शेखर: एक जीवनी / भाग 1 / प्रवेश / अज्ञेय

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फाँसी!

जिस जीवन को उत्पन्न करने में हमारे संसार की सारी शक्तियाँ, हमारे विकास, हमारे विज्ञान, हमारी सभ्यता द्वारा निर्मित सारी क्षमताएँ या औजार असमर्थ हैं, उसी जीवन को छीन लेने में, उसी का विनाश करने में, ऐसी भोली हृदयहीनता-फाँसी! फाँसी, क्यों? अपराधी को दंड देने के लिए। पर इससे क्या वह सुधर जाएगा? इससे क्या उसके अपराधों का मार्जन हो जाएगा? जो अमिट रेखा उसके हाथों खिंची है, वह क्या उसके साथ मिट जाएगी? फाँसी, दूसरों को शिक्षा देने के लिए। पर यह कैसी शिक्षा है कि जीवन के प्रति आदर-भाव सिखाने के लिए उसी की घोर हृदयहीन उपेक्षा का प्रदर्शन किया जाय! और, इससे भी कभी कोई सीखा है...मुझे तो फाँसी की कल्पना सदा मुग्ध ही करती रही है-उसमें साँप की आँखों-सा एक अत्यन्त तुषारमय, किन्तु अमोघ सम्मोहन होता है...एक सम्मोहन, एक निमन्त्रण, जो कि प्रतिहिंसा के इस यन्त्र को भी कवितामय बना देता है, जो कि उस पर बलिदान होते हुए अभागे-(या अतिशय भाग्यशाली!) को जीवन की एक सिद्धि दे देता है, और उसके असमय अवसान को भी सम्पूर्ण कर देता है...

फाँसी!

यौवन के ज्वार में समुद्र-शोषण। सूर्योदय पर रजनी के उलझे हुए और घनी छायाओं से भरे कुन्तल। शारदीय नभ की छटा पर एक भीमकाय काला बरसाती बादल। इस विरोध में, इस अचानक खंडन में निहित अपूर्व भैरव कविता ही में इसको सिद्धि है...

सिद्धि कैसी-काहे की? मेरी मृत्यु की क्या सिद्धि होगी-मेरे जीवन की क्या थी?

यवनिका उठती है और गिर जाती है। परदे आते हैं और बदल जाते हैं। किन्तु यवनिका का प्रत्येक आक्षेप, परदे का प्रत्येक परिवर्तन, अपने अवसान में लीन होकर भी, नाटक के प्रवाह में एक बूँद और डाल जाता है; एक बूँद जो स्वयं कुछ नहीं है, किन्तु जिसके बिना उस प्रवाह में गति नहीं आ सकती-जिसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं हो सकता।

मैं अपने जीवन का प्रत्यवलोकन कर रहा हूँ, अपने अतीत जीवन को दुबारा जी रहा हूँ। मैं जो सदा आगे ही देखता रहा, अपनी जीवन-यात्रा के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचकर पीछे देख रहा हूँ कि मैं कहाँ से चलकर किधर-किधर भूल-भटककर, कैसे-कैसे विचित्र अनुभव प्राप्त करके यहाँ तक आया हूँ। और तब दीखता है कि मेरी भटकन में भी एक प्रेरणा थी, जिसमें अन्तिम विजय का अंकुर था, मेरे अनुभव वैचित्र्य में भी एक विशेष रस की उपभोगेच्छा थी जो मेरा निर्देश कर रही थी। और जीवन-यात्रा के पथ में जो पहाड़, तराइयाँ, नदी-नाले, झाड़-झंखाड़, आँधी-पानी आये, उन सबमें मेरे और केवल मेरे सम्बन्ध में एक ऐक्य था, जिसका ध्येय था किसी विशेष काल में, विशेष परिस्थिति में, विशेष स्थान पर, विशेष साधनों और उपायों से मेरे जीवन का विशेष रूप से समापन, जिससे उसे अपनी सिद्धि, अपनी सफलता, और अपनी सम्पूर्णता प्राप्त हो जाय...अब मैं अधूरा हूँ, पर मुझमें कुछ भी न्यूनता नहीं है; अपूर्ण हूँ, पर मेरी सम्पूर्णता के लिए कुछ भी जोड़ने को स्थान नहीं है।

सिवाय इस प्रत्यवलोकन के। शायद, जीवन-पथ के अन्तिम पड़ाव का पाथेय ही यही है, क्योंकि मुझे इससे, और इस मात्र से, तृप्ति मिलती है...

सबसे पहले तुम, शशि।

इसलिए नहीं कि तुम जीवन में सबसे पहले आयी या कि तुम सबसे ताजी स्मृति हो। इसलिए कि मेरा होना अनिवार्य रूप से तुम्हारे होने को लेकर है-ठीक वैसे ही जैसे तलवार में धार का होना सान की पूर्वकल्पना करता है। तुम वह सान रही हो, जिस पर मेरा जीवन बराबर चढ़ाया जाकर तेज होता रहा है-जिस पर मँज-मँजकर मैं कुछ बना हूँ, जो संसार के आगे खड़ा होने में लज्जित नहीं है-लज्जित होने का कोई कारण नहीं जानता।

तुम जीवित नहीं हो। मेरे शेखर के बनने में ही तुम टूट गयी हो-शायद स्वयं शेखर के हाथों ही टूट गयी हो। और मैं अपने मन में बार-बार यह दुहराकर कि 'शशि नहीं है, शशि मर गयी है, शशि नहीं है', भी यह समझ नहीं पाता कि क्या हुआ-अपनी क्षति का कोई अनुमान नहीं लगा सकता, कोई अनुभव नहीं कर पाता!

क्यों? क्यों...तेज तलवार कैसे यह जान पाये कि सान अब टूट गयी है, जब तक कि वह स्वयं भोंड़ी न हो जाय, या टूट न जाय...और मैं अभी जीता हूँ। अभी जल रहा हूँ, अभी 'हूँ'-

पर, तब मैं क्यों कहूँ कि तुम नहीं हो? जो सान तलवार को बनाती है, वह तब तक कि तलवार नहीं टूटती। मुझे मरना है, फाँसी पर झूलकर मरना है, पर अभी मैं जीता हूँ।

मैं तुमसे माँगता हूँ कि मुझे आज्ञा दो, मैं तुम्हें याद करूँ। जहाँ तुम हो वहाँ 'याद' शब्द को लाना पूजा को भ्रष्ट करने-सा है, फिर भी मैं तुमसे माँगता हूँ, यह भी अधिकार मुझे दो। तुम मर गयी हो, अत्यन्त न-कुछ हो गयी हो, यही मुझे अपने आपको समझाने दो-और इसके लिए उसे सामने लाने दो, जिसे मैं 'कुछ' समझूँ-तुम्हारी छायाएँ, जिन्हें कभी मैं सच समझता था...

नहीं, वह क्षण नहीं जिसमें कि मैंने घबराकर पूछा था, 'क्या होता है शशि?' और तुमने भर्रायी हुई, बेहोश होती हुई आवाज में कहा था, 'सुख, शेखर, सुख...' उस क्षण को क्षण ही भर से अधिक सामने आने देने की क्षमता मुझमें नहीं है।

मुझे याद आता है, कभी ऐसा भी था कि हम सहज भाव से मिलते-जुलते थे। स्नेह हममें था; मोह हममें था; लेकिन वह स्नेह नहीं जो कि विघ्नों के सहारे बहता है, वह मोह नहीं जो कि पीड़ा की नींव पर ही अपना घर खड़ा करता है...

जब मैं जेल से आकर पहले-पहल तुम्हें मिला था, तब तुम्हें देखकर एक गहरा आघात मेरे मन पर हुआ था। तभी मैंने कहा था-'बाहर आकर मेरा बहुत कुछ खो गया है। भीतर मैं तुम्हें अपने से एक ही देखता था-अब लगता है कि मुझे तुम्हें दुबारा पहचानना है।' और तब तुम रोयी थीं...

तब तुमने सहसा कहा था-'मेरा घर देखने न चलोगे?' क्योंकि तुम्हारी शादी हो चुकी थी, तुम्हारा घर था...

मैंने तुम्हारा घर देखा, उन्हें भी देखा, जिनके आधार पर वह घर तुम्हारा घर हुआ था। और मुझे लगा, तुम सन्तुष्ट बैठी हो, तुम्हारे जीवन के चलने के लिए एक पटरी निश्चित हो गयी है और उस पटरी के इधर-उधर कहीं कोई नहीं है। तब मेरा संकोच और भी दृढ़ हो गया कि मुझे दुबारा पहचानना है-तुम मेरी परिचित नहीं हो...

मैंने कहा, 'शशि कुछ गाओ।'

'अब मैं नहीं गाती-वाती।'

'क्यों, अब बहुत बुजुर्ग हो गयी हो क्या?'

तुम हँसीं। और उस हँसी की ध्वनि के आसरे ही मुझे एकदम वह क्षण प्राप्त हुआ, जो जीवन में कभी-कभी ही आता है। बहुत ही स्पष्ट, अचूक दृष्टि से मैंने देखा, मेघाच्छन्न आकाश, प्रकाशहीन सायंकाल, पवन अचंचल, चंचला भी अदृश्य, और उड़ते-उड़ते सहसा पंख टूट जाने से विवश गिरता हुआ अकेला-ही-अकेला एक पक्षी, जो गिरता है और फिर अपनी उड़ान, अपना स्थान पा लेने के लिए छटपटा रहा है, छटपटा रहा है...

मैंने एकदम से तुम्हें पहचान लिया...तब मुझसे नहीं हो सका कि मैं वहाँ बैठा रहूँ-मैं विदा माँगकर चल पड़ा।

तुम द्वार तक छोड़ने आयीं।

'देख लिया मेरा घर?'

'हाँ, देख लिया। बहुत कुछ देख लिया।' कहकर मैं जल्दी से बढ़ गया, और तुम उस अपने घर की परिधि में घिरी खड़ी रहीं!

बन्दावीर के समय में बने हुए मकानों के खँडहर और उनके आसपास बने हुए उनसे नये, किन्तु फिर भी बहुत पुराने मकान। ऐसे एक मकान में शेखर बैठा है। 'कमरे' में वह बैठा है, यह वास्तव में रसद की कोठरी के एक ओर बनी हुई पुराने ढंग की खिड़की की चौखट है; चौड़ा और बेडौल, प्राचीनता से काला पड़ा हुआ, किन्तु कामदार। इसी चौखट पर वह बैठा है, हाथ दोनों ओर लटक रहे हैं और सिर दायीं ओर बाहर को झुका हुआ है।

कमरे की दीवारों में और खिड़की की चौखट में अनेक गोलियों के निशान हैं। दीवारों में दो-चार जगह भीतर से गोलियाँ चलाने को मोरचे बने हुए हैं। ये गोलियों के निशान और ये मोरचे उस मकान के इतिहास का एक परिच्छेद हैं, जिसे अब कोई नहीं पढ़ता। वह भी खिड़की में बैठा इन्हें नहीं देख रहा है, उसकी आँखों के सामने जो दृश्य है, उसका इससे दूर का भी सम्बन्ध नहीं है।

टूटी हुई दीवारों से घिरा हुआ एक छोटा-सा आँगन। उसके एक कोने में, छोटा-सा बेरी का वृक्ष, जिसकी छाया में एक टूटा-सा अन्धा कुआँ। कुएँ के पास पुराने ढंग की छोटी-छोटी ईंटों का एक ढेर, कुछ पीले-पीले, उड़कर आये हुए पीपल के पत्ते आँगन के दायीं ओर, दीवार के बाहर एक पीपल, जिसके नीचे एक गाय बँधी है, उससे कुछ दूर एक छोटे-से मन्दिर का छत्र और सिरिस के पेड़ की कुछ फुनगियों की झाँकी। और यह सब दुपहर की प्रशान्त नीरवता में।

