शालभंजिका / भाग 2 / पृष्ठ 3 / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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कुंभलगढ़ का यह जंगल ठीक उसी की तरह रहस्यमय है। यहाँ की सुबहों और शामों में घनेरा अन्तर है। सुबह पंछियों की काकली में गूँजता है यह जंगल, तो दोपहर में यही जंगल सुस्ता रहे तेन्दुए-सा लगता है। शाम घर लौटने की विविध गतिविधियों से प्रतिध्वनित-सी और रात विकल कर देने वाली उदास शान्ति में डूबी-डूबी। यहाँ जैसी व्याकुल कर देने वाली शान्ति मैंने कहीं नहीं देखी और ये सौन्दर्य तो किसी कुशल चितेरे की कल्पना में भी नहीं समा सकता, यह सौन्दर्य तो अद्भुत है, नितान्त अद्भुत! यह स्वप्न किसी और का था और इस स्वप्न में भटक मैं रहा हूँ, एक शापित यक्ष की तरह। पेड़ों ही पेड़ों से होकर गुजर जाते उच्छृंखल बन्दरों के झुण्ड। मोड़ से घूमते ही अचानक सामने आकर चौंका देने वाला नित नवीन दृश्य। यही तो था उस वनकन्या का स्वप्न। पद्मा चाहती थी, यहाँ बसना कुम्भलगढ़ के इन्हीं रास्तों में। जब हम दोनों मोटरसायकिल पर शहर के बाहर निकल आते तो वह रास्तों में बार-बार उतरती।

“किसे चाहिए घर–बंगला। ऐसी एक झोंपड़ी डाल लेंगे, लीपा आँगन। छप्पर पर चढ़ी तोरई की बेल, आँगन में महकता मोगरा, तुलसी... एक खाट... ”

“खाट ज़रूर चाहिए.. हाँ... ”

“हाँ नहीं तो क्या, जो ऊपर उसके घुटने छिलें, जो नीचे उसकी पीठ।”

“लफंगी!”

वह स्वयं तो किसी कोहरे में छिप गई है, जहाँ से बस कभी–कभी उसकी आवाज़ गूँजा करती है। वह कहा करती थी – हम–तुम इसी ज़मीन के तो मौसम हैं, कहाँ जाएँगे? लौट आएँगे यहीं, मैं भी, तुम भी!

सोलह वर्ष बीत गए, और आज अतीत दुहराता इस जंगल में बैठा हूँ। झिंगुरों की आवाज़ों और बढ़ती स्याही से बेखबर-सा। अब तुम अदृश्य हो पद्मा, किसी पराए देश में, तुम्हारी जीजिविषा खुलती क्यों नहीं, तुम चीख कर बाहर क्यों नहीं आ जाती हो।

वन विभाग की एक गेस्टहाउसनुमा कॉटेज में मेरे रहने का इंतजाम हो गया है। बचपन के एक सहपाठी के सौजन्य से। यहाँ जीने के मूलभूत साधनों में मेरे बिस्तर, कपड़ों से भरी अलमारी, किताबें, एक छोटा म्यूजिक़ सिस्टम, एक पोर्टेबल टीवी रखे हैं बस। वैसे इस रिसोर्टनुमा कॉटेज में एक और बेडरूम, एक लिविंगरूम, किचन तो है ही। पर मैं इसी कमरे में रहना पसंद करता हूँ, इसके पीछे एक छोटा-सा स्क्वॉश कोर्ट है जो लगभग जंगली झाड़-झंखाड़ से ढक गया था। मैंने इसे अपने खेलने लायक बना लिया है। इस कमरे में एक बहुमूल्य-सी चीज है जिसे मेरा एकमात्र ऐश्वर्य कहा जा सकता है, एक खुशनुमा तितली की तस्वीर है, ग्रेशल की रंगीन तस्वीर।

यहाँ मेरा एक सहचर भी है। मेरा यह सहचर एकदम अनोखा है। पूरी लगन से सेवा करता है। बोलता कम है, आदिवासी गीत गुनगुनाता रहता है। मेरा हर क्रियाकलाप बड़े ध्यान से देखा करता है। खाना ऐसा बनाता है कि मेरा प्रयास रहता है कि खाना जिव्हा पर कम से कम रहे, सीधे गले में उतर जाए। कभी-कभी मूड में होता है तो अहाते से ख़रगोश या तीतर–बटेर पकड़ कर अपनी पारम्परिक रेसिपी से उसे पकाता है। आज ऐसा ही हुआ था, बस खाना खाकर लेट गया था। सालों बाद दोपहर में यूँ लेट पाने की फुरसत नसीब हुई थी। आदत नहीं थी सो नींद ही नहीं आई। उठा और चला आया इस ओर भटकने और खो गया अतीत के बीहड़ में, जिसका भी इस जंगल की भाँति कोई ओर-छोर नहीं। बहुत उलझ कर लौट जाता हूँ। लौट कर घने शीरीष की डालों से ढकी बॉलकनी में, इज़ी चेयर पर जा बैठता हूँ। शाम होते ही जंगल का कलरव नीरवता में बदलता जा रहा है। रात ढलने तक यहीं बैठूँगा और बस पद्मा के बारे में सोचूँगा और लिखूँगा। यहाँ आकर नम हवाओं और सीली हुई स्मृतियों के असर ने उस काष्ठ को जीवन और स्पंदन दे दिया है, जिसमें पद्मा की स्मृतियों के नये, रक्तिम किसलय फूट पड़े हैं।

