शालभंजिका / भाग 3 / पृष्ठ 4 / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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शूटिंग का आखिरी दिन बड़ा एंटीक्लाइमेटिक था, हमें कोहरे की ज़रूरत थी, वह भी बाहर सड़क पर जहाँ पद्मा आखिरी बार कार से उतर कर कोहरे में गुम हो जाती है, दूर से उसकी आवाज़ आती रहती है मगर वह दिखाई नहीं देती... और एक सन्नाटा छा जाता है। उस दिन भाग्य हम पर मुस्कुराया, अचानक बादल छा गए। मगर अंत हमें चाँद को दिखाने से करना था, तो बादलों और बीस फॉगरों के धुँए से हाथ को हाथ न सूझने वाला कोहरा तो हमने शूट कर लिया था।

मेरी नीली कार क्रॉसिंग के पास अचानक रुकती है, मैं पद्मा को चूमता हूँ... उसके कुछ देर बाद वह उतर जाती है, भग्न मंदिर के शिरीष के निकट जा खड़ी होती है, डाल पकड़ कर। वह पुराना शिरीष कब का सूख गया था, वहाँ एक जवान बबूल था, उस पर फूल खिले थे। ग्रेशल ने जैसे ही डाल थामी, काँटे चुभ गए, वह सीत्कार उठी मगर उसने दृश्य पूरा किया।

"बाबू, प्रेम और वासना के उन प्रगाढ़ पलों में मैं जो बुदबुदाती थी वह डायनिसस के मंत्र थे - जो शराब, पुनर्जन्म और प्रजनन का देवता है। मैंने कहीं पढ़े थे, किसी पुरानी किताब में ग्रीक मायथॉलोजी की... अच्छा एक इरानी कविता सुनो।

क्यों ज़माने के सामने

हमारी ज़बानें सिरे से

पलट जाती हैं,

क्यों अधखुली आँखों के इशारे

बन जाते हैं रवायतन सलाम

क्यों ख़ामखा पहन लेती हैं

लोगों के आगे

कई कई लबादे

हमारी नंगी रूहें।

अगला हिस्सा था दृश्य का कि मैं कुछ तय करूँ तब तक वह कोहरे में गुम होने लगती है, कान में पीले फूल पहने मेरे सामने ही... "पद्मा! पद्मा!"

"मैं दुबारा पूछ रही हूँ, आखिरी बार क्या तुम ऎसे बच्चे के पिता बनना चाहोगे जो तुम्हारा न हो?"

मैं एकदम अचकचा गया था, मुझे पसीना आ गया कैमरे में झाँकते हुए।

"आय'म इंटरेस्टेड इन कनक्लूज़न।" कोहरे में से ग्रेशल की आकृति बोली। नायक चुप रहा... स्टियरिंग पर चेहरा टिकाए।

"आई हैव कनक्लूडेड।" वह जा रही थी… तब मुझे नहीं पता था कि वह हमेशा के लिए जा रही थी।

"सर… देखिए… मुझे लाइट कम लग रही है उधर लगाएँ क्या… सड़क के उस तरफ जिधर मैडम को जाना है... " कैमरामेन ने दिखाया।

"हमारा नायक कार से उतरा... मुझे लगा मैं ही हूँ... ग्रेशल ने केसरिया बाँधनी की साड़ी पहनी थी और उसका सफेद शॉल में ढँका सर और चेहरा... वह धुँध में खो रही थी... रेलवे क्रॉसिंग की तरफ। मेरा मन कोई मुट्ठियों में भींच रहा था।

"नहीं, आदिल... ऐसे ही शूट करो... रीटेक... फाइनल।" मैं चीखा... मेरी चीख अटपटी थी।

जैसे ही दृश्य खत्म हुआ बरसात शुरू हो गई। काम हो गया था। बस अब चाँद का दृश्य लेना था।।।

