शेखर: एक जीवनी / भाग 2 / धागे, रस्सियाँ, गुन्झर / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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बदली और शीत, किन्तु दिन के प्राण सुन्दर हैं-सुन्दर और स्निग्ध, सद्यःस्नात...वह संगीतकार होता, तो आज के दिन की आत्मा को स्वरों की तूलिका से आँक लेता-चित्रकार होता तो उसका चित्र खींचता; मूर्तिकार होता तो स्फटिक शिला में उसके प्राण को बाँधकर ऊपर कर देता-अमर नहीं, अमर तो वह स्वयं है, उसके आकार को मूर्त की परिधि में ले आता...क्योंकि आनन्द का भी आकार अवश्य होता है, जो बोध की उँगलियों से छुआ जा सकता है-अगर वह आकार मूर्त नहीं है, तो यह केवल शिल्पकार को रूप-सज्जा की स्वच्छन्दता देता है-आकृति और उत्कंठा दासियाँ बनकर उस रूप को सँवारती हैं-

शेखर लिखेगा। हो सका तो कविता लिखेगा, किन्तु कुछ भी लिखेगा अवश्य, क्योंकि जैसा धुला हुआ उसका मन आज है, वैसा उसे याद नहीं, इससे पहले कब था, और जिस जीवन-लहर का शिखर इतने युगों बाद पाया है, उसकी दूसरी उठान कब होगी, कौन जाने...

क्या ऐसा कुछ नहीं है, जो लिखने से परे है, जो बहुत विशाल है, जो बहुत गहरा है, जो घिरता नहीं, क्योंकि वह स्वयं घेरनेवाला है?

अवश्य है। किन्तु उसे पकड़ने की स्पर्धा कौन कर रहा है? सप्तपर्णी की छाँह ऊपर है, सब ओर है; किन्तु उसकी साँस का मर्मर तो मैं पी सकता हूँ, और उसमें विलीयमान होकर उसके सुर में गुनगुना भी सकता हूँ...

कृतित्व सबसे पहले कृतज्ञता है...

शेखर लिखने लगा।

नौ, दस, ग्यारह, साढ़े ग्यारह-

जेल में शेखर ने पैरों की चाप से व्यक्ति की मनोदशा भाँपना सीख लिया था, इसलिए सीढ़ियों पर पैरों की चाप सुनकर वह चौंका। जीवन के दलदल और शैवाल के जाल में से अपने को आगे घसीटने की इतनी अनिच्छा, इतनी क्लान्ति-कौन है यह अभागा, जो आज के पुनीत दिन-

शेखर ने एक बार अपने सामने पड़े हुए स्याही-रँगे काग़ज़ों को देखा और फिर सीढ़ियों की ओर के किवाड़ को-

एक शिथिल पैर देहरी पर लटकाए, एक हाथ और कोहनी चौखटे पर और कन्धा हाथ पर टेके, बेरंग चेहरे में धुँआले काँच-सी जड़ित आँखें शून्य पर टिकाए सामने शशि खड़ी थी।

उसने हड़बड़ाकर उठते हुए कहा, “अरे, कैसे आ गयी-” और शशि के मुँह को देखकर सहारा देने को लपका।

“आ गयी, बस-अब वहाँ लौटना नहीं होगा-नहीं, मुझे मत छुओ, मैं अभी चली जाऊँगी-”

“अयँ, क्या कहती हो, शशि-”

“उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया है।”

“क्या-क्यों?” एकाएक स्तब्ध होकर, “भीतर आओ, शशि, बैठकर बात कहो-”

“नहीं, शेखर, मैं पति द्वारा परित्यक्ता हूँ, कलंकिनी हूँ, मुझे कहीं स्थान नहीं है। मुझे भीतर मत बुलाओ-”

शशि को वहीं देहरी पर बैठने के लिए झुकती देख, शेखर ने मर्माहत स्वर में कहना आरम्भ किया, “शशि-” फिर एकाएक उसने जाना, वह बैठना स्वेच्छामूलक नहीं है, शशि इसलिए बैठ रही है कि वह खड़ी नहीं रह सकती...उसने दौड़कर भुजा पकड़कर शशि को सँभाला और भीतर की ओर लिवाने लगा।

“हाँ, मैं कहती हूँ। सोच लो, शेखर, अभी समय है। कोई कारण नहीं है कि तुम मुझे भीतर बुलाओ या आने दो। मैं रुकने नहीं आयी-किसी को संकट में डालना मुझसे नहीं होगा-और-तुम्हें-तो-कभी नहीं...” उसका स्वर टूट गया, आयासपूर्वक उसने कहा, “तुमने आगे ही जो दिया है-”

शेखर ने दूसरे हाथ से उसका मुँह बन्द करते हुए उसे चारपाई तक पहुँचाया, बलात् बिठा दिया, और फिर हल्के दबाव से लिटाने का यत्न करने लगा-

दबी हुई कराह के साथ शशि ने कहा, “नहीं, बैठी रहने दो-”

शेखर ने तनिक अलग हटकर कहा, “क्यों निकाल दिया है, शशि?” और फिर तत्काल ही, “अगर कहने में कष्ट होता है तो रहने दो-”

“कहूँगी। अभी मुझे जाना जो है। उन्होंने कहा है, मैं भ्रष्टा हूँ, पापाचारिणी हूँ।”

थोड़ी देर की स्तब्धता के बाद “क्यों?”

“मैं रात भर बाहर रही थी-”

“क्या तुमने उनसे कहा नहीं कि तुम यहाँ आयी थीं-मेरे पास थीं?”

शशि देख तो कहीं कुछ नहीं रही थी, फिर भी उसने मुँह फेर लिया, बोली नहीं।

“तुमने क्यों नहीं कहा? मैं अभी जाता हूँ-”

तड़पकर, “नहीं, नहीं! तुम मत जाओ-”

“क्यों-”

“नहीं, शेखर, नहीं! मैं-”

“तुमने कहा नहीं?”

शशि ने किसी तरह मुँह से निकाला, “वे-जानते थे।”

“तब?”

जैसे बाढ़ से नदी के कगारे धीरे-धीरे टूटकर गिरने लगे, वैसे ही शशि का धैर्य टूट रहा था। क्रमशः तीखे होते हुए स्वर से उसने कहा, “मुझसे मत कहलाओ, शेखर; मैं नहीं दुहरा सकती तुम्हारे आगे वह बात-”

“मैं तुमसे कोई और हूँ, शशि?”

“ओह, तुम नहीं समझते, शेखर तुम नहीं समझते। वे कहते हैं-तुम्हें पता नहीं, क्या कहते हैं वे-वे कहते हैं-रात यहाँ रही थी-यही तो कहते हैं-मैं भ्रष्टा हूँ-ओः, नहीं, नहीं, शेखर!”

स्वर तीखा होकर एक हिचकी-सा बन गया था; फिर एकाएक मौन छा गया और सर्राता हुआ बहता रहा...

देर बाद शेखर ने कहा, “मैं समझ गया, शशि! बस...” और कुछ रुककर फिर आवृत्ति की, “मैं सब समझ गया...”

उसका स्वर इतना शान्त और स्थिर हो गया था कि शशि की बिखरी हुई दृष्टि एकाएक उस पर केन्द्रित हो गयी, और उसने शंकित स्वर में पूछा, “क्या करोगे, शेखर?”

सोचते हुए स्वर में, “नहीं, वैसा अब नहीं करूँगा; शशि। कुछ नहीं करूँगा।” फिर, “और तुम, शशि?”

“मैं क्या?”

“तुम क्या करोगी?”

शशि एक खोखली निर्बल हँसी हँसी-”मैं!” फिर गम्भीर होकर बोली, “शेखर, तुम अब भी कह दो, मैं चली जाऊँ। मैं सचमुच चली जाऊँगी-कह दो न!”

शेखर ने आहत झिड़की के स्वर में कहा, “क्या कह दूँ? तुम्हें क्या-”

“तुम्हारे ही लिए वह आसान हो, यह नहीं है; मेरे लिए भी उसमें सुविधा होगी, शेखर-”

शेखर खिड़की के पास जा खड़ा हुआ। बोला, “कहते हैं, ऊँचाई में आकर्षण होता है-भयानक आकर्षण।” फिर इस बात का प्रसंग स्पष्ट करने के लिए, “चौतल्ले की खिड़की से एक जन भी कूद सकता है, दो जन भी कूद सकते हैं। वह एक रास्ता है।”

काँपते हुए वर्जना के स्वर में, “शेखर!”

“नहीं, मैं नहीं कहता कि यह रास्ता ग्रहण ही किया जाए। एक दूसरा रास्ता भी अवश्य-होगा।”

“रास्ता! क्या?”

शेखर ने झटके से घूमकर कहा, “शशि, वायदा करो कि तुम कुछ नहीं करोगी, कहीं नहीं जाओगी-”

“मैं-कहाँ जाऊँगी-कहाँ नहीं जाऊँगी?”

“टालो मत, शशि; कहो, तुम जाओगी नहीं-”

“...”

“कहो शशि, वचन दो।”

“तुम यही कहते हो, शेखर? सम्पूर्णतया यह कहते हो-”

“शशि, इतना विश्वास करोगी मुझ पर-”

शशि ने धीरे-धीरे कहा, कुछ ऐसे प्रश्नात्मक भाव से, जैसे प्रयोग करके देख रही हो कि ये शब्द सुनने में कैसे लगते हैं, “नहीं जाऊँगी। शायद न जाना ही-देना है-पाई-दमड़ी चुकाना-” फिर एक शिथिल भाव से, मानो बातचीत में अब किसी पक्ष को कुछ कहना-सुनना नहीं है, उसने आँखें बन्द कर लीं...

शेखर कमरे में इधर-उधर टहलने लगा, जो कुछ उसने सुना-कहा था, उसे पूरी तरह समझने और अपनाने का प्रयत्न करने लगा...पिछली रात से जो आत्मीयता का वृत्त स्थापित-प्रकट-हो गया था, उसके बारे में उसके मन में रत्ती भर भी संशय नहीं था-शशि असन्दिग्ध और अपरिहार्य रूप से उसके ‘इह’ का अंश थी; और शशि के साथ खड़े होने का जो कर्तव्य उसने अपनाया था, उसकी करणीयता-और प्रीतिपूर्वक, गौरव मानकर करणीयता-भी उतनी ही असन्दिग्ध थी; किन्तु क्या इस असन्दिग्धता देखना केवल एक समस्या की ही असन्दिग्धता देखना नहीं है; क्या यह समस्या का निराकरण भी उसमें उतना ही असन्दिग्ध है?...उसे बोध हुआ कि ‘दूसरा रास्ता भी होगा’ के आग्रह में ‘दूसरा रास्ता है’ का आश्वासन नहीं है। वह आश्वासन-

शशि उठकर खड़ी हो गयी और लड़खड़ाती गति से द्वार की ओर बढ़ी-शेखर ने सहारे के लिए बढ़ते हुए कहा, “कहाँ, शशि-”

“नहीं, तुम यहीं ठहरो; मैं ज़रा बाहर जाऊँगी-”

शेखर ने कुछ शंकित स्वर में कहा, “शशि, तुम वायदा कर चुकी हो-”

“शेखर, मैं अभी आयी; तुम यहीं कमरे में ठहरो-” फिर एक क्षीण और तत्काल वेदना में मिट जानेवाली मुस्कान के साथ, “डरो मत...”

शेखर जड़वत् कमरे के बीच में खड़ा रहा, किन्तु उस जड़ता में चौकन्नापन था-उसने बाहर से पानी फेंके जाने का स्वर सुना और फिर एक हाँपी हुई कराह; फिर नल से बहती धार की आवाज़...

“शेखर-”

शेखर लपककर बहार पहुँचा, शशि नल के सहारे झुकी खड़ी एक अन्धा हाथ उसकी ओर बढ़ा रही थी-शेखर ने सहारा देकर उसे भीतर लाते हुए पूछा, “क्या है, शशि? क्या हुआ है-”

“कुछ नहीं, कुछ नहीं-”

यह अनावश्यक आग्रह क्यों? शेखर ने चिन्तित स्वर से पूछा, “डॉक्टर बुला लाऊँ?”

“नहीं, कुछ नहीं है शेखर-” किन्तु चारपाई पर लेटती हुई शशि फिर एकाएक सिकुड़कर अधबैठी रह गयी; फिर मुश्किल से एक करवट सिमटकर निश्चल हो गयी, एक हाथ धीरे-धीरे उठकर माथे तक गया और टिक गया; उँगलियाँ सरककर केशों की ओर बढ़ीं और तीन नख बीर-बहूटी से ओझल हो गये-एकाएक शेखर ने देखा कि यद्यपि शशि की आँखें खुली हैं तथापि वह न कुछ देखती है, न जानती है, यह भी नहीं कि शेखर वहाँ है-या कि वह है भी...

क्या एकता का बल मृत्यु का बल है-क्या एक-दूसरे को पहचान लेने का यही पुरस्कार है कि दोनों के पास कहने को कुछ नहीं है, विनियम के लिए कुछ नहीं हैं; एक ओर अनदेखती निस्पन्द आँखें और दूसरी ओर विमूढ़, हतबोध पाषाण? एकाएक समूची परिस्थिति की इयत्ता-रामेश्वर के वार की, शशि की चोट की दारुणता-शेखर के चेतना-मुकुर पर हथौड़े की मार की तरह पड़ी; वह तिलमिला गया। एक तनाव उसके सारे शरीर में जागकर उसकी भवों में संचित हो गया, और शशि पर टिकी हुई उसकी दृष्टि को क्षण भर के लिए धार दे गया; फिर उसने झुककर धीरे-धीरे शशि के पैताने से कम्बल छुड़ाकर उसे उढ़ा दिया; पुरानी शाल कन्धे पर डाली और बाहर चल पड़ा।

“कहाँ-जा रहे हो?”

शेखर चौंक पड़ा, पर बिना रुके बोला, “मैं-आया, शशि, तुम लेटी रहो-” और जल्दी से उतर गया। कोई कार्यक्रम उसके मन में स्पष्ट नहीं था, केवल इतना स्पष्ट था कि वह रामेश्वर से साक्षात् करने जा रहा है।

रामेश्वर देहरी के ठीक सामने बैठा था; शेखर ने उसे क्षण भर पहले देखा; किन्तु क्षण ही भर में रामेश्वर के चेहरे का बन्द झिलमिल का-सा भाव प्रतिकूलता से कँटीला हो आया; घनी और पहले ही मिली हुई भवें सेहुँड़ के झाड़-सी उलझ गयीं-

“तुम्हारी इतनी मजाल-क्या करने आए हो तुम यहाँ पर-”

रामेश्वर की गरज की उपेक्षा से एक ओर ठेलते हुए शेखर ने कहा, “क्या करने आया हूँ, यह तो यहीं पर तय करूँगा; पर आपने यह किया गया है-होश में हैं आप?”

“बेहया पैरवी करने आया है-तेरे पास गयी नालिश लेके-निकल जाओ मेरे घर से-तुम्हारी क्या लगती थी वो-” रामेश्वर का चेहरा घृणा और प्रतिहिंसा से बेहद कुरूप हो आया, उसके नथने और ओठ फड़कने लगे; शेखर ने जान लिया कि उसका विद्वेष असंगति की उस सीमा पर पहुँच गया है कि अगर रुक-रुककर नहीं बोलेगा तो तुतलाने लगेगा! पर आखिर उसे इतने रोष का अधिकार क्या है-क्या वह प्रपीड़ित है? वह नृशंस, अन्धा, आततायी! उसने कड़े पड़कर कहा, “मैं जवाब देने नहीं, माँगने आया हूँ-”

रामेश्वर कई क्षणों तक गीले पलीते की तरह “तु-तु-तु” करता रहा, मानो शेखर की स्पर्धा पर उसके चेहरे का तमतमाया हुआ विस्फार निर्वाक् हो गया हो। शेखर ने इस अवसर से लाभ उठाते हुए एक तने हुए, द्रुत एकस्वर से कहना शुरू किया, “शशि मेरे पास थी, मैं देर से लौटा था, वह मुझे आत्म-घात-” क्षणभर अटककर, “तसल्ली देने ठहरी थी, फिर वर्षा-” किन्तु फिर अनुभव करके कि वह जवाब दे रहा है, और वह भी कुछ असंगत, उसने ओठ काटकर वह वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया। “आप कितना बड़ा अनर्थ कर रहे हैं, आपको पता नहीं है। शशि-आप उसके पैर छूने लायक भी नहीं हैं, और आप-” उसे विस्मय हुआ कि शशि के प्रति कोई अव्यक्त दायित्व उससे अब भी इस व्यक्ति को ‘आप’ कहकर सम्बोधन करा रहा है।

फटे हुए बाँस पर आरी के दराँतों का जैसा स्वर होता है, वैसे स्वर में रामेश्वर के पिछली तरह दूसरे कमरे के किवाड़ से कोई सहसा बोला, “तो जा, चाट उसके तलुवे तू-तुझसे चटवाकर उसका जी ठंडा होगा-”

शेखर ने चौंककर देखा, रामेश्वर के पीछे एक स्त्री का चेहरा है, जिसकी असंख्य साँवली झूर्रियों में से रामेश्वर की बासी प्रतिकृति झाँकती हैं; वही झंखाड़-सी भवें हैं, किन्तु उनके नीचे के विवरों में आँख की जगह फफूँद के गुल्म हैं...क्या रामेश्वर की माँ है? शेखर ने उसे पहले नहीं देखा था, न जानता था कि वह कब, कैसे आयी है।

“तसल्ली देने ठहरी थी इसे। रात भर तसल्ली पाकर ही इतना हौसला हो गया-बदमाश कहीं का!” साँप की फुफकार की तरह शेखर की ओर थूककर मानो उसे आवेश की नयी निधि मिली, और शेखर ने देखा कि उसके पार्श्व में एक बूढ़ा चेहरा और आ गया है, जिसकी खिचड़ी मूँछें काँप रही हैं।

“यही असली पाजी है, कम्यूनिस्ट बना फिरता है। अभी साल की जेल काटकर आया है, भले घर में कोई घुसने नहीं दे; कम्युनिस्ट तो औरत को साझा-माल मानते हैं, नास्तिक! इनका तो काम ही है लड़कियों को वरग़लाना और सुधार के नाम पर रंडियाँ बनाना। टुच्चे तो होते हैं, पैसा पास नहीं होता, सस्ता तरीका यही है। पहले बहिन, फिर कामरेड, फिर रंडी। किसी का घर बिगड़े, इन्हें क्या-इन्हें तो रंडी मिलती है-भले घर की, जवान, और मुफ्त!” मानो इस जाति के लोगों का अपराध वर्णनातीत हो, इस भाव से भरकर अपने भीतर का सारा विष एक ही शब्द में उगलते हुए उन खिचड़ी मूँछों ने क्षण भर रुककर फिर कहा, “कम्युनिस्ट!”