पद्मा तो एक बरसाती नदी थी, जब-तब मुझमें बहती-सूखती रहती। अब तो वह एक आभास मात्र है, कच्चे ग्राम्य-गीतों की तरह दूर से महसूस भर होती है। उसी की तरह उसका स्नेह भी अनोखा था। प्रेम में अगाध विश्वास था उसे, कोई फिल्मी या आकर्षण जनित प्रेम नहीं सहज मौलिक प्रेम जिसकी परिभाषाएँ भी मौलिक हुआ करती थीं। उसके शब्दों में प्रेम की सराहना कभी आम संवादों में नहीं होती थी, जैसे आत्माओं का सहस्पंदन ही प्रेम है। उतना ही अनश्वर, देह से परे होकर सोचें तो वह कभी भी, किसी से भी हो सकता है। उसे गुनाह, समर्पण, शील-संकोच जैसे शब्दों से चिढ़ थी, उसके अनुसार प्रेम तो प्रकृति सा निर्बन्ध होता है, वैसे ही जैसे दो फूल साथ खिलें, आपस में टकराएँ, अपना पराग बाँटे फिर मुरझा कर पांखुरी-पांखुरी हो बिखर जाएँ। वह बहुत उलझाती थी और मैं बहुत समय तक तो जान ही न सका कि वह मेरे लिए क्या सोचती है। उसकी उन मौलिक परिभाषाओं ने खूब छला इतना कि आज तक ठगा-सा बैठा हूँ।

“पद्मा, ये जन्म किसी तरह बिता लो। अगर पुर्नजन्म होता होगा तो उस जन्म में फिर मिट्टी में साथ खेलेंगे और उसी पेड़ की डालें हिला-हिला कर भीगा करेंगे। उस दिन वह मेरे वक्ष से लग फूट-फूट कर रोई थी। जब दो व्यक्ति प्रेम में डूबे होते हैं तो वे सोचते हैं उनका प्रेम छिपा है बस उनके दिलों में, उन्हें कोई नहीं देख रहा। उनके प्रेम का बिरवा उनकी गुँथी हुई हथेलियों में छिप कर बढ़ रहा है। किन्तु पता नहीं कब इस पौधे के बड़े-बड़े सब्ज हरे पत्ते हथेलियों से बाहर आ दुनिया को चौंका जाते हैं। हमारे साथ ऐसा ही कुछ हो रहा था। वह मुझसे चार साल बड़ी थी, और मैं होश सँभालते ही उससे प्रेम करने लगा था। ओह! उसकी स्पंदनों से भरी लहर-लहर देह की याद इस कुहासे से भरी सुबह में मुझे कँपा गई। कॉफी के घूँट भरते ही ढेर सी कडवाहट सीने में उतर गई। हवा में शीतलता बढ रही है। दूर किसी पेड़ से आई बंदर की चीख क्षणिक रूप से सिहरा जाती है। सुबह बस होने को है पर उजाला नहीं धुंधलका बढ रहा है। ढेर से अंगारों-से विचार और सवाल कोहरे के अस्पष्ट पर्दे पर खिल रहे हैं। हर सवाल में, हर विचार में वही साफ-धुली तस्वीर। इतने बड़े अरसे बाद अतीत टूटती दीवार-सा मुझ पर ढह गया है, मैं अचेत पडा हूँ और वह तमाम गुनाहों से परे हो गई है। मैं पूरी रात स्क्रिप्ट पर काम करता रहा हूँ... मगर इस हहराती नदी-सी गाथा के खुले किनारे बहुत हैं, बाँधू कैसे?

पूरी नोटबुक के की बोर्ड पर खट–खट करते बीत गई, चलो एक लम्बा दृश्य तो बना बहुत कुछ वह कहती रही, बहुत कुछ मैंने कहा। इतने अलौकिक सम्बन्ध का कटु अंत मुझे तोड़ गया। फिर भी कार लेकर उसके घर पहुँचा था। न जाने क्यों गेट की आवाज सुन वह नीचे चली आई थी -- “कौन है चौकीदार जी?”

