शालभंजिका / भाग 2 / पृष्ठ 2 / मनीषा कुलश्रेष्ठ
क्यों गया था मैं, पुराने फ्रेम पर चिड़िया की तरह चोंच मारने?
उन दिनों वाली, मेरे भीतर की वह विकल चिड़िया... मैं देख पा रहा था, पद्मा, उन दिनों तुम्हारे ऐश्वर्यशाली गुआड़ी की दीवारों में पड़ती दरारें। दिन-रात महकने वाली रसोई के जाले, साटन के परदों के उड़ते रंग। मैं हर शाम अपनी छत पर चढ़ा हुआ देखा करता दिनों का बदलना, गँठिया से बेहाल काक, तुम्हारा और नीलिमा का आए दिन के बाहर के शो। रात को मैं चुपचाप देखता, सुनता मोहल्ले की सरग़ोशी... डरता था। दीप्तिहीन हो गई थी नीलू, तुम जब साथ हाथ पकड़े निकलती थीं शो के लिए दबे पाँव, मोहल्ले के नीम और पीपल की छाया में रोशनी से खुद को और उसे बचा कर। मैं तुरंत अपना लैम्प बुझा देता। मगर कोई था जो समूचे क्षितिज पर बिखेर देता था सितारों का घना झुंड, मैं जान जाता था क्योंकि तुम लौटती थीं अकसर मेरी नींद से उचाट आधी रात बीतने के बाद में और बगल वाले घर में एक उनींदी सुबह चहलकदमी से भर जाती। तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ सब को उबारने की जगह डुबो रही थीं, वह दलदल था... और तुम धँस रही थीं।
“तुम्हारे काक को गाने नहीं बुलाता कोई, मेरा और नीलिमा का भविष्य इन्हीं शोज़ में है बाबू। मैं नहीं जाऊँगी तो... देखो अभी रूसी फेस्टिवल का बुलावा आया है, कल फ्रांस से आएगा। सांस्कृतिक केन्द्र की गगन कौर ने ही सिफारिश की थी, जिससे तुम और बाऊ जी चिढ़ते हो, बताओ बिना जानपहचान यहाँ कौन पूछता है? मुझे अपने नीचे ज़मीन तो बनानी है न, वरना छोटे शहर के आर्टिस्ट की क्या बिसात?”
“छोड़ो कैरियर, हम शादी कर लें।”
“खिलाओगे क्या?”
“मुम्बई जाएँगे, वहाँ फिल्मों में लिखूँगा।”
“सोच लो चार साल छोटे हो... ”
“मर्द औरत से छोटा तब भी नहीं होता जब वह बच्चा होता है।”
“जा-जा बड़ा आया... बाबू”
“कितना कहा अब मत कहा कर बाबू, जीजी भी अब चेतन कहती है।”
“चल हट मैं तो बाबू ही कहूँगी, नंगा घूमता था तू... मेरे आगे।”
“तुझे सजा मिलेगी इस जा–जा की... यहीं अभी...” और मैं उसका गला दबा देता... वह दबा लेने देती, कुछ देर बाद मैं छोड़ देता फिर देर तक गला चूमता। उस पर बने अपनी ही उँगुलियों के निशान।
मैं जानता था, उसे इस पल मेरे प्रेम की कहीं दरकार नहीं थी, उसे नहीं चाहिए थी अतीत की क़ैफियत… न भविष्य का कोई साझा स्वप्न। उसकी पटरियाँ मुझे बदलती दिख रही थीं चलती हुई रेल में से जैसे दिखती हैं। उसे जब मैं समझाता तो वह भीतर तक उदास और नाराज़ हो जाती। घण्टों चुप रहती या तल्ख़-ज़बान हो सब पर चीखा करती। साथ बिताई बरसों–बरस की जिन्दगी यूँ ही तो व्यर्थ नहीं की थी। अलग–अलग तरह के व्यक्तित्व के बावजूद वे बहुत अधिक एक से थे। कम से कम मैं तो यही समझता रहा अंत तक।
मैं दस लोगों की मार्फत टुकड़ा-टुकड़ा मिला, एक पता हाथ में उलटता–पुलटता शहर के अपेक्षाकृत ऊँचे हिस्से में चला आया - ‘भैरव विलास’। यह एक सुन्दर, राजपूताना शैली में बनी विला थी, जिसकी बॉलकनियाँ झील के पानी से बतियाती थीं। बल्कि कोई पुरानी हैरिटेज इमारत थी, दीवारें गेरुए रँग से पुती थीं, प्रवेशद्वार पर बड़ा लकड़ी का गेट, दोनों तरफ ताखों में भैरव की काली मूर्तियाँ डटी थीं, द्वारपाल बन। उन पर पुता सिन्दूर और कौड़ियाली आँखें… बहुत रहस्यमय लग रही थीं। मैंने दरबान को अपना नाम बताया, भैरवद्वय को नहीं, असली दरबान को। थोड़ी देर बाद मैं स्विमिंग पूल के किनारे खड़ा था। मौजैक का बना टैरेस बहुत खूबसूरत था, बड़े-बड़े पेड़ टैरेस पर छाए थे। पहली मंजिल पर स्विमिंग पूल।
