शालभंजिका / भाग 3 / पृष्ठ 3 / मनीषा कुलश्रेष्ठ
मैं चाहता हूँ दुनिया, वह चाहता है मुझे, मसला बडा नाज़ुक है, कोई हल लिख दे
“तुम अब भी विगत की सोचती हो कभी?" मैंने पूना से लौट कर पूछा था।
“विगत को सोचने से क्या होगा, तब जो मैं थी, अब वह नहीं हूँ। समय जो बीतता है, जीती हूँ, उसके बाद पहले-सी कहाँ रह जाती हूँ मैं। अब भी तुम्हारे यहाँ से जाने के बाद मैं, मैं कहाँ रहूँगी।" पद्मा का स्वर उदास हो आया था, पर निष्कम्प वाणी में उसने कहा, “तुम्हारे पास उदासी का एक झीना-सा आवरण है, जिसे जब चाहे ओढ़ लेती हो, जब चाहे उतार देती हो।"
अमलतास के फूलने के दिनों में मैं उससे विलग हुआ था। मैं शहर छोड़ रहा था। महलों के बुर्ज और बूढे पहाड़ों पर पीली पड़ती वनस्पति और सलेटी झीलों ने उसे रोका था, मगर उसने नहीं। उसने अचानक अपने लम्बे-लम्बे बाल बहुत छोटे कटवा लिए थे जिससे उसके उठी हुई गाल की हड्डियाँ और प्रभावशाली हो गई थीं।
आँखें बहुत बड़ी दिखने लगी थीं। घनेरी स्मृतियों की डालिया एक दूसरे को थमा दी और फिर चल पड़े अपनी-अपनी राह, जो साथ तो चलती थीं पर कहीं भी एक दूसरे से मिलती नहीं थीं दो समानान्तर रेखाओं की तरह।
"तुम नाराज़ होकर तो नहीं जा रहे हो ना!"
वह अपनी सुन्दरता में सम्पूर्ण नग्न खड़ी थी मेरे सामने, बस उसके हाथ में घड़ी थी, चौड़े पट्टे वाली मर्दाना घड़ी। वह कमरे में ओट लगा कर बनाए बाथरूम से जिस नीली सूती साड़ी को लपेट वह निकली थी वह भी उसने उतार दी थी, मैंने क्षणांश में उसे भरपूर देखा, फिर बाहर चला आया। उस दिन वह गली बहुत अजनबी लगी। एक पंक्ति में दोनों ओर बने लाल रंग के घर, रंग उड़े काठ के, लोहे की कड़ियों वाले दरवाजे, रंगीन फूलों वाले काँच के रोशनदान, छतों पर गोखड़े, गली के मुहाने पर एक ताख में काली की भयावह मूर्ति और एक मरती हुई लौ वाला दिया। अब तक भी घड़ी बाँधे उसकी संपूर्ण नग्न छवि ही मेरे जहन में उसकी अंतिम छवि बनी हुई है अब तक। अब तक की सबसे सघन छवि। छोटे बाल, चौड़ा माथा, चौड़े जबड़े, ऊँचे गाल और उसकी हल्की मांसल लम्बी देह। कलाई में मर्दाना, भूरे, चौड़े पट्टे वाली घड़ी। काक-सा की घड़ी...
यही तो था पहला दृश्य-
आज पहले दृश्य का शूट था जिसमें ग्रेशल को नग्न, केवल घड़ी पहने बाहर आ गई है... ग्रेशल नर्वस थी, मैं खुद नर्वस था कि नौ साल बाद कोई सीन शूट कर रहा था। मैंने सबको सेट से बाहर भेज दिया - केवल बूम ऑपरेटर और मैं। सामने सर्वेश और ग्रेशल बस। सर्वेश सदा की तरह सहज था। ग्रेशल ने मेरे कहने से वज़न बढ़ाया था और पद्मा-सी ही मांसल लग रही थी। रोशनियाँ प्राकृतिक थीं, इसलिए दृश्य बहुत खूबसूरत बन गया।
सर्वेश बहुत कुछ मुझे समझता था वह मेरी पिछली अनरिलीज़्ड फिल्म में काम कर चुका था... मगर यहाँ मैं निर्देशक के साथ खुद पात्र था, तो जब मैं सर्वेश को करके बताता था तो वह चकित मुझे देखता रहता फिर बतौर एक ब्रिलिएंट एक्टर हू-ब-हू दोहरा देता। मगर ग्रेशल जब भी असहज महसूस करती, मैं डबल असहज हो जाता। दृश्य में नग्नता के ही साथ बहुत सघन भावनात्मक क्लाइमेक्स थे, वह मारक अन्दाज़ में नहीं बोल पा रही थी, नग्न सीना उठाए सर्वेश से कि - "तुम कह रहे थे, मत करो शो, हम शादी कर लें। क्या तुम ऐसे बच्चे के पिता बनना चाहोगे जो तुम्हारा न हो?"
