शालभंजिका / भाग 2 / पृष्ठ 1 / मनीषा कुलश्रेष्ठ

Gadya Kosh से
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मुझे अब तक नहीं पता कि इस शहर की स्मृतियाँ जाल फैला मुझे फँसा लाई हैं कि कहीं कोई मक़सद है। महज एक पल का तात्कालिक निर्णय मुझे यहाँ ले आया, किसी नींद से जगा तो मैं इस शहर में था। आज सुबह ही तो मैं इस शहर के एयरपोर्ट पर उतरा था, अकेला और बिना किसी उद्देश्य के। शहर का पुरानापन अब भी झाँक रहा था, विकास के सुन्दर पैबन्दों से, बल्कि मुझे इशारों में बुला रहा था। अभी मैं जहाँ खड़ा हूँ वह शहर का पुराना घण्टाघर है। कभी यह शहर का दिल हुआ करता था, इसी से शहर के बाहर जाती गलियाँ, भीतर आती गलियाँ धमनियों और शिराओं की तरह फैली रहती थीं। है यह शहर का दिल तो अब भी, मगर अब बूढ़ा दिल है। अवरुद्ध-सा, पेसमेकर लगा। गहरी उसाँसें भरता हुए पुराने शहर का दिल। मंदिरों, कूड़े के पहाड़ों, चौक और गलियों के बासीपन को कुछ कम करती चटकदार धूप ऊपर चढ़ आई है, बेतरतीब बने घरों की छतों, दीवारों के ऊपर तक और चमकती रही पिछोला झील के हरे–नीले पानी में, रुपहले–सुनहरे रंगों में। उजाला उन गलियों में खेलता है सितौलिया, सूरज की गेंद से... गलियाँ किलकती हैं।

एक आरती की स्वरलहरी के साथ, जगदीश मंदिर के पीछे पिछोला से हवा में घुल कर आई एक जानी हुई महक ने मुझे शुरुआती वसंत की एक पुरानी शाम की याद दिला दी।

जगदीश मंदिर के प्रांगण में जन्माष्टमी का पर्व... जनार्दन काक-सा की मन्द्र-गंभीर, मांसल आवाज़, परिच्छन्न कंठ। केवल हारमोनियम और करताल। जोगिया मालव राग की वह बंदिश आज भी इस मेरे मन के जनशून्य अहाते में गूँज रही है,

“पद्म धर्यो जन ताप निवारण, चक्र सुदर्शन धर्यो कमल कर भक्तन की रक्षा के कारण।”

जगदीश मंदिर से उसके साथ खिलखिला कर उतरती उस लड़की की याद। क्या वह अब इस शहर में वापस लौट आई होगी?

शहर बदल चुका था। जब रहते–रहते ही शहर और शहरवासी बदल जाते हैं, मुझे तो सोलह वर्ष हो गए हैं। पता नहीं इतने लम्बे समय बाद मुझे यहाँ आना चाहिए था कि नहीं, जगह-जगह वह रुक कर पूछता रहा एक पुराना घर। “गली के आखिर में सरकारी स्कूल था, पिछोला झील के पक्के किनारे से लगा।” (जिसकी स्फटिक-सी सफेद सीढ़ियाँ उतरती थीं झील में, चौड़ा पक्का किनारा आधी छुट्टी में अचारों–पराठों की महक और मीठे शोर से भर जाता था। उसी गली में, तीसरे नम्बर का मकान हमारा था। हमारे घर के पीछे अनार के पेड़ थे, और एक कुण्ड था। कुण्ड के उधर एक हवेली थी, वहाँ... तीन लड़कियाँ रहती थीं।)

बहुतों से पूछा, सबने यही कहा, “बहुत दिनों बाद आए हो शायद। स्कूल तो कब का बन्द हो गया। दस साल से वहाँ गाएँ बाँधते हैं लोग, दीवारें गिरती रहती हैं स्कूल की झील में छपा-छप, संगमरमर का चौंतरा लोग उखाड़ के पत्थर ले गए, अब कच्चा और ऊबड़-खाबड़ है।”

एक बूढ़े ने पूछा - वो सब तो ठीक है। तुम्हारे पिताजी का नाम?

“रोशन लाल जी भाटी। उस स्कूल के हेडमास्टर थे।”

बूढे का चेहरा रोष से भर आया, “ओह! तो तू है रोशन दादा का सपूत, फिल्म बनाता है न तू। क्यों रे दाग देने नहीं आया अब क्या लेणे आया? जैदाद!”

“क्या बात करते हैं, काक सा... आया था बाद में तो, शूटिंग बन्द करके, विदेश से आणे में जो समय लगा, बस वही लगा। तेरवीं पर तो यहीं था।”

मैंने गौर किया कि मेरा लहजा अचानक बदल गया, बहुत पहले छूट गए लहजे ने उछल कर ज़बान पर सवारी कर ली।

“काक सा सलुम्बर वाले संगीत रत्न जनार्दन प्रसाद मिश्र जी का ठिकाणा था न, गुलाब हवेली जिसके पिछ्ले हिस्से में हम किराए रहते थे।”

बूढा पिघला, “अपनी हवेली तो जीते जी जनार्दन बाव जी ही मंदिर के ट्रस्ट को गिरवी कर गए थे, मंदिर वालों के चलते तो वो रहते रहे। फिर अनिल बख्शी ने अपने नाम करा लिया।”

“कौन अनिल बख्शी? लेकिन वो घर है कहाँ?”

“है एक। पहले वकील था, अब भू माफिया है, हवेलियों को होटल बनाता जा रहा है, कुछ खरीद कर, कुछ फर्जीवाड़े में। अभी आधे में हवेली के फर्जी हकदार, जनार्दन के रिश्तेदार कब्जा करे हुए हैं, ताला है आधे में, जो अनिल बख्शी का है।”

“और पद्मा और मृदुला... कहाँ गए फिर?”

“उन पतिताओं की सबकी गति स्वयं ही हो गई।”

कह कर वह बूढ़ा आगे बढ़ गया।

“सुनो तो काक, गली कौन-सी थी हमारी, समझ नहीं पड़ रही।”

“वो मसीन है न, बैंक की उधर ही।”

गली के मुहाने पर आकर वह ठिठक गया, गुलाबी लहरिया आँचल लहराता दिखा और ओझल हो गया। छत पर आती–जाती माँ का, जो सूखे पापड़ या बड़ियाँ उठाने जाती थी। पिछली गली का अन्दाज़ लगाया जहाँ जनार्दन काक की गुआड़ी थी, छत से छत मिली थी उनकी, उनका आँगन जहाँ कोने में लगे नींबू के सहस्र छोटे गोल पत्तों में छड़ी गौरेय्या शोर मचाती थी और उसके नीचे बर्तन धोती नीलिमा मुझे देख मुस्कुराती थी। काक के गान के साथ तानपूरा बजाती पद्मा पलक उठाती और एक वैराग्यभरा निर्वात अंतरिक्ष तक फैल जाता। वह संगीत के सम्मोहन में डूबे उस निर्वात की प्रतीक्षा करता।

“ध्रुपद की शुद्धता वैराग्य जगाती है, बाऊजी यह अब मैं नहीं सीखूँगी।” कहती हुई पद्मा मुस्कुराती और तानपूरा रख मुझसे पूछती, “हरे चने का पुलाव खाओगे?”

मैं उचक-उचक के दो-दो सीढ़ियाँ चढ़ता और कूद कर दूसरे घर के आँगन में आगल लगा दरवाजा खोल कर अन्दर।

सोचता हुआ मैं गुआड़ी तक चला आया, गुआड़ी छोटे–छोटे टुकड़ों में बँट गई थी, बेतरतीब कंस्ट्रक्शन। एक कमरा इधर, एक बाथरूम, एक दो कमरों का सेट, सब जगह किराएदार। बीच का अहाता जो एक सड़क जितना चौड़ा था, गलियारे में बदल गया था, जहाँ एक पुरानी कार, सात–आठ दुपहिया वाहन अँटे थे। घरों के बाहर बासी मौन पसरा था, कुछ स्कूल से थक कर लौटे बच्चे चुपचाप खेल रहे थे। रसोइयों से शाम के खाने का धुआँ उठ रहा था।

किससे पूछता कि कभी जो यहाँ रहते थे कहाँ चले गए। तभी एक चेहरा ठिठका एक घर की बॉलकनी में, एक माँसल, दोहरे बदन की स्त्री तेजी से सीढ़ियाँ उतरती नीचे आ गई।

“आप… दा!”

“… ”

“अरे… मैं चित्रा।”

“मृदुला की चचेरी बहन, आपकी गली के स्कूल में जाती थी पढ़ने, भूल गए आपकी कितनी तो चिट्ठियाँ पहुँचाई हैं।”

“अ... ओह... चितली... ! पहचाना ही नहीं मैं।”

“आइए न ऊपर... ”

“बाद में... ”

“कहाँ चले गए सब?”

“जाने दीजिए दादा, काक के साथ ही किस्सा हो गए वो दिन। अब कोई नामलेवा नहीं काक का, पहले थूकते तो थे, अब तो याद ही नहीं किसी को, राजगायक जनार्दन प्रसाद मिश्र की। वो विषय न छुएँ तो अच्छा, मेरा-आपका दोनों का मन दुखेगा।” उसने गलियारे में अपनी बमुश्किल निगाहें अटाईं।

जहाँ लाल कनेर उगता था वहाँ राख थी उपलों की। लाल कनेर जिस पर हवा अपना रथ बाँध जाती और पूरी गली में फरफराती घूमती। जिन्होंने चाव से लाल कनेर लगाया था वे लोग चले गए, अजनबी आ बसे, आँगन पर बन गई मंज़िल-दर-मंज़िल, हवा ने पलट लिया अपना रथ, गौरेयाँ रूठ कर चली गईं। रास्ते नाराज़ हो गए।

“फिल्म बनाने आए थे? आपकी दोनों फिल्में मैंने देखीं, नीला चाँद और सीमांत? फिर नहीं बनाई?”

“नहीं।”

“कहाँ ठहरे? चलो न ऊपर, चाय तो पी जाओ।”

“बाहर ठहरा हूँ, एक होटल में। बाद में... बाद में। अभी चलूँ बाद में मिलूँगा, अभी महीना भर यहीं हूँ। स्क्रिप्ट पर काम करना है। तुम साथ काम करोगी?”

“मोटी हो गई हूँ। हीरोइन कैसे बनाओगे?” दोनों खिलखिला पड़े, एक पल को मन से कोई गर्दो–गुबार झड़ गया।

“फुरसत से आएँगे तो खोलेंगे पोटली। आप तो जानते ही हो मेरा पहला घर तो वही था, वहीं से टिफिन, वहीं होमवर्क.. अपने घर में तो तीसरी ‘छोरी’... बेज़रूरत की बोझ। बड़े पापा के यहाँ, तीन लक्ष्मियाँ वैसे ही चौथी। बढ़िया खान–पान, पढ़ाई, संगीत का माहौल... “ चित्रा में गुम चितली मुस्काई।

अतीत की चितली, “खोलो न दादा चिट्ठी, मेरे सामने खोलो, दीदी पूछेगी, पढ़ कर आपने कैसे मुस्काया था।”

“चल भाग पगली।”

“आपकी सौगन दादा… पद्मा जीजी ऐसैइच पूछती है।”

“मेरी सौगन खाती आई है तो बता, कहाँ है, वो सब?” एकाएक मैं यह क्या बोल पड़ा!

“सौगन कब खाई मैंने ? क्या जानना चाहते चेतन भाई-सा? अच्छा, जानना ही चाहते तो क्या फायदा। दूसरों के मुँह से अफवाहें सुनो और दुखी हो जाओ मेरी तरह, सुनो, लगभग पूरा सच, थोड़े में ज्यादा सुनो, जो मैं जानती हूँ। नीलिमा की मौत का तो पता है न आपको, (मैंने सर हिलाया) नीलिमा के साथ ही काक-सा ऐश्वर्य चला गया, पद्मा घर पर ही कथक सिखाने लगी थी, मृदुला अच्छा पढ़ रही थी, हॉस्टल में रह कर लॉ किया उसने। अनिल बख्शी के साथ काम कर रही थी तब। एक दिन उसी से भाग कर शादी कर ली, दूसरी शादी। उसके बाद पद्मा को शराब की लत क्या लगी कि वह आए दिन बड़े पापा से झगड़ती, शराब इतना पीने लगी कि उसका डांस स्कूल भी बन्द हो गया, उसके गम में बड़े पापा मर गए। तेरहवीं होते ही वह फिर शो वगैरह करने लगी जगह-जगह, हवेली में अकसर ताला लटका रहता, एक रूसी आदमी के साथ लोग उसे अकसर देखते थे, घूमते हुए, फिर एक दिन पद्मा ताला लगा कर जो गई फिर आई नहीं, शायद उसी रूसी संगीतकार के साथ चली गई। यहाँ बस अब मृदुला बची है, मैं उससे चार साल पहले मिली थी। वह ऑटो में चुपचाप आई थी, अपना हिस्सा देख कर चली गई, मेरी बातों का हाँ–नहीं में उत्तर देकर। मुझे उसका सही–सही पता नहीं मालूम... उसे देखा ही नहीं कभी। ये कहते हैं, एडवोकेट बख्शी अब एक हैरिटेज रिसॉर्ट चलाता है। हम सबका हिस्सा खरीद कर यहाँ भी... हम नहीं खाली करेंगे चेतन भाई-सा, मृदुला से मिलो तो बता देना उसे।”