वाह! दरबान ने टेबल सजा दी, शराब, बर्फ, स्नैक्स, जूस ला दिया, मैं बैठ गया, पूल में कोई तैर रहा था, शाम ढलने के बाद का अजब संक्रमण काल था, एक लम्बी पुरुष आकृति बाथरोब लपेटती पूल से बाहर आई।
काले-सफेद बाल, सतर देह, तीखी मूँछ, विलासी होंठ और मारक साँवला रंग... नो डाउट, इस कमाल के आकर्षक आदमी की दूसरी पत्नी बनने में मृदुला न झिझकी हो।
“मैं, अनिल बख्शी।”
उसने हाथ बढ़ा दिया, “चेतन भाटी।”
“माफ करें, इंतजार करना पड़ा आपको। मुझे दोनों वक्त मिलने के इन पलों में तैरना बहुत पसन्द है। बहुत तिलिस्म होता है इस समय में, गुलाबी से साँवला होता आकाश जो कि पूरे दृश्य पर पारदर्शी उलटे ढक्कन-सा औंधा पड़ा होता है। अबाबीलों की जगह छोटी चमगादड़ें (फ्रूट बैट्स) ले लेती हैं और आपके बिलकुल ऊपर उड़ती हैं। नीला पानी भी सलेटी होने लगता है, धीरे-धीरे पानी के भीतर कुछ नहीं दिखता। फ़्लड लाइट के चारों तरफ देखो तो भीगी – पानी भरी आँखों से हज़ारों प्रकाश पुंज नाचते दिखते हैं। अलौकिक, एकदम अलौकिक! एक जादू का वक्त होता है यह। बहुत रहस्यमय। एक–एक कर तारे उगने लगते हैं, आकाश की नीली गुफा की कैद से छूटे जुगनुओं-सा। तारों के उगने की सुगबुगाहट, रात किसी नाज़ुकमिजाज़ स्त्री के काले गाउन की सरसराहट की तरह आहिस्ता से आसमान के फलक पर फैल जाती है, रोशन पंखों वाली तितलियाँ कन्धे पर बिठाए चाँद नाटकीय ढंग से अचानक आकर रात की कमर में हाथ डाल देता है और फिर शुरू होता है ‘वाल्ट्ज़’।”
“अरे वाह, आप तो कवि हैं।”
“कोई कवि नहीं हैं, जो हैं वह यह समय बना देता है।” कह कर उसने वेटर को इशारा किया, “जा, भाभी सा ने भेज… तो आप फिल्म बनाते हैं?”
“जी, स्क्रिप्ट राइटिंग की है, बहुत फिल्मों की, फिर तीन फिल्में बनाईं भी… ”
“आपका परिवार नहीं आया? उदयपुर देखने लायक जगह है।”
“आय एम डिवोर्सी।”
“ओह… मेट्रो कल्चर।”
“उसे दोष क्यों दें, मैं कलाकार हूँ, शायद कलाकार शादी के लिए नहीं बने होते। वैसे भी उदयपुर नया नहीं है मेरे लिए, गोगुन्दा अपना ठिकाना है।”
“यहाँ आप रहे हैं? यह मृदुला ने नहीं बताया।” वह बुरी तरह से चौंका - यह जानकारी नितांत नई थी उसके लिए।
“दरअसल, बहुत पहले चला गया था मुम्बई, कॉलेज खत्म करके ही।” वह हँसा… अजीब-सी हँसी। मेरे साथ-साथ, उन तीनों बहनों के अतीत की राख को उड़ाती-सी।
“भाभी सा ने आपको और मेहमान को कमरे में बुलवा भेजा है।”
“आप चलिए, मैं आपको डिनर पर मिलता हूँ, कुछ फॉरेनर गेस्ट एक्स्पेक्टेड हैं।” वह अदब से झुका, और घमण्ड से मुड़ा और चला गया। करेक्टर है ये तो पूरा, आएगा बच्चू तो इसमें नहीं तो अगली फिल्म में आएगा, राजस्थान की हवेलियों के भू माफिया के हेड की तरह, अदब और ठसकदार विलेन की तरह। मैंने तय कर लिया।
गलियारे... कमरे.. गलियारे.. फव्वारे, गलियारों की दीवारों पर पुरानी श्वेत श्याम तस्वीरें लगी थीं। दावतों की, शिकार की, शादियों की, परिवार की सामूहिक। रंगीन काँच के झरोखे, झूमर। मृदुला के कमरे पर वेटर ने बहुत हल्का-सा खटखटाया, “भाभी सा।”
वही सुन्दर, सफेद सादा मगर ज़हीन चेहरा मेरे सामने था। “भाई सा!” एक सच्ची खुशी, सच्चा उत्साह उसके चेहरे पर था। मैंने उसे कन्धों से थाम लिया। “मृदुला तुम... मेरे मीठे अतीत की इकलौती ज़िन्दा चीज।”
मेरी बात सुनते ही हंसिनी ने उड़ान को फैलते पर समेट लिए, वह कुण्ठित हो गई।
उसकी आँखों ने सहम कर कहा , “श्शश... ”
“चेतन भाई सा, अन्दर आइए ना!” उसका सहमापन, सिमटा हुआ अस्तित्व पढ़ रहा था।
“खुश हो न... ”
“देख तो रहे हैं ना, मुझे ऐश्वर्य की कमी है कोई?”
