शिकंजा / अवधेश श्रीवास्तव
रामकटोरी की भैंस मरने की खबर पूरे अहीर टोले में फैल गई। सरपचिन की चौपाल पर टोले की जमानियां जुड़ गईं। सरपंचिन राजरानी के अधेड़ चेहरे पर अजब-सा निखार आया। बल्दू और श्यामू की दुल्हन के चेहरे सुर्ख हुए। सरपंचिन ने यूं तो बड़ा गम दिखाया, पर मन ही मन बड़ी खुश हुई, मानो रामकटोरी की भैंस से उनका जन्म-जन्म का बैर हो और उसके मर जाने से कोई किला हासिल हो गया हो।
सरपंचिन की चौपाल पर पंचायत जुड़ने की परंपरा पुरानी थी। गांवों से निकलकर अहीरों के कुछ परिवार भरथना तहसील आ गए थे। सरपंच रघुवीर के पास पैसा था, इसलिए टोले में उनका रौब रहा। सरपंच के मरने के बाद रौबीली परंपरा की डोर सरपंचिन ने थामी, जिसके घेरे में अब महिलाएं ही ज्यादा थीं। सरपंचिन के रौब के सोने में सुहागा तब मिल गया जब उसका लड़का डिप्टी अहीरवाद के चलते नगरपालिका का मेंबर बन गया।
सरपंचिन सुबह होते ही अपनी बहू को औरतों के आचरण का भाषण पिलाती और रोटी खां-खूं के बरामदे पर अपना खटोला डालकर बैठ जाती। टोले की औरतें नगरपालिका के नल से अपनी-अपनी तुम्हारी भरने आतीं तो पहले सरपंचिन के पैर छूकर आशीर्वाद लेना न भूलतीं। बीड़ी का सुट्टा खींचते हुए सरपंचिन बड़ी ही आत्मीयता से सभी को आशीर्वाद देती।
सरपंचिन का आशीर्वाद लेने में कोई बहू चूक जाती तो शाम तक उसके ढीठ होने की शिकायत उसके पति अथवा सास तक पहुंचा दी जाती। रात को उनके घरों में-कोहराम मचता। अगली सुबह से उस घर की बहू भी मन-बे-मन से सरपंचिन आशीर्वाद लेना न भूलती।
टोले के अधिकांश परिवारों को सरपंचिन की छत्रछाया में ही रहना पड़ता, क्योंकि पुलिस, कचहरी और आर्थिक जरूरत के उनके कार्यों के लिए उसके परिवार का दामन ही एक सहारा था।
सरपंचिन की रौबदारी पर वज्रपात किया था तो रामकटोरी ने। रामकटोरी का पति बैंचे निखट्टू और अक्ल से गोबर था, इसीलिए रामकटोरी को अपने-पति से ज्यादा अपनी भैंस प्यारी थी।
हिरनी जैसी चाल चलती रामकटोरी जब भी निकलती तो सरपंचिन की छाती पर सांप लोटता।
‘‘कहां जा रही है रामकटोरी, इतने भुरारे?’’ सरपंचिन उसे खुद ही टोकती- ‘‘अरी कुछ हमसें भी बतिया ले।’’
‘‘तहसीलदारिन के बंगले पर।’’ रामकटोरी उपेक्षा-भाव से बोलती, ‘‘छोटे बाबू के लिए पीयूसी लेकर...उनका बहुत नीक लगता है।’’
सरपंचिन अंदर ही अंदर अंगारे की तरह सुलग उठती। रामकटोरी के ऊपर दो-चार उल्टे सीधे लांछन लगाने की बात उसके मन में बार-बार आती, पर तहसीलदार का भय उसे ऐसा कुछ भी कहने का साहस न करने देता।
रामकटोरी ने पूरा टोला दो खेमों में बांट रखा था। रामकटोरी के साथ मुहल्ले की वे औरतें थीं, जो अपनी सांसों के शोषण से मुक्त होना चाहती थीं। ऐसी शोषित औरतों का विद्रोही मन चुपके-चुपके या खुले रूप में रामकटोरी के साथ था।
रामकटोरी के जीवन की कहानी भी दुःख की दास्तान थी। अपने सुंदर- सलोने रूप की खातिर वह शादी के पूर्व अपने मायके में सभी की चहेती थी। गांव के युवकों की नजरें उसके प्रति कुछ ठीक नहीं थीं। एक दिन खेतों के बीच कुछ युवकों ने उसे दबोच लिया था। रामकटोरी का कहना था कि उसके चीखने-चिल्लाने पर वे भाग गए थे, पर गरीब की इज्जत की नीलामी तो हो ही गई थी। रामकटोरी की जवानी के साथ एक कलंक प्रेतछाया की तरह जुड़ गया था, जिसमें उसका कोई दोष नहीं था। ब्याह के लिए लोग उसे देखने आते। उसके रंग-रूप पर मोहित होते, पर बदनामी की कानाफूसी सुनकर चुपचाप उल्टे पांव लौट जाते।
पर रामकटोरी श्कोई कर नहीं तो डर क्या का भाव मन में बसाए गांव-भर में अपनी अल्हड़ जवानी लिए घूमती रहती। अपने प्रति लापरवाह रामकटोरी सुबह-शाम अपनी भैंस का सानी-पानी करती। दोपहर बंबे पर ले जाकर उन्हें नहला लाती। दूध दुहती, दही मथती और मट्घ्ठा पीकर अलमस्त रहती।
गांव के बुजुर्ग रामदीन को टोकते रहते थे कि जिस नागिन को तुम दूध पिला रहे हो, अगर वह किसी के साथ भाग गई तो बुढ़ापे पर कालिख लग जाएगी। रामदीन को दूल्हा देखकर तुरंत उसके हाथ पीले कर देने की सलाह दी जाती। रामदीन ने आखिर समाज की खातिर भरथना में विधुर बैंचे से ब्याह की बात पक्की कर दी। बैंचे की दो पत्नियां परलोक सिधार गई थीं, जिनसे कोई औलाद नहीं हुई थी।
रामकटोरी के बापू ने इज्जत की खातिर, कुछ नहीं बन सका तो दहेज में भैंस ही दे दी। बैलगाड़ी में सजी-संवरी दुल्हन बनकर सैफई गांव की अल्हड़ छोरी भरथना तहसील आ गई।
रामकटोरी की भैंस एक दिन बीमार पड़ी तो फिर उठ ही नहीं सकी। भैंस ने खाना-पीना छोड़ दिया। रामकटोरी ने भैंस की नजर भी उतरवाई और देशी इलाज भी कराया। हालत में सुधार नहीं हुआ तो टोलेवालों ने सलाह दी कि मवेशी अस्पताल में दिखा लाओ। भैंस लेकर बैंचे अस्पताल चला तो वह आगरा रोड पर बने एक कब्रिस्तान के पास ही जमीन पर पसर गई। कुछ देर तो छटपटाई, फिर उसने आँखें फाड़ दीं।
बैंचे टोले में वापस आया और रामकटोरी को भैंस भरने की खबर दी। खबर सुनकर बदहवास रामकटोरी रोती-कलपती कब्रिस्तान की तरफ भागी। बैंचे ने चौधरी शीशपाल की बैलगाड़ी मांगी और उसमें मरी भैंस लेकर वापस टोले आ गया।
मरी भैंस को लेकर जिस तरह रामकटोरी फफक-फफककर रोई, उस पर टोले के मर्द-मानुषों ने एतराज उठाया- ‘बैंचे की बहुरिया तो यूं दहाड़ मार रही है जैसे जिनावर नहीं, उसकी जिनाई कोई औलाद मर गई हो।’
रामकटोरी की भैंस मरने की खबर सुनकर सरपंचिन के कलेजे में ठंडक पड़ी। सरपचिन ने मन ही मन सोचा कि अब रोजी का जरिया खत्म हो जाने से रामकटोरी का सारा घमंड मिट्टी में मिल जाएगा। बिन पैसे-कौड़ी एक दिन के फाके में ही रामकटोरी की बिल्ली बोल जाएगी।
पर ऊपरी मन से सरपंचिन ने भी शोक में डूबने का पूरा नाटक किया। वह चौड़ी किनारी की सफेद कलफेदार धोती पहन, आखों में सुरमा डालकर, बरामदे में बैठ गई।
बीड़ी के सुट्टे के बीच ही वह आने-जाने वालों को टोकती और अपने पास बिठा लेती- ‘बहुत बुरा हुआ है। रामकटोरी पर भारी विपदा आ पड़ी है। भैंस तो बेचारी की रोजी-रोटी थी...’
अंत में सरपंचिन यह कहना भी न भूलती कि उसके होते हुए रामकटोरी को कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। उसके लिए वह कुछ न कुछ इंतजाम तो करेगी ही।
बरामदे में जब अच्छी-खासी जनानियां जुड़ गईं, तब सरपंचिन उनकी नेता बनकर रामकटोरी की झोपड़ी की ओर चल दी। रामकटोरी अभी भी दाहय मारकर रोए जा रही थी। रामकटोरी सरपंचिन से भी गले लगकर रोई। सरपंचिन की आँखें भी छलछला आईं।
सरपंचिन ने बड़ी-बूढ़ी की भांति रामकटोरी की धोती का उघड़ा पल्लू ठीक किया।
‘‘ईश्वर के बड़े लंबे हाथ हैं...उसकी लीला अपरंपार है। होनी को कोई टाल नहीं सकता।’’ सरपंचिन रामकटोरी के समीप वहीं जमीन पर बैठकर दंभ के साथ बोली, ‘‘सरपंचिन के होते तुझे परेशान होने की कतई जरूरत नहीं है। कोई न कोई बंदोबस्त तो होगा ही।’’
रामकटोरी को सरपचिन की आखिरी बात चुभी, पर वह मौके को देख, खून का छ पीकर रह गई।
रामकटोरी की भैंस के मरने की खबर तहसील में भी पहुंची। भैंस के मरने की खबर से वह असमंजस में पड़ गई। भैंस के बीमार होने के तीन दिन के भीतर तहसीलदारिन ने तीन दूधवाले बदल दिए थे। सुबह का दूध उन्होंने हलवाई की दुकान से मंगवाया था, पर वह दूध कम, पानी अधिक था। दूध में जब मलाई नहीं पड़ी तो वे चपरासी जाहर पर बिफर पड़ी- ‘‘हलवाई को बताया नहीं था कि तहसीलदार साहब के घर दूध जाना है!‘‘
‘‘मालकिन, खूब बताया था...पर रामकटोरी के दूध की बराबरी कोई हलवाई कैसे कर सकता है?’’ तंबाकू की पीक एक कोने में झुककर, हाजिरजवाबी में तुस्त चपरासी जाहर ने तहसीलदारिन को चुप कर दिया।
तहसीलदारिन ने सुबह चाय तो बुझे मन से पी ली। समस्या सिर्फ यही नहीं थी कि विशुद्ध दूध कैसे मिले, असल में रामकटोरी के कमजोर होने से अहीर टोले की राजनीति में तहसीलदारिन की केंद्रीय भूमिका विलुप्त होने की भी आशंका थी!
कमिश्नर साहब के दौरे के कारण तहसीलदार साहब रात काफी देर से आए थे, इसलिए कोई चर्चा न हो सकी थी। चिंतित मन के साथ तहसीलदारिन सुबह से ही लीन में कुर्सी पर पसर गई। ‘‘गुड मार्निंग, मिसेज खरे!’’ मार्निंग वाक से लौटी नायब तहसीलदारिन मिसेज शुक्ला ने तहसीलदारिन को टोका, ‘‘क्या तबीयत ठीक नहीं है? सुना है, रामकटोरी की भैंस मर गई है, आपको तो दूध की बहुत प्राब्लम हो गई।’’ नायब तहसीलदारिन के व्यंग्य-बाण से तहसीलदारिन बहुत व्यथित हुईं, पर मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। हलवाई की दुकान से भी अच्छा दूध आ जाता है।’’
तहसीलदार साहब की नींद खुलते ही तहसीलदारिन ने समस्या उनके सामने रखी। तहसीलदार साहब ने बिना देर लगाए समाधान निकाल दिया। दूसरे ही दिन तहसीलदारिन ने चपरासी जाहर को आदेश दिया कि वह अहीर टोले में जाकर रामकटोरी से कह आए कि आज शाम मालकिन उसके घर आएंगी।
टोले में तहसीलदारिन के आने की खबर सुनकर सरपंचिन के कान खड़े हो गए। उसने सुबह से अपने पोते खड़कसिंह को गली के नुक्कड़ पर बिठा दिया, ताकि तहसीलदारिन के आने की खबर उसे तुरंत मिले। वह खुद सजधजकर बरामदे में बैठ गई।
करीब चार बजे गली के अंदर जीप की धड़धड़ाहट सुनाई दी तो खड़कसिंह ने जोर की आवाज मारी- ‘‘दादी, एक मोटर आ रही है। उसमें अंदर एक लुगाई भी बैठी है!’’
सरपंचिन ने जल्दी-जल्दी बीड़ी के कश मारे और बुझाकर एक ओर फेंक, तहसीलदारिन के स्वागत में खड़ी हो गई। जीप सीधी सरपचिन के दरवाजे पर आकर रुकी, क्योंकि आगे टोले के अंदर जीप का जाना संभव नहीं था। आखों पर काला चश्मा लगाए, लखनऊ की सफेद चिकिन की साड़ी में लिपटी, जीप से उतरती तहसीलदारिन किसी हूर-परी-सी लग रही थी, जो मानो स्वर्ग से आए किसी विमान से उतर रही हो।
‘‘अरे, सरपचिन राजरानी! कैसी हो?’’ तहसीलदारिन ने होठों पर हल्की-सी मुस्कराहट बिखेरी, ‘‘सब ठीक-ठाक तो चल रहा है? अरे, कभी-कभार तहसील आकर हमसे भी मिल जाया करो।’’
‘‘मालकिन, बस ऊपरवाले के सहारे बुढ़ापा काट रही हूं।’’ सरपंचिन ने चेहरे पर मायूसी पोती, ‘‘सरपंचजी खुद तो स्वर्ग सिधारे, हम यहां नरक में जी रहे हैं।’’
तहसीलदारिन के आगे-आगे सरपंचिन यूं चल दी मानो उनको अपनी राजशाही की सीमा भे ले जा रही हो। टोले की महिलाओं और बच्चों का हुजूम ँं जब साथ हुआ तो चपरासी जाहर तहसीलदारिन के पास-पास पीछे-पीछे चल दिया, ताकि टोले का कोई आदमी तहसीलदारिन को छू न सके। जाहर बीच में लोगों को टोकता भी जाता- ‘थोड़ा अलग हटकर चलो।’
गली संकरी जरूर थी, पर कोई बदबू नहीं थी, फिर भी तहसीलदारिन ने पर्स से निकालकर रूमाल मुंह से लगा लिया था।
बीच रास्ते में ही रुककर सरपंचिन ने आवाज फेंकी- ‘‘अरे खड़कसिंह, घर से मूढ़ा उठा ला। मालकिन क्या उस गरीब के घर में टूटे खटोले पर बैठेंगी!’’ खड़कसिंह तेज रफ्तार से मुड़ा और छा उठा लाया। उसे अपने सर पर रखकर वह हुजूम के पीछे-पीछे चलने लगा।
तहसीलदारिन को अपने समक्ष पाकर रामकटोरी के अंदर आत्मविश्वास जगा।
कुछ देर तक तहसीलदारिन चुप, गमगीन चेहरा बनाए, मूढ़े पर बैठी रहीं, फिर उठकर रामकटोरी के करीब ही बैठ गईं।
‘‘इतना शोक मनाने की जरूरत नहीं है।’’ तहसीलदारिन ने करारे नोटों की सौ-सौ रुपये की पूरी दो गड्घ्डियां पर्स से निकालकर रामकटोरी की झोली में डाल दीं- ‘‘सुबह को बैंचे को इटावा भेजकर पशु प्रदर्शनी से एक अच्छी भैंस मंगवा लेना, जाहर साथ चला जाएगा।’’
गन के कोने में उकडू बैठे बैंचे को तहसीलदारिन ने आदेश दिया- ‘‘सुबह तहसील आ जाना, तहसीलदार साहब का एक खत भी लेते जाना।’’
सरपंचिन यह सब देखकर हतप्रभ रह गई। उसे बीड़ी की तेज तलब लग आई, पर माहौल को देखकर उसने अपनी तलब को दबाए रखा।
दुनिया में अभी भी भले मानुषों की कमी नहीं है। गरीबों की मदद को ऊपरवाला किसी न किसी को भेज देता है।’ तमाम आशीषों के साथ टोले से तहसीलदारिन को विदा किया गया।
दूसरे दिन जाहर को साथ लेकर बैंचे एक गरूर भैंस खरीद लाया, जिसके साथ लवारा बछड़ा भी था।
रामकटोरी भैंस देखकर फूली नहीं समाई। उसने भैंस को गुड खिलाकर एक बाल्टी पानी पिलाया।
शाम को रामकटोरी, चांदनी जैसा झागवाला दूध लेकर तहसीलदारिन के घर पहुंची तो लहसीलदारिन का चेहरा दंभ से खिल उठा।
तहसीलदारिन के खुले, चौड़े फैले लान में जब अफसरों और कर्मचारियों की बीवियों की महफिल सजी तो
तहसीलदारिन की खासमखास सदर कानूनगो की बीवी मिसेज गुप्ता ने तहसीलदारिन की जापानी जार्जट की साड़ी की प्रशंसा के साथ अहीर टोले में झंडे गाड़ आने की भी चर्चा की।
पर तहसीलदारिन से मन ही मन जलने वाली नायब तहसीलदारिन मिसेज शुक्ला ने उनकी कुटिलता का ब्योरा सरपचिन को भेज दिया-किस तरह से चपरासी जाहर के द्वारा दस हजार का कर्ज दिलाकर रामकटोरी की भैंस खरीदवाई गई है और बतौर सूद दूध मुफ्त में लिया जाएगा। अगर कर्ज नहीं पटेगा तो तबादले के वक्त अपने समान के साथ तहसीलदारिन भैंस को भी ले जाएगी। यह सब जानकर सरपंचिन अपने बरामदे पर फुफकारती नागिन की तरह बैठी की बैठी रह गई। बीड़ियों के कश के बीच उसने तय किया कि शाम को अपने बेटे डिप्टी से कहेगी कि लखनऊ जाकर नेताओं के मुंह पर जितना भी पैसा फेंकना पड़े फेंककर, तहसीलदार की फौरन यहां से बदली करवा दे।
दूसरी ओर, जीवन-भर हराम की खाकर मस्त होके सोने वाले, रामकटोरी के पति बैंचे ने पहली बार सोचा कि चपरासी जाहर के कहने पर उसने कागजों पर अंगूठा लगाकर अच्छा नहीं किया है...