शालभंजिका / भाग 3 / पृष्ठ 1 / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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मेरे पास अब नए कोण थे फिल्म को लेकर और स्क्रिप्ट में बदलाव करने थे।

मुझे फिल्म बनाने में आर्थिक विवशता दुनिया की सबसे अश्लील विवशता लगती है। करोड़ों रुपए लग जाते हैं एक फिल्म पर, जो कि आपकी कलाकृति है, मगर इसकी तकनीकी ज़रूरतें तो हैं ही, वे भी बहुआयामी - कैमरा, कैमरामेन, सेट डिज़ाइनर, लाइट इंजीनियर, साउण्ड रिकॉर्डिंग, साउण्ड इंजीनियर... एक पूरा क्रू ! यही सब तो हैं जो मिलकर आपको "एक्शन" कहने का अवसर दिलाते हैं। कला की किसी और विधा की तरह कहाँ है फिल्म? कई बार शर्म आती है खुद पर इतनी मँहगी कला से सम्बद्ध होने पर, कि इसमें इतना पैसा लगता है। परफॉर्मिंग आर्ट में आपका क्या लगता है? लेखन में कंप्यूटर, प्रिंटर... टायपराइटर या पेन-कागज। चित्रकला में कैनवस, कागज, रंग या एक्रिलिक रंग। यहाँ स्क्रिप्ट तो केवल शुरुआत होती है, वो गनीमत है कि मैं ही लिखता हूँ... अगर कभी किसी का लिखा पसन्द आया तो वहाँ पैसा ज़रूर दूँगा। लेखन आसान नहीं, फोटोग्राफी या एक्टिंग से। पहले मैं इस बात को खारिज करता था कि फिल्ममेकिंग जैसे कलात्मक काम में लोग एमबीए। क्यों करना चाहते हैं, या एमबीए एम्प्लॉय करते हैं। मगर मार्केटिंग बहुत बड़ी चीज है बेट्टा ! और इस बार मुझे यह फिल्म बेचनी है।

मेरे फ्लैशबैक वाले हिस्से की स्क्रिप्ट लगभग तैयार हो चुकी है। हमने अक्टूबर में तीन ऑडिशन किए थे मुम्बई में। बेंद्रे चाहता था कि हम ग्रेशल का फिर से ऑडिशन लें, ताकि वह उसे रिजेक्ट कर सके... बल्कि नए सिरे से हीरोइन चुनी जाए और नए चेहरे की जगह कुछ तो लोकप्रिय चेहरा हो कि फिल्म बिके। मगर मैं अड़ गया।

"इस चेहरे में ऐसा क्या है? बहुत नॉर्मल लड़की है ये। बाल इतने छोटे। लड़कों जैसे। सपाट सीना, चेहरे पर परमानेंट कनफ्यूज़न। मुँह खुला रहता है, पता है 'मूर्ख' होती हैं खुला मुँह रखने वाली लड़कियाँ जबकि स्क्रिप्ट वाली हीरोइन पद्मा सुन्दर बड़ी उमर की है। खूब तेज़- तर्रार। सेडक्टिव, महत्वाकांक्षी। इस रोल के लिए वो टीवीवाली... राधिका जमती।"

"ह्ह ... राधिका! पद्मा को मैं जानता हूँ बेंद्रे कि तुम... उसे मैंने गढ़ा कि तुमने? यह ग्रेशल थिएटर की लड़की है और ये लड़कियाँ इंटेलेक्चुअल होती हैं, साधारण रहती हैं मगर जब स्टेज पर आती हैं, रोल में ऐसे उतर जाती हैं कि... जाने दो... तुम मुझ पर भरोसा रखो। प्रस्तावित फिल्म - प्रोडक्शन के आँकड़े देखे क्या, कुल पचपन दिन की टोटल आउटडोर। तीन करोड़ बीस लाख... "

"चलेगा, ये जुआ भी चलेगा। मेरा प्रोब्लम एक ही है कि तुम्हारी स्क्रिप्ट में इतने न्यूड सीन हैं... सेक्स सीन हैं... ये लड़की बहुत सिम्पल है। बच्ची। मैं फिर कह रहा हूँ लड़की में दम नहीं, कागज की नाव है।"

मैं जानता था, वे दृश्य बहुत चुनौतीपूर्ण रहेंगे ग्रेशल के लिए, यहाँ सेक्स खिलवाड़ नहीं, काफी गंभीर मसला था फिल्म का। मैं यह भी जानता था कि वह बच्ची तो बिल्कुल नहीं है। फिल्ममेकर को अपने प्रोडक्शन को लेकर केन्द्रित रहना ज़रूरी है, मैं केन्द्रित होना चाहता था मगर ग्रेशल मुम्बई आ रही थी, अपने ऑडिशन के लिए। उसे मैं बहुत हद तक बता चुका था, कहानी के बारे में पहले ही नग्न दृश्य के बारे में।