वह बैठा इसी को देख रहा है। शशि के पिता हृदय रोग से बीमार पड़े हैं, इस कारण सारा कुटुम्ब किसी अनिष्ट की प्रतीक्षा में भरा रहता है। एक काली छाया घर पर मँडराती रहती है, और ऐसा जान पड़ता है कि घर के विभिन्न कमरों की नीरवताएँ आपस में बहुत दबी हुई कानाफूसी किया करती हैं।

इस विचित्र काँपती हुई नीरवता से बचकर वह यहाँ आकर बैठ जाता है और इस दृश्य को देखकर उसमें घर के वायुमंडल की गन्ध को भुलाने की चेष्टा करता है। क्योंकि वह कुटुम्ब के प्रत्येक व्यक्ति से स्नेह करता है, पर उससे यह उपालम्भपूर्ण-सा मौन सहा नहीं जाता।

उस घर की देवी है शशि, उसकी बहिन। यह शशि के ही कारण है कि कॉलेज के सजीव और उन्मुक्त वातावरण से भागकर वह यहाँ आ जाता है, इस छाया में भी सान्त्वना पाता है।

वह उसकी सगी बहिन नहीं है। पर उस सम्बन्ध से उसे यदि कोई अन्तर जान पड़ता भी तो दूरी का नहीं, बल्कि और अधिक समीपत्व का, एक निर्बाध सखा भाव का। वह भाव जैसे प्रातःकालीन शारदीय धूप की तरह है, जिसमें वह उस घर की ही नहीं, अपने अन्तर की भी छायाओं को सुला लेता है।

वह सगी नहीं है। इसलिए शेखर उसे कभी 'याद' नहीं करता, कभी 'देखता' नहीं, अधिकार उसने नहीं पाया। पूजा ही पूजा उसने दी है। वह वहाँ स्वप्न देखा करता है, और शशि स्वयं चित्र की तरह न आकर, उसे आलोकित करने वाले प्रकाश की तरह आती है, विचार न होकर अनुभूति रहती है।

वह अनुभूति कभी एक प्रखर कम्पन में व्यक्त हो उठती। शशि गाती है। उसकी आवाज़ में अलंकार नहीं है, कलावान की बारीकियाँ और उसकी मनमोहक छलना नहीं है, पर उसमें है एक प्रकम्पमय दीप्ति, शरत्काल में सेकी हुई आग की मीठी गरमाई; उसमें है बेला के स्वर-सा घनत्व, उसमें है उषा के समय दूर पहाड़ पर बजती हुई बीन की खिंची हुई वेदना, उसमें है बरसात की घोर अँधेरी रात में सुनी हुई वंशी का मर्मभेदी आग्रह, और इन सबके साथ-साथ है यौवन के गहरे और टूटने की सीमा तक आकर न टूटनेवाले स्वर की ललकार-सी।

और वह गाती है-क्या? एक गान जिसे शेखर ने कई बार, कई मुखों से सुना है, कई बार एक-एक हजार व्यक्तियों के समवेत स्वर में भी सुना है, पर जिसमें उसने वह अर्थ, वह ऊर्ध्वमुखी ज्वाला कभी नहीं पायी...

क्या था जो मुझमें जागता था उस गान को सुनकर? प्रेम, या व्यथा, या युत्सा, या तीनों? जो कुछ भी हो, वह एक सम्मोहन की तरह छाकर मुझे दिखाता था वीरत्व के और रणप्रांगण के उन्मत्त स्वप्न, जिनमें खोकर मैं अपने को अपनी ही शक्ति की, अपने ही बलिदानों की, अपने ही आग्नेय आत्मविसर्जन की कहानी सुनाने लगता-कहानी जिसका हेतु, जिसकी आन्तरिक प्रेरणा शशि ही होती। और उससे मेरे भीतर जागती थी एक पवित्रतम वस्तु की चेतना, जिसके लिए मैं जिहाद करने को प्रस्तुत होता, मुझे लवलीन कर लेती थी एक रहस्यमय भावना...

शशि के व्यक्तित्व की यह पुकार, यह 'अपील' थी मेरे मन के एक खंड के लिए, जो कि जीवन में क्रियाशीलता के उफान से छलका पड़ता है, जो विद्रोही है। किन्तु मेरे मन का दूसरा खंड, जो कि सृष्टि के सौन्दर्य को ही प्रतिबिम्बित कर सकता है, जो वास्तव में मेरे मस्तिष्क का हृदय है, और इसलिए कवि है, वह जागता था शशि की हँसी से। उस हँसी में कुछ था जो चौंका देता था, पर साथ ही वाणी की शक्ति को भी छीन लेता था। वह हँसी कविता से भी परे थी, उसे सुनकर चुप ही होना पड़ता था। कल्पना देखती थी नदियों के, जल-प्रपातों के, चन्द्रोदय के, समुद्र के, व्योम-गंगा के दृश्य, और फिर चुपचाप लौट आती थी उसी हँसी को सुनने।

मेघाच्छन्न आकाश। प्रकाशहीन सायंकाल। पवन अचंचल। चंचला भी अदृश्य। और आज वह पक्षी भी नहीं है, जो उड़ते-उड़ते पंख टूट जाने से विवश गिरता जा रहा था, पर अपना स्थान पाने के लिए छटपटा तो रहा था, छटपटा तो रहा था...

एक तापसी का स्वर इस छोटे-से नरक में मुझे एक पवित्र तपोवन दिखाकर उस विराट् वंचना का एक कण भर कम कर देता है, परिस्थिति को और उपयुक्तत् को भूलकर, किन्तु एक दिव्य संवेदना से कहता है; 'चक्रवाकवधुके! आमन्त्रयस्व सहचरं। उपस्थिता रजनी!'

आह रजनी?

पता नहीं, किस सुदूर देश से यात्रा करते आये हैं हम? हमारा बजरा अभी श्रीनगर से कुछ एक मील ही आया है, किन्तु ऐसा जान पड़ता है कि इस यात्रा में युगों बीत गये हैं-कि यह यात्रा अनन्त काल से चली आयी है और अनन्त काल तक चली जाएगी-कि इसके यात्री नारद का शाप पाए हुए हैं, और कभी कहीं रुक ही नहीं सकते।

बजरा जेहलम की नहर में से होकर अब मानसबल झील में प्रवेश कर रहा है। जेहलम का गँदला पानी पार किया जा चुका है, चिनार वृक्षों की घनी छाया भी बहुत दूर रह गयी है। अब तो झील की निर्मलता, आकाश की अनभ्रता को प्रतिबिम्बित कर रही है, और झील के अन्तर में उगती हुई लम्बी-लम्बी घास सूर्य की ज्योति को प्रतिबिम्बित करती हुई, अनेक रंगों में चमक रही है-कहीं सुनहरी, कहीं लाल, कहीं एक प्रोज्ज्वल हरापन लिये हुए। और उनकी उलझन को चीरकर कभी-कभी कोई किरण तल पर पड़े किसी पत्थर को चमका देती है।

बजरा तीव्र गति से नहीं जा रहा है। वह बह रहा है ऐसे क्षीण प्रवाह में, मानो उसे चलानेवाली शक्ति उसे धकेलकर समाप्त हो गयी हो और वह उसी धक्के की पीनक में चला जा रहा हो, अभी रुक न पाया हो! उसकी अगली नोक मानों नींद से जागकर अपने सामने नाचते हुए किरण-जाल को देखकर उसे पकड़ने को एक अलसाया हुआ हाथ बढ़ा रही हो।

और उसके अग्रभाग में दो व्यक्ति बैठे हैं। बालक निकर पहने हुए, किन्तु सारा शरीर नंगा, उलझे हुए भूरे बाल, और हाथों में एक लम्बी-सी छड़ी लिये, जिसके आगे एक काँटा बाँधकर लग्गा बनाया गया है। यह बालक झील में से श्वेत कमल तोड़ रहा है, तोड़-तोड़कर अपने आगे ढेर जमा करता है, पर सन्तुष्ट नहीं होता। तोड़ता भी है वह, तो अधखिली कलियाँ ही तोड़ता है, पूरा खिला हुआ, न जाने क्यों, उसे अच्छा नहीं लगता।

उससे, कुछ ही दूर पर, एक लड़की बैठी है। किन्तु मनसा, वह सैकड़ो-हज़ारों मील दूर है। उसके पास एक अँग्रेज़ चित्रकार के बनाए हुए काश्मीर के अनेक चित्र पड़े हैं, और उसकी गोद में एक किताब-कालिदास का रघुवंश। पर वह चित्र भी नहीं देख रही, पुस्तक भी नहीं पढ़ रही है। वह उस बालक की ओर शून्य दृष्टि से देख रही है, मुँह से कुछ गुनगुना रही है, और मनसा पता नहीं क्या सोच रही है।

बालक की आयु है कोई आठ-एक वर्ष, बालिका की कोई तेरह वर्ष। बालक स्वयं मैं हूँ और वह बालिका मेरी बहिन।

बजरे में और भी अनेक लोग हैं। किन्तु इस दुपहर के संसार में स्नेह की धूप का आनन्द लेनेवाला कोई और नहीं है। वे अलग हैं, खोए हुए हैं। और बजरा अपनी धीर गति से उनके स्वप्नों का पीछा करता जा रहा है।

बालक फूल तोड़ते-तोड़ते थक गया है और अब फूलों का वह बाहुल्य भी नहीं रहा, अब कहीं दूर पर एक आध फूल मिल जाता है। अब वे झील की गहराई में आ रहे हैं। बालक उन फूलों की लम्बी-लम्बी नाल को टुकड़ों में चीरकर मालाएँ बना रहा है। नाल दो होकर मालाकार हो जाती है, और प्रत्येक माला के नीचे एक फल का लोलक रह जाता है। वह मालाएँ बनाता जाता है, और जब-जब एक तैय्यार हो जाती है, तब-तब दबे पाँव अपनी बहिन के पास जाकर, धीरे से उसके गले में डाल देता है। वह निश्चल बैठी रहती है, प्रत्येक बार एक स्वप्निल-सी मुस्कान मुस्करा देती है, और फिर खो जाती है। भाई ने उसे फूलों से लाद दिया है, पर उसकी तृप्ति नहीं हुई, और वह भी उसे मना नहीं करती।

फूल भी समाप्त होने को आये-कुछ एक रह गये, जिनकी एकाध पत्ती टूट गयी है। बालक सोच रहा है कि ये माला के उपयुक्त नहीं हैं, पर साथ ही उसे जान पड़ता है कि मालाएँ थोड़ी रह गयीं। अभी तो कई और लादी जा सकती हैं...तब वह अप्रतिभ-सा होकर, अपराधी-सा बहिन के पास जाकर कहता है-'बाकी तो अच्छे नहीं हैं।'

उसका असन्तोष देखकर बहिन हँसती है और कहती है, 'बहुत हैं-और क्या कुलच दोगे?'

और फिर खो जाती है। बालक उसके पास बैठ जाता है, पूजा के भाव से उसकी गुनगुनाहट सुनता हुआ, मानो देवी उसे वरदान दे रही हो-

वे शब्द मुझे आज भी भूले नहीं। उन दिनों मैं उनका अर्थ नहीं जानता था, आज जानता हूँ। पर उन दिनों जो स्वप्न देखे थे, जो भाव जगाए थे, उनका अर्थ नहीं जान पाया-वे अर्थ से परे हैं...


स्त्रगियं यदि जीवितापहा हृदये किन्निहिता न हन्ति माम् ?

बहिन को गाते-सुनते, एकाएक कोई अज्ञात भाव बालक के मन में जागता है। वह एकाएक उत्पन्न नहीं हुआ, कई दिनों से धीरे-धीरे उसके हृदय में अंकुरित हो रहा है, किन्तु इसकी यह व्यंजनीय सम्पूर्णता नयी है, आज ही मालाएँ पहनाते समय और गायन गुनते समय, उसके मानसिक क्षितिज के ऊपर आयी हैं। एक अत्यन्त कोमल स्पर्श से बहिन के कपोल को छूकर बालक कहता है, 'कितनी अच्छी लगती हो तुम!'