वही रेलवे क्रॉसिंग, सड़क और शिरीष का जंगल और ज़ंगल के के पीछे से निकलता चाँद। अगर आज चाँद न निकला तो कल तक प्रतीक्षा और हमें पूरे चाँद की जगह छोटे चाँद से काम चलाना होता, वैसे भी पूर्ण चन्द्र बीते तीसरा दिन था, कल और घट जाएगा। हम हवेली लौट आए, बरसात तो रुक गई थी मगर बादल...।

"सर, आज चाँद को शूट करना ही है, चाहे आधी रात बीत जाए।"

झील के किनारे अलाव जलाया गया। शूट खत्म होने की पार्टी चल पड़ी, मैंने बहुत दिन बाद गिटार बजाया, बेंद्रे ने एक उदास गीत गाया... चाँद के निकलने की प्रतीक्षा थी। ग्रेशल मेरे पास आकर बैठ गई। चुपचाप वाइन पीती रही... मेरा हाथ थाम कर... ।

"यह सच है क्या ल्यूनाटिक मूवमेंट कुछ लोगों के व्यवहार पर असर डालता है... डिप्रेस करता है?"

मैंने उसके चेहरे को देखा... वह पद्मा की तरह शब्द चबा रही थी और उसकी आँखों में आग - पानी - बर्फ तीनों थे। हवेली के बुर्ज की तरफ चाँद झाँक रहा था, नीला... रुपहला।

कैमरामैन आदिल ने कवर्ड कैंटर से शूट जारी रखा... शिरीष के पीले फूल काँटे और चाँद और सामने कोहरे से भीगी लम्बी खाली सड़क।

आखिरी सीन मुझे करना था, सर्वेश जा चुका था, उसकी फ्लाइट थी। वही कमीज़ पहन कर बस मुझे स्टियरिंग पर मुँह छिपा कर बैठना ही तो था।

मैं लौट कर कार में आ बैठा हूँ और कोहरा कार के शीशों पर बहता रहा है। मेरे कान में ग्रेशल - पद्मा - ग्रेशल की आवाज़ गूँज रही थी।

"मुझे क्या चाहिए... मैं तो पीले शिरीष के फूल कान में पहन कर भी महारानी लगती हूँ... इन महलों की देखो... देखो न!"

"अच्छा सुनो, एक बात बताओ क्या तुम ऐसे बच्चे के पिता बनना चाहोगे जो तुम्हारा न हो?"

"आय'म इंटरेस्टेड इन कनक्लूज़न।"

"आई हैव कनक्लूडेड।"

उदयपुर से सीधे हम सब साथ डबिंग और एडिटिंग के लिए मुम्बई आ गए थे। दस दिन की मेहनत और लगी मगर फिल्म तैयार थी। मैं जा रही हूँ, मुझे रुकने की और उसे, मुझे रोक लेने की वजह शायद समझ नहीं आ रही थी। वह अंकल बेन्द्रे से कह रहा था कि - "रेशेज़ देखे ना! उसने अपने होने, अपने नेचर से हटकर कितना गंभीर और सधा हुआ अभिनय किया है कि कई बार मुझे भ्रम हुआ कि यह पद्मा ही है। अब उसे मैं नहीं, उसके अभिनय की चर्चा मुम्बई लाएगी।"

"क्या इरादा है?"

"कुछ नहीं यार, मोपासाँ ने ग्रेशल जैसी लड़कियों की तारीफ में एक ही वाक्य लिखा है - हर ऑनली डिफिशिएंसी इज़... शी गेव हरसेल्फ टू यू।(उसकी एकमात्र कमी यही है कि उसने खुद को पूरी तरह तुम्हें सौंप दिया)" तो क्या तुम्हारी पत्नी छवि की कमी भी यही नहीं थी क्या? या तुम्हारी पद्मा द लोटस यानि शालभंजिका... की कमी भी यही रही होगी, नहीं? तेरा या मोपां - शोपां जो भी था, चूतिया था। सारी औरतें ऐसी ही होती हैं। कभी सोचा तूने कि इन सबके लिए तेरी अपनी डिफिसिएंसीज! बेन्द्रे की एसिडिक आवाज़ आज भली लगी।"

"डिफिशियंसी!!"