शेखर को लगा कि यह कोई दूसरी दुनिया है; कर्दम और फिसलन और काली बमी की कोई दुनिया, जिससे विषैली भाप उठती है-चकित और विमूढ़ वह इस कुत्सित दुहरे आक्रमण पर क्रुद्ध भी नहीं हो सका, केवल हतवाक् रह गया। पर रामेश्वर के गुस्से का घोड़ा जैसे इस कोड़े की दुहरी मार से तिलमिलाकर लगाम तुड़ा भागा-रामेश्वर ने एकाएक आगे बढ़कर एक थप्पड़ शेखर के मुँह पर मार दिया।

अवश्य ही यह एक दूसरी दुनिया है, जिसमें सोचकर, विवेक से-या इच्छा से भी-कुछ नहीं होता, सब कुछ अपने-आप, घटना के भीतर किसी अशिव, आसुरी शक्ति की प्रेरणा से होता है-घटना की कौंध अपने आपको आँक जाती है...धुँधली-सी रेखा कि शेखर के मुँह पर थप्पड़ पड़ी है; स्वयंचालित प्रतिक्रिया कि शेखर के हाथ ने उठकर आक्रान्ता की कलाई को जकड़ लिया है कि मुट्ठी क्रमशः कड़ी पड़ती जाती है और कलाई को पीछे मोड़ती जा रही है-कलाई जिसमें हिंसा पथरा गयी है और जो अब उस जकड़ के नीचे काँपने लगी है। धुँधला-सा विचार कि वह जकड़ इतनी कड़ी पड़ जाएगी कि कलाई की हड्डियाँ कड़कड़ा जाएँगी-कि कलाई रामेश्वर की है, कि वह कलाई के होकर रामेश्वर की गर्दन होती तो-होती तो...

किन्तु क्यों है वह कलाई, क्यों नहीं है वह गर्दन? अवश्य वह गर्दन है; जैसे कलाई कड़कड़ाती है, वैसे ही गर्दन भी कड़कड़ा सकती है, क्योंकि जकड़ में कुछ ईप्सा नहीं है, कामना नहीं है, वह केवल जकड़ है, आसुरी शक्ति जो अपने-आप चलती है, यद्यपि उसके पैर अन्धे हैं-

दूसरी दुनिया के पर्दे को फाड़कर एक स्पर्श शेखर की भुजा; पर पड़ा और शशि ने कहा, “शेखर!”

मुट्ठी की जकड़ खुल गयी, पर स्तब्ध हाथ वहीं-का-वहीं रह गया। फिर एकाएक शेखर को लगा, वह किसी गिजगिजी, ग़लीज़ चीज़ को पकड़े था, उसने उँगलियाँ फैलाईं और फिर हाथ एकाएक नीचे गिर पड़ा।

सन्नाटे में उस आसुरी शक्ति का प्रवाह बहुत देर तक अप्रतिरोध बहता रहा...

फिर शशि ने कहा, “मैं डरती थी कि तुम यही करोगे? यहाँ क्यों आये तुम?”

शेखर का सम्पूर्ण विद्रोह उसके मौन में से झाँकता रहा।

“तुम जाओ यहाँ से-”

शेखर की आँखें स्थिर होकर शशि की आँखो में गड़ गयीं। कुछ क्षणों के बाद उसने पूछा, “औरी तुम? तुम भी चलो-”

“तुम चले जाओ। तुम यहाँ से मेरे कहने से जाओ।” उसके स्वर में आज्ञा का गर्व था, जो जानता है कि उसकी प्रभुता केवल आसपास की प्रजा को हो नहीं, उस मिट्टी को भी चलाती है, जिस पर उसके पैर खड़े हैं, क्योंकि वह भी उसकी सम्पत्ति है।

शेखर चुपचाप लौटकर सीढ़ियाँ उतरने लगा। इस निष्कासन पर उसका सारा व्यक्तित्व चीत्कार कर रहा था, किन्तु उसके मुँह से एक शब्द नहीं निकला और उसके विवेक ने किसी विचार का स्पष्ट निश्चय किया तो यही कि एक नहीं, पचास शेखर भी जितनी श्रद्धा, जितनी आस्था, जितना प्यार इस राज्ञी को दे सकते हैं, वह सब उस एक क्षण के सामने हेय और नगण्य है।

उसने मुड़कर नहीं देखा, किन्तु वह किसी छठी इन्द्रिय के सहारे सब जान रहा था, जो उसके पीछे हो रहा है...चार स्तब्ध शरीर, शशि की आँखें एक वृत्त बनाती हुई एक से दूसरे पर, दूसरे से तीसरे पर जा टिकती हैं और खड़ी रहती हैं। उस दृष्टि में क्या है, उसे पढ़ने की योग्यता किसी में नहीं है; उसमें भी नहीं, जिस पर जाकर वह टिक गयी है और जिससे वह आगे नहीं बढ़ेगी, साहस अपने भीतर सिमट आएगी।

एकाएक धड़ाक से किवाड़ बन्द हुए और भीतर से कुंडा लगाने का किटकिटाता हुआ स्वर। तभी शेखर ने मुड़कर देखा; उससे छः-सात सीढ़ी ऊपर शशि पत्थर की शलाका-सी बन्द द्वार के बाहर खड़ी थी। वह कुछ बोला नहीं; वहीं रुका रहा और फिर धीरे-धीरे एकाएक सीढ़ी उतरने लगा। तब उसने जाना कि उसके पीछे बहुत धीमा और सुस्त एक दूसरे पैर का भी स्वर है।

सीढ़ियों से उसके पीछे-पीछे शशि बाहर सड़क पर निकली तो ऊपर खिड़की से मूँछों से छनकर आया हुआ एक स्वर बोला, “दफ़ा हुई-”

आरी की रगड़ खाकर फटा बाँस कर्कश स्वर से प्रतिवाद कर उठा।

“ले ले उसको कोख में, कलमुँही राँड़-कुत्ती!”

शेखर को बोध हो आया कि इन सम्बोधनों में उसके अस्तित्व की उपेक्षा उसके उत्तरदायित्व का ही परिणाम है। वह मुड़ा नहीं, किन्तु वहीं ठिठक गया कि शशि उसके बराबर आ जाए...

कमरे के दुहरे एकान्त में कितना कुछ जानने को था, कितना कुछ पूछने को था, जो शेखर ने तब नहीं जाना और नहीं पूछा; पूछा कभी भी नहीं, और जाना भी न जाने कब, बोध की किन छोटी-छोटी, विरल, मनचली तरंगों की क्षणस्थायी चमक के सहारे पूछने और जानने का समय भी नहीं था; शेखर भाँपता था कि जो-जो वह देखता है, उसके पीछे और उसके अन्तराल में उससे अधिक महत्त्व का कुछ घटित हो रहा है, होता रहा है, किन्तु इस भावना के सूत्र पकड़ने और सुलझाने का मौका कब था, जबकि इतनी और तात्कालिक बातें सोचने को पड़ी थीं और जवाब माँगती थीं...

शशि चारपाई पर लेटी नहीं, पड़ी थी, प्रश्नचिह्न की तरह एक करवट सिमटी हुई; उसकी पलकें निष्प्रयास झपक जाती थीं और कुछ देर बाद खुल जाती थीं, शेखर जानता था कि वह झपक एक दर्द को छिपा लेती हैं...

शशि स्वस्थ नहीं है, कुछ प्रबन्ध करना होगा-बिस्तर नहीं है, शशि के पास कपड़े भी नहीं है, खाने की व्यवस्था-पैसा नहीं है, कुछ भी नहीं है...

शाम होने से पहले-पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर तो आवश्यक था ही। शाम का खाना होटल से आता है, पर होटल को सूचना देनी होगी-इस समय के लिए वह स्वयं कुछ बना लेगा-लौटकर; सबसे पहले बिस्तर और ओढ़ने के लिए अधिक कम्बल...

शेखर ने बदलने के लिए कपड़े निकाले और बाहर जाने लगा। शशि ने निष्प्रभ स्वर से पूछा, “अब कहाँ जा रहे हो?”

“ज़रा कॉलेज जा रहा हूँ, घंटे भर में लौट आऊँगा।” फिर एक कदम वापस आकर, “शशि, घबराना मत, मैं और कुछ नहीं करता। और तुम-तुम यहीं लेटी रहो, बाहर मत निकलना।”

कपड़े बदलकर शेखर फिर शशि के पास लौटा और थोड़ी देर उसे देखता रहा। फिर बोला, “तुम अब सो जाओ, बहुत थकी हो। रात भर बैठी रहीं, और सवेरे से”

शशि ने अनुगत-भाव से उत्तर दिया, “अच्छा, सो जाऊँगी।”

चलते-चलते शेखर ने दुलार से मुस्कराकर कहा, “मैं बच्चा हूँ कि तुम?”

डेढ़ घंटे बाद जब वह होस्टलों से बगल में तीन कम्बल, एक दरी और एक नमदा लेकर, जेब में उधार के दस रुपये डाले और मुँह पर तात्कालिक सफलता का भाव लिये लौटा, तो शशि फिर नल के पास निश्चल बैठी थी, और पानी बहे जा रहा था...

शेखर ने अपना बिस्तर झाड़कर, नयी चादर निकालकर चारपाई पर शशि के लिए बिछा दी, और कमरे के कोण के दूसरे भाग में अपने लिए बिस्तर करने का निश्चय करके बाकी कपड़ों का गोल वहाँ डाल दिया। फिर वह शशि को चारपाई तक लिवा लाया; उसके मन की सतह पर आशंका की एक बर्फीली पपड़ी जम गयी और वह शशि से कुछ पूछ भी नहीं सका; उसे लिटाकर कुछ खाने का प्रबन्ध करने वह कोठरी में गया तो देखा, अंगीठी में आग है, रसोई के बर्तन बिखरे पड़े हैं, दाल और उबले आलू का शाक एक ओर पड़ा है, कुछ-एक रोटियाँ भी बनी रखी हैं, पर काम जैसे बीच ही में छोड़ दिया गया है, आटा भी ढँका नहीं है और कोठरी की खिड़की में दो गौरेया चिड़िया ताक में बैठी हैं कि कब चोंच भर ले जाएँ-आटे में चोंच के दो-एक चिह्न भी हैं...उसने कमरे में लौटकर ज़रा ज़ोर से कहा, “शशि तुम-तुम बड़ी नालायक हो!”

शशि ने अपराधी की तरह मुस्कराते हुए कहा, “मैं क्या करती, बर्तन समेटने का वक्त ही नहीं मिला, अभी ठीक-ठाक कर देती हूँ-”

शेखर ने निहत्थी झल्लाहट के साथ कहा, “मैं यह कह रहा हूँ? तुमने काम क्यों किया-अच्छा, अब अपनी करतूत का फल चखो। तुम बैठो, मैं थाली परोसकर लाता हूँ।”

“मैंने कोई अपने लिए बनाया है? तुम खाओ-”

“यह तुम्हें दंड दिया गया है कि पहले तुम खाओ, फिर बर्तन धो-धाकर मैं खाऊँगा-”

“नहीं, यह अन्याय है-तुम्हें खाना पड़ेगा।” फिर-अनिच्छापूर्वक, “बर्तन चाहे मुझे मत माँजने देना-”

“अच्छा, माफ़ किया। अपने लिए भी साथ ही ले आता हूँ-”

“शशि ने मुर्झाए स्वर में कहा, “नहीं, शेखर, मैं नहीं खाऊँगी।”

“क्या? पहले ही दिन तुम रोटी बनाकर खिलाओगे और आप उपवास करोगी? क्या समझा है मुझे तुमने? मैं-बिलकुल नहीं खाऊँगा।” फिर स्थिति को कुछ हल्का करने के लिए, ‘आर्य’ शब्द के आकार को ऐसे ढंग से प्लुत करते हुए कि शशि पहचान ले, शेखर पिता की नकल उतार रहा है, “मैं अतिथि-पूजक आर्यों की सन्तान हूँ-”

शशि ने किंचित् मुस्कराकर उसके प्रयास को स्वीकार करते हुए कहा, “अतिथि बनकर मैं सवेरे आयी थी-पर तुमने अतिथि रहने नहीं दिया। अब तो मैं-” एकाएक स्वर बदलकर, “हाँ, अब भी अतिथि ही बनाना चाहो तो-” शेखर का मुँह देखकर शशि फिर रुक गयी और बोली, “नहीं कहती, लो। तुम्हें दुःखी नहीं करना चाहती शेखर, मैं ज़रूर खाती, पर मैं-खा सकती नहीं-”

एकाएक चिन्ता से भरकर शेखर ने कहा, “क्यों शशि? क्या हुआ है तुम्हें-तुम्हें कहीं-चोट आयी है?”

“मैं-मुझे-मेरी तबियत ठीक नहीं है-”

शेखर ने जान लिया कि इसमें स्वीकृति नहीं, छिपाव है; किन्तु वह शशि को जानता है, अगर उसे कुछ नहीं बताना है तो नहीं बताना है, आग्रह व्यर्थ है।

“तो बिलकुल नहीं खाओगी-थोड़ा-सा भी?”

“नहीं, शेखर। तुम अपनी थाली यहीं ले आओ, मेरे सामने खाओ तो मेरा भी खाना हो जाएगा-”

“...”

“ना मैं किसी तरह नहीं सुनूँगी-नहीं तो मैं समझूँगी, मेरे हाथ का खाना तुम्हें अग्राह्य-”

शेखर चुपचाप कोठरी की ओर चल पड़ा।

बिना भूख मिट्टी के गोले निगलने में भी इतना आत्म-दमन करना पड़ता है कि नहीं, नहीं मालूम। पर शेखर के मन में कहीं धुँधला-सा यह ज्ञान भी है कि शशि से उसकी ओर स्नेह की एक आप्लवनकारी धारा बही आ रही है, और उसके अन्तर का स्नेह स्वयं शशि की ओर उठ रहा है, जैसे जल-प्रपात में गर्त की उत्सुक फेनधारा को सिर-आँखों पर लेने के लिए उमड़-उमड़ आती है...और यह कि दुःख और लांछना की खाद में यह जो दुहरे वात्सल्य का अंकुर फूटा है, यह मानव जीवन के सबसे बड़े और अलौकिक चमत्कार का उन्मेष है...

मैं सचमुच बहुत-सी बातें नहीं जानता था उस समय और पहले तो भाँपने की, कल्पना करने की भी सामर्थ्य नहीं थी। फिर क्रमशः जान गया। किन्तु जानने और न जानने की अवस्थाओं के बीच कोई रेखा नहीं खींच सकता; स्पष्ट याद नहीं कर सकता कि कब घटना के पीछे का पूरा इतिहास मुझे बताया गया। बताया गया अवश्य, क्योंकि वह जैसे मेरे चेतना-कोष की एक अलग मंजूषा है,जो मानो कभी उस कोष के बाहर नहीं था, सदा से उसका अंग है-मेरे अस्तित्व का अंग। इतना अभिन्नतम अंग, कि जब याद करता हूँ तो जान पड़ता है, वह सब मेरी अपनी अनुभूति है; शशि की अनुभूति के श्रवण पर टिकी हुई कल्पना या चित्र नहीं। याद में मैं स्वयं शशि हो जाता हूँ, उसके विचार सोचता हूँ, उसकी स्मृतियाँ याद करता हूँ, उसकी वेदना सहता हूँ, उसका मौन, स्पर्धाहीन अटूट अभिमान मुझमें जाग उठता है...शशि अब नहीं है, किन्तु मैं शशि हूँ; इसलिए मैं भी अब नहीं हूँ, केवल था। किन्तु अब भी मैं अपने से अधिक उसके दुःख से दुःखी हूँ, उसके अभिमान से उन्नत, अतः वह जीती है...

कहते हैं कि जिन घटनाओं का अनुभव बहुत तीव्र अनुभूति के साथ किया जाता है, वे चेतना के पट पर पत्थर की लकीर की तरह अमिट खिंच जाती हैं, और उनका स्मरण एक पूरे चित्र का स्मरण होता है, इस या उस रेखा या आकृति का स्मरण नहीं। अर्थात् स्मृति में वे घटनाएँ आती हैं तो एक अनिवार्य, परिवर्तनहीन अनुभ्रम लेकर, जिसमें स्मरण करनेवाले की कलम की स्वेच्छा नहीं, घटना की बाध्य अनुगतिकता है...एक दूसरा सिद्धान्त है कि तीखी वेदना-जन्य अनुभूति को चेतना भुलाने का प्रयत्न करती है और क्रमशः आत्मा-प्रतारणा के इतने पर्दों में लपेट देती है कि उसकी आकार-रेखा बिलकुल ओझल हो जाती है, व्यक्ति की स्मृति से बिलकुल निकल जाती है। किन्तु मैं देखता हूँ कि तीव्रतम अनुभूति की ये घटनाएँ न तो स्मृतिपट से मिटती हैं, और न पत्थर पर लिखे हुए इतिहास की तरह नित्य और अचल हैं। देखता हूँ कि कुछ दृश्य हैं, जो बिजली की कौंध की तरह जगमग हैं, कुछ और हैं जो बुझ गये हैं, और घटना के अनुक्रम का धागा तोड़ गये हैं; तोड़ ही नहीं, उलझ भी गये हैं; जिससे मैं उन ज्वलन्त घटनाओं को भी ठीक कालक्रम से नहीं देखता-मनमाने क्रम से वे जलती हुई आती हैं और चली जाती हैं, और मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि क्या पहले हुआ, क्या पीछे हुआ। इतना ही कह सकता हूँ कि यह सब अवश्य हुआ; और इसमें यह ध्वनित नहीं है कि केवल इतना ही हुआ था कि इसी क्रम से हुआ...