उसकी शब्दावली में सुन्दर और असुन्दर, अच्छे और बुरे, सत्य और असत्य के लिए अलग-अलग संज्ञाएँ नहीं है। वह अबोध बालक है, पर 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के तथ्य को भली-भाँति समझता है। इसीलिए अपने हृदय के अप्रस्फुट भाव को व्यक्त करने के लिए यही कह पाता है, 'कितनी अच्छी लगती हो तुम!'

और बहिन भी उसे समझती है। वह फिर हँसती है, और एक बहुत क्षीण-सी लज्जा से अधिक सुन्दर हो उठती है और मुँह फेरकर पानी में देखने लगती है।

क्या उसमें अपना अलक्ष्य प्रतिबिम्ब देखने के लिए? मैं नहीं जानता, वह भी शायद ही जानती हो। और वह अब एक अज्ञात परिवर्तन से बदल रही है। मैं अब भी उसे अपने सारे रहस्य कह डालता हूँ, किन्तु उसे अब ज्ञात हो रहा है कि उसके अधिकार में एक स्वतन्त्र रहस्यागार है-उसका हृदय?

जैसे मोतियों की माला टूट गयी हो, और बिखरे मोतियों को फिर एक बेतरतीब लड़ी में पिरो दिया जाय, उसी तरह मेरी स्मृतियों की तरतीब उलझ-सी गयी है। इसी दृश्य के साथ मुझे दीखता है एक और दृश्य, जिसमें पात्र भी वही हैं, उपकरण भी वही हैं, पर जिसकी आन्तरिक प्रेरणा बिलकुल विभिन्न है। वह दृश्य की दृष्टि से बिलकुल इसके साथ हैं, किन्तु मेरे जीवन के प्रभाव में, ऐसा जानना पड़ता है कि उसका इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं, और यदि कोई है भी तो यही कि ये दोनों दृश्य दो अत्यन्त भिन्न भावनाओं के समकालीन विकास के चिह्न हैं...

वही झील, वही बजरा, वही दिन। सन्ध्या हो चुकी है, सब लोग अन्दर चले गये हैं। मैं ही अकेला बजरे की छत पर बैठा हूँ। झील पर आकाश के गाढ़े और सम्मिश्रित रंग का प्रकाश पड़कर उसे ऐसा बनाए है, जैसे प्रकृति की वह निश्छल आँख नींद से अलसाई हो, और उसे घेरे हुए बरौनियों की तरह सब ओर लम्बी-लम्बी घास क्षितिज-रेखा को जहाँ-तहाँ चीर रही है। मैं मुग्ध होकर भी इसी घास के श्याम छायाचित्र को देख रहा हूँ। वह काली है, स्वतः सौन्दर्य-विहीन है, किन्तु कितने सौन्दर्य को घेरे हुए!

और इतना ही नहीं, मैं किसी प्रतीक्षा में बैठा हूँ। पूर्व की ओर, घास की बरौनियाँ और भी काली दीख पड़ रही हैं, क्योंकि उनके ऊपर आकाश में एक चिकना-सा सफेद प्रकाश छा रहा है। मैं कल्पना ही में यह देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि चन्द्रोदय से किस वस्तु में क्या परिवर्तन आ जाएगा, कौन-सा आकार दीखने लगेगा। मैं नहीं जानता कि वास्तविकता मेरी कल्पना से कितनी बढ़कर हो सकती है...

नीचे, बजरे के अन्दर, कोई गा रहा है। मैं कान देकर सुनता हूँ-दो स्वर एक साथ ही गा रहे हैं। एक मेरी बहिन का है, और एक हमारी मौसी का। उस गायन के शब्द मुझे याद नहीं हैं, पर स्वर दोनों मेरे कानों में गूँज रहे हैं...

मैं कल्पना करता हूँ, ये स्वर दो तेज तैराक हैं, जो झील की छोटी-छोटी अदृश्य लहरों पर सवार होकर चले जा रहे हैं क्षितिज की ओर, चन्द्रोदय की ओर, चन्द्रमा की किरणों से मिलने, क्योंकि ये किरणें उनकी बहिनें हैं, और वे इन्हें कुमुदिनियों के हार पहनाएँगे...

आह! वे किरणें तो यहीं चली आ रही हैं, वे झील की काली बरौनियाँ अब क्षितिज की पलक में सुरमे की रेखा बन गयी हैं, उनके ऊपर एक बड़ी-सी पथरायी हुई आँख की भाँति चाँद निकल आया है...

मेरे मन में एक विचित्र भाव उठता है। चाँद एक कन्या है, और यह पृथ्वी का काला सौन्दर्य उसका आवरण। किन्तु चाँद इतना सुन्दर है कि इस आवरण को उसे ढक रखने का अधिकार नहीं है, इसीलिए चाँद ने उसे उतार फेंका और निरावरण होकर क्षितिज के ऊपर आ गया है। और वह सौन्दर्य बिखरकर उस परित्यक्त आवरण को भी कितना सुन्दर बनाए डालता है!

ये भाव उस समय सचमुच इसी रूप में मेरे हृदय में जागे थे, यह मैं निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता। किन्तु मेरी स्मृति में जो चित्र आता है, उसमें वह बालक इसी भावना से भरा हुआ खड़ा है। व्यक्त रूप से यदि यह भाव उसके मस्तिष्क में नहीं था, तो इसका अंकुर अवश्य वहाँ था, अवश्य ही उस दिन उसे इस बात का अप्रत्यक्ष ज्ञान हो गया था कि सौन्दर्य कितना नग्न और नग्नता कितनी सुन्दर है...

बालक के स्वप्न को चीरती हुई एक आवाज आयी, 'शेखर, अब उतर आओ!' यह भी उसी बहिन की आवाज है। क्या तभी से, जब भी मैं किसी अत्यन्त सुन्दर दृश्य को देखकर, एक ऊर्ध्वगामी उन्माद में अपने आपको भूल जाता हूँ, तब एक तीखी आवाज पुकारकर कहती है-शेखर, अब उतर आओ!

Dead long dead

Long dead!

And my heart is a handful of dust,

And the wheels go over my head,

And my bones are shaken with pain,

For into a shallow grave they are thrust,

Only a yard beneath the street,

And the hoofs of the horses beat, beat,

The hoofs of the horses beat... *

युकलिप्टस वृक्षों के एक कुंज की आड़ में 'गरुड़ नीड़' नाम का वह बँगला अघछिपा खड़ा था। जिस दिन शेखर एक दुर्दम भाव से भरकर, अपने ऊपर छायी हुई शारदा को सह सकने में असमर्थ, फूलों से लादकर उसे छोड़ गया था, उस दिन वह इसी बँगले में रहती थी। आज शेखर इतने दिनों के अवकाश के बाद दौड़ा हुआ उस नीड़ की ओर चला जा रहा था, और अतीत की स्मृतियाँ उसके मन में दौड़ी जा रही थीं...और यौवन के आरम्भ का ज्वार भी उसके भीतर कहीं उमड़ता आ रहा था।

वही शारदा, जो उसे हँसाती थी। वही शारदा, जिसकी बजायी हुई वीणा के स्वर में वह बह गया था, उसे चिढ़ाते-चिढ़ाते ही उसकी सखी बनी थी, जो उसकी सब कुछ हो गयी थी, जो उसका अपना घर नहीं था, और जिसके लिए आज वह इस आग्रह से भर रहा था...जो स्वयं उससे सहा नहीं जाता था...

नीड़ के बिलकुल पास आकर वह रुका। क्या उसे आशा थी कि वह शारदा को द्वार पर खड़ी पाएगा, और वह उसे सामने देखकर पुलक उठेगी? वैसा नहीं हुआ-वह द्वार पर नहीं थी। द्वार बन्द थे। और बहुत दूर से जिसे देख-देखकर दिन काटा करता था, वह 'गरुड़ नीड़' की चिमनी से उठनेवाला धुँआ भी आज नहीं था...

शेखर सहमा हुआ-सा मकान के दरवाजे पर गया। उसमें ताला पड़ा हुआ था। शीशे में से भीतर झाँककर देखा-मकान बिलकुल खाली था...

थोड़ी देर तक उसे समझ ही नहीं आया कि क्या उसके सामने है। फिर धीरे-धीरे ज्ञान होने लगा, और


The hoofs of the horses beat, beat,

The hoofs of the horses beat...

वह लड़खड़ाकर वहीं सीढ़ियों पर बैठ गया।

जब वह उठकर चल दिया, तब उसका मन शून्य था। उसके बाद उसे इतना समय ही नहीं मिला कि वह इस चोट से घायल हो या इसे समझे।

जिस प्रकार घोंघे के भीतर रहने वाला जीव तभी बाहर निकलता है, जब वह भूखा होता है या जब वह एक प्रणयी खोजता है, और तृप्त होकर फिर घोंघे के भीतर घुस जाता है, उसी प्रकार असन्तुष्ट और अतृप्त शेखर भी बाहर निकला हुआ था। अभागा होकर, कदम-कदम पर आहत होकर, वह यदि लौटना चाहता था, तो उसके भीतर की भूख उसे लौटने नहीं देती थी, वह आघातों के लिए खुला था, कवचहीन था और जीवन उसे उसके सुरक्षित घर से दूर-दूर खींचे लिये जा रहा था...

  • मृत-चिरातीत! और मेरा हृदय मुट्ठी भर राख हो गया। पहिये मेरे ऊपर से गुजरते हैं, मेरी अस्थियाँ पीड़ा से काँपती हैं, क्योंकि वे एक तंग कब्र में बन्द हैं, पथ की सतह के गज भर नीचे! और घोड़ों की अनवरत टाप टाप टाप...

वह चुपचाप बैठा हुआ रोटी खा रहा था। साथ-साथ सोचता जा रहा था। माँ पास ही में बैठी थी, पिता उससे बात कर रहे थे। उसका जो बड़ा भाई कॉलेज से भाग गया था, उसी का कुछ समाचार तार द्वारा आया था। पता लगा था कि वह कलकत्ते में पुलिस की नौकरी करने की कोशिश में है। यही पिता माँ को बता रहे थे, और शेखर भी अनमना सुन रहा था।

भाई ने कलकत्ते में कॉलेज का पता तो दिया था, पर माँ-बाप का नाम गलत बताया था। कॉलेज में जाँच होने पर वहीं से पिता को तार आया।

पिता को सबसे अधिक आघात इसी बात से पहुँचा था कि पुत्र ने अपनी वल्दियत गलत बतलायी। ऐसा की कह रहे थे।

माँ ने कहा-'मैं तो हमेशा से ही कहती हूँ। भला, ऐसे लड़के का कोई क्या विश्वास करे?'

पिता ने कहा, 'हूँ-'

माँ फिर बोली, 'और सच पूछो तो'-उनका स्वर एकाएक धीमा पड़ गया-'सच पूछो तो मैं इसका भी विश्वास नहीं करती।'

इसका?

शेखर ने कुछ देखा नहीं, लेकिन वहाँ बैठे भी उसकी कल्पना को वह पूरा दृश्य देखते देर नहीं लगी, वह सम्भ्रान्त-सा, ठहर गया-सा भाव, वह शेखर की ओर उठा हुआ अँगूठा-'इसका!'

शेखर रोटी छोड़कर उठ गया, कमरे से बाहर ही उसका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, उसके आगे अन्धकार छा गया।

शाम तक वह वहीं वैसा ही पत्थर-सा बैठा रहा। खाया-पिया कुछ नहीं। माँ आयीं, झिड़कती रहीं, फिर अपने को कोसती रहीं, रोयीं, चली गयीं। पिता आये, डाँट-डपटकर चले गये। रात हुई, सब सो गये, सन्नाटा हो गया। शेखर ने अपने कमरे के द्वार बन्द करके कुंडी चढ़ा ली, बत्ती बुझायी और चारपाई पर बैठकर सुलगने लगा...

बहुत रात गये उसने अपनी डायरी उठायी और उसमें अपना उफान उतारने की कोशिश करने लगा...

'अच्छा होता कि मैं कुत्ता होता, चूहा होता, दुर्गन्धमय कीड़ा-कृमि होता-बनिस्बत इसके कि मैं वैसा आदमी होता, जिसका विश्वास नहीं है...'

