक चल जाए। मम्मी का स्वार्थ था कि मोह, उन्होंने कभी मेरी शादी की बात नहीं चलाई। कभी मेरे पापा की बहन आन्ट स्टैला किसी लड़के का जिक़्र करती तो वह ठण्डे चेहरे के साथ सुनती और कोई उत्तर नहीं देती। आन्ट स्टैला जाते हुए फुसफुसाती, “ग्रेशल, तुम्हारी मम्मी का तुमको नन बनाने का इरादा तो नहीं?” मम्मी पीछे-पीछे आकर पूछती, “क्या कहती थी तेरी यह आन्ट स्टैला?”
फिर बड़बड़ाती हुई लौट जाती, “हमें कोई जल्दी नहीं है। फिलीप ने कहा है, वह हम दोनों को आस्ट्रेलिया बुला लेगा। उसने एक लड़का फिक्स किया है तुम्हारे वास्ते।”
लगता है, मम्मी, समय की रफ्तार गिनना भूल गई हैं, फिलिप को चार साल हो गए थे, आस्ट्रेलिया गए हुए। पहले चिट्ठियों में और अब फोन पर, वह अपनी मम्मी से यही कहता आ रहा था। चार साल हुए मैंने भी अपने बाईसवें जन्मदिन के बाद अपनी उम्र का हिसाब रखना बन्द कर दिया था।
जब से पापा गुजरे, मम्मी ने अपने आपको रेस्तराँ के गोअन मेन्यू और अपने कस्टमर्स के लिए ढाल लिया था। काम मम्मी की दिनचर्या में रोजरी के मनकों की तरह एकसार गुँथे रहते थे। उनके हर काम में सलीका और तरतीबी होती थी। रेस्तराँ की मेजें हों कि बार के कपबोर्ड में लगी क्रॉकरी का रंग, रूप, आकार और आकृति का क्रम नहीं टूटता। तरतीबवार जमे होते जैली, मुरब्बों, अचारों, चटनियों, सीजनिंग और टॉपिंग्स के जार। वहाँ लाल के बाद नारंगी आता और फिर पीला फिर हल्का पीला और अंत में सफेद चोकोर के बाद तिकोने और फिर गोल होते किनारों के बर्तन - हर चीज में तरतीब। रेस्तराँ की सज्जा यूँ सादा थी मगर रंग, रूप, आकार और आकृति की यह तरतीबी उस सज्जा को अनूठा बना देती। काम, काम और काम। ऑफ सीजन में भी वह व्यस्त रहती। कभी टूटी फेन्स ठीक करवाती तो कभी किचन के सिंक की रुकी हुई नालियाँ।
मैंने उकता कर थिएटर में काम करना शुरू कर दिया था। जय मेरे कॉलेज का सीनियर था, सो उसके हर प्रोडक्शन में काम मिल जाता था। कुछ न कुछ रोल, रोल नहीं तो पोस्टर बनाने का, या कॉस्ट्यूम मैनेजमेंट। मुझे मजा आता, मम्मी के मोनोटोनस रूटीन से निजात मिलती। मैं अकसर जिन्दगी के झूले की रस्सियों को काम और तरतीबी की ऐंठनों में गोल-गोल घुमा कर छोड़ देती। ऐंठनें खुलतीं, फिर बँधतीं, यह सिलसिला खत्म ही नहीं होता। मैं गोल-गोल घूमेती रहती। एक दिन जिन्दगी में लगी घेर-घुमेर ऐंठनों वाले झूले को सचमुच किसी ने रोक दिया था। ऑफ सीजन के एक लम्बे, बरसते दिन की ढलती साँझ थी। हाथ और दिमाग के समन्वय को बिगाड़ते हुए ऐसे ही पागल समय के टुकड़े में बन्द थी मैं। जाने कब, जाती हुई धूप के धब्बों पर चल कर वह आया था। चुपचाप मेरे पीछे आकर खड़ा हो गया था, साँस रोक ली थी क्या? मुझे भान तक नहीं हुआ था। मैं दड़बे से निकल भागी, मर्लिन मनरो यानी अपनी लड़ाका बतख को पकड़ चुकी थी।
वह और जय दोनों चर्च के पीछे बसी हमारी कॉलॉनी में पहुँचे थे। मैं हिचक रही थी, पर वे दोनों सहज थे, गलियों में ऐसे चलते आये थे मानो वे बहुत जानी-पहचानी हों। मैंने पलट कर देखा, "ए स्ट्रेंजर!"