" बाबू... " और नायक उस पर एक नजर डाल कर बाहर चला जाता है।
"आप बाहर जाइए, चेतन। मैं यह सीन केवल सर्वेश और फोटोग्राफर के साथ करूँगी।"
मैं हैरान था। मुझे कुछ नहीं बहुत कुछ अजीब लगा, मगर जब दृश्य को देखा... कैमरे में रिवाइंड करके तो संतोषजनक बना था। मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था।
मैंने महसूस किया कि कुछ दिनों में ही ग्रेशल का व्यवहार बदलने लगा। या मेरा ही अधिकार भाव... किसी बीच के दृश्य को शूट करते समय की बात है, दृश्य था कि 'जगदीश मंदिर के परिसर में पद्मा विशुद्ध ध्रुपद गा रही है, काका के साथ। भक्ति भाव से।' बीच में एक रीटेक किया मैंने उसके उच्चारण को लेकर तो वह दौड़ कर सीढ़ियाँ उतरी और मेकअप वैन में गई और साड़ी उतार कर फेंक दी, जींस और ब्रा में बैठ कर सिगरेट पीने लगी।
मैं पहुँचा तो बोली, "मुझे वो गाना नहीं समझ आ रहा, कैसे प्रोनाउंस करना है तुम बार-बार रीटेक कर रहे हो... ध्यान धर चित्त में... के आगे सीन ही नहीं बढ रहा, आई नीड अ ब्रेक यार।" सिगरेट का धुँआ उड़ाते हुए वह बोली। मेरे भीतर कुछ टूट गया, मैं उठ कर बाहर आ गया, दुबारा जब शॉट हुआ तो मैंने कहा, "जब तक फिल्म शूट हो रही है, सिगरेट मत पीना।"
"नॉट पॉसिबल फॉर मी, कांट सस्टेन विदाउट इट।" वह कन्धे उचका कर चीख कर बोली।
मैं रात को उसके कमरे में गया।
"तुम किस कदर बदतमीज़ हो। क्या तुम लड़ना चाहती हो यूनिट के सामने?"
"तुम मुझे बहुत ज्यादा टोकने लगे हो, यू आर नॉट माय गार्ज़ियन हियर।"
"तुम्हें मुझे सुनना होगा, मैं फिल्म-मेकर हूँ और तुम एक एक्टर, देख रहा हूँ बहुत घमण्डी, मूर्ख और मुँहफट हो गई हो।"
"तुम मेरे भीतर को नहीं बदल पा रहे, इस बात की खीज क्यों, आयम नॉट पद्मा। नहीं करता कुछ भी मैच उसका और मेरा, मेरा केवल छोटा-सा अंश तुम्हारा है, मेरी जिन्दगी में कोई और भी हो सकता है। मैं सर्वेश से बात करती हूँ तो तुम्हारे भीतर कुछ सुलग जाता है। मैं प्रशांत पर ध्यान देती हूँ तो तुम खीज जाते हो। समस्या क्या है तुम्हारी? हमारे सम्बन्ध में एकनिष्ठता की कोई शर्त कभी नहीं थी, केवल सुख और साथ... दैट्स ऑल! " वह पिये हुए थी और हँसते हुए स्फिंक्स की तरह लग रही थी, आधी औरत, आधी शेरनी।
हम बहुत समय तक आपस में नहीं बोले, असिस्टेंट उसके पास आता रहा, शूटिंग होती रही बहुत धीमी गति से, यह चुप्पी अपने आप में घातक थी। और उस रात इस अजीब से एक-दूसरे पर थोपे अनाधिकृत अधिकारों का विश्लेषण करता रहा, कौन है वह मेरी? क्यों उस पर से अपना प्रभाव कम होता देख मैं आहत हुआ था? किन्तु शीघ्र ही मैंने महसूस किया कि वह कई प्रकार के छोटे-मोटे विरोध करने लगी है। कई बार वह मुझे क्रू के सामने नीचा दिखाने का मौका ढूँढती निराश, चिढ़ी, मेरे झूठों से आहत प्रेमिका की एक्टिंग करती। अकसर कह देती, बस यह इश्क आगे नहीं चलेगा, खत्म... बस सब खत्म। उम्मीद करती कि मैं उसे पुन: जीतने की जद्दोजहद करूँगा। जब नहीं करता, बस उपेक्षित करता तो वह रास्ते पर आ जाती।
पर कहीं लगा कि वह अपनी हरकतों से जानबूझ कर मेरा ध्यान आकर्षित कर रही है। न जाने कौन-सी मनोवैज्ञानिक गुत्थी थी, जिसका एक सिरा मुझे मिला --
एक रात मैंने उसके कमरे से सुबकने की आवाज़ सुनी। मैंने धक्का दिया तो दरवाज़ा पहले ही प्रयास में खुल गया।
"तुम दरवाज़ा बन्द नहीं करतीं?"
