शालभंजिका / भाग 1 / पृष्ठ 4 / मनीषा कुलश्रेष्ठ
कोई भी लड़की अपने सपने उन हाथों में नहीं सौंप सकती जो उन्हें तोड़ दे। कोई भी नहीं। मगर मैंने ऐसा किया। मैं उससे तब मिली जब मैं जीवन के मायने ढूँढ़ रही थी। मैं जीना चाहती थी,नाचना चाहती थी। लोगों को अपने इर्द-गिर्द इकट्ठा करना चाहती थी। ऐसे में कोई अजनबी आदमी आपको मिलता है,थिएटर की सीढ़ियों पर,अगले दिन फोन पर बातें करता है,न कोई सलाह देता है,न कोई खास बात करता,मगर आप पर लगातार ध्यान देता है चुपचाप। खयाल रखता है तो आप उससे आकर्षित हुए बिना कैसे रह सकते हो? एक महीने में ही उसके साथ हमबिस्तर हो जाना! यह कुछ ज़्यादती नहीं है अपने साथ? प्रतिभा से प्रभावित होना,उसकी कला को भीतर तक महसूस करना बेकार की दलील है। यूँ भी जेनरेशन गैप... वह उन्नीसवीं सदी का शख्स। सच पूछो तो,पिछले दो महीनों में मैं बहुत ही कम जान पाई थी उसके बारे में। मैं चाहती तो अदांज लगा सकती थी। उसका सामान,उसका परिचय,उसके जीने का ढंग,छोटे-छोटे तौर-तरीके बता सकते थे कि उसके अन्दर एक जिप्सी जीन था।
एक महीने बाद मुंबई से उसका फोन आया,वह आ रहा था। मैं इक्कीसवीं सदी की लड़की फिर उस दुःस्वप्न की तरफ बढ़ी। न केवल बढ़ी,मैंने एक दुःस्वप्न जिया... जब उसने घनी बरसात में देह में एक भूख लिए मुझे बुलाया। वह इस बार एक मित्र के स्पाइस गार्डन में स्थित एक रिसोर्ट में ठहरा था।
"साड़ी पहन कर आना।"
"मैं पद्मा नहीं हूँ।"
"तुम्हारी मर्ज़ी।"
मैं भरी बरसात में शाम पाँच बजे तो पहुँची,दो घण्टे हम पणजी में भटकते रहे,फिर शहर के बाहर आ गए। उसने मुझे सड़क पर छोड़ दिया,यह कह कर कि मैं यहीं झुटपुटे में खड़ी रहूँ,वह सामने गेट खोलने के लिए बूढ़े चौकीदार को बुलाने जा रहा है। मैं हाईवे पर खड़ी हुई जो जी रही थी उस पल वह याद आने पर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं लगातार भीग रही थी,सड़क के इस पार,हर चार कार में से पाँचवीं मेरे आगे धीमी हुई थी... ट्रक तो लगभग सारे... मेरे भीतर एक पल को हाईवे की सेक्स वर्कर जन्मी और सिहर कर मर गई... उसकी लाश बमुश्किल मैंने कुछ ही देर कन्धे पर ढोई,फिर जब देखा वह इशारा कर रहा है उस पार आने का तो बेरहमी से वह लाश वहीं फेंक दी,मेरे कन्धे झुके हुए थे।
मैं उसके कमरे में पहुँची तो एक ऐसी पस्त,भीगी अभिसारिका थी जिसकी सारी सज्जा धुल चुकी हो,साड़ी में कीच लिथड़ा था। मेरे मन में से सारा अवसाद जाता रहा जब उसे खुद को सौंप दिया। उसके कसावों में आश्वासन था,चुम्बन कोमल थे। मैं आत्मरति की डोरियों से बने पुल पर खड़ी थी,मेरा जिस्म डोल रहा था। पता नहीं किस पल,मैंने यह मान लिया था कि देह के आदान-प्रदान में प्रेम की कहीं दरकार नहीं। कोई अतीत की कैफियत नहीं। भविष्य के सपने नहीं। बस केवल उसकी भीतरी मादकता को मापती-भोगती,देह की आग को फूँकती वर्तमान की दो आँखें। क्यों नहीं सोच पा रही थी मैं कि ये ताज़ी,खुशरंग फन्तासियाँ कुछ ही पलों में फूट कर बदंरंग हो जाने वाली हैं। मुझे उस पल तो तो यही महसूस हुआ था कि हम एक-दूसरे को जानते हैं। उस पल कम से कम हमें एक-दूसरे के इतिहास में भी दिलचस्पी नहीं रही। मैं कुछ और महसूस कर पाती उससे पहले ही उसने मुझे पलटा लिया,"तुम सँभालो... वुमन शुड बी ऑन टॉप।"
वह मुस्कुरा रहा था,माथे पर,बालों में बूँदें थीं। उस पल हमारे अपने-अपने अस्तित्वों के फैलाव के बीच इतनी सँकरी जगह बची थी कि जहाँ से न सच गुजर सकता था न झूठ।
"चलो,घर छोड़ दें तुम्हें।" उसका यह वाक्य मुझे हमेशा बेहूदा लगता है,इसे किसी और तरीके से बोला जा सकता है।
"हाँ,शुरू हुआ खेल,खत्म हुआ।"
"पागल हो। मेरा एक पेंटर दोस्त कहता है "पता है प्यूरिटन लोग कौन होते हैं?" वह कड़वी हँसी हँसा। "... "
"ये वो लोग होते हैं जो यह बरदाश्त नहीं कर पाते कि कोई कहीं 'अच्छा' वक्त बिता रहा होगा।"
रास्ते भर वह दर्शन पर बोला,फिर कला पर,प्रेम की निस्पृहता पर। फिर देर के लिए चुप हो गया। उसकी चुप्पी,निस्पृहता,कला और दर्शन के रेशम धागों को लपेटते हुए वह सब कुछ उलझा बैठी। भरी बरसात में उसी सपाट भाव से एक सुनसान बस स्टॉप पर ले आया। हम ओल्ड गोआ जाने वाली बस का इंतजार करने लगे।
"तुम घर तक छोड़ोगे न!"
"हाँ... " वह गुनगुनाने लगा।
"बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह।"
मुझे लगातार लगता रहा कि उसका जहन एक पुराना बंद पड़ा सिनेमा हॉल है,जिसके पुराने कालीनों पर धूल जमी है,दीवारों पर लंबे जाले और जिसके पर्दे पर एक दृश्य सदा के लिए अटका रह गया है। 60-70 के दशक की किसी भावुक फिल्म का।
मैं सोचती ही रह गई कि क्या यह वही आदमी है? जो उन पलों में था! या उन पलों को लाने की भूमिका में अब तक था। मैंने देखा,गौर से कि फीकी-सी आंतरिक उदासी के कारण उसकी आँखें प्रेम से पहले और प्रेम के बाद अवसाद में डूबी थीं,भारी पलकों पर एक अपरिचय तो खैर अंतरंगता के पलों में भी बना रहा था। मुझे अनमना देख अचानक बोला - "प्यार-व्यार की आज के ज़माने से किसी से उम्मीद मत किया करो,इसका अंत दुख से भरा होता है।"
मैं बुरी तरह हताश हो गई थी और चीख पड़ी।
"तुम्हारा मेरी तरफ का हिस्सा कितना कड़क है,एकदम प्लास्टर ऑफ पेरिस। तुम अब इसे खत्म समझो,अब बुलाया भी तो मैं नहीं आने वाली। यू ब्रूट, यू चीट,यू कांट बी एन आर्टिस्ट,यू डोंट हैव एनी इंटीग्रिटी,यूँ भी मैं पद्मा नहीं हो पाऊँगी,मुझे नाचना नहीं आता है, न मैं वह भाषा बोल सकती हूँ जो वह बोलती थी।"
वह मेरे पास से उठ कर दूर चला गया बिना चुप कराए। बस आ गई थी। वह आगे से चढ़ा,मैं पीछे से। जब ओल्ड गोआ आया तो,वह बस से उतरा नहीं,मुझे देखता रहा,मैं उतर आई….।
उस दु:स्वप्न को जिए भी चार माह हो चुके थे,उस बन्दे ने यह सुध तक नहीं ली कि घर कब कैसे पहुँची। मम्मी ने डाँटा तो नहीं,भीग कर बीमार तो नहीं हुई?
सच ही में एक दु:स्वप्न मान कर भूलने की कोशिश में थी मैं। मैं उस एपिसोड को पूरा डीलीट कर देती जिन्दगी से,अगर उसका ई मेल न आया होता। लम्बा-सा, सविस्तार।
"माय डियर ग्रेशल,
तुम हैरान और दुखी होगी,मगर मैं अब तक उस मुलाकात के ट्रांस में था,यकीन मानोगी? मैं जो तुम्हारी भीगती-सहमती देह सड़क पर पीछे छोड़ आया था, मगर तुम्हारी आत्मा बतियाती मेरे साथ थी। शाम के सात बजे थे तुम बहुत पीछे रह गई थी अकेली हाईवे पर... भीगती हुई। मैं दौड़ कर भीतर आया था,गेट खुलवाने चौकीदार से... "
गीली साड़ी सँभालती,भीगती,आती-जाती गाड़ियों की रोशनी में उघड़ कर नंगी होती अपनी इच्छा छिपाती, मैं भीतर जाकर अपने दोस्त को शिफ्ट करने को कहता हूँ। तुम गीली चप्पल हाथ में लिए अहाते के बाहर उगे वट के नीचे खड़ी थी, ठिठकी हुई,नंगे पैर भीगती,सैण्डल हाथों में लिए,भीगने से बचने के यत्न से थक चुकी,बरसात को खुद को सौंप चुकी-सी, कमरे की तमाम बत्तियाँ बन्द कर मैंने लाइटर जला कर इशारा किया था,तो तुम पस्त कदमों से चलने लगी। तुमने सदियाँ लगा दी थीं, उन पच्चीस कदमों की दूरी को मापने में... मुझे उस पल तुम पर बहुत प्यार आया था कि एक-दो महीने की पहचान के पुरुष के आकर्षण में तुम एक स्पाइस गार्डन के गेस्ट हाउस पर चली आई हो।
मैं उत्तेजना में था,चाहता था तुम सारे कपड़े उतार दो मगर तुम भयभीत थी और "समय का धनुर्धर" कतई दरवाज़े पर पहरा देने को तैयार न था। "बाँधने में बहुत वक्त लग जाएगा।" तुम्हारे वाक्य को पूरा सुने बिना मैं बेतहाशा तुम्हें चूमने लगा था कि तुम स्वयं को छुड़ाकर भीगी ही लेट गई थी... इस सुख की बागडोर मैंने तुम्हें दी... तुम झिझकीं मगर बाग थाम ली... तुम यकीन मानोगी,तुम्हारा मुख दमक रहा था,मंच पर गिरती एक अण्डाकार रोशनी-सा। परदे की एक दरार से आती बिजली के तड़कने की सुर्ख और ज़र्द-सी रोशनी में तुम्हारा मुख दमका तो दमकता ही रहा जब तक तुम मेरी छाती पर निढाल होकर न ढह गई। हम समानांतर पार उतरे थे। मैं हैरान था,समूची शाम तो तुम्हें घेरे हुए था भय, तुम्हारा समर्पण विवशता भरा था मगर...
लौटते हुए,मैं अपने मुँह में नींबू के फूलों जैसी महक वाली पारदर्शी लार का स्वाद महसूस कर रहा था। कमरे पर लौटा तो बरसात फिर होने लगी थी,मेरे जहन में तुम्हारी छवियाँ खुलने लगीं... सैण्डल उठाए साड़ी में दौड़ती। बहुत कोशिश की मगर कामुक सीक्वेंस याद ही नहीं आई... कहीं कहरवा बजता रहा दिमाग़ में और लगा तुम मुझ पर एक खास ताल में,लय में निबद्ध कोई नृत्य करके गई हो। मेरी देह सूने मंच-सी थरथरा रही थी। काम स्वरूप बदल कर नृत्य हो गया था। उस प्रस्तुति के अंत में मैं हतप्रभ खड़ा था।
तुम नृत्य जानती हो ग्रेशल, नृत्य तुम्हारी देह में है। तुममें पद्मा है,मैंने खोज लिया था तुम्हें...
जब मैं लौटा तो मेरे दोस्त वहाँ जमे थे,मांडवी के तट पर एक नाव में पार्टी हो रही थी,मैं वहाँ नहीं गया,मैं वट के पेड़ तक चल कर आया,जहाँ तुम ठिठुरती हुई ठिठकी थीं,वहीं खड़ा भीगता रहा,भीगता रहा... मेरे घुँघराले बालों से बहता पानी मेरे आँसुओं को कैमोफ्लाज कर रहा था। ग्रेशल,तुम पद्मा हो, मेरी शालभंजिका। तुम्हारी देह में लास्य है, नृत्य है। मैं स्क्रिप्ट लिख चुका हूँ... अगले महीने से उदयपुर में शूटिंग है। टिकट भेज रहा हूँ,गोआ से उदयपुर फ्लाइट है सीधे।"