बेतरतीब दाढ़ी, ओजस्वी पेशानी, सलेटी-हरे-नीले रंगों की परछाइयों में तैरती आँखें, जिनके नीचे हमेशा रहने वाली एक सूजन। अच्छे-से आकार वाले थोड़े पृथुल होंठ जो सिगरेट से जल कर लाल से कत्थई-सलेटी हो चले थे। तप कर निखरे काँसे का-सा रंग। लापरवाही से सहेजी देह, दुबली-पतली।
ये चेतन भाटी हैं, फेमस स्क्रिप्ट राइटर और फिल्म-मेकर। वह आराम से बाहर ही बेंच पर बैठ गया था। मैं उसे पहले ही पल से जानती थी कि मम्मी के मना करने पर भी मैं इस व्यक्ति से मिलूँगी, जो काम मिला वो काम करूँगी, गोआ से बाहर ज़रूर निकलूँगी।
दूसरी-तीसरी मुलाकात को मैंने उस व्यक्ति को समझने में लगाया। चौथी बार मैं उससे मटमैली दीवारों वाले, खाली पड़े कैफे में मिली। वह एक बे-रौनक बाजार के ऊपर था, मगर नीचे का शोरगुल बिलकुल ऊपर नहीं आता था। कैफे के साथ एक टैरेस जुड़ा था, शायद शाम को लोग बाहर बैठते हों, फिलहाल तो धूप का समन्दर फैला था। वहाँ लम्बोतरी सफेद पेंट की हुई कुर्सियाँ लगी थीं, गोल मेजों के गिर्द, काई लगे छज्जों के किनारे-किनारे कई फूलों से लदे गमले सजे थे। पोर्चुला के लाल, पीले, गुलाबी फूल खिले थे, मगर शाम को तो ठीक पाँच बजे ये पँखुरियाँ समेट के चलते बनेंगे, तभी तो इन्हें 'ऑफिस टाइम' कहता है मेरा माली।
हम टैरेस की तरफ खुलने वाली खिड़की के पास बैठे थे। करीब से मैंने उसके चेहरे को देखा, वह चुप था। मैंने उसके चेहरे की हल्की झुर्रियों में फँसे तेज के जुगनुओं को देखा। कॉफी आ गयी थी, जिसकी महक बहुत उम्दा थी। 'मोचा' उसकी पसन्द थी। मैंने पहला घूँट लिया, बहुत तुर्श, इस तुर्शी को कम करने के लिए मैंने प्लम केक की स्लाइस को कुतरा, मगर वह बनी रही। दोपहर बेहद नम और गर्म होने की वजह से सुस्त थी, उसकी आँखें बदली-बदली- सी थीं, मोर के ताँबई-सलेटी अण्डों जैसे गोलकों से वह लगातार मुझे देख रहा था, मैं अपने पिछले नाटक की बात कर रही थी। वह अब भी खामोश था। उसके माथे पर झुर्रियों का बना, भँवर-सा था। ऐसा भँवर किसी पेशानी पर नहीं देखा था कभी मैंने , मानो समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य और उन रहस्यों के दस्तावेजों की चाभी यहीं छिपी हो।
जब हम कॉफी खत्म कर चुके तब उसने फोलियो-बैग से कुछ कागजात निकाल कर मेज़ पर रखे, "तुम मेरे साथ काम कर रही हो, फिल्म में। मगर स्क्रिप्ट नहीं है, ये कॉंन्ट्रेक्ट पेपर है।"
"आप तो अभी स्क्रिप्ट लिख..." "जिस स्क्रिप्ट को जिया हो उसे क्या लिखूँ?"
"मगर मेरा रोल? मैंने तो नहीं जिया है न। साइन करने से पहले जानना होगा न..."