“मैं सुख की बात करूँ तो... ”
उसके चेहरे पर पसीना आ गया ठंड में भी।
“अच्छा जाने दो, मैं फिल्म बना रहा हूँ, क्या सहायता करोगी?
“शायद नहीं, पद्मा जीजी का नाम यहाँ निषेध है।”
“तुम्हें कैसे पता कि... ”
“मैं नहीं जानूँगी क्या ... कि बरसों बाद क्या आपको लौटा कर लाया है, अतीत जो अब अतीत नहीं किस्सा-कहानी रह गया, एक नॉस्टेल्जिया।”
“पद्मा आखिरी दिनों जहाँ रही, वो घर किसके नाम है?” “वो कोने वाला हिस्सा अब भी है, बाकि पापा के चचेरे भाइयों के पास है। नाम-वाम क्या है? बस चाभी मेरे पास है।”
वह शर्मिंन्दा लगी।
“क्या मैं वहाँ ठहर सकता हूँ?”
“वहाँ क्यों? यहाँ ठहरो न, हवेली का आधा हिस्सा होटल है।”
“पागल हो, तुम्हारी ससुराल है... तुम्हारा पति, उसका दूसरा परिवार... ”
“मैं इनको मना लूँगी। आप यहीं रहो। बस पद्मा का नाम मत लीजिएगा कहीं भी।”
“फिर बेकार है यह ज़िद, मेरी तो फिल्म का टाइटल ही है - शालभंजिका।”
“अरे! जीजी का वो फोटो मेरे पास भी था बहुत दिन तक। गुलाबी कनेर की डाल वाला।”
पद्मा से अपनी स्कूल की चोटियाँ बनवाती, टिफिन बनवाती मृदुला के चेहरे के भाव देख कर मुझे लगा कि उसके जीवन में अतीत से आती सारी गलियाँ निषेध हैं। बन्द किताब की तरह था उसका चेहरा, जिसके टाइटल से भीतर का कुछ पता नहीं चलता था… क्याप-सा।
“मैं वहीं ठहरूँ तो तुम्हें एतराज़ तो नहीं?”
“नहीं, मैं वहाँ ठीक-ठाक तो करवा दूँ। जीजी गई तब से बस एक बार खोला, सब वैसा का वैसा ही पड़ा है।”
“मृदुला, उसे वैसा ही रहने देना प्लीज़, कुछ मत बदलवाना।”
“साफ-सफाई की तो दरकार है, बहुत जाले हैं वहाँ।”
“बस सफाई।”
“ठीक है।”
“खुद जाना, देखना कोई चीज हिले भी ना… मुझे वहाँ रहना ही नहीं शूट करना है।”
“क्यों गड़े मुरदे उखाड़ते हो भाई सा,” मृदुला सिसकने लगी।
“अरे! पगली, जिसे प्रेम किया, क्या उसे बुरी छवि में पेश करूँगा? तू देखना तो… एक मास्टरपीस बनेगा, अमर हो जाएगी ‘शालभंजिका’।”
“… ”
“अभी सफाई की जल्दी नहीं है, फिलहाल कल मैं कुंभलगढ़ जाऊँगा, वहाँ जाकर जम कर स्क्रिप्ट पर काम करूँगा, जब तुम बता दोगी कि साफ हो गया तो मैं लौट आऊँगा। जब सारा काम हो जाएगा, फिल्म क्रू के लिए वहीं लॉजिंग बुक करके, जीजी के पास गोगुन्दा जाऊँगा, उन्हें उदयपुर ले आऊँगा। शूटिंग से पहले।