"हाँ कुछ दिन से।"
"क्यों?"
"आय'म मोर्निंग। मैं शोक मैं हूँ)
"किसके शोक में?"
"मैं अपनी माँ के एक मित्र से नफरत करती रही जीवन भर। मैंने उनसे कभी बात नहीं की। वे आते एक खास इत्र लगाए, माँ उस दिन खास केक बनाती अखरोट और खजूर का। लेकिन जब बेल बजती मैं खोलती, उन्हें देख कर उनके ही मुँह पर बन्द कर देती थी और उनके बाहर ठिठक जाने की आवाज़ सुनती थी, वे आह भरते और मरे हुए कदमों से सीढ़ी उतर जाते। कल रात मम्मी का फोन आया था। कल उनका फ्यूनरल था। वे अपना फोंटेनिहास की पुर्तगाली विला मेरे नाम कर गए हैं।"
कुछ दिन पहले वे मेरे घर आए, माँ से मिले, फिर माँ ने मुझे बुलाया और यह कहा कि वे प्रोस्टेट कैंसर से मर रहे हैं। मैंने झूठ माना। हालाँकि मुझे झूठ मानने की भी वजह नजर नहीं आई। माँ चाहती थी मैं उनसे एक बार मिल लूँ। मैंने साफ मना कर दिया। वे खुद चले आए। उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया, मैंने खोला, और आदतन... "देखो दरवाजा बन्द मत करना, मुझे तुम्हें कुछ कहना है। बहुत ज़रूरी बात।"
मैं दरवाज़े से हट गई। वे भीतर आकर एक स्टूल पर बैठ गए, लम्बी सतर देह, घने मगर सफेद बाल, गोरा खुलता हुआ रंग, खूबसूरत शांत भाव से आक्रमण करती आँखें। सिगरेट से काले हो आए माँसल सुघड़ होंठ। यह उनके दमकते चिरयुवा चेहरे के पीछे का कैसा सच था कि वे बहुत ज्यादा जीवित नहीं रहेंगे। मुझसे कहने लगे, "तुम भी बैठो। वहाँ नहीं यहाँ मेरे सामने, वह स्टूल उठा लाओ।"
".... "
"अपना हाथ दो। बढ़ाओ मेरी तरफ, ऐसे नहीं उल्टे करो, हाँ... "
मैंने वही किया। वे बहुत देर तक मेरा हाथ देखते, सहलाते रहे, फिर उन्होंने मेरे हाथों के समानांतर अपने हाथ रख दिये। हमारे हाथ हू-ब-हू एक-से थे, एकदम। झुर्रियों के सिवा... मैं भाग कर बाथरूम में गई और अपना चेहरा गौर से देखती रही... आ... ह!
