शेखर: एक जीवनी / भाग 1 / ऊषा और ईश्वर / अज्ञेय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन की गहनतम घटनाएँ किसी अनजान क्षण में ही हो जाती हैं।

घोर पीड़ा का उद्भव सदा ही रहस्यपूर्ण होता है, उसकी अनुभूति स्पष्ट होती है; किन्तु उसका अंकुर, कब, कहाँ, कैसे फूटा, यह पता नहीं चलता, क्योंकि इसके लिए हम उस समय चौकन्ने नहीं होते...

उसका जन्म भी इसी प्रकार अनजाने में हो गया था। देहात से भी बाहर एक वीरान भूमि में बहुत-से टूटे-फूटे खण्डहरों के पास लगे हुए एक खेमे में उसका जन्म हुआ था। उस समय उसका पिता वहाँ उपस्थित नहीं था, उस समय उसकी माँ भी बेहोश थी...

दाई थी। पर ऐसे तो प्रत्येक घटना को, प्रत्येक पीड़ा के उद्भव को देखनेवाला कोइ-न-कोई, कहीं-न-कहीं होता है, प्रगति के प्रत्येक उफान का रहस्य कोई-न-कोई तो समझता ही है, पर जब हम 'किसी' का परिचय नहीं जानते, तब हम उस 'द्वारा' प्राप्त ज्ञान और अनुभूति का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर पाते, तब हम कहते हैं कि 'वह' ही नहीं...

उस नवजात शिशु ने अपने जन्म का अनुभव किया था या नहीं, यह कोई नहीं जानता। वह उस समय सचेत भी था या नहीं, इसका भी निर्णायक कोई नहीं है; क्योंकि प्रसूति-बेला का कोई निश्चित वृत्तान्त कहीं नहीं मिलता। सुनी-सुनाई इतनी बात का पता अवश्य है कि उस समय के लगभग सन्ध्या हो चुकी थी, पक्षी चिल्ला-चिल्लाकर घोंसलों में सिमटकर किसी समाधिस्थ जिज्ञासा में, किसी क्रियाहीन विस्मय में, चुप हो गये थे, और उन खंडहरों पर परदा देने वाले चौकीदारों ने, कोई बेसुरा-सा राग अलापते हुए, इधर-उधर घूमना आरम्भ कर दिया था....

पर जैसे पीड़ा की स्पष्ट अनुभूति के बाद उपचार होने लगते हैं, वैसे ही जब उसकी माँ ने जाकर थके हुए स्वर में कहा, 'हाय!' तब सब ओर चहल-पहल मच गयी...तब उस नवजात शिशु को धोकर और साफ करके ब्राह्मणकुमार के उपयुक्त शरीर दिया जाने लगा, तब तम्बू में बसनेवाले पाँच-चार प्राणियों की दौड़-धूप होने लगी, इधर से उधर, उधर-से-इधर, निरर्थक, निरुद्देश्य...

तब उसके पिता भी आये। उसे देख-भालकर उनका खिंचा-खिंचा शरीर कुछ ढीला हो गया, उनके मुख पर किसी अनिष्ट-निवारण की इच्छा में सिमटी हुई झुर्रियाँ बिखर कर खो गयीं, और वे किसी आधे सुखपूर्ण, आधे सन्तोषपूर्ण विचार में चुप खड़े रहे। तब पंडित-पुरीहित भी आये, और एक बौद्ध भिक्षु भी, और सभी अपने-अपने संसार में उस नवजात शिशु का स्थान निर्दिष्ट करने में अपने जीवन-विधान की शृंखला में एक कड़ी उनके लिए जोड़ने में जुट गये...

जिन खंडहरों के मध्य में उसका जन्म हुआ था, वे एक बौद्ध विहार के खंडहर थे। वहाँ उसी दिन गौतम बुद्ध की अस्थियों की एक मंजूषा निकली थी, जिसकी उपासना करने वे भिक्षु उसके पिता के पास अतिथि होकर आये थे। वहाँ आकर जब उन्होंने देखा कि उसी दिन शिशु का जन्म हुआ है, तब उन्होंने पिता से कहा-यह शिशु बुद्ध का अवतार है। इसको बौद्ध धर्म की दीक्षा देना।

पिता ने कहा, “अच्छा।”

जो पुरोहित आये हुए थे, उन्होंने कहा, “यह लड़का ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ है।' इसके संस्कार भी कुल के उपयुक्त होने चाहिए और बुद्ध के प्रभाव से यह अहिंसा का पुजारी होगा, और ब्राह्माणत्व का नाम उज्ज्वल करेगा।”

माँ ने कहा, “ठीक है।”

पिता ने कुछ सोचते-सोचते कहा, “इसका नाम 'बुद्धदेव' रखना चाहिए।”

माँ ने मन-ही-मन कहा, 'मैं इसे टाऊँ कहूँगी,' और प्रत्यक्ष बोली, 'मैं इसकी ओर से प्रण करती हूँ कि इसे आजन्म निरामिषत भोजी रखूँगी।'

पिता ने मन-ही-मन निश्चय किया-मैं इसे इंजीनियर बनाऊँगा, ताकि यह नये नगरों का निर्माण करे।

माँ ने मन में कहा-”मेरा टाऊँ बैरिस्टर होगा और प्रपीड़ितों का रक्षक होगा।

इस प्रकार बोध होने से पहले ही बालक का जीवन एक रूढ़ि में बँध गया, बहुत-से अनुभूति किन्तु सुदृढ़ बन्धन उसके जीवन में छा गये; वह बिक गया।

कहते हैं कि मानव अपने बन्धन आप बनाता है; पर जो बन्धन उत्पत्ति के समय से ही उसके पैरों में पड़े होते हैं और जिनके काटने भर में अनेकों के जीवन बीत जाते हैं, उनका उत्तरदायी कौन है?

पंडितों से पूछो, भिक्षुओं से पूछो, क्योंकि उन्होंने भी क्या-क्या बन्धन मन-ही-मन निर्दिष्ट किये थे, कोई नहीं जान पाया!

एक स्वर पूछता है, यह सब तुमने कैसे जाना?

हम शायद कभी इस बात का ध्यान नहीं करते कि शिशु में एक सम्पूर्ण मानवीय चेतना का उदय कब से होता है; तब इस बात का ध्यान कौन करता होगा कि शिशु में मानवीय चेतना से नीचे किसी दर्जे की अनुभूति, जो केवल अंकित करती है, अनुलेख को समझती नहीं, उसके सम्बन्ध में कोई इच्छा नहीं करती, कब उत्पन्न होती है।

पर शिशु शायद जिस समय एक आकारहीन मांसपिंड भर होता है, तभी वह एक अमिट छाप ग्रहण करने लगता है, जो उसको उत्पन्न करनेवाली तात्कालिक शक्तियों की ही नहीं होती, वरन् उससे पहले हुई असंख्य घटनाओं और बाद में होनेवाले असंख्य परिवर्तनों की भी होती है...यह छाप पड़ जाती है, और पड़ी रहती है, व्यक्त नहीं होती, हमारी चेतना में नहीं आती-तब तक जब तक कि किसी आकस्मिक प्रेरणा की चोट से किसी न समझ आनेवाले आघात से वह स्पष्ट होकर लहर की तरह हमारे जीवन में नहीं फैल जाती...

ये सब जन्म के समय की स्वयं उसके अपने मस्तिष्क के अनुलेख तो शायद नहीं हैं। किन्तु वह नहीं कह सकता कि ये उसने कहाँ से पाए, कैसे पाए; पाए भी या नहीं। क्योंकि ये शायद असंख्य विभिन्न मौकों पर विभिन्न असम्बद्ध वाक्यों को सुनकर, टूटी-फूटी मुदाओं को देखकर, टूटे-टूटे अव्यक्त विचारों को किसी प्रगूढ़ अंतःशक्ति से भाँपकर, एकत्रित किये हुए मनश्चित्रों का पुंज है...

किन्तु कुछ बातें ऐसी भी हैं, जो ऐसे प्राप्त की हुई नहीं हो सकतीं-जो कभी कोई कहता नहीं, कोई सोचता नहीं। ये बातें उसके मन में कैसे आती हैं, चित्र उसके स्मृति पटल पर कैसे दीखते हैं?

कभी-कभी वह स्वयं सोचता है, तब उसे इसका कोई समुचित उत्तर नहीं मिलता। ये सब चित्र सुनी हुई बातों का फल है, या उसकी अपनी स्मृति के या उसने सोचते-सोचते ही, आत्म-सम्मोहन की शक्ति से अपने को विश्वास दिला लिया है कि उसने ये दृश्य देखे, ये अनुभव प्राप्त किये?

यह प्रश्न अब भी प्रश्न ही है; और प्रश्न ही रहेगा। पर वे चित्र, और वे दृश्य, उसके लिए वास्तविक हैं, वह उनका अब भी अनुभव कर सकता है...

स्निग्ध गर्मी से भरे हुए छोटे-छोटे हाथ...एक समुद्र में तैरती-सी, अनुराग-भरी आँखें, काले-काले तारे; स्तन; नाक की नोक पर एक कोमल हल्की गर्म रगड़...एक लम्बी-सी साँस की गति, जिस पर वह धीरे-धीरे उड़ता है और गिरता है, जैसे समुद्र की बिछलन पर तैरती हुई कोई वस्तु उठे और गिरे...वे सब क्या हैं? श्रुतियाँ? स्मृतियाँ? या आत्मव्यामोह-जनित भावनाएँ जिनकी सत्यता कुछ नहीं?

ऐसी-ऐसी स्मृतियाँ या अर्द्धस्मृतियाँ तो अनेक हैं, किन्तु यह एक विचित्र बात है कि उसके जीवन की जो सबसे पहली दो-एक घटनाएँ उसे ठीक तौर पर अपनी अनुभूति-सी याद हैं, वे उन तीनों महती प्रेरणाओं का चित्रण करती हैं, जो प्रत्येक मानव के जीवन का अनुशासन करती हैं...अहन्ता, भय और सेक्स...

क्यों? इन तीनों शक्तियों का इतना शीघ्र उद्भास, जीवन की पहली-पहली स्मृतियों में उनका विद्यमान होना यह जताता है कि ये कितनी महत्त्वपूर्ण हैं, कि मानव उन्हें अपनी मानवता के साथ ही पाता है; बाद की परिस्थिति या व्यवहार से नहीं...

उन स्मृतियों में कौन पहली है, कौन बाद की, इनका निरूपण करना कठिन है, क्योंकि वे लगभग एक ही काल की हैं। इसलिए उन्हें एक ही स्मृति के दो परदों की भाँति साथ-साथ दिखा देना ही ठीक है, क्योंकि वे मिलकर किसी बात को दिखाती हैं...

उसका नामकरण हो चुका है। उसने बड़ी-बड़ी आँखों से होम की अग्नि भी देख ली है और अपने भोले कानों में कोई फुसफुसाकर कहा हुआ मन्त्र भी सुन लिया है। उसकी आयु होगी करीब तीन वर्ष, किन्तु उसका भोला विजयी दर्प ऐसा है, जैसा नैपोलियन लाख वर्ष तक विजयी रहकर भी नहीं प्राप्त कर पाता!

वह अपने को उत्तरदायी समझने लगा है और गम्भीर रहता है, इसलिए उसे अपने बड़ों से भी सम्मान और यह विश्वास मिलता है कि वह वास्तव में काफी बड़ा हो गया है। उसे कभी-कभी काम भी बताए जाते हैं, जिन्हें वह अभिमान भरी प्रसन्नता से करता है। आज भी उसे एक काम देकर भेजा गया है-उसका भाई बीमार है, अतः उसे कहा गया है कि जाकर डाक्टर को लिवा लाए। और वह इसलिए घर से चलकर इतनी दूर डाक्टर के घर के पथ पर आया है।

किन्तु उसकी उत्तरदायित्व-भावना यहीं तक है कि उसे कोई महत्त्व का काम सुपुर्द किया जाय। उसे करने ही के विषय में वह अपने को बाध्य नहीं समझता। कई बार काम मिलने की प्रसन्नता में वह उसे करना ही भूल जाता है-जैसे आज? इतनी दूर आकर वह अब कर्तव्यनिष्ठ दूत नहीं, फिर एक बालक बन गया, उसके मन की हँसी जाग उठी है और उसे खेल के लिए बुलाती है, उस स्वर से जिसकी उपेक्षा कोई भी आत्माभिमानी बालक (और कौन बालक आत्माभिमानी नहीं होता?) नहीं कर सकता...

सड़क की ओर जो गोल-सा लाल-लाल लेटरबॉक्स है, उसी ने बालक का ध्यान आकृष्ट किया है। वह किसी तरह उस पर चढ़ गया है, ऐसे सवार है जैसे घोड़े की पीठ पर ही हो, और उसकी चोटी पर लगी हुई खूँटी को एक हाथ से रह-रहकर ऐसे खींचता है, जैसे वह लगाम हो। दूसरे हाथ से वह अपने 'घोड़े' की 'गरदन' थपथपा रहा है, जैसे उसने पिता को करते देखा है...

वह सम्राट् है। अपने विजयी घोड़े पर बैठा है और संसार को ललकार रहा है। जब भी कोई राही उसके पास से होकर निकलता है, तब वह उसे मुँह चिढ़ाता है और पुकारकर जो मन में आता है, कह डालता है। वह अपने मन में सम्राट् है और राहियों के मन में एक उद्धत शिशु, इसलिए कोई उसका उत्तर नहीं देता, रुष्ट नहीं होता; उसकी ओर देखकर चला जाता है।

वह संसार से एक लेटरबॉक्स की ऊँचाई भर ऊँचा है। अपने इस आसन से वह सारा संसार देखता है, उसकी क्षुद्रता पर हँसता है।

तभी डाकिया-क्षुद्र संसार का क्षुद्र डाकिया!-आकर उसके स्वप्न को तोड़ देता है, उसे वहाँ से उतर जाने को कहता है, और उसके तत्काल न मानने पर झटककर फिर कहता है...तब हतवैभव शिशुसम्राट अपना बदला भी लेते हैं-कि उतरते समय डाकिये की उँगलियों पर ही गिरते हैं, उन्हें कुचल देते हैं, और भाग जाते हैं, घर पहुँचकर ही दम लेते हैं, और फूले हुए श्वास को शान्त करते-करते अपने को विश्वास दिला देते हैं कि अब वे विजयी हैं।

जब कि सहसा पिता की हथेली का आघात उन्हें याद दिलाता है कि वे एक छोटे-से पराधीन शिशु-भर हैं, जिसे डॉक्टर को बुलाने भेजा गया था और जो उसे बिना बुलाए ही, बिना उसके घर गये ही लौट आया है और वह भी घंटा भर लगाकर...

और दूसरी स्मृति। वह अकेला अजायबघर में फिर रहा है, उस कमरे में जिसमें वन्य और हिंस्र पशु प्रदर्शित किये गये हैं। एकाएक वह देखता है, उसके सामने एक भीमकाय बाघ प्रकट हो गया है। एक पंजा झपटने के लिए उठा-भयंकर दाँत-वह जीभ-आरक्त आँखें...और वह चीख उठता है, भय से विकल होकर...और भागता है...

वह बाघ केवल एक चर्म के अन्दर भरा हुआ फूस है, यह बात बालक नहीं जानता। वह भागता है, उसे जान पड़ता है कि वह बाघ उसके पीछे चला आ रहा है, क्षण-भर में उसे पा लेगा, वह घूमकर देखता भी नहीं, क्योंकि वह उन दाँतों को, उस जीभ को, उन आँखों को फिर नहीं देखना चाहता...

और वह अकेला है, कोई उसका डर दूर करनेवाला नहीं...वह किसी तरह बाहर तक आ पाता है और सड़क पर भागता है। तभी एक चपरासी उसे पहचानकर पकड़ लेता है, गोद में उठा लेता है, और वह अपने को भागने में असफल पाकर बड़े जोर से चीख उठता है कि अब वह बाघ झपटा-!

जो नहीं झपटता। काफी देर तक नहीं। तब शिशु डरते-डरते घूमकर देखता है, उसे वहाँ न पाकर आश्वासन की साँस लेता है...

वह डर उस समय दब गया, किन्तु उसने शिशु के मन में घर कर लिया। उस दिन के बाद उसे भयंकर स्वप्न आने लगे, रात को वह चीख-चीख उठता। और कभी जागकर यदि पाता कि कमरे में अँधेरा है तब वो वह अंधकार एक नहीं, असंख्य बाघों से सजीव हो उठता, एक-से-एक खूँखार...उस दिन से उसके कमरे में रात-भर प्रकाश रहने लगा, किन्तु किसी ने जाना नहीं कि उसे क्या हो गया है, क्यों उसे भयंकर स्वप्न आने लगे हैं, क्यों वह दुबला और चिड़चिड़ा होता जा रहा है...

वह डर अपने-आप ही मिटा। एक बार वैसा ही बाघ उसके घर लाकर रखा गया। और बहुत मुश्किल से अपने भाइयों की देखा-देखी वह उसके पास भी गया, उसकी पीठ पर भी बैठा। और उसे निर्जीव पाकर साहस करके उसके मुँह में हाथ डालकर भी देखा। तब डर एकाएक उड़ गया, तब शिशु ने चाकू लेकर उस खाल को फाड़ डाला, उसके भीतर के घास-फूस को बिखेरकर हँसने लगा...

इसका एक और गहरा असर भी हुआ। शिशु ने जाना, डर डरने से होता है। संसार की सब भयानक वस्तुएँ हैं, केवल एक घास-फूस से भरा निर्जीव चाग, जिससे डरना मूर्खता है।

और यही वह आज तक समझता है। यही उसका विश्वास अब भी है कि जब कभी कोई भयानक वस्तु देखो, तब डरो मत, उसका बाह्य चाम काट डालो, उसके भीतरी भरी हुई घास-फूस निकालकर बिखरा दो, और हँसो। इसने उसे उद्धत बनाया है, लोग कहते हैं कि विध्वंसक और हिंस्र भी बना दिया है, पर वह जानता है...।

उस चाम को फाड़ देने पर उसे दण्ड मिला था। और बाद, कई बार ऐसे मिथ्या डर का नाश करने पर उसे दण्ड मिला, क्योंकि डर के बिना समाज का अस्तित्व नहीं ठहर सकता। और आज भी, वह एक बड़े भीमकाय डर का भीतरी खोखलापन दिखाने के अपराध में पकड़ गया है, और दण्ड की प्रतीक्षा में है। और चूँकि उसने संसार के सबसे बड़े डर-शार के डर-पर आघात किया है, इसलिए उसका अपराध सबसे कठोर दण्ड माँगता है...।

किन्तु वह हँसता है, क्योंकि उसने विजय पायी है...।

और तीसरी स्मृति...

वह भद्दी, वीभत्स है। उसका ठीक-ठीक रूप, उसका मूल कारण मुझे याद नहीं है, याद केवल उस समय की मनःस्थिति, वह भावना, जिसे लिये मैं खड़ा हूँ...।

मैं-वह शिशु-कोई दृश्य देख रहा हूँ-याद नहीं कि क्या, किन्तु इतना याद है कि उसमें कुछ अनुचित, कुछ वर्जित, कुछ घृणास्पद, कुछ जुगुप्सा-जनक है, और इसी के अनुकूल भावना उसे देखकर उसके मन में उठ रही है...।

वह अवर्ण्य है। उसे वे ही समझ सकते हैं, जो कभी वासना से उत्पन्न हुए पापकर्म के किनारे तक पहुँचकर लौट आये हैं-किसी बाह्य रुकावट या नियम या असामर्थ्य या डर से नहीं, एक आन्तरिक, स्वतः उत्पन्न ग्लानि के कारण...।

और, जीवन भी उन्हीं का है। नियमों के अनुसार चलना आसान है और संसार ऐसे व्यक्तियों का आदर भी करता है, जो नियमानुसार चलते हैं। किन्तु जीवन बाध्य नहीं है कि वह आसान हो या आदर की पात्रता दे! जीवन इससे परे है, नियमों में नहीं बँधता और यशोलिप्सा से ऊँचा है...।

जो नियमों से नहीं चलते, किन्तु नियमों की मूल प्रेरणा को समझकर अपना नियम स्वयं बनाते हैं, जीवन तो उन्हीं का है...।

प्रेम ने मनुष्य को मनुष्य बनाया !

भय ने उसे समाज का रूप दिया !

अहंकार ने उसे राष्ट्र में संगठित कर दिया।

शिक्षा देना संसार अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझता है, किन्तु शिक्षा अपने मन की, शिक्ष्य के मन की नहीं। क्योंकि संसार का 'आदर्श-व्यक्ति' व्यक्ति नहीं है, एक 'टाइप' है; और संसार चाहता है कि सर्वप्रथम अवसर पर ही प्रत्येक व्यक्ति को ठोक-पीटकर, उसका व्यक्तित्व कुचलकर, उसे टाइप में सम्मिलित कर लिया जाय, उसे मूल रचना न रहने देकर एक प्रतिलिपि-मात्र बना दिया जाय...।

और यह शिक्षा दी कैसी जाती है? जो निर्धन होते हैं, वे बचपन से ही ठुकते-पिटते हैं; केवल घर में नहीं, केवल बाहर नहीं, सर्वत्र, सबसे। सारा संसार ही उनके लिए एक शिक्षणालय हो जाता है, जहाँ नीरस हृदयहीनता से उन्हें शिक्षा दी जाती है। और जो कुछ अधिक सम्पन्न होते हैं, उन्हें एकाएक इस भाँति शिक्षित नहीं किया जाता, उनकी शिक्षा का आरम्भ घर में या स्कूल में होता है, और संसार वाली शिक्षा का समय जहाँ तक हो सकता है, स्थगित किया जाता है।

लोहे के कड़े बनते हैं तो लोहा भट्टी में पिघलाकर एकएम साँचे में ढाल दिया जाता है। किन्तु सोने के कड़े बनाने के लिए पहले उसे नर्म किया जाता है, फिर उसका तार बनाया जाता है, फिर उसे गोल करके टाँका जाता है, फिर उस पर काम किया जाता है, फिर अन्त में पालिश दिया जाता है, तब कहीं वह तैयार होता है...ऐसी ही है निर्धन और धनिक बालकों की शिक्षा...