इतिहास सिर्फ जन्म से मौत तक की तारीख बताता है, इसके बीच जिन्दगी को ही तलाशना मुश्किल है कि दरअसल जीने के सघन पलों में ठीक–ठीक हुआ क्या था? नए साल की पूर्व संध्या थी, हम दोनों मोटरसाइकिल पर सज्जनगढ़ गए थे, शाम के चार बजे थे, बड़ी छायाओं के पड़ने के दिन थे, धूप चित्रलिखित–सी इस झीलों के शहर पर पड़ रही थी। पूरा दृश्य इतना सुन्दर और अविश्वसनीय तौर पर खूबसूरत लग रहा था, जैसे कि मॉर्फ (कंप्यूटर के फोटोशॉप की सहायता से, फोटो को बदल देना) किया गया हो, धूप को जगह–जगह एक-सा कट–पेस्ट कर दिया हो ऐसा लग रहा था। वे दोनों उपर जाकर एक झरोखे में बैठे ही थे कि शाम ढल गई। वह अपने होंठ मेरे करीब ले आई कि सूरज गड़प से झील में डूब गया... हम दोनों ‘सिलुएट’ बन गए। वाइड एंगल जंगल से घिरा किला, परकोटे, विशाल द्वार, गुम्बद, झरोखा। क्लोज़ अप सिलुएट का... एक मेहराबदार गुम्बद के नीचे, एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे को बेतहाशा चूमते हुए।

“इन खण्डहरों को देखकर बाबू, मुझे कभी रानी होने का चाव न हुआ, मुझे सिटी पैलेस का दरबार हॉल देख कर वहाँ हमेशा नाचने का मन हुआ। पता है क्यों?”

“क्यों?”

“रानी होकर, छोटे गवाक्षों में, गोखड़ों के पीछे घूँघट मार कर अदृश्य होने के लिए मेरा अस्तित्व तब भी तैयार न होता। मैं आज वह सब जीना चाहती हूँ जो बाकी की दुनिया आनेवाले वक्त में जिएगी। खुश होना बहुत आसान है, मैं पुरज़ोर तरीके से जीना चाहती हूँ। उदास और अकेले हो जाना चाहती हूँ प्रेम में। यही वो दरवाज़े हैं जो अंतहीन आनन्द के द्वार पर लगे हैं, इन्हें खोलना चाहती हूँ।” वह उस शाम बस प्रेम पर बात करती रही। प्रेम ही नहीं, अभिसार पर भी। गीतगोविन्दम् – शाकुंतलम्।

रतिसुखसारे गतमभिसारे मदनमनोहरवेशम् न कुरु नितम्बिनि गमनविलम्बनमनुसर तं हृदयेशम् धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली।।

उस किले का ‘सिलुएट’ (छाया–चित्र) मेरे मन में सदा रहेगा, एक गुम्बद के नीचे, एक-दूसरे को चूमता एक प्रेमी जोड़ा। उस शाम पहली बार हम दोनों ने बकार्डी पी... पहला चुम्बन लिया, “पद्मा, जो करेंगे अब साथ करेंगे। साथ रहेंगे।”

“बाबू, मुझे शादी नहीं करनी, क्योंकि वह होनी नहीं है, उम्र, जाति सबमें मैं तुमसे बहुत बड़ी हूँ। यह तय है कि हम दोनों साथ रहेंगे, हमेशा, ऐसे ही। जो करेंगे साथ, कहीं भी जाएँगे तो साथ।”

मैंने उस रात पद्मा को नहीं जीवन में हासिल हुई उस पहली औरत की तरह अपनी तरफ खींचा था, उसकी छातियाँ छोटी और सख्त थीं, वे उन परिन्दों के बच्चों के पेट की तरह मुलायम और गुनगुनी भी थीं जो घोंसलों से गिर जाया करते हैं। उसकी पलकें काली तितलियों की तरह सारी रात हैरानी से झपकती रहीं।

“मुझे प्रेम करो, बाबू... मुझे भोगो।”