मुझे उसका यूँ मेरे आने की उम्मीद करना भला लगा और फिर से लगने लगा कि इस संबंध की अलौकिकता हमेशा रहेगी।

“तो तुम्हें हमेशा की तरह पता था कि मैं आऊँगा?” वह चुप रही।

“इतने लम्बे बाल क्यों कटा लिए?” वह चुप रही। दीवार में बने एक छेद की मिट्टी कुरेदती रही। उसने लम्बी नारंगी स्कर्ट पहनी थी और गुलाबी टी शर्ट जिस पर लिखा था, “आय’म नॉट सेल्फिश, बट आय नीड एवरीथिंग।”

“अपना खयाल रखने का आश्वासन दोगी तो मैं भी जी सकूँगा।”

मेरे लिए वे बहुत कठिन पल थे, पीड़ा से घनीभूत मगर वह बोली, “चलो लाँग ड्राईव पर चलें।”

“कहाँ?”

“शहर से बाहर, उन्हीं रास्तों में जहाँ शिरीष के जँगलों में पीले फूल खिले होंगे। उसी दिन उसने कोहरे में डूबे रास्तों पर धीरे-धीरे चलती हुई कार के भीतर मुझसे लिपटते हुए कहा था, कि – “आज बता दूँ… जो मैं बुदबुदाती थी वह डायनिसस के मंत्र थे – जो शराब, पुनर्जन्म और प्रजनन का देवता है। मैंने कहीं पढ़े थे, किसी पुरानी किताब में ग्रीक मायथॉलोजी की।” कहते हुए वह किसी बेहद गोरी गेइशा औरत की तरह दिख रही थी।

“ऐईईईई रोको… भूल गए आगे खुली रेल्वे क्रॉसिंग है। और देखो उधर… ” एक इकलौता इंजन हमारे आगे से गुज़र गया।

“उफ्फ! कोहरे में सच में कुछ नहीं दिखा था… ” “अभी वो मंत्र सच हो जाते, साथ मर कर साथ जन्म लेते… आगे के जन्म में साथ प्रजनन करने को।” खिलखिलाती वह उतर गई कार से। भग्न मंदिर के अहाते में था उसका प्रिय शिरीष… उसके सारे फूल रात हुई बरसात में झरे पड़े थे, पेड़ नंगा था। कोहरे में किसी प्रेत–सा खड़ा, बस महक ही महक फैली थी और कोहरा… उसी में से आवाज़ आई।

“अच्छा सुनो एक बात बताओ क्या तुम ऐसे बच्चे के पिता बनना चाहोगे जो तुम्हारा न हो?”

मैं अचकचा गया था।

"आय एम इंटरेस्टेड इन कनक्लूज़न..., मैं चुप रहा।

आई हैव कनक्लूडेड,

बस वही आखिरी दिन था जब मैं पद्मा से मिला था।”

मुझे इसे फिल्म में बड़ी ट्रिक से लेना था।

मन को अन्यमनस्कता से बचाने के लिए एक पेग व्हिस्की ले लेता हूँ। सुबह चार बजे सो जाता हूँ, नींद के घेरों में भी वही सब पद्मा, उसकी बातें, उसकी हँसी तो कभी रुदन। नींद से अचानक जाग कर अपने चतुर्दिक को पहचानने की कोशिश करता हूँ। एक परछाईं लगातार साथ रह रही है इस बार। बहुत कुछ अनजाना–सा जो अपनी चुप्पी में खुद को व्याख्यायित कर रहा है। पद्मा समेत, मेरे दूसरे पात्र भी चुपचाप आकर मेरी गुमी हुई नींद से खेलते हुए अनमने से मेरे सिरहाने खड़े रहते हैं, अपना अतीत, अपना दर्शन, अपना–अपना तुर्श व्यक्तित्व लिए।

सन्नाटा अपने पंखों की फड़फड़ाहट से अपने ही अहसास को कम कर रहा है। सन्नाटा चीरती हुई आवाजें मेरे भीतर से उभरती हैं या वातावरण से बता नहीं सकता। खिड़की खुली रह गई है। शीशम, चीड़ और कई लम्बे पेड़ों से टकरा कर सन्नाटा चमगादड़ की तरह फड़फड़ाए जा रहा है। बाहर अँधेरा है; पर यही अँधेरा प्रकृति की हसीन एक अदा है। किन्तु भीतर का अँधेरा?

आते समय एक मोटा बन्द लिफाफा मुझे मृदुला ने दिया था - “चेतन भाई सा, यह अब नहीं सँभलता मुझसे। आप ले लो काम आए तो... नहीं तो फेंक देना बाहर कहीं। मैं तो घर से बाहर बहुत ही कम निकलती, जाती हूँ, अलबत्ता शहर से बाहर ज़रूर जाना हो जाता है।”

यह एक खत क्या था किसी नोटबुक के पन्ने थे, खुद पद्मा के हाथ के लिखे पन्ने, उस पते पर मिला था जहाँ वह रूस जाने से पहले रहती आई थी। इसे शायद डर कर मृदुला ने खोला भी नहीं था, यह खतनुमा एकालाप न जाने किसके नाम था। उस पर मेरा नाम तो नहीं था, मगर मैं सिहरता रहा कि किसके नाम था वह आखिर?