"समझा दूँगा, वह रोल करना नहीं, जीना ही है।" "मगर?" "देख लो… " कह कर उसने वेटर को पैसे पकड़ाए और मुझे हैरान छोड़ सीढ़ियाँ उतर गया, "अजीब बन्दा है।"
अब मुझे उससे सम्पर्क करना है, यह तय था, 'ऐसे ब्रिलिएंट आदमी की तो डब्बा बन्द में भी काम करके लोग क्या नहीं सीख जाते।' स्टालिन यही बोलता था।
मैं सोच रही थी कि जो हो रहा है वही तो होना था न, हैरानी की बात तो यह है कि वह बता रहा था कि मुझसे मिलने से पहले उसने कई लड़कियाँ देखी हैं।"
कुछ दिन वह मुम्बई गया फिर लौट आया। मैं जब तक उसे फोन करने की सोचती उसी का फोन आ गया। "आ जाओ पणजी।" "देखो, फोन पर कुछ तय नहीं होता। एक बार तो आना ही है, अगर तय करना है किरदार तो... है तो... तब बैठेंगे आराम से, सुकून से, बातें करेंगे।"
बस हुआ यही कि... खामोश रहने की ख्वाहिश हो तो बुला कर उसे, बिठा कर सामने घन्टों, बैठे हैं, बिना नजर मिलाए, ताक रहे हैं शून्य में सलेटी आँखों से। वह बोले जा रही है, बोलते-बोलते अपनी पसन्द के किरदार के बारे में, स्क्रिप्ट के बारे में वह अचानक महसूस करती है, माथे पर पड़े भँवर जैसे जाल में कोई हरकत और चुप हो जाती है वाक्य अधूरा छोड़ कर।
सुन भी रहा है यह कि...
"सच कहूँ, मेरे दिल के करीब अगर कोई फिल्मी किरदार रहा है तो... वह है... "
उसके होंठ हल्का-सा खिंचते हैं बारीक मुस्कान में, क्या उपहास उड़ा रहा है? वह संजीदा होने की कोशिश में चुप हो जाती है। फिर संवाद का एक अन्धा मोड़, उसका मन खीज से भर जाता है और रोने को करने लगता है।
तभी अचानक कह उठता, "अच्छी लग रही हो, स्कर्ट की जगह जींस ही पहना करो, चलें अब अगली मुलाकात में बात करेंगे पूरी स्क्रिप्ट पर।
उन्हीं बिना लेन-देन वाले दिनों में, एक निर्लिप्त, निस्पृह आकर्षण, चुप्पे प्रेम को महसूस करते हुए थरथराते दिनों में, मैं कई बार उससे मिली। हमेशा ऐसा होता तो नहीं था। मगर उस सारी शाम वही बोलता रहा। उस किरदार के बारे में। शाम की रूमानियत लिए मुस्कुराता हुआ। मँहगी शराब मँगवाते हुए, वह मेरी हर ज़रूरत पर सौ जान से कुरबान था, क्योंकि तब पी कर बोल रहा था वह अपनी उपलब्धियों पर, जो कि अमूमन नहीं बोलता था, कला पर और अपनी उस्तादी पर।
"कोई नहीं रच सका आज तक वैसा सीन। डिफिकल्ट, कलात्मक पिक्चर मेरे बाद किसने बनाई? साले आज के लौंडे, शेरो-शायरी, कविता और अंग्रेजी फिल्मों के संवाद और पूरे सीन के सीन मार कर सोचते हैं कि... "