वह उठ खड़ा हुआ। दीवार की ओर उन्मुख होकर अँग्रेजी में बोला, 'आई हेट हर? आई हेट हर!' (मैं उससे घृणा करता हूँ) और फिर कपड़े पहनकर खिड़की की राह बाहर कूदकर घूमने चल दिया।

कुछ मील दूर एक बाग में पहुँचते-पहुँचते उसने प्रतिज्ञा कर ली कि वह माँ की नहीं मानेगा, उससे कोई सम्पर्क नहीं रखेगा, कोई ऐसा काम नहीं करेगा, जिसमें माँ को बाध्य होकर उसका रत्ती-भर भी विश्वास करना पड़े-

यह प्रतिज्ञा उसने जबानी नहीं की, एक कागज पर लिख डाली। पर तभी उसके भीतर एक और परिवर्तन हुआ, उसने उस कागज़ के चिथड़े किये, उन्हें गीली जमीन पर फेंका और पैरों से रौंदने लगा-तब तक जब तक कि वे कीच में सनकर, दबकर अदृश्य नहीं हो गये...

'मैं योग्य हूँ, योग्य रहूँगा! उसमें विश्वास की क्षमता नहीं है, तो मैं क्यों पराजित हूँगा?' सबेरा होते-होते वह घर लौट आया।

एक असम्बद्ध दृश्य मुझे दीखता है। वह अत्यन्त सजीव है। मैं उसे प्रायः बिलकुल प्रत्यक्ष देख सकता हूँ, किन्तु उसका ठीक अनुक्रम मुझे नहीं मिलता। चित्र में अपना जो रूप मुझे दीखता है, उससे मैं अनुमान करता हूँ कि उसी वर्ष का है, पर इस अनुमान को पुष्ट करने में स्मृति सहायक नहीं होती।

मैं बैंक से पिता का चेक भुनाकर उनके मासिक वेतन का रुपया लाया हूँ। पिता दफ्तर गये हुए हैं, मैं माँ को वह रुपया अपनी जेब से निकालकर दे रहा हूँ। कई तरह के बहुत-से नोट हैं, और बहुत से चाँदी के रुपये, इसलिए माँ के बढ़ाए हुए हाथ को देखकर मैं कहता हूँ-'माँ, आँचल में लो-बहुत हैं।'

माँ धीरे-धीरे आँचल फैलाती है, पर हँसती हुई कहती है-'आँचल तो तब फैलाऊँगी जब तुम कुछ कमा के लाओगे; इसके लिए क्या?'

मैं रुपया डालने को हुआ हूँ पर रुक जाता हूँ। एक विचित्र दृष्टि से माँ की ओर देखता हूँ, जिसे वह नहीं समझती-शायद मैं भी नहीं समझता। फिर उसके फैले हुए आँचल की उपेक्षा करते हुए मैं तिपाई खींचकर उस पर रुपया देता हूँ-'गिन लो।' और वहाँ से हट जाता हूँ।

जब कभी मुझे विचार आता है कि मेरे आज यहाँ होने के कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता है-यह अविश्वास की प्रतिक्रिया, तब न जाने क्यों माँ को इस विराट् परिवर्तन के लिए, इस इतने गहरे प्रभाव के लिए श्रेय देने की इच्छा नहीं होती। न जाने क्यों मेरा जी चाहता है, उसके इतने भी उपकार का भागी न होऊँ, उसके इस अनिच्छित सत्प्रभाव के लिए भी उसका आभारी न रहूँ।

उस दिन के बाद सोते-जागते चैतन्य में और सुषुप्ति में, संग्राम और पलायन में, जितनी अधिक बार अविश्वास के उस भयंकर आकस्मिक ज्ञान का चित्र मेरे सामने आया है, उतनी बार कोई चित्र नहीं आया। मुझे याद है, अपनी गिरफ्तारी के बाद पहले-पहले जब मुझे घर का विचार आया, तब यही था कि जब माँ सुनेंगी, तब इस समाचार के प्रति उसका पहला भाव तो विजय का ही होगा, जैसे 'मैं तो जानती ही थी, मैंने कभी उसका विश्वास ही नहीं किया!' फिर वह दुखी होगी, रोएगी भी, जलेगी भी, पर उसका पहला विचार, चाहे वह कितना भी क्षणिक क्यों न हो, और तत्काल ही कितनी भी ग्लानि क्यों न उत्पन्न करे; पहला विचार तो यही होगा कि उससे यही आशा होना चाहिए थी...और न जाने क्यों, इस विचार ने मुझे बड़ी सांत्वना दी थी, एकदम शान्त कर दिया था और पुलिस के अत्याचारों के प्रति सर्वथा निरपेक्ष बना दिया था।

क्षमा हृदय का धर्म है, लेकिन वह कर नहीं पाता। इस घटना से जो कुछ मुझ पर बीता, उसी के कारण मैं क्रुद्ध होऊँ, ऐसा नहीं है। कम-से-कम अब नहीं है। मैं जानता हूँ कि यह घटना न भी हुई होती, तब भी मैं इस दिशा में अग्रसर होता, यही बनता जो अब बना हूँ। मेरे भीतर जन्मतः ही कोई शक्ति थी-या शक्ति का अंकुर था, जो मुझे अरुद्ध गति से इधर ही प्रेरित कर रहा था, और करता रहता, चाहे माँ मुझसे, या मेरे सम्बन्ध में, कभी बात ही न करती। यह ज्ञान जहाँ एक ओर मुझे क्रोध नहीं करने देता, वहाँ दूसरी ओर कृतज्ञ भी नहीं होने देता...

मुझे विश्वास है कि विद्रोही बनते नहीं, उत्पन्न होते हैं। विद्रोहबुद्धि परिस्थितियों के संघर्ष की सामर्थ्य, जीवन की क्रियाओं से परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से नहीं निर्मित होती। वह आत्मा का कृत्रिम परिवेष्टन नहीं है, उसका अभिन्नतम अंग है। मैं नहीं मानता कि दैव कुछ है, क्योंकि हम में कोई विवशता, कोई बाध्यता है तो वह बाहरी नहीं, भीतरी है। यदि बाहरी होती, परकीय होती, तो हम उसे दैव कह सकते, पर वह तो भीतरी है, हमारी अपनी है, उसके पक्के होने के लिए भले ही बाहरी निमित्त हो। उसे हम व्यक्तिगत नियति-Personal destiny कह सकते हैं...

मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि कार्ल मार्क्स ही उत्पन्न हुआ था या कि शेली ने संसार से कुछ नहीं सीखा या कि त्रात्स्की अपने संसार द्वारा उतना ही निर्मित नहीं हुआ, जितना कि उसने संसार को बनाया। विद्रोही हृदय की एक विशेषता यह है कि वह अपने विकास में फैलते हुए नूतनतम विचारों को अपनाकर भी विद्रोही ही रह जाता है, क्योंकि वह अपने काल के अग्रणी लोगों से भी आगे ही रहता है। इसीलिए तो प्रतिक्रियावादी जर्मनी में उत्पन्न होकर और पलकर भी आइनस्टाइन विद्रोही हैं, और संसार की सबसे विराट्, सबसे अधिक आग्नेय घोरतम युग-प्रवर्तक रूसी क्रान्ति की गोद में पलकर भी स्टेलिन विद्रोही नहीं हो पाया, जूठन बीननेवाला ही रह गया है...

यदि ऐसा है, तब तो विद्रोही विचारों का प्रचार करना व्यर्थ है? नहीं, यदि प्रचार इस आशा से किया जाय कि उसके द्वारा नये विद्रोही बनाए जा सकेंगे, विद्रोही-सामर्थ्य उत्पन्न की जा सकेगी, तब तो वह निष्फल होगा ही, किन्तु यदि उद्देश्य यह रखा जाय कि इसके द्वारा पहले से विद्यमान क्रान्ति-शक्ति का, will to revolution का संचय किया जा सकेगा, उसे पथनिर्देश दिया जा सकेगा, तब अवश्य ही यह आशा फलीभूत होगी।

और फिर, विद्रोही स्वाभाविक नेता है! उसके अनुयायी सभी विद्रोही ही हों, यह क्यों आवश्यक है? मैं बढ़र्ह हूँ, बसूले-बटाली के प्रयोग से कुछ बनाता हूँ, तो बसूला और बटाली भी मुझ-ऐसे स्वयंचालित, अन्तःप्रेरित हों, यह बाध्यता क्यों?

मैंने अनेक व्यक्ति ऐसे देखे हैं, जो कहते हैं और समझते हैं कि किसी विशेष मानसिक प्रतिक्रिया ने उन्हें क्रान्तिकारी बना दिया, जैसे तिलक की अन्त्येष्टि ने, या मार्शल के दृश्यों ने, या जतीन दास की भूख हड़ताल ने। वे झूठ बोलते हैं। या तो उन्होंने इतनी गहरी आत्मविवेचना ही नहीं की, जिससे इस बाह्य कारण के पीछे अपनी सच्ची विद्रोहेच्छा को देखें, या फिर उनमें इच्छा है ही नहीं, और वे विद्रोही ही नहीं हैं। वे हैं क्रान्ति के डरौने जिनमें विद्रोह का बाह्य आकार और भावुक क्षमता तो है, किन्तु उसे स्थायित्व और सार देनेवाली अनिवार्य आग्नेय आन्तरिक प्रेरणा नहीं। किसी भी घोर खिंचाव काल में वे नंगे हो जाते हैं, उनका आन्तरिक छूँछापन, दिवालियापन, प्रकट हो जाता है, नृसिंह की शक्ति और प्रभावशालिता का आडम्बर करनेवाले इन लोगों की गहराई में छिपी हुई भेड़ निकल पड़ती है और मिमियाने लगती है!

आज हमारे नेता बार-बार कहते हैं, हमारा विद्रोह केवल मात्र आर्थिक है। हमारे घर में रोटी नहीं है, रोजी हमें मिलती नहीं, हम भूखे हैं, इसलिए हम विद्रोही हैं। मैं समझता हूँ कि यह कहना क्षुद्रता है, अपना घोरतम अपमान है।

दिन था जब धर्म की सत्ता थी। तब हमारे ढोंगी नेता विद्रोह को छोटा दिखाने के लिए कहा करते थे, प्रजा का द्रोह धार्मिक नहीं, सामाजिक है। हमें समाज सुधारने का अधिकार होना चाहिए। फिर समाज की सत्ता हुई, तब वे ढोंगी उसका सामना करते हुए डरे, और कहने लगे कि हम राजनैतिक पुनस्संगठन माँगते हैं। तब राज-शक्ति की सत्ता हुई, और वे कहने लगे, हम राजनैतिक अपराध कब करते हैं, हम तो केवल अर्थ-संकट के विरोधी हैं। क्षुद्र, क्षुद्र, क्षुद्र! मैं कहता हूँ, ओ विद्रोहियो, आओ; पहले इसी दम्भ को काटो! जानो, समझो, घोषित करो कि हम इस या उस दुर्व्यवस्था के नहीं, हम इस ऐसेपन के ही, एतादृशत्व मात्र के विरोधी हैं; हम सभी कुछ बदलना चाहते हैं, हमारी विद्रोही-प्रेरणा धर्म के, समाज के, राजसत्ता के, अर्थसत्ता के और अन्त में अपने व्यक्तित्व के प्रति विद्रोही है!