यह एक आखिरी खत किसी के नाम नहीं था, न खत पर किसी का नाम था... न सम्बोधन, “मैं थक गई हूँ अपनी सच्ची भावनाएँ छिपाते–छिपाते। मुझे अपने चेहरे पर झूठी मुस्कान क्यों चस्पाँ रखनी होती है? मैं हमेशा बुद्धू या सीधी या पगली क्यों समझी जाती रहूँ, जबकि मैं जानती हूँ कि सामने वाला लगातार बहला रहा है, बेजा अधिकार जता रहा है। मैं क्यों नहीं दिखा सकती कि मैं नाराज़ हूँ या बहुत अच्छी तरह समझ रही हूँ उनकी छिपी मंशा। मुझे नहीं पता, मैं जिसे आकाशगंगा समझ कर चलती आई वह जलती चिता थी मेरी, मुझे आग महसूस क्यों नहीं हुई? ये कैसा पुरज़ोर जोश था? मैं लौट जाना चाहती हूँ, मगर कहाँ? जहाँ से भाग आई थी, वहाँ तो लौटने के सारे निशान मिटा आई हूँ।

मैं जान गई हूँ कि मैं यहाँ अजनबी हूँ। मैं इस भाषा को बोलते में अटकती हूँ। मैं वो शब्द सही नहीं उच्चार पाती जो मेरे नहीं हैं, मेरा उच्चारण मुझे मेरे देश की याद में ले जाता है। मुझे अपने सारे संदर्भ कटे–कटे नजर आते हैं। मैं सोचती थी देश छोड़ कर, मुखौटा ओढ़ कर गुम होकर मैं अपने अतीत को छका लूँगी, अगर यह छकाना है तो औरों के लिए होगा, खुद को कोई कैसे छका सकता है? हमारी अंतश्चेतना मूर्ख नहीं बन सकती।

मैं थक गई हूँ वह दिखाते हुए जो कि मैं हूँ नहीं। मैं संसार को अपना सही आकलन करने के लिए अपना सही कोण दिखाना चाहती हूँ। मगर मैं डरती हूँ कि पता नहीं सब क्या सोचेंगे... वास्तविक में मैं ऐसी हूँ, मैं खुद नहीं जानती कि कैसी? मैं भूल ही गई हूँ कि मैं वास्तव में कैसी हूँ... मुखौटा पहनने की आदत जो हो गई है। काश मुझे पता होता कि दरअसल मैं हूँ कैसी? मेरी मौलिकता क्या है? मैं कैसी दिखूँगी जब मैं, नितांत मैं होऊँगी। मैं थक गई हिदायतों से... ऐसे चलो, यह मत करो वह करो, यह मत पहनो... वह पहनो... यह मत कहो। कहना भी है तो ऐसे नहीं जरा बदल कर, डिप्लोमेटिक बनो। लड़खड़ाओ मत, लड़खड़ा ही गई हो तो गिरो मत, गिर गई मूर्ख... तो अब उठ जा, चोट लग गई तो लगने दो... गलती की है तो दर्द से चीखो मत... संभ्रांत हो... गुस्सा पी जाओ। गाली मत दो पलट कर। हे ईश्वर, रोक ले मुझे, मैं किसी को चाँटा न मार दूँ प्रतिक्रिया में। अरे! जो कहा गया उसकी चीर–फाड़ मत करो। छिपे अर्थ मत निकालो द्विअर्थी बात के। बात मत पकड़ो, मर्द तो होते ही हैं ऐसे। चुप रहो... ज़बानदराज़ी मत करो।

काश मुझे याद होता कि दरअसल मैं दिखती कैसी थी? मैं क्या महसूस किया करती थी, मैं क्या सोचा करती थी? मैं कैसा व्यवहार किया करती थी... या मुखौटा न लगा होता तो आज मैं कैसी दिखती, महसूस करती, सोचती और व्यवहार करती? अपनों से ही खुद को छिपाते हुए बीमार हो गई हूँ। बल्कि खुद को धोखा देते हुए। काश मैं दुबारा शुरू कर पाती... और अपनी नितांत अपनी तरह हो कर। जो मैं हूँ रह पाती। मैं अपनी ही बनाई कैद में हूँ। माफ करना! तुम जानती थीं तुम कौन हो... और फिर भी तुम कभी देख–बूझ नहीं पाई।

वैसे अब तक तो मैंने जो चाहा वही पाया है, शायद मुखोटों की बदौलत। पर अब नहीं सह सकती, अब जब मुझे अपने सामने सड़क दिखती है और अतीत परछाइयों के पीछे दुबका है। क्यों नहीं मैं बाहर निकल कर अपने डर से लड़ती हूँ? क्यों मैं इन जिन्नों को अपने भीतर की बोतलों में बन्द रखे हूँ? जानती हूँ मैं आदर्श व्यक्ति नहीं, जानती हूँ लोग मुझसे कैसे व्यवहार की उम्मीद करते हैं। मैं यह भी जानती हूँ कि वे सब हँसते हैं सच पर। लोगों के खिसके हुए मुखौटों पर... और अपना कस कर थामे रहते हैं।

स्मृतियों के चीरे बड़े गहरे लगे होते हैं त्वचा में, यहाँ आप उससे कहीं ज्यादा सज़ा पाकर भी बरी नहीं होते जितना कि जुर्म आपने किया होता है। खून टपकता है और कालीन पर दाग़ बना जाता है। क्यों उतरी थी बियाबाँ में माज़ी के। मुखौटा चीख़ता हुआ हाथ थाम के पट्टी करता है। मैं हाथ छुड़ा लेना चाहती हूँ। मगर ऐसा नहीं करती। क्या मैं डरती हूँ यह जानने से कि मुझे किस–किस से घृणा है? या मुझे मीठी पीड़ा मिलती है डर कर। जैसा भी हो पर एक बात तो तय है कि डर और आँसू का भी एक समय होता है।

मैंने खुशबू से बहक कर मुलायम पंखुरी वाले, सफेद गुलाब निगल लिए थे, काँटों ने गला काट दिया है। लाल रंग प्रेम, आवेग पीड़ा का रंग है... वे गुलाब सुर्ख हो गए हैं। रक्त सने सफेद गुलाब कभी नहीं जान पाएँगे इस रंग की क्रूरता। मुझे अब कुछ आहत नहीं करता सिवाय मेरे नाखूनों के, मुझे अब कोई चोट नहीं पहुँचाता सिवाय मेरे अपने।

तुम मैं नहीं... हो भी नहीं सकते।

मैं गहरी रातों का सन्नाटा हूँ। मैं तुम्हारी त्वचा को सिहराता भय हूँ। मैं वो बाज़ हूँ जो तुम्हारे निशान पकड़ता हुआ पीछा करता है। मैं एक खुली, खाली कब्र हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा में। मैं तुम्हारा अंत हूँ... मैं वह हूँ जहाँ तक तुम्हें तुम्हारा हर कदम ले आएगा। मैं तुम्हारे लिए मृत हूँ, फिर भी मैं बँधी हूँ अभिमंत्रित तुम्हारी खुशी के लिए। अगर मैं कोई नहीं, कुछ भी नहीं तो समय आएगा जब तुम मेरे जैसे कुछ नहीं होगे... कोई नहीं किसी के।

मैं तुम्हारे लिए नाची हूँ, बेहद कसे हुए धागों में, तुमने मुझे नंगा घुटनों के बल चलाया, यहाँ तक कि धागे गहरे मज्जा में धँस गए मगर टूटे नहीं। मैं बार-बार लटका दी गई। मैं तुम्हारी मुस्कान की शिकार थी और सोचती रही सब ठीक है, कनपटी पर रखी रिवॉल्वर के डर से मैं चलती रही भरी सड़क पर और किसी का ध्यान कैसे नहीं गया? कैसे? मगर आवाजों को क्या हुआ है? भ्रम में लिपट कर लौट-लौट कर आ रही हैं। जो एक साल पहले निकली थीं गलों से। वे फीकी और हल्की क्यों नहीं हुईं... शब्दश: पिघलती हैं शीशे-सी... कानों में। टूटे पंख, टूटे मन और आत्मा।

प्रेम बर्फीला सफेद सन्नाटा है, कभी सुना नहीं गया। सुन्दरता खून से रँगे सफेद गुलाब हैं, कभी देखे नहीं गए। पीड़ा तुम्हारे सपनों का लिया गया बदला है, जो कभी पूरा नहीं होता। न होगा। मन करता है मैं अपने हाथ तुम्हारे खून से भर कर दीवारें चित्रित करूँ, अपनी ग्लानि, आत्मसम्मान और सम्मान दिखाती हुई कोई तसवीर। भले ही मेरी आत्मा नर्क की भट्टियों में जलती रहे निरंतर। तुम तो यही चाहोगे। एक और मौत मैं अपने कन्धे पर लिए चलूँ। फ्रीक --- सनकी तुमने मुझे कहा। क्योंकि मैं बिन्दास नाचती हूँ। क्योंकि आग से खेलती हूँ, क्योंकि कसे और फैशनेबल कपड़े पहनती हूँ। क्योंकि मेकअप करती हूँ। क्योंकि अकेले दुनिया घूमती हूँ।

मैं डरपोक हूँ। बहुत पहले जंगल में खो गए एक बच्चे की तरह, जो रोने से डरता है, प्रेम से डरता है, किसी पर विश्वास करते हुए डरता है। मैं पका हुआ घाव हूँ, भरना नहीं चाहता।।दर्द मुझे राहत देता है, अहसास देता है कि मैं अभी ज़िन्दा हूँ। अपने भीतर तालाबन्द, अपने उस मुखौटे में फिट जो सदा मुस्कुराता है। भीतर मेरा चेहरा टेढ़ा है, आईने में देख मैं इसे ठीक कर देना चाहती हूँ। मैं तुम्हें सपनों में देखना बन्द कर देना चाहती हूँ। तुम होना बन्द कर देना चाहती हूँ। मगर बातों में तुम्हारा नाम है कि गीली, ज़िन्दा मछली-सा मुट्ठी से फिसल जाता है।

सुबह जागते ही मैं खुद के चेहरे को आईने में देखती हूँ। इसे ताज़ा और दिन भर के लिए सजग होना चाहिए। ताकि कोई दर्द और संघर्ष के चिह्न न देख ले। कोई भी राह चलता, बस में मिलता... शॉवर, साबुन और झाग... और हाथ से मलती हूँ इसे ताकि दुख की जर्दी मिट जाए। कभी इतना रगड़ देती हूँ कि खून निकल आता है। चेहरा बूढ़ा होने लगा है, झुर्रियाँ दिखने लगी हैं माथे पर। दुबारा देखती हूँ तो रोने का मन हो आता है। कोई खटखटा रहा है, जल्दी से बगल में रखा ठहाका ओढ़ लेती हूँ। या फिर लम्बी सहज मुस्कान। जो बस टेलरमेड हैं और मेरे लिए ही बने हैं। काम पर जाती हूँ... क्लास लेती हूँ। जो जो मिलता है उसके हिसाब से मुखौटा कसती – ढीला करती हूँ। बहुत अपने, अपने, पुराने परिचित, नए परिचित, अपरिचित और विरोधी, उदासीन लोग या फिर काम के लोग। कोई नहीं जान पाता कि हर मुखौटा फिसल जाता है कभी – कभी तो... ऐसे में जल्दी से वॉशरूम में आकर जूतों, ऊपर चढ़ गई ब्रा या खिसकती जींस से और बालों में बँधे स्कार्फ से पहले मुखौटा ठीक करती हूँ।

घर आकर जब भी इसे उतारती हूँ बस थका पाती हूँ। हँसती या रोती चली जाती हूँ राहत से। ये हँसी और रोना कोई नहीं देखता सिवाय भगवान के या उसके खुद के। मास्क मुस्कुराता हुआ रात भर जगता है, मैं वेलियम लेकर सो जाती हूँ। बचपन का खेल याद आता है आई स्पाइस...बढ़िया थी मैं उस खेल में... कोई नहीं ढूँढ़ पाता था।

कभी कभी तो सब भूल कर मुझे घर चले जाते और फिर मैं खुद को भी नहीं ढूँढ पाती थी। मैं खिड़्की के बाहर झाँकती हूँ... एक लड़कीनुमा युवा स्त्री मुँह धोए चले जा रही है, दूसरी तरफ... बॉलकनी में खड़ी स्त्री पति से बात करते हुए लगातार मुस्कुराए चली जा रही है... लगातार... मुझे आश्चर्य हुआ, “क्या मैं अकेली ही हूँ जो मास्क पहनती है? क्या और भी हैं जो बिना खुद को जाने एक ही तरह से मुस्कुराए हुए जीते चले जाते हैं? हमेशा बढ़िया, बिना बीमार हुए...मजबूत दिखते हुए।

बरस हुए, अब भी हर रोज़ मैं एक नया दिन देखती हूँ, बरसाती, धूप भरा, ठण्डा कोहरीला... सुनहरा, सफेद, गुलाबी, पीला, सलेटी... मगर आईने में चेहरा वही... अब फर्क नहीं कर पाती, यह चेहरा है कि मास्क... क्योंकि अब आलस में इसे अकसर रात में उतारना भूल जाती हूँ।

मैंने लिफाफे पर मुहर देखी, यह एकालाप दो साल पुराना था, मैं फूट-फूट कर रो पड़ा... पद्मा, मैं यह फिल्म दो भाषाओं में बनाऊँगा, इसे संसार भर के फिल्म फेस्टिवल में ले जाऊँगा... तुम कभी तो देखोगी, शायद खोज लो फिर से लौटने के रास्ते... विशफुल थॉट!

कुंभलगढ़ से लौटकर जीजी से मिलना हुआ, एक बरस बाद हुआ, एक बरस में ही बूढ़ी से बहुत बूढ़ी हो गई हैं मेरी माँ। मुझे देख माचे से उतर आई और जोश में भर गई।

“कब से राह देख रही थी, तू है कि फोन भी नहीं। महीना हुआ उदयपुर आए तुझे।”

मैं जानता था, इनका अब यहाँ रहना व्यर्थ है। गोगुन्दे की हवेली अब खण्डहर होने लगी है माँ की तरह, गाँव भी बेतरतीब हो चला है, खेत बंजर पानी की कमी से जूझते हैं... और राजनैतिक माहौल ने समीकरण उलझा दिए हैं।

“माँ, फिल्म बना रहा हूँ।”

“ फिर नया जुआ...”

“ क्या करूँ...यही आता है... अब।”

“यही आता है तो ठीक से बनाना... पैसे लगाने वाला मिला?”

” हाँ...”

माँ रही है मुम्बई, मेरे सफल दिनों में, मेरे पास जानती है, फिल्म बनाने की दुश्वारियाँ।

“लो बजट फिल्म है, उदयपुर में ही बनाएँगे। एक हवेली में, पिछोला के आस-पास। तुम साथ रहोगी मेरे, ऐ जीजी, वो लोकगीत था न जो तू गुनगुनाती थी। “कुरजाँ ए म्हारा...” वो मुझे चाहिए फिल्म में। तेरी आवाज़ में। कल रिकॉर्ड करेंगे।”

“गैला हो गया क्या चेतन, आवाज़ अब काँपती है।”

“अरे वही इफेक्ट चाहि,ए जीजी। काँपता हुआ... कुरज़ाँ ए म्हारा भँवर मिला दे नी।”

जीजी तगारी में रखे कोयले उकेरने लगी... चिनगारियों से दालान का माहौल रहस्यमय हो गया, गेरुआ दीवारों पर ब्रह्माण्ड बनने–मिटने लगा। कान में आवाज़ गूँजी, “ चेतन, पद्मा को देखा क्या?” काक सा छ्ड़ी टेकते हुए आए।

“सुबह से नहीं देखा, काक सा, कार्यक्रम था न लोक कला मण्डल में।”

बाऊजी और मैं दोनों ही ऐसे खाना खा रहे थे... जीजी सिगड़ी पर फुलके सेंक रही थी। “कार्यक्रम को खत्म हुए घण्टा हो गया, जगीस्वर के भी गया मैं, उसने कहा कि वो और नीलिमा, गगन कौर बहनजी के साथ थीं, कार में।”

“जा तो चेतन सायकिल पे देख आ, या मेरा स्कूटर ले जा... हाथीपोल तक जा

आ...पता नहीं सवारी की राह देखती हों लड़कियाँ।” मेरे पिता बोले।

काक सा का तो जैसे मगज ठिकाणे कहाँ था।

“गगन कौर राँड है, मुझे पसन्द नहीं वो औरत, इस बाबत पद्मा को इशारा किया था एक

दिन माट्साब मैंने, पद्मा आजकल अपने आपको इस घर की मुखिया समझने लगी है।”

“सांस्कृतिक केन्द्र के भीतर की कारगुज़ारियाँ क्या मेरे लिए नई हैं? ”

बाऊजी अवाक हो गए, उस आशंका को उन तीन बेटियों के पिता के चेहरे पर देख कर।

मैं पूरे शहर में फिर लिया, कहीं नहीं दिखीं वो दोनों।

मैं लौट कर घर नहीं गया, गली के मुहाने पे एक बन्द दुकान की सीढ़ी पर बैठा रहा, क्या उत्तर दूँ उस बूढे को जाकर? काक सा की आवाज़ मेरे कान में हथौड़े बजा रही थी कि मैंने नीलिमा को गली में मुड़ते देखा... पीछे–पीछे पद्मा। कोई कार लहराती हुई मुड़ गई।

मेरी जलती आँखों से बचा लिया खुद को पद्मा ने। अनदेखा करके।

“प्रायवेट पार्टीज़ में नाचोगी अब तुम दोनों?” मैंने नीलिमा का हाथ मोड़ दिया...

“चेतन, तुम हमारे मामलों में मत बोलो।”

“बोलूँगा, पद्मा, बचपन से आज तक मैं इस्तेमाल हुआ हूँ एक मोहरे की तरह तुम्हारी ज़रूरतों में हरदम... इतना अधिकार बनता है मेरा...”

“कोई अधिकार नहीं है चेतन, तुम कौन हो हमारे? किरायेदार हो... तुम हमारे कितना काम आओगे? घर का खर्च चला दोगे या... और हम कथक नाचती हैं, कैबरे नहीं, वो बड़ी सभ्य पार्टीज़ होती हैं, या टूरिस्ट्स लीगेट्स के लिए। बहुत सम्मान होता है, गगन दीदी...”

“भगवान के लिए इस नाम को मत लो, वैसे ही इस नाम से काक सा बहुत खफा हैं।”

“कहाँ हैं?”

“हमारे घर में बैठे हैं, तुम बहनों का इंतजार करते। उन्होंने मुझे भेजा था, वरना पद्मा, सच्ची मैं नहीं आता। आगे से काक सा से कह के रखना कि मुझे बख्शें। “

“तुम तो वैसे भी जा ही रहे हो पूना।”

पूना फिल्म इंस्टीट्यूट के कोर्स के दूसरे साल मुझे खबर मिली कि नीलिमा ने आत्महत्या कर ली। खबर ने राज्य भर को हिला कर रख दिया था, बड़ी का तालाब में उसकी लाश मिली थी। सौभाग्य के दुर्भाग्य पता नहीं, पद्मा शो के लिए रूस गई हुई थी, उलटे पाँव लौटी तब तक अखबारों में गगन कौर – नीलिमा के नाम – फोटो... मय किस्साबयानी छ्प चुके थे।

मैं बहुत आशंकित मन लिए पूना से उदयपुर लौटा, बाऊ जी रिटायर हो गए थे और किराए का घर छोड़ गोगुन्दा चले गए थे। मैं सीधे गुआड़ी पहुँचा। पद्मा दिन में भी नशे में थी।

“मुझसे कुछ मत पूछ्ना, चेतन।”

“क्या पूछूँगा पद्मा? मैं जानता हूँ समय चीज़ों की शक्ल बदल देता है। जो वो होती हैं उन्हें वैसा रहने नहीं देता। उनके अंतरंग–बहिरंग पर असर करता है। सम्बन्धों पर भी। पूछने का हक ही क्या बनता है मेरा? हम दोनों प्रेम करते रहे, विवाह तुम्हें असंभव लगा क्योंकि मैं तुमसे चार साल छोटा था, जाति की समस्या जाने दो। तुमने एक मेरे समानांतर एक विवाहित व्यक्ति से सम्बन्ध बनाए, मैं जानते हुए चुप रहा, जब मुझे इस गुंजलक से उलझन हुई तो तुमने सम्बन्ध तोड़ लिए। मनमानी करती रही, नीलिमा को कठपुतली बना कर गगन कौर को सौंप गईं...”

“चुप हो जाओ चेतन...”

“अब प्लीज़ मृदुला को विक्टिम मत बना देना।।”

“चेतन...” पद्मा ने नशे में मेरे हाथ की उठी ऊँगली बुरी तरह मरोड़ दी।

“ पद्मा... हैवलॉक एलिस या फ्रॉयड के पास भी तुम्हारी अतृप्ति और महत्वाकांक्षाओं का उत्तर नहीं होगा,” मैं कराहते हुए बोला।

पद्मा ने अपनी पुरानी कबर्ड खोल हम दोनों का ड्रिंक खुद बना लिया। जमाने भर की, कला की, कलाकारों की बातों का अन्त हो चुका था पर अकुलाहट कहीं शेष थी। उदासी किसी- किसी की आँखों में जँचती है। उदासी उसकी आँखों में झलमल जगमगाती थी। सुखी होने का नाटक कौन नहीं करता? पर दुखी होने के लिए नाटक की क्या ज़रूरत। वह तो छलक जाता है हँसी में भी। उसकी आँखों का गीलापन जिन्दा मछली की देह पर तिरता गीलापन था। कभी न कभी तो काठ का कलेजा भी फटता है न! मेरे आगे कभी-कभी वह मोमबत्ती की तरह पिघलती रही बूँद-बूँद। उस दिन भी बहुत देर बाद सिगरेट के धुएँ के गुबार से मेरे मुँह से कुछ बेचैन शब्द निकले... ”

“तुम मुझे प्रेम करती थी कि बस बचपन के रिश्ते का मोह...”

“पता नहीं, तब तो प्रेम ही समझती थी... दो किनारे नहर के जिनके बीच बहता ज़रूर था एक रिश्ता पर उस रिश्ते का नाम नहीं था, कोई पहचान नहीं थी। तुम आधार बने, तुम साथी बने, तुम प्रेरणा बने तो मन के उस नितान्त खाली गर्भगृह में स्थान कैसे न पाते?”

"तुम्हें उसकी ज़रूरत भी नहीं थी। लेकिन तुमने मुझसे भी नहीं पूछा कि मुझे इस पारदर्शी रिश्ते को कोई रंग देने का मन करता है क्या? जिस दिन दुनिया के बीचो-बीच तुम मुझसे अनजान बन कर कतरा जाती थे, उसी शाम हम साथ अदरक की चाय पीते, रात को सिगरेट और बकार्डी के साथ नूडल्स खाते। फिर दो मर्द दोस्तों की तरह इधर-उधर मुँह करके सो जाते। उस जमाने में लिविंग-इन रिलेशन दुर्लभ था, लेकिन हम साथ रहते थे स्वच्छन्द हो कर। शायद वह लिविंग-इन रिलेशन ही था, बिना किसी जिम्मेदारी, बिना किसी बन्धन के जहाँ देह के होने न होने का अर्थ नहीं था।"

शालभंजिका भाग 2 समाप्त। भाग 3 के लिए आगे बढ़ें