"मैंने तुमसे कहा था न, हमारा असली चरित्र वही होता है जब हमें कोई नहीं देख रहा होता है।” जब मैं अपने पात्रों को चरित्रों में ढालता हूँ तो यह ब्रह्म-वाक्य मेरे दिमाग की बनावट में बसा रहता है। यह मेरी प्रेरणा बन गया है। यह अकसर काम करता है, इसलिए जो मैं लिख रहा होता हूँ, वैसा ही सब जी भी रहा होता हूँ। यही मेरे पात्रों को उनके असली रंग में ढालने के काम आता है। उनके सपने, अहसास, कमजोरियाँ, दुनिया के पीछे का उनका व्यवहार, दुनिया के आगे कुछ और ही दिखने की उनकी चाह... ठंडी-कड़वी मुस्कान। यह सब तभी दिखता है जब पात्र के आगे इनविजिबल कैमरा रखा हो। जब वह अनजान हो कि कोई उसे चुपके से परख रहा है। तभी उसकी असली खूबसूरती भी निखर कर आती है। दुष्ट और भला, अच्छे और बुरे की बाँहों में झूलता या फिर दोनों, अच्छे-बुरे के रोल से बेजार और उलझा! उसे और कैमरा को बस अकेला छोड़ दो, जरा-सा ट्विस्ट और एंगल बदल देने से पात्र के चरित्र में नए अर्थ जुड़ जाते हैं।
आज भी जब अपनी पुरानी दोनों हिट फिल्में देखता हूँ तो वो शुरुआती जज़्बा याद आ जाता है। मैं जिद्दी हूँ, जानता हूँ। बिलकुल समझौते नहीं करता स्क्रिप्ट पर या अपने आयडिया पर। अब जब मैं सब कुछ खो चुका था, घर नाम की हदबन्दी भी। मुम्बई से गोआ के रास्ते में आते एक सस्ते रेस्तराँ में एक माचिस की डब्बी पर लिखी इस स्क्रिप्ट पर फिर जुआ खेलने को तैयार हूँ, है न दीवानगी! ये दीवानगी हरेक के बस की बात नहीं... जैसे कि प्रेम हरेक के बस की बात नहीं। हम बस कहते ही नहीं हैं।"
मैं प्रेम के भ्रम के कोष्ठक में बन्द समीकरण सुलझाना चाहती थी। मैंने उसकी आँखों में झाँका, वहाँ शांत समुद्र था, कोई लहरें नहीं थीं कि कोई अता-पता देतीं, किसी नए-पुराने प्रेम का। कोई आश्वस्ति नहीं थी मगर सम्मोहन था मुस्कान में, मैं कब तक वह आमंत्रण टालती, एक अनकेहा आग्रह - "तुम मेरी हर पुकार पर आ जाया करो।"
मैं उसे जान गई थी कि वह अपनी मानसिक और दैहिक ज़रूरतों की ही बात समझता है। उसे रूमानी इश्क की नहीं ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो उसे घण्टों चुप बैठे देख सके, सुन सके, उसकी कलाकाराना वहशतों की गवाह बन सके। जो पद्मा की तरह मीरा के भजन सुना सके या फिर किताबों पर, क्लासिक सिनेमा पर, शास्त्रीय संगीत और राग, ललित कलाओं के अमूर्तन पर बात करता रह सके। फिर अचानक ऊब जाने पर, वह यह सोचे बिना कि वह किसी का दिल दुखा रहा है, उस व्यक्ति को साफ-साफ कह सके कि -
"अब कौन-सी बस जाएगी तुम्हारी? चलो छोड़ आएँ, रात तक पहुँच तब भी जाओगी।"
"स्क्रिप्ट!"