"हम तो कहते हैं ना, औरत ने नहीं कला ने बरबाद किया है हमें।"

ट्रायल शो के दौरान हम थिएटर में बैठे थे। वह बहुत उत्तेजित था। ज़ाहिर है, रेशेज़ देखना और पूरी एडिटेड फिल्म देखना, एक उत्तेजना तो होती है। पिछले छह महीनों की लगातार मेहनत, पैसा। उसने सुनहरा सिल्क का कुर्ता पहना था। बाल पीछे को सँवारे थे। वह सबसे आगे की पंक्ति में बैठा हुआ ऊँगलियाँ चटखा रहा था। पूरा यूनिट इंतजार में था। मूवी के डिब्बे लेकर जोज़फ को आ जाना था अब तक आया नहीं था।

वह अचानक उठा और बेचैनी में बाहर चला गया। फिर भीतर आकर मेरे ठीक पीछे बैठा रहा, और एक पैर दूसरे घुटने पर रख हिलाता रहा, फिर दुबारा झटके से उठ बाहर गया। देर तक गुम रहा और तभी भीतर आया जब तक फिल्म के डिब्बे न आ गए।। फिल्म शुरू होने पर वह अँधेरे में एकदम मेरे पास आ बैठा। मुझे अपनी ही बेतरतीब साँसों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। मगर वह फिल्म शुरू होने से आखिर दम तक साधे बैठा रहा। इतना स्थिर, बिना हिले - डुले कि मैं बेचैन हो गई। मुझे उसकी बात याद आ गई "फिल्म ठीक नहीं बनी मेरे मन मुताबिक तो, बिलकुल रीलीज़ नहीं करुँगा। और तब जीवन में कभी फिल्म नहीं बनाऊँगा। कलम घसीटूँगा, कलात्मक फिल्म के लिए नहीं, एकदम बिकाऊ टाइप।"

"अन्दर के क्रिएटिव कलाकार का क्या?"

"उस साले कलाकार को ज़हर दे दूँगा।"

फिल्म खत्म होते-होते उसकी देह की भाषा बता रही थी कि वह खुश और संतुष्ट था, फिल्म उसे अच्छी लगी थी, फिल्म खत्म होने पर वह उठा बाहर आ गया, उसके पीछे हम सब।

जाते समय गलियारे में दूसरे एक्टर्स के साथ मैं भी खड़ी थी, हममें से उसने न जाने किसे सम्बोधित किया, "थैंक्स टू ऑल ऑफ यू, फिल्म अच्छी बनेगी यह मैं जानता था।" मुझ पर एक ठण्डी - रीती हुई दृष्टि डाल कर एक छोटी भीड़ के साथ मेरे सामने से यूँ निकल गया था, जैसे मैं पारदर्शी दीवार होऊँ। मेरे लिए उसका यह व्यवहार नया नहीं था, मैं थी ही क्या एक जर्रा और कहां वह एक हस्ती! ना, मुझे बुरा नहीं लगा था। मेरा उसकी तरफ खुलता मन सुन्न हो चुका था। माय ऑनली डेफिसियंसी... (मेरी एकमात्र कमी) और मैं मुस्कुरा दी।

मैं संतुष्ट थी कि मैंने अपना किरदार पूरे जोश से निभाया था, ऎसे विश्वास के साथ जो मेरे लिए अप्रत्याशित था। एक अजनबी औरत का किरदार जिसे मैं ठीक से कभी नहीं जान पाऊँगी, मगर जिसकी हर हरकत मैं अपने जिस्म में ले चुकी थी। जिसकी हर जुम्बिश मेरे भीतर थी। वह औरत पद्मा मेरे भीतर छूट गई थी, कैक्टस के काँटों की तरह, और मैं एक-एक कर उन्हें निकाल रही थी। मुझे कल गोआ लौटना है।

मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा लिखित उपन्यास 'शालभंजिका' समाप्त।