नग्नता और कलात्मक नग्नता में फर्क है कि नहीं। "sex goes out of the door when art comes innuendo।" एक बड़ा फिल्मकार कह गया था। ग्रेशल के साथ ही ऑडिशन का तय करके स्क्रिप्ट हमने कलाकारों को बाँटना शुरू कर दिया था। लंच की टेबल पर ग्रेशल ने स्क्रिप्ट पढ़ी, मैंने देखा, वह तनाव की आखिरी हद पर खड़ी थी। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेना चाहा मगर उसने नरमाई से हाथ वापस ले लिया।

"उसने तुम्हें इस्तेमाल किया, फिर भी तुम्हें वह इतनी लुभावनी क्यों लगती है? स्क्रिप्ट में भी तुम उसका बुरा पक्ष भी अच्छे में लपेट कर लाते हो।" वह जानती है मैं तुर्श हूँ, बहुत खारा मगर इस वक्त बाजी उसके हाथ थी। यह क्या कम था मेरे लिए कि वह काम करने को तैयार थी और उसे न्यूड सीन से फर्क नहीं पड़ेगा, वह करेगी। वह ऑडिशन देना चाहती है।

मैंने स्क्रिप्ट और स्टोरीबोर्ड दोनों दिए ग्रेशल और सर्वेश को भी। यह सेक्स दृश्य था, मैं तनाव में था, मगर वे दोनों गप्पें लगा रहे थे। खिलखिला रहे थे। सबसे कॉम्प्लेक्स दृश्य था कि पद्मा एक-एक कर स्वयं अपने कपड़े उतारती है और लेट जाती है...

"अपने आप को ढीला छोडो न!" सर्वेश बहुत खराब बोला यह डायलॉग। मगर, मुझे लगा एक्ट बहुत सहज था, दोनों के बीच की केमिस्ट्री भी।

"सर, यहाँ क्या बुदबुदाना है?"

"कुछ भी जिसमें शब्द नहीं कामुकता... वासना हो... कुछ भी।"

"स्लैंग?"

"नॉट एग्जेक्टली... बट समथिंग... नियर टू इट, जो समझ न आए, सुना न जाए मगर हो कामुक।"

ग्रेशल ने आँखें बन्द कीं और बुदबुदाने लगी... कामुकता के साथ लयात्मकता में। उसने बहुत सहजता से वह कामुक बुदबुदाहट प्रस्तुत कर दी माइक पर खड़े-खड़े।

"क्या गुनगुनाया था तुमने ग्रेशल ?"

"बचपन में पढ़ी एक कविता...।" और रहस्य के साथ खिलखिला दी।

"ओह मेरी पद्मा।"

अब कैमरे की आँख से देखनी थी दोनों की केमिस्ट्री...

सर्वेश मँजा हुआ फिल्म कलाकार है, टॉपलेस होने में उसे पुरुष होने के नाते हिचक न थी, ग्रेशल की मुझे चिंता थी। कैमरामेन आदिल और मैं थे कमरे में बस...

"मुझे बॉडी स्किन या स्किन कलर ब्रा भी नहीं चाहिए... ग्रेशल शुड बी टॉटल टॉपलेस।" ग्रेशल ने कहा, "फिर आप सब भी थोड़ी देर के लिए कमरा छोड़ दें। जस्ट फ्यू मिनट्स। लेट मी एक्लेमटाइज़"

हम लौटे तो ग्रेशल तैयार थी, सहज, नग्न...और पवित्र। सर्वेश और वह दो प्रोफेशनल्स की तरह दृश्य प्रस्तुत कर गए।

मैं बहुत उत्साह में भर गया। पद्मा, मैं तुम्हें कला में उड़ेल दूँगा।

मेरा ऑडिशन हो गया, सर्वेश के साथ ऑडिशन में मेरा सहज होना भी 'फिल्ममेकर' को अखर जाता है। असहज होना भी। क्या करूँ? वैसे स्क्रिप्ट कमाल की थी, उसे इसका संतोष नहीं था कि मैंने फिल्म को गंभीरता से लिया। मैं जानती हूँ, उसे ज्यादा संतोष मेरे उसके पास लौटने का था, एक पुकार पर आने का। ऎसे में वह बहुत खुश दिखता है, वाचाल होता है, अभिव्यक्त करता है खुलकर।

"थैंक गॉड! तुमने प्रेम को बीच में नहीं घुसाया, या तुम्हें प्रेम की... तथाकथित कोट अनकोट 'सच्चे प्रेम' की तलाश में मुझ तक नहीं आईं, और जैसा कि आम मध्यमवर्गीय मानसिकता वाली लड़कियाँ करती हैं। शादी कर लो, किसी को प्यार कर लो। मन ही मन चाह लो। मैं जानता था तुम अलग किस्म की लडकी हो इस बेबाक, बेरोकटोक... साथ में प्रेम और लगाव जैसे शब्दों का घिसा हुआ घटियापन नहीं घुसाओगी। बल्कि मैंने तुझे लड़की नहीं दोस्त माना है।