"लगभग तय तो हो गया न… बताया था न सुबह तुम्हें स्टेशन से लाते हुए, बाकी अब रास्ते में बता दूँगा। यहाँ से चलो, ज्यादा देर बन्द जगह में दम घुटता है मेरा।"
टैक्सी में वह मुझे पूरी कहानी बिना भूमिका के सुनाने लगा, एक स्क्रिप्ट की तरह या आपबीती की तरह, यह मैं समझ नहीं सकी।
"उसके आस-पास की हवा में साँस लेना भी मेरा जीवन सार्थक कर देता था। वह बहुत मीठा गाती थी। तुमने नहीं देखी होगी वैसी सुन्दरता। उद्दाम कामावेग के बावजूद उसमें बहुत कुछ पवित्र और विरल था। दैहिक आवेग उसके लिए, अनुष्ठान-सा होता था। वह खुद अपने कपड़े एक-एक कर उतारती, मानो किसी यज्ञ से पूर्व कोई पुजारिन नदी में उतरे, स्नान के लिए। अपनी सधी काया लिए लेट जाती और दोनों आँखों पर दो-दो उँगलियाँ रख लेती। फिर वह जो भी बुदबुदाती थी, वह बहुत गौर करके भी मैं समझ नहीं सका। यह तय था कि वे कोई इरोटिक शब्द नहीं थे। कभी शक भी हुआ कि किसी अन्य प्रेमी का नाम तो नहीं... पूछा तो उसने अनभिज्ञता जता दी, 'आवेग में किसे क्या याद रहता है। पता नहीं क्या बुदबुदाती हूँ।' मैं बस यह जानता था यह आमंत्रण है। उसका सारा शरीर तनाव में रहता, मुझे कहना पड़ता कि इसे ढीला छोड़ दो। उसके बाद वह किसी सम्मोहन में चली जाती, मुझे देखकर भी नहीं देखती, मेरे साथ होकर भी नहीं होती। मैं एक भँवर डालती लहर में तैरता रहता।
वह एक सुन्दर नर्तकी थी, नाचते हुए भी वह कोई और होती थी। ग्रीन रूम तक वह मुझसे लगातार बात करती, "तुमने नीलिमा के लिए कोई लड़का देखा? तुम कुछ करते क्यों नहीं... जानते हो न बाऊजी को बात करनी नहीं आती, हमारे तो जो हो तुम हो।"
वह शीशे में अपनी पलक खींच कर आई लाइनर को मोटा करते हुए बोलती, "देखो, जरा यहाँ पिन लगाना। हम तीनों बहनों का है ही कौन? बाबू, तुम कल बाउजी के साथ जाना। अच्छा, कल रात देर तक इंतजार किया, तुम आए नहीं। स्टेशन से सीधा घर चले गए? ओह, देखो स्टेज पर अनाउंस हुआ क्या? नहीं हुआ हो तो बाबू, एक-एक पैग बकार्डी लगाओ न दोनों के लिए।
"तुम ज्यादा लेने लगी हो, शुरू में ही हमने तय किया था कि बस शनिवार शाम को लिया करेंगे।"
"बाबू, और रखा क्या है जिन्दगी में? तुम, डांस, बहनें और ये… "
"मैं बाहर जाता और वह बदल जाती। स्टेज पर से वह मेरी तरफ देख कर भी किसी निर्वात में ताकती लगती। शकुंतला बनती तो राजा नल की कृशकाय विरहणी लगती। यशोदा होती तो पूरी चतुर माँ बन जाती, लल्ला को बुद्धू बनाती, काल्पनिक पानी भरी थाली में काल्पनिक चाँद दिखाती हुई मन ही मन मुस्काती। कभी तो वह बस विशुद्ध ऊर्जा के पुंज में बदल जाती, एक उन्मुक्त आत्मा जो अति त्वरित चक्कर काटती हुई यूनिवर्स पार कर जाती और स्टेज के पीछे किसी ब्लैक होल में विलुप्त हो जाती।"
"हाऊ रोमेंटिक।"
"व्हाट रोमांस! ये महज मुखौटा है, या भूमिका है, सेक्स से पहले की। आदिम मानव सभ्यताओं में कोई रूमानियत नहीं झाड़ता, बस दैहिक प्रतिदान होता है। स्साला कहाँ का इश्क, गर सर फोड़ना ठहरा… ।" मैं अवाक। "क्या तुम नाचना जानती हो।" उसने पूछा।
"टैंगो सीखा था, कुछ दिन।"
" इण्डियन क्लासिकल।"
"नॉट।"
"ओह, फिर?"
"सीखा जा सकता है।"
"बहुत ज्यादा नहीं थोड़ा कुछ… बस ताल और लय समझ सको उतना ही।"
"क्या ये तुम्हारे अपने जीवन को काट कर गुजरती कहानी है?"
"हाँ, मगर यह विशुद्ध उसकी कहानी है, मुझ पर उसका कर्ज है। जो उसका मेरे भीतर छूटा हुआ वजूद है, जिसे चाहता हूँ कला में उलट दूँ। उसकी यादें मैं परदे के माध्यम से लौटा दूँ। मैं उनसे मुक्त होना चाहता हूँ।"