"य... ह! यही तो है औरत, एक रहस्य। मैं औरत को समझना चाहता हूँ... एक हद तक। कम से कम उतना तो जितना मानव ब्लैक होल को समझ पाया है। अपनी माँ से लेकर तुम्हारी माँ को, मेरी तमाम प्रेमिकाएँ, बहनें, कज़िन, अब आखिर में तुम... "
"मेरी दिक्कत दूसरी है, मैं तुम्हें नहीं समझ पाती। कितना शराब पीने लगे हो तुम फिल्म बनाते-बनाते।" ग्रेशल को मेरे प्रति सहानुभूति होती है, तो मैं खुश होता हूँ। उसे ग़लतफहमी है कि मैं बहुत बड़ा फिल्ममेकर हूँ। वुडी एलेन, बर्गमेन, अकीरा कुरोसावा, मजीदी के स्तर का। गलतफहमी के कारण वह समर्पित है, मुझे दया भी आती है मगर ग़लतफहमी न हो तो प्यार ही क्यों हो? मुझे अब प्यार नहीं होता वह अलग बात है, मगर प्यार जीतने में मैं हर मर्द-सा सामंतवादी हूँ। पद्मा की गलतफहमी... ग्रेशल की गलतफहमी...
सच पूछो तो मैं चाहता था कि दोनों अपने शील और गुनाहों के झगड़े से ऊपर उठ जातीं तो अच्छा होता, प्रेम स्त्री को कमज़ोर करता है।
ग्रेशल कहती है, "मुझे तुम प्रेमिका बना ही नहीं पाए, दोस्त या सुख बस। फिर भी मैं कहूँगी, तुम्हारी एक खास पर्सनालिटी है जो तुम्हें औरों से अलग करती है। तुम किसी मॉरल में बिलीव नहीं करते, तुम्हारा अपना लॉजिक है, तुम ग्रेट फिल्ममेकर हो… बहुत बड़े फिल्म डायरेक्टर… स्क्रिप्ट रायटर… एक बात बताओ कि तुम लाइफ से चाहते क्या हो?
मैं क्या उत्तर दूँ ग्रेशल को कि मैंने अपनी प्रतिभा, नैतिकता, जीवन सब जानबूझ कर बरबाद किया है, आर्थर हैली, हरमन हैस और हैमिंग्वे की किताबें पढ़ कर, अपने दंभ से पीड़ित होकर, आलस्य में डूब कर। स्पीलबर्ग और लुकास की फिल्में देखकर। अमृता शेरगिल और एफ.एन. सूज़ा की पेंटिंग देखकर। मुझ जैसों की बरबादी के पीछे औरतें नहीं 'कला' होती है।
ओ मेरी 'बाथशीबा'! मेरी ग्रेश, मैं प्रेम में ऐसे कुन्द किया गया कि अब किसी औरत को प्रेम नहीं कर सकता, बहुत ज्यादा किसी औरत के साथ नहीं रह सकता, एक हद के बाद स्पर्श मुझे उकताते हैं, मैं भागने लगता हूँ, स्पर्श से, ध्वनि से, गन्ध से... अपनी छाया से ऊब होती है। मैं खुद से भाग कर एक ही जगह शरण लेता हूँ, शराब और अपना कमरा।
पहले सीक्वेंस की शूटिंग खत्म हो चुकी थी। सब सेलिब्रेट करने के मूड में थे।
शराब थी, खाना था, संगीत था। घने पेड़ के नीचे हमारी टेबल थी, झील का किनारा था, एक हैरिटेज हवेली का पिछ्वाड़ा, जो अब बगीचा था और झील के किनारे से जुड़ा था। गलियारों में दूधिया रोशनी थी और उनके मेहराबों से सफेद चमेली की घनी लतरें उलझी थीं। झील के आस-पास बने होटलों, हैरिटेज इमारतों की जगर-मगर रोशनी झील में गिर रही थी और एक चहल-पहल और रोशनी के हुजूम से भरे किसी बड़े लग्ज़री जहाज के तट पर आ लगने का भ्रम दे रही थी। झील के पानी में रोशनियों की परछाइयों की आतिशबाज़ी हो रही थी। इस बिम्ब को निहारते निर्वाक - से हम आस - पास की भीड़ से असंम्पृक्त बैठे थे। वह बहुत खुश था, लगभग प्रेम निवेदन की भूमिका में। मुझे मनाता हुआ, वह इस कदर प्रेम के ट्रांस में था कि मुझे लगा कि मेरी जगह कोई भी होती, यह विवश होता प्रेम करने को। यह शायद माहौल और शराब का असर था।