"सच अब हमें नहीं होता प्यार व्यार। वह होकर रीत गया और उसकी लाश लेकर उम्र बीत गई। अब ऐसी चीजें कोई थ्रिल नहीं देतीं। जैसे बड़े त्योहार आते हैं चले जाते हैं थ्रिल नहीं होता। पहले होता था यह थ्रिल छोटी-छोटी बातों का मसलन चाँदनी का, बरसात का, जन्मदिन का, अब नहीं भई पैंतालीस का हो रहा हूँ।”

नमक में भीगी उसकी आवाज मन में गहरे पैठती, शब्द ऊपर तिरते रह जाते। एक डिप्लोमेटिक अलगाव लगातार उस पर तारी रहता था। वह सम्बन्धों में भावुकता के सख्त खिलाफ था। बकौल उसके और पद्मा द ग्रेट के फलसफे के अनुसार, जिसे जितना अधिक प्रेम होगा वह उतना ही खामोश और निस्पृह मालूम होगा। मुझसे भी तो पूछा होता कभी मेरे प्रेम का दर्शन। जहाँ तक मेरा खयाल था, यह दर्शन सब अपना-अपना गढ़ा करते हैं, अपनी तरह से। जैसे वे स्वयं गढ़े गये होते हैं, परिस्थिति और प्रकृति के हाथों। माना प्रेम बातूनी नहीं होता। प्रेम है तो अभिव्यक्त तो होगा न! निस्पृह, चुप्पा, उदासीन प्रेम यह तो मेरा फलसफा नहीं था। पर उसका तो था अन्तत:!

उसे हुडक़ या हूक होती थी। प्रेम की या देह की। बहुत संताप पाने पर एक दोस्त की जो समूचा कान हो! जो न प्रश्न करे, न सलाह दे। जाने क्यों मैं नहीं समझा सकी स्वयं को कि प्रेम कभी चाय या सिगरेट जैसा भी हो सकता है। मैं आज भी हैरान हूँ कि आखिर हम दोनों शुरू कहाँ से हुए थे कि हमारे रिश्ते की, दोस्ती की, स्मृतियों की इतनी लम्बी रेल बना ली, जो आधी रात को बिना सिग्नल मेरी नींद से धड़-धड़ा कर गुजरती है और मैं चौंक कर जाग उठती हूँ।

वह उस आदमी के बारे में जानती ही क्या थी? अधिक नहीं, बस यही कि जो कुछ उनके बीच घट रहा था वह असामान्य-सा था।

कुछ ही दिन में बेन्द्रे से मिलकर हमने शूटिंग की तारीखें तय कर लीं, मैंने अपने क्रू को पिछौला के किनारे उसी माहौल में ठहराना तय किया जहाँ शूटिंग होनी थी, एक तो लगातार माहौल को जिएँ, वहीं उन्हीं गलियों में घूमें - रहें। दूसरा, स्थानीय आवागमन में वक्त और पैसा एकदम जाया न हो। हमने अपने एक्टर्स के लिए एक हैरिटेज हवेली बुक कर ली थी, कुछ दृश्य वहीं होने थे, कुछ वहाँ, जहाँ मैं ठहरा था, बस तीन गली आगे। यह वही घर था जहाँ मैं और पद्मा साथ रहे थे। बचपन में जब मैं लड़का नहीं था, बच्चा था। पद्मा के सामने खेलता - कूदता... "पद्मा देख, पतंग काटी आज दो।"

"मासी बोल छोरे?" निशा मासी मेरे कान मरोड़ती।

"कहने दे न।" पद्मा कहती।

"क्यों कहने दे... मासी की सहेली मासी नहीं?"

"हट, मैं नहीं मानता, अच्छा मेरे लिए आज चूरण नहीं लाई न!"

"आज तिल के लड्डू लाई हूँ।"

"मैं आपकी डांस क्लास में आऊँ?"

"आजा, दाऊ जी, तबला ठोंकने की हथोड़ी फेंक के मारे तो फिर रोना मत।"

वैसे मैंने बुनियादी तौर पर कब अपने को बच्चा माना? माँ के अनुसार अभी मैं इस लायक या उस लायक नहीं था, मगर पद्मा को देखता रहूँ इस लायक मैं हमेशा था। बच्चों की तरह ही किसी का मुरीद होना था वह। वह नातजुर्बेकार, एकतरफा प्रेम का भाव था, मैं उससे, उसकी परछाईं से बेशर्मी से लिपटे रहना चाहता था। मेरी एक दुनिया स्कूल में थी, एक स्कूल से बाहर। स्कूल में खिलन्दड़े यार-दोस्त थे। दूसरी तरफ माँ-बाऊजी और पद्मा। पद्मा उस समय एक भरी-पूरी लड़की थी, जो मेरी मासी से अपनी मासिक धर्म की उलझनों की बात मेरे सामने कर लेती, हमारे घर के सामने अपने घर में गली की तरफ खुलने वाले जंगले में बैठ कर हिन्दी, अंग्रेजी के क्लासिक उपन्यास पढ़ती, एक के बाद एक।