शेखर: एक जीवनी / भाग 2 / परिशिष्ट / अज्ञेय
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शेखर से साक्षात्कार
कुछ लोगों को अपनी चर्चा बहुत अच्छी लगती है। कुछ लोगों को बहुत बुरी; मुझे जरा भी सन्देह नहीं है कि मैं दूसरी कोटि में हूँ। मेरे एक मित्र कहते हैं कि परनिन्दा के बराबर कोई सुख दूसरा है तो आत्मप्रशंसा का सुख है; मैं दोनों में ही रस नहीं ले पाता यह मेरा दुर्भाग्य भी हो सकता है। पर जहाँ अपनी चर्चा करना और सुनना दोनों ही मुझे अप्रीतिकर हैं, वहाँ अपनी रचना की चर्चा के बारे में मेरा भाव दोरुखा है इसे अस्वीकार करना झूठ होगा। अपनी किसी रचना की दूसरी द्वारा की गयी चर्चा अच्छी ही लगती है, भले ही वह-जैसा कि मेरा अनुभव प्रायः रहा है-प्रतिकूल ही हो। स्वयं जब-जब चर्चा करनी पड़ी है मैंने उसे लेखक की हैसियत से अपनी पराजय ही समझा है, क्योंकि जो लिखा, उस के बाहर उसके बारे में कुछ लिखने-कहने की जरूरत क्यों पड़े? और मेरा समकालिक पाठक या आलोचक उसे ठीक न भी समझे तो भी मैं यह क्यों मानूँ कि उसे समझाना मेरा काम है? मैं क्या अध्यापक हूँ-मेरा उद्दिष्ट छात्र है या कि सहृदय है; मेरी रचना कृति है या कि पाठ्य-पुस्तक? यह मान कर भी, कि आज के अस्सी प्रतिशत समीक्षक कर्तव्यभ्रष्ट भी है और परम्परा-च्युत भी, मैं यह नहीं मान पाता कि इसलिए उनका काम मुझे करना चाहिए-कम से कम अपनी कृतियों के बारे में। इसलिए पहले ही साफ़ कहूँ कि ‘शेखर’ की चर्चा का यह अवसर मेरे लिए प्रीतिकर नहीं है।
फिर क्यों उस की चर्चा करता हूँ? केवल इसलिए कि इतने वर्षों के अन्तराल के पार, ‘शेखर’ के असली रूप के बारे में-और कदाचित् उस के लेखक के असली रूप के बारे में-मेरे मन में कुछ कौतूहल हो आया है। ‘शेखर’ का पहला भाग बीस वर्ष पहले, इस बीच क्या वह या उस का लेखक बदल नहीं गये होंगे? तीसरे भाग के प्रकाशन से पहले ऐसी जिज्ञासा मन में आना स्वाभाविक ही है, और उसी से आज इस अवसर का औचित्य उत्सृत होता है।
शेखर : उपन्यास ‘शेखर’ नहीं, पात्र शेखर-उपन्यास में निरन्तर छटपटाने वाला जीवन्त व्यक्ति शेखर : मान लीजिए कि राह चलते आज कहीं उसकी मेरी मुठ-भेड़ हो जाए-तब?
वह लीजिए-वह रहा शेखर : कुछ बिखरे बाल, व्यस्त अन्तर्मुखी मुद्रा झुकी आँखें पर बेचैन ललकारते कदम-”क्यों जी, कहाँ रहे तुम इतने बरस-क्या करते रहे?”
“जी-मैंने आपको पहचाना नहीं।”
“हाँ-बेटा, क्यों पहचानोगे तुम! तुम क्रान्तिकारी प्रसिद्ध हो। बहुत से लोग तुम्हें निरा अहंवादी कहते हैं, और तुम्हारे क्रान्तिवाद को निरा ध्वंसवाद-फिर भी तुम्हें असाधारण तो सब मानते हैं चाहे गाली के रूप में ही। ‘बदनाम होगे तो क्या नाम न होगा?’ और मैं-मैं गालियाँ तो तुम से कम नहीं खाता रहा, पर आज जो नयी गाली मुझे मिलती है वह यह कि प्रतिक्रियावादी हूँ-‘प्रतिगामी शक्तियाँ’ हूँ-बहुवचन का प्रयोग अपने को बढ़ाने के लिए नहीं, इसलिए कर कहा हूँ कि बहुत-सी बुराइयों में से एक होने के अभियोग को सही-सही कह सकूँ। आज तुम मुझे क्यों पहचानोगे! पर एक बात मेरी भी सुनोगे?”
“जी हाँ, कहिए।”
“वह यह कि अगर मैं आज तुम्हारे लिए अजनबी हूँ, तो तुम मेरे लिए विनोदास्पद हो। नहीं, ऐसे अभिजात ढंग से यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं है कि ‘जी, मेरा अहोभाग्य’। मैं चिढ़ाने के लिए नहीं कह रहा हूँ, मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मुझ से अजनबी हो कर भी तुम मेरे साथ के ऐतिहासिक बन्धन से अलग नहीं हो सकते। और जब ऐसा है तो क्यों नहीं हम फिर एक दूसरे से नया परिचय पा लें-हमारे बीच में बाहर का कोई व्यवधान क्यों रहे? इसलिए तुम्हें मेरी बात सुननी होगी-और गैर की बात मान कर नहीं, अपने एक अभिन्न सम्बन्धी की बात मानकर सुननी होगी।”
“शायद यह लाचारी तो मेरे साथ है। पात्र एक बार गढ़ा जा कर स्वतन्त्र अस्तित्व तो पा लेता है, पर स्वतन्त्र का अर्थ असम्पृक्त तो शायद नहीं है। मुझे आप की बात सुननी ही होगी।”
“धन्यवाद, शेखर। पर मैं यही कहना चाहता हूँ कि तुम नहीं, मैं आज असम्पृक्त हो गया हूँ। यह मेरी शेखी नहीं है, फिर भी चाहता हूँ कि उस बात को तुम पहचानो। तुम स्वतन्त्र हो, पर साथ ही इतिहास ने तुम्हें बाँध भी दिया है, तुम जो उससे इतर नहीं हो सकते, तुम्हें विकास की स्वतन्त्रता आज नहीं है। पर मैं-मैं राह पर हूँ। मैं बढ़ता और बदलता हूँ-अपने राग-विराग से मुक्त होता हूँ-यानी राग-विराग के एक पुंज से मुक्त होता हूँ, दूसरे से संग्रथित, नये सम्पर्कों में पड़कर पुरानों से असम्पृक्त होता हूँ। और तुम-तुम आज मेरे हो कर भी मेरे नहीं हो। पराये कभी नहीं हो सकोगे, पर मेरे भी नहीं हो-और तुम्हारी ये सब उतावली परिवर्तनेच्छाएँ मुझे आज बड़ी रोचक लगती हैं पर साथ उद्वेलित नहीं कर सकतीं।”
“आप बदल सकते हैं, अज्ञेयजी, लेकिन ऐसा क्यों, कि मेरा विकास रुद्ध हो गया? क्या केवल इसलिए कि आपने एक बार मुझे लिख डाला? रचना केवल अभिव्यक्ति नहीं है, वह सम्प्रेषण है। तब मैं केवल आप का अपेक्ष्य नहीं हूँ; प्रत्येक पाठक, प्रत्येक सहृदय मेरे रूप को बदलता है। क्योंकि मैं केवल वह नहीं हूँ जो आपने बना दिया : मेरा हर पाठक हर बार मुझे बनाता है। मैं तट-वासी नहीं, मैं सेतु-वासी हूँ-और हर साहित्यिक चरित्र ऐसा ही सेतु-वासी है। आप क्या कहना चाहते हैं कि एक सेतु की मेहराब उठा कर चाहे जिस नदी पर रख दी जाए वहीं रहेगी?”
“शाबाश, शेखर! देखता हूँ कि तुम से आरम्भ कर के मैं जिस अलगाव के पथ पर चला उसी पर तुम भी चले हो : तुम भी अपने से असम्पृक्त हो।”
“यह तो आप की कृपा है। मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि लेखक को यह न भूलना चाहिए कि वह जो असम्पृक्त हो सकता हैं तो अपने पात्र के ही कारण। एक तटस्थता वह है जिस को पहुँच कर लेखक कृतिकार बनता है, दूसरी वह है जो उसे पात्र को रचने के बाद मिलती है। आपने जो लिखा, उसमें भोक्ता से द्रष्टा की स्थिति आपने कैसे पायी इसके बारे में आपने अपनी भूमिका में लिखा है। यह आरोप तो मैं आप पर कैसे लगाऊँ कि सच्ची तटस्थता आपने तब तक नहीं पायी थी-पर क्या यह नहीं कह सकता कि मुझे रचकर, मेरे माध्यम से अपना संचित कुछ बिखेर कर ही आप वास्तव में तटस्थ हो सके?”
“शेखर, तुम्हारी बात आज मैं खूब समझता हूँ। और जो आरोप तुम नहीं लगाते, वह मैं स्वयं लगा सकता हूँ-कि ‘शेखर’ पुस्तक में वह सच्ची असम्पृक्त अवस्था नहीं है जिसे मैं उद्दिष्ट मानता हूँ। इस हद तक मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है कि तुम्हें सीढ़ी बनाकर मैं मुक्त हवा हूँ-लेकिन मुझे कहने दो कि इतना मुक्त मैं आज हूँ कि इसे स्वीकार कर सकूँ। दर्द की बात मैंने तुम्हारी भूमिका में लिखी है : दर्द का मूल्य आज भी मेरे निकट कम नहीं है, पर तटस्थता का आज का एक नया अर्थ मैं जानता हूँ। साहित्यकार समाज को बदलता है-यानी वह उस का अनिवार्य कर्तव्य और ध्येय है, लेखक अनिवार्यतः सामाजिक क्रान्तिकारी है, इस किशोर मोह से मैं ने छुटकारा पा लिया है। लेखक सिवा अपने के कुछ को नहीं बदलता, सिवा कला की समस्या के कोई समस्या हल नहीं करता। उस में कोई समाज-परिवर्तनकारी शक्ति आती है, या उसकी कृतियों का कोई ऐसा प्रभाव होता है, तो इसीलिए कि वह केवल अपने को बदलने के शुद्ध आग्रह के कारण व्यक्ति को एक अभ्रंश्य सामाजिक मूल्य या प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित करता है और समाज में मूल्य की प्रतिष्ठा ही उसका सच्चा सामाजिक कर्म है। जिस समाज में ऐसे मूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं है, वह प्रगतिवान् नहीं हो सकता क्योंकि वह गतिवान् ही नहीं है; उसकी जड़ता का लाभ उठाकर जो शक्तियाँ अपने को प्रतिष्ठित करती हैं वे सामाजिक उन्नति की शक्तियाँ नहीं है, और जो कुछ भी हों।”
“अज्ञेयजी, आप एक बात भूल गये हैं। बल्कि दो बातें। एक तो यह कि मैं जो भी होऊँ, आपने तो अभी ‘शेखर’ पूरा नहीं किया है, इसलिए पाठक की बात तो दूर, अभी आप स्वयं भी मुझे बदल सकते हैं। दूसरी यह कि आगे आप नया कुछ न भी करें, तो क्या आप जो नयी बात कहना चाहते हैं उसके भी अंकुर आपने मुझ में नहीं पहचनवा दिये हैं? ‘शेखर’ के अधूरे चरित्र में भी क्या यह संकेत नहीं कि क्रान्ति को कम-से-कम साहित्य की देन यही हो सकती है कि वह व्यक्ति-चरित्र को पुष्टतर बनाने में योग दे? और-अपनी कमज़ोरी और आप के उद्देश्य स्वीकार करता हुआ कहूँ कि क्या मेरी-शेखर की असफलताएँ भी अन्ततोगत्वा व्यक्ति शेखर की न्यूनताओं के कारण ही नहीं हैं?”
“हाँ, शेखर, यह तो है। तुम्हारे बारे में नयी दृष्टि भी मुझे तुम से ही मिली है। और ‘शेखर’ के तीसरे भाग में जो कुछ है-”
“क्षमा कीजिए-वह तीसरा भाग क्या लिख गया है? छपा तो नहीं है-?”
“हाँ, लिखा गया है, पर लिखा जा कर ही अकारथ भी हो गया है, क्योंकि अलग होकर जिसे लिख पाया, लिख डाल कर उस से और अलग हो गया-और यह अलगाव अब इतना अधिक हो गया है कि पुस्तक को छापने देते संकोच होता है। तभी का तभी छप जाता तो एक बात थी, अब-अब दूसरी बात है। तुम्हीं ने कहा कि रचना अभिव्यक्ति-भर नहीं है, सम्प्रेषण है-और आज जब मुझे लगता है कि पहले की अभिव्यक्ति अधूरी है-यानी आज की दृष्टि से अभिव्यक्ति नहीं है, तो सहृदय समाज के सामने मैं क्या प्रकाशित करूँ-सम्प्रेषण किस का करूँ? यही आज की मेरी समस्या है-मेरी कला की समस्या।”
“जिसे केवल आप ही हल कर सकते हैं, अज्ञेयजी; मैं उस में योग नहीं दे सकता-मैं तो समस्या का एक उपकरण हूँ।”
“नहीं, शेखर; तुम समाधान के भी उपकरण हो। तुम्हारे ही द्वारा मैं फिर अपने को पहचानूँगा। तीसरा भाग मैं दोबारा लिख रहा हूँ, और मेरा विश्वास है कि उसके बाद तुम और मैं-बीस और दस वर्ष पहले तुम और आज के या कि कल के तुम, और तब का, अब का, भविष्य का मैं-नये सिरे से एक दूसरे को पहचानेंगे।”
“तो फिर मैं आप को न पहचान कर क्या अनुचित कर रहा था?”
“नहीं, शेखर। रचना में ही मुझे नया संघटन, नया इंटिग्रेशन मिलेगा-और रचना की इस के सिवा दूसरी समस्या नहीं है कि उसके द्वारा रचना-रचयिता दोनों का संघटन हो।”
“मैं तो अभी आप को फिर से पहचानने लगा-क्योंकि अपने को जोखिम में डालने को मेरी पहचानी हुई प्रवृत्ति आप में ज्यों-की-त्यों है।”
“लेकिन मेरा विनोद? मैं कहूँ कि तुम अब भी मेरे विनोद की वस्तु हो तो बुरा तो न मानोगे?”
“बुरा मानने की क्या बात है? हर ईश्वर अपनी सृष्टि को देखकर हँसता है, पर कौन उससे अपने को काट लेता है? आप ने मुझे नास्तिक बनाना था या नहीं, यह तो नहीं जानता-पर समझता हूँ कि ईश्वर भी सृष्टियों द्वारा अपना संघटन करता रहता है।”
“शेखर, आस्तिकता का प्रश्न क्यों उठाते हो जब कि वह तुरन्त ही जाड्य का, एक स्थितिशीलता का आग्रह बन जाता है? हम आस्था-सम्पन्न रहें, इतना क्या तुम्हारे लिए भी काफ़ी नहीं है?”
शेखर : एक प्रश्नोत्तरी:
( दिल्ली रेडियो की प्रेरणा से श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘शेखर’ के सम्बन्ध में एक प्रश्नावली तैयार की थी जिसके उत्तर लेखक ने दिये थे। मूल प्रश्नावली अँग्रेजी-हिन्दी मिश्र भाषा में थी, किन्तु प्रश्नों का प्रस्तुत रूप प्रश्नकर्ता द्वारा अनुमोदित है।)
“शेखर के विषय में मुझे कुछ बातें आप से पूछनी हैं।”
-”ज़रूर पूछिए,-मेरा अहोभाग्य!”
“शेखर की मातृभाषा अँग्रेज़ी बना कर क्या आपने पाठकों के लिए उसकी मनोवृत्ति को समझना कठिन नहीं कर दिया है?”
-”मैं तो समझता हूँ कि आसान कर दिया है-क्योंकि पढ़ने वाले स्वयं उसी कोटि के हैं। हिन्दी के उपन्यास पढ़ने वाले अधिकतर विदेशी उपन्यास साहित्य से परिचित होते हैं। सब तो नहीं होते, लेकिन जो केवल हिन्दी से परिचित हैं वे अधिकतर अब भी उपन्यास को घटिया साहित्य मानते हैं और जब ‘शेखर’ लिखा गया था तब तो साहित्य ही नहीं मानते थे।
“और फिर यह भी सोचिए कि शेखर है कौन? जिस वर्ग का प्रतीक पुरुष वह है, वह क्या सचमुच अँग्रेज़ी पर पला नहीं था? और इसलिए सच्चे चित्रण के लिए अँग्रेज़ी के प्रभाव को स्वीकार करना अनिवार्य नहीं है?”
“शेखर के निर्माण के समय क्या किसी विदेशी उपन्यास का कोई पात्र आपके सामने था?”
-”सामने था यह कहना गलत होगा। पर परोक्ष भी नहीं था यह दावा मैं कैसे कर सकता हूँ? यही कह सकता हूँ कि किसी पात्र का भारतीय प्रतिरूप बनाने की मैंने कोई कोशिश नहीं की; न यही भावना मन में थी कि किसी प्रसिद्ध पात्र जैसा पात्र, उससे अधिक सफलता से चित्रित करके दिखाऊँ-‘नहले पर दहला’ लगाने वाली जो मनोवृत्ति होती है। यों साहित्य पढ़ता हूँ तो उससे प्रेरणा भी मिलती ही है : जब हम किसी कलाकार की प्रतिभा के सामने झुकते हैं तो उसमें से स्वयं भी कला के प्रति निष्ठावान् होने की कर्तव्य-प्रेरणा पाते हैं। ‘ज्याँ क्रिस्तोफ़’ ने अनवरत आत्म-शोध और आत्म-साक्षात्कार का जो चित्र रोलाँ ने प्रस्तुत किया है, उससे मुझे अवश्य प्रेरणा मिली : लेकिन न तो ‘शेखर’ उपन्यास ‘ज्याँ क्रिस्तोफ़’ जैसा उपन्यास है, न शेखर पात्र वैसा पात्र है। समानता इतनी ही है कि जैसे ‘क्रिस्तोफ़’ में लेखक एक अमात्मान्वेषी के पीछे उसका चित्र खींचता चला है, वैसे ही मैं एक दूसरे आत्मान्वेषी के पीछे चला हूँ। ‘क्रिस्तोफ़’ में सर्वत्र उपन्यासकार अन्य-पुरुष में लिख रहा है, शेखर का रूप उत्तम-पुरुष में लिखी गयी आत्मकथा का है-लेकिन यह तो तन्त्र यानी टेकनीक की बात है।”
“मैं तो तुर्गेनेव के बाज़ारोव की बात सोच रहा था।”
-”तुर्गेनेव का मैं बड़ा प्रशंसक हूँ, और मानता हूँ कि बाज़ारोव का चरित्र उपन्यास-साहित्य की एक विभूति है। लेकिन शेखर पर बाज़ारोव का प्रभाव मैं समझता हूँ बिलकुल नहीं है। बाज़ारोव रूसी निहिलिज्म की देन है। तुर्गेनेव निहिलिस्ट नहीं था लेकिन उसने युग की प्रवृत्तियों को पहचाना और विश्लेषण करके इस प्रवृत्ति का चरम रूप सम्मुख रख दिया। मैं भी आतंकवादी दल से सम्बद्ध रह कर भी ‘कनर्विस्ड’ आतंकवादी नहीं रहा, पर मुझे इसमें बड़ी दिलचस्पी रही कि आतंकवादी का मन कैसे बनता है। ‘शेखर’ की रचना इसी से आरम्भ हुई। मुझे बाज़ारोव की जरूरत नहीं थी, क्योंकि मुझे प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त था। साथ ही यह प्रश्न भी मेरे सामने था, कि आतंकवादी बनता कैसे है, यही भर जानना काफ़ी नही है : अगर मुझे आतंकवाद का वर्णन अपर्याप्त मालूम होता है तो उस से आगे भी बढ़कर देखना होगा। और फिर यह भी संकेत देना होगा कि आतंकवादी के भीतर भी, उस वाद के प्रति असन्तोष उसे प्रेरणा और शक्ति दे सकता है कि उससे आगे निकल जाए। बाज़ारोव नियतिवादी है। यह तुर्गेनेव का दोष नहीं, उसकी सत्यनिष्ठा है-तत्कालीन निहिलिस्ट इससे आगे नहीं देखता था। शेखर नियतिवादी नहीं है। इसका श्रेय मैं नहीं लेता; मानव में मेरी आस्था अधिक है तो इसका कारण भौतिक दर्शन का तब से आज तक का विकास भी है।”
“शेखर और बाज़ारोव दोनों में समान रूप से माता-पिता के प्रति अवज्ञा का भाव है।”
“हाँ, एक हद तक है। वह पीढ़ियों के परस्पर सम्बन्ध का सूचक है। बिना ऐसे सम्बन्ध के आतंकवादी हो नहीं सकता। आस्तिकता और आस्था, नास्तिकता और अनास्था, दोनों ही जड़ में पितरों और सन्तान के रागात्मक सम्बन्ध होते हैं, और आधुनिक मनोविज्ञान इनका अन्वेषण करता है।”
“जब तक किसी पात्र का अन्त न हो जाए, तब तक उसके चरित्र का पूरा चित्र सामने नहीं आता। आप के सामने क्या शेखर का ऐसा सम्पूर्ण चित्र है?”
“है तो। उसकी चर्चा में स्वयं नहीं करता क्योंकि जब तक मेरी बात को पाठक अपने लिए न जाँच सके तब तक वह एक प्रकार का आरोप ही होगा। ‘शेखर’ के तीसरे भाग में चित्र पूरा हो जाता है, पर वह अभी प्रकाशित नहीं हुआ है। आप पूछते हैं, तो कहूँ कि अन्त तक उस की शिक्षा (मेरी दृष्टि में) पूरी हो जाती है : वह हिंसावाद से आगे बढ़ जाता है। मैं समझता हूँ कि वह मरता है तो एक स्वतन्त्र और सम्पूर्ण मानव बनकर। यों उसे फाँसी होती है-ऐसे अपराध के लिए जो उस ने नहीं किया है। आप चाहें तो इसमें भी बाज़ारोव से समानता देख सकते हैं-पर मेरे निकट यह निष्पत्ति न तो नियतिवादी है और न निरा सिनिसिज्म : मानव-जीवन के प्रति उपेक्षा का भाव मुझ में बिलकुल नहीं है, उसे मैं नगण्य नहीं मानता।”
“शेखर का यह अन्त विचारोत्तेजक और स्फूर्तिप्रद हो सकता है। लेकिन क्या वह उतना ही शानदार है जितना ‘शेखर’ में रामजी का जिसकी फाँसी शेखर देखता है?”
-”रामजी और मदनसिंह-‘शेखर’ के ये दो विशेष पात्र हैं : दोनों में एक ऋजुता है, जीवन के प्रति एक भव्य स्वीकार का भाव। लेकिन उस स्वीकार के पीछे जाइए तो दोनों में मौलिक अन्तर है। रामजी का स्वीकार सहज आस्था का स्वीकार है। उसके कुछ सहज नैतिक मूल्य या प्रतिमान हैं, जिनके सहारे वह चलता है : उसकी शालीनता उस की आस्था का प्रतिबिम्ब है। मदनसिंह की ऋजुता उतनी सहज नहीं है। वह दुःख से मँज कर बना हुआ व्यक्ति है, उसको जो दृष्टि मिली है वह बहुत अन्धकार में टोहने के बाद मिली है। मदनसिंह की शालीनता विनय का, ‘ह्युमिलिटी’ का-प्रतिबिम्ब है। एक तीसरा पात्र मोहसिन है : उसमें भी ऋजुता है : वह उसके फक्कड़पन का प्रतिबिम्ब है।
“शेखर की यात्रा इन तीनों से कठिन है। टेकनीक की दृष्टि से ये तीनों उसके अन्तःसंघर्ष को और स्फुट करने का काम करते हैं। मेरा विश्वास है कि अन्त में ऋजुता उस में भी आती है : और वह शालीनता स्वातन्त्र्य का प्रतिबिम्ब है। शेखर की खोज अन्ततोगत्वा स्वातन्त्र्य की खोज है-या हो, ऐसा उसके लेखक का प्रयत्न रहा।”
‘शेखर’ का जीवन-दर्शन क्या है, क्या आप संक्षेप में बताने की कृपा करेंगे?”
-”वाह-वाह! अगर संक्षेप में बता सकता तो विस्तार से क्यों लिखता? कला मितव्ययिता का दूसरा नाम है : जो कुछ भी कहा जाए वह संक्षिप्ततम कलारूप में कहा जाए यही कलाकार का उद्देश्य होता है। यों सूत्र आप चाहें तो कह दूँगा ‘स्वातन्त्र्य की खोज’-फिर आप सूत्र की व्याख्या चाहेंगे और मैं कहूँगा कि वही तो ‘शेखर’ है।”
“शेखर के चरित्र में कई ऐसे अवसर आए हैं जब उसका भारतीय नीति-शास्त्र की दृष्टि से स्खलन होता है। उसका क्या प्रभाव पाठक-पाठिकाओं पर पड़ेगा, यह भी आपने सोचा है?”
-”उत्तर देने से पहले स्वयं आप से एक प्रश्न पूछूँ? आप नीतिशास्त्र और नीति में-या नीति में और नैतिकता में-कोई भेद करते हैं?”
“इस में आप का क्या अभिप्राय है मैं नहीं समझा।”
-”वह यह कि अगर नीतिशास्त्र से-युगीन नैतिकता से-ज़रा भी इधर-उधर नहीं हटना है तब तो नैतिक संघर्ष का चित्रण ही नहीं किया जा सकता। और प्रचलित नैतिकता का समर्थन-भर करने के लिए कला की साधना, कम-से-कम मुझे तो व्यर्थ मालूम होती है-और मेरा विश्वास है किसी भी कला-साधक को व्यर्थ मालूम होगी। क्योंकि कला को नैतिकता के प्रचलित रूप से कोई लगाव नहीं है-उसे तो नैतिकता के बुनियादी स्त्रोतों से मतलब है।
“और इतना ही नहीं, हमारे युग में यह और भी महत्त्वपूर्ण बात हो गयी, क्योंकि आप स्वयं मानेंगे-नैतिक रूढ़ियाँ जिस तेज़ी से इस युग में टूटीं वह बहुत दिनों से नहीं देखी गयी होंगी। जब नैतिकता के पुराने आधार नहीं रहते-तब मानव कैसे नैतिक बना रह सकता है, या रह सके-यह प्रश्न तो कुछ ऐसा है कि कलाकार को ललकारे।”
“खैर। मेरा प्रश्न तो अभी ज्यों-का-त्यों है।”
-”क्या उसका उत्तर सरल है-बल्कि एक तरह से मैं दे चुका : शेखर की स्वातन्त्र्य की खोज, टूटती हुई नैतिक रूढ़ियों के बीच नीति के मूल-स्रोत की खोज है। कह लीजिए कि समाज की खोखली सिद्ध हो जाने वाली मान्यताओं के बदले व्यक्ति की दृढ़तर मान्यताओं की प्रतिष्ठा करने की कोशिश है। मैं मानता हूँ कि चरम आवश्यकता के, चरम दबाव के, निर्णय करने की चरम अनिवार्यता के क्षण में हर व्यक्ति अकेला होता है : और उस अकेलेपन में वह क्या करता है इसी में उसके आत्मिक धातु की कसौटी है।”
“यह तो घोर व्यक्तिवादी दृष्टिकोण है।”
-”एक अराजकतावादी के मुँह से इस आलोचना को मैं निन्दा तो नहीं मान सकता!”
“लेकिन पाठक पर प्रभाव की बात तो रह जाती है। हर कोई अपने को ही प्रमाण मानने लगेगा तो समाज कैसे बना रहेगा?”
“ऐसा खतरा बिलकुल नहीं है, यह तो मैं नहीं कह सकता। लेकिन कोई भी बड़ा परिवर्तन लाने के लिए जोखिम तो उठाना पड़ता है। और यह ज़रूरी है कि हर पाठक-हर व्यक्ति-समझे कि उसे नैतिक आचरण करना है तो इसलिए नहीं कि वैसी रूढ़ि है, बल्कि इसलिए कि उसमें वैसी अन्तःप्रेरणा है। समाज में ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो नैतिक मूल्य में विश्वास नहीं करते पर उस के विरुद्ध आचरण भी नहीं करते-चाहे लोक-भय से, चाहे सुविधा की कमी से, चाहे प्रेरणा ही कमी से सही। फिर ऐसे भी हैं कि मूल्यों को मानते तो हैं पर आचरण उनके विरुद्ध करते हैं-चाहे दुर्बलता के कारण, चाहे और किसी कारण। ये दोनों प्रवृत्तियाँ गलत हैं, और समाज के सही निर्माण में योग नहीं देतीं। इन से यह कहीं अच्छा है कि कर्म और विश्वास में सामंजस्य लाने के लिए नैतिक व्यवस्था को खतरे में पड़ने दिया जाए। वह कुल मिलाकर व्यक्ति के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी श्रेयस्कर है। समाज की नैतिक या आचरण-सम्बन्धी मान्यताएँ उसकी इकाइयों की मान्यताओं की औसत होती हैं, इसलिए उस औसत के स्तर को जो भी ऊँचा उठाता है पूरे समाज को उठाता है। मान्यता और कर्म का अविरोध स्वयं एक बड़ा आदर्श है-नैतिक मूल्य है। यही ईमानदारी है। सामाजिक रूढ़ि से ऊँचे आत्मा की प्रतिष्ठा से कैसे किसी पाठक का अहित हो सकता है मैं नहीं समझता। आप पूछते हैं कि आदमी अपने को ही प्रमाण मानने लगेगा तो समाज कैसे बना रहेगा? इसमें एक तो यह ध्वनि है कि समाज जो मानता है उसमें अनिवार्यतया विरोध है-ऐसा ही हो, तो आप ही बताइए, किसी के भी किसी को भी प्रमाण मानने से भी, कोई भी कैसे बना रहेगा?
“लेकिन इसे छोड़ें भी, तो प्रश्न यह रहता है कि व्यक्ति को जो सत्य दिखता है, उसे अनदेखा कर के वह जो उसे झूठ दिखता है उसे मानता चले-जो स्थिति कि अपने को प्र्रमाण न मानने में निहित है-तो इस पर क्या समाज, आप के शब्दों में ‘बना रहेगा’? सच्चाई में जोखिम है-पर जोखिम में बचने की गुंजाइश तो है जब कि पाखंड निश्चित मरण है-नीरन्ध्र, अमोध सर्वनाश।”
“आपके इन उत्तरों से मुझे पूर्ण सन्तोष तो नहीं हुआ, पर आपके दृष्टिकोण को सामने रख एक-एक बार फिर से ‘शेखर’ को पढ़ने की तीव्र इच्छा अवश्य उत्पन्न हुई है।”
-”तब तो मैं कृतार्थ हुआ।”
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