मूर्ति का निर्माण हो सकता है, मृत्तिका का नहीं! उसी मिट्टी से अच्छी प्रतिमा भी स्थापित की जा सकती है, बुरी भी, पर जहाँ मिट्टी ही न हो, वहाँ कितने ही प्रचार से कितनी भी शिक्षा से, कितने भी जाज्वल्यमान बलिदान से मूर्ति नहीं बन सकती।

विद्रोही हृदय को विद्रोही गढ़न की आवश्यकता है, उसी प्रकार जैसे मृत्तिका को कलाकार के स्पर्श की। विद्रोही को सम्पूर्ण करने के लिए, एक मानव विभूति बनाने के लिए, मनःशक्ति की, घोरतम नियन्त्रण की, अथक परिश्रम की आवश्यकता है, वैसे ही जैसे मृत्तिका से एक कला की वस्तु तैय्यार करने के लिए उनकी आवश्यकता होती है...।

किन्तु सब शिक्षा पाकर, सब कृत्रिम योग्यताएँ प्राप्त करके उस आन्तरिक शक्ति से हीन व्यक्ति उतना ही क्रान्तिकारी हो सकता है, जितना कि सब अलंकारों से अलंकृत, किन्तु प्रतिभा (inspiration) से ही चित्र एक कला की वस्तु हो सकता है...।

इसीलिए मैं कहता हूँ, मैं विश्वास करता हूँ कि जिस प्रकार एक लियोनार्डो डा विंची को या एक रवीन्द्रनाथ ठाकुर को उत्पन्न करने के लिए सहस्र वर्ष का परिश्रम अधिक नहीं है, उसी प्रकार एक सम्पूर्ण और आदर्श विद्रोही को उत्पन्न करके ही एक समूची शताब्दी, बल्कि एक समूची संस्कृति सफल हो जाती है।

कलाकार के लिए कला की अन्तःशक्ति के उद्बोध के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण विभूति है कला के प्रति एक पवित्र आदरभाव; उसी प्रकार क्रान्तिकारी के लिए क्रान्ति की अन्तःशक्ति के बाद उससे महत्त्वपूर्ण वस्तु है क्रान्तिकारिता के, विद्रोह-भावना के प्रति एक पूजाभाव। इसी के द्वारा उसमें इतनी सामर्थ्य आती है कि वह अपने कार्य में अपने को खोकर, उसमें व्यक्तितत्व (subjectivity) को सम्पूर्णतः लवलीन करके भी उसकी तटस्थ (objective) विवेचना कर सकता है; इसी के द्वारा, वह बहता है तो अपनी इच्छा से बहता है, मरता है तो आत्म-बलिदान की भावना से मरता है, संसार में अपने को भुलाता है तो अपने व्यक्तित्व को पहचानकर...।

और इसी के द्वारा, केवल इसी के द्वारा, वह अपने 'अनैतिक' कार्य करके भी उनके दान से बचा रहता है, 'पाप' करके भी पवित्र रहता है।

और इन्हीं निष्कलंक पापों में क्रान्तिकारी के लिए एक अत्यन्त करणीय पाप है घृणा।

क्रान्तिकारी की बनावट में एक विराट, व्यापक प्रेम की सामर्थ्य तो आवश्यक है ही, साथ ही उसमें एक और वस्तु नितान्त आवश्यक अनिवार्य है-घृणा की क्षमता, एक कभी न मरने वाली, जला डालने वाली, घोर-मारक, किन्तु इतना सब होते हुए भी एक तटस्थ, सात्विक घृणा की क्षमता; यानी ऐसी घृणा, जिसका अनुभव हम अपने सचेतन मस्तिष्क से करते है, ऐसी नहीं जो कि हमें भस्म कर डालती है और पागल करके अपना दास बना लेती है।

निहिलिस्ट लोग इस बात को समझते थे। उन्होंने अपने सर्वभंजक आग्नेय उत्साह में घृणा को बहुत आर्थिक महत्त्व दे दिया था, वे उसे एक तेज शराब की तरह पीकर उसमें अपने व्यक्तित्व को भुलाकर उसे ही एक ज्वलन्त आदर्श मान बैठे थे। यह उनकी ग़लती थी, उनके उत्साह का ज्वार था, जो एक ऐसी लहर में उठकर आया था, जो पहले बहुत दूर तक तीर पर चढ़ जाती है, और फिर धीरे-धीरे फेन के एक उपद्रव में छिपकर अपनी स्वाभाविक सीमा पर लौट आती है। किन्तु फिर भी उन्होंने इस प्रखर बौद्धिक घृणा का महत्त्व समझा था; और उन्होंने इसकी प्रेरक शक्ति का पूरा प्रयोग किया था, पूरा लाभ उठाया था...।

और संसार इसे नहीं समझता, सामान्य जनता का सामान्य नैतिक विधान इसे अत्यन्त गर्हणीय गिनता है। उसके लिए घृणा-एक अधोमुखी प्रवृत्ति है जो मानवता का विनाश करती है, जो इसके अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकती। वे नहीं जानते थे कि इस भावना में कितनी शक्ति है, कितनी युगान्तकारी शक्ति, यदि उसका उचित और बुद्धियुक्त प्रयोग किया जाय!

मैं उस दिन की कल्पना करता हूँ जिस दिन हमारे देश के-हमारे संसार के-क्रान्तिकारी कहाने वाले व्यक्तियों में ऐसी प्रखर किन्तु शीतल बौद्धिक घृणा जागेगी और वे उससे डरेंगे नहीं, उसे अपनाएँगे, और उसकी प्रेरणा स्वीकार करके संसार कर अपनी छाप बिठा जाएँगे; युगान्तर कर जाएँगे, और फिर भी एक नये युगान्तकारी विद्रोह का बीज बो जाएँगे...।

क्योंकि विद्रोह अनन्त है, नित्य है, क्योंकि उसके उपकरणों में प्रेम के बाद सबसे बड़ा और सबसे अमोघ अस्त्र है यही बौद्धिक घृणा।

सिवाय यातना के-घोरतम यातना के। क्योंकि यातना भी एक उच्च कोटि का और बहुत पवित्र अस्त्र है।

पर, मैं यातना की बात क्यों लिखूँ?

किसी भवन का और विशेषतः लैंडस्केप में उस भवन का स्थिति का वर्णन करने के लिए उसे देखना पड़ता है। केवल समीप खड़े होकर बाहर से ही नहीं, किन्तु उससे बहुत काफी दूर हटकर भी...तब मैं कहाँ जाकर यातना को देखूँ, कहाँ से उसे माप-तोलकर, परखकर उसका मूल्य और महत्त्व आँकूँ!

तब से मुझे जान पड़ता है कि मेरे मन के दो टुकड़े हो गये हैं। कभी-कभी तो दो से भी अधिक जान पड़ते हैं, किन्तु दो तो अवश्य हो गये हैं। और जहाँ तक मैं स्वयं सोच पाता हूँ, इस न भरनेवाली दरार का कारण वह एक कल्पित चित्र ही है, जो मेरे मन ने उस रसोईघर की दीवार को भेदकर देखा था, उस समय जब कि माँ कह रही थीं-'मैं तो इसका भी विश्वास नहीं करती।'

इस दरार का कोई कारण हो सकता है, कोई और समाधान हो सकता है, इसका निर्णय मनोविज्ञानवेत्ता ही कर सकते हैं। किन्तु इतना मैं जानता हूँ कि उसका अस्तित्व है जरूर। क्योंकि कभी-कभी मुझे स्वयं ज्ञात होता है कि मेरे मन के वे दोनों खंड घोर युद्ध कर रहे हैं, मेरी चेतना पर राजस्व पाने के लिए लड़ रहे हैं...और ऐसा भी होता है कि कभी किसी का प्रभाव बढ़ जाता है, कभी किसी का, और इसके फलस्वरूप मेरे कार्यों में एक प्रतिकूलता, एक असम्बद्धता आ जाती है, जिसे मुझे बाह्यरूप से जानने वाले नहीं समझ सकते, किन्तु जो मेरे व्यक्तित्व में आकर एकभूत हो जाती है, हल हो जाती है। कभी ऐसा होता है किसी भी खंड की प्रधानता नहीं होती; तब वे मनक्षेत्र के विभिन्न केन्द्रों पर अधिकार करते हैं, और यदि हाथ एक के नियन्त्रण में होते हैं, तो मुख दूसरे के, या चेतना एक के, तो शारीरिक परिचालन दूसरे के। तब मैं ऐसा ही दीखता हूँगा जैसा कोई मशीन जिसके पुर्जे उलझ गये हों; किन्तु जिसकी गति बन्द न हुई हो!

मैं पागल तो नहीं हूँ! किन्तु कभी-कभी सोचता हूँ कि मुझे पागलपन के इस ओर रखनेवाली, सीमित कर देनेवाली रेखा कितनी पतली है!

शायद उतनी ही पतली जितनी घृणा और प्रेम में, या क्रूरता और यातना में, या स्नेह और वैराग्य में होती है।

क्योंकि ये कभी अलग नहीं किये जा सकते; जहाँ प्रेम जितना उग्र होता है, वहाँ वैसी ही तीखी घृणा भी होती है; क्रुसा में केवल यातना दी ही नहीं जाती, स्वयं पायी भी जाती है और स्नेह में स्नेही अपने को ही नहीं भूलता, स्नेह के पात्र को भी भूल जाता है।

स्नेह एक ऐसा चिकना और परिव्यापक भाव है कि उसमें व्यक्तित्व नहीं रहते। स्नेही अपने स्नेह-पात्र को कभी 'याद' नहीं करता, क्योंकि वह उसे कभी भूलता नहीं। वह उससे इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसे कभी ध्यान नहीं होता कि इसे भी देखूँ, इसे देखने के लिए एक अलग, विशिष्ट प्रयत्न करूँ। जैसे एक भलीभाँति प्रकाशित दृश्य को देखकर हम प्रकाश को अलग नहीं देखते, किन्तु एक अँधियारे दृश्य को देखकर हठात् पूछ बैठते हैं कि इसका कौन-सा अंश प्रकाशमान है...

किसी ने मुझे फूल भेजे हैं।

यदि धूप और छाँह एक दूसरे के परिपूरक हैं, तो क्यों इन फूलों को देखकर यह भावना नहीं जागती, क्यों इस कोठरी के पाँच कदम लम्बे और तीन कदम चौड़े, लोहे की कड़ियों से घिरे हुए अन्धकार के टुकड़े में, मुझे इन फूलों को देखकर सम्पूर्णता का भान नहीं होता, क्यों इनके बिखरे-बिखरे सफेद सौन्दर्य में खुली-खुली-सी पीली आँखें देखकर मुझे अत्यन्त अपूर्ति, अखण्ड शून्यता का अनुभव होता है! क्यों मेरे अन्दर एक उत्कट विद्रोह, एक सर्वनाशक जिघांसा जगाती है...

भाङ् भाङ् भाङ् कारा

आघाते आघात कर

अरे आज कि गान गेये छे पाखी

एशेछे रविर कर!

जिसने ये फूल भेजे हैं, वह क्या समझती होगी कि उसने मुझे क्या भेज दिया-क्या मुझे भुलसाए डालता है, पर जिसके लिए मैं फिर भी उसका कृतज्ञ हूँ!

वह मेरी शिष्या थी, पर मैं उसका गुरु नहीं था। मैं उसे केवल पढ़ाता ही था, पर वही मुझे कभी गुरु नहीं समझ पायी-उसके लिए मैं था एक बड़ा-सा भाई-किन्तु ऐसा भाई जिससे प्रेम किया जा सके, जिस पर झुका जा सके, जिसके आधार पर स्वप्न बुने जा सकें...

और जो उपेक्षा से उन्हें तोड़ दे!

मैं पढ़ाता था, बड़ी मेहनत से पढ़ाता था। पर वह कुछ नहीं सीख पाती थी! नित्य मैं उससे पूछता-'पिछला सबक याद किया है?' तब वह सिर झुकाकर एक निरर्थक-सी मुस्कराहट लेकर चुप रह जाती थी। तब मैं बार-बार पूछता था; फिर डाँट देता था और कहता था-'ऐसे पढ़ाई नहीं हो सकती।' और पुराने सबक को दुहराने बिठा देता था।

तब वह बिलकुल नहीं पढ़ती थी। किताब सामने रखकर बड़ी मननशीलता से उसे देखती रहती थी-उन आँखों से जो बड़ी-बड़ी बूँदों से भरी हुई होती थीं और कुछ भी नहीं देख सकती थीं...

तब मैं स्नेह के (किन्तु बहुत थोड़े-से स्नेह के!) स्वर में कहता था, 'अच्छा, आज आगे पढ़ा देता हूँ। कल दोनों सबक याद कर लेना!' और वह पढ़ती थी। और दूसरे दिन फिर वही हाल!

एक दिन मुझे बहुत क्रोध आया। तब उसकी आँसू-भरी आँखें देखकर मैंने झुँझलाए स्वर में कहा-'पढ़ती-लिखती तो कुछ हो नहीं, और कुछ कहता हूँ तो रो पड़ती हो! हटो, कल से मैं नहीं आऊँगा।'

मैं उठ खड़ा हुआ। तब वह दीन स्वर में बोली-'मुझे फुरसत कहाँ मिलती है? अम्माँ सारे दिन तो पचीसों काम बताती रहती हैं!'

गुरु कैसे मान जाय! अम्माँ भी आयीं। उनसे भी पूछा-'इसे कितना समय पढ़ने के लिए मिलता है?'

'सारा दिन तो किताब लिये बैठी रहती है। मैं तो पढ़ाई के डर से कभी कुछ कहती भी नहीं! क्यों, ठीक नहीं पढ़ती क्या?'

मुझे कहना सच ही चाहिए था पर मैंने कहा-'नहीं, पढ़ती तो है? पर थोड़ी देर और पढ़ा करे तो-'

वे चली गयीं। तब मैंने फिर उससे पूछा, 'क्यों?' वह क्या कहती? किताब सामने रखकर कितनी देर स्वप्न देखे जा सकते हैं, इसकी भी कोई सीमा है!

मैंने और कठोर स्वर में कहा-'क्यों, अब?'

'अब ध्यान से पढ़ूँगी?' तब मैं पढ़ाने लगा।

तब एक दिन ऐसा आया कि मैं उसे पढ़ाने नहीं गया। दो दिन नहीं, तीन दिन नहीं। चौथे दिन मैंने उसके पिता को पत्र लिख दिया कि मैं नहीं पढ़ा सकूँगा। उन्होंने दूसरे ही दिन एक चेक मेरे नाम भेज दिया।

कहानी समाप्त हो गयी। पर दूसरे दिन उनका नौकर, एक छोटा लड़का, मेरे पास आया और बोला-'बीबी जी पूछती हैं, पढ़ाने नहीं आइएगा?'

मैंने डपटकर कहा-'कौन बीबीजी?'

'छोटी। उन्होंने बुलाया है।'

मैंने फिर पूछा-'शीला ने?'

'हाँ।'

उसे शायद पता नहीं था कि पढ़ाई कैसे समाप्त हो चुकी है। मैंने कहा-'उनसे कहना, नहीं आ सकता। उनके पिता ने पढ़ाई बन्द कर दी है।'

वह चला गया। मुझे यह विचार नहीं हुआ कि मैं कैसी कायरता से झूठ बोला हूँ। मैं यही सोचता रहा कि मैंने विजय पा ली है!

उस विजय ही में मेरी हार हुई। यदि मैं उसे सच ही कहला देता कि मैंने ही इनकार किया है, तब शायद वह अपने को अन्याय का भागी समझकर ही कुछ सांत्वना पाती-मैंने उसके लिए भी स्थान नहीं छोड़ा। और तब से उसकी उलाहना-भरी छाया मेरे साथ-साथ आती है और रोती-सी कहती है-झूठे! झूठे!

मैं इससे बचकर भागता हूँ। भागता आया हूँ। और अब भी फूलों की ओर देखकर सोच रहा हूँ, इन मुरझाए हुए फूलों से कहाँ भागूँ?

पर क्यों भागूँ?

शीला, मैंने तुम्हें धोखा नहीं दिया। अपने को अब तक अवश्य धोखा देता आया हूँ। मैं जो झूठ बोला था, उसने तुम्हें नहीं भुलाया, मैं ही उसमें भूला था। पर आज मैं अपनी भूल जान गया हूँ। आज मैं तुम्हें कष्ट देनेवाला तुम्हारा भाई, जो तुम्हारी श्रद्धा को कृतज्ञता से स्वीकार करता है, जो अपनी लज्जा भुलाकर कहता है कि उसने झूठ बोलकर अपने को तुमसे नहीं, अपने आपसे छिपाया था। यही उसका प्रतिदान है जो तुम्हें कष्ट देनेवाला तुम्हारा भाई, जो तुम्हारी श्रद्धा को कृतज्ञता से स्वीकार करता है, जो अपनी लज्जा भूलाकर कहता है कि उसने झूठ बोलकर अपने को तुमसे नहीं, अपने आपसे छिपाया था। यही उसका प्रतिदान है जो तुम्हें अब तक नहीं मिला, जो शायद अब तुम्हें कभी नहीं मिल सकता, किन्तु जिसे वह आज चुकता कर चुका है। जब तक फूल ताजे थे, तब तक यह नहीं दीखता था कि ये कैसे बँधे हुए हैं। मैंने इन्हें अपनी कोठरी के जँगले से बाँध दिया था, पर उन्हें बाँधनेवाला फीते का टुकड़ा नहीं दीखता था, काले लोहे के सींखचों के साथ लगे हुए ये सफेद कोमल फूल, एक बड़े अमघुर सत्य की याद बड़े मधुर ढंग से दिला देते थे...

आज वह फीता दीखता है। इसके अपरिवर्त्त फन्दे में फूल सूख चुके हैं, अपना स्मारक भर रह गये हैं, और विवश-से लटक रहे हैं। याद दिला रहे हैं किसी चीज की-जाने किसकी! कह रहे हैं, वासना नश्वर है, मुरझा जाती है और तब प्रेम-तन्तु ही जीवन की स्थिरता बनाए रखता है...या शायद इससे उलटा! कह रहे हैं, जब प्रेम मर जाता है, तब वासना उसके शव को उठाए-उठाए फिरती है, और उससे अपने को धोखे में छिपाना चाहती है...कह रहे हैं, और कुछ याद दिला रहे हैं, किसी ओर इंगित कर रहे हैं...।

'रम्य तटी रावी' का एक तट, जो और कैसा भी हो, रम्य नहीं है। तट पर छोटी झाड़ियों और ठूँठे वृक्षों का घना जंगल। खिंली हुई आह की तरह गर्म और निस्तब्ध रात। ऊपर पेड़ों की सूखी शाखों में उलझा हुआ एकाध तारा, नीचे मरे हुए और धूल हुए पत्तों की सूखी आहों की भाप। और सामने...।

एक बिखरा हुआ शव। उसके दोनों हाथ कटे हुए हैं। एक पैर कटा हुआ, पेट खुल-सा गया है और उसमें से अँतड़ियाँ बाहर गिरी पड़ रही हैं। फटी-फटी आँखें, ऊपर शाखों के जाल को भेदकर, देख रही हैं, किसी तारे को; और मुँह एक बिगड़ी हुई दर्द भरी मुस्कराहट लिये हुए है...।

उसे मरे देर हो गयी। जिस वक्त एक भयानक विस्फोट से वह मानव-विभूति टूटे हुए स्तम्भ की तरह गिरी, उस वक्त वहाँ एक-दो दर्शक थे, किंतु जब वह मरा, तब जीवन की उलझन को सुलझाने में उसका सहायक कोई नहीं था। वे गये थे साहाय्य प्राप्प करने-एक को वहीं छोड़कर। पर रात होने को आयी, और उसके रुके हुए प्रतीक्ष-मान प्राण और अधिक नहीं सह सके...तब वह अन्तिम प्रहरी ढूँढ़ने चला...।

और जब उन्हें ढूँढ़कर लाया, जब वे सब हाँ पहुँचे, उसे उठा ले चलने के लिए, तब वह खो गया था? अपने दुःख और दर्द की, और अपने आशा और क्रियाशीलता की स्मृति-स्वरूप वह विकृत मुस्कान छोड़कर चला गया था।

वे चार-पाँच जन उस शरीर के पास खड़े हैं। वे रो नहीं रहे हैं, आँसू नहीं बहा रहे हैं। वे अपने चिरसंचित अरमान बहा रहे हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य एक विस्फोट का धुँआ बनकर उड़ गया है। घने जंगल की शाखों के उलझे जाल में से धीरे-धीरे छनकर निकल गया है, तड़प-तड़पकर किन्तु चुपचाप, एक भरी हुई मुस्कान छोड़कर उस निविड़ एकान्त में जब कि अन्तिम प्रहरी भी उसे छोड़कर चला गया था, और उसकी अपनी अन्तर्वेदना ही एकमात्र प्रहरी बनकर उस निविड़तम हताशा के क्षारपुंज पर एक व्यर्थ पहरा दे रही थी...।

उस बीहड़ में उस फटी हुई आँख के अन्धेपन ने क्या देखा, यदि हम जान पाते...।

वे चार-पाँच उसके पास खड़े हैं। कतार बाँधे, सावधान मुद्रा में, सिर झुकाए हुए। किसी आदर की भावना से वे सब एक साथ ही उसे हाथ उठाकर नमस्कार करते हैं और बहुत देर तक वैसे ही रह जाते हैं...।

वे सब चुप हैं, इस दृश्य को पूरा करनेवाली भैरवी उनके अन्तस्तल में कहीं मूक स्वर में बज रही है...।

यही है उस कवि-हृदय सिपाही की अन्त्येष्टि उस विद्रोही के विद्रोह का अन्तिम उफान।

दृश्य फीका पड़ जाता है। एक निस्सीम श्वेत आकाश में पड़ा हुआ रह जाता है केवल वह शरीर जमते हुए रक्त के एक छप्पड़ में...।

उसके दोनों ओर दो प्रकार-एक स्त्री और एक पुरुष। वे एक दूसरे को देख रहे हैं; उनकी आँखें नीचे पड़े उस शव को नहीं देखतीं, उनके हृदय में अनुभव करते कि वे किस भव्य पवित्रता की समाधि भ्रष्ट कर रहे हैं। वे मिलते हैं, बाँहों से एक दूसरे को घेरकर बाँधते हैं, आलिंगन करते हैं किसी दानवी भूख से, और उसी शव को आरपार। फिर-

भ्रम! मैं देख रहा हूँ जँगले से लटके हुए सूखे हुए नरगिस के गुच्छे को और उसे घेरे हुए फीते के टुकड़े को।

मानव के लिए झूठ, छल और मक्कारी अत्यन्त सहज है, क्योंकि ईश्वर ने मानव को अपना प्रतिरूप बनाया और ईश्वर हमारे ज्ञान में सबसे बड़ा झूठा और छलिया और मक्कार है...।

नहीं तो जो चित्र मुझे दीखता है, उसका क्या कारण है? क्या मानव इतनी नीचता-और इतने ज्वलन्त आत्मत्याग के आगे इतनी नीचता-कर सकता है?

जब मुझे याद आता है कि कैसी परिस्थिति में वह विस्फोट और वह मृत्यु हुई और जब सोचता हूँ कि उस समय जब वह वीर अपने बुझे हुए स्वप्नों को अपनी बुझती जीवन-ज्योति से फूँक-फूँककर कुछ देर और जीवित रखने की चेष्टा कर रहा था, तब उसके आस-पास कैसे-कैसे षड्यन्त्र हो रहे थे, मानव हृदय की ओछी-ओछी कमजोरियों की आड़ लेकर कैसी-कैसी नग्नताएँ नाच रहीं थीं; तब एकाएक अपने पर से और अपने किए हुए पर से विश्वास उठ जाता है...कि क्या इस सबके भी प्रेरणास्रोत ऐसे ही थे!

मैं सोचता हूँ कि यद्यपि हमारा सिद्धान्त इस बात को स्वतः मान लेता है कि मानव की प्रत्येक प्रेरणा किसी भौतिक जरूरत से उत्पन्न होती है, तथापि हम इस बात में भी अखंड विश्वास करते हैं कि मानव में कोई ऊर्ध्वगामी शक्ति है, कोई नैसर्गिक सत्प्रेरणा! इन दो परस्परविरोधी मूलतत्त्वों का हल करना ही हमारी सबसे बड़ी समस्या है। इसके हल हो जाने के बाद अन्य प्रश्नों का तो कोई विशेष महत्त्व रहता ही नहीं; पर यह एक प्रश्न ही इतना बड़ा, इतना गूढ़ और इतना व्यापक है कि हमें पद-पद पर इसके उदाहरण मिलते हैं, हम सारा जीवन ही इसके हल में बिता देते हैं, और फिर भी समस्या वैसी ही रह जाती है।

Alas for all the loves that youth lets fall

like the beads of a told rosary *

किन्तु इतने सब बिखरे हुए प्रणयों की याद कर-करके न जाने क्यों दुःख नहीं होता? क्यों विफलता और वंचना की भावना नहीं जागती? मुझमें उठता है एक कुद्ध विद्रोह, इसलिए नहीं कि मैंने क्या कुछ खोया है, या कितना कष्ट उठाया है, बल्कि इसलिए कि मैंने कितना दुःख दिया है, किन-किन भोले हृदयों को कैसी कठोर चोटें पहुँचायी हैं...

क्या है मेरे इस जीवन की सिद्धि? क्या है इसकी सम्पूर्ति? सब झूठ-शून्य, शून्य, शून्य! बल्कि शून्य से भी कम, एक ऋण, जिसे मैं पूँजी समझे बैठा हूँ!

पर यह मैं क्या कर रहा हूँ? क्या इतनी बड़ी-बड़ी चोटों पर यह क्षुद्र दया दिखा कर मैं उनकी पीड़ा को और नहीं बढ़ा रहा हूँ? क्योंकि बहुत गहरी चोट का एकमात्र मरहम होता है पहुँचानेवाले की उपेक्षा-दृष्टि; दया तो उसके घावों को खरोंचकर खोल देती है...

  • माला के दोनों की तरह यौवन के हाथ से कितने प्रणय एक-एक करके गिर जाते हैं।

मैं क्या हूँ? मेरा मतलब क्या है? जिसके अन्त के लिए इतनी शक्ति व्यय की जा रही है, इतना आयोजन हो रहा है, उस जीवन की सत्यता क्या थी? वायु में उड़ती धूल पर खिंची रेखा, और बस?

नहीं हो सकता! मेरे इतने सब स्वप्न, उतने नगण्य नहीं हो सकते, भले ही मेरा जीवन नगण्य रहा हो। मैं कुछ नहीं, मेरा कार्य कुछ नहीं, मेरा स्थायित्व कुछ नहीं, पर मेरी यह विद्रोहचेष्टा कहाँ जाएगी! मैं जों इतने अनवरत यत्न से संसार की-या संसार में जहाँ तक मेरा पहुँच हो सकी है, उसकी-प्रत्येक वस्तु में घोर परिवर्तन, एक मौलिक क्रान्ति का आदर्श लेकर आया हूँ, वह क्या एक फाँसी के फन्दे में ही घुटकर मर जाएगा? मैं न रहूँ, मेरा कोई चिह्न भी न रहे, पर क्या यह शक्ति भी नष्ट हो जाएगी-क्या इसकी दीप्ति की कम्पन भी खो जाएगा?

विज्ञान कहता है, कुछ होता नहीं कुछ होगा नहीं। जो कुछ हो चुका है, वह भविष्य के अन्त तक रहेगा; और जो होना है, वह भूत के प्रारम्भ से ही था। क्योंकि भूत और भविष्य कुछ नहीं है, क्योंकि काल भी कुछ नहीं है, लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई की भाँति गति की एक दिशा, एक प्रकार है। तब मैं मरकर भी जीता रहूँगा, पर जीते हुए भी मर चुका हूँ...

मुझे जीवन का मोह नहीं करना चाहिए। पर मैं ऐसा मोह करता कहाँ हूँ? मोह तो जब होता, जब इस जीवन की कोई सिद्धि होती। और मैं सोच रहा हूँ कि मृत्यु ही इसकी सिद्धि है!

पर क्या? विज्ञान यह भी तो कहता है कि जीवन एक ही बार मिलता है, और मानव-जीवन का कोई भी अंश नित्य नहीं, मृत्यु में उसका सम्पूर्ण अवसान हो जाता है, कुछ भी नहीं रहता जो पुनर्जन्म पा सके...

और शक्ति? शक्ति भी नष्ट हो जाती है? नहीं, शक्ति और नष्ट होती, केवल रूप बदलती है। पर शक्ति तो अकर्तृक (impersonal) होती है, और शक्ति और पदार्थ विभिन्न नहीं, एक ही कुछ के दो आकार हैं। तब क्या आज जो मेरी विद्रोही शक्ति है, वही कल किसी को बाँधने के लिए लौह-शृंखला होगी-किसी विद्रोही को, जो कि मेरी ही भाँति भविष्य को बदलना चाहता होगा, और जो स्वयं अपने भविष्य के लिए बन्धन हो जाएगा!

हाय, मानव के छोटे-से मस्तिष्क और हाथ, भव के विराट सत्य!

पर क्या इसी विचार में सांत्वना नहीं है, इसी में हमारी सारी गति और सारे विकास का तत्व, उसकी सिद्धि, उसकी सफलता नहीं है? इसी अनन्त नश्वरता, अनन्त पुनर्जन्म, अबाध परिवर्तन में; इसी सिद्धान्त में कि कोई दो क्षण एक-से हो ही नहीं सकते, कि प्रत्येक छोटे-से-छोटे विपल में उसकी मृत्यु और उससे अगले विपल का उद्भव अवश्यम्भावी है...मैं मरता हूँ क्योंकि मेरा जीवन केवल उस मरण की भूमिका है, जिसमें लाखों और करोड़ों आगामी जीवन निहित हैं!

मैं अपने पहले बीते हुए असंख्य युगों का निचोड़ हूँ। एक निर्जीव धूम्रकेतु से इस पृथ्वी के जन्म की, उस पर अत्यन्त प्राथमिक जीवन के उद्भव की, और उससे उत्पन्न अनेक विभिन्न जातियों के उद्भिज, अंडज, स्वदेज और पिंडज जीव-जन्तुओं की वसीयत की छाप मुझ पर है; पिछले करोड़ों वर्षों से निरन्तर उन्नत होती हुई नृजाति के उच्चम आदर्शों का केन्द्रीभूत पुंज भी मैं ही हूँ। इस दृष्टि से, मैं जो कुछ हूँ, अपना कुछ नहीं हूँ, नया कुछ नहीं हूँ। मैं किसी अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ का एक नया संशोधित, संवर्धित और सटीक-सटिप्पण संस्करण हूँ, जिसके मूल लेखक का पता नहीं।

और मैं नया हूँ, अपूर्व हूँ। मेरे जीवन का एक क्षण भी पहले कभी नहीं हुआ। मैं एक नई वस्तु हूँ, एक नई प्रतिज्ञा हूँ, जिसे भविष्य पूरा करेगा, एक शिक्षा हूँ जो भविष्य के लिए रह जाएगी।

नित्यता क्षणों की है; पर क्षण, क्षण-भंगुर हैं। मैं भी हूँ। मुझमें जो कुछ नूतनता है, उसे मुझे इसी क्षण में कह डालना है, क्योंकि वह भविष्य की वस्तु है, मैं उसे कहे बिना रुक नहीं सकता और सोचने का समय नहीं-क्षण का अस्तित्व कितना?

कह डालूँ अन्तःकथा को; बहा डालूँ अन्तर्वेदना को; बिखेर दूँ अन्तःज्वाला को; लुटा दूँ आन्तरिक अनुभूतियों को; दान कर जाऊँ अपनी अन्तःशक्ति की चिर-संचित शिक्षाओं को, अपने अन्तःकरण के उन्माद को!

चला जाऊँ। थका हूँ, सो जाऊँ। पर, पहले इस एकमात्र अपने रहस्य को कह जाऊँ-जो नृवंश-विकास की मेरे नाम और मेरी नृवंश-विकास के नाम वसीयत है-अपनी विद्रोह-शक्ति की, अपने will to revoution की गाथा...


मौन में , कैसी-कैसी स्मृतियाँ!

ओ रे कवि , तोरे आज करेचे उतला

झंकारमुखरा एइ भुवनमुखला।

अलक्षित चरणेर अकारण अवारण चला।

नाड़ीते -नाड़ीते तोर चंचलेर शुनि पदध्वनि

वक्ष तोर उठे रनरनि

नोहि जाने केउ

रक्ते तोर उठे आज समुद्रेर ढेउ ,

काँपे आज अरण्येर व्याकुलता।

मने आज पड़े सेई कथा

युगे युगे एसेचि

चलिया ,


स्ख्लिया -स्खलिया,

चुपे -चुपे

रूप ह 'ते रूपे,

प्राण ह 'ते प्राणे।

निशीथे प्रभाते

जा किछु पेयेचि हाते ,

एसेचि करिया क्षय दान ह 'ते दाने,

गान हते गाने।

कहूँगा।

ज्यों-ज्यों मैं अपने जीवन की कहानी को सोचता हूँ, उसकी एक-एक बात को नाप-तौलकर, उसकी विवेचना कर एक विद्रोही के जीवन में उसके महत्त्व पर विचार करता हूँ, त्यों-त्यों उसके प्रति मेरा आदर-भाव बढ़ता जाता है। इस जीवन में भी कुछ है, एक उत्ताप, एक ऊर्ध्वगामी दीप्ति, जो यदि विद्रोह की शक्ति नहीं, तो विद्रोह-शक्ति की उपासना-सामर्थ अवश्य है!

मुझे बहुत दिनों की बात याद आती है, कोई दस एक बरस पूर्व की। तब तेरी आयु कोई चौदह वर्ष की थी, शायद पन्द्रह की। तब मेरे अन्दर सुलगता हुआ विद्रोह-भाव, उनके स्थानों पर भटककर घर लौट आया था। मैं अपने घर के विरुद्ध ही विद्रोह का आयोजन किया करता और अपनी विवशता पर और अपनी अकिंचनता पर दाँत पीस-पीसकर रह जाता था।

एक दिन, न जाने किस कारण मैंने घर छोड़ दिया। यह निर्णय मैंने कैसे किया, किन प्रेरणाओं से बाध्य होकर किया, मुझे याद नहीं। किन्तु जिस भावना को लेकर मैं घर से निकला, वह मुझे अभी याद है। मेरा अन्तर उबल रहा है, मानो बाह्य दबाव को उठाकर फूट निकलेगा, मैं एक आहत अभिमान को लिए सोच रहा हूँ कि क्या इतने बड़े संसार में मेरे लिए ठौर नहीं होगा, और मैं मुड़-मुड़कर घर की ओर ऐसे देखता हूँ जैसे उसे भस्म कर डालूँगा।

इस दर्प से, और ऐसी आशा से भरा हुआ, मैं घर से निकला हूँ। मेरी पूँजी क्या है? एक छोटा बिस्कुटों का पैकट, एक डबल रोटी और अपने साधारण वस्त्रों के अलावा एक पुराना ओवरकोट जिसकी जेब में ये दोनों वस्तुएँ रखी हैं।

मैं घर से घूमने निकला हूँ, और एक पहाड़ी पर खड़ा सोच रहा हूँ, किधर चलूँ? 'कहाँ जाऊँ' की भावना अभी नहीं जागी, क्योंकि यह तो मुझे सूझा ही नहीं कि कभी ऐसा भी हो सकता है कि कहीं जाने को ठौर ही न हो। मैं बाध्य होकर किसी एक स्थान को नहीं जा रहा हूँ; मैं तो अनेक गमनीय दिशाओं में से स्वेच्छापूर्वक एक चुन रहा हूँ...

मेरे पाँव एक ओर चल पड़े-मैं उनकी प्रेरणा पर चलता रहा। पहले सात-आठ मील तक तो मुझे स्वयं नहीं ज्ञात हुआ कि किधर जा रहा हूँ; मेरा ध्यान ही इधर नहीं गया, वह अभी तक पीछे घर की ओर देख रहा था और कुढ़ रहा था। पर दस-एक मील आकर वर मेरे ध्यान के लिए भी बहुत दूर रह गया। तब उसने पथ की ओर देखा और पथ के आगे की ओर मुझे सूचित किया कि वह मुझे एक जलप्रपात की ओर ले रहा है, जिसको मैंने मानचित्र में और कल्पना में कई बार देखा है।

मैं आजीवन न लौटने का निश्चय करके घर से निकला हूँ, किन्तु यह तो विचार किया नहीं कि आजीवन इसी बिस्कुट के पैकट पर और एक डबल रोटी पर गुजर करना है। और धूप बहुत निकल आयी है, और भूख बहुत लगी है...

मुझे पहला ही झरना जो मिला, मैंने उसी के किनारे कपड़े उतारकर रखे और उसमें लेट गया। और जब शरीर कुछ ठंडा हुआ तब मैंने जल में ही औंधे होकर बिस्कुटों को पानी में भिगो-भिगोकर खाना आरम्भ किया। इसी प्रकार अपनी आधी पूँजी उसी समय समाप्त करके मैं फिर स्वप्न देखने लगा उस समय का, जब किसी को भी किसी प्रकार का अत्याचार नहीं सहना पड़ेगा, चाहे घर में, चाहे बाहर...

मैं पानी में से बाहर निकला और कुछ देर सुस्ताने के लिए कपड़े पहनकर और डबल रोटी सिरहाने रखकर लेट गया।

जब नींद खुली तब दिन ढल रहा था। मैं घबड़ाकर उठा और जल्दी-जल्दी चलने लगा, मानो कहीं जाना ही हो!

चलते-चलते अँधेरा हो गया; तारे तारे निकल आये। मैंने देखा, मैं कहवे के एक बगान में होकर जा रहा हूँ, पर जिस जल-प्रपात की ओर जा रहा हूँ, उसका कहीं चिह्न भी नहीं है...

मैं मील भर और चला। अभी बगान समाप्त नहीं हुआ था। एक छोटे-से झरने के पास पहुँचकर मैंने सोचा कि यहीं पड़ाव करना चाहिए और साथ ही याद आया कि मेरे पास एक डबल रोटी भी है।

पूँजी समाप्त हुई। मैंने ओवरकोट भूमि पर बिछाया, और काफी के वृक्ष की एक उभरी हुई जड़ का तकिया बनाकर झींगुरों का शोर सुनते हुए सोने की चेष्टा करने लगा।

पता नहीं, शोर पहले बन्द हुआ या मैं पहले सो गया। पर आधी रात में कहीं मेरी आँख खुली। मेरा शरीर ठिठुर गया था। मैंने कोट को निकालकर ओढ़ लिया और सोने की चेष्टा करने लगा। झींगुर चुप थे; मैंने सुना, कहीं दूर पर समुद्र-सा गम्भीर शब्द हो रहा है। यह जल-प्रपात का शब्द था।

कोट ओढ़ लेने से ठंड और अधिक लगने लगी। तब मैंने उसे आधा बिछाया और आधा ओढ़ा और इस विभाजन को पूरा रखने की निरन्तर चेष्टा में किसी तरह सवेरा कर दिया...

जब जल-प्रपात का दृश्य मुझे दूर ही से दीखा, तब मैं सड़क पर ही बैठ गया और बहुत देर तक उसे देखा किया। सोचता रहा कि जीवन ऐसा होना चाहिए, शुभ्र, स्वच्छ, संगीतपूर्ण, अरुद्ध, निरन्तर सचेष्ट और प्रगतिशील, घरबार के बन्धनों से मुक्त और सदा विद्रोही...फिर धीरे-धीरे उठकर उसके नीचे चला गया।

उस दिन भर में, मैंने न जाने कितनी बार उस प्रपात का फेनिल पानी पिया। क्योंकि पानी से भूख मिटती तो नहीं, और जितनी बार मुझे भूख की याद आती, पानी पी लेता...

वह रात मैंने जल-प्रपात के नीचे ही बितायी। एक चिकनी और समतल और दिन भर धूप से तपी हुई चट्टान खोजकर उस पर सो रहा और जब रात में किसी समय वह चट्टान मुझे धोखा देकर ठंडी हो गयी, तब फिर मैंने उस बुड्ढे ओवरकोट को खींच-तानकर लम्बा करने की चेष्टा में सवेरा कर दिया। सवेरा हो जाने के बाद भी मैं उठा नहीं, सिकुड़कर पड़ा ही रहा, जब तक कि धूप ने आकर मेरे मेरे अकड़े हुए शरीर में एक स्निग्ध गरमाई नहीं फैला दी...

उस समय तक, मेरा वह क्रोध मिट चुका था, उफान शान्त हो गया था। मैं एक विचारपूर्ण मुद्रा में उस समय प्रपात को देख रहा था और उसके जीवन में एक शून्यत्व पा रहा था...सोच रहा था कि इसकी परिवर्तनीशलता में एक प्रगूढ़ एकस्वरता है, इसकी निश्चिन्त उन्मुक्तता में एक परवशता, एक भूखापन...और बार-बार पानी पी-पीकर अपने-को-अपने से छिपाए जा रहा था!

दुपहर तक, वह विचारशीलता भी चली गयी। मुझमें एक ग्लानि उत्पन्न हुई, एक झुंझलाहट-सी। वह उस भावना से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी, जिससे प्ररित होकर मैं घर से चला था। किन्तु यह आज मुझे घर की ओर प्रेरित कर रही थी।

उसमें क्षोभ था, पराजय थी और मैं उसे अपने से छिपा न सका-भूख ने छिपने नहीं दिया। मैं उठा और घर की ओर चल पड़ा! रात कहीं राह में कटी, और सवेरे घर पर पहुँच गया-उस क्षोभ और पराजय को भी भुलाकर जीवन के प्रति एक नया आदर-भाव लेकर, जो कि व्यथा और अनुभूति से उत्पन्न और पुष्ट हो गया था।

मेरी तलाश सर्वत्र हो चुकी थी-केवल उस प्रपात की ओर जाने का किसी को ध्यान ही न हुआ था। पिता ने मुझे कुछ नहीं कहा, यह भी नहीं पूछा कि मैं कहाँ गया था। उन्होंने मेरे प्रत्यागमन को चुपचाप स्वीकार कर लिया। उनमें एक विशालता थी जो अपनी ही नहीं, दूसरे की पराजय को भी सह सकती थी, और जिसे मैंने बहुत दिन बाद पहचाना...

उसी दिन के-से आदर भाव को लेकर, मैं अपनी कहानी कहूँगा। उस आदर भाव को, जिसमें अनुभव की प्रशान्ति है, व्यथा की पवित्रता है, और शायद थोड़ी-सी पराजय की जलन भी है...क्योंकि यद्यपि मेरे जीवन ने एक प्रकार की सम्पूर्ति पा ली है, वह तृप्ति नहीं है। वह वैसी ही है, जैसे किसी ने भोजन पाकर भूख तो मिटा ली हो, किन्तु प्यास न मिटा पाया हो। उसी तड़पती हुई सम्पूर्त्ति-अपूर्ति की कहानी मैं कहूँगा।

ओ दीप्ति! ओ ज्वाले! इस आदर भाव को, इस पवित्रता को, और इस जलन को स्थायित्व दे, ताकि मैं अपनी प्राण-शक्ति को पूर्णतः उस सन्देश पर केन्द्रित कर सकूँ, जो मेरे जीवन-पट पर लिखा है, जो मैं विकास के अन्धकारमय भूत से लाया हूँ, और प्रोज्ज्वल भविष्य के लिए छोड़ जाऊँगा...

कभी-कभी तो एक विचार उठता है, कि मैं क्या सन्देश छोड़कर जा सकता हूँ, सिवाय एक भयानक शाप के-क्योंकि मेरा जीवन ही तो एक शाप-सा है!

Cursed be the social wants that sin against

the strength of youth!

Cursed be the social lies that warp us

from the living truth! *

कैसे लिखूँ?

अपनी कहानी में अपने व्यक्तित्व की पूरी इच्छा-शक्ति डालकर, सब्जेक्टिव दृष्टि से विवेचना करते हुए, एक दर्द और आग की भरी ललकार दूँ, या...

अपने को अपनेपन से बाहर खींचकर एक बाह्य आब्जेक्टिव दृष्टि से अपने कर्मों की और उनके प्रेरणा स्रोतों की परीक्षा लेते हुए, एक शान्त, अनासक्त बौद्धिक सन्देश सुनाऊँ, या...

अपने जीवन को किसी नैसर्गिक शक्ति की दी हुई थाती समझकर, एक ऋणी की भाँति, उसे लौटाते समय पूरा हिसाब चुकाते हुए, किसी भूल-चूक के लिए सफाई देते हुए, एक व्योरवार क्षमा-प्रार्थी बयान पेश करूँ?

अपने व्यक्तित्व को 'मैं' समझूँ, या 'वह', या 'तू'?

  • धिक्कार समाज की उन न्यूनताओं को, जो यौवन की शक्ति के खंडन का अपराध करती हैं! धिक्कार समाज के उस मिथ्या को, जो जीवित सत्य से हमें भ्रष्ट करता है!

मैं एक कर्तव्य भावना से आया हूँ, एक दायित्व मेरे सिर पर है। इसलिए उचित तो यही है कि जिस प्रकार एक अपराधी किसी न्यायकर्ता के आगे खड़ा होकर अपने चरित्र का उत्तरदाता होता है, और फिर न्यायकर्ता के मुख से, फर्द या जुर्म के रूप में, अपने चरित्र की नपी-तुली और निष्पक्ष आलोचना सुनता है, उसी प्रकार मैं भी अपने को 'तू' के स्थान में रखकर उसकी आलोचना करूँ। या फिर अपनेपन का

स्मारक छोड़ जाने के लिए, अपने व्यक्तित्व, अपनी शक्ति की छाप बिठा जाने के लिए, अपने को 'मैं' कहूँ और उसे व्यक्त कर जाऊँ।

पर मुझे ये दोनों कार्य नहीं करने हैं। अपना दायित्व मैंने खुद अपने ऊपर लिया है, इसलिए मैं यदि 'तू' कहूँ तो केवल अपने आगे। और मेरा अपनापन कुछ है ही नहीं, जिसकी छाप बिठाने की मुझे इच्छा हो-मैं तो गति की एक कला हूँ, जो गति में ही लीन हो जाएगी-मैं स्वयं एक छाप हूँ?

मैं एक सन्देश लाया हूँ, जो कि मेरा अपना नहीं है, जो मैंने अपने वंशविकास से पाया है, और जिसे मैं एक बाह्य प्रेरणा से बाध्य होकर कहूँगा। मेरे सब कर्म उसी प्रेरणा के फल हैं, जो मुझसे बाह्य है, जिससे मैं विभिन्न हूँ। मैं चाहता हूँ, उसी प्रेरणा के भविष्य के इंगित कर जाऊँ-उसे अपने व्यक्तित्व से अलग एक शक्ति, एक विभूति समझकर।

अतः जिसकी कहानी में निहित सन्देश को मैं प्रकट करूँगा, वह 'वह' ही है। उसका नाम है शेखर। वह इस समय मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। उसी प्रतीक्षा में वह अपना अपनापन व्यक्त किये जा रहा है; और मैं उसके जीवन के सत्यों को पढ़कर, उनका निष्कर्ष निकालकर और शब्दबद्ध करके छोड़े जा रहा हूँ!

जा रहा हूँ। कहाँ? जहाँ वह जा रहा है...जहाँ हम दोनों अपरिचित हैं। क्योंकि हम अभिन्न हैं, अत्यन्त एक हैं। और हमारा एकत्व मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है...

कह डालूँगा एक ही उत्तप्त, भस्म कर देनेवाले विश्वास में, सब कुछ कह डालूँगा। भले ही उसकी ज्वाला को व्यक्त करने में उसके जीवन की कोमलता नष्ट हो जाय, भले ही वह शून्य से टकराकर खो जाय, किसी तक पहुँच न पाए!

नश्वरते !

काँटों पर जब होगा क्रुद्ध प्रभंजन का आघात ,

तब उनमें उलझे फूलों की कौन सुनेगा बात ?

जब मेरा अपनापन होगा चिरनिद्रा में मौन ,

मुझमें जो है रहःशील वह कह पाएगा कौन ?

नश्वरते कौन !