या कहीं यह बात तो नहीं है कि चरम-शास्ति की प्रतीक्षा करते हुए अभियुक्त के स्वीकारी-भाव को दबाकर स्मृति के घोड़े पर रचयिता की आकलन बुद्धि चढ़ बैठी है? क्या अन्तिम दिनों में अपने जीवन का अर्थ, अभिप्राय, उसकी निष्पत्ति और सिद्धि खोजता हुआ मैं अपने उद्योग की सफलता के मोह में पड़ गया हूँ-केवल-अंकन की निर्ममता से डिगकर सृजन की आसक्ति में पड़ गया हूँ?

किन्तु क्या सृजन ही सबसे बड़ी निर्ममता, सबसे बड़ी अनासक्ति नहीं है, जब कि वह अपनी ही प्रतिमूर्त्ति को अपने प्राणों का दान है?

और क्या घटना का सत्य ही सबसे बड़ा सत्य है, और उसका अनुक्रम ही जीवन का अनिवार्य अनुक्रम? जो स्वीकारी है, उसके लिए क्या जीवन का अनुक्रम ही बड़ा नहीं है? भीतरी और बाहरी दोनों क्रमों के विरोध का अविरोध भी क्या एक अधिक गहरा स्वीकार नहीं है?

बाहर से आकर शेखर देखता है कि शशि की चारपाई के पास फ़र्श पर मौसी विद्यावती बैठी हैं। उसका हृदय धक् से हो जाता है; शशि, शेखर और रामेश्वर के त्रिकोण के बाहर और भी संसार है, जो असंगत नहीं है, इस बात की जैसे वह अनदेखी कर गया था। समाज संगति के घेरे से बाहर है, इस बारे में उसे सन्देह नहीं था; पर मौसी किसी तरह भी बाहर नहीं है, यह भी असन्दिग्ध है; और इस दूषित उलझन में मौसी-

शेखर ने स्थिर भाव से प्रणाम किया और कहा, “मौसी, फ़र्श पर क्यों-”

मौसी ने हाथ के इशारे से उसे आशीर्वाद दे दिया, मुँह से कुछ नहीं बोलीं। शेखर ने एकाएक देखा कि उनका चेहरा बिलकुल पीला है और आँखों के नीचे के काले अर्धचन्द्र के नीचे से निकलकर दो रेखाएँ ओठों के कोने छूती हुई ठोड़ी को घेरने जा रही हैं; और शशि का चेहरा उनकी ओर है, पर आँखें चारपाई की बाही पर गड़ी हैं-

शशि ने कहा, “शेखर, तुम अभी बाहर जाओ।” वह ठिठका, फिर लौट गया। शशि में उसका विश्वास आत्मविश्वास से बढ़ गया था। आँगन में पहुँचकर उसने पीछे किवाड़ भी बन्द कर दिया, और आँगन में टहलने लगा। एकाएक कोठरी में पहुँचा और सब चीज़ों को उलटने-पलटने और ताक को पुनः साफ़ करके सँवारने लगा...

शेखर और डॉक्टर बात कर रहे हैं। दाईं ओर एक पर्दे की ओट में शशि लेटी है; और पर्दे तथा डॉक्टर के बीच में मौसी खड़ी हैं, एक हाथ उनका पर्दे को पकड़े ही रह गया है, मानो इस दुविधा में कि मौसी को उसके पीछे ही रहना चाहिए या बाहर आ जाना चाहिए।

“पेट में अवश्य काफ़ी चोट आयी है। बहुत एहतियात करना होगा। कोई सीरियस बात नहीं है, पर आप जानते हैं, अन्दरूनी चोट के सेप्टिक हो जाने का अन्देशा रहता है। दवा मैं दे रहा हूँ; बाकी पूरा विश्राम सख्त ज़रूरी है, और खाने को कोई ठोस चीज़ मत दीजिए।”

“जी।”

डॉक्टर नुस्ख़ा लिखने के लिए झुके हैं; पर्दे की ओट से शशि के उठने से मेज चरमराने का स्वर आता है-

मौसी पूछती हैं, “और पीठ का दर्द-”

“वह तो अपने-आप ठीक हो जाएगा-गिरने से झटका आ गया होगा-” फिर कुछ सोचकर, “कहाँ दर्द होता है?” और पुनः उठ खड़े होते हैं; शेखर अकेला पर्दे की ओर देखता हुआ रह जाता है।

“यहाँ? यहाँ? और ज़रा झुक जाइए तो”-फिर एकाएक बदलते हुए स्वर से, “ओह...”

दृश्य फिर पूर्ववत् हो जाता है, मौसी का हाथ वहीं पर्दे पर है, डॉक्टर शेखर के सामने है, पर चेहरा दूसरा है।

“क्यों, डॉक्टर साहब-”

डॉक्टर साहब गहरी दृष्टि से शेखर की ओर देखते हुए कहते हैं, “आप हज़बैंड हैं?”

“नहीं, मेरी बहिन है।”

“ओः माफ़ कीजिए; और ये मदर हैं?”

संक्षेप में, “हाँ।”

मौसी की ओर उन्मुख होकर, “माताजी, ये आप ही के साथ रहती हैं?”

शेखर उत्तर देता है, “नहीं, ससुराल में रहती हैं, हम लोग तो दिखलाने लाए हैं-क्यों क्या बात है?”

डॉक्टर चुप हो जाते हैं। देर बाद, जैसे कुछ सोचते हुए, कुछ निर्णय करते हुए कहते हैं।, “माताजी, यह पीठ की चोट तो गिरने की चोट नहीं है।”

“और?”

डॉक्टर का मौन जैसे उन्हें कहता है, “मैं कई सन्तान का पिता हूँ, आपका अपना भी अनुभव है-”

मौसी मुड़कर पूछती हैं, “शशि, तुम्हें याद नहीं, यह चोट कैसे लगी?”

शशि नहीं बोलतीः मौन का जैसे अन्त करते हुए डॉक्टर कहते हैं, “इस चोट के लिए लिनिमेंट देता हूँ, हल्की मालिश करके सेंक दीजिए। फिर क्षण भर के विकल्प के बाद, शेखर से, अँग्रेज़ी में, “इट्स नॉट एक्सिडेंटल, इट इज़ ए डेलिबरेट ब्लो, द किडनी इज़ रप्चर्ड।” (यह आकस्मिक चोट नहीं है, जानबूझकर किया हुआ आघात है-गुरदा फट गया है।)

शेखर भी अँग्रेजी में पूछता है, “इज़ इट डेंजरस?” (क्या चोट सांघातिक है?)

“नो, बट् इर्रेपेरेब्ल्-” (नहीं, किन्तु असाध्य-)

“ह्वाट ट्रीटमेंट वुड यू एडवाइज?” (आप क्या इलाज सुझाते हैं?)

“रेस्ट, एंड एंड्योरेंस-करेज; चीफ़ली करेज...” (विश्राम और धीरज, मुख्यतया धीरज...)

डॉक्टर को ख़्याल आता है कि लगातार अँग्रेजी बातचीत भी कुछ अधिक आश्वस्तकर नहीं होती; मौसी की ओर उन्मुख होकर कहते हैं, “पूरा विश्राम बहुत जरूरी है-यह नुस्खा डिस्पेन्सरी से ले लीजिए-दो-तीन दिन बाद फिर देखना उचित होगा-” मानो अनुमति है कि रोगी को लाने की बजाय मुझे नहीं बुलाया जा सकता है...

दोतल्ले पर रामेश्वर का कमरा, अपमान की शिंजिनी से तना हुआ शशि का देहचाप, धनुष-सा ही सधा हुआ; सामने रामेश्वर का चेहरा, सजीव दीवार-सा, जो नींव हिलने से टूटकर गिरने को है, उसके पीछे दो और दीवारें जो गिरेंगी नहीं, क्योंकि पहले ही ध्वस्त हैं और बरसों की फफूँद से ढेर-सी हो गयी हैं...

सास के हाथों फेंकी गयी राख को एक हाथ से आँखों के आगे से पोंछते हुए शशि कहती है, “अगर आप सबका यही अटल निश्चय है तो-”

दोनों हाथ जोड़कर वह सिर थोड़ा-सा झुकाती है, सिर पर पड़ी हुई राख के दो-चार कण झरकर हाथों को छूते हुए नीचे गिर जाते हैं, वह मुड़ती है, एक कदम आगे सीढ़ी है, एक सीढ़ी वह उतर गयी है-

आरी किचकिचाती है, “देखी बेहयाई-”

आरी की रड़कन से जैसे वह दीवार ढह पड़ती है, रामेश्वर झटककर आगे बढ़ता है और चट्टी पहने हुए पैर की भरपूर ठोकर शशि की पीठ पर पड़ती है, “कुलटा!”

कमान दुहरी हो जाती है, फिर प्रतिक्रिया शिंजिनी रुनुक उठती है, “आपकी अन्तिम देन पीठ फेरकर नहीं लूँगी; लीजिए, अब दीजिए-” और टूटती दीवार के सामने एक और दीवार खड़ी हो जाती है, जो कमान-सी लचकीली है, इसलिए टूटेगी नहीं-

आरी उत्साह से किचकिचाती है, “मार और एक, मार-”

पेट में लगी हुई लात से शशि एकबार ‘हुँक!’ करके रह जाती है, उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है, दीवार टटोलती हुई वह घूमती है कि इस आमुख पायी हुई भेंट के बाद अब चले-

ताँगे में पीछे मौसी का स्वर, “डॉक्टर अँग्रेजी में क्या कहते थे-”

मुड़कर, “कुछ नहीं, कहते थे कि विश्राम बहुत जरूरी है चुपचाप लेटी रहे, नहीं तो तकलीफ़ बढ़ जाएगी-”

मौसी शशि से पूछती हैं, “चोट कैसे लगी? गिरने से तो सचमुच-”

शेखर और अधिक मुड़कर, “मौसी, आगे गिरने से कभी पीठ में चोट लगती है? और मुँह-हाथ पर कोई-”

शशि धीमे से, “घर पहुँच लें-”

मौन में केवल ताँगेवाले का जीभ चटकाना या कभी-कभी ‘ब-ए-बच्चो-बएच!’

कोठरी की एक-एक चीज सँवारी जा चुकी है, बल्कि सारा रख-रखाव दो बार फिर बदला जा चुका है। क्या शशि और मौसी की बातचीत खत्म ही नहीं होगी, और क्या वह अब बाहर-ही-बाहर रहेगा?

और यह जो शशि उसके जीवन में सत्य की तरह पैठ गयी है-यह जो वह शशि के जीवन में उल्का ही तरह छा गया है, मौसी क्या उसे झेल लेंगी-झेल सकेंगी? जिससे मौसी को बचाने शशि अपने को मिटा रही थी, वह तो अब भी मौसी के आसपास है-

शेखर नल खोल देता है और बर्तन लाकर धार के नीचे रखता है, ठंडी छींटें जैसे उसे सहारा देती हैं-

आखिर भीतर से मौसी की आवाज आती है, “शेखर!” शेखर उसमें पढ़ लेना चाहता है कि वह अपराधी ठहराया जा चुका है, या जवाब के लिए बुलाया जा रहा है, या बरी है-और मौसी के पास जा खड़ा होता है। मौसी मुँह उठाकर उसकी ओर देखती हैं, उनके चेहरे में एक मूढ़ वेदना है, और कुछ नहीं-”बैठ जाओ।”

शेखर उनके पास ही नीचे बैठ जाता है।

“तुम क्या कहते हो?”

न जानता हुआ कि प्रसंग क्या है, शेखर कुछ बोल नहीं सकता।

“मैं तो इसी विश्वास में पली हूँ कि स्त्री का पति ही सब कुछ है। स्त्री भी पति की कुछ है, मैं जानती हूँ, पर जिस तरह अधिकार देना सीखा था, उसी तरह लेना नहीं सीखा, और अब बूढ़ी हो गयी, कुछ नया नहीं सीख सकती।” स्वर में प्रतिवाद, अभियोग, आदेश कुछ नहीं है, केवल प्रकटीकरण का भाव-

“शशि कहती है कि अब लौटना नहीं है। चाहने-न-चाहने का सवाल भी नहीं है, सकने-न-सकने का सवाल है।”

“मैं वहाँ से होकर आयी हूँ।”

शेखर चौंकता है, “कैसे?”

“उन्होंने तार देकर बुलाया था, तभी तो आयी। वे कहते हैं कि उनके जाने शशि मर गयी है, और हम सब थे ही नहीं। सास कहती थी कि अगर वह अब-पर छोड़ो क्या लाभ याद करके-”

शशि कहती है, “माँ, कहीं उन्होंने तुम्हारा अपमान तो नहीं किया-क्या कहते थे वे लोग-”

“बेटी, जिन्होंने तुझे निकाल दिया, उन्होंने मेरे अपमान में क्या कसर छोड़ी! कहने लगी, अब वह तुम्हें घर ढूकने दे तो गोमांस खाए, पतिघातिनी होए-”

“फिर-”

“फिर क्या! लौटना तो अब नहीं है। पर पति को सर्वस्व मानने के लिए ससुराल लौटना ही एकमात्र उपाय है, यह तो मैं नहीं समझती। जो रास्ता पति ही बन्द कर दे, उस पर चले बिना भी धर्म निबाहा जा सकता है।” थोड़ी देर चुप रहकर, “शशि कहती है, वह अब मेरे साथ नहीं लौटेगी, और चाहे कहीं जाना हो-”

शेखर बिना बोले शशि की ओर देखता है।

“माँ, तुम दुःख मत मानो, मैं ठीक कहती हूँ-”

“शशि कहती है, मैं लौट जाऊँ, और जैसे घरवालों ने उसे मरी समझ लिया है, मैं भी समझ लूँ-मन से नहीं तो कर्म से।”

“क्यों?”

उत्तर शशि देती है। “क्योंकि मेरा जो भोग है, उसमें माँ क्यों फँसे हैं? उन्होंने काफ़ी भोग लिया है। अब उन्हें अलग रहना चाहिए, शादी करके उन्होंने मुझे सौंप दिया था, अब जो होता है, उसका दायित्व क्यों लें? और मैं क्यों उन्हें लेने दूँ-”

“मौसी, अपराध सबसे अधिक मेरा है, मैंने ही धूमकेतू की तरह आकर सबको इतना दुःख दिया है-मैं-”

“नहीं, शेखर, जो होना था, उसका सब ज़िम्मा अपने ऊपर मत लो-” फिर मानो मुख्य प्रसंग की ओर लौटकर, “शशि कहती है कि मैं तटस्थ रहूँ, और समाज जो दंड उसे दे, उसे उसी को अकेली सहने दूँ।” वे शेखर की ओर देखती हैं और उत्तर नहीं पाती, फिर कहने लगती हैं, “पर मैं तटस्थ कैसे रह सकती हूँ? अपने शरीर से जिसे बनाकर अपने लहू से बीस साल तक सींचा, उसे अपने ही हाथ से काट फेकूँ, यह क्या मेरी हार नहीं है? कैसे अनदेखी कर जाऊँ मैं-”

“माँ, ऐसे सोचने से काम नहीं चलेगा। तुम अभी तो मान चुकी हो कि मैं न लौटूँ-” सारी बातचीत में पहली बार आवेश में आकर शशि कहती है, “और मुझे घर ले जाकर मेरी सारी आफ़त तुम अपने सिर पर ले लो, उसमें मेरी हार ही नहीं, अपने को मारकर जो कुछ मैंने किया है, वह सब भी इतना विफल हो जाता है कि-” फिर सहसा अपने को वश में करके, “और तुम हार से बच जाओ, ऐसा नहीं है।” कुछ देर रुककर, “हाँ, यहाँ न रहने को कहो, तो-”

शेखर कहता है, “मेरे अपराध की चुकती मुझे भी करनी है। शशि से समाज को जो वसूलना है-”

“मैं उसे यहाँ रहने से मना नहीं करती। मेरे साथ नहीं आती, तो उसके बाद यहीं दूसरी जगह हैं। लोग मुझे कहा करते थे, पर मैंने बराबर सबको यही उत्तर दिया है कि इन दोनों की एक धमनी है-मैंने तुम्हें कभी अलग नहीं माना, शेखर, चाहे लोकाचार की दृष्टि से हमारा रिश्ता न कुछ के बराबर है। यहाँ भी रहे तो मेरे पास रहने के बराबर है-सिवाय इसके कि मैं अपनी सन्तान को छोड़ रही हूँ-शशि को ही नहीं, तुम दोनों को-”

शेखर की आँखें चरमरा रही हैं, वह चाहता है कि रो उठे, “मौसी, मौसी-माँ-”

“माँ, अपनाना मन से होता है, तो छोड़ना भी मन से होता है। तुम अगर मुझे-हमें-मन से नहीं छोड़ोगी तो क्यों तुम्हें क्लेश होगा? और-हम भी-कभी भूलेंगे नहीं कि-”

मौसी शेखर की ओर उन्मुख होकर कहती हैं, “और तुम्हारे पिता को-मैं क्या उत्तर दूँगी-” एकाएक उनका स्वर टूट जाता है, वे शशि के सामने खाट की बाही पर सिर टेक देती हैं, शशि एक बाँह से उनका कन्धा घेर लेती है, और उनके आँचल में अधछिप जाती है। मौसी की किसी अन्धड़ द्वारा झकझोरी जाती दुबली देह को देखता हुआ शेखर भी बिना हिले रो उठता है-फिर एकाएक विस्मरण की राख में से त्रिवेणी की धारा से धुला हुआ नया बोध कहता है कि शशि की हार नहीं हुई।

“यह लो, शेखर-”

मौसी सौ रुपये का एक नोट बढ़ाती हैं, “फिर और भेज दूँगी-”

“मौसी, मैं-”

“यह तुम्हारे लिए नही, शशि के लिए दे रही हूँ-अभी वह बीमार है और”

कुछ हिचकिचाते स्वर में, “मौसी, यह ठीक नहीं है-मैं कुछ प्रबन्ध कर लूँगा, फिर-”

मौसी आहत स्वर से कहती हैं, “शेखर, जहाँ से हारना था, हार गयी। टूटना था, टूट गयी-कुछ तो सन्तोष मुझे हो-”

“माँ से अभिमान मत करो, शेखर, ले लो, मैं कहती हूँ-”

शेखर धीरे से हाथ बढ़ाता है, जैसे सफ़ाई में कहते हुए, “शशि अच्छी हो जाएगी तब और मत-” और मन-ही-मन सोचता है कि किसी तरह भी और नहीं-

“ईश्वर करे, यह अच्छी हो जाये जल्दी...आगे कोई बड़ा सुख नहीं है, पर दुःख भोगने की शक्ति शरीर में चाहिए-”

“माँ, मैं बहुत अच्छी हूँ-”

शेखर कहना चाहता है, “मैं साथ रहूँगा-”

इस बातचीत को भेदता हुआ सुन पड़ता है मौसी के सीढ़ियाँ उतरने का धीमा स्वर, वे स्टेशन जाने के लिए शेखर के पीछे-पीछे उतर रही हैं...