अचानक ही बरसात शुरू हो गई थी। अक्टूबर की शुरुआत में बरसात का होना अप्रत्याशित ही था। भीगते पेड़ और आर्द्र होते तने के नीचे कुछ देर तो हम खाते रहे। हम भीगे हल्का-सा, मगर जब पानी स्नैक्स और शराब के ग्लासों में टपकने लगा तो हमारी टेबल का वेटर भागता हुआ आया और उसने हमें ऊपर जाने को कहा। हम अपने ग्लास लेकर ऊपर आ गए। हम हॉलनुमा रेस्तराँ, जिसके रोशनदान और खिड़कियाँ लाल और हरे काँच के बने थे और जिसमें भीतर पर्शियन फानूस लगा था... में नहीं घुसे। वहाँ भीड़ थी। हम दो संगमरमरी गलियारों को हाथ थामे पार करके तीसरी मंज़िल के बन्द पड़े कमरों को जाती सीढ़ियों में जा बैठे। बरसात में भीगते ही फिर मैं मैं कहाँ रह जाती हूँ। अपने ही से दूर बहती नाव बन जाती हूँ। तुम बहुत कुछ कह रहे थे, बाँह कन्धों पर धर जकड़ रहे थे, चूम रहे थे। मेरी हैरानी के लिए पहली बार लगा कि देह के खेल से हटकर प्रेम कर रहे हो... कम से कम प्रेम का दावा। मैं थी कि तुम्हारी फरमाइश पर गाते हुए भी तुम्हारा हाथ थामे, तुम्हीं से मुखातिब मगर तुमसे विपरीत कहीं बह रही थी। बिना शोर... किसी पानी में डूबती एक कागज की नाव। कोई बिसात पलट चुकी थी और सम्बन्धों की भीड़ से छूट कर अकेली खड़ी थी मैं। उसकी छुअनों ने मुझे अतीत से निकाला। फिर भी मेरा मन अनमना था, अतीत और वर्तमान एक बैंच पर आ बैठे थे।
"मुझे रोकना मत अगर मैं कहूँ कि मैं गिर रहा हूँ एक ऊँचाई से... तुम्हारे... अच्छा जाने दो।"
मैं कहना चाहती थी... मत कहो बहुत कॉन्ट्रास्ट है यह सुनना तुमसे। फिर भी उस पूरी शाम वही बोला। इतना कि एक भी शब्द मेरी स्मृति में नहीं अटक सका।
अब वह फुसफुसा रहा था, "बहुत प्रेम है तुमसे। याद आती ही रही हो तुम पिछ्ले दिनों। सेक्स के लिए नहीं, प्रेम, उसके मुँह से स्कॉच की हल्की नफीस महक आ रही थी और उसकी बगलों में जंगली कमल महक रहा था, मैंने उसके कंधों पर सर रख दिया।
"कुछ गुनगुनाओ न... "
"मैं?"
"हाँ, वही सिसीलिया या समर वाइन जो तुम गुनगुनाती हो।"
वह मेरे साथ गुनगुनाता रहा।
वह निजता के खोल से निकला और रात भर उसने मुझसे बहुत-सी बातें कीं।
कई किस्म की स्वीकारोक्तियाँ, यह भी स्वीकार किया कि वह भी रोता है, बल्कि उसी समय उसका गला भर आया था। मैंने सीने से लगा लिया और उस रात उसने मेरी देह को एक अहसान की तरह छुआ, देने और देने के लिए। कुछ भी लेने को तैयार नहीं था वह।
बार-बार अपनी परफॉरमेंस को लेकर पूछता रहा, "सुख तो दिया न!"
मैं नींद में गड़प होते हुए सर हिला रही थी… ह्म्म्म। मन ही मन हैरान थी, यह कैसी असुरक्षा होती है पुरुष की? फ्रायड बाबा, कैन यू टैल मी द रीज़न!
उसके अगले ही दिन की बात है, हम अपने होटल के एक टैरेस पर थे, वहाँ बैण्ड पर मेरी मनपसन्द धुन बज रही थी। मेरा मन नाचने का था, मगर वह खामोश था। बेहद खामोश, जैसा कि हर बार प्रेम के तूफानी दौरे के बाद वह होता था। हम जल्दी-जल्दी डिनर निगल कर कमरे में लौट रहे थे, पिछ्ली रात उसने मुझे लिफ्ट में चूमा था, इस बार मैंने पहल की तो वह बिदक गया । मुझे अपने घर के एक्वेरियम का कछुआ याद आ गया, जो यूँ तो अकसर ऊँघता रहता है, मगर कभू-कभू अपने खोल से मुण्डी निकालता है, मनचाहा खाता है, थोड़ा घूमता है, ब्लैक मौली के गाउननुमा फिंस को घूरता है, एक फेरा उसके चारों तरफ लगा कर फिर खोल में गुम। कमरे के गोखड़े में बैठा वह बाहर की झलमल रोशनियों की नदी में गुम था।
उसकी चुप्पी क्रूर थी। वह इतना ज्यादा असम्पृक्त था कि मैं उसके सामने कपड़े बदल रही थी और उसकी नज़रें खिड़की के बाहर अटकी रहीं। मैं एक उदास गीत गुनगुनाते हुए अचानक चुप हो गई, मुझे सामने लगे आदमकद अपनी चम्पई मांसल देह बहुत अश्लील और भोंडी लगने लगी। रात ढलने जा रही थी, मैंने पूरी बाँह की ढीली शर्ट, पहन कर पजामा पहन लिया और चादर खींच कर लेट गई, खुले परदे में से चाँद का तिलिस्म यहाँ से भी दिख रहा था। यहाँ चाँद के चारों तरफ सुनहरा चूर्ण लगा था, आकाश एक दम साफ। ढेर सारे तारे मुझे ताक रहे थे। यहाँ से वीनस धरती से काफी करीब और बेहद चमकीला दिखता है। चाँदनी, चुप्पी, सब कुछ एक उदास धुन में बँधा था। चमकीले पत्ते, पेड़ों की फुनगियों पर आँसुओं से ढुलके थे। जिन्दगी की तमाम नियामतों के बावजूद, तमाम सुखों के रहते भी जो फूटता है, वह रुदन। यह बात या तो मैं जानती हूँ या वो वीनस।
कोई असर था जो बीत चुका था, वह वैसे ही बैठा रहा, फिर न जाने कब बगल में आ सोया। सुबह उठते ही उसने रट लगा दी, "पैक अप, मेरा यहाँ दम घुट रहा है।"
हमने अगली शूटिंग, कुंभलगढ़ के रास्तों में की। वह एक मज़ेदार पिकनिक थी।
मुझे उस खुश्क व्यक्ति से कभी कोई उम्मीद नहीं रही थी, शूटिंग के दौरान वह खीजता ही रहा है, उसे मेरी हर चीज से प्रॉब्लम थी। मुझे भी अब उकताहट होने लगी थी, जगह बदलने से मुझे तकलीफ हो रही थी, झील की नमी, कोहरा और यहाँ का बहुत ज्यादा ऑईली - स्पाईसी खाना, धूल-कचरा... उस पर डांस प्रेक्टिस, अजीब-से भजनों के बोलों को याद करना, डायलॉग्स, उस पर हर रीटेक के बाद लगातार मानसिक प्रताड़ना, अबोला। मैंने खुद को कमरे में बन्द कर लिया था आज शूटिंग के बाद... साँस लेने में तकलीफ हो रही थी, मुझे क्लाइमेटिक अस्थमा था। मेरा इन्हेलर खत्म चुका था।
वह रात में मेरा हाल लेने कमरे में आया भी था, मगर मैंने बाहर से ही भेज दिया, "नॉट कीपिंग वेल, लीव मी अलोन।"
सुबह मैं सात बजे दम घुटने से उठी और झरोखे में जा बैठी, सुबह-सुबह धूल उड़ाती हुई एक स्वीपर झाड़ू लगाती हुई कुछ गुनगुना रही थी। मेरा दम और उखड़ गया... मैंने गीला रूमाल चेहरे पर रख लिया, हाँफते हुए मैं दोहरी हो गई, तभी मैंने देखा, चेतन कुर्ते-पाजामे में कहीं से आ रहा था, उसके हाथ में सालबुटामॉल का नया इन्हेलर था। यही मेरी दवा थी। मेरे मन में बरसों से जमा गिला पिघल गया, मैंने खुद को झरोखे से हटा कर बिस्तर पर डाल लिया, देख लेता तो झेंप जाता।