इसे सौभाग्य कहूँ कि दुर्भाग्य? वह एक सम्पन्न घर में उत्पन्न हुआ था, उसकी शिक्षा भी इसके अनुरूप एक कॉन्वेंट स्कूल में आरम्भ हुई।

एक यूरोपियन कॉन्वेंट स्कूल की लताओं से आच्छादित दीवारों द्वारा घिरे हुए छोटे-से उद्यान में लड़के और लड़कियों का एक समूह।

उस समूह के एक ओर कॉन्वेंट की सिस्टर-उस समूह की अध्यापिका-खड़ी है। उसका मुख वात्सल्यपूर्ण है, बाल पकने लगे हैं और उसकी आँखों में एक विनोद का-सा भाव है। वह थोड़ा-सा तुतलाती है-और यह विशेष रूप से तब प्रकट होता है, जब वह हिन्दी बोलने का प्रयत्न करती है।

वह समूह उद्यान के मध्य में स्थित है और उसके बालक-बालिकाएँ गम्भीर भाव से मनोरंजन कर रहे हैं। एक लड़का मध्य में खड़ा है, उसके हाथ में एक लकड़ी का हथौड़ा है और सामने एक लकड़ी का ही अहरन! अन्य बालक-बालिकाएँ उसको घेरे हुए हैं! वह बालक लोहार का अभिनय कर रहा है, और ज्यों-ज्यों वह अहरन पर हथौड़ा मारता है, त्यों-त्यों अन्य बालक-बालिकाएँ समवेत स्वर में पुकार कर गाते हैं, 'दे मार! दे मार! हथौड़ा-लोहा है तैयार!' और वृत्ताकार घूमते जाते हैं...

सिस्टर बहुत प्रसन्न हो रही है, क्योंकि बच्चे उस खेल में तल्लीन जान पड़ते हैं। उनके चेहरे गम्भीर है अवश्य, किन्तु यह शायद उसकी उपस्थिति के कारण ही है। वह हट जाएगी तो बच्चे अधिक स्वच्छन्द होंगे और अधिक आनन्द पाएँगे! यह सोचकर वह चुपचाप उद्यान से निकल जाती है।

चुपचाप, किन्तु इतनी चुपचाप नहीं कि बच्चे न जान पाएँ। उसके बाहर निकलते ही प्रत्येक को पता लग गया कि वे स्वच्छन्द हैं। और इस स्वच्छन्दता का उपभोग भी तत्काल ही हो गया, क्योंकि एक मिनट के भीतर ही दो बालक लड़ पड़े, भिड़ गये, और बाकी सबने पक्ष ले लिए। लगभग दस मिनट तक घमासान रहा, फिर एकाएक ही शान्ति फैल गयी; क्योंकि किवाड़ खुल गया था और सिस्टर ने प्रवेश किया था। और अब उसके चेहरे पर वह वात्सल्य भाव नहीं था। न आँखों में वह विनोद...

उस कॉन्वेंट में छात्र पिटते नहीं थे...

उस दिन लगभग चार बजे शेखर घर की ओर चला जा रहा था। धीरे-धीरे किसी विचार में लीन। उसकी जाकेट के बटन में एक टाइप किया हुआ कार्ड लगा हुआ था। वह पढ़ नहीं सकता था कि उस पर क्या लिखा है, किन्तु अनुमान कर सकता था, क्योंकि सिस्टर ने उसे कहा था कि इसे अपने पिता को अवश्य दिखावे और उत्तर लेकर आवे, और फिर बोली थी, 'तुमने बहुत शरारत की है।'

वह इतना गम्भीर इसलिए था कि वह किसी निश्चय पर पहुँचना चाहता था। उसने सिस्टर के शब्दों में 'शरारत' की थी अवश्य, किन्तु यह कोई कारण नहीं था कि वह घर जाकर पिटे। उसकी न्याय-बुद्धि कह रही थी, मैंने दूसरों को मारा, स्वयं भी मार खा ली, अब घर पहुँचकर दुबारा दंड क्यों पाऊँ?

उसने निश्चय कर लिया। कार्ड उतारा, फाड़कर चिथड़े कर दिया। फेंक दिया। घर पहुँचकर पिता से बोला कि मैं अब लड़कों के स्कूल में जाना चाहता हूँ, काफी बड़ा हो गया हूँ, उस कॉन्वेंट में लड़कियों के साथ नहीं पढूँगा...पिताजी ने हँसकर कहा, अच्छा। उसे सिस्टर की विनोद-भरी आँखें बार-बार याद आने लगीं, जो उसकी और कार्ड के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही होंगी। और वह याद उसके लिए कितनी आह्लादकर थी। वह चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा-'उसे करने दो प्रतीक्षा! मैं जाऊँगा स्कूल-स्कूल।'

यद्यपि वह तब तक स्कूल भी नहीं गया।

ऊपर कहा गया कि सोने को धीरे-धीरे नर्म किया जाता है, एकदम ढाला नहीं जाता। जब शेखर ने कॉन्वेंट छोड़ दिया, तब उसकी पढ़ाई का कोई और प्रबन्ध सोचा जाने लगा। और, जब तक यह निश्चित नहीं हुआ, उसे स्वच्छन्दता मिली...

बालक को जब 'पढ़ाया' जाता है तब वह विद्रोह करता है, किन्तु जब विद्रोही को छोड़ दिया जाता है, तब उसकी स्वाभाविक जिज्ञासा उसे बाध्य करती है...उसके बड़े भाई जब अपने मास्टर से पढ़ने बैठते, तब वह स्वयं जाकर उनकी मेज के पास खड़ा हो जाता, क्योंकि कोई उसे वहाँ खड़ा रहने पर बाध्य नहीं करता था। वह इतना छोटा था कि मेज तक पहुँच न पाता, तब वह पंजों पर खड़ा होकर हाथों से मेज का किनारा पकड़ लेता, और उस पर ठोड़ी, टेककर सुना करता...उसके भाई और उनका मास्टर हँस देते, किन्तु उसे कुछ कहते नहीं। उसकी ओर ध्यान भी नहीं देते।

ऐसे ही कई दिन रहा। एक दिन पिता पढ़ाई देखने आये। भाइयों को अष्टाध्यायी पढ़ते देखकर बोले, 'आज का पाठ सुनाओ तो, कुछ याद है?' उन्होंने आरम्भ तो अच्छी तरह किया, किन्तु बीच में भूल गये, घबरा गये, चुप रह गये। पिता ने वात्सल्य-भरी हँसी हँसकर कहा-'पढ़ो, पढ़ो, ध्यान से पढ़ा करो,' और जाने को हुए। तभी उसने अपनी किंचित् बैठी हुई आवाज में, जो व्यग्रता से काँप रही थी, कहा-”मैं सुनाऊँ?”

सब हँस पड़े, पर पिता एक अनुमति-सूचक मुस्कराहट से उसकी ओर देखने लगे।

वह बहुत देर नहीं रही, थोड़ी ही देर में उन सबके चेहरे पर विस्मय छा गया। क्योंकि उस छोटे से बालक ने उस दिन का ही नहीं, उससे पहले और उससे पहले, और उसके एक कई पहले दिनों के पाठ जबानी सुना दिए। बिना क्षण-भर भी रुके हुए।

उसने पिता ने प्रसन्न होकर, ऐसे जैसे पुरस्कृत कर रहे हों, कहा, 'कल से तुम भी पढ़ो। तुम्हारे लिए अलग मास्टर रख देते हैं।'

हाय रे पुरस्कार!

हाँ, तो दूसरे दिन उसका नया मास्टर आया। किन्तु आया ही, रहा बहुत दिन नहीं। आरम्भ के तीन-चार दिन बाद ही मास्टर साहब ने आकर देखा, उनका शिष्य एक कुरसी की पीठ पकड़े वज्रवत् अपना सिर उस पर पटकता जा रहा है, बार-बार, बार-बार...मास्टर साहब ने पूछा, “यह क्या कर रहे हो?”

“अपने को पक्का कर रहा हूँ,” कहकर वह फिर अपने काम में लग गया।

मास्टर साहब ने यह नहीं जाना कि बालक ने कहीं किसी की बात में सुना था। 'वह बड़ा पक्का निकला' और इस कथन में प्रशंसा की ध्वनि पाकर उसने निश्चय किया था कि मैं भी पक्का होऊँगा। मास्टर साहब ने हँसकर कहा, “देखूँ तो कितने पक्के हो। मुझसे टक्कर लड़ाओगे?”

आह्वान? उसने कहा, “आइए।”

एक ही टक्कर हुई। जब बालक ने दूसरी के लिए सिर पीछे झुकाया, तो देखा, मास्टर साहब की हँसी उड़ गयी है। वे हाथ से माथा थाम लेते हैं, जैसे अपने को सहारा दे रहे हों-और फिर उठकर बाहर चले जाते हैं...

और फिर नहीं आते। क्योंकि ऐसे कितने मास्टर हैं, जो यह नहीं समझते कि पढ़ाई तभी तक सम्भव है, जब तक शिष्य पर गुरु का रोब रहे...

कुछ दिन बाद एक और नया मास्टर आया, लखनऊ का, और उसके अंग-अंग पर लिखा था कि वह लखनऊ का है। वह पढ़ाने बैठा मुँह में पान लेकर और जब बालक डिक्टेशन लिखने लगा, तब बार-बार भूमि पर थूककर उसका ध्यान भंग करने लगा।

बालक ने उद्धत स्वर में कहा, “मास्टर साहब, आप पढ़ाते हैं कि थूकते ही जाते हैं?”

मास्टर साहब ने पिता से रिपोर्ट की। पिता ने बालक को डपटकर कहा, “क्या शैतानी करते हो? पढ़ना है कि नहीं?”

बालक उसी स्वर में बोला, “पढ़ूँ कैसे, कोई पढ़ाए भी। मास्टर साहब तो थूकते ही जाते हैं।”

पिता ने समझा तो कि बालक की बात में कुछ सार है। किन्तु वे बालक से ऐसा उत्तर पाने के अभ्यस्त नहीं थे। क्रुद्ध होकर बोले, “बको मत। जाकर पढ़ो। अब मैंने कोई शिकायत सुनी तो-”

बालक चला गया। उसने देखा, न्याय कहीं नहीं है। किन्तु वह अन्याय के आगे झुकने को भी तैयार नहीं हुआ। सिर झुकाए ही पढ़ने के कमरे में गया, किन्तु वहाँ पहुँचते ही, मास्टर को देखकर उद्धत और ललकार-भरे स्वर में बोला, “थुक्कू मास्टर!”

मास्टर साहब ने चौंककर कहा, “क्या?”

“थुक्कू मास्टर! थुक्कू मास्टर! थुक्कू मास्टर!” बालक बार-बार ऐसे कहने लगा, जैसे हथौड़े से किसी चीज पर चोट कर रहा हो।

उस दिन इतनी ही पढ़ाई हुई-कम-से-कम मास्टर साहब के सामने। जब मास्टर साहब चले गये, तब उसे कमरे में बन्द कर दिया गया, रोटी नहीं दी गयी, कहा गया, वचन दो कि ऐसा नहीं होगा...

पर नहीं। बालक थककर सो गया। वहीं रहा, तब तक जब तक कि दूसरे दिन फिर पढ़ाई का समय नहीं हो गया, और उसे मास्टर साहब के सामने नहीं उपस्थित किया गया, और उसने फिर उसी प्रकार कहना आरम्भ नहीं किया, 'थुक्कू मास्टर! थुक्कू मास्टर! थुक्कू-!'

उसे ले गये और दूसरी प्रकार की शिक्षा दी जाने लगी...पर मास्टर साहब फिर नहीं आये।

उसे ले गये और दूसरी प्रकार की शिक्षा दी जाने लगी...पर मास्टर साहब फिर नहीं आये।

यों समाप्त हुआ उसकी शिक्षा का पहला परिच्छेद।

इसके बाद उसकी बहिन उसे पढ़ाने लगी। किन्तु उसका ढंग कुछ और ही था। और बालक ने देखा, शिक्षा भी ग्राह्य हो सकती है और शिक्षक भी उपास्य हो सकता है! और वह अपनी बहिन की पूजा करने लगा; और सीखने लगा, बिना किसी के जाने...

किन्तु वह तो बाद में हुआ, उसकी बात यथास्थान होगी...

ऐसा ही था उसका मन। उसमें सहज बुद्धि की कमी नहीं थी। किन्तु उस बुद्धि की प्रवाह-गति का निर्देश करनेवाली शक्ति संसार में नहीं थी। वह बुद्धि उसकी थी, उसके उपयोग के लिए थी, वह उसका मनचाहा उपयोग करता था। और वह जानता है, जहाँ उसने अपनी सहज बुद्धि की प्रेरणा मानी, वहाँ उसने उचित किया, और जहाँ उसकी बुद्धि को दूसरों ने प्रेरित किया, वहीं वह लड़खड़ाया...

यह बुद्धि बाँधी जा सकती, तो क्या नहीं सम्भव था? किन्तु, यदि बुद्धि बाँधी जा सकती!

यही थी उसकी शिक्षा, जिससे उसने सीखा-क्या? शिक्षण का तिरस्कार, अवज्ञा...!

पर उन दिनों भी उसने बहुत-कुछ सीखा, और सीखा इतने दृढ़ मनोनियोग से कि उस शिक्षा की छाप उसके मानस-पट के रेशे-रेशे पर पड़ी हुई है और मिट नहीं सकती, उस शिक्षा के तन्तु उसके जीवन के ही ताने-बाने में मिल गये हैं और वैसे ही चमकते हैं, जैसे शिलाखंड में किसी श्रेष्ठ धातु की रेखा।

उस स्वतः प्राप्त होनेवाली शिक्षा का रहस्य क्या था?

शेखर अपने घर के बरामदे में खड़ा था। घर में सब लोग अपने-अपने कार्य में व्यस्त थे, उसके भाई तक अपनी पढ़ाई में निरत थे, पिता तो दफ्तर का काम देख ही रहे थे, और माँ उसके छोटे भाई को गोद में सुलाए रोटी पका रही थीं।

वह अकेला था, अनुभव कर रहा था कि मैं अकेला हूँ। और यह भी अनुभव कर रहा था कि मैं अकेला इसलिए हूँ कि मैं उस प्रकार का नहीं हूँ, जिसे लोग अच्छा कहते हैं; मैं पढ़ता नहीं हूँ, किसी का कहना नहीं मानता हूँ, ढीठ हूँ, लड़ाका हूँ, शैतान हूँ। नहीं तो आज इस समय पिता के पास हँस रहा होता, या माता के पास कुछ मिठाई खा रहा होता, या भाइयों के साथ ही कोई सचित्र पुस्तक पढ़ रहा होता; जिसके स्थान में सबका भुलाया हुआ यहाँ अकेला खड़ा हूँ...

जब वह वहाँ आकर खड़ा हुआ था, उसके कुछ ही देर बाद पिता के कोई मित्र उनसे मिलने आये थे, और उन्होंने उससे पूछा था, 'पिताजी हैं?' और उससे उत्तर न पाकर, उसका ध्यान आकृष्ट करने में भी असफल होकर, यह सोचते हुए भीतर चले गये थे कि क्या ऐसे भी बालक हो सकते हैं, जिन्हें नये आदमी को देखकर कौतूहल न हो। इस बात को घंटे-भर से अधिक हो चुका था, और बालक वहीं उसी मुद्रा में खड़ा था, और अपने छोटे-से अनुभव की बात को लेकर सोच रहा था...

तभी वे मित्र बाहर आये, और उसे वैसे खड़े देखकर भीतर लौट गये, उसके पिता को साथ लेकर आये। और उसे मालूम नहीं हुआ कि वे कई मिनट तक उसे देखते रहे हैं; इस विस्मय से भरे कि जो शरीर चांचल्य के लिए बना है, वह इतना स्थिर कैसे खड़ा है, और जो बालक सामान्य बालकों से भी अधिक दुनिवार है, वह इतना प्रशान्त कैसे है।

एकाएक वह पिता का प्रश्न सुनकर चौंका-”शेखर, क्या सोच रहे हो?” और कुछ सकपकाकर वह बोला, “कुछ नहीं।”

किन्तु पिता को शायद उसकी निश्चलता देखकर कुछ परिताप हुआ था, या दया आयी थी, वे कुद्ध नहीं हुए; आग्रह से पूछने लगे...

जिसे वह नहीं टाल सका-वह एक इतनी नयी चीज थी-बोला, “मैं सोच रहा था, कि बुरे के बगैर अच्छा नहीं होता।”

वे एकाएक समझे नहीं। बोले, “क्या मतलब?”

“लोग बुरे को देखते हैं, तभी उन्हें पता लगता है कि क्या अच्छा है! बुरा नहीं हो, तो क्या पता लगे कि अच्छा क्या है!”

वे दोनों क्षण भर स्तब्ध रह गये, एक-दूसरे की ओर देखते रहे। फिर पिता ने, शायद यह सोचकर कि छोटे मस्तिष्क के लिए बड़ी समस्या का आकर्षण अच्छा नहीं हो सकता, उससे कहा, “चलो, अन्दर चलकर खेलो-कूदो। बड़े होकर ये बातें सोचना।” यद्यपि यह डॉटकर नहीं, किचित् सराहना के स्वर में।

पर, बालक सोचने लगा, 'अगर बड़ा होने पर ही सोचना होता है, तो मैं आज ही सोचकर बड़ा क्यों न हो जाऊँ...'

इसके बाद उसके पिता उसके विषय में चौकन्ने रहने लगे। जब भी उसे अकेला या विचारशील पाते, तो उसे खेल में लगाने या और किसी बात की ओर आकृष्ट करने लगते। उसने अब देखा, उसे एकान्त बहुत कम मिलता है, यद्यपि वह यह भी समझता रहा है कि वह है अब भी अकेला ही, बल्कि इस अनभ्यस्त सजगता ने उस अकेलेपन को और भी विशिष्ट कर दिया है...

इसके दो-चार दिन बाद ऐसी ही घटना फिर घटी। वह फिर वैसे ही, वहीं खड़ा था। सामने के मकानों की ओर देखकर एक और समस्या पर विचार कर रहा था जो उसी दिन प्रातःकाल उठी थी, जब उसे प्रार्थना करना सिखाया गया था। वह उन मकानों को देखकर सोच रहा था, ये सब ईश्वर ने क्यों बनाए होंगे, कैसे बनाए होंगे?

तभी उसके पिता ने आकर पूछा, “फिर क्या सोच रहे हो?” उनके पीछे माता भी थीं, वे भी उत्तर की प्रतीक्षा करने लगीं।

उसने गम्भीर स्वर में कहा, “ये सब मकान किसने बनाए?”

माता हँसी। बोलीं, “लोगों ने, और किसने?” उन्होंने शायद सोचा, 'यह बालक खब्ती है, पर इसको बहलाए रखना ठीक है।'

“तब, ईश्वर ने तो नहीं बनाए?” बालक ने कहा तो प्रश्न के तौर पर, किन्तु इसमें एक अविकल्पता थी, मानो वह किसी पहले पूछे जा चुके प्रश्न का उत्तर है...

माता-पिता ने सम्भ्रान्त दृष्टि से एक-दूसरे की ओर देखा-बालक ने वह दृष्टि भी देखी। तब पिता बोले, “आओ, मैं समझाऊँ। ईश्वर ने ही बनाए हैं।”

बालक उनका अनुसरण करता हुआ भी यह सोचता रहा कि अगर इस प्रश्न का हल इतना सुगम और निश्चित है-तब उस सम्भ्रान्त दृष्टि का कारण क्या है, वह क्यों...

उसका मनोरंजन करने के लिए, उसे व्यस्त रखने के लिए, पक्षी खरीदे गये। एक जोड़ा मरालों का, एक चकोरों का, एक तोता...और इन पक्षियों का चार्ज उनमें बाँट दिया गया, मराल बड़े भाई को, चकोर दूसरे को, और तोता उसके हिस्से आया।

वह बड़े मनोयोग से, तोते को सिखाने लगा। उसे आदेश मिला था, तोते को 'सीताराम' कहना सिखाए। और उसके माता-पिता कभी तोते के पास आते, कहते, “पढ़ सीताराम!” कहना सिखाए। और उसके माता-पिता कभी तोते के पास आते, कहते, 'पढ़ सीताराम!' और वह भी उनके सामने यही कहता। किन्तु जब भी एकान्त पाता, तोते के सामने खड़ा होकर हँसता, बार-बार रुक-रुककर एक कृत्रिम हँसी इस इच्छा से कि तोता भी हँसना सीख जाय...

पर तोते ने न सीताराम पढ़ना ही सीखा, न हँसी ही। एक दिन उसके पिता ने तोते को पिंजरे से बाहर निकाला, और उसे हाथ में लेकर मिर्च खिलाने लगे। बालक ने पूछा, 'क्यों' तो बताया कि जब तोते को मिर्च लगती है, तब बोलता है...

बालक ने कहा, “लाइए मैं खिलाऊँ।” पिता ने तोता उसे दे दिया।

तोते ने उसके हाथ से भी मिर्च नहीं खायी, इधर-उधर घूमकर उसके हाथ से अपने पंख निकाल लेने की चेष्टा करने लगा।

बालक धैर्य खोकर मिर्च उसकी चोंच में जबरदस्ती ठूँसने का यत्न करने लगा।

तोते ने उसकी उँगली में काट लिया, और उँगली छोड़ी नहीं।

बालक ने तोते को छोड़कर हाथ को जोर से झटककर उँगली छुड़ा ली।

बालक अपनी आहत उँगली देखता रहा, तोता उड़कर घर के सामने एक पीपल के वृक्ष पर जा बैठा।

जब बालक को तोते का ध्यान आया, तब उसकी आँखें उसे खोजने लगीं। और थोड़ी देर में उन्होंने उसे पा लिया, और मुग्ध होकर उसकी ओर देखने लगीं।

बालक का तोते के प्रति क्रोध हट चुका था। वह उसकी ओर हाथ बढ़ाकर उसे बुलाने लगा, 'मियाँ मिट्ठू!' तोते ने ध्यान नहीं दिया।

बालक ने देखा, तोता धीरे-धीरे डरते-डरते पीपल की एक डाल से उड़कर दूसरी पर बैठता है, दूसरी से तीसरी पर। ऐसा जान पड़ता था मानो पंख डरकर इसलिए फड़फड़ाता है कि कहीं पिंजरे की परिधि से टकराएँ न, आहत न हों। और जब इसलिए फड़फड़ाता है कि कहीं पिंजरे की परिधि से टकराएँ न, आहत न हों। और जब उसने देखा, वे हिल-डुलकर भी पिंजरे से नहीं टकराते, तब वह पेड़ पर से उड़कर एक बिजली के खम्भे पर बैठ गया, जो घर से अधिक दूर था, और फिर यहाँ से दूसरे खम्भे पर। बालक को जान पड़ा, वह अपने को विश्वास दिला रहा है कि अब पिंजरे के सींखचों से घिरा नहीं हूँ, बाहर हूँ स्वच्छन्द हूँ। और फिर वह एकाएक आह्लाद और अभिमान से भरकर उड़ा और उड़ गयी दृष्टि की सीमा से परे...

बालक ने एक लम्बी साँस लेकर गम्भीर स्वर में पिता से कहा, “तोता उड़ गया।”

पिता ने उस स्वर की गम्भीरता को लक्ष्य करते हुए कहा, “तो क्या हुआ, तुम्हें और ले देंगे।”

पर वह बोला, “नहीं और तोता नहीं पालूँगा...”

पिता हँसकर बोले, “क्यों, उँगली में काट खाया इसलिए? और अनेक पक्षी हैं, कोई पाल लेना! मेरे साथ चलकर चुन लेना, खरीद...”

“नहीं, अब कोई पक्षी नहीं पालूँगा...”

तब कभी-कभी उसे विचार आता, इन मरालों और चकोरों को भी भगा दिया जाय। पर शायद यह विचार कि ये पिंजरों में बन्द नहीं हैं, उड़कर जा सकते हैं, फिर भी इच्छा से यहीं रहते हैं, उसे रोक देता था।

एक बार उसका मँझला भाई बीमार हुआ, और बहुत बीमार हुआ। बहुधा दिन में ज्वर के कारण वह प्रलाप करने लगता, और तब सदा ही कहा करता, 'मेरे चकोर! लाओ मेरे चकोर! कहाँ हैं मेरे चकोर...' और चकोर लाकर उसके पास बिठा दिये जाते, वह उनके ऊपर हाथ रखकर शान्त हो जाता...सो भी जाता...

वह काफी क्षीण हो गया था। एक दिन उसके ज्वर का ताप इतना अधिक हुआ कि उसका प्रलाप भी बन्द हो गया, वह शून्य-सा, अर्ध-मूर्च्छित-सा, छत की ओर देखता पड़ा रहा; उसने चकोर नहीं माँगे...

पर वे स्वयं आये। उसके माता-पिता उसके पास चिन्तित खड़े थे। उन्होंने देखा, एक चकोर आकर उसके सिरहाने बैठ गया, और एक धीरे-धीरे चारपाई के चक्कर-काटने लगा...और उन्हें ऐसा जान पड़ा, उस कमरे के वातावरण में किसी अपूर्व खिंचाव का अनुभव चकोर भी कर रहे हैं, और साथ ही अपनी माँग न होने के कारण दुखी हैं...

जो चकोर रोगी की चारपाई के चक्कर काट रहा था, उसकी गति धीरे-धीरे उद्भ्रान्त होती जा रही थी, पैर लड़खड़ा-से रहे थे। और उसका जोड़ा-चकोरी-जो रोगी के सिरहाने बैठी थी, चिन्तित-सी उसे देख रही थी, पर अपने स्थान से हटती नहीं थी...

चकोर थककर रोगी के पैताने बैठ गया। उसकी ग्रीवा मानो निद्रा में झुक गयी, उसका शरीर ढीला पड़ गया।

थोड़ी देर बाद सबने देखा, उसका शरीर लुढ़ककर एक ओर गिर गया है और अकड़ने लगा है...

उसके थोड़ी देर बाद ही रोगी ने मूर्च्छना से प्रलाप की अवस्था में आकर कहा, “मेरे चकोर?”

कुछ दिन बाद रोगी अच्छा हो गया। न जाने क्यों, तब तक वह एक चकोर से तुष्ट रहता, दूसरे का उसे ध्यान नहीं हुआ। किन्तु जब वह चारपाई से उठा, तभी उसने माँगा, “दूसरा चकोर कहाँ है?”

किसी को उसे बताने का साहस नहीं हुआ। थोड़े दिन बाद चकोरी भी चुपचाप वहाँ से हटा दी गयी, दे दी गयी।

उसे कभी-कभी याद आ जाता और वह पूछ बैठता, 'मेरे चकोर?' खिन्न भी हो जाता...किन्तु वह धीरे-धीरे उन्हें भूल गया, और उनके विषय में सत्य को भी जान गया...

शेखर के पास इसका कोई सन्तोषजनक हल नहीं है। और वह इसके बारे में कोई राय नहीं बना सका है। वह इतना ही जानता है, उसने कुछ सीखा और बड़ी गहरी स्वीकृति से सीखा। क्या सीखा, यह भी वह नहीं बता सकता। शायद विश्वास, शायद निष्ठा, शायद-पता नहीं क्या...

मरालों का क्या हुआ, उसे याद नहीं। शायद वे दे दिए गये, क्योंकि वे उन चकोरों के स्मारक थे...

वे पक्षी शेखर के जीवन से निकल गये। उसके बाद घर में और पक्षी भी नहीं लाये गये। किन्तु क्या शेखर के मन से भी वे निकल गये?

शेखर ने देखा, उसके संसार के अलावा एक और संसार है, जिसमें पक्षी रहते हैं, जिसमें स्वच्छन्दता है, जिसमें विश्वास है, जिसमें स्नेह हैं, जिसमें सोचने की या खेलने की अबाध स्वतन्त्रता है, जिसका एकमात्र नियम है, 'नही होओ जो कि तुम हो'...और यह संसार उसके लिए एक स्वर्ग, एक अत्यन्त वांछित स्वप्न हो गया, उसकी कुल यन्त्रणाओं से उन्मुक्ति का द्वार, उसके अकेलेपन में उसका सहारा।

इससे क्या कि उसकी सभी धारणाएँ झूठी थीं? इससे क्या कि उस दूसरे संसार में भी वे सब कठोरताएँ, वे सब उत्पीड़न, वे सब असत्य विद्यमान थे, जिनके कारण उसका मन पहले संसार से परे भागता था? इससे क्या कि जो वस्तुएँ पहले संसार में स्वप्न मात्र थीं, वे इस दूसरे संसार में स्वप्न का भी अस्तित्व नहीं रखती थीं, थीं ही नहीं? उसे


एक सहारा चाहिए था, और वह उसे इस काल्पनिक संसार से मिला, इसलिए यह कल्पना सच्ची है, सात्त्विक हैं, इसलिए वह संसार है और रहेगा...

एक दिन वह सन्ध्या समय एक बाग में गया। उस समय वह मानो पक्षियों से भर रहा था, और वे सब अनियन्त्रित वाणियों से अपने प्राणों का आह्लाद कर रहे थे-कितना मधुर आह्लाद! बालक ने पूछा, “क्या यही जंगल है?” क्योंकि उसने सुना था, पक्षियों का घर जंगल है। उत्तर मिला, 'नहीं, यह बाग है।'

'जंगल क्या होते हैं?'

'वे भी ऐसे ही होते हैं, बहुत बड़े-बड़े बाग से। पर जैसे इसमें पेड़ और फूल सजाकर लगाए हैं, ऐसे नहीं होते, अपने-आप उलटे-सीधे लगते हैं।' बालक ने सोचा, कितना उन्मुक्त होगा वह स्थान, जहाँ सब कुछ तो स्वतन्त्र होगा ही, ये पौधे भी स्वच्छन्दता से उग-फूल-फल सकेंगे...और तब उसकी कल्पना के स्वर्ग को एक मूर्त आकार भी मिला, और एक नाम भी मिला-जंगल...

और आज तक वन उसके लिए वह हैं, जो नगर कभी नहीं हुए, न होंगे...आज उसका वह पहला स्वप्न उस उच्च शिखर से उतर आया है, जंगल अब स्वर्ग नहीं रहे हैं, किन्तु उस वन-प्रेम को पुष्ट करनेवाली भी बहुत-सी बातें हुई हैं। और आज भी वह इस पिंजरे में बद्ध होकर वनों का ध्यान करता है, जहाँ...

उस तोते की तरह, वह भी पंख नहीं फड़फड़ाता कि पिंजरे से चोट न लगे। क्योंकि वह भी अनुभव से सीख चुका है कि चोट लगती है। पर क्या उसकी आत्मा भी बद्ध है, क्या उसके भी चोट लग सकती है, क्या वह भी पंख नहीं फड़फड़ा सकती?

वह आत्मा विचरती है अपने वनों में, जहाँ उसका स्वर्ग है, अबाध...

किन्तु वह सब उसके शिक्षण-स्वतःप्राप्त शिक्षण-का एक पहलू ही था, उसकी शिक्षा उससे कहीं विस्तृत क्षेत्र में हो रही थी। यों कहा जा सकता है कि यह उसकी शिक्षा का मूल था, वह अंश था जो कि भूमि के नीचे-अदृश्य रहता है। इसने उसके चरित्र को स्थायित्व दिया था, किन्तु उस चरित्र को बनानेवाली शिक्षा, उसकी शिक्षा का वह अंश, जो भूमि के ऊपर दृश्य होकर काम करता था, वह और था...पहली शिक्षा उसे स्थायित्व देती थी तो यह उसे गति देती थी, पहली ने उसमें गौरव जगाया तो दूसरी ने प्रवाह की दिशा इंगित की...

उसके खेल के साथियों में एक लड़की भी थी-जिसका नाम कोई नहीं जानता था-सब उसे फूलाँ कहकर संबोधन करते थे। वह उसके पड़ोस में रहनेवाली एक विधवा की लड़की थी। फूलाँ उसके सब खेलों में शामिल होती थी, और खेल-ही-खेल में वे दोनों एक-दूसरे के घर में भी प्रवेश कर जाते थे। उसमें बालकोचित पूर्ण स्वच्छन्दता थी...किन्तु एक दिन उसे घर से आज्ञा मिली कि वह यदि पड़ोसवाले घर में चला भी जाय, तो वहाँ कुछ खाए-पीए नहीं, कुछ भी ग्रहण न करे, क्योंकि वे छोटी जात के हैं-उसने पूछा (अभी उद्धतता से नहीं, केवल जिज्ञासावश) कि क्या और लोग भी उनके साथ नहीं खाते? तो उत्तर मिला, 'नहीं, अच्छी जात का कोई नहीं खाता!' 'तो फिर उनके साथ खेलते क्यों हैं, बोलते क्यों हैं?' तो उत्तर नहीं मिला। उसने फिर पूछा, तो उत्तर मिला, 'सिर मत खाओ।' तुम्हें जो कहा जाय, मान लिया करो, बहुत बातें मत बनाया करो।'

बालक चला गया। उस दिन से वह खेल में कुछ अलग-सा रहने लगा, विशेषतः जब फूलाँ उपस्थित होती थी। इसलिए नहीं कि वह विशेष आज्ञाकारी हो गया था, केवल इसलिए कि वह चाहता था, पहले कोई हल कर लिया जाय, किसी निश्चय पर पहुँच जाया जाय। और इसी के लिए वह खेल में भी (और विशेषतः खेल में क्योंकि उसी समय यह समस्या साकार होकर उसके आगे आती थी) सोचता रहता था...

इस समस्या का हल चार-पाँच हजार वर्ष में भी नहीं हो पाया है, किन्तु बालक के आत्मविश्वास के आगे चार-पाँच हजार वर्ष क्या चीज हैं? वह काल की गति पहचानता ही नहीं, उसके लिए केवल दो अवस्थाएँ हैं, प्रकाश और अन्धकार, जागृति और निद्राः इसलिए उसके वास्ते काल की गति का अस्तित्व ही नहीं है, उसके लिए हैं केवल प्रकाश और अन्धकार का संघर्ष...

उन दिनों तक वे घर के भीतर सोते थे। किन्तु तब से उन्होंने कोठे पर सोना आरम्भ कर दिया, क्योंकि गर्मी आ गयी थी। उनके कोठे के साथ ही सटा हुआ उस विधवा के घर का कोठा था, और बीच की दीवार भी अधिक ऊँची नहीं थी, अतः उसके ओर की बातें दूसरी ओर सुन पड़ती थीं। बालक जब सोने आता, तब कभी-कभी फूलाँ का खिलखिलाकर हँसना उस तक पहुँचता, और वह समस्या उसके आगे फिर आ जाती...कभी जब वह सुनता, फूलाँ की माँ उसे पुकारकर कहती है, 'फूलाँ, आ रोटी खा ले' तब उसे ऐसा जान पड़ता, वे अत्यन्त दुखी होकर खाने बैठे हैं, क्योंकि कोई उनके साथ खाने को तैयार नहीं होगा; उसे लगता, वे मानो छिपकर, चोरी से खा रहे हैं, क्योंकि वे किसी के सामने बैठकर खाने के हकदार नहीं हैं, वह सोचता, ये खाना खा कैसे सकती होंगी...

वह अक्सर सुनता, खाना खाने के बाद माँ-बेटी हँसती-खेलती थीं। और खेल में एक अंश यह भी था, कि कभी-कभी माँ बेटी से पूछती, “फूलाँ, हम लोग कौन हैं?” और उसके हँसने पर या 'पता नहीं।' कहने पर उसे समझाती “तू कह, हम-हैं।”

बालक ने एक दिन माँ से पूछा था, “-क्या होता है?” तो माँ ने उसे बताया था कि एक छोटी जात का नाम है, और फिर अँगूठे से साथवाले घर की ओर इशारा करके कहा था, 'ये लोग हैं न!' और उस दिन से बालक सोचा करता, यदि यह छोटी जात है, तो वे इसे छिपाते क्यों नहीं? क्या कारण है कि माँ अपनी बेटी को बार-बार याद दिलाती है? और, और माँ के स्वर में अभिमान भी होता है।

बालक के मन में यह प्रश्न ही रहा। वह दूर बैठे उस विधवा की पूजा तक करने लग गया, जो इस बात का अभिमान कर सकती है, फूलाँ भी उसके लिए एक पददलित देवी-सी हो गयी, किन्तु उसका उनके घर जाना नहीं हुआ। वह नित्य रात को उनकी हँसी सुनकर सोचता, मैं भी इनके खेल में शामिल हो सकूँ, किन्तु दिन में वह उस घर के बाहर ही रुक जाता और लौट आता, न जाने क्यों!

आज वह समझता है उस भाव को, आज वह उस भयंकर यन्त्रणा का भी कुछ अनुमान कर सकता है, जिसे भोग चुकने के बाद ही उस विधवा माँ ने एक स्वरक्षात्मक अस्त्र की तरह यह अधिमान प्राणों में भरा होगा, वह यह भी समझ सकता है कि किस दृप्त अवमानना के भाव से वह फूलाँ को भी यह अभिमान करना सिखाती होगी-आज जब वह जानता है कि इस प्रकार यह समस्या दूर नहीं हो सकती, यह अभिमान अनुचित है, किन्तु यह जानकर भी उसकी विवशता से सहानुभूति और समवेदना का अनुभव करता है। आज वह समझता है कि कैसे यहूदी लोग संसार की सबसे अपमानित और प्रपीड़ित जाति होकर, उसी अपमान और प्रपीड़न से अपनी जीवन शक्ति पाते हैं, अवज्ञा से भरकर झुकते हैं, और नष्ट नहीं होते...किन्तु आज जो फल वह ज्ञान के वृक्ष से तोड़ रहा है, उसका विष-बीज वहीं बोया गया था, उसी दिन...

उसके बहुत दिन बाद की-बीस वर्ष बाद की-एक बात मुझे याद आती है। उन दिनों जब मैं भागा फिरता था आत्मरक्षा के लिए। एक दिन, ज्येष्ठ की कड़ाके की धूप में, मैं और एक और व्यक्ति बीस मील चलकर आये थे। प्यास बहुत लगी थी; पानी कहीं दीख नहीं पड़ता था। हम सड़क पर चुपचाप चले जा रहे थे।

एकाएक हमें सामने से आता हुआ एक व्यक्ति दिखाई दिया। मैंने उससे पूछा, “क्यों भाई, यहाँ कहीं पानी मिलेगा?”

“यहाँ पास तो नहीं; वह उधर नदी है, वहाँ होगा।”

“कितनी दूर?”

“यही कोई तीन-एक मील है-”

मुझे एक विचार आया, मैंने पूछा, “तुम कहाँ रहते हो?”

उसने एक ओर इशारा करके कहा, “वहाँ पास ही मेरा घर है-उस झुरमुट के पीछे।”

“तो, वहाँ तो पानी होगा?”

“नहीं जी।”

“ऐं? घर में पानी नहीं होगा? तो तुम्हारा काम कैसे चलता है?”

वह चुप।

मैंने फिर कहा, “चलो, पानी पिला दो न? बहुत प्यासे हैं।”

वह फिर चुप।

मैंने कहा, “तुम नहीं आते तो न सही। हम वहीं माँग लेंगे। वहाँ कोई है?”

वह फिर भी चुप। किन्तु थोड़ी देर बाद बोला, “बाबूजी, आप कौन जात हैं?”

“हम जात-पाँत तो मानते नहीं, पर वैसे अगर तुम्हें कोई डर है, तो हैं हम ब्राह्मण ही; तुम्हारे बर्तन भ्रष्ट नहीं होंगे।”

“नहीं, यह बात नहीं”, कहकर वह चुप रहा, फिर बोला, “आप आगे ही जाकर पी लीजिएगा।”

हमें कुछ आशा हुई थी; मिट्टी में मिल गयी। मैंने कहा, “आखिर तुम क्यों नहीं पिलाते?”

तब उसने विवश होकर उत्तर दिया; “बाबूजी हम छोटी जात के हैं...”

मैं एकाएक हँस पड़ा। “बस, यही बात थी? हम जात नहीं मानते, तुम हमारे बराबर हो-”

“नहीं बाबूजी, ऐसा नहीं हो सकता-”

“अच्छा, तुम नहीं पिलाओगे तो हम खुद पी लेंगे। बताओ, रास्ता किधर से है?”

“नहीं बाबूजी, यह-”

मेरे साथी को कुछ क्रोध आ गया-शायद प्यास बहुत अधिक थी। वह बोला, “कैसा आदमी है। दिन भर तो मैला ढोता होगा; अब इतनी अकड़ कि पानी नहीं पिलाएगा?”

मैं उसे रोकने ही को था, कि वह व्यक्ति एकाएक तनकर बोला, “बाबूजी, आप हमें जो चाहें समझें, हमारे काम को बुरा मत कहें। हम ईमान का पैसा खाते हैं...”

मैंने सोचा, एक साथ ही इतनी दीन विनय और इतना अभिमान। और मैंने सोचा कि यह उचित ही है...

हमें पानी नहीं ही मिला। हम आगे चल पड़े...

पर यदि सर्वत्र ऐसा ही होता, तो भी कुछ बात थी। मैं जानता हूँ कि यह नहीं है; कई जगह ऐसी अवज्ञा, यह आत्माभिमान नहीं है। वहाँ है केवल दैन्य, सम्पूर्ण दासत्व। वहाँ माता-पिता अपने बच्चों को बोध कराते हैं, अवज्ञा के लिए नहीं, स्वीकृति के लिए, झुकना सिखाते हैं, अभिमान से नहीं, दासत्व-भाव से। आत्माएँ इस सम्बन्ध में इस तरह जकड़ी गयी हैं कि वे स्वयं नहीं जानते, वे किस शृंखला में बँधे हैं, और स्वयं उसकी कड़ियाँ पक्की करने में सहायक होते हैं...

वह अभिमान-भरी अवज्ञा इस समस्या का सर्वोत्तम हल तो नहीं है, किन्तु एक हल अवश्य है, निश्चित और स्वाभाविक भी...

एक और पाठ।

उनके घर में कोई रसोइया नहीं था; यद्यपि एक की खोज बहुत दिनों से हो रही थी।

एक दिन एक आदमी आया और पूछने लगा कि रसोइया तो दरकार नहीं है?

पूछताछ के बाद उसे नौकर रख लिया गया।

शेखर और उसके भाई, रसोईघर में नया विधान देखने गये। देखा कि चौका-चूल्हा सब धोया गया है; और महाराज ने चूल्हे के पास बैठकर, अपने हाथ भर दूर चूने से एक लकीर खींच दी है। इस लकीर के भीतर जो बर्तन भी जाता है, पुनः धुलकर; और महाराज जब उसके बाहर आते हैं तब भीतर जाते पुनः धुलकर; और महाराज जब उसके बाहर आते हैं तब भीतर जाते पुनः पैर धोते हैं, और एक पैर से उछलकर भीतर जाते हैं; ताकि बाहर की छूत भीतर न लग जाय। और महाराज थोड़ी-थोड़ी देर बाद बालकों से कहते, “इधर मत आना। इधर मत आना...”

बालक देख-भालकर चले गये। बाहर जाकर उन्होंने एक लकीर खींची, और जैसे महाराज को करते देखा था, वैसे ही एक पैर पर उछलकर उसे पार करने लगे और हँसने लगे...

खैर। जब भोजन का समय हुआ, तब एक मुश्किल पेश हुई। अगर परोसने के लिए महाराज आते हैं तब उन्हें मिनट में दस बार पैर धोने पड़ेंगे, और मिनट भर तो पैर धोते ही लग जाता है, तब रोटी बेलेगा कौन, चुपड़ेगा कौन, खिलाएगा कौन-निश्चय हुआ कि महाराज बाहर न आवें, एक भाई ही परोसे और खिलाए। पर जो पात्र वह बार बाहर आ जाय, वह फिर भीतर तो जा नहीं सकता! जब पाँच-सात पात्र इस प्रकार 'भ्रष्ट' हो गये, तब बालक को शरारत सूझी। उसने अपने हाथ का पात्र लकीर के पार रख दिया-

“हैं, हैं, यह क्या किया, सारी रसोई भ्रष्ट कर दी!” कहकर महाराज उछल पड़े। बालक हँस पड़ा...

शिकायत हुई। फिर फैसला हुआ कि महाराज सबको खिलाकर अपनी रसोई फिर करेंगे।

जब सब खा-पी चुके, तब फिर चौका हुआ, महाराज नहाये और अपने लिए खाना पकाने लगे।

बालक फिर गया। एक बर्तन उठाकर उसने लकीर के बाहर ही रखा, और उसे भीतर धकेलते हुए बोला, “महाराज, थोड़ा नमक-मिर्च इसमें रख देना-”

फिर शिकायत हुई। बालक से पूछा गया, तो बोला, “मैंने चौके के भीतर बर्तन नहीं रखा, बाहर ही रखकर धकेल दिया था-चौका कैसे जूठा हुआ-”

महाराज ने निश्चय किया, तीसरी बार खाना पकेगा। तब दो बज चुके थे। माँ ने कहा, तीन बजे चाय तैयार होनी चाहिए। और चाय के साथ-इत्यादि।

महाराज ने एक लम्बी साँस ली।

शाम को महाराज ने पहले अपने लिए खाना पकाया। जब खा चुके, तब पिता से बोले, 'बाबू साहब, हमसे यह नौकरी नहीं निभेगी' और चले गये।

सब लोगों ने भी मुक्ति की एक लम्बी सांस ली। महाराज चले गये।

लाहे या सोना भी-एक चोट से नहीं बनता। उस पर कई चोटें होती हैं, चोट-पर-चोट, चोट-पर-चोट...

वैसे ही शिक्षण है। एक या दो चोट में नहीं हो जाता, असंख्य चोटें खोती हैं। किन्तु उनमें इतना विभेद नहीं होता, वे एक ही चोट की पुनरावृत्ति मात्र होती हैं...

केवल, कभी जब धातु का आकार टेढ़ा हो जाता है, तब उसे आड़ी-तिरछी चोट भी दे दी जाती है। बस सारा निर्माण, सारा शिक्षण, इन्हीं दो-तीन प्रकार की चोटों का बना होता है, उनकी असंख्य आवृत्ति में। और उन्हीं दो-तीन प्रकार की चोटों को देखकर सारी क्रिया का अनुमान हो सकता है...

एक तीसरा पाठ भी है...

गोमती में बाढ़ आई हुई थी-बहुत बाढ़...

शेखर अपने पिता के साथ घूमने निकला है। घूमने, यानी एक छोटी-सी नाव में बैठकर, उसे बाँसों से निकलवाकर इधर-उधर फिरने, क्योंकि सड़कों तक पर दो-दो हाथ पानी आया हुआ है, रास्ते बन्द हैं-या अगर खुले हैं तो सिर्फ नावों के लिए।

नाव बड़ी-बड़ी सड़कों पर हो आयी है। वहाँ पर तो ऐसी रौनक लग रही है, मानो वेनिस का एक छोटा-सा संस्करण भारत में आ गया हो, क्योंकि नावों में व्यापारी लोग अनेक प्रकार के खाद्य-अनाज, शाक, तरकारी, फल इत्यादि-बेचते फिर रहे हैं; कोई-कोई पुस्तक और अखबार की फेरी दे रहा है, बाढ़ के फोटो और-हाँ, खिलौने तक बिक रहे हैं-नावें घरों के दरवाजों पर ऐसी जा लगती हैं, मानो घाट पर लगी हों और व्यापारी लोग अपने माल का नाम, दाम पुकारते हैं...

पर वह था बड़ी-बड़ी सड़कों पर, जिन्हें वे पार कर आये हैं। अब वे जा रहे हैं शहर के निर्धन अंश में-देखने के लिए। यह अंश बाकी नगर से नीचा है। (होना ही था), इसलिए इसमें अधिक पानी भरा हुआ है, और नाव मजे में चलती है। मजे में! वह मजा! इधर की गलियाँ बिलकुल सुनसान हैं, और दुर्गन्धमयी और अधिकांश घरों पर मातम-सा छाया हुआ है-यदि उसके मौन को कोई भंग करता है तो किसी बच्चे के रोने का स्वर ही...वह अपने पिता से पूछता है, “वे बेचनेवाले इधर क्यों नहीं आते?”

“इधर क्या करने आयें? यहाँ कुछ बिक्री नहीं होती।”

“क्यों?”

“ये गरीब लोग हैं, खरीद नहीं सकते।”

बालक दयाभाव से भरकर उन बेचारे बच्चों की बात सोचता है, जिनके माता-पिता 'गरीब लोग' हैं और उनके लिए खिलौनें नहीं खरीद सकते और न फल।

बालक पूछता है, “इनके बच्चे खेलते कहाँ होंगे?”

“नहीं खेलते।”

“क्यों?”

“...”

क्या उत्तर दें कि शरीर में इतनी शक्ति ही नहीं है कि खेल सकें? ये वे हैं, जो खेलते नहीं, जो स्वर्ग खिलौने हैं, जिनसे विधि खेलती हैं।

इन्हें स्मृतियाँ कहना 'स्मृति' के अर्थ को कुछ खींचना ही है। क्योंकि ये सब मुझे ठीक इस रूप में याद नहीं है, बल्कि इनके तथ्य याद ही नहीं है; जब मैं भूत की ओर देखता हूँ, तब वे चित्रों के रूप में मेरे सामने नहीं आते। मुझे याद आते हैं केवल वे भाव जो मैंने अनुभव किये हैं, यह विशेष मनःस्थिति जिसे लेकर मैं किसी दृश्य में कभी भागी हुआ था। और ये जो चित्र मैं खीचता हूँ, ये उन्हीं मनःस्थितियों को लेकर उन पर निर्मित हुए छायापट मात्र हैं। यदि ये स्मृतियाँ हैं तो मन को स्वतन्त्र स्मृतियाँ हैं, वैसी स्मृतियाँ नहीं, जिनकी मूल छाप बिठाने के लिए आँखें साधन हुई होती हैं...

किन्तु, शिक्षा क्या है? चित्रों का अनुक्रम नहीं। वह भावों का अनुक्रम है-उन भावों का जो उत्तरोत्तर उन्नति पाते जाते हैं, अधिक विस्तीर्ण और गहन होते जाते हैं, और जिनके ऊपर ही चित्रों का आश्रय होता है। वे चित्र एक तरह से भावों की समाधियाँ मात्र हैं, और जीवन ऐसी समाधियों का विस्तीर्ण क्षेत्र...

स्थिरता और सामर्थ्य।

उसकी शिक्षा में ये दोनों कहाँ से आयीं यह तो दीखता है। किन्तु वह पाता है कि उसमें एक और भी गुण है, एक गति, एक प्रेरणा, एक सशक्त आकर्षण-वह कहाँ से आया?

वह समझता है, वह कुछ है। विकास गति का एक बुलबुला है, क्षण-भंगुर है पर फिर भी कुछ स्वतन्त्र, कुछ गतिमान, कुछ प्रेरक, कुछ उत्कर्षपूर्ण, कुछ अमर है। क्या?

यह एक विचित्र बात है कि जो घटनाएँ या विचार जीवन का पथनिर्देश करते हैं, उसे किसी एक दिशा की ओर प्रेरित करके उसके भविष्यत् मार्ग का अमिट निर्णय कर देते हैं, वे घटनाएँ या विचार स्वयं अत्यन्त उलझे हुए और अस्पष्ट होते हैं, उनकी मूल प्रेरणा का, उनका निर्देश करनेवाली शक्ति का कोई पता नहीं लगता।

इसी तरह मैं जब विचार करता हूँ कि मैंने यह निरन्तर ऊर्ध्वमुखी प्रेरणा कहाँ से पायी-कि वह क्या है जो सदा मेरी जीवन-गति को निर्दिष्ट करता रहा, उसका उत्कर्षण करता रहा, किसी ऐसे शिखर की ओर, जो पाया नहीं जा सकता, जो कल्पना में दिखता नहीं, उच्चतम बादलों के ऊपर कहीं छिपा रहता है-तब उत्तर स्पष्ट नहीं मिलता...

दीखते हैं, अनेक असम्बद्ध चित्र...।

पिछली कुछ-एक घटनाओं ने शेखर को कुछ विचलित कर दिया था, उसके जो कुछ एक स्थिर विश्वास थे, उसकी जो निष्ठाएँ थीं, वे टूट-सी गयी थीं। उसे अब सब ओर सब कुछ मिथ्या-सा लगने लगा था। वह अपने को किसी वस्तु में इस डर से आसक्त नहीं कर पाता था कि यह भी झूठ न निकले, हाथ से फिसल जाय! और इसी कारण वह कुछ अलग-अलग रहने लगा था, अलग ही घूमने जाता था।

इस समय के जितने भी चित्र उसे याद आते हैं, उनकी मुख्य उल्लेखनीय बात है उनकी शान्ति। सम्भवतः इन दिनों वह शान्ति की इतनी उग्र खोज में था कि जहाँ वह प्राप्त हुई, चाहे क्षण भर के लिए ही, वही स्थल उसकी स्मृति में बैठ गया। इसलिए उस समय की स्मृतियाँ बड़ी सुखद हैं...

गोमती का तट। सन्ध्या। शेखर अकेला धीरे-धीरे टहल रहा है, पेड़ों की ओर देखता हुआ। कुछ पेड़ों पर पीली-सी आकाशबेल के जाल-के-जाल, ढेर-के-ढेर पड़े हुए हैं, उन्हीं को देखता हुआ, और यह सोचता हुआ कि इन्हीं को क्यों यह अधिकार प्राप्त हुआ कि इनको उत्पत्ति भूमि से न हो, पैर भूमि न टिकें, ये सदा ऊँची रहकर ही, दूसरों के सहारे पृथ्वी से अपना जीवन-रस खींचा करें। पर वह बहुत देर तक यह नहीं सोच सकता, उसका मन हटकर गोमती की लहरों पर काँपते हुए ताम्रवर्ण प्रकाश की ओर जाता है और वहीं रह जाता है। उसे लगता है कि उस प्रकाश में कुछ है जो उसे बुलाता है, खींचता है, सुख देता है, पर वह उसे नाम नहीं दे पाता, 'सौन्दर्य' शब्द उसके क्षेत्र में अभी तक नहीं आया है...

लखनऊ की बारादरी में शेखर अकेला बैठा है।

एक अत्यन्त सुन्दर घोड़ा तीव्र गति से दौड़ता हुआ उसके सामने से जाता है। उसकी गति में कहीं चेष्टा नहीं है, कहीं रुकावट नहीं है, मानो कहीं भी इच्छा की प्रेरणा ही नहीं है, वह स्वतः सम्पूर्ण, सुन्दर, अच्छे संगीत की तरह ताल-विशिष्ट एक गति है।

शेखर एकाएक खड़ा हो जाता है। यह एक नयी बात थी उसके जीवन में-और वह विद्युत की तरह उसके मन में तड़प गयी...

Rhythm... लय...

वह फिर बैठ गया। आकाश की तरह शान्त, पहाड़ी झील की तरह स्वच्छ।

शायद तभी से, यह जीवन सर्वत्र उस वस्तु को खोजने लगा। और शायद उसने उसे पाया भी; क्योंकि बहुत वर्षों बाद, अपने जीवन के घोरतम अन्धकारमय दिनों में भी, जब वह अपने सब ओर के विरोधों से त्रस्त हो उठता, तब एकाएक कोई आलोक-किरण उस अन्धकार को चीर जाती और वे सब वैपरीत्य, उलझनें इस हद तक हल हो जातीं कि एक ही महान् एकत्व के विभिन्न अंग जान पड़ने लगतीं...

एक दिन शेखर के पिता उसे अजायबघर में ले गये और जिस कमरे में मूर्तियाँ रखी थीं, वहाँ पहुँचाकर अपने काम पर चले गये।

शेखर कुछ सहमा हुआ इधर-उधर देखने लगा। उसके सभी ओर मूर्तियाँ थीं, कुछ साबुत, कुछ टूटी, कुछ शरीर-हीन सिर, कुछ सिर-हीन शरीर, कुछ काली, कुछ श्वेत, कुछ पत्थर की, कुछ मिट्टी की, कुछ चमचमाती हुई धातु की, कुछ जंग से खायी हुई।

शेखर की दृष्टि एक प्रतिमा पर जाकर ठिठक गयी।

यों कहें कि प्रतिमा के पैरों पर ठिठक गयी, क्योंकि वह प्रतिमा बहुत बड़ी थी और शेखर की आँखों के तल पर उसके पैर ही आरम्भ होते थे।

शेखर धीरे-धीरे दृष्टि उठाता गया। वह छत तक पहुँच गयी, जहाँ मूर्ति का सिर था।

शेखर ने फिर उसे ऊपर से नीचे तक देखा। पैरों के नीचे लगी हुई लकड़ी की तख्ती तक, जिस पर बड़े अक्षरों में लिखा था, 'महावीर जिन।'

शेखर के मन में किसी भाव ने जागर कहा, “मूर्ति बिलकुल नंगी है।”

वह नंगी थी। शेखर नहीं समझ सका कि कैसे उसकी विशाल, भीमकाय, प्रकांड नग्नता का चित्रण करते, उसे गढ़ते समय मूर्तिकार का हाथ नहीं काँपा, उसकी कल्पना नहीं लज्जित हुई। नग्नता का सत्य, सत्य की तरह नंगा, उसके जगत् में नहीं था, आने नहीं दिया गया था; उसके लिए नग्नता झूठी थी, भद्दी थी, अवांछनीय और अदर्शनीय थी। किन्तु, या इसीलिए वह स्थिर अकम्प दृष्टि से उसे देखता रहा, बहुत देर तक देखता रहा।

मानो उसके मन ने उस नग्नता को स्वीकार कर लिया, वह उसकी दृष्टि में अत्याज्य, अनस्वाभाविक, सुन्दर हो उठी!

वह धीरे-धीरे लौट पड़ा। शान्ति की मधुर, शीतल साँस मानो उसके मन पर एक हल्का-सा परिमल बिखेर गयी।

कुछ ही दिन बाद, जब उसके पिता सारनाथ गये और बौद्ध-बिहार में ठहरे, तब वह अवसर पाकर चोरी से निकला और एक बड़े पोखर के किनारे से होता हुआ सारनाथ के अजायबघर की ओर बढ़ता चला। पोखर में कुछ लोग सिंघाड़े बटोर रहे थे, किनारे कर या कीच में कुछ अधनंगे लड़के शोर मचा रहे थे; उनकी ओर उसने आँख उठाकर देखा भी नहीं। किसी समय जो दृश्य आह्लादमयी आत्मविस्मृति में डुबा देता, वह आज उसके लिए देखने की वस्तु ही नहीं रही, क्योंकि वह अजायबघर की ओर जा रहा था-

सारनाथ के अजायबघर को बहुत कम लोग देखने आते थे। और जिस समय शेखर वहाँ पहुँचा, उस समय उसके बन्द होने का समय भी था।

शेखर ने देखा, दरवाजे पर या चरखड़ी के पास, कोई चपरासी नहीं था। वह चुपचाप चरखड़ी के नीचे से होकर भीतर हो लिया।

दायीं ओर मूर्तियाँ पड़ी थीं। शेखर कुछ देर उन्हीं की ओर देखता घूमता रहा, फिर तारा की एक मूर्ति की चौड़ी पीठिका पर बैठ गया है।

एकाएक उसे लगा, वहाँ एक अनभ्यस्त नीरवता छायी हुई है। इतनी अधिक कि वह ध्यान देकर सुनने लगा-कहीं कोई तनिक-सा भी शब्द हो; पर नहीं। वह अखंड थी।

वह जल्दी से उठा और बाहर की ओर गया।

द्वार बन्द था, अजायबघर के भीतर वह अकेला था। वह धीरे-धीरे लौट आया। आकर फिर उसी स्थान पर बैठ गया।

जब हम साथ चाहते हैं, ध्वनि चाहते हैं, तब नीरवता हमें खटकती है; हम उसे सुनते हैं, और वह हमें बोलती हुई जान पड़ती है, उस शब्द से बोलती हुई जान पड़ती है, जिसके लिए प्राचीन काल में किसी मनस्तत्वविद साहित्यकार ने 'साँय-साँय करना' वाक्य प्रयुक्त किया था। शेखर को यह नहीं जान पड़ता कि वहाँ की नीरवता साँय-साँय कर रही है, उसे काटने को आ रही है। मैं रात भर बन्द रहूँगा, भोजन नहीं मिलेगा, सो नहीं सकूँगा, पिता ढूँढ़ते फिरेंगे, ये सब चिन्ताएँ उसके मन में आयी ही नहीं, वह एक भव्य, सुन्दर आनन्दमयी विह्वल शान्तियुक्त, आत्मविस्मृत स्वीकृति में बैठा रहा, बैठा रहा, बैठा रह गया...

अब कभी वह उस क्षण का चिन्तन करता है, तो सहम-सा जाता है, इतनी व्यापक थी वह शान्ति, वह नीरवता। पर उस समय उसे कुछ भी विचित्र नहीं लगा, विचित्र लगा एक किवाड़ खुलने के शब्द द्वारा उस शान्ति का खंडन...एक शब्द जिसमें वह विश्वास ही न कर सका, इतनी दूर चला गया था वह!-विचित्र लगी उसके नाम की पुकार-'शेखर!'

वह चौंककर उठ बैठा, और जल्दी से उस तारा की मूर्ति से परे हट गया। उसे यह असह्य जान पड़ा कि लोग यह भी जान पाएँ कि वह कहाँ था, इतनी देर कहाँ रहा, क्या करता रहा; उसे लगा कि यदि लोग जान जाएँगे कि वह किस विशेष स्थान पर बैठा था तो वह लज्जा से डूब मरेगा...

बुद्ध ने जिस स्थान पर बैठे-बैठे दिव्य ज्ञान पाया था, वह उनकी दृष्टि में वैसा ही पवित्र, संसार की दृष्टि से गोपनीय हो गया होगा...

उससे पूछा गया कि वह कैसे वहाँ आया, क्या करता रहा-क्यों, क्यों, कब-प्रश्न जो सदा पूछे जाते हैं, किन्तु उसका उत्तर कुछ महत्व नहीं रखता-सिवाय इसके कि जैसे वे प्रश्न अनिवार्य होते हैं, वैसे ही उनके उत्तर भी सदा एकरूप होते हैं!

शेखर का लज्जित मौन ही उसका उत्तर था।

जब वह अपने आपसे कहता है कि उसमें विश्व-शान्ति का, विश्वात्मा का, एक अंश है, तब क्या वह झूठ बोलता है, अपने आपको धोखा देता है?

उसके चारों ओर दुःख है, दारिद्र्य है; पीड़ा, रोग, मृत्यु, सब कुछ है। देश-विदेश के धर्म के ठेकेदारों ने अपनी कुल आविष्कार-शक्ति को खर्च करके नरक में ज़िन बुरी-से-बुरी और भयंकर-से-भयंकर यातनाओं का सृजन किया है, वे सभी संसार में, उसके संसार में मौजूद हैं, और वह उन्हें स्वीकार नहीं करता, उनके विरुद्ध विद्रोह करता है, लड़ता है। किन्तु क्या वह इसलिए नहीं कि उसकी आत्मा ऐसे किसी स्थान को देख या अनुभव कर सकती है, जिसमें ये सब कुछ नहीं है, कि उसकी आत्मा एक पारलौकिक शान्ति की झलक पा चुकी हैं, इस नरक में रहकर भी एकात्म है, उस नरक से नहीं बल्कि उस विश्वशान्ति से?

धोखा? एक धोखा क्या एक समूची जीवनी को, एक समूचे संघ को अनुप्राणित कर सकता है? धोखे में क्या शक्ति हो सकती है? धोखे के लिए मर सकते हैं, किन्तु क्या धोखे के लिए जिया भी जा सकता है?

लोग कहते हैं, विद्रोही के विचार संकुचित हैं, उसका मस्तिष्क कमजोर हैं, उसका हृदय टेढ़ा है। लोग यह भी कहते हैं कि उसके स्वप्न छूँछे, आदर्शवादी, असम्भव हैं। यह सब शायद ठीक है। लेकिन वह पतितों और असहायों को समानता की दृष्टि से देख सकता है, उसका हृदय गिरे हुओं को उठा सकता है, उसका मस्तिष्क एक समूचे राष्ट्र को चला सकता है। और अपने स्वप्नों के लिए सच्चाई और दृढ़ता के साथ लड़ सकता है, और उसके स्वप्न सच्चे भी हो जाते हैं।

क्या वह भी धोखा है?

मैं अपने आपको एक पाँच वर्ष के बालक के रूप में देखता हूँ, जो केवल एक नीला निकर पहने हुए नंगे पैर घास पर भागा जा रहा है। बालक ने अपने कन्धे पर बहुत-से कमल लादे हुए हैं, कुछ खिले हुए, कुछ अधखिले, कुछ अभी बन्द। जिस पथ पर वह चला जा रहा है, वह चिनार वृक्षों की छाया में होता हुआ जाता है और खिले हुए पत्तों और चिनार के फूलों से प्रायः बिलकुल ढका हुआ है। कहीं-कहीं किसी अँधेरे और ठंडे कोने में रोएँदार पत्तोंवाली बिच्छू-बूटी लग रही है, जिसके बालक डरता नहीं, क्योंकि वह उसका इलाज भी जानता है।

यह दृश्य मेरी दृष्टि के सामने बिलकुल साफ है, फिर भी मैं इसे ठीक स्थान पर नहीं रख पाता-जीवन-क्रम में इसका कोना मुझे याद नहीं आता। बात अवश्य काश्मीर की है, लेकिन यह मुझे समझ नहीं आता कि यह क्यों स्मृति के पट पर इतने गहरे अक्षरों से लिखी है, विशेषतः जब कि इसका न कोई कारण याद आता है, न कोई फल।

शेखर के पिता की बदली एकाएकी हो गयी थी, और वे एक दिन अपना कुछ फालतू सामान नीलाम करके, दोस्तों से विदा लेकर सकुटुम्ब वहाँ पहुँच गये थे, और जेहलम के किनारे एक बँगला लेकर वहाँ रहने लगे थे। महासमर के दिनों की बात है, जब महँगी बहुत थी, लेकिन मकान-कोठियाँ सस्ती हो गयी थीं।

शेखर लगभग छः वर्ष का था, जब उसने निश्चय किया कि अब समय आ गया है कि वह एक पुस्तक लिखे और प्रसिद्धि प्राप्त करे।

वह जानता था कि उसके पिता पुस्तक लिखते हैं। एक दिन उसने पिता से पूछा था कि वह पन्ने-पर-पन्ने क्यों लिखते जाते हैं, तब उन्होंने बताया था कि वे एक पुस्तक लिख रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया था कि वे उसमें एक चित्र भी रखेंगे, और यह भी कि एक प्रेस में कागज मशीन में डालकर घुमाए जाएँगे जिससे एक पुस्तक की सैकड़ों-हजारों पुस्तकें बन जाएँगी और प्रत्येक में वैसे ही चित्र होंगे। यह सब उसके लिए ऐसी अद्भुत बात थी कि उसने भी एक चित्र-भरी पुस्तक लिखने का निश्चय किया था।

लेकिन चित्र आये कहाँ से? पिता की सहायता वह माँगना नहीं चाहता था, उसे डर था कि वे ईर्ष्यावश विघ्न न डालें। तभी सोचते-सोचते यह विचार आया-फूल! उसने स्थान-स्थान से फूल एकत्र किये उन्हें पुस्तकों में दबाकर सुखाया। अपने माली से उनके नाम पूछे। इस प्रकार सामग्री तैयार कर लेने के बाद, उसने पुस्तक आरम्भ करने की ठानी।

पहली कठिनाई हुई कागज की। एक दिन जब पिता दफ्तर गये हुए थे, तब उसने उनकी चाभी चुराकर मेज का दराज खोला, और उसमें से पिता के चिट्ठी लिखने के सबसे अच्छे कागज निकाले, कार्ड-से मोटे, चिकने, चमकदार, और कोने में लाल सरकारी चिह्न 'शेर-गढ़ी' से विभूषित। शेखर ने देखा कि चित्रों के लिए सभी पुस्तकों में मोटा और चिकना कागज लगता है।

बीस एक कागज लेकर, शेखर ने अपनी बहिन से उन्हें सिलवा लिया। बहिन प्रत्येक आयोजन में उसकी सचिव और संगिनी थी-यद्यपि कॉपी सीने की मजदूरी में उसने पाँच कागज स्वयं ले लिए। अब शेखर को अपनी पुस्तक की जिल्द की चिन्ता हुई और इसका जो हल उसने निकाला, वह इतना साहसिक था कि उसने अपने धड़कते हुए हृदय को सम्भालकर, पुस्तक की आलमारी में से सुनहरी चमड़े की जिल्दवाली बाइबिल निकाली, एक ही झटके में जिल्द को पुस्तक से अलग किया, पुस्तक को रसोई के पीछे कूड़े के ढेर में छिपाया और जिल्द के अन्दर अपनी कॉपी रख ली। यह सब क्षण भर में हो गया।

शाम को जब सब लोग लौटे, तब उसे एकान्त में पाते ही उसकी बहिन ने पहला प्रश्न किया, 'आज क्या किया!' और शेखर की दोषी आत्मा ने उसे सब कह डाला-छिपाने का साहस उसने नहीं पाया। तब अपना रहस्य सुरक्षित रखने के लिए शेखर को दूसरे दिन की अपने हिस्से की मिठाई का भी त्याग करना पड़ा और इस सौदे में उसने बहिन से कॉपी भी जिल्द के अन्दर सिलाकर फिट कर ली।

दूसरे दिन भाई और बहिन पुस्तक लिखने बैठे। शेखर ने गोंद से प्रत्येक पन्ने पर अलग-अलग फूल चिपका दिये। बहिन अपनी वनस्पति विज्ञान की पुस्तक लायी और शेखर उसे देखकर, उसी ढंग से फूलों का वर्णन करने लगा-पहले फूलों के रंग-रूप का वर्णन, फिर उनके उपयोग, फिर-लेकिन यह क्या चीज है?