“मौसी, आप चिन्ता न कीजिएगा-”

“अच्छा, शेखर; देखो परमेश्वर क्या लाता है...” शशि की ओर उन्मुख होकर, “शशि, मैंने क्या तुझे इस दिन के लिए जना था” उनका स्वर फिर काँपने लगता है...एकाएक, “शेखर, क्या सचमुच तुम आत्मघात करने चले थे?”

लज्जित मौन...

“इतन-सी बच्ची थी यह, तब तुमने नहाते हुए लोटा मारकर इसका सिर फोड़ दिया था, तब भी यह तुम्हें बचाने के लिए झूठ बोली थी कि अपने आप लग गया-नालायक शुरू से ही तुम्हारा पक्ष लेती आयी है-” उनके स्वर की व्यथा-भरी झिड़की में कितना अभिमान है, कितना माधुर्य-पर यह बात तो शेखर ने पहले नहीं सुनी, पूछता है, “कब, मौसी?” और सोचता है कि आत्मघात की बात टल गयी-

मौसी सुनाने लगती हैं, “जब तुम छोटे-से थे, तब पहले-पहल-”

साँझ का सन्नाटा, जिसमें ठिठुरकर जमा हुआ धुआँ आँखों के रास्ते प्राणों में भर जाता है; कमरे में लालटेन के स्थान पर लैम्प का प्रकाश, शेखर जल्दी-जल्दी खिड़कियाँ बन्द कर रहा है कि वह धूमिल गीला बोझ कमरे में न जम जाए-शशि चुपचाप सिमटकर लेटी है, उसकी आँखें शान्त हैं; और निरायास शेखर के साथ-साथ जाती हैं, वह जानता है-

“शशि, तुम बड़ी झूठी हो।”

“क्यों?”

“इतना झूठ? मुझे तो बिलकुल ही कुछ नहीं बताया, मौसी से कहा कि गिर गयी थी-इतना झूठ! और प्रयोजन क्या था भला-”

शशि ने आश्वस्त-भाव से कहा, “मैं झूठ नहीं बोलती!”

“पर सच तो वह नहीं था-मेरे सामने तो सिर्फ चुप लगायी थी, पर-”

“शेखर, मैं समझती हूँ कि अनावश्यक कष्ट ही सबसे बड़ा झूठ है-मौसी को और दुःख देने का क्या मतलब था? और उन लोगों की बात-उन पर मेरा कोई अभियोग नहीं है, उन्हें तो अब गिनती नहीं-”

“और मैं-”

“तुम! तुम क्या-पर तुम क्रमशः जान जाते; तभी बताना कोई ज़रूरी था?”

“बताया तो तुमने अब भी नहीं; सच बताओ, चोट कैसे लगी? किसी ने मारा था?”

“मैं तो चोट का भी न बताती, पर जब मौसी के आगे सीधी भी न हो सकी और मुँह में फिर खून आने लगा तो बताना पड़ा-”

“खून?”

शशि की हँसी में हल्की-सी अपराध-स्वीकृति है, “हाँ, उठने-चलने से वमी होने लगती थी और खून-”

एकाएक नल के पास बैठने का रहस्य उसकी समझ में आ जाता है; वह स्तब्धभाव से कहता है, “और तुम काम भी करती रहीं ढीठ होकर-” फिर मर्माहत-भाव से, “और मुझे रोटी खिलाने को-न खाता तभी तो क्या मर जाता-”

स्वयं ही शान्त नहीं, दूसरे को भी शान्त करनेवाले स्वर में शशि कहती है, “तुमने बाबा की बात बतायी थी कि दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है-”

“हाँ, क्यों?”

“दर्द से बड़ी एक लाचारी होती है-जितना बड़ा दर्द, उतनी ही बड़ी-नहीं तो दर्द के सामने जीवन हमेशा हार जाए!”

इसका सत्य शेखर के मन में धीरे-धीरे पैठता है। वह सोचता हुआ-सा कहता है, “हाँ, मैं जानता हूँ-” किन्तु फिर हठ पकड़कर और कुछ विस्मय से भी, “कितनी झूठी हो तुम-झूठ की विशारद!”

“तुम क्या कम झूठे हो?”

“क्यों, मैंने क्या किया है-”

“अँग्रेज़ी मैं भी समझती हूँ, शेखर। ज्ञान बहुत नहीं है, पर जितना है, पक्का है। नॉट डेंजरस, बट इर्रेपेरेब्ल्।” वह मुस्करा देती है...

शेखर स्तब्ध भाव से चुप रह जाता है...

“पर शेखर, मैं घबराई नहीं। डाक्टर ने जो दवा बताई, वह मेरे पास है-काफी है अभी-”

“क्या-”

“एंड्यारेंस-एंड करेज; चीफ़ली करेज...शेखर, मैं अच्छी हूँगी और तुम्हारे साथ चलकर बताऊँगी।”

ताँगा दौड़ा चला जा रहा है, मौसी स्टेशन जा रही है; शेखर पहुँचाने जा रहा है और उनके पार्श्व में बैठा है। उसका मन न जाने क्यों मौसी के प्रति ममता से उमड़ा आ रहा है, जिसे वह व्यक्त करने का साधन नहीं जानता; चाहता है कि मौसी का हाथ पकड़ ले और स्टेशन पहुँचने तक थामे रहे-

“शेखर, शशि क्या अच्छी होगी अब?”

“क्यों मौसी? आप घबरा क्यों रही हैं-”

“घबराती नहीं, शेखर, पूछती हूँ कि तुम उसके मन को मुझसे ज्यादा जानते हो? क्योंकि यह मन की बात है-अगर उसके मन में अच्छा होने की हठ है तो यहाँ अच्छी हो जाएगी नहीं-तो-नहीं-नहीं तो कहीं नहीं। मैं उसे जानती हूँ-अपनी लड़की से हारने में हार नहीं है मेरी, शेखर!”

“मुझे तो आशा है कि वह जल्दी अच्छी हो जाएगी-”

“परमात्मा करे-शेखर, तुम फिर तो नहीं सोचोगे उल्टी-सुल्टी बातें-”

“क्या?”

“तुमने बहुत बड़ा उत्तरदायित्व ले लिया है। आत्मघात की बात सोचने का अधिकार नहीं हैं तुम्हें। कभी भी नहीं था-जीवन सदा ही एक थाती है और उसे यों फेंकना विश्वासघात है-”

“मौसी, अब तो मुझे बहुत कुछ करने को है-”

“कब नहीं था, शेखर! तुम देखते नहीं रहे-”

शेखर एकाएक आत्मग्लानि से भरकर कहता है, “अगर मैं सचमुच उस दिन लौटकर न आता, तो-यह सब न होता!”

“अपने को ऐसे नहीं कोसते, शेखर! और क्या पता इससे भी बुरा होता? शशि शायद फिर भी रात भर तुम्हारी प्रतीक्षा करती-और सवेरे जो हुआ, वह फिर होता-क्योंकि वह तो होना ही था, कोई सफ़ाई नहीं थी; रामेश्वर ने तो मुझसे कह दिया कि-” एकाएक चुप!

“क्या कहा, बताइए न-”

“कहा कि-बात तो नयी नहीं थी, केवल पता लगना नया था, और शादी भी एक बहाना था ताकि-शेखर, तीन दिनों में क्या कुछ देख-सुन लिया है मैंने!”

स्टेशन पर मौसी कहती हैं, “अब तुम जाओ, शेखर, गाड़ी के चलने तक ठहरने की जरूरत नहीं है। बैठ तो गयी, अब पहुँच जाऊँगी ही-”

“नहीं, मौसी, क्या हुआ फिर-”

“साँझ से पहले तुम वापस पहुँच जाओ, इसीलिए कहती हूँ। सन्ध्या के झुटपुटे में शशि को अकेले मत छोड़ो-बड़ा उदास समय होता है, खासकर जाड़े में-” एकाएक उनका हाथ शेखर का कन्धा थपथपाता है; शेखर अनुगत होकर प्रणाम के लिए झुकता है, मौसी उसके बाल सहला देती हैं-”जाओ, बेटा”-उनका कंठ रुँध आता है और शेखर जानता है कि उनके करुण आशीर्वाद की छाँह उसी पर नहीं, शशि पर भी है...

साँझ और सवेरा, सवेरा और साँझ-इस प्रवाह में ध्रुव सत्य तो एक कि शेखर और शशि साथ हैं, एक सूत्र में गुँथे हैं; कि जीवन में, उद्योग में, एक उद्देश्य है, एक साध्य है, जिसमें से स्वयं प्रेरणा का सोता फूटता है...कुछ अवश्य करना है-बहुत कुछ करना है-शशि के लिए और अपने साथ के लिए...

“सुधारक, तुम्हारा ध्यान समाज की तरफ कम और भोजन की तरफ़ ज्यादा होता जा रहा है-तय कर लो, पहले सुधारक हो कि रसोइया!”

“क्यों? और सब कुछ की तरह हमारा पाकशास्त्र भी सुधार माँगता है-वह भी तो शास्त्र है-”

“और उसमें भी रचनात्मक अभिव्यंजना की गुंजाइश है-क्यों न? पर सवाल यह है कि तुम्हारे अनुकूल कौन-सा माध्यम है-कलम और काग़ज, या बेलन और आटा।”

“तुम यह तुलना करती हो तो देखता हूँ, दोनों एक ही बात हैं। रोटी बनाता है रसोइया, खाते हैं मेहमान, तारीफ़ होती है गृहस्वामी की। किताब लिखता है लेखक, मज़ा लेती है जनता, और मुनाफ़ा पाता है प्रकाशक!”

“देखती हूँ कि शरीर को थोड़ा कष्ट देने से तुम्हारी बुद्धि बहुत ताज़ी हो गयी है। अब कुछ काम-धाम आरम्भ करोगे कि नहीं? मैं अब अपना कोई काम तुम्हें नहीं करने दूँगी-”

“अब लिखूँगा। बल्कि बहुत-सा तो लिखा रखा है।” शेखर जल्दी से कहता है, क्योंकि शशि यद्यपि कुछ स्वस्थ दीखती है तथापि इतनी स्वस्थ अभी नहीं है कि ऐसी शपथ ले ले! “लेकिन समस्या लिखने की नहीं है, तुम जानती हो;समस्या यह है कि लिखकर क्या हो! रोटी तो पक जाएगी, पर अगर अछूत के घर कोई पाहुने न आये तो?”

“तुम्हीं कहा करते हो कि धर्म की शक्ति वहीं तक है, जहाँ तक वह अर्थ को साथ ले चलता है-नहीं तो अर्थ जीतेगा? अगर अच्छा खाना ब्राह्मण का ही होता हो, तब तो ठीक है, पर जब वैसा न हो-”

“पर रुचिकर और स्वास्थ्यकर में भी तो भेद है, और मैं अगर...”

“यों उलटी बातें सोचने से काम नहीं चलेगा-जो स्वास्थ्यकर है, वह रुचिकर भी हो, इसका उद्योग करना होगा-”

“शशि, वह जो सुधार-सभा के लिए वक्तव्य तैयार किया था, उसे पूरा कर दूँ तो कुछ काम का हो?”

“पूरा कर दो। जब तक लिखने की सुविधा है, तब तक जितना सब लिख सको, लिख डालो-क्योंकि जब साथ ही उसे निकालने की भी चिन्ता हो, तब लिखने में बाधा होगी-”

“पर वह चिन्ता तो अभी रहेगी ही! अब-”

“अभी क्यों? अभी तीन महीने तुम बेफ़िक्र लिख सकते हो-कम-से-कम एक पुस्तक हो जाएगी-”

“तीन महीने? और क्या खाकर-अस्वीकृति के स्लिप?” फिर एकाएक शशि का आशय समझकर, “देखो, शशि, मैं इन बातों में नहीं आने का। मौसी जो इलाज के लिए दे गयी हैं, वह इलाज में ही जाएगा, मेरे खाने में नहीं, और-तुम्हारे भी खाने में नहीं, समझीं? यों काम की नींव खोखली होती है।”

शशि स्निग्ध-भाव से शेखर की ओर देखने लगी। “अच्छा, मौसी से न लेना, मुझसे लोगे?”

तीखे स्वर से, “क्या?”

शशि ने धीरे-से अपने गले में पड़ी हुई सोने की जंजीर को छू दिया।

“यही है-बाकी तो सब पीछे छोड़ आयी। पर यह एक अकेला है, इसलिए और भी ‘ना’ नहीं कह सकोगे।”

शेखर ने बात टालते हुए कहा, “अच्छा, चारा नहीं होगा तो ले लूँगा-इसे जमा पूँजी समझकर रख छोड़ो। अभी तो जो लिखा है, उसका कुछ बनाता हूँ।”

पर उसके मन में यह विचार फिर गया कि उतना पर्याप्त नहीं है-कि उसे और बहुत कुछ लिखना होगा अगर वह उस माला को वहीं बनाए रखना चाहता है, और वह माला भी जो शशि को माँ ने दी थी...

शशि के पास भूमि पर बैठकर, खाट की बाही से पीठ टेककर और उठे हुए घुटनों पर कागज रखकर लिखने का उपक्रम...चिन्ता ने भी श्ेाखर के मन में वह तीव्रता नहीं जगाई, जिसके खारेपन में लेखनी डुबाकर वह आलोचना करने बैठे; उसका मन अनुभूतियों का छाया-पट है, अनुभूतियाँ जो मधुर होकर भी स्वयं अपने राग-तत्व से पृथक् हो गयी हैं, क्योंकि शेखर अपने-आपसे तटस्थ हो गया है, वह लिखने बैठा है...आलोचना से कुछ अधिक रचनात्मक वह लिखना चाहता है; और उसके निर्वेद सन्तोष के पीछे तीखी अनुभूतियों का भी इतना अवशेष है कि रचना सप्राण हो, सतेज हो...

और यह बोध कि यद्यपि उसकी एकाग्रता में सहायक होने के लिए शशि बिलकुल निश्चल पड़ी रहेगी, तथापि शेखर के कन्धे के ऊपर से दो आँखें बराबर उस सफेद फलक पर टिकी हैं, जिस पर शेखर को अपना अन्तरंग बिछाना है...उसे लेखक के भाग्य की कटुता पर झोंकने का क्या अधिकार है जब कि लेखन का सबसे बड़ा पुरस्कार उसे प्राप्त है-एक रसज्ञ पाठक जो लिखने से पहले ही पढ़ रहा है-और आस्था से मिलने वाली शक्ति उसे दे रहा है?

किन्तु यह ज्ञान तो बाधा है-ऐसे में वह लिखेगा कैसे?

क्रमशः वह सुख भी पृथक् हो जाएगा, शेखर; वह केवल शक्ति देगा, तुम लिखो तो...

धीरे-धीरे एकाकीपन आया-स्निग्ध किन्तु सम्पूर्ण...

प्रकाश मन्द पड़ने लगा था; शेखर आगे झुकता गया था, जब प्रकाश इतना मन्द हो गया कि झुककर भी देखना दुस्तर हो चला, तब उसने घुटने ढ़ीले छोड़कर, पीठ सीधी करने के लिए कन्धे और सिर को पीछे फेंका-

शशि की साँस वह स्पष्ट सुन सका, और उसे भान हुआ कि वह कन्धे पर साँस का गर्म स्पर्श भी अनुभव कर सकता है, वह पृथक्त्व झुटपुटे में घुल गया; शेखर एकाएक शशि की निकटता से उमड़ आया और कुछ लजा भी गया, “तुम सब पढ़ती रही हो?”

“शेखर, एक दिन मैं नहीं रहूँगी; तब तुम बहुत बड़े आदमी होगे और कम्पोजीटर तुम्हारी मेज़ के पास खड़े रहेंगे कि तुम्हारे हाथ से काग़ज़ छीनकर ले जाएँ। पर तब भी मैं यों ही पीछे खड़ी होकर पढ़ा करूँगी-और तुम नहीं जानोगे। लेकिन अगर अच्छा नहीं लिखोगे, तो मैं तुम्हारे कान में चिल्ला दूँगी-”

शेखर बत्ती करने को उठा।

“शशि, झुटपुटे में तुम एक गाना गा दो, फिर मैं थोड़ा और लिखूँगा, तब तक खाना आएगा।” शशि अभी कुछ खाती नहीं, ठंडा दूध पीती है और कुछ रसायनिक पेय जो डाक्टर ने बताए हैं-

वह चिमनी साफ कर रहा था कि कमरे का तरल वातावरण मुखर हो उठा-

“दीप, जल!”

तिमिर के रहस्य-गर्भ प्राण के समीप चल-

पर सहसा रुककर शशि ने कहा, “आज नहीं शेखर, कल गाऊँगी-”

शेखर समझ गया, पर उस समय वह वेदना का नाम लेना नहीं चाहता था, धीरे-धीरे शशि के गान के बोल गुनगुनाने लगा। फिर बोला, “यह तो गाना नहीं है”

“और क्या है?”

“कविता-शशि, ये शब्द तुम्हारे हैं?”

“मैं...कवि!”

शेखर ने लैम्प उठाया, मानो उसे रखने का स्थान ढूँढ रहा हो; और उसके भरपूर प्रकाश में शशि के चेहरे को देखने लगा।

तभी तीन-तल्लेवाले बच्चों ने आकर कहा, “हमको आज पैसे मिल गये हैं-कल हम कागज़ लाएँगे-आप पतंग जरूर बना देंगे न?” लड़की बड़े चिन्तित भाव से शेखर के मुँह की ओर देखने लगी।

क्षण भर शेखर चुप रह गया-कितनी दूर की बात थी जब उसने वचन दिया था...फिर उसने पूछा, “कितने पैसे मिले हैं?”

“चार आने-”

“और मुझे दो आने-पिताजी कहते हैं कि लड़कियाँ पतंग नहीं उड़ातीं-मुझे रंगीन चुन्नी मिली है-”

“पतंग नहीं उड़ातीं?” फिर यों दिखाते हुए मानो इसका कारण याद आ गया हो, “हाँ सच तो लड़कियाँ गुब्बारे उड़ाती हैं।”

“आपको गुब्बारा बनाना आता है?” निराश भाव से लड़की पूछती है।

“हाँ, आता है-”

लड़का कुछ अविश्वास से कहता है, “हूँ-लड़के नहीं उड़ाते गुब्बारे?”

शेखर हँसता है। “अगर बसन्ती चुन्नी ओढ़ लें तो उड़ा सकते हैं।”

शशि लड़की को बुलाकर पूछती है, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“कुसुम कुमारी। और भईया का नाम वेद है।”

“वेदकुमार नन्दा-” वह मानो अपनी मान-रक्षा करता हुआ कहता है!

“अच्छा, तुम लोग कल काग़ज़ लेने जाओ तो पहले मुझसे पूछ जाना-”

बच्चो को जीने तक पहुँचाकर शेखर धीरे-धीरे टहलने लगा। परसों वसन्त-पंचमी है-सवेरे-सवेरे-सवेरे...

वसन्तांक निकल गया था, सम्पादक दफ्तर में नहीं थे; किसी तरह शेखर ने उनका पता लगाकर जा पकड़ा। पहले तो उन्होंने पहचाना नहीं, फिर याद दिलाने पर बोले; “आप मिलिटरी में भी रहे हैं क्या-”

“नहीं तो-”

“बड़े पंक्चुअल हैं-”

शेखर पी गया।

“जो कुछ पत्र-पुष्प हम दे सकते हैं, कभी देर नहीं करते-आप जानते हैं, तुरन्त दान महाकल्यान-”

कड़े स्वर से, “जी।”

“पर काम तो आफिस में जाकर ही हो सकता है-”

“तो मैं साथ चला चल सकता हूँ-”

सम्पादक जी ने कन्धे सिकोड़कर कहा, “चलिए फिर, अभी ही सही।”

एक कापी के पन्ने यों ही उलट-पुलटकर उन्होंने पढ़ते हुए स्वर से कहा, “श्रीचन्द्र-शेखर, पत्रं-पुष्पं-यह लीजिए।” धीरे-धीरे दराज़ खोलकर उन्होंने हाथ बढ़ाया और शेखर के आगे पेश किये-दो रुपये। खीसें काढ़ते हुए बोले, “सेवा में”

शेखर थोड़ी देर आँखें फाड़कर देखता रहा, फिर उसने सम्पादक के हाथ से रुपये खींच लिये। फिर ढीठ होकर बोला, “धन्यवाद।”

दरवाजे के पास पहुँचकर मुड़कर बोला, “आप खाते में ‘पत्रं-पुष्पं’ लिखते हैं?”

“हाँ-क्यों?”

किन्तु सम्पादक की अवज्ञा उचित नहीं है, धैर्य उसे सीखना होगा...शेखर ने आयास-पूर्वक कहा, “यों ही,” और जो उत्तर देना चाहता था, वह मन ही मन दुहरा लिया, “केवल ‘तोयं’ लिखने से एक शब्द बच जाएगा-”

घड़ों तोयं...

पतंग और गुब्बारा देखकर शशि ने पूछा, “यह बच्चों के लिए लाये हो?”

“हाँ।”

“और अपने लिए?”

“अपने लिए? मैं कोई बच्चा हूँ-”

“थोड़ा-सा रंग ले आओ, तुम्हें एक रूमाल ही रंग दूँ-पगड़ी तो तुम बाँधते ही नहीं-”

“और तुम?” यह अनिवार्य प्रश्न पूछकर शेखर चुप लगा गया; उसने सोचा कि कल बड़े सवेरे घूमने जाकर वह सरसों के फूल ले आएगा और शशि को उपहार देगा...

“हर बात में मैं ज़रूरी हूँ?-”

“अच्छा, दोपहर को ले आऊँगा, अभी तुम ठंड में हाथ मत भिगोओ-”

जब दोपहर तक बच्चे पूछने नहीं आये, तब शेखर ने ही पुकारा, “वेद! वेद कुमार! कुसुम!”

थोड़ी देर बाद वेद गम्भीर मुद्रा लिए आया और कमरे के बाहर ही खड़ा रहा।

शेखर ने कहा, “क्यों, अन्दर आ जाओ-पतंग नहीं बनवाने-”

वेद ने हतप्रभ स्वर से धीरे-धीरे कहा, “माँ ने मना किया है।”

“क्यों-क्या मना किया है-”

“कहती हैं, वहाँ मत जाओ!” फिर शशि की ओर देखता हुआ, “कहती हैं, भले घर के लड़के ऐसी जगह नहीं जाते-”

शेखर चुपचाप रह गया-कनखियों से शशि की ओर देखकर दृष्टि फिर सामने कर ली!

वेद मुड़कर धीरे-धीरे जाने लगा।

“ठहरो, वेद-ये लेते जाओ।” शेखर ने छहों पतंग, डोर, मंझा और गुब्बारा उसे देते हुए कहा, “यह कुसुम को दे देना-इसके नीचे मोमबत्ती जलाने से यह उड़ जाएगा-”

वेद का चेहरा क्षण भर खिल गया, फिर बुझ गया। “माँ डाँटेंगी-”

“नहीं, इन्हें ले जाकर छत पर रख दो; अपने पैसों से दो-एक और ले आना और सब उड़ा लेना! यहाँ नहीं आओगे तब तो माँ कुछ नहीं कहेंगी न-”

वेद चला गया।

शेखर कमरे में यों इधर-उधर करने लगा, मानो उसे कुछ काम ही हो।

शशि ने कहा, “शेखर, जाने दो रंग, यों ही समय नष्ट करना है; बैठकर लिखो-या लाओ, मुझे लिखाओ; तुम बोलते जाओ, मैं लिखती हूँ-”

शेखर चुपचाप उसके पास बैठ गया, यद्यपि वह जानता था कि उस समय वह न लिख सकेगा, न लिखा सकेगा; उस समय केवल सरसों के फूलों का एक गुच्छा उसकी दृष्टि के आगे था, जो वह कल तड़के नहीं लाएगा...

क्या शशि की वे आँखें आज भी-अब भी-मेरे कन्धे के ऊपर से इस काग़ज़ की ओर झाँक रही होंगी, जो मैं रँग रहा हूँ, और जेल की इस लालटेन के फीके आलोक में पढ़ती होंगी कि मैं कैसा लिख रहा हूँ?...मैं, जो बड़ा आदमी तो क्या हुआ, होने मात्र के किनारे पर खड़ा अनस्तित्व के गर्त्त में झाँक रहा हूँ...शशि, मेरे कानों में तुम्हारे चीखने का स्वर कभी नहीं पड़ा है-और तुम्हारे स्वर के प्रति मैं बहरा अभी नहीं हुआ हूँ, धीमे-से-धीमे स्वर के प्रति भी नहीं...कन्धे के ऊपर से आती हुई, श्रुतिमूल के पास हलके से रोमांचकारी परस से छूनेवाली तुम्हारी नियमित साँस का ही स्वर मैं निरन्तर सुनता रहा हूँ; और झूठ मैंने नहीं लिखा...

भले घर के बच्चे जिन लोगों के पास नहीं जाते, उन लोगों का एक-एक कदम उन बच्चों को बड़े सजग-भाव से देखा करते हैं...जब सूर्य ऊपर चढ़ आया और भीतर आँगन में धूप आ गयी, तब शशि देहरी पर आ बैठी थी कि आकाश देख ले और छत पर किलकारते बच्चों का स्वर सुन ले; और शेखर उसके पास दीवार के सहारे खड़ा हो गया था। किन्तु एकाएक उसने जाना, ऊपर से कई आँखें झाँककर उन दोनों को देख रही हैं, और उन आँखों में वैसा ही अपलक शीतल पर्यवेक्षण है, जैसा केकड़ों या अन्य ठंडे रक्त के जीवों में होता है...जब उसने स्थिर दृष्टि से ऊपर देखा तो एकाएक कई हाथ उठे और साड़ी या चुनरी का पल्ला आगे खींच लाये; केंकड़ों की आँखें उस पर से बिलकुल हटकर शशि पर टिक गयीं। केवल एक बार वेद ने झाँककर आँगन में देखा, फिर एक स-संभ्रम दृष्टि सामने डालकर हट गया। शेखर कमरे के भीतर चला गया और धीरे-धीरे टहलने लगा; थोड़ी देर बाद शशि भी चली आयी और लेट गयी।

काफ़ी देर बाद-तीसरे पहर के लगभग-शेखर ने कुसुम के चीखकर रोने का स्वर सुना और आँगन में निकल आया। थोड़ी देर बाद एक धमकी से चीख दब गयी, फिर कोठे की मुँडेर पर कुसुम का चेहरा आ गया, जिसके ओठ अब भी सुबकियों से कुंचित हो-हो उठते थे, पर जिसकी आँखें निर्निमेष नीचे देख रही थीं।

गुब्बारा फाड़ डाला गया था...

चौतल्ले पर रहने के अनेक लाभ हैं; चौतल्ला संसार को काफ़ी दूरी पर रख सकता है, किन्तु चौतल्ले की भी एक छत है; और जाड़े की धूप में संसार की लहरें उछल-उछल आती हैं...शेखर अनुभव करने लगा कि वह कमरा जो आश्रय था, अब कारागार बन गया है, और अब वहाँ अधिक रहना नहीं होगा। वह जानता था कि शशि भी अनुभव करती है; किन्तु दोनों ही जैसे अनदेखी का अभिनय कर रहे थे...

पर यहाँ रहना नहीं होगा, तो क्या लाहौर में कहीं भी रहना होगा-क्या सब स्थान एक से नहीं हो जाएँगे-हो गये हैं? किन्तु अन्यत्र कहाँ-और कैसे...

सामर्थ्य के नाम पर शेखर के पास थी ‘हमारा समाज’ की पुनर्मंडित हस्तलिपि, ‘कुटुम्ब का इतिहास’, ‘समाज और राजनीति,’ दो-एक और निबन्ध, तीन-चार कहानियाँ, अपने दो हाथ और ढीठ मन,-और शशि का स्नेहिल आशीर्वाद-सप्तपर्णी की छाँह!

पुनः वही चक्कर, प्रकाशक-से-प्रकाशक...और अबकी बार शास्त्र-सम्मत अनासक्त भाव से, और सिद्धान्तों की बैसाखियाँ छोड़कर! किसी तरह, किन्हीं शर्तों पर ‘हमारा समाज’ और ‘कुटुम्ब का इतिहास’ फलप्रद हो जाए-इसलिए नहीं कि फल वह चाहता है, इसलिए कि इस उपपत्ति का वह निमित्त चुना गया है...

किन्तु समाज में जितने आन्तरिक गठन की उसने कल्पना की थी, उससे कहीं अधिक थी-जहाँ वह जाता, प्रकाशक न केवल उससे, बल्कि दोनों पुस्तकों के इतिहास से परिचित मिलते, और उनके मुँह पर एक क्षीण विद्रूप मुस्कान कहती, वे रचना से ही नहीं, रचयिता से भी परिचित हैं...

निराशा का अन्तिम साहस लेकर उन्हीं सम्पादक के पास पहुँचा, जिनसे उसने पत्रं-पुष्पं के नाम पर तोयं पाया था-उसने अनुभव किया कि तोयं मिलना भी बड़ी बात है!

सम्पादक ने उसे वैसे ही सिर से पैर तक देखा, जैसे कोई आसन्न संकट को तौलकर तैयार होना चाहता हो।

“आपके विचारार्थ कई-एक चीज़ें लाया हूँ-”

“अच्छा, बड़ी कृपा है-आप इन्हें छोड़ जाइए, मैं-”

“देखिए, साफ़ बात अच्छी होती है। आपको प्रकाशनार्थ सामग्री चाहिए, या नहीं चाहिए। मुझे उसका एवज़ चाहिए-ही-चाहिए। और-”

दबे विरोध-भाव से, “आप जानते हैं, हमारा पत्र गृहस्थ समाज का पत्र है-घरों में जाता है-”

“तो?”

“हमारे ग्राहक मध्य श्रेणी की ग्राहिकाएँ हैं।”

“समझा, पर-”

“इसलिए हमें यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि हमारे पत्र में नाम किन लेखकों के छपते हैं!”

अब वह स्थिति नहीं थी कि शेखर इसे निरी अपनी नगण्यता की ओर संकेत समझ ले! बोला, “समझा। साफ बात है, इसलिए धन्यवाद। पर नाम का आग्रह मुझे नहीं है। आप नाम न दीजिए, कोई और नाम दे दीजिए, जो चाहे कीजिए।”

कुछ आश्वासन से कुछ विस्मय से, “ओह-अच्छा।”

“और इसमें आपको सुविधा हो, तो आप कहानी-कविता न लीजिए, लेख लीजिए-आजकल तो लेख प्रायः छद्मनाम से या बेनाम छपते हैं, क्योंकि सम्पादक स्वयं लिखते हैं-”

“ओहो-तो यानी आप मेरी गर्दन कटवाना चाहते हैं-”

शेखर ने थोड़ा-सा हँसकर कहा, “मेरा लिखा हुआ आपका समझ लिया जाए...गर्दन कटने की बात हो सकती है अवश्य-”

“और आपका ही लिखा समझा जाए, तो भी मैं बच ही जाऊँगा, ऐसा तो नहीं है-”

“ठीक। पर मैं तो आपको सर्वाधिकार दे रहा हूँ, आप हस्तलिपि के साथ जो करना चाहें करें- “

अन्त में यह निश्चय हुआ कि ‘हमारा समाज’ की लिपि सम्पादक को दे दी जाएगी; वे उसे संशोधित करके पहले क्रमशः छापेंगे, और फिर यदि पाठकों में उत्साह दीखेगा तो पुस्तकाकार-पुस्तक पर सम्पादक का नाम होगा, लेखक का नहीं। सम्पादक का घटाने-बढ़ाने, बदलने छापने या न छापने की पूरी स्वतन्त्रता होगी। और इस सर्वाधिकार विसर्जन के बदले शेखर पाएगा पुस्तक प्रकाशन के दो मास बाद सौ रुपये; या तुरन्त साठ रुपये; किन्तु तुरन्त की कार्रवाई के लिए उसे एक शर्तनामा लिखकर देना होगा जिसमें ये सब बातें लिखी जाएँगी।

इसके लिए गवाह भी आवश्यक समझे गये, फलतः जहाँ शेखर ने पहले उनसे भेंट की थी, वहीं पर शर्तनामा लिखा गया और शेखर ने हस्ताक्षर कर दिए। वहीं से रुपया लेकर सम्पादक शेखर को देने लगे तो बोले, “आपने जिन शर्तों पर स्वीकृति दी है, उनका पूरा अभिप्राय आप समझते ही हैं। बाद में सम्पादक से मतभेद होने पर आपको गिला नहीं होना चाहिए। हम सद्भावना से ही सब कुछ कर रहे हैं; आपको यह सन्तोष होना चाहिए कि आपके विचारों का पूरा नहीं, तो आंशिक प्रचार तो हो रहा है।”

शेखर इसे कड़वा घूँट करके पी गया। सम्पादक फिर कहने लगे, “आजकल ऐसा ज़माना है कि सद्भावना का श्रेय किसी को नहीं मिलता। आप ही कल को सोचें कि पुस्तक मैंने क्यों दे दी-”

अबकी शेखर से नहीं रहा गया। बोला, “आप अगर डरते हैं कि मैं पीछे पुस्तक पर अपना लेखकत्व का अधिकार जमाना चाहूँगा, या जिसका मैं उत्तरदायी भी हूँगा, ऐसा भरोसा मुझे नहीं है। मैंने तो पुस्तक कुएँ में डाल दी-और मुंडेर पर पड़े हुए साठ रुपये उठा लिये।”

सम्पादक चुपचाप शेखर के मुँह की ओर देखते रहे। दो गवाहों में से एक का, जो युवक था, चेहरा देखकर शेखर को लगा कि उसमें कुछ करुणा-मिश्रित उत्सुकता है...शेखर ने नमस्कार कर के विदा ली और बाहर निकल आया।

एकाएक उसके पीछे एक स्वर ने कहा, “क्षमा कीजिएगा-”

शेखर ने मुड़कर देखा, वही युवक कुछ झिझकता हुआ उससे बात करने को चला आ रहा था।

“कहिए-”

युवक ने कुछ इधर-उधर करते हुए कहा, “मेरा नाम रामकृष्ण है। विद्याभूषण को आप जानते हैं न-”

“कौन से विद्याभूषण? जो जेल में थे? उनसे-”

“हाँ, वही। वे मेरे साथ पढ़े थे। उन्होंने आपकी बात मुझे लिखी थी, पर आपने यह हस्तलिपि क्यों बेच डाली-”

शेखर ने संक्षेप में कहा, “जरूरत थी, इसलिए। पर विद्याभूषण ने क्या लिखा था?”

“आपने ठीक नहीं किया। आपके लिखने में शक्ति है। और विद्याभूषण ने लिखा था कि आपके विचार ऊँचे हैं, और आपमें साधना और लगन है। आपकी प्रतिभा की देश में जरूरत है।”

शेखर ने रूखे-से हँसकर कहा, “बड़ी सख्त जरूरत! और मुझे कुछ रुपये

की-”

रामकृष्ण ने कहा, “आप यदि हमारी सहायता कर सकते-”

“किस काम में?”

“पचासों कामों में। इसीलिए विद्याभूषण ने आपकी बात लिखी थी। उनका विचार था कि आप साहित्यिक रुचि रखते हैं, इसलिए लिखने और प्रकाशन के काम में सहायता दे सकेंगे; इसीलिए मुझे आपका पता दिया गया था, क्योंकि मेरा प्रेसवालों से वास्ता है। पर अगर आप अनुमति दें तो कभी आपके घर आकर पूरी बात-”

“मेरा कमरा है ग्वालमंडी के चौतल्ले पर। आप कभी भी आइए-”

शेखर ने कुछ कौतूहल और कुछ संकोच का अनुभव करते हुए कहा, “हम लोग कौन? कौन ऐसे परमार्थी लोग हैं जो-”

“हमारा संगठन है-हम अपने कार्यकर्ताओं की भरसक सहायता करते हैं”

एकाएक प्रकाश पाकर शेखर ने पूछा, “आप किसी क्रान्तिकारी दल के सदस्य हैं?”

“यही समझिए। हम जन-सेवक हैं, आपस में एक-दूसरे की सहायता करना अपना कर्तव्य-”

“जन-सेवक कभी सहायता का देनदार भी हो सकता है, यह तो मैंने अभी देखा नहीं। इसके साधन कहाँ से आते हैं?”

“कहीं से आते ही हैं-पर बातचीत घर ही पर ठीक होगी-मैं आ सकता हूँ न?”

“हाँ, किसी भी दिन।”

“अच्छा, दो-तीन दिन में आऊँगा -”

शेखर ने विदा ली।

साठ रुपये...बड़ी चीज होते हैं, क्योंकि वे मुक्ति का साधन भी हो सकते हैं...एक घर में जहाँ चारों ओर-बल्कि नौ दिशाओं में-पड़ोसियों की रुखाई है और ऊपर से पाले की मार!-बँधे रहने के शाप से मुक्ति का साधन, क्योंकि बिना ऋण चुकाये और आगे बढ़ने का प्रबन्ध किये मुक्ति कहाँ है! वह छोटा-सा कोणाकार कमरा एक दिन जिस आसानी से सप्तपर्णी की छाँह पाकर घर बन गया था, उसी आसानी से सिमट भी गया, क्योंकि अभी छाँह-ही-छाँह उसने जानी थी, जड़ों की जकड़ नहीं। पुस्तकें एक पेटी में चली गयीं; कपड़े एक ट्रंक में-शशि के पास अभी था ही क्या!-और माँगा हुआ बिस्तर लौटाकर शेखर जो दो मोटे खुरदुरे कम्बल ले आया था, वे बिस्तरबन्द का काम दे सकते थे...शेखर ने और सब तैयारी कर ली थी; केवल बिस्तर दोनों पड़े थे, क्योंकि अभी कुछ निश्चय नहीं हुआ था कि जाया कहाँ जाये...शेखर के मन में रह-रहकर विचार आता था कि जब स्थानान्तर करना ही है, तो क्यों न इतनी दूर जाया जाये कि आसपास के गुंझरों के धागों को खींच वहाँ तक नहीं पहुँचे; कि शान्ति से काम किया जा सके, शशि कुछ विश्राम पाकर स्वस्थ हो सके, और जीवन को कुछ अर्थ दिया जा सके...पूँजी उनके पास नहीं है, वे शून्य से ही आरम्भ करने को प्रस्तुत हैं, ऋण से आरम्भ करने की बाध्यता ने क्यों रहे, पर साथ ही उसे कुछ डर भी लगता था कि बहुत दूर जाना कहीं शशि के लिए अहितकर न हो; एक कोमल भावना उसे कहती थी कि पौधा अपने स्वाभाविक वातावरण से बहुत दूर जाकर नहीं पनपता...शशि में दृढ़ता है और सहिष्णुता है अवश्य पर...कभी वह सोचता, जब स्वभाव ने उसे और परिस्थिति ने शशि को एक वातचक्र में डाल दिया है, जहाँ घूमना-ही-घूमना है, भटकना और विद्रोह करना; तो क्यों न वह सब भूलकर अपने को और शशि को उसी अनिश्चित साहसिक जीवन में झोंक दे; किन्तु फिर शशि की स्वास्थ्य-चिन्ता उसे रोक देती। और इस प्रकार बाहर सब ओर से हाथ समेट लेने पर भी उस कोणाकार कमरे के दोनों भागों में दो नियमित साँसों का सखा-भाव अक्षुण्ण पनपता जाता...

रामकृष्ण दो दिन देर करके आया; साथ एक और व्यक्ति को लेकर। शेखर उन्हें लेकर कमरे के बैठक अंश में बैठा, शशि कोने की ओट हो ली।

रामकृष्ण ने कहा, “हम आपसे एकान्त में बात करना चाहते थे-”

इशारा समझकर शेखर बोला, “मेरी बहिन मुझसे अधिक विश्वासपात्र है-और भरसक मेरी मदद भी करेगी-”

“ओहो-तब तो उन्हें हमारे साथ सहयोग करना चाहिए-हमारे पास स्त्री-कार्यकर्ताओं की कमी है-”

काम की बातें होने लगीं। शेखर संगठन के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता था; किन्तु उस समय की मानसिक स्थिति में पूछने की बजाय कुछ करने की माँग ही उसमें अधिक तीव्र थी, और जब रामकृष्ण ने बताया कि वे फ़ौज के सिपाहियों में ब्रिटिश-विरोधी प्रचार करना चाहते हैं, ताकि सिपाही विद्रोही होकर भारत की स्वाधीनता का उद्योग करें, तो उसने इसके लिए एक ज़ोरदार वक्तव्य लिखना तत्काल स्वीकार कर लिया-और इतने उत्साह के साथ कि कुछ वाक्य उसी समय उसके मानसिक कानों में गूँजने लगे...

शशि ने अनुमति दे दी; एक ही दिन में अपील लिखी गयी और अगले दिन रामकृष्ण आकर उसे ले भी गया। साथ ही वह शेखर को पढ़ने के लिए दो-एक पुराने पर्चे और अपने संगठन की नियमावली भी देता गया और साथ कहता गया कि “इन्हें ज़रा ध्यान से रखिएगा-” अर्थात् ये जब्त की हुई सामग्री हैं...

यों शेखर दो दिन और ठहरा, फिर दो दिन और, फिर दो दिन और-और सातवें दिन रामकृष्ण के साथ जाकर शहर की किसी गली के घर में चार-पाँच घंटे डुप्लिकेटर चलाकर अपने लिखे हुए पर्चे की तीन-चार हज़ार प्रतियाँ भी छाप लाया।

इसके बाद निश्चय हुआ कि शेखर को अभी कुछ दिन और वहीं ठहरना चाहिए, और यदि उस घर में ठहरना असम्भव है, तो रामकृष्ण शहर में कहीं और प्रबन्ध कर देगा। शेखर ने मन-ही-मन सोचा, “यह सब तो ठीक है, पर जब रुपये खत्म हो जाएँगे तब स्थानान्तर जाना कैसे होगा?” पर प्रकाश्य कुछ कह नहीं सका...

आत्मकथा लिखना एक प्रकार का दम्भ है-उसमें यह अहंकार है कि मेरे जीवन में कुछ ऐसा है जो कथनीय है, देय है, रक्षणीय और स्मरणीय है...हो सकता है कि ऐसा हो, किन्तु व्यक्ति स्वयं यह दावा करनेवाला कौन होता है? भूसी स्वयं नहीं कहती कि यह देखो, मेरी कोख में प्राणद अन्न है-वह अन्न दूसरे की देह में बल बनकर बोलता है...

किन्तु क्या मैं ऐसे ही आत्मकथा लिख रहा हूँ? क्या यह आत्म-प्रकाशन है? क्या अब भी मेरा मर्म नहीं कहता कि ‘जो मेरा है, जो सारभूत हैं, जिससे मैं सिक्त और अभिषिक्त हूँ, उसे छिपा लो!’ क्या अब भी मैं नहीं चाहता कि जो मात्र मेरे जीवन में महत्त्व का है और इसलिए-शायद-रक्षणीय या देय हो सकता है, उसे मैं अपना ही रहने दूँ और अपने साथ ही ले जाऊँ, गोपन ही रखूँ; क्योंकि प्रकाशन तो विभाजन है; सम्पत्ति का सहभाग हो सकता है, पर अपने-आपका सहभाग मैं कैसे कर सकता हूँ...फिर भी मैं आग्रहपूर्वक अपने को खोलता हूँ, क्योंकि यह आत्मकथन नहीं है, केवल स्वीकार है, साक्षी है, आत्म-साक्षात्कार है। ‘मैं मेरा हूँ, किन्तु केवल इसी अर्थ में और इसी मात्रा में जिसमें कि मैं अमुक का हूँ, और अमुक का और अमुक का’-इस ऋण का स्वीकार ही मेरा धन है, नहीं तो मैं कुछ नहीं हूँ; एक आकस्मिक अणु-पुंज हूँ, जिसका न कारण है न परिणाम!

नये ‘घर में शेखर किरायेदार नहीं था; लगभग अतिथि था। रामकृष्ण ने आकर बताया था कि अलग मकान तो बहुत तलाश करके भी नहीं मिल सका, और फिर ऐसी जगह रहना भी ठीक नहीं, जहाँ बहुत अधिक पूछताछ हो, क्योंकि यह उनके काम के लिए सबसे अधिक शंकनीय बात है, इसलिए उनके दल ने निश्चय किया है कि एक सहयोगी के यहाँ ही शेखर को स्थान दिला दिया जाए; शशि और वह दोनों वहीं रहेंगे और खाने की व्यवस्था भी घर से ही होगी, यद्यपि उन्हें छोटे-छोटे दो अलग कमरे मिल जाएँगे और वे चाहेंगे तो खाना भी कमरे में पहुँचा दिया जाएगा, अन्यथा खाना वे परिवार के साथ खा सकेंगे। और कमरों के लिए उन्हें किराया नहीं देना पड़ेगा; वह सहयोगी अपने चन्दे के रूप में दल को भेंट दे देगा। केवल दोनों के भोजन के लिए तीस रुपये मासिक की व्यवस्था शेखर करेगा...’

और क्रमशः शेखर ने पाया कि वह एक नये जीवन में प्रवेश कर रहा है; समाज के प्रति उसका विद्रोह भाव उग्र तो उतना ही है, किन्तु समाज के प्रति उतना न होकर एक नया रूप ले रहा है-एक अमूर्त भावना का विरोध बनता जा रहा है-भावना जिसका धुँधला-सा ज्ञान उसे पहले भी था, किन्तु जो जेल के दस महीनों में कुछ स्पष्ट होती गयी थी और अब इन नये सहयोगियों के सम्पर्क से एकाएक स्थिर हो चली थी-इतनी स्थिर और स्पष्ट मानो मूर्त होती जा रही हो...कभी-कभी एक भीषण सन्देह उसके भीतर जाग उठता कि वह फिर एक बार मूर्ख तो नहीं बन रहा है, क्योंकि उसके अनजाने उसकी बौद्धिक घृणा को एक सर्वथा अबौद्धिक और स्थूल पात्र दिया जा रहा है, जिसमें बँधकर उसकी गति नष्ट हो जाएगी और वह केवल विष उत्पन्न करनेवाली रह जाएगी, आग नहीं...फिर कभी वह सोचता कि उसका समूचा रागात्मक जीवन एक हवाई पीठिका पर बीतता रहा है और अब एक मजबूत भित्ति मिल जाने से वह दृढ़ हो जाएगा और यथार्थ के साथ अधिक सामंजस्य पा सकेगा...

यों दिन बीतते चले, और वह गुप्त आन्दोलन के फैले हुए जाल में अधिकाधिक उलझता चला। उस उलझने में सन्तोष था, सान्त्वना थी, एक छिपा दर्प था, जो जानता है कि अपने को स्वेच्छया भाड़ में झोंक रहा हूँ, और एक आशा थी कि इस प्रकार उठाया हुआ खतरा भूल का भी मार्जन करता है और इसलिए जीवन को सार्थकता देता है। दाँव खेलना बुरा है, किन्तु जब यह जानते हुए खेला जाये कि पाँसे आग के हैं और उन्हें छूने से ही हाथ जलते हैं, तब क्या उसके समर्थन में कुछ भी नहीं है? शेखर जानता था कि यह भावना-मूलक क्रान्तिकारिता बड़ी खतरनाक हो सकती है, क्योंकि इसका बल आकाश-लता का बल है, जिसकी जड़ें कहीं नहीं होतीं और जो इसलिए अपने आधार को ही खा जाती हैं; किन्तु वह यह भी आशा करता था कि जब वह इस मौलिक दुर्बलता को पहचानता है, तब उसका शिकार नहीं होगा; यथासमय बुद्धि उसकी सहायता करेगी और सूने मोर्चे की रक्षा करने आ डटेगी...

और इस अ-यथार्थता के माया-प्रांगण में यथार्थ एक था, जिसे वह निष्कम्प करों से थामे था...शशि का प्यार, जिसकी रुद्ध अभिव्यक्ति के नीचे था शेखर का अडिग विश्वास कि वह प्यार ज्ञान से परे है, अनुभूति से बड़ा...यह विश्वास और यह बोध ही इतना बड़ा यथार्थ हो गया था कि पकड़ में न आये-शेखर कभी इस विषय में सोचने लगता तो एकाएक उसे जान पड़ता कि यही वह सबसे बड़ा अयथार्थ है, जो और सब पार्थिव को भी अपार्थिव बनाए दे रहा है...

प्यार प्लवन-शीला नदी की तरह है-उसमें स्थैर्य की अवस्था नहीं होती। जिस प्रकार नदी या तो अपने अन्तर्वेग से अपने पाट को काटती और गहरा करती हुई चलती है, या फिर अपने प्रवाह की तलछट से नये कगार बनाती और पाट पूरती जाती है, उसी प्रकार प्यार भी या घटता है या बढ़ता जाता है-या बदलने लगता है-नदी की धारा की ही भाँति!

और अ-पार्थिव महदनुभूति के उस प्लवन में भी शेखर को धीरे-धीरे बोध होने लगा कि कहीं कुछ अवरोध या अटकाव है; उस अगाध और अपरिमेय में कही कुछ ऊना है...उसने अपने को नये काम में डुबा लिया था; और वह देखता था कि शशि उसके काम में हाथ बटा रही है और समाज-शास्त्र का जो अध्ययन उसने बीच में छोड़ दिया था, उसे आगे बढ़ाती हुई निरन्तर पढ़ती और संकलन करती रहती है। इससे वह समझता था कि दोनों अपने-अपने काम में पूर्णतया निरत हैं और अपने अस्तित्व को सार्थक कर रहे हैं, और उस सार्थकता को पुष्ट करनेवाला सिरमट है उनका परस्पर समीपत्व, उनका सहयोग और सख्य, उनका यह कितना बड़ा प्यार-शेखर के जीवन का सबसे बड़ा सत्य...किन्तु कभी अचानक उनकी दृष्टि मिलने पर शेखर की आँखें एक अस्पष्ट असन्तोष और झिझक से भरकर परे हट जातीं और जैसे उसका दृश्यबोध बिखर जाता; और फिर एका-एक वह अपने-आपसे खीझ उठता कि क्यों इस पूर्णता में एक-रिक्त का और एक संकोच का सृजन कर रहा है...तब वह इस संकोच को धो डालने के लिए शशि के और निकट आने का यत्न करता, अत्यन्त आत्मीयता के कुछ एक क्षणों में शशि के स्वास्थ्य की चिन्ता से भर उठता और जान लेता कि भीतर कहीं शशि रुग्ण है और अपनी पीड़ा को अनदेखी कर रही है, क्योंकि शेखर के अतिरिक्त कुछ नहीं देखना चाहती, कि उस एकाग्रता में एक आतुर आशंका है कि वह और कुछ भी देखेगी तो सब छिन्न-भिन्न हो जाएगा-उस शापग्रस्ता बन्दिनी के दुर्ग की तरह, जिसका कल्याण निरन्तर बुनाई (उधेड़-बुन!)करते रहने में था, और जिसके दर्पण में बाहर की दुनिया का प्रतिबिम्ब देखते ही सब कुछ गहन-तिमिरासन्न होकर ध्वस्त हो जाएगा...और इसका बोध होते ही उसके अपने भीतर अगणित आशंकाएँ जाग उठतीं; उनकी कीड़े की-सी मार से उसका उद्विग्न प्यार और भी तिलमिला उठता, उसे लगता कि वह शशि के और भी इतना निकट आना चाहता है जितना कि हो नहीं सकता, हो नहीं सकता, सोचा नहीं जा सकता, क्योंकि वह उससे भी निकट है जितना कि वेदना से टीस...प्यार की वेदना, कि वेदना का प्यार-‘प्रिय, तुम्हारे प्यार की वेदना मुझसे सही नहीं जाती...’

पर्चे और पैम्फलेट लिखने का काम बहुत अधिक नहीं था; शेखर के पास समय काफी रहता था। क्रमशः वह जानने लगा कि दल का कार्यक्रम केवल प्रचार तक सीमित नहीं है, उसकी बहुमुखी कार्य-प्रगति थी, अस्त्र-संग्रह, विस्फोटक पदार्थों की तैयारी और अनेक प्रकार के रसायनिक अन्वेषण, गुप्त संग्रहालयों का संगठन आदि कई और भी दिशाएँ हैं...दल के विषय में उसकी जानकारी का वृत्त क्रमशः बड़ा होता जा रहा था, या होने दिया जा रहा था; प्रकाशन के कामों में वह केवल सहायक से बढ़कर सहकारी संचालक-सा हो चला था और इस नाते कार्य की अन्य दिशाओं का ज्ञान उसके लिए स्वाभाविक-सा मान लिया गया था...और प्रचार के अन्तर्गत स्त्रियों और विद्यार्थी-समाज में जागृति और राजनैतिक असन्तोष फैलाने का जो कार्य था, उसमें शशि का सहयोग माँगना इतना अधिक स्वाभाविक था कि शेखर ने कभी संकल्प-पूर्वक वैसा सोचा भी नहीं, यों ही कर डाला...शशि भी थोड़ा-थोड़ा लिखने लगी, और मुद्रण के काम में भी सहायता देने लगी; दो एक बार घूमकर छिपे-छिपे पर्चों का वितरण भी कर आयी...फिर (न जाने किसकी सम्मति से) सोचा गया कि ऐसे लुका-छिपी के काम दूसरे भी कर सकते हैं, अतः शशि जहाँ तक हो सके, प्रकाश्य ही काम करे, और इसके लिए विद्यार्थियों की सभाओं में जावे...

वैसा भी होने लगा। शेखर कभी विद्यार्थी की सभाओं में चला जाता, क्योंकि प्रचार की योग्यता के लिए यह जानना आवश्यक है कि जिनमें प्रचार किया जाए, उनकी मनोधारा किधर बहती है, किन्तु वह कार्रवाई में कोई भाग न लेता, वह काम दूसरे ही किया करते। शशि विद्यार्थिनियों या कभी स्त्रियों की मीटिंगों में जाती, और वहाँ से लौटकर शेखर को सुनाती कि क्या-क्या हुआ, किसने क्या कहा और किसने क्या उत्तर दिया...कभी-कभी उसकी आँखें एकाएक उत्साह से भर उठतीं और वह मीटिंग में वरती हुई किसी उक्ति का विशदीकरण करने लगती; उसमें इतनी तन्मय हो जाती कि शेखर प्रसन्न होकर सोचता, शशि सुखी है और तुष्ट है, जीवन में अर्थ की कमी उसे नहीं खल रही...और कभी एकाएक चमत्कृत भाव से वह पाता कि पढ़कर और तर्क और ऊहोपोह द्वारा वह जहाँ नहीं पहुँचा था, वहाँ शशि अपने सहज सूक्ष्म बोध द्वारा पहुँच गयी है। तब वह मुग्ध दृष्टि से शशि की ओर देखता रह जाता, और शशि की युक्तियाँ-और-उक्तियाँ उसके आलोकित मनोगुम्फ में गूँजा करतीं...

“हम लोगों की नैतिकता भौगोलिक नैतिकता है-विन्ध्याचल के इस पार उत्तर भारत है, उस पार दक्षिणी प्रायद्वीप है-उसी प्रकार यह नीति की रेखा है, इसके इस पार सत् है, उस पार असत्...इसीलिए हमारी नैतिकता निष्प्राण है; उसका अन्तिम प्रमाण कोई जीवित सत्य नहीं है, केवल एक रेखा है, एक निर्जीव और पिटी हुई लीक...”

“इस नैतिकता के मूल में निषेध है, इसलिए यह स्वयं नकारात्मक है। संसार के सभी स्मृति-शास्त्रों की पड़ताल की जाए; उनमें जो वैचित्र्य या विभिन्नता है, उसे गौण मानकर एक ओर रख दिया जाए, तो सबमें शाश्वत नीति के नाम पर मिलेंगे तीन समान सूत्र-कि सन्तोष कर, सत्य बोल, और अगम्य-गमन न कर। गहरे जाकर देखें तो ये क्या हैं? तीन बड़े निषेध-पहला मानव की स्वाभाविक लोभ-वृत्ति का निषेध, दूसरा उसके सहज भय का निषेध, और तीसरा उसकी सहज द्वन्द्व-वृत्ति का वर्जन! क्यों निषेध नीति का मूल हो-क्यों न नीति इतनी बड़ी हो कि सहज-वृत्ति का बहिष्कार करने की बजाए उसे व्यापृत कर ले, अपने में सोख ले, लील जाए?”

गूँज धीरे-धीरे शान्त हो जाता, फिर अनगूँज में हठात् एक खोखला-सा स्वर आ जाता, और शेखर के हृदय को सहसा भींचती हुई एक गाँठ कहती कि एक बुनियादी सत्य की अनदेखी पर खड़ा हुआ यह सब विवेक व्यर्थ है, व्यर्थ, और निष्परिणाम है यह बोध, जिसमें रस की उपपत्ति नहीं है!

शेखर से प्रोत्साहन पाकर शशि क्रमशः अधिकाधिक बड़ी सभाओं में जाने लगी, विद्यार्थिनियों की समितियों का स्थान कॉलेज के विद्यार्थियों और विद्यार्थिनियों की सभाओं ने लिया; फिर विद्यार्थियों के अतिरिक्त अन्य जनता की सभाएँ भी शामिल हो गयीं। शेखर स्वयं न जाता; उत्कंठा-पूर्वक शशि के लौटने की प्रतीक्षा करता, और उसके लौटने पर उसके दीप्त चेहरे को देखकर ऐसा प्रसन्न होता, मानो उसी ने कोई जय-लाभ किया हो...इस उत्साह में वह यह चीन्ह न पाता कि शशि के चेहरे को वह लाल और गर्म दीप्ति विजय की या उल्लास की ही दीप्ति है या और किसी आन्तरिक उद्वेग की; और अपने उत्साह में वह यह न देखता कि शशि के स्वर में जो तनाव है, वह मीटिंग के या विषय के महत्त्व के साथ कोई अनुपात नहीं रखता...सन्ध्या आती और रात घनी हो जाती, उनके दो कमरों का अलगाव जाड़े के चंगुल में जकड़ा जाता, और शेखर शशि के कमरे के असाधारण मौन के कारण उठकर झाँककर देखता कि शशि निर्निमेष छत की ओर देखती पड़ी है...कभी वह इतने से भी नहीं समझता : फिर कभी वह डर से भर जाता कि शशि स्वस्थ नहीं है और कभी अचानक उसका साथ छोड़कर चली जाएगी-किन्तु इससे आगे उसकी बुद्धि न जाती-काम के और कुछ अपने इस प्यार के सम्मोहन ने मानो एक विशेष सीमा से पार देखने की उसकी शक्ति को सुला दिया था...

इसी मन्त्र-बद्ध अल्प-बोध से शेखर ने शशि को एक सार्वजनिक सभा के लिए तैयार किया, जिसमें बहुत-से वक्ता बोलनेवाले थे। असहयोग आन्दोलन की तात्कालिक लहर अपने उत्कर्ष पर थी, और चाहे जहाँ, जैसी भी सभा हो, उसमें राजनैतिक प्रश्नों का उठ खड़ा होना अनिवार्य हो गया था; इसलिए गुप्त दलों के लोग भी सब तरह की सभाओं में भाग लेने लगे थे कि उनके सहारे अपने प्रभाव का वृत्त और अपने सहायकों की संख्या बढ़ा सकें। इस विशेष सभा में मुख्य विषय ‘स्त्रियों के समानाधिकार’ पर बोलने के लिए शशि को तैयार करके शेखर ने स्वयं भी साथ जाने का निश्चय किया था, क्योंकि सभाओं के सहारे ही नये सम्बन्ध-सूत्र जोड़े जा सकते हैं और नये सम्भाव्य सहायकों से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है...

सभा में मंच के पास ही एक ओर की अगली पंक्तियों में बैठे हुए शेखर का व्यक्तित्व मानो दो असमान खंडों में विभक्त हो गया था-एक वक्ताओं की बात सुन रहा था और दूसरा जैसे समूची सभा के आन्तरिक स्पन्दन को भाँप रहा था-उसके पुंज-रूप को भी और पुंज के अन्दर अलग-अलग इकाइयों के अलग-अलग स्पन्दन को भी, उसकी अनुकूलता या प्रतिकूलता का व्यास नापता हुआ...

शशि बोलने को उठी-धीरे-धीरे आगे बढ़कर, एक हाथ की उँगलियाँ हल्के स्पर्श से मेज पर टेककर खड़ी हो गयी, एक उछलती दृष्टि उपस्थित जन-समूह को जैसे चीह्न गयी, फिर शशि ने बोलना आरम्भ किया।

उस दुहरी सजगता से देखते हुए शेखर ने जाना कि शशि के सामने आते ही जनता में कौतूहल और औत्सुक्य की एक लहर दौड़ गयी है, उसका सामूहिक मन जैसे आगे को झुक आया है, और उसके साथ ही शशि उसी अनुपात में सिमट गयी है, पीछे हट गयी है, और एक आवश्यक बात कहने की लाचारी का-सा अनिच्छुक भाव उसके चेहरे पर घना हो आया है...हल्का-सा अभिमान का भाव उसके मन में उठा, शशि इतनी घिरी होकर भी इन सबसे कितनी दूर है, कितनी तटस्थ! जिनका भीतरी जीवन सम्पन्न है, विशाल है, वही बाहरी जीवन से इतने असंलग्न अनासक्त रह सकते हैं...और क्या इस भीतरी सम्पन्नता का ही अनुमान उस सभा का नहीं ललकार रहा, क्या उसी के आकर्षण से वह आगे नहीं खिंची हुई, क्या...

शेखर सभा के एक-एक चेहरे का भाव पढ़ने में इतना तन्मय हो गया कि कुछ भी सुनना भूल गया; यों शशि के घने, शान्त, पर किसी आन्तरिक स्पन्दन से गूँजते हुए स्वर की लहरें अनसुनी भी उसके भीतर पैठ रही थीं; जब तक स्वर वैसा था तब तक शेखर आश्वस्त था और अर्थ की उपलब्धि आवश्यक नहीं थी-

पर स्वर की गूँज में एक हल्की-सी कम्पन क्या है, उसका घनापन क्यों बिखरने-सा लगा है, उस शान्ति के नीचे यह विद्रोही तीखापन क्या जगा आ रहा है-

...”आदर्शों का अभिमान आसान है, विवाह का हिन्दू आदर्श, गृहस्थ-धर्म, सतीत्व का हिन्दू आदर्श-किन्तु अभिमान की काई के नीचे आदर्श का पानी क्या कभी बहता है, कि बँधकर सड़ गया है? गृहस्थ-धर्म उभयमुखी होता है; किन्तु आज के जीवन में पुरुष की ओर से देय कुछ भी नहीं है; सख्य तो दूर, करुणा भी देय नहीं रही, और नारी केवल पुरुष के उपभोग की साधन रह गयी है; निरी सामग्री, जिसे वह जब चाहे, जैसे चाहे, जहाँ चाहे, अपनी तुष्टि की आग में होम कर दे! और इसकी कहीं अपील नहीं है, क्योंकि स्त्री कभी दुहाई दे तो उत्तर स्पष्ट है कि ‘और शादी की किसलिए जाती है?’ यह आदर्श नहीं, आदर्शों की समाधि है, देह नहीं, सदियों की सूखी त्वचा में निर्जीव हड्डियों का ढाँचा है-”

शेखर जैसे सोचता-सा है कि शशि सभा से दूर है, किन्तु अपनी बात से बिलकुल भी दूर नहीं है-अन्य लोग जैसे विषय के बाहर से, ऊपर से बोलते हैं, पर शशि में वह आग-सा सुलग रहा है-क्या इतनी तीव्रता के साथ बोलना चाहिए? किन्तु, नहीं तो बोलना ही क्यों चाहिए, अगर देने की ज्वाला नहीं है तो अँधेरा-

उसकी चेतना अचकचाई-सी फिर सभी की ओर लौटती है-लोग तो सुन नहीं, मुस्करा रहे हैं-और शशि की आँखों की स्थिरता जैसे विचलित सभा में कहीं-कहीं-भी, कुछ-भी खोज रही है, जिस पर टिक जाएँ-एकाएक सभा में कहीं से कह-कहा उठता है और फिर सारी सभा अट्टहास से गूँज उठती है, जिसकी गड़गड़ाहट को भेदती हैं या दो-चार सीटियाँ या शशि का चीखता-सा स्वर, “ठीक है, यही है आपके पास देने को, आपका आदर्श, यह हृदयहीन बुद्धिहीन रेंकता हुआ तिरस्कार-”

सभा को क्या हो गया है? और क्या यह शशि ही है? नहीं, शशि नहीं, सभा से लड़ने का कोई लाभ नहीं है, सभा का अविवेक समूह का पुंजगत अविवेक है, उससे-

शशि का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर शेखर लपककर मंच पर पहुँचा और चारों ओर छाई हुई ठठाती हुई अव्यवस्था के बीच से उसे हटाने के लिए उसे खींचने लगा, पर शशि जैसे उसे जानती ही नहीं थी, केवल सभा को जानती थी, और अपने आहत तमतमाये नारीत्व को...किसी तरह पीछे खींचकर शेखर उसे मंच से हटाकर पीछे के कमरे तक ले गया, वहाँ एक कुर्सी पर उसे बलात् बिठाकर उसने मंच की ओर का द्वार धड़ाके के साथ बन्द कर दिया; उधर से आता हुआ बहुरूप कोलाहल धीमा पड़ा तो शशि फिर उठी, पर शेखर उसे बाहर की ओर ले गया; जाता ताँगा रोककर शशि को उसमें बिठाकर स्वयं बैठ गया, “चलो-” कहकर “किधर बाबूजी?” का उत्तर देते-देते उसने अनुभव किया कि शशि की देह अभी तक थर्रा रही है, जैसे तीर को प्रेरित करने के बाद प्रत्यंचा काँपती रहती है...वह स्तब्ध बैठा रहा, केवल ठिकाने पहुँचकर, ताँगेवाले को पैसे देकर जब वह बाँह का सहारा देने के लिए शशि की ओर बढ़ा, तब उसने बड़ी कोमल चिन्ता के स्वर में कहा, “शशि-”

जैसे शशि के भीतर कुछ टूट गया हो, वह लड़खड़ा गयी और शेखर की सँभालती हुई बाँह ने जाना कि वह बेहोश हो गयी है...

कमरे में उसे लिटाता हुआ शेखर यह नहीं सोच सका कि मूर्च्छा देवताओं की देन होती है, कि असह्य तनाव से अपनी देन की रक्षा के लिए ही वे विस्मृति के फूल बरसाते हैं, कि उस मन्त्र-सिक्त नींद में प्राणी की सूक्ष्म देह विश्राम पाकर स्फूर्त हो उठती है; शशि के मुँह पर छींटे देता और एक कापी से पंखा करता हुआ वह कुछ भी सोच नहीं सका, भीतरी घबराहट की लहर सहसा बढ़कर एक उन्मत्त आवेश बन चली...उँगलियों की सूनी पकड़ मानो न-कुछ की हड्डियों को मसलने लगी...

एकाएक शशि ने खोई-सी आँखें खोलीं; उसे खोजकर पहचाना और फिर तनकर कहा, “जानते हो, वे क्यों हँसे थे, शेखर?” और चेतना फिर बुझ गयी।

वह भीतरी लहर उमड़कर उसे लील गयी। उसके हाथ जैसे तोड़ने-फोड़ने को फड़क उठे, उँगलियों को सूनी पकड़ न-कुछ की हड्डियाँ मरोड़ने लगीं...शेखर ने पानी का एक गिलास शशि के पास रख दिया, शरीर के कपड़े कुछ ढीले कर दिये, एक चादर उढ़ा दी; फिर एक बार चारों ओर देखकर बाहर चल पड़ा-मीटिंग की ओर...उनकी इतनी मजाल, बर्बर पशुओं की-शशि को हँसते हैं, शशि को, शशि के जीवन को और उसकी यातना को...मेरे सामने हँसे कौन-सा मुँह-

किन्तु जब वह सभा-स्थान पर पहुँचा तो वह खाली हो चुका था, सभा बिखर गयी थी...कुछ देर वहीं खड़े रहकर वह लौटा; बाहर सड़क पर आया तो अचानक एक ओर उसे हँसने का स्वर सुनाई दिया। उधर मुड़कर उसने देखा, दो सूट-धारी नवयुवक बाबू चलते हुए हँस रहे थे। क्यों, किस बात पर, यह पता नहीं था, पर उनका हँसना ही जैसे शेखर को डस गया; वह उनकी ओर बढ़ा और जानबूझकर दोनों को धक्का देता हुआ बीच से निकल गया।

“ए-देखो जी-”

इसी की शेखर को जरूरत थी! उत्तर में उसने कड़ककर कहा, “क्या है?” और एक घूँसा बाबू को दे मारा। क्षण भर में दोनों गुत्थमगुत्था हो गये; बाबू का साथी हक्का-बक्का देखता रह गया। किन्तु यह देखकर कि अकेले साथी की जीत नहीं होगी, वह भी उलझने को तैयार हुआ, पर तब तक भीड़ जुटने लगी थी; लड़ाई आगे नहीं चली, लोगों ने खींच-खाँचकर अलग कर दिया और जब तक बाबू लोग उन्हें सब मामला समझाने लगे, तब तक शेखर अलग होकर सबको घूरता हुआ चल पड़ा...धीरे-धीरे बोध उसके भीतर जागने लगा कि वह अभी एक मूर्खता कर चुका है; पर साथ ही एक विश्रान्ति का, तनाव के मिट जाने का भी अनुभव उसे हुआ...वह जल्दी-जल्दी घर की ओर चला, क्योंकि तनाव का ज्वार उतरते ही शशि के लिए चिन्ता ने उसे आ घेरा।

शशि की मूर्च्छा टूट चुकी थी, पर शेखर ने उसे छूकर देखा, उसकी देह तीव्र ज्वर से जल रही थी। वह शशि के माथे पर हाथ रखकर सिरहाने भूमि पर बैठ गया।

“क्षमा करो, शेखर-”

“...”

“पता नहीं, मुझे क्या हो गया था-हिस्टीरिया इसी को कहते हैं?”

“नहीं, हिस्टीरिया उसे कहते हैं जो मुझे हुआ था।” शेखर फीकी हँसी हँस दिया। “दो बाबुओं से मार-पीट कर आया।”

“कब?”

“अभी, जब तुम-सोई थीं।”

“क्यों?”

“क्यों जानता, तो हिस्टीरिया कैसे होता? क्यों न जानने को ही तो हिस्टीरिया कहते हैं। पर शशि, शशि, शशि-” शेखर से कुछ कहते नहीं बना, वह धीरे-धीरे शशि के केश सहलाने लगा; और जब शशि ने अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया, तब बिलकुल निश्चल हो गया...

यह भूल अब फिर नहीं होगी, शशि; झूठे अहंकार को लेकर मैं अपना सौभाग्य दूसरों को दिखाना चाहता था; बिना जाने कि सौभाग्य तभी होता है, जब दिखाने को पास कुछ न होने पर भी व्यक्ति सम्पन्न होता है...शशि, तुम्हारे दिन पुनीत हों, क्षण-क्षण पुनीत हों; शशि...

दिल्ली...

धुएँ की यवनिका में से कभी दायीं ओर जमुना का पुल झिलमिला जाता है, कभी और भी दायें हटकर किले की एक बुर्जी और दीवार; और कभी धुन्ध के और भी कट जाने पर सामने जमुना की दुबली श्यामल देह भी रेत के लम्बे परिधान में लिपटी दीख जाती है, और पार झाऊ की झाड़ियाँ, और अधूरे छोड़ दिए गये एक कुएँ का स्तूपाकार गोला...शशि को तकियों के सहारे कुछ उठाकर, ताकि वह खिड़की के बाहर का दृश्य देख सके, शेखर स्वयं उसके पीछे खड़ा है, और भोर का पहला उद्घाटन जो देखा, उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। धुन्ध और धुएँ के बीच से जो कुछ दीखता है, वह सब नया और अपरिचित है; किन्तु उसे नयेपन के प्रति ही एक बन्धुभाव उसमें जागता है, क्योंकि यह सब लाहौर नहीं है; वे दोनों एक विषैले वृत्त से बाहर निकल आये हैं और यहाँ की धुन्ध के पीछे अवश्य एक नया व्यक्तित्व है, जो मित्र का है, बन्धु का है-चाहे उसके पहचानने में कुछ दिन लग जाएँ...

यहाँ आने के पीछे एक इतिहास था। षड्यन्त्र-कारियों के जीवन का जो कुछ नया ज्ञान शेखर ने पाया था, उसके आधार पर उसने एक छोटा-सा उपन्यास लिख डाला था, जिसमें कला गौण थी; उस जीवन को ज्वलन्त रूप से जनता के आगे उपस्थित करना, और उसको निमित्त बनाकर उग्र असन्तोषकारी विद्रोहात्मक विचारों का प्रचार करना ही मुख्य उद्देश्य था। उपन्यास इतना ‘गरम’ था कि प्रकाश्य रूप से उसका मुद्रण हो ही नहीं सकता था, अतः प्रकाशक खोजने का सवाल नहीं था; पर रामकृष्ण ने हस्तलिपि उससे लेकर दो-चार व्यक्तियों को दिखायी थी और फिर शेखर को बताया था कि गैर-कानूनी तौर पर उसे छापने और बेचने का प्रबन्ध हो सकेगा, और एक ‘सिम्पेथाइज़र’ ने इस काम के लिए बहुत-सा रुपया भी दिया है; फिर यह भी कि पुस्तक लाहौर ही में छपेगी, अतः शेखर का यहाँ से चले जाना ही उचित है, जैसा कि वह स्वयं चाहता है; और यह सम्भव बनाने के लिए दल ने निश्चय किया है कि सिम्पेथाइज़र से पाए हुए रुपये में से ढाई सौ शेखर को दे दिया जाए, जिससे वह अन्यत्र जाकर अपने योग्य व्यवस्था कर सके। शेखर ने दिल्ली जाने का निश्चय कर लिया, क्योंकि बड़े शहर में शान्ति से रह सकना अधिक सम्भव है, और बिना अपनी ओर अधिक ध्यान आकर्षित किये कुछ जीविका कमाने की भी व्यवस्था हो सकती है, और फिर दल के लिए भी वह बहुत-कुछ कर सकेगा...रात के सफ़र से शशि को कष्ट न हो, इसलिए प्रातःकाल चलकर वे रात को दिल्ली पहुँचे थे; दल के एक सदस्य ने जमुना के पास सस्ते किराए पर ढाई कमरे का एक मकान ढूँढ़ रखा था, जहाँ ये रात को पहुँच गये थे। और भोर की पहली किरणें दो परदेशियों को जगाकर दिल्ली के धुँधले दृश्य दिखाकर परिचित बनाने का प्रयास कर रही थीं...

दिल्ली में यमुना का तीर, ढाई कमरे का सर्वतः सम्पूर्ण मकान, पास में ढाई सौ रुपये, अपरिचित इसलिए स्वछन्द वातावरण, और सप्तर्णी की छाँह-अगर देवता हैं तो उन्हें धन्यवाद कि यह सम्भव हुआ है, कि शशि की वत्सल छाँह में वह खड़ा हो सका है और अपने को उस वात्सल्य के प्रति उत्सर्ग कर सका है...कि उस वात्सल्य को कुचलने के लिए बढ़ा आता कलुष पीछे रह गया है, कि आसपास एक नया वायुमंडल है जिसमें परिचय नहीं है, इसलिए करुणा अवश्य है, कि अपने को होम कर देने में शशि ने अपने जीवन का जो अंश पंगु कर लिया है, उसे पुनर्जीवित करने का नहीं, तो कम-से-कम उसका दर्द भुला देने का निर्बाध अवसर शेखर को मिला है...शशि से उऋण होने की स्पर्धा वह नहीं करता, पर जो पाना-ही-पाना रहा है, उसकी विनत स्वीकृति की भी आज़ादी उसने अब तक नहीं पायी थी, अब वह उसे मिलेगी, और वह शशि की सेवा कर सकेगा...

शेखर दिल्ली कोई निश्चित कार्यक्रम लेकर नहीं आया था। तत्काल ही कुछ आमदनी करने की बाध्यता भी अभी नहीं थी। तथापि उसने अस्पष्ट निर्णय कर लिया था कि कुछ कमाई का काम अवश्य करता रहेगा, और वह काम भी यथासम्भव ऐसा होगा कि उसे पाने ही वर्ग के सम्पर्क (अर्थात् संघर्ष!) में न लाए, बुद्धिजीवी वे हों जिन्हें बुद्धि से जीविका कमाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना है! वह केवल अपने शरीर का काम बेचकर ही काम चलाएगा, ताकि अपनी बुद्धि के घोड़े को पराई उपयोगिता की गाड़ी में न जोतना पड़े-उसका सर्वनाश न करना पड़े।

किन्तु क्या काम वह कर सकता है? कॉलेज की पढ़ाई ने उसे शारीरिक उद्यम के लायक नहीं बनाया! उसकी कुछ सामर्थ्य बच गयी है तो कॉलेज के कारण नहीं, इसलिए कि वह सम्पूर्णतया कॉलेज का नहीं हो सका! बहुत सोचकर और दल के दो-एक व्यक्तियों से मिलकर उसने निश्चय किया कि वह साइनबोर्ड पेंटर का काम करेगा-इसमें आज़ादी भी बनी रहेगी, पूँजी भी विशेष नहीं लगेगी, थोड़ी बहुत कलाकारता भी दर्शाई जा सकेगी, और-काम चल गया तो आमदनी भी हो ही जाएगी। दल का स्वार्थ यह था कि इस प्रकार और भी दो-तीन व्यक्तियों को आश्रय दिया जा सकेगा-वे रात कहीं रहेंगे, और दिन भर शेखर की ‘दुकान’ में काटा करेंगे, ताकि रात के आश्रय की जगह कोई सन्देह न हो, यहाँ यही समझा जाए कि दिन में नौकरी पर जाते हैं, और दिन तो कट ही जाएगा। बाहर का काम न आवेगा तो अपना ही कुछ-न-कुछ काम किया जा सकता है; दुकान के लिए स्थान दल के खर्चे पर लिया जाएगा और बाकी सामग्री का प्रबन्ध शेखर स्वयं करेगा।

फलतः अठारह रुपये मासिक पर नयी सड़क के ऊपर की मंजिल में एक कमरा लिया गया, सामने के छज्जे के बाहर शेखर ने एक बड़ा-सा रंगीन बोर्ड तैयार करके लटका दिया; और तीन सहकारियों को लेकर दुकान आरम्भ कर दी! काम कुछ नहीं था, किन्तु काम का दिखावा करने के लिए दो-चार बोर्ड अधरंगे करके इधर-उधर फैलाए गए, पतले बोरिए का एक बड़ा-सा पर्दा रँगा गया, और छोटे-बड़े टीन और कनस्टर इधर-उधर फैला दिये गये। जाड़ों के दिन थे, बहुत सवेरे आना आवश्यक नहीं था; शेखर लगभग ग्यारह बजे वहाँ पहुँचता और बड़े काम-काजी के ढंग से रंग-वंग फैलाकर कुछ-न-कुछ बनाने बैठ जाता; उसके ‘सहकारी’ प्रायः कुछ पहले आते और आकर कुछ पढ़ते-लिखते रहते, पहले अपना रूप पेंटरों जैसा बनाकर और सामने पेंटरी का उपक्रम करके! कभी जीने पर पैरों की आहट होती, तो सब किताबें-कापियाँ छोड़कर ‘काम’ की ओर दत्तचित्त होते या कोई एक सिगरेट भी पीने लगता-जब आहट के पीछे जमादार या कोई भूला-भटका मोची या लेस-फ़ीतेवाला निकलता, तो सब एक-दूसरे को कनखियों से देखकर मुस्कराते कि अच्छे बेवकूफ बने!

और चार-पाँच बजे शेखर बड़े उत्साह से घर लौटता, देखता कि बहुत मना करने पर भी शशि उठकर कुछ काम में लगी है और तत्काल प्रत्येक काम में टाँग अड़ाकर शशि को बाध्य कर देता कि वह हारकर छोड़ दे। यह समझौता हो चुका था कि शशि नित्य एक शाक और रोटी बना दिया करेगी, और झाड़-बुहारी, चौका-बर्तन शेखर करेगा, पर नित्य ही इस पर झगड़ा होता, क्योंकि शशि कहती, चौका-बुहारी उसका काम है, और शेखर निश्चय जानता कि रसोई उसे करनी चाहिए। फिर सहसा धुन्ध घिर आती, और उनका छोटा-सा घर एकाएक सारे संसार से सिमटकर अलग, बहुत दूर, कहीं अलग होकर स्तब्ध हो जाता; स्तब्ध और शान्त और स्निग्ध...पर उस स्निग्धता में एक गहरी उदासी स्पन्दित होती, और उस उदासी में एक अपूर्व स्निग्धता; जिससे दोनों एक-दूसरे के बहुत समीप अनुभव करते और साथ ही न जाने किस संकोच में खिंचे हुए...शेखर सोचता, सप्तपर्णी की छाँह में जो शीतलता है, अपूर्णताओं का जो निराकरण है, उसके बाद और कुछ चाहने को गुंजाइश नहीं है; किन्तु यह सोचने में ही एक अपूर्णता उसके भीतर रड़क उठती और वह-जानता कि वह कुछ चाहता है जिसे आकार नहीं दे सकता, शब्दों में नहीं बाँध सकता...कभी एकाएक बीच में शशि बोल उठती, ‘शेखर, ऐसे आराम से नहीं चलेगा,-अब कुछ लिखना शुरू करो न?’ और वह उत्तर देने की बजाय सोचने लगता, शशि सचमुच यही चाहती है, या कि इस आराम के पीछे के खोखल को देखकर ही उससे बचने को कह रही है? क्योंकि खोखल वहाँ अवश्य है, यद्यपि वह उसे देख नहीं सकता, पहचान नहीं सकता, माप नहीं सकता-और इसलिए भर नहीं सकता...

दिन आये कि लटकते हुए पत्तों ने एकाएक जाना कि वे बहुत पीले पड़ गये हैं, और बोझ के धक्के से लड़खड़ाकर गिर पड़े...भूले-से झकोले डालों को कँपाकर बाकी पत्तों को भी गिराने लगे। समीर की शीतलता कम नहीं हुई, किन्तु उसके भीतर मानो बड़ी दूर के किसी झूठे बसन्ती वायदे के रोमिल स्पर्श का भ्रम होने लगा; धुन्ध फीकी पड़ गयी, दिन के वेग के साथ पंजे मिलाने में अन्धकार का असुर प्रतिदिन कुछ ढिलाई करने लगा...और शेखर की दुकान में ग्राहक आने लगे। एक दिन एक साथ ही तीन बोर्ड तैयार करने का आर्डर पाकर सहकारियों समेत वह काम में लगा रहा, शाम को लौटते समय अपनी निबटती हुई पूँजी में एक टिकिया मक्खन और थोड़े से टमाटर खरीदता लाया और घर पहुँचते ही उत्साह से पकाने भी बैठ गया-डाक्टर ने कहा था, शशि को टमाटर और फल और ताज़े हरे शाक खाने चाहिए, और सर्दी लगने से या नमी से बचना चाहिए...अगले दिन वह आज अभी शशि को यह सु-समाचार न सुना दे...किन्तु जब वह शशि को खाना खिलाने बैठा-शशि क्रमशः अधिकाधिक अनुगत होती जाती थी और जो वह कहता था, बिना प्रतिवाद मान लेती थी, यहाँ तक कि कभी वह स्वयं इस अतिशय आज्ञाकारिता से विस्मित हो उठता था!-तो न जाने क्यों उसे लगा, शशि उदास है...नयी बात कोई नहीं थी, शशि के चेहरे की वह स्निग्ध उदासी उतनी ही शान्त थी, शायद उत्तर-माघ और फाल्गुन की खिचड़ी साँझ के रंगों का ही असर था...पर शेखर को सहसा जान पड़ा, शशि उदास है, और इसलिए उदास है कि उसके बारे में सोचती रही है...तब सहसा उसने कहा, “शशि, मुझे बधाई दो, आज दूकान में काम मिला है।”

शशि ने हँसते हुए कहा, “ओ-हो, तब तो बड़ी खुशी की बात है। क्या काम मिला है?”

“तीन बड़े-बड़े बोर्ड-कोई नयी कम्पनी खुल रही है, उन्हीं के तेल-साबुन के बोर्ड, और एक पन्द्रह फुट का नाम का बोर्ड।”

“अच्छा पेंटर साहब! तब तो आपका सितारा चमक उठा-और रंग-बिरंगा!” फिर एकाएक शशि की दृष्टि काँपकर थाली पर जा रुकी और स्थिर रह गयी।

“क्यों, शशि क्या है?”

“अब तुम लिखोगे नहीं, शेखर?”

शेखर अचकचा-सा गया...सचमुच, साइनबोर्ड के रंग क्रान्ति के रंग नहीं हैं...और वातावरण की शान्ति ने उसे प्रोत्साहित न करके तन्द्रा में डाल दिया है-वह कुछ कर नहीं रहा है, निरा साइनबोर्ड-पेंटर हो गया है, और वह भी असफल...

उसने लज्जित-से स्वर में कहा, “क्यों नहीं लिखूँगा? मैं भूला नहीं हूँ, शशि; मैं लिखूँगा-”

“नहीं, शेखर, तुम कुछ नहीं कर रहे हो। मेरे लिए खाना बनाना और तेल-साबुन के बोर्ड रँगना, इसमें तुम कैसे रह सके हो अब तक भी?”

तब शेखर ने जैसे अंटी खोलकर सच बात निकालते हुए कहा, “शशि, मुझे सूझता नहीं क्या लिखूँ। पहले आसपास का दबाव लिखने नहीं देता था, पर उसी में से लिखने की प्रेरणा भी मिलती थी; अब आसपास शान्ति है पर-लिखूँ क्या, तुम बताओ? आसपास कहीं कुछ हो ही नहीं रहा-”

“शेखर, तुम यह कहो कि लिखने को कुछ नहीं है? और क्या आसपास की घटना ही सच है, अनुभव का सच कुछ नहीं है?”

“अनुभव का क्या सच? अनुभव में तो झूठ-ही-झूठ आया है-और अनुभव भी मेरा कितना-”

शशि ने आग्रह से कहा, “मैं यह नहीं मान सकती, शेखर, कि तुम्हारे पास लिखने को सामग्री की कमी है। तुम भूले नहीं, अनदेखी कर रहे हो। क्या बाबा मदनसिंह की बात में लिखने को कुछ नहीं है? क्या मोहसिन से तुम्हें कुछ नहीं मिला, जो आगे औरों को दिया जा सकता है? क्या रामजी अपात्र था? तुमसे भी बड़ा अनुभव हो सकता है जरूर, पर मैं कहती हूँ, जो सत्य तुमने देखा है, जिसका अपने रक्त में अनुभव किया है, उसकी बात तो अवश्य लेखनीय होगी। बात बड़ी नहीं चाहिए, बात का अनुभव बड़ा चाहिए, आदमी की पकड़ बड़ी चाहिए-बात को वश में करने की लगन और साहस। ताप लकड़ी में नहीं होता, आग में होता है, और तुम अपने अन्तर के सच की बात लिखोगे तो उसमें जरूर आग होगी-ऐसी आग जिसके आगे कुछ नहीं टिकेगा और-जिसमें मेरे संसर्ग का पाप भी धुल जाएगा।”

अन्तिम वाक्य से चौंककर शेखर ने प्रतिवाद करना चाहा, पर शशि की आँखों में एक दीप्ति जाग उठी थी, जिसे देखकर वह चुप रह गया।

“देखती हूँ, मैं तुम्हारे मार्ग में बाधा बन रही हूँ। पर इसे अनिवार्य नहीं मानती, जिस दिन देखूँगी कि यह अनिवार्य है, उस दिन-उस दिन-” एकाएक रुककर, “नहीं, शेखर, तुम सब लोगों को भूलकर अपना निजी सत्य लिखो, जो भी हो-”

अनुभव करके कि शशि जिस ढंग से बात कर रही है, उसका विषय निरे लिखने से अधिक गहरा चला गया है, शेखर ने कुछ हँसी-सी में कहा, “तब तो तुम्हारी करनी लिखूँ-निजी सत्य-”

शशि मुस्कराई भी नहीं, और भी गम्भीर होकर बोली-”हाँ, जब मैं भी ऐसा सत्य हो जाऊँगी, निरा सत्य जिसे तुम तटस्थ होकर देख सकते हो, तब मेरी कहानी लिखना-” एकाएक फिर दीप्त होकर, “और कहानी ऐसी बुरी नहीं होगी, शेखर!”

शेखर स्तब्ध रह गया।

शशि हाथ धोने के लिए उठी। शेखर भी रसोई से उठकर कमरा लाँघकर जमुना की ओर के बरामदे में जा खड़ा हुआ और एकटक नदी की ओर देखने लगा-नदी का जल धुएँ में छिप गया था, पर जहाँ उसे होना चाहिए, वहाँ धुएँ में भी एक खुलेपन का-सा भान होता था, उसी पर शेखर की दृष्टि टिकी थी।

शशि भी बरामदे में आकर उससे कुछ दूर पर खड़ी हो गयी।

शशि ठीक कहती है। कब उसकी बात ग़लत होती है? क्योंकि उसकी हर बात में अपने को तपाकर पाया हुआ कंचन होता है-जैसे बाबा की बातों में होता था...शशि उसी की सम-वयस्क है, किन्तु कितना गहरा विवेक है उसमें, कितनी प्रशस्त संवेदना, कितना विशद ज्ञान-प्रज्ञा! क्यों शशि स्वयं नेता नहीं है, क्यों वह शेखर के जीवन में एक अप्रधान, अनुगत, अधीन पद लेकर सन्तुष्ट है, क्यों उसे आगे बढ़ाने के लिए अपनी आहुति दे रही है, अपने को निरन्तर मिटा रही है? क्या इतना बड़ा आत्म-बलिदान वह स्वीकर कर सकता है? क्या गारंटी है कि इतने बड़े त्याग से जो बनेगा, उसका आत्यन्तिक मूल्य उस देने के बराबर होगा? और हो भी तो कैसे वह इन दामों उसे ले सकता है...

शेखर ने मुड़कर शशि की ओर देखा। झुटपुटे में उसकी आकृति नहीं दीखती थी, केवल जमुना पर टिकी हुई अपलक आँखें दीखती थीं। बिना निवृत्ति के उसने कहा, “शशि, तुम अपने को बराबर मिटाती जाओगी और मैं निर्लज्ज होकर सब स्वीकार करता जाