शालभंजिका / भाग 3 / पृष्ठ 2 / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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आधा क्रू आ चुका था रिहर्सल शुरू हो गए थे। ग्रेशल का इंतजार था।

शूटिंग तीन दिन बाद शुरू होनी थी और हमारे पास कॉस्ट्यूम डिज़ायनर नहीं था तो यह जिम्मेदारी मृदुला ने ले ली। सारे कलाकारों के अपने सूटकेस से कपड़े चुने गए। सादा कपड़े। पारम्परिक कपड़ों के लिए जीजी (मेरी माँ) ने बक्से खोल दिए। कथक नृत्य के लिए मैंने दक्षिण सांस्कृतिक कला केन्द्र से पद्मा के गुरु भाई लोचन को तय कर लिया था। यही पद्मा के गुरु जी के दत्तक पुत्र थे। बस कुछ धुँधले टुकड़ों की जरूरत थी, स्मृतियों में पद्मा के नाचते हुए। अग्निपुंज की तरह नाचते और विरह में गलती नायिका के या यशोदा की कान्हा के साथ चालाकी, थाली में चाँद दिखाती, लल्ला को उल्लू बनाती। मेकअप बहुत ही कम इस्तेमाल करना चाहता था मैं। हमारी मेकअप आर्टिस्ट सुमेधा ने अपना पैलेट न्यूट्रल रखा था।

आज रात दो बजे ग्रेशल को आना था। दो घंटे की ड्राइव के बाद एयरपोर्ट पहँचे। फ्लाइट थोड़ी लेट थी। बुरी तरह धड़कते दिल के साथ प्रतीक्षा बोझ लग रही थी। बहुत अधीर हो रहा था मैं, जाकर पास के स्टॉल से दो बड़े-बड़े चॉकलेट्स ले आया। वह जहाज से नीचे उतर सीधे लाउंज की ओर तेजी से बढ़ी। फिर वही औपचारिकताएँ और चेकिंग काउंटर से निवृत्त हो इधर-उधर देखने लगी तब तक उसका सामान भी आ गया था। उसकी नजरें इस अजनबी एयरपोर्ट पर इधर-उधर दौड़ रही थीं।

लाउंज के बीचों-बीच ही तो मैं खड़ा था, यात्रियों के चेहरों में उसे ढूँढ़ता हुआ। वह धीमे-धीमे मेरी तरफ बढ़ी, वह लम्बी यात्रा के बावजूद ताज़ा लिली की फूल लग रही थी, मैं ज़रूर उसे थका-सा लग रहा होऊँगा, शायद लम्बी ड्राइविंग की वजह से। मैंने ग़ौर किया कि पिछले कुछ महीनों ही में उसने वज़न बढ़ा लिया था। अब वह कृशतनु कन्या नहीं रही थी, अमृता शेरगिल के पुष्ट सेल्फ-पोर्ट्रेट-सी अनुपातों में ढली थी। सीधे स्थिर दृढ़ भाव से मुझ पर आक्रमण भी किया, "हलो चेतन!"

"कैसी हो ग्रेशल?" कह कर मैंने उसे चॉकलेट्स उसे पकड़ा दिये।

वह हँसी... "तो तुम्हें याद रहा, हाँ... बढ़िया... तो फाइनली... "

"हाँ, तुम्हें तो लगा था कि मैं बस हवा में किले बाँध... "

"हाँ, लगा तो था, किसी को भी लगता, एक सिगरेट की डिब्बी पर लिखी स्क्रिप्ट देख कर... "

"अब, बस शूटिंग 55 दिन का शेड्यूल है, आधा क्रू आ गया, आधा कल... खास हमारी हीरोइन आ गई, पद्मा।"

"डोंट कॉल मी बाय दिस नेम। मैं नर्वस हो जाती हूँ।"

हम एयरपोर्ट से सीधे उस घर में गए, जहाँ मैं ठहरा था, जहाँ पद्मा रहती थी अपने जाने से पहले। "कौन रहता है यहाँ?" दरवाज़ा भी न खोला था कि उसने पहला प्रश्न किया।

"है कोई।"

"किरायदार?"

"हाँ।" मैंने टाला उसे।

"घर किसका है? तुम्हारा?"

"मेरा ही समझ लो।"

मैं खीजा, "आखिर इतने सवालों की ज़रूरत क्या? वहाँ रसोई है।"

वह पूरे घर में घूमती रही, आखिरकार कॉफी मैंने ही बनाई, जिसे पी कर वह नहाने चली गई। लौटी तो उसमें मैंने अपनी पद्मा को खोजना चाहा। भीगी-भीगी-सी, पीछे को सँवारे भीगे बाल, उघड़ा मस्तक, धनुषाकार भवें, दीप्त आँखें, छोटी-सी नाक, खूबसूरत सुर्ख होंठ और ऊँचा कद। वक्ष से लगा लेने का मन हो आया। मगर वह पूरा एक प्रश्नचिह्न बनी बैठी थी।

"यह घर बरसों बन्द रहा है क्या? इसमें एकाएक ठहर गया वक्त फड़फड़ा रहा है, बन्द रह गए कबूतर की तरह। देखो ये पल, दरवाज़े और चौखट के बीच फँस कर मर गए। वह एक मरा हुआ शलभ उठा लाई। इस घर से क्या कोई आनन-फानन में चला गया? वो जो सितार बजाता हुआ... देखो तार ढीले नहीं किए, कवर भी नहीं डाला। ऐई, तुम्हारी हर चीज रहस्यमय। कौन रहते थे, विदेश चले गए क्या?"

"इतने तरह के ग्लासेज़... पीने-पिलाने के शौकीन होंगे मेरे डैड की... "

मैं उसे उसके कौतूहलों के बीच छोड़ कर बाहर सिगरेट लेने आ गया।

वह क्यों भागा मेरे सवालों से? मेरे सवाल सच में मल्टीप्लाई हो गए और घर भर में गिजाइयों के झुण्ड की तरह फैल गए। मैं थकी थी, सफर की, गन्दी भी हो रही थी। नहाना था, कुछ बना कर खुद ही खाना था, मैंने घर पर सरसरी नजर डाली, सवालों के कुछ और अण्डे फूटे, गिजाइयाँ टूट पड़ीं मुझ पर।

वह कह रहा था, "किराएदार' का घर है, तो बैठक की बुकशेल्फ में इसकी हस्ताक्षर वाली किताबें क्यों? दीवार पर माला लगी लड़की की तस्वीर? माला लगी ये सुदर्शन पुरुष की तस्वीर? बाथरूम की बिन्दियाँ? सितार? भरी-पूरी रसोई। सजी हुई बैठक। एक कड़ी मिसिंग है। जो कहीं नहीं है, बस बाथरूम की बिन्दियों में है।"

यक्ष प्रश्न, "जीते हुए सघन पल दरवाज़ों की संधों में फँसा कौन छोड़ गया? और क्यों?"

मुझे उसने रात भर के लिए त्रिकोण के तीन बिन्दुओं पर टाँग दिया था, सवालों की गिजाइयों के साथ, वे रात भर मुझ पर चढ़ती रहीं। मैं एक गझिन प्रेम कथा के चौखटे में मकड़ी की तरह इधर से उधर तार खींचती रही।

उसके आते ही, मेरे सवाल उबल पड़ने को थे, मगर मैंने उन्हें तरतीब दी।

"यह घर किसी बहुत पीने-पिलाने वाले का है? इतनी क्रॉकरी, मानो बहुत पीने-पिलाने वाली पार्टीज़ दी जाती हों। क्रिस्टल के ग्लॉब्लेट्स।"

कोई उत्तर नहीं।

"मैंने जो टॉवेल यूज किए वो धो दिये।"

"क्या ज़रूरत थी?"

"अरे आपके किराएदार क्या सोचते, कौन हमारे बिस्तर पर सोया?"

"अब कोई नहीं लौटेगा।"

"सामान लेने भी नहीं?"

"नहीं।"

"अरे?"

"उनकी परिस्थिति ऐसी है।"

"विदेश चले गए क्या हमेशा के लिए?

"फ्रिज में स्प्राउट्स हैं, पनीर है, ब्रेड-अण्डा है, भूख हो तो कुछ बना लो, मैं भी खा लूँगा।"

किचन में ऑमलेट बनाते हुए मैं सोच रही थी कि वह सोच रहा होगा, लड़की बड़ी बदतमीज़ है, घर के पीछे पड़ गई, अरे आम खाओ, पेड़ों से मतलब? ये सूत्र कहाँ से लाती है, सितार, पार्टी, शराब... क्या आज यह यहीं सोएगा?

“तुम, यहीं सोओगे?"

मैं हँसा उसके सवाल पर वह बेखबर-सी मेरे करीब खड़ी थी, हाथ खींच कर दीवान पर मैंने अपने पास बिठा लिया।

"हाँ।"

बाहर हवा अपने पंख फड़फड़ाती रही, बाँहों के घेरे में उसे बाँधे मैं सोचता रहा कि यही विशुद्ध सुख है, पर ग्रेशल न जाने क्या सोचती है और स्वयं को मुझसे विलग कर पूछती है, "कल से शूटिंग है, न! तुम तैयार हो? मुझे घबराहट हो रही है। मुझे कुछ बताओ तो... मेरा रोल... "

“आज कुछ नहीं, कल बात करेंगे। गोआ से उदयपुर तुमने मजे की हवाई यात्रा की है उतनी देर मैंने ड्राइव किया है। उससे पहली रात भी कहाँ सो सका?"

ग्रेशल उदास हो अपना चेहरा मेरे के कन्धों पर रख देती है। कमरे में पूरा अँधेरा है, पेड़ों की कतारों से कहीं-कहीं मलिन रोशनी झर रही है, पेड़ों की नजर बचा कर। इसमें मुख के भाव नहीं पढ़े जाते पर आकृतियाँ दिखती हैं। पहले उसकी एक चप्पल नीचे गिरती है। फिर दूसरी चप्पल वह खुद निकाल कर रख देती है। वह उसके कपड़े उतार रहा था, वह ताक रही थी उसकी आँखों में, मुस्कुराती, आमंत्रित करती आँखें। देह पसर जाए बिसात की तरह, उसे जमता है यह खेल। वह रोचकता से खेलता है, चालाकी से अगले को जिताता हुआ खुद हारता जाना जानता है। यह जिताना ही सुख देता है। शायद यही प्रेम है।

कपड़ों के साथ वह नियंत्रण पहन लेना चाहता है और फिर...

स्मृति में कुछ अस्फुट-से स्वर उभरते हैं, पद्मा करवट बदलती है, चेतन को नींद घेर रही है।

“बाबू, तुमको तो आज भी नींद आ रही है।"

“तुम तो जमाने से मेरी नींद की बैरिन हो न!" मैं हँस पड़ता हूँ।

"क्या हुआ, हँस क्यों पड़े? क्या याद आ गया? मेरी नींद खोल दी, मैं डर गई कि कहीं तुम दबाव में सिज़ोफ्रेनिक न हो गए हो।"

मैं उसे दुलारता हूँ और ग्रेशल मुझसे भी पहले नींद में खो जाती है, कुछ खुद में, कुछ मुझमें डूब कर। क्या यह प्रेम है? कुछ इस तरह का कि जहाँ जब भी मिले प्रगाढ़ता के छूटे सूत्र फिर आ जुड़ें। स्त्री-पुरुष होने के दैहिक स्तर से बहुत आगे एक प्रकृति का शाश्वत रिश्ता हमारे बीच बह रहा है, हमारे भीतर।

एक ही घण्टा सो पाता हूँ, मैं। यही साठ मिनट मुझे स्फूर्ति दे जाते हैं। मैं उठ कर सिगरेट सुलगा लेता हूँ। ग्रेशल सो रही है, गुलाबी रजाई में ढँकी, चेहरा खुला है, एक बाँह बाहर लटकी है, पसीने की बूँदे माथे पर उभर आई हैं, होंठों में स्पंदन हुआ, शायद कुछ कहना चाहती है। न चाह कर भी मैं उसके चेहरे से ध्यान हटा लेता हूँ और इधर-उधर बिखरी अपनी - उसकी चप्पलें समेटता हूँ। आहटों से वह जाग जाती है, और पूछती है,

“सोए नहीं?"

"एक घण्टा सो लिया, सुबह होने को है, झील देखोगी?"

"हाँ!"

"कॉफी पियोगी?"

"बनाऊँगी।"

कह कर वह केवल स्लिप पहने-पहने बाहर कूद जाती है।

जब वह दिगम्बरा, सुबह के पहले के जैली जैसे मुलायम पारदर्शी अँधेरे में सिगरेट सुलगाती है, मैं सिहर जाता हूँ, सिगरेट की लाल गुनगुनी छाया उसके माथे, काजल लदी आँखें।

गोल नाक और नन्ही-सी चाँदी की नथ पर पड़ रही है, वक्ष नीली अँधेरे में साँस के साथ उठ-गिर रहे हैं। "ठंड लग जाएगी, यह गोआ नहीं... "

अस्त-व्यस्त कपड़े ठीक करती वह बड़ी आकर्षक लगती है और न जाने क्यों बहुत समर्पित-सी भी। कोने की टेबल पर रखे परकोलेटर का प्लग स्विच बोर्ड में घुसाती है और कॉफी का सामान जमाने लगती है। उसके होंठों पर एक आश्वस्त-सी मुस्कान है, ऐसा आभास होता है कि इन अधरों पर क्षण भर के लिए एक कविता जन्म ले रही है। हम एक बार फिर साथ कॉफी पी रहे हैं। दरअसल ये पल पहले भी दोहराए गए होंगे मगर आज इन पलों का अर्थ सर्वथा अलग है।