बहिन ने कहा, “हमें नहीं मालूम। स्कूल में यह नहीं पढ़ाते-छोड़ जाते हैं।”

शेखर ने जाकर पिता से पूछा, 'habitat' किसे कहते हैं?

"habitat का मतलब है जहाँ कोई चीज रहे या पायी जाय। क्यों?”

“कुछ नहीं-बहिन ने पूछने को भेजा है”, कहकर सकपकाया हुआ शेखर भाग गया। पीछे से पिता का स्वर आया, “वह खुद क्यों नहीं पूछने आती?”

शेखर ने लगभग एक महीने के परिश्रम के बाद पुस्तक तैयार कर पायी। जब उसकी बहिन ने उसे देखकर पास कर दिया, तब शेखर ने निश्चय किया कि वह भी अपनी पुस्तक को प्रेस में घुमाकर सैकड़ों बनवाएगा। इसीलिए एक दिन जब उसके पिता विशेष प्रसन्न जान पड़ते थे, तब उसने जाकर अपनी पुस्तक उनके हाथ में रख दी।

लेकिन तत्क्षण ही शरमाकर वह भाग गया। केवल इतना-भर देख पाया कि पिता की त्यौरियाँ बदल गयीं, फिर उन्होंने पुस्तक खोली।

कुछ ही मिनट में शरम और डर पर कुतूहल ने विजय पायी। पिता और माता की ठठाकर गूँजती हुई हँसी सुनकर वह लौट आया और देखने लगा, उसे देखते ही पिता की हँसी दुगुनी हो उठी। उन्होंने कमर से पकड़कर उसे उठा लिया और बोले, “इतना मैं बरसों से नहीं हँसा होऊँगा। गजब की किताब है तुम्हारी!”

शेखर कुछ घबरा-सा गया, क्योंकि उसे ठीक समझ नहीं आया कि यह प्रशंसा है या और कुछ! अपने जाने वह एकदम प्रशंसा का पात्र था-क्योंकि पुस्तक बड़े सुन्दर अक्षरों में लिखी गयी है, और चित्र कितने सुन्दर हैं, और इनके नाम लाल रंग से लिखे गये हैं...'फूशिया' और 'आयरिस' का भला इसे बढ़कर क्या वर्णन होगा-

Fushia Vylet flower with fore red small leaves very kashmiri girls put it in their hair. Nurse Zinnia puts it in her ears to dance in the kitchen.

Habitat, Shalmar gardens and Chashma Shahi.

(फूशिया-छोटी लाल पत्तियोंवाला बैंगनी रंग का फूल बहुत सुन्दर, काश्मीरी लड़कियाँ बालों में लगाती हैं। जिनिया आया कानों में पहनकर रसोईघर में नाचती है। पैदाइश शालामार बाग और चश्मागाही।)

Iris, very beautiful some are below blue some red some white. There is a yellow stik inside the flower.

Habitat, Mr. Chatterji' house neart gupkar the best were in our house but the flood took them away

(आयरिस-बड़े सुन्दर, कुछ नीले होते हैं, कुछ लाल और कुछ सफेद, फूल के अन्दर एक पीली डंडी होती है।

पैदाइश गुपकार के पास मिस्टर चटर्जी के घर में-सबसे अच्छे हमारे घर में होते थे, पर बाढ़ में बह गये।)

लेकिन जाने क्यों, वह किसी को भी हँसने लायक से अधिक पसन्द नहीं आयी। शेखर का जी बैठ गया, और पिता के अनुग्रह-भरे वाक्य, “कुछ परवाह नहीं बेटा, अबकी बार अच्छी लिख लागे; लेकिन मेरी पुस्तकें मत खराब करना!” से वह अधिक खिन्न ही हुआ।

यों उसके पहले साहित्यिक प्रयास का अन्त हुआ-या यों कहें कि अन्त का आरम्भ, क्योंकि असली अन्त तो दो वर्ष बाद तब हुआ, जब उसे कूड़ेखाने में दीमक और अन्य प्रकार के कीड़े खा गये।

साहित्य का निर्माण, मानो जीवित मृत्यु का आह्वान है। साहित्यकार को निर्माण करके और लाभ भी तो क्या, रचयिता होने का सुख भी नहीं मिलता, क्योंकि काम पूरा होते ही वह देखता है, अरे, यह तो वह नहीं है जो मैं बनाना चाहता था, वह मानो क्रियाशीलता का नारद है, उसे कहीं रुकना नहीं है-उसे सर्वत्र भड़काना है, उभारना है, जलाना है और कभी शान्त नहीं होना है-कहीं रुकना नहीं है। शायद इसीलिए उसके पथ के आरम्भ में ही विधि उसे रोककर कहती है, 'देख, इस पथ पर मत जा, यह तेरे पैरों के लिए नहीं है।' और यदि वह ढीठ होकर बढ़ा ही जाता है, तो वह कहती है, 'अच्छा, तो तू समझ-अपना जिम्मा सम्भाल!' और निर्मम अपने खाते में से, अपने पोष्य और रक्षणीय बच्चों की सूची में से उसका नाम काट देती है।

शेखर ने कोई छः मास बाद दूसरा प्रयास किया। अबकी बार यह पद्य में था।

वसन्त के दिन थे-शेखर जम्मू में था। काश्मीर की सड़क भी बन्द थी। धूप काफी पड़ने लगी थी, फिर भी शेखर नंगे सिर और नंगे पैर बाहर फिर रहा था। कुछ ही देर बाद जब उसके पैर तप जाते थे, तब वह उस कमरे में भाग आता था, जहाँ कुछ ही देर में उसकी पढ़ाई शुरू होनेवाली थी। जो कुछ मिनट उसके बाकी थे, उन्हें वह किसी प्रकार के शारीरिक उद्योग में बिताना चाहता था। तभी उसके भाई ने आकर सूचना दी कि मास्टर साहब आ गये हैं।

मास्टर साहब, जान गैस नामक एक अमरीकन थे और शेखर उन्हें सदा मिस्टर गैस कहता था। आज यह देखकर कि मास्टर साहब के आने से उसके मनोरंजन में विघ्न पड़ा है, उसे मास्टर साहब पर क्रोध आया।

कमरे की ओर जाते-जाते उसको एक शरारत सूझी। दूसरे शब्दों में, उसे कविता की दिव्य प्रेरणा प्राप्त हुई।

जब से शेखर की पुस्तक का निरादर हुआ था, तब वे उसके मन में वह अपमान और उपहास खल रहा था, और उसका निश्चय था कि कभी अवसर पाकर वह किसी विराट् काव्य-चेष्टा से अपनी खोयी हुई इज्जत दुबारा पाएगा। आज एकाएक उसे विचार हुआ कि वह अवसर आ गया है, उसने जाना कि वह कवि है।

मास्टर के सामने पहुँचकर शेखर ने सीखे हुए तोते की तरह, नम्रता से कहा, “गुड मार्निंग, मिस्टर गैस।”

'गुड मार्निंग' कहकर मास्टर साहब बैठ गये। शेखर, जिसकी धूप से चौंधियायी हुई आँखों के भीतर अँधेरा मालूम हो रहा था, धीरे-धीरे टटोलकर स्टूल पर बैठा और बैठते ही बोला, “मिस्टर गैस, मैंने आपके लिए एक कविता लिखी है।”

मिस्टर गैस ने मुस्कराकर कहा, “अच्छा? सुनें तो!”

शेखर ने तत्काल कुछ गाती-सी आवाज में कहा-

"My teacher's name is Mister Gass

If G is gone then he is an ass.

(मेरे गुरु का नाम मिस्टर 'गैस' है; यदि 'G' हटा दिया जाय तो वे 'ऐस'-गधा-हो जाएँगे।)

लगभग आधे घंटे बाद घर से मील भर दूर एक मौलश्री के बाग में बैठा हुआ शेखर अपने आरक्त गाल मल रहा था, और संसार की न्यायहीनता को रो रहा था। पिता से पिटता हुआ वह यहाँ तक भागता था, और जब वे पीटकर लौट गये थे, तब यहीं बैठकर सोचने लगा था।

विवश क्रोध के बीच जब उसे याद आता था कि वह कहाँ है, तब वह एक आधा फूल तोड़कर सूँघने लगता था और फिर विचार में डूब जाता था।

भाई और बहिन, भाई-बहिन होकर भी बहुत देर तक अपरिचित रह सकते हैं-बल्कि जीवन पर अजनबी रह सकते हैं। शेखर ने भी अपनी बहिन को बहिन की तरह लगभग छः वर्ष की आयु में जाना था और वह भी तब, जब उसकी एक और शिशु सखी ने उसे सिखाया था कि बहिनापा होता क्या है। वह सखी थी शशि।

शेखर ने शशि को पहले-पहल तब देखा था, जब उसकी आयु कोई चार वर्ष की थी, और शशि की तीन से कुछ अधिक। शशि की माँ विद्यावती शेखर की माँ की बहिन लगती थीं और इसी नाते अपनी लड़की के साथ उनसे मिलने आयी थीं और उनके पास ठहरी थीं।

जिस समय वे पहले-पहल आयीं, उस समय शेखर सोया हुआ था। सवेरे उठकर उसने देखा, उसकी खाट से कुछ ही दूर एक दूसरी खाट पर एक लड़की बैठी है और जिज्ञासा-भरी आँखों से उसकी ओर देख रही है। तभी उसकी माँ ने आकर कहा, “शेखर, यह तुम्हारी बहिन है।”

शेखर ने नहीं माना, यद्यपि वह कुछ बोला नहीं। भला यह भी कोई बात है, कि कोई कह दे “यह तुम्हारी बहिन है” और वह बहिन बन जाय? यह सरस्वती है, वह शेखर की बहिन है। जबसे वह जानता है, तबसे उस घर में रहती है, उसके साथ खेलती है, पिता से डाँट खाती है। और गुस्से में आकर उसे पीटती है।

और यह? शेखर ने मन में अपने को शशि से मार खाते हुए कल्पना करने की चेष्टा की और फौरन मन-ही-मन बोला-”हुँह!”

और उसने जान लिया कि कोई लाख कहे, शशि शशि है, उसकी बहिन नहीं।

थोड़ी देर बाद शेखर की माँ ने कहा, “आओ, तुम दोनों नहा लो।” और उन्हें स्नानागार में ले जाकर बिठा दिया।

शेखर का नहाने का ढंग यह है कि स्नानागार में पानी बहने के लिए जो नाली है, उसे कपड़े से बन्द कर देता और जब दलहीज तक पानी भर जाता है, तब उसमें उछल-कूद करता है। आज भी उसने इसी प्रकार पानी भरना आरम्भ किया। शशि एक कोने में खड़ी उसे देखने लगी-शेखर ने उसे ध्यान भी नहीं दिया।

पानी भर गया। शेखर नहाने लगा। शशि फिर भी वहीं खड़ी रही।

तभी शेखर की माँ फिर आयीं, और शशि को एक छोटा-सा पीतल का लोटा देते हुए बोलीं, “ले, तू इससे नहा।” और चली गयीं।

शशि जब अपने छोटे-छोटे हाथों में लोटा थामकर नल से भरने लगी, तब शेखर उसके पास आकर रुष्ट स्वर में बोला, “यह लोटा मेरा है!”

शशि अपनी बड़ी-बड़ी आँखें खोलकर उसकी ओर देखने लगी, न बोली न हिली, पानी भरती रही।

शेखर ने और आगे बढ़कर कहा, “मेरा है, दे दो।”

शशि ने कुछ पीछे हटते हुए कहा, “नहीं, मैं नहाऊँगी।”

'दो!' कहकर शेखर उस पर झपटा। लोटा छीन लिया और बात-की-बात में शशि के माथे पर दे मारा। शशि चिल्लायी, “माँ!” और रोने लगी।

शशि की माँ ने आकर देखा, और सब समझ गयी। शेखर से बोली, “तुमने मारा है?”

शेखर ने शशि के माथे से खून बहता देखकर झट लोटा भूमि पर रख दिया, सहमा खड़ा रहा।

शेखर की माँ भी हाथ में एक सोंटा लिये दौड़ी आयीं और शशि से बोलीं, “इसने मारा है न?”

पता नहीं, शेखर का मुँह देखकर या सोंटा देखकर, या किसी और कारण से, शशि ने लोटे की ओर इशारा करते हुए कहा, “लोटा लग गया।”

“कैसे? शेखर ने मारा”

“आप ही लग गया।” कहकर वह फिर रोने लगी।

शेखर की माँ उसे (शेखर को) डंडा दिखाकर घूरती हुई चली गयीं। विद्यावती ने एक बार शशि की ओर देखा। फिर धीरे-धीरे शशि का माथा धोने लगीं।

शेखर और नहाया नहीं। चुपचाप कपड़े पहने, फिर क्षण भर खड़ा रहा, फिर शशि की ओर देखते हुए झपटकर लोटा उठाकर बाहर चला गया।

उसके बाद वह शशि से बोला नहीं। पर जब वे खाना खाने बैठे, तब उसने चुपचाप अपने लोटे में पानी भरा और उसे शशि की थाली के पास रख दिया, फिर स्वयं खाने लगा।

जब शशि ने बिना उसकी ओर देखे ही लोटा उठाकर उसमें से पानी पी लिया तब शेखर को लगा, उसने संसार के सब लोटों से बढ़कर एक चीज पा ली है!

उसी शाम को शशि चली गयी और शेखर ने फिर दस वर्ष तक उसे नहीं देखा।

शेखर की बहिन का नाम था सरस्वती। वह शेखर से पाँच वर्ष बड़ी थी, उसके बाद शेखर से बड़े दो भाई थे, ईश्वरदत्त और प्रभुदत्त। शेखर का जन्म नाम तो बुद्धदेव ही रखा गया था, पर विद्यावती ने उसे देखते ही जाने क्या सोचकर उसकी माँ से कहा था, “बहिन, इसका नाम चन्द्रशेखर रखो।” औरों के विरोध करने पर भी वह उसे बराबर शेखर ही कहती थी, और उसके इस आग्रह से धीरे-धीरे सभी ऐसा करने लग गये थे।

तो, सरस्वती और शेखर साथ खेलते थे, लेकिन उनके खेल में उनके साथ की अपेक्षा सरस्वती के हाथ और शेखर के गालों का साथ अधिक रहता था। और जब से शेखर के पिता ने सरस्वती को आज्ञा दी थी कि वह शेखर को पढ़ाया करे, तब से तो शेखर ने समझ लिया था कि 'बहिन' उस जन्तु का नाम है, जो खेल में झगड़ा करे, अपनी गलती होने पर भी पीट डाले, तंग करे, सीधे अक्षर पढ़ाकर संयुक्ताक्षर (यद्यपि शेखर तब उन्हें 'संयुक्ताक्षर' नहीं कहता था) पढ़ाये, न पढ़ने पर पिता से कहे, और कभी किसी बात में विरोध होने पर माँ से यह फतवा प्राप्त कर ले कि वह बड़ी है, इसलिए शेखर को उसका कहना मानना चाहिए। जब वे काश्मीर गये, तब शेखर को इस बात में बड़ा मजा आता था कि कभी वर्षा के दिनों वह रात में चुपचाप खिड़की खोल दे, ताकि खिड़की के पास सोयी हुई सरस्वती भीग जाय। (शेखर ने आग्रह किया था कि खिड़की के पास वह सोएगा क्योंकि वहाँ से चाँद दीखता था, पर माँ की आज्ञा हुई कि वह नहीं सो सकता, उसे ठंड लग जाएगी, क्योंकि वह छोटा है।) लेकिन वहीं काश्मीर में, उन्हीं वर्षा के दिनों, एक दिन सरस्वती मन में एकाएक 'सरस्वती' से 'बहिन' और बहिन के 'सरस' हो गयी थी-यद्यपि इस अन्तिम अंतरंग नाम का उसने कभी उच्चारण नहीं किया, इसे मन में ही छिपा रखा।

आठ दिन से लगातार वर्षा हो रही थी। जेहलम नदी का मधुर कल-कल शब्द बढ़ता हुआ अब एक अनवरत गम्भीर घोष हो गया था। शेखर के पिता ने घर का सब कीमती सामान उठवाकर बँगले की ऊपरी मंजिल में मँगा लिया था। सब लोग वहीं रहते थे, और पिता प्रायः खिड़की के पास बैठे चिन्तित आँखों से बाहर देखते रहते थे। मुँह में सिगार पड़ा रहता था, कभी-कभी जब उसका ध्यान आ जाता, तब एक आध सूटा लगाकर वे फिर किसी चिन्ता में लीन हो जाते थे।

नदी के किनारे एक बाग के बीचोंबीच में था बँगला, जो कि चारों ओर दस फुट ऊँची मिट्टी की भीत से घिरा हुआ था। भीतर प्रवेश करने के लिए चारों भीतों के बीचोंबीच दीवार के दोनों ओर सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, दीवार नीचे से बाहर-तेरह फीट चौड़ी थी, ऊपर बिलकुल पतली। बाहर नदी का पानी बढ़ता हुआ भूमि से समतल हो गया था, और अब सब ओर फैलने लगा था-धीरे-धीरे दीवार के भीतर की भूमि से ऊँचा बढ़ता जा रहा था। भीतर बँगले में फूलों को लाँघते हुए, मानो स्वच्छन्दता उन्मत्त, उत्क्रुद्ध पानी का घोष साफ सुन पड़ रहा था...

बँगले के भीतर एक खिंची हुई प्रतीक्षा थी। शेखर स्थिर दृष्टि से पिता की ओर देखता हुआ सोच रहा था कि वे क्यों इतनी स्थिर, पलकहीन, चिन्तित दृष्टि से नदीवाली दीवार की ओर को देख रहे हैं; और समझ नहीं रहा है। न उसे यही समझ आ रहा था कि माँ क्यों आँसू-भरी आँखों से कभी उसकी ओर, कभी उसके भाइयों की ओर, और कभी सरस्वती की ओर देख रही हैं। लेकिन कुछ न समझते हुए भी वह विद्युत्मय वातावरण मानो उसे भी लील गया था, वह भी किसी अकथ आकारहीन चिन्ता से सबकी ओर देख रहा था।

एकाएक उसने देखा, उसकी बहिन के मुख पर किसी भीतरी क्रिया की छाया स्पष्ट भासित होती थी। वह धीरे-धीरे सरककार उसके पास पहुँचा और दबे स्वर में बोला “क्या है?” सरस्वती ने उसे उँगली के साथ आने का इशारा किया और दबे पाँव सीढ़ियों की ओर बढ़ी। दोनों चुपचाप नीचे उतर गये-किसी ने उन्हें देखा नहीं।

नीचे पहुँचते ही शेखर ने पूछा, “क्या है?”

सरस्वती ने तीखे स्वर में कहा, “चूहों की बिलें!”

“चूहों की बिलें क्या? मैं नहीं समझा।”

“मूरख हो न! वह पानी बाहर बढ़ रहा है-अभी बिलों में से भीतर आने लगेगा-तब?' उन्हें बन्द करना है?”

शेखर समझ गया। अब दोनों सबसे निकट की दीवार पर पहुँचे और कीच से बिलों के मुँह बन्द करने लगे। कभी-कभी वे साथ ही अपने प्रिय आयरिस के पौधे भी खींच लेते और उन्हें भी बिलों में ठूँसकर कीचड़ से दबा देते। एक बार शेखर ने सिर उठाकर सरस्वती की ओर देखा-वह उस समय एक आयरिस का पौधा लिये अनिश्चित-सी खड़ी थी। क्षण ही भर में पौधे में से उसका एकमात्र बड़ा-सा सुन्दर फूल तोड़कर अपनी चोटी में खोंस लिया और फिर पौधे को बिल में दबा दिया। शेखर को यह बात अजीब-सी लगी कि यह विचित्र लड़की भी वही बात सोच सकती थी जो वह स्वयं सोच रहा था-पर क्षण-भर में वह यह बात भूलकर फिर काम में जुट गया। उसके, और सरस्वती के भी, मन में यह स्पष्ट था कि वे तभी तक अपना काम कर सकेंगे, जब तक भीतर उनकी अनुपस्थिति का पता नहीं लगेगा। वे यह भी अनुभव कर रहे थे कि कुछ ही देर में कुछ होनेवाला है (पता नहीं क्या) और पिता कभी उन्हें बाहर नहीं रहने देंगे। और इसलिए वे अत्यन्त शीघ्रता से काम कर रहे थे। किसी आसन्न विपत्ति के डर से नहीं, भीतर बुला लिए जाने के डर से।

उनकी कमर दुखने लगी थी, पर काम अभी उतना ही पड़ा था। वे एक बिल बन्द नहीं कर पाये होते थे कि दूसरी फूट पड़ती थी और निरन्तर बढ़ती जाती थी-पानी का फव्वारा-सा भीतर छूट पड़ता था। इन फव्वारों की ऊँचाई से शेखर ने अनुमान किया कि बाहर पानी भीतर की भूमि से चार फुट ऊँचा चढ़ गया है। अभी यह प्रश्न उसके मन में नहीं आया था कि जब वह दीवार के समतल हो जाएगा, तब क्या होगा...

तभी पानी की गर्जन के ऊपर, उन्होंने पिता की पुकार सुनी, जिसमें एक नया, उनका अपरिचित स्वर था। वे रुककर एक-दूसरे की ओर देखने लगे-सहसा यह निश्चय नहीं कर पाए कि भीतर जायँ या, अपना काम जारी रखें (अपने खतरे को समझे बिना भी वे अनुभव कर रहे थे कि जो काम कर रहे हैं, वह अभिमान का विषय है)। उनके निश्चय करने से पहले ही एक 'छड़प्' हुआ मानो पानी में कुछ गिरा हो। उन्हें दीखा-कुछ एक उखड़े हुए आयरिस, और दीवार में फटी हुई एक दरार में से भीतर घहराता हुआ मैला प्यासा पानी...

निश्चय हो गया। वे दोनों साथ-साथ भीतर भागे। अभी वे द्वार तक पहुँचे भी नहीं थे कि पानी का गर्जन असह्य हो गया, और उन्होंने पाया कि वे घुटने-घुटने पानी में दौड़ रहे हैं।

आखिर-द्वार! वहाँ पिता खड़े थे-जिनके मुख की ओर एक बार देखकर वे भीतर चले गये। उनके मुख पर वह था, जो दो बार नहीं दीखता-न किसी को दीखे।

क्षण-भर बाद, सब लोग ऊपर मंजिल में इकट्ठे हो गये थे। कुछ मिनट में निचली मंजिल में पानी भर गया, पानी अपने साधारण तल से पच्चीस फीट चढ़ आया था...

उस समय तो इतना ही। लेकिन उसके बाद बार-बार शेखर को उस क्षण का ध्यान आने लगा जब पिता की पुकार सुनकर उसकी और सरस्वती की आँखें मिली थीं, जब दीवार टूट गयी थी, जब किसी मूक समझौते में दोनों साथ-साथ घर की ओर दौड़े थे-क्योंकि वास्तव में वह एक ही क्षण था, काल की गति का एक अविभाज्य टुकड़ा, अनुभूति का एक ही झोंका, हृदय का एक ही स्पन्दन-और उसे लगने लगा कि सरस्वती ने उसे कुछ कहा था, कुछ बताया कुछ सिखाया था-क्या?

इतना तो उसे याद है। फिर कब वह सरस्वती नहीं रही, बहिन हो गयी, कब उसे शेखर ने 'सरस' का नाम देकर उसे प्यार से अपने मन में दुहराया, यह उसे याद नहीं।

शान्त निश्चल झील पर शिकारा धीरे-धीरे चला जा रहा है। झील इतनी शान्त है कि जान पड़ता है कि शिकारा भी खड़ा ही है, उसकी गति का कोई प्रमाण नहीं दीख पड़ता है। शेखर और उसके भाई 'स्वप्नों' के द्वीप की सैर करने जा रहे हैं।

वहाँ पहुँचकर शेखर के भाइयों ने स्नान करने का प्रस्ताव किया, जो उसी क्षण पास हो गया; क्योंकि शेखर को तो वोट का अधिकार ही नहीं था। तीनों भाइयों ने कपड़े उतारे और पानी में घुस गये।

ईश्वर और प्रभुदत्त तैरने लगे। शेखर तैरना नहीं जानता था, मुग्ध नेत्रों से दोनों भाइयों की ओर देखने लगा। कितनी भली थी पानी को चीरती हुई उनकी भुजाओं की गति, कैसा असह्य आकर्षक था उनका पंखयुक्त काँपते हुए वाण की तरह अग्रसरण। शेखर की मुग्धता उस दर्जे तक पहुँच गयी, जब उसकी क्रियाओं पर से उसका नियन्त्रण हट गया, जब वह हृदय में इतना तन्मय हो गया कि इसका अनुकरण एक अनैच्छिक क्रिया हो गयी...वह भी आगे कूद पड़ा, उसके हाथ भी उसी तरह चलने लगे, जैसे वह भाइयों के हाथ चलते देख रहा था...

पर क्षण ही भर में वह डूबा, बड़ी चेष्टा से उझककर बाहर आया, किन्तु साँस लेने से पहले ही फिर बैठ गया। उसके हाथ अभी तक उस मुग्ध अनुकरण में चलते ही जा रहे थे...

उसने देखा, प्रगाढ़ नीलिमा का एक सुन्दर स्वप्न, फिर उसे लगा, वह बड़ा प्यासा है। फिर दम घुटने लगा, फिर शून्य...

जब उसे होश आया, तब वह औंधा लेटा हुआ था, और भाई उसकी पीठ दबा रहे थे। आसपास वे माँझी खड़े हुए थे, जिन्होंने उसे खींचकर बाहर निकाला था।

जब वे घर पहुँचे तब उसके एक साँस लेते-लेते भाइयों ने सारी कहानी अपने ढंग से कह डाली। पिता ने उसे डाँटकर कहा, “क्या बेवकूफी सूझी थी? तैरना नहीं जानते तो अकड़ क्यों दिखाई थी! भाइयों का कहना माना होता?”

भाइयों ने कहानी कही थी, इसलिए 'भाइयों का कहना' भी भाइयों ने कहा था, पर शेखर ने यह बात नहीं कही। चुपचाप पिता की ओर देखता रहा। पिता ने फिर कहा, “देखते क्या हो-शर्म तो नहीं आती? अगर डूब जाते तो?”

शेखर को नहीं लगा कि डूबने से बच जाने पर शर्म आनी चाहिए, न यही कि डूबना कोई बड़ी भयंकर बात होती।

मृत्यु का डर वास्तव में बड़ों की चीज है।

लेकिन उसके कुछ दिन बाद जब तीनों भाई पड़ोस के कुछ लड़कों के साथ खेल रहे थे, तब शेखर ने देखा कि उसके बचने की बात सुनकर सभी बड़े प्रभावित हुए हैं। इससे उसको कुछ अभिमान-सा हुआ-वह उन सबसे छोटा होने के कारण कुछ दबता था, अब अवसर पाकर उन पर रोब डालने का लोभ नहीं छोड़ सका। बोला, “अरे, अभी हुआ क्या है, अभी तो मैं फिर किसी दिन यह करूँगा। डूबकर देखूँगा, मरना क्या होता है। मैं जरूर किसी दिन ऐसे ही मरूँगा।”

लड़के एकाएक सहमकर उसकी ओर देखने लगे-फिर चुपचाप चले गये।

पिता की बात ने जो नहीं किया था, वह इस बात ने किया। शेखर गम्भीर होकर सोचने लगा-क्या सचमुच मृत्यु करने की चीज है?

इसी विचार की कोई अज्ञात छाया थी जिससे दबकर शेखर ने एक दिन माँ से पूछा, “माँ तुम कब मरोगी?”

माँ एक बोतल हाथ में लिए सीढ़ियाँ उतर रही थी, जब यह प्रश्न हुआ। उसके हाथ से बोतल छूटकर गिर पड़ी, उसने अचकचाए-से स्वर में कहा, “क्या?”

बोतल गिरने की आवाज सुनकर पिता भी आये। बात सुनकर क्षण भर वह भी सहमे रहे, फिर तड़ातड़ तीन-चार थप्पड़ उन्होंने शेखर के जमा दिये। फिर माँ को साथ लेकर ऊपर कमरे में चले गये।

थोड़ी देर बाद शेखर ने खिड़की में से झाँककर देखा, ये दोनों चुपचाप, अत्यन्त गम्भीर बैठे हुए थे, और कहीं देख नहीं रहे थे, एक-दूसरे की ओर भी नहीं, यद्यपि आँख स्थिर थी...

और उसने फिर अधिक गम्भीर, अधिक सन्दिग्ध स्वर में पूछा, “क्या मृत्यु इतनी भयानक है?”

एक दिन शेखर पिता के साथ बाजार गया, तो उसने देखा, पंसारी जिन कागजों में सौदा लपेटकर देता है, वे सचित्र हैं, और चित्र कई रंगों में छपे हुए हैं, कोई नीला, कोई हरा, कोई ब्राउन। चित्र थे भी सिपाहियों के, जहाजों के, हवाई जहाजों के, तोपों के, धुएँ के-यों कह लीजिए कि उथल-पुथल के-और उन दिनों उथल-पुथल के कामों में उसे विशेष रुचि थी। उसने पिता का पल्ला पकड़कर कहा, “हमें ये ले दीजिए।”

“क्या?”

“ये कागज।”

पिता ने हँसकर कहा, “अच्छा!” फिर दुकानदार से बोले, “भाई, ये पुराने अखबार कुछ इसे दे देना।”

शेखर ने जोड़ा, “अच्छी-अच्छी। फटी-सटी हम नहीं लेंगे।” और जब उसने देखा कि दुकानदार उसकी बात पर विशेष ध्यान नहीं दे रहा है, तब उसने स्वयं बढ़कर आठ-दस चुन लीं।

घर आकर अपने भाई-बहिनों को जुड़ाकर वह भूमि पर एक-एक अखबार फैलाकर देखने लगा, और उनके चित्रों के नीचे लिखे हुए वर्णन पढ़ने लगा।

“-में हमारी जीत : शत्रु के असंख्य आदमी मारे गये। हम आगे बढ़ रहे हैं।”

“हमारे हवाई जहाज-पर गोले बरसा रहे हैं।”

“... ...”

शेखर ने पूछा, “हम कौन हैं?”

ईश्वरदत्त बोला, “अंग्रेज जो जर्मनों से लड़ रहे हैं।”

तब शेखर ने एक चित्र देखा, जिसमें सिख सिपाही बन्दूकों पर संगीनें चढ़ाए बढ़ रहे थे। उसके पास भी लिखा था, “हमने - में संगीनों का चार्ज किया; शत्रु के आदमी मरे, हमारे पक्ष में भी कुछ मरे और कुछ घायल हुए हैं।”

शेखर ने कहा, “ये तो अँग्रेज नहीं हैं?”

भाई ने बताया, सिख सिपाही भी अँग्रेजों की ओर से लड़ रहे हैं। अँग्रेज भारत में राज्य करते हैं, इसीलिए भारतीय सिपाही उनकी तरफ से लड़ने भेजे जाते हैं। और पिता कह रहे थे कि कई लाख भारतीय मारे गये हैं।

शेखर ने सरस्वती से पूछा, “मरते कैसे हैं?”

“मर जाते हैं, और क्या?”

“पागल! जान नहीं रहती, चल-फिर बोल नहीं सकते, तब ले जाकर जला देते हैं।”

“डूबने से ऐसे ही मर जाते हैं?”

“हाँ।”

“क्यों मरते हैं?”

“साँस बन्द हो जाती है, तब जान निकल जाती है।”

शेखर थोड़ी देर इस बात को सोचता रहा। फिर एकाएक उसने पूछा-”जान क्या होती है?”

“होती है, बस!”

उसने फिर आग्रह किया, “क्या होती है?”

“मुझे नहीं मालूम, पिताजी से पूछो!”

थोड़ी देर बाद शेखर ने फिर पूछा, “जान आती कहाँ से है?”

“ईश्वर से।”

“जाती कहाँ है?”

“ईश्वर के पास।”

“ईश्वर ले लेता है?”

“हाँ।”

शेखर ने सन्देह के स्वर में कहा-”हूँ।”

थोड़ी देर बाद उसने फिर पूछा, “इतनी सब जानें ईश्वर के पास गयी होंगी?”

“हाँ।”

“जर्मनों की भी?”

“हाँ।”

“सब शरीर भी ईश्वर बनाता है?”

“हाँ।”

“तब लड़ाई भी ईश्वर ने कराई होगी?”

“हाँ।”

“तब-” कहकर शेखर रुक गया। उसे याद आया, उसने अखबार में ही पढ़ा था कि जर्मन लोग बड़े क्रूर होते हैं, कैदियों को पीटते हैं, भूखा मारते हैं, औरतों को कोड़े लगाते हैं, सड़कों पर घसीटते हैं, इत्यादि। क्या यह सब भी ईश्वर के करने से ही होता है?

भाइयों के साथ शेखर ताँगे में बैठा हुआ सैर करने जा रहा था। तभी उसने देखा, सामने से एक टुटियल-से छकड़े में एक अधमरा घोड़ा लगा आ रहा है। छकड़ा लदा हुआ है, घोड़ा उसे खींच नहीं सकता, पर गाड़ीवान उसे चाबुक लगाता जाता है और गाली देता जाता है।

शेखर ने मन-ही-मन सोचा, 'हमारा ताँगा कैसा शानदार है!'

गाड़ीवान ने चाबुक रखकर डंडा निकाला। तड़ातड़ घोड़े को पीट दिया। घोड़े ने एक बार किसी तरह सिर उठाकर भटका, फिर पूर्ववत् झुक गया; मार पड़ती रही, उसका बदन काँपता रहा, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ा।

एक बार उसने और जोर किया-और शेखर के देखते-देखते उसके घुटने लड़खड़ाये, वह गिरा-और फिर नहीं उठा।

ताँगवाले ने बताया कि ऐसा कई बार होता है, घोड़ों को दाना नहीं मिलता, भूखे रह-रहकर वे कमजोर हो जाते हैं, तब उन्हें भंग और गुड़ खिलाकर काम निकाल लिया जाता है। उसने ताँगे में जुते हुए घोड़े को बताकर अभिमान से कहा, “इसे भी मैंने ऐसे ही एक बार चालीस मील दौड़ाया था-ताँगे-समेत!”

ईश्वरदत्त ने पूछा, “घोड़े इससे मरते नहीं?”

“इससे कैसे मर सकते हैं-इससे तो जोर आता है। वह घोड़ा तो भूखा था, इसलिए मर गया।”

ताँगा चलता रहा।

लौटती बात उसी स्थान के पास आते हुए शेखर ने पूछा, “जो आदमी भूखे मरते हैं, वे भी ऐसे ही मरते हैं?”

किसी ने उत्तर नहीं दिया।

शेखर को एक बड़ी खतरनाक आदत पड़ गयी-वह अकेला बैठ-बैठकर सोचने लगा।

और उसने देखा, जो बातें उसने अपने जाने देखी भी नहीं थीं, वे भी उसे याद आने लगीं। उसे याद आया-

एक दिन पिता असमय दफ्तर से लौट आये थे। आते ही उन्होंने देखा, शेखर की माँ बरामदे में बैठी धूप सेंक रही थी। उन्होंने फीके स्वर में कहा, “शुरू हो गयी है।” और भीतर चले गये। माँ भी उठकर चली गयीं। और शेखर नहीं सोच सका कि किससे माँगे उस खा डालने वाले प्रश्न का उत्तर-क्या शुरू हो गयी है।

उसे याद आया-

एक दिन माँ के नाम एक चिट्ठी आयी। माँ ने उसे पढ़ा, पढ़कर चुप बैठी रह गयी। आँखों में आँसू भर आये। पिता ने चिन्तित स्वर में पूछा, “क्या है?” तो चिट्ठी उन्हें पकड़ा दी। पिता भी पढ़कर पहले चुप हो रहे, फिर जैसे कुछ सोचते हुए बीच-बीच में जोर-जोर से पढ़ने लगे-”रामचन्द्र भरती हो गया है और लाम पर जा रहा है।” शेखर कुछ समझा नहीं।

इसके वर्ष-भर बाद जब उसे मालूम हुआ कि भरती क्या चीज होती है, तब विचारों की किसी अज्ञात कड़ी ने उसे रामचन्द्र मामा की याद दिला दी और उसने माँ से पूछा, “माँ, मामा कब आएँगे?”

माँ ने एक बार पीड़ित आँखों से उसकी ओर देखा, कुछ उत्तर नहीं दिया।

मामा उन दिनों फ्रांस में किसी अस्पताल में पड़े थे-अन्धे, एक बाँह से वंचित, और बेहोश।

एक दिन शेखर ने बाहर खेल से आकर देखा, माँ धीरे-धीरे रो रही हैं। वह उल्टे पाँव लौट गया। घंटे भर बाद जब फिर वह आया, तब भी माँ रो रही थीं और रोते-रोते काम करती जा रही थीं, कभी आँसुओं से आँखें भर आती थीं तो एक हाथ से झटक देती थीं।

शेखर ने कुछ डरते-डरते दूर ही खड़े कहा, “माँ-”

माँ ने उसकी ओर देखा। आँसू पोंछ डाले। फिर मुँह फेरकर कहा, “बेटा, तेरे मामा अब नहीं आवेंगे।”

शेखर नहीं पूछ सका कि क्यों।

जब एक दिन पिता ने आकर सूचना दी कि लड़ाई समाप्त हो गयी है, हम जीत गये हैं, सन्धि हो गयी है, अब सब ठीक है, तब सबसे पहला प्रश्न जो शेखर के होठों पर आया था और जिसे वह पूछ नहीं सका, वह था, “तो क्या मामा वापस आवेंगे?'

शेखर ने सुना कि पंजाब में दंगा-फसाद हुआ है, गोली चली है, बहुत लोग मारे गये हैं, फौजें आ रही हैं। कई स्टेशन जला दिये गये हैं, लाइनें टूट गयी हैं...इन सब बातों को सुलझाकर, जोड़कर वह पिता के पास गया और बोला, “पंजाब में लड़ाई होगी।”

पिता ने कहा, “ऐसी बात नहीं कहते। अभी पहली से तो छुट्टी मिल ले।”

“पहली तो कभी की खत्म हो गयी।”

“पर उसका असर तो बाकी है। अभी चीजें इतनी महँगी हैं, और-”

शेखर ने उद्धत स्वर में कहा, “इससे क्या? अगर ईश्वर की मर्जी हुई तो और होगी ही।”

पिता ने घूरकर उसकी ओर देखा और कहा, “भाग जाओ।”

पिता ने देखा कि शेखर बहुत पूछने लगा है, और घर की पढ़ाई से उसकी यह आदत हटती नहीं-भला, सरस्वती की पढ़ाई का क्या रोब? उन्होंने शेखर को बुलाकर कहा “शेखर, तुम्हें स्कूल जाना होगा। कल चपरासी ले जाकर दाखिल करा आएगा।”

स्कूल में कैसी पढ़ाई हुई, वह बाद की बात है। पहले तो यह हुआ कि शेखर को बताया गया, कुछ दिनों में भारत के वायसराय वहाँ आनेवाले हैं, उनके स्वागत के लिए लड़कों को कवायद सीखनी होगी।

शेखर ने वर्दी बनवायी, ड्रिल की और सोच लिया कि वह आजीवन स्कूल में रहेगा। सरस्वती से पढ़ते तो युग हो गये, कभी वायसराय नहीं आया, न वर्दी पहनने को मिली।

वायसराय अगनबोट में बैठकर चले आ रहे थे। अगनबोट के आगे शेखर के स्कूल के दो शिकारे चल रहे थे, जिन्हें स्कूल के ही लड़के खे रहे थे। उनकी लाल पट्टीदार सफेद वर्दियाँ बड़ी सुन्दर लग रही थीं।

शेखर स्वयं किनारे पर था-जिस घाट पर वायसराय को उतरना था, उसके रक्षकों में से एक वह भी था। बोट अभी दूर था, बहुत कोशिश करने पर भी वायसराय महोदय नहीं दीख सकते थे, इसलिए शेखर नदी के दोनों और जुटी हुई काश्मीरियों की भीड़ को देख रहा था।

नदी के दोनों किनारे पैरहन और कुल्ला पहने काश्मीरियों से खचाखच भरे थे। कहीं-कहीं साफ-सफेद पैरहन के ऊपर सफेद पगड़ी भी दीख जाती थी; और कई स्थानों पर झुंड-के-झुंड स्त्रियों की लाल पगड़ीनुमा टोपी के भी थे।

एकाएक नदी के दोनों ओर, मानो बादल गरज उठे, और गर्जन ताल पर चलने लगा। भौंचक शेखर ने देखा, दोनों और जुटी हुई तमाम प्रजा, पुरुष और स्त्री, (सिवा उन सफेद पगड़ीवाले पंडितों के) ताल से छाती पीटने लगी और मानो हाँफ-हाँफकर कुछ कहने लगी, जो वह कुछ यत्न से ही समझ सका।

“भत्त खुदाया! भत्त खुदाया!”

अगनबोट निकल आ गया। शेखर ने चेष्टा की, वायसराय को पहचाने, लेकिन उस भयंकर घोष ने मानो सारा वातावरण ऐसा छा लिया था, उसका दबाव इतना हो गया था कि वायसराय उसे दीख ही नहीं पाये। दीखा कुछ तो वही असंख्य मुख और भुजाओं से आकारयुक्त हाहाकार...

घर आकर शेखर ने पिता से पूछा, “वे लोग चिल्ला क्यों रहे थे?”

पिता ने बताया कि युद्ध के कारण महँगी बहुत हो गयी है और वे लोग भूखे मर रहे हैं। वायसराय सम्राट् का प्रतिनिधि है, सब कुछ कर सकता है, इसलिए वे लोग उसी के पास फरियाद करने आये थे-भात के लिए।

“वायसराय ने क्या कहा?”

“वायसराय हरेक की बात थोड़े ही सुनते हैं।”

“अब लड़ाई तो खत्म हो गयी, फिर चीजें क्यों महँगी हैं?”

“......”

“जर्मनों ने महँगी कर दी है?”

“नहीं।”

“वायसराय कैसे कर सकता है?”

शेखर को यह अच्छा नहीं लगा कि उसके प्रश्न का उत्तर प्रश्न से दिया जाय। पर बिचारे का वश नहीं था। उसने फिर पूछा-”ईश्वर कर सकता है?”

“हाँ, ईश्वर सब कुछ कर सकता है।”

“महँगी भी उसी ने की है?”

“हाँ, अब भाग जाओ। अपनी पढ़ाई नहीं करनी?”

शेखर के मुख पर जो प्रश्न था, वह भी उसके साथ ही भागा : 'क्यों?'

युद्ध गया तो उसकी सखी आयी। सब ओर लोग चारपाइयों पर पड़ने लगे और वह दिन भी आया कि माता, पिता, भाइयों के पास ही एक चारपाई पर शेखर भी पड़ गया। केवल सरस्वती बची रही।

सरस्वती को आज्ञा हुई कि जहाँ तक हो सके, वह सबसे अलग रहे। वह सबको दवा पिलाकर कभी शेखर की चारपाई पर बैठती तो फौरन आवाज आती, “जाओ, यहाँ मत बैठो, नहीं तो तुम भी बीमार हो जाओगी।” शेखर इस आज्ञा पर मन-ही-मन कुढ़ा करता, और सोचा करता, 'क्या हुआ, हो जाएगी बीमार तो? यहीं पास पड़ी रहेगी।' या कभी उसे युद्ध पर क्रोध आया करता जिसने उसे चारपाई पर लिटा दिया। कभी जब माँ कहती, “बेटा घबराओ नहीं, ईश्वर सब अच्छा करेंगे”, तब वह चाहता, फट पड़े, बरस पड़े, पूछे कि क्या युद्ध अच्छा हुआ है? भूख अच्छी हुई है? मामा नहीं आये, वह अच्छा हुआ है? वह जो घोड़ा मर गया, अच्छा हुआ है? इतने लोग बीमार पड़े, अच्छा हुआ? मरे, अच्छा हुआ है? सब कुछ ईश्वर करता है, इसमें उसे आपत्ति नहीं; वह सब कुछ अच्छा करता है, यह झूठ उस पर अत्याचार है, इसे वह किसी तरह नहीं सह सकता...

सब लोग अच्छे हो गये। पिता दफ्तर भी जाने लगे। केवल शेखर पड़ा रह गया। उसे इसका विशेष दुःख नहीं हुआ, क्योंकि उसे अलग कमरा दे दिया गया, और सरस्वती जब तक बेधड़क आने लगी।

एक दिन शेखर के सिरहाने बैठे हुए सरस्वती ने कहा, “आज मेरा सिर बहुत दुख रहा है।”

शेखर बोला, “अब तुम बीमार पड़ोगी।”

“नहीं, अभी नहीं। पहले तुम अच्छे हो जाओ, फिर मैं बीमार पड़ भी गयी तो कोई बात नहीं।”

“मैं नहीं अच्छा होता”, जाने क्या सोचकर शेखर ने कहा। शायद सहानुभूति पाने के लिए। “मैं तो अब मर जाऊँगा।”

“धत् पागल! ऐसी बात नहीं कहा करते!”

शेखर ने देखा, सरस्वती बात तो वही कर रही है, जो और सब कहा करते हैं, लेकिन उसमें वह भाव, वह आशंका, वह सहमा हुआ डर नहीं है। उसे अच्छा-सा लगा; लगा कि वह सरस्वती से कुछ पूछ सकता है, जो और किसी से नहीं पूछ सकता। बोला, “तुम मरने से डरती नहीं?”

“नहीं।”

“मरना बहुत डरावना होता है?”

“नहीं।”

“सब लोग क्यों डरते हैं?”

“इसलिए नहीं डरते कि मरना बहुत खराब होता है, इसलिए डरते है जीना अच्छा लगता है।”

यह इतनी सीधी, इतनी सच बात उससे किसी ने क्यों नहीं कही थी?

थोड़ी देर बाद शेखर ने सरस्वती की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, “मैं नहीं मरूँगा।”

सरस्वती ने उसका हाथ पकड़कर उसकी छाती पर ला रखा, फिर धीरे से कान के पास एक चपत लगाकर चली गयी।

शाम को इसी कमरे में दूसरी चारपाई पर सरस्वती भी लेट गयी।

पिता ने कहा, “अब सब अच्छे हो गये हैं, अब कुछ सैर करने चलना चाहिए। और कुछ यात्रा भी हो जाएगी-खीर भवानी भी हो आएँगे।'

दूसरे दिन उन सबको लिए हुए एक हाउसबोट अमीरा कदल के नीचे से निकल गया।

जीवन का प्रोग्राम कुछ बदल गया। नित्य शाम को खा-पी चुकने के बाद, हाउसबोट की बैठक में या कभी छत पर, सारे परिवार की मीटिंग होती, जिसमें कभी-कभी लड़कों से कहानियाँ सुनी जातीं, पर बहुधा पिता या माँ ही कहानियाँ कहा करते। कहानियाँ वही होतीं, जो भारत में बच्चों को सुनायी जाती हैं-देवताओं की कहानियाँ, पुराण-गाथाएँ, कहानियाँ जिनमें नैतिक उद्देश्य का पुछल्ला अवश्य लगा रहता था। ईश्वर की बड़ाई के छोटे-छोटे दृष्टान्त, सचाई का महत्त्व सिद्ध करने के लिए लम्बे लेक्चर, मितव्ययिता के बारे में कोई चुटकुला, उस लड़के के कमीनेपन पर लम्बी फटकार, जिसने सवेरे मुरब्बा चुराया था और स्वीकार नहीं किया (चाहे कोई हो)...कभी-कभी ये कहानियाँ मनोरंजक होतीं, लेकिन जब 'नैतिक उद्देश्य' सिद्ध होने लगता तब शेखर ऊब उठता। अपने मन में उसने इन दैनिक मीटिंगों को एक नाम दे रखा था-'माँ की डाँट।'

कहानियाँ सुनते-सुनते शेखर सोचा करता, यदि ईश्वर है तो क्यों नहीं मुझ पर प्रकट होता? कभी उसके मन में यह सन्देह उठता कि मैं बहुत निर्बल और अयोग्य हूँ तभी मुझे ईश्वर का अनुभव नहीं होता, कभी उसका छोटा-सा व्यक्तित्व अपना सारा साहस एकत्र करके पूछता, कहीं ऐसा तो नहीं है कि ईश्वर है ही नहीं?

यह निरन्तर दबा हुआ अविश्वास या विश्वास की अनुपस्थिति, यह निरन्तर चौकसी कि कहीं इस सन्देह का कोई शब्द भी किसी पर प्रकट न हो जाय, उसे खाए डालती थी, इसका बोझ उसके अविकसित मस्तिष्क के लिए असह्य था। उसे जान पड़ रहा था कि शीघ्र ही कोई ऐसा अवसर आनेवाला है, जबकि वह दबा हुआ सन्देह फूट पड़ेगा, और न मालूम क्या रूप धारण करेगा...पर बाहर से वह शान्त था, और हाँ, सुखी भी था...

मानसबल का वक्ष, रात।

बजरे की छत पर, चन्द्रमा के प्रकाश में, शेखर थका हुआ बैठा है। आज दिन भर वह क्या कुछ करता रहा है! वह सौन्दर्य को ठीक-ठाक नहीं समझता, लेकिन उसको सामने पाकर जाने क्यों चंचल हो उठता है, स्फूर्ति से भर जाता है, और भूत की तरह किसी काम में लग जाता है। सौन्दर्य को देखकर वह तन्मय नहीं होता, लेकिन उसके प्रत्येक कार्य में मानो जीवन का जोर बढ़ जाता है...

आज उसने असंख्य कमल तोड़कर उनके हार बहिन को पहिनाये हैं, उसे देवी बनाकर पूजा है, सन्ध्या को आरक्त सूर्य को विदा दी है, झील में चन्द्रोदय देखा है, और सबसे बढ़कर-आज उसने सरस्वती को आत्मविस्मृति में गाते सुना है...गीत के शब्द क्या हैं, उसे नहीं याद, वे कुछ नहीं हैं, उसका भाव भी कुछ नहीं है; वह तन्मयता गीत की निर्गुण गीतमयता ही सब कुछ है...

मानसबल का वक्ष, रात।

बजरे की छत पर, चन्द्रमा के प्रकाश में शेखर थका हुआ बैठा है।

नीचे बहिन का स्वर बुला रहा है, “शेखर, अब उतर जाओ!” पर वह उतरता नहीं, उतर सकता नहीं। और वह जानता है कि कोई चिन्ता भी नहीं उतरने की, बहिन स्वयं लिवाने आएगी।

वह आती है। आकर चारों ओर देखती है और स्वयं चुपचाप बैठ जाती है।

हम लोग काल का मापन निष्प्राण घड़ियों से करते हैं-कितने मूर्ख हैं हम। क्षण में ही जो युग-युग बीत जाते हैं, और युगों तक जो क्षण ही बना रहता है, उसको अनुभव से मापने की सामर्थ्य क्या घड़ियों में है?

दोनों चुप हैं। निश्चल हैं। जीवन खड़ा है-और खड़े होने में ही कितनी तीव्र गति से भागा जा रहा है, न आगे, न पीछे, किन्तु एक नामहीन-अपरिमेय दिशा में...

रात इतनी अतिशय सुन्दर है कि शेखर उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं सोच सकता। उसकी इस अवर्णनीय सुन्दरता ने, विशेषणहीन रात्रिता ने, यह प्रमाणित कर दिया है कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि भूख और लड़ाई बनानेवाला कौन-सा ऐसा ईश्वर हो सकता है, जो इतनी सुन्दरता बना सके? और यदि वह ईश्वर ने नहीं बनायी तो बाकी संसार ही क्यों उसकी कृति है?...

सरस्वती भी शायद ऐसा ही कुछ सोच रही थी। शायद वह भी रात से पूछ रही थी वह उत्तरहीन प्रश्न-'ईश्वर, तू है?'

दिन फट रहा है।

फट रहा है क्योंकि सोकर उठे हुए शेखर को जान पड़ रहा है कि दिन का प्रकाश कुरेद-कुरेदकर प्रत्येक कन्दरा और गह्वर पर से उस सौन्दर्य को उखाड़ फेंक रहा है, जो रात में सर्वत्र छाया हुआ था, जीता था, उस पर इतना हावी हो रहा था कि वह और कुछ देख ही नहीं सकता था...झील कहीं पीछे रह गयी है, बजरा खीर-भवानी के मन्दिर के पास एक गँदले नाले में खड़ा है, आगे-पीछे डोंगियों की कतार लग रही है और धुआँ दे रही है...

शेखर को और उसके भाइयों को सफेद कपड़े पहिनाए गये हैं, और सब लोग मन्दिर की ओर जा रहे हैं। पिता के हाथ में कुछ बेलपत्र और कुछ ताजे कमल के फूल हैं, माँ के हाथ में चन्दन और कुछ सामग्री। शेखर सबसे आगे-आगे चला जा रहा है।

मन्दिर से कुछ दूर खड़ा शेखर कुतूहल से मन्दिर की ओर देख रहा है। बाकी सब लोग इकट्ठे होकर मन्दिर की प्रदक्षिणा कर रहे हैं। पिता शेखर को अलग खड़े देखकर साथ आने का इशारा करते हैं, पर वह अपने स्थान से नहीं हिलता। पिता दुबारा नहीं बुलाते, लेकिन शेखर जानता है कि बात यहाँ समाप्त नहीं हुई है।

बजरे में लौटते ही पिता कठोर स्वर में पूछते हैं, “शेखर तुमने मेरा कहा क्यों नहीं माना?”

एक क्षण शेखर चुप रहता है-एक लम्बी साँस खींचता है। फिर-वह स्वयं नहीं जातना कि क्या हो रहा है, वह क्या कह रहा है, लेकिन बड़े दिनों की संचित हुई शक्ति राह पाकर फूट पड़ती है :

“मैं ईश्वर को नहीं मानता! मैं प्रार्थना भी नहीं मानता! भवानी झूठी है। ईश्वर झूठा है! ईश्वर नहीं है।”

नाऽस्ति।

यह कहने के लिए शेखर सबके सामने बेत से पिटा, लेकिन आह, वह इस वाक्य को कह सकने की सामर्थ्य का अभिमान, वह किसी ध्रुव निश्चय की शान्ति, वह आत्मसम्मान की लहर! वह विश्वास के लिए पिटने का प्रज्ज्वलित आनन्द! और वह अपूर्व विजय, जब एकान्त में दबे स्वर में उसके भाइयों ने बताया कि वे भी ईश्वर में निष्ठा नहीं रखते!

ईश्वर है कि नहीं? लेकिन जिस ईश्वर के होने-न-होने को हम समझ सकते हैं, जिसको निर्गुण, निराकार, अपरिमेय सब कुछ कहकर भी जिसके बारे में हमारा मस्तिष्क इतनी क्षमता रखता है कि उसके होने को अपनी मुट्ठी में कर सकें, किसी अर्थ से कह सकें कि वह है, उस ईश्वर के होने-न-होने से क्या? ईश्वर यदि है तो वही है जिसके बारे में यह भी नहीं कह सकें कि वह है, जो हमारे विश्वास के वृत्त से भी बाहर हो...

लेकिन यह कहना तो वही हुआ कि ईश्वर वही है, जिसके बारे में हम निश्चयपूर्वक कह सकें, 'वह नहीं है'!

एक दाँव ईश्वर ने और खेला।

ईश्वर के बारे में ऐसे मुहावरे का प्रयोग करना सख्त ढिठाई होती-यदि शेखर ईश्वर को अपना बराबर का प्रतिद्वन्द्वी न जानकर उससे कुछ भी अधिक समझता। लेकिन जब तक शेखर पर ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता या मानवता पर शक्तिमत्ता की धाक नहीं जमे, तब तक वह कैसे माने कि ईश्वर उससे दाँव-पेंच करने के अतिरिक्त कुछ कर रहा है?

तो ईश्वर ने एक दाँव और खेला-शेखर पर अपने को प्रमाणित कर देने के लिए।

एक दिन शाम के वक्त शेखर को लगा, घर का वातावरण कुछ बदल गया है-मानो किसी बोझ के नीचे दबा हुआ-सा। और यह भी लगा कि यद्यपि सब काम पहले की तरह ही हो रहे हैं, कोई नयी बात नहीं हो रही है, फिर भी ऐसा जान पड़ने लगा है कि काफी चहल-पहल हो रही है...

शेखर ने आया जिन्निया से पूछा, “आज क्या हो रहा?”

“कहाँ?”

शेखर ने अनायास ही कह दिया-”भीतर।”

जिन्नियाँ हँस दी! फिर बोली, “कल पता लगेगा। ईश्वर अच्छी करे।”

इससे आगे उसने कुछ नहीं बताया। शेखर के यह धमकी देने पर कि वह जाकर माँ से कह देगा कि जिन्निया रसोई में घुस आती है और रसोइया के आगे नाचा करती है, उसने लापरवाही से कहा, “धत्!” और चली गयी।

किसी तरह सोचता-सोचता शेखर सो गया। लेकिन सवेरे उठते ही उसे फिर वही बात याद आयी, और वह भागा हुआ माँ के कमरे की ओर गया-उस कमरे की ओर जहाँ माँ कुछ दिन से अस्वस्थ पड़ी थीं! दरवाजे पर ही पिता को देखकर वह सहम गया। जब पिता निकल गये, तब वह फिर आगे बढ़ा; तभी जिन्निया कमरे में से एक बंडल-सा उठाए बाहर निकली और बोली-”शेखर, देख तेरा नया भाई-”

और तभी बंडल के भीतर से वह 'नया भाई,' नामधारी चीज अपने क्षुद्र शरीर के पूरे जोर से चिल्लाने लगी...

थोड़ी देर तो विस्मयकारी घटना के आतंक में शेखर स्तब्ध रह गया। फिर उसने डरते-डरते बंडल को छूते हुए कहा, “हमें दिखाओ!”

जिन्निया ने दिखाया। देखकर शेखर ने कुछ निराश-सा होकर कहा, “बस!” क्योंकि उसकी मुट्ठियाँ भी नहीं खुलतीं, और देखना तो उसे आता ही नहीं...

विस्मय हट गया तब प्रश्नों की बाढ़ आयी।

यह कैसे आया?

कहाँ से आया?

कब आया?

कौन लाया?

रवि भी ऐसे ही आया था? सब कोई ऐसे ही आते हैं?

जिन्निया इन प्रश्नों का उत्तर दे रही थी, और शेखर उन्हें स्वीकार करता जा रहा था। लेकिन जब शेखर ने पूछा, 'बच्चे क्यों आते है?' और उत्तर मिला 'ईश्वर की जो मर्जी होती है, वही होता है' तब उसने जान लिया कि शुरू से अन्त तक झूठ बताया गया है, और वह एक गुस्सा-भरी निगाह से जिन्निया को देखकर बाहर चल दिया।

माता, पिता, बहिन, आनेवाले नौकर, कोई उसे कुछ नहीं बताएगा। पशु-पक्षियों की बात वह समझेगा नहीं! यदि वह पक्षी होता, तब शायद यह रहस्य समझ सकता, क्योंकि पक्षी तो झूठ नहीं बोलते, उनका तो ईश्वर नहीं है-

लेकिन है किसका ईश्वर? शेखर ने दर्पोद्धत स्वर में कहा, “नहीं है ईश्वर-नहीं है, नहीं है!”

अपने ही पूछे हुए प्रश्न ने, अपनी ही कही हुई एक बात ने, शेखर के जीवन की गति बदल दी।

उसने देखा-समझ लिया-कि कोई किसी का नहीं है, यानी इतना नहीं है कि उसका स्वामी, निर्देशक, भाग्य-विधायक बन सके। कोई ऐसा नहीं है जिस पर निर्भर किया जा सके, जिसे प्रत्येक बात में पूर्ण, अचूक माना जा सके। यदि किसी का कोई है, तो उसकी अपनी बुद्धि; मनुष्य को उसी के सहारे चलना है, उसी के सहारे जीना है, ऐसे स्थान अवश्य हैं जहाँ बुद्धि जवाब दे जाती है, लेकिन इसमें वह ईमानदारी है, जो बात नहीं जानती, वहाँ पर चुप रहती है, गलत उत्तर नहीं देती।

इसका प्रभाव, कम-से-कम लोगों की दृष्टि में, उस पर अच्छा नहीं पड़ा। वह मनचला, उद्धत, सबसे अलग रहनेवाला अड़ियल टट्टू हो गया। और उसे सीधा करने के लिए जो उपचार किये गये, उनका भी उलटा असर हुआ।

स्कूल वह जाता ही था, पर अब स्कूल में भी वह बदलने लगा। उसके शान्त स्वभाव के कारण उसे क्लास का मानिटर बनाया गया था, लेकिन अब वह सदा कुछ शरारत करने की ताक में रहने लगा। बुद्धि उसकी तीव्र थी। वह बिना ध्यान दिये भी क्लास में किसी से पीछे नहीं रहता था; इसलिए उसे हर समय शरारत सोचते रहने में कोई विशेष विघ्न नहीं हुआ।

घंटी बज गयी थी। लड़के सब क्लास में जमा थे। शेखर ने हाजिरी की कॉपी, खड़िया, झाड़न इत्यादि लगाकर मेज पर रख दिये थे, पर मास्टर साहब अभी नहीं आये थे।

मास्टर की अनुपस्थिति में मानिटर की हैसियत से शेखर का काम था कि क्लास को वश में रखे। इसका तरीका शेखर ने यह निकाला कि सब लड़के मिलकर एक काश्मीरी बाजारू गीत गाएँ। वह स्वयं अगुआ था, तब लड़कों को क्या डर? गाना शुरू हुआ। अभी दो कड़ियाँ भी नहीं गायी थी कि मास्टर साहब आ पहुँचे। एकाएकी छा गये सन्नाटे में उनका फटे बाँस-सा स्वर बोला, “मानिटर कहाँ है?”

मानिटर सामने खड़ा था।

“यह क्या है?”

“कुछ नहीं। हम समझे कि बाप आज देर से आएँगे इसलिए-”

“यह खप किसने आरम्भ की?”

सब चुप रहे। ऐसे अवसरों पर लड़कों में एक स्वाभाविक शब्दहीन समझौता रहता है।

मास्टर ने और भी कर्कश स्वर में पूछा, “किसने शुरू की थी?”

क्षण भर फिर चुप्पी रही। फिर एक बेडौल मुसलमान लड़का-जिससे सारी क्लास को घृणा थी, आगे बढ़ गया और बोला, “मानिटर ने सबको गाने को कहा था। मैंने नहीं गाया।”

शेखर और उसके दो अंतरंग सखा, तीनों एक कतार में 'मुर्गा' बने खड़े हैं-यानी टाँगों के नीचे से हाथ डालकर कान पकड़े खड़े हैं। मास्टर शेखर के ठीक सामने खड़ा है। और कह रहा है, “और ऊँचा उठो-और!”

शेखर से मानिटरी छीनकर उस मुसलमान लड़के को दे दी गयी, यह कोई परवाह की बात नहीं, लेकिन सारी क्लास के सामने इस प्रकार का अपमान उसे सह्य नहीं हुआ। सारी क्लास उसकी खिल्ली उड़ाए? कभी नहीं! और धधकते हुए क्रोध ने ही उसे बदला लेने का उपाय बता दिया। मास्टर के आज्ञानुसार वह 'और उठा', और ऐसा करते हुए जान-बूझकर उलट गया, कलाबाजी खाकर नीचे गिरा, और उसके भारी फुलबूट जाकर लगे-मास्टर के पेट में। मास्टर एक 'हुक्!' करके बोर्ड से टकराया, सारी क्लास खिलखिला उठी।

यह घटना इतनी आकस्मिक जान पड़ रही थी कि क्षण-भर मास्टर साहब भौंचक-से रह गये। जब उन्होंने शेखर को उठकर खड़े हुए उनकी ओर घूरते देखा, तभी उन्हें खोई हुई वाणी मिली। उन्होंने दाँत पीसते हुए कहा, “देखूँगा तुम्हें!”

लेकिन उनकी धमकी व्यर्थ गयी। शेखर ने ऐसे स्वर में कहा जैसे किसी कीड़े को कह रहा हो-”तुम उल्लू!” और तीर की तरह क्लास से बाहर हो गया। पीछे क्लास की हँसी उसे सुन पड़ी, उसने जाना कि जीत उसी की हुई है।

उस दिन से शेखर स्कूल नहीं गया। इससे उसके चरित्र में त्रुटियाँ अनेक रह गयीं, लेकिन एक शक्ति भी उसने पायी, जो स्कूलों में कम मिलती है, उसने अकेले होने की सामर्थ्य पायी। स्कूलों में 'टाइप' बनते हैं, वह बना-व्यक्ति।

लेकिन इतना अलग, अकेला कोई भी नहीं है कि उसके बाहर संसार हो ही नहीं। शेखर के जीवन में मनुष्यों का स्थान लिया पशुओं ने, पक्षियों ने, कीड़ों-मकोड़ों, साँपों, फूल-पत्तों, घास, मिट्टी-पत्थर ने। जिस आसन से मनुष्य-समाज का देवता ईश्वर भ्रष्ट हो गया था, वह स्थान लिया जीव-जगत की देवी प्रकृति ने।

सरस्वती अब भी शेखर को पढ़ाती थी। और एक मौलवी साहब भी उसे पढ़ाने के लिए रखे गये थे। लेकिन शेखर का दिन मौलवी साहब के जाने पर आरम्भ होता था और उनके आने के समय समाप्त हो जाता था...मौलवी साहब एक बुरे स्वप्न की तरह भर थे। बाकी दिन शेखर घूमता रहता था-जिधर पैर ले जाते, उधर चला जाता और जो दीख जाता, देख लेता। कभी साँपों को छेड़ता, कभी साँप के पास निश्चल बैठ जाता और प्रतीक्षा करता कि साँप उसके ऊपर से निकल जाय, ताकि उसे पता लगे, साँप आगे कैसे सरकता है (उसने सुना था कि साँप के पेट में जो झिल्ली होती है, उसी के सहारे वह अपने को आगे धकेलता है, और यही वह अनुभव करना चाहता था)। कभी तितलियाँ पकड़ता, उनके रंग देखता, और फिर उन्हें छोड़ देता। कभी फाख्ता कर स्वर सुनता, तो उसकी नकल करता, और घंटो यही देखता रहता कि वह किस प्रकार चिढ़कर अपनी बोली बार-बार बदलती जाती हैं और प्रत्येक की प्रतिध्वनि पाकर चुप हो जाती है। कभी वह पेड़ों पर चढ़ता, घोंसलों की गढ़न देखता, और घोंसलों में भिन्न-भिन्न प्रकार के अंडे देखकर, दिनों प्रतीक्षा करता कि वे फूटें, ताकि बच्चे देखकर पहचाने के किस पक्षी का अंडा कैसा होता है...कभी वह देखता कि किस प्रकार बसन्त के दिनों नर चील बहुत ऊँचा उड़ जाती हैं, और मादा उसे पुकारती रहती है, और घण्टों की प्रतीक्षा के बाद वह उतरता है,...एक बार वह उल्लू, की बोली घंटों सुनता रहा और सोचता रहा कि यह मुँह से बोलता है या नाक से! पहले-पहल जब उसने पपीहा की 'पिउ-कि-कि' सुनी, तो जाने कैसे उसके मन में यह बात बैठ गयी कि पपीहा नीले रंग को होता होगा और उसकी छाती लाल होती होगी। कुछ दिन बाद जब उसने कुछ इसी प्रकार का एक पक्षी देखा, तब वह विह्वल प्रतीक्षा में बैठा रहा कि वह बोले; और जहाँ-जहाँ वह पक्षी गया तहाँ-तहाँ भागा किया...आखिर उसकी प्रतीक्षा सफल हुई-सूर्यास्त के समय पक्षी ने एक अंजीर के पेड़ पर बैठकर चोंच खोली और कर्कश स्वर में पुकारा 'चें-ऊँ'। शेखर का हृदय धक-से हो गया...कई दिन बाद उसने जाना कि वह पपीहा नहीं, नीलकंठ था...

एक दिन वह जंगल में घूमता हुआ भटक गया। यह उसके अत्यन्त असहाय-सहायता के प्रति उपेक्षा किये-अकेलेपन का प्रमाण है कि वह घबराया नहीं; इधर उधर भागा नहीं (जो कभी जंगल में भटके हैं, वे समझे सकते हैं कि उस समय न घबराना क्या चीज है!) अपनी छाती तक लम्बी घास को दबाकर, आसन-सा बनाकर बैठ गया, और बादलों को देखने लगा। कभी जब कोई जंगली मक्खी भिनभिनाती हुई उसके पास आती तब वह उसी की ओर देखने लगता; उसकी हरी और नीली धातु की तरह चमचमाती हुई पीठ, मटमैला लाल सिर, काली मूँछें सब मन में नोट करता रहता।

वह जंगल सरकारी 'रख' था, वहाँ शिकार की मनाही थी। शेखर के बैठे-बैठे एक हिरन आया, कुछ सशंक-सा होकर थोड़ी देर बिलकुल स्तब्ध खड़ा रहा, फिर चौकड़ी भरता हुआ भागा और क्षण भर में ओझल हो गया। वह गठन का सौन्दर्य, वह गति की लय! शेखर ने चित्र बहुत देखे थे, वर्णन भी पढ़े थे-पर असली वस्तु!

जोश में आकर शेखर उठ खड़ा हुआ। तभी उसके पास ही घास में एक भद्दा-सा जानवर निकला और फुँफकारता हुआ भाग गया; शेखर समझ नहीं पाया कि वह घोड़ा है या भैंस...था वह दोनों जैसा और दोनों से भिन्न...

शेखर सोचता हुआ एक ओर को चल पड़ा। अभी उसे घर पहुँचने की चिन्ता नहीं थी-अभी तीसरा ही पहर था।

चलते-चलते घास में से निकालकर एक खुली जगह आकर उसने देखा-एक लड़की तितली पकड़ने का जाल लिए इधर-उधर भाग रही है, उसके बाल मुँह पर बिखर रहे हैं, और उसे संसार का कुछ पता नहीं है। शेखर रुककर उसे देखने लगा, कितनी ही देर तक देखता रहा। एकाएक लड़की ने चौंककर मुड़कर उसे देखा-ठीक वैसे ही जैसे हिरन ने देखा था-और जाल लटकाकर देखती रही।

शेखर उसके पास गया और नम्रता से बोला, “तुम कौन हो?”

“हम-हम।”

इसके आगे शेखर को बात नहीं सूझी। बदलकर बोला, “मैं यहाँ सैर करने आया हूँ।”

लड़की ने उत्तर न देकर, पास जाती हुई एक तितली की ओर जाल फेंका। वह निकल गयी। शेखर हँसने लगा, बोला, “ऐसे नहीं, लाओ मैं बताऊँ।”

लड़की ने कहा, “नहीं, आप ही पकड़ेंगे,” लेकिन उसके कहते-कहते शेखर ने जाल ले लिया और झपटकर तितली पकड़ दी।

लड़की ने रुष्ट मुद्रा से उसकी ओर देखते हुए तितली ले ली, बोली नहीं।

शेखर ने कहा, “और पकड़ दूँ?”

“नहीं, अब बस। मैं थक गयी।”

वह एक ओर चलने लगी। शेखर ने पूछा, “कहाँ जाओगी?”

“घर।”

“कहाँ पर?”

उसने ठोढ़ी उठाकर कहा, “उधर।” किधर यह ठीक पता नहीं लगा। शेखर उसके पीछे-पीछे चलने लगा।

“तुम कहाँ जाओगे?”

“तुम्हारे घर।”

“क्यों?” कहकर वह चलती गयी। शेखर भी पीछे-पीछे चलता गया।

“कितनी दूर।”

“तुमने देखा नहीं?”

“नहीं।”

“तब यहाँ किधर से आये?”

शेखर ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, “मैं रास्ता भूल गया था।”

वह खिलखिलाकर हँस पड़ी, “तभी।”

घर आ गया। शेखर ने पूछा, “तितलियाँ कहाँ रखोगी?”

“पता नहीं, टोकरी में रख छोड़ूगी-”

“नहीं, मैं बताऊँ” कहकर शेखर उसे कोठी के दरवाजे पर ले गया। प्रत्येक दरवाजे में दो किवाड़ थे, एक लकड़ी का, उसके बाहर एक बाहर एक जाली का, और इनमें काफी अन्तर था। शेखर ने कहा, “इसके बीच में बन्द कर दो।”

बालिका ने श्रद्धा से कहा, “यह तो हमने कभी सोचा ही नहीं था।”

शेखर ने मानो उस श्रद्धा की ओर ध्यान न देते हुए कहा, “और थोड़े से पत्ते भी डाल दो, तब मरेंगी नहीं।”

शेखर ने पूछा “रास्ता किधर से है?”

“उधर सीधे। थोड़ी दूर जाकर एक तालाब आएगा, वहाँ से दाहिने मुड़, जाना तब स्कूल आ जाएगा!” वहाँ से पता है न?

“हाँ।” कहकर शेखर चलने लगा।

बालिका को शायद आशा थी कि वह कुछ अधिक कहेगा। वह उसे जाते हुए कुछ देर तक देखती रही, फिर पुकारकर बोली, “फिर आओगे न?”

शेखर ने बिना मुँह फेरे पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“प्रतिभा-मिस प्रतिभा लाल।”

“अच्छा।”

शेखर के जान-बूझकर इसका कोई इंगित नहीं दिया कि यह 'अच्छा' फिर आने के बारे में है या नाम के बारे में।

मैत्री तो वह थी, लेकिन थी विचित्र। जंगल की घास में ये दोनों चले जाते, शेखर कहीं लेट जाता और प्रतिभा कहीं तितलियों के पीछे भागा करती, कभी फूल बीना करती, कभी बाँसों से फूल लाकर जमा करती और फिर एक-एक करके उनका मधु चूसा करती। कभी यों ही खड़ी रहकर तरह-तरह की हँसी हँसा करती...बीच बीच में यह देख लेती थी कि शेखर वहीं तो है, चला तो नहीं गया, और फिर शान्त होकर अपने खेल में लग जाती थी। शेखर से कभी बात करती थी, तो तभी जब कोई तितली बहुत चेष्टा पर भी उसकी पकड़ में नहीं आती थी, या जब कोई फूल उसकी पहुँच से परे होता था...तब वह शेखर की सहायता माँगती थी, और शेखर झट उठकर उसका काम पूरा करके फिर अपने स्थान पर आकर लेट जाता था। या कभी प्रतिभा कुछ बड़े-बड़े बाँस के फूल उसके लिए बचा रखती थी, और पास आकर पूछती थी, 'मधु नहीं खाओगे?' शेखर अपनी ओर बढ़ाए हुए फूल लेकर मधु चूसने के बजाय सारा फूल खा जाता था, और वह खूब हँसती थी-'अरे, मधु खाना भी नहीं आता!' कई बार आवृत्ति होकर भी यह बात पुरानी नहीं होती थी-प्रत्येक बार प्रतिभा उतने ही उल्लास से हँसती थी...

शेखर प्रतिभा के साथ हँसता-खेलता था, उसकी प्रत्येक बात मान लेता था और निष्ठा के साथ पूरी करता था, फिर भी उनका सख्य नहीं स्थापित हुआ था। शेखर प्रतिभा का संगी बनकर भी अपने कवच में से बाहर नहीं आया था, अब भी वैसा ही अलग, अकेला व्यक्ति था। किसी तरह का भी अलगाव या दूरी पहचानने में बच्चे बहुत तीव्र होते हैं और प्रतिभा के अतिरिक्त कोई भी लड़की होती, तो फौरन इस बात को ताड़ लेती और बुरा मानती। पर प्रतिभा अपने में ही इतनी मस्त थी, शेखर के समीपत्व की धूप में उड़नेवाली तितली-सी, कि उसने कुछ नहीं देखा। वह अपने अन्तरतम में बिलकुल स्वार्थी थी, और उनकी मैत्री निभ रही थी तो केवल इसलिए कि शेखर उससे कुछ भी नहीं माँगता था, उसे जैसी वह थी, वैसा ही पाकर सन्तुष्ट था। यह नहीं था कि शेखर इतना दानी था; उसने प्रतिभा से कभी इतना अपनापा अनुभव ही नहीं किया कि उससे कुछ माँगे।

एक दिन प्रतिभा ने पूछा, “तुम्हारे पिता का नाम हरिदत्त है?”

शेखर ने विस्मय से कहा, “हाँ, क्यों?”

“मेरे पिता उन्हें जानते हैं। आज तुम्हें मेरे घर चलना होगा।”

शेखर प्रायः रोज ही वहाँ जाता है। आज इस विशेष चलने की बात सुनकर बोला, “रोज तो चलता हूँ।”

“दुत्, वैसे नहीं। वहाँ पापा से मिलना होगा, खाना खाना होगा।”

शेखर ने थोड़ी देर बाद कहा, “क्यों?”

“क्यों क्या? पापा तुम्हारे पिता को जानते हैं, अब हमें ऐसे मिलने की जरूरत नहीं। अब पूछकर आया करेंगे।”

शेखर थोड़ी देर सोचता रहा। उसे ध्यान आया, वह पिताओं के संसार में नहीं है। उसे यह भी लगा कि उसके संसार में पिता न आएँ तो कोई हर्ज नहीं है। प्रतिभा खेलती है, उसके खेल की आड़ में वह अकेला रहता है, यह ठीक है। वह स्थिति बदलने पर शायद...

शेखर ने फिर कहा, “क्यों!”

इस 'क्यों' का प्रसंग क्या है; प्रतिभा को सहसा नहीं समझ आया। उसने अभिमानिनी रानी की तरह कहा, “क्यों क्या? मैं कहती हूँ इसलिए।” फिर कुछ आग्रह से, “मेरा कहा नहीं करोगे?”

शेखर ने कहा, “हूँ।”

मिस्टर लाल ने अपनी साथवाली कुर्सी की ओर इशारा करके कहा, “बैठो, शेखर।”

शेखर बैठ गया। सामने प्रतिभा बैठी थी, और उसके साथ प्रतिभा की बड़ी बहिन। बीच में मेज पर छुरी-काँटे, तश्तरियाँ इत्यादि सजी हुई थीं।

मिस्टर लाल 'इंगलैंड रिटर्न्ड' डॉक्टर हैं। स्वयं लौटे हैं, तो साथ इंगलैंड का कुछ हिस्सा लेते आये हैं, और भारत की उर्वरा भूमि में उसे बोकर, उसी की छाया में रहते हैं। इस समय 'डिनर' का आयोजन है और उसी की प्रतीक्षा।

शेखर छुरी-काँटे से खाना नहीं जानता। बैठे हुए वह इसी बात को सोच रहा है। लेकिन यह वह कहना भी नहीं चाहता। इसी शशोपंज में डिनर आरम्भ होता है। 'सूप' आता है, और सब लोग खा लेते हैं। दूसरा कोर्स आता है।

शेखर औरों के अनुकरण में पहले छुरी-काँटा उठाता है। लेकिन वह देखता है कि बायें हाथ से काँटे का संचालन उससे नहीं हो सकता। तब वह छुरी और काँटे को बदल लेता है। बायें हाथ से वह कुछ काट भी नहीं सकता, फिर भी किसी प्रकार काँटे पर कौर लादकर वह मुँह की ओर ले जाता है, तो खाली काँटा ही मुँह तक पहुँचता है, कौर गिर जाता है।

प्रतिभा खिलखिलाकर हँसती है, “अरे, खाना भी नहीं आता?”

बड़ी बहिन कहती है, “हिश!”

शेखर छुरी-काँटा रख देता है। मिस्टर लाल देखते हैं, और अनदेखी कर जाते हैं कि वह अधिक खिन्न न हो।

सब्जी आती है। मिस्टर लाल के लिए गोश्त आता है। सलाद आता है। आइसक्रीम आती है।

शेखर खाता नहीं, देखता ही रहता है। जब सब कुछ हो चुकता है, तब वह देखता है कि उसके सामने पड़ी-पड़ी आसक्रीम पिघल गयी है। और लोग चम्मच से खा रहे हैं, लेकिन वह चम्मच का उपयोग जानते हुए भी प्याला उठाकर उसे पी जाता है।

प्रतिभा कहती है, “देखो पापा, देखो, कैसे खा रहा है।”

मधु खाते समय शेखर फूल भी खा जाता है, तब भी प्रतिभा हँसती है। तब शेखर स्वयं मुस्कराता भी नहीं, लेकिन होता है प्रसन्न। पर अब...

शेखर उठ खड़ा हुआ। नैपिकन मेज पर पटका और बिना किसी ओर देखे जल्दी से बाहर चला गया।

दूसरे दिन शेख नदी के किनारे भटक रहा था। जंगल कहीं नहीं था और प्रतिभा-मर गयी थी।

नदी के अधबीच एक टापू था, उसमें देवी का एक मन्दिर था। शेखर अपना समय वहाँ बिताने लगा।

वह मन्दिर के बाहर बैठा रहता और आने-जाने वाले उपासकों को देखा करता। उनका श्रद्धा-भाव देखकर उसके मन में वही पुराना प्रश्न फिर उठता और बैठ जाता, उसे आस्था नहीं होती; फिर भी मन्दिर का वातावरण उसे आकर्षक जान पड़ता और वह नित्य आता...

नदी में साँप थे। शेखर हमेशा पुल पर से पार होकर टापू पर आया करता था, लेकिन उपासक पानी में से चलकर आते थे।

एक दिन शेखर के देखते-देखते एक को साँप ने काट खाया। वह उचककर बाहर आया, पुकारकर बोला, 'जय देवीमाता की!' और मन्दिर के भीतर चला गया। पूजा करके बाहर निकल आने पर ही उसने काटे का उपचार आरम्भ किया।

घंटे-भर बाद, शेखर के सामने ही उसने एक बार फिर कहा, 'जय देवी-माता की!' और चुप हो गया। और कुछ मिनट बाद-

लोग उसे उठा ले गये।

शेखर का अविश्वास, शेखर का नकारात्मक विश्वास हिल गया। घर लौटते हुए वह फिर-फिर पूछने लगा, 'ईश्वर, क्या सचमुच तू है?'

श्रीनगर में चश्मागाही से ऊपर एक महल का खंडहर है। कहते हैं कि यह महल राजकुमारी जेबुन्निसा ने बनवाया था और यहाँ एकान्तवास करती हुई वह कविता लिखा करती थी। महल चाहे किसी ने बनवाया हो, जिसने यह स्थान चुना था, वह अवश्य कवि था...

वहाँ भी साँप थे। जब शेखर पहले-पहल वहाँ गया, तब उसमें बहुत-सी कहानियाँ सुनीं-वहाँ भूत रहते हैं, उस महल के कमरों पर छतें नहीं हैं, इसलिए रात को वहाँ प्रेत उतर आते हैं, परियाँ नाचती हैं...

और महल का नाम था परी-महल...

शेखर ने लौटती बार निश्चय किया कि वह कभी वहाँ अकेला आएगा, और थोड़े ही दिन बाद उसे अवसर भी मिल गया।

शेखर वहाँ तीसरे पहर पहुँचा। महल के कमरों की छत तो थी नहीं; वह दीवार पर चढ़ गया और सामने की ओर आकर नीचे डल झील का दृश्य देखने लगा।

वह डल देख रहा था : डल से बहुत अधिक कुछ देख रहा था। धीरे-धीरे उसके ऊपर एक सम्मोहन-सा छा गया, एक मूर्च्छा-सी; उसे लगा, उसके पास-उसके पास नहीं, उसके भीतर, उसके सब ओर, कुछ आया है, कुछ जिसका वह वर्णन नहीं कर सकता; लेकिन जो बहुत सुन्दर है, बहुत भव्य, बहुत विशाल, बहुत पवित्र...इतना पवित्र कि शेखर को लगा, वह उसके स्पर्श के योग्य नहीं है, वह मैला है, मल में आवृत है, छिपा हुआ है...उसी सम्मोहन में उसने एक-एक करके अपने सब कपड़े उतार डाले, नीचे फेंक दिये, और आँखें मूँदकर खड़ा हो गया, बिलकुल नंगा, आकाश के सामने और उस पवित्र के, उस पवित्र से परिपूर्ण, उसके स्पर्श से रोमांचित...

बहुत देर बाद चौंककर उसने आँखें खोलीं, जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और बिना एक बार मुड़कर देखे भी सीधा घर की ओर भागा...

वह क्या था? ईश्वर? प्रकृति सौन्दर्य? शैतान? दबी वासना? ईश्वर?

उसे नहीं मालूम। पर उसने वह संग, वह कैवल्य, फिर कभी नहीं प्राप्त किया...

यह फिर कभी वहाँ नहीं गया। बुद्ध भी, बोधिवृक्ष के नीचे दुबारा नहीं बैठे होंगे।

खूब बर्फ पड़ी है, और पड़ रही है। शेखर के पिता सपरिवार एक बर्फ से ढकी हुई सड़क पर मोटर में बैठे चले जा रहे हैं। कभी-कभी थोड़ी-सी बर्फ भीतर पहुँच जाती है, तब कोई तंग होता है और बाकी हँसते हैं...

सभी को मचली हो रही है। शेखर के भाइयों ने खिड़की से बाहर मुँह निकालकर कै भी कर दी है और कार में उनकी दुर्गन्ध भर रही है। शेखर आगे बैठा है, इसलिए उसे इतना कष्ट नहीं हो रहा है। वह गिरती हुई बर्फ की ओर देखता जा रहा है...

शेखर के पिता की फिर बदली हो गयी है। इसीलिए वे इतनी देर तक श्रीनगर में रहे हैं, नहीं तो ये कभी के जम्मू चले गये होते। और अब वे बिहार की ओर जा रहे हैं...

एक बार सड़क के मोड़ पर पिता ने कहा, “वह देखो, जहाँ से हम आये हैं।”

शेखर ने ऊपर देखा। जिस पथ पर से वे उतरकर आये थे, वह दीख रहा था और उसके पीछे-एक विस्तीर्ण सफेद पर्दा, जिसके पीछे क्या-क्या छिपा हुआ था...

शेखर को याद आया, चलने से कुछ दिन पहले उसने सबसे छिपाकर बर्फ का एक आदमी बनाया था, और उसे उठाकर अपने कमरे में ले आया था। उसे वहाँ रखकर सो गया था। दूसरे दिन उठकर उसने पाया कि वह पुतला कहीं नहीं है, और फर्श भीग रहा है। उसने छटपटाकर पूछा था, 'माँ, मेरा पुतला किसने उठाया? बहिन, मेरा पुतला किसने उठाया? भइया, मेरा पुतला किसने उठाया?' और किसी ने नहीं बताया, सबने कहा कि हमने नहीं देखा...वह आखिर गया कहाँ, यह उसे समझ नहीं आया...

और उस बर्फ के पर्दे की ओर देखते-देखते उसके मन में फिर उसी प्रश्न का उदय हुआ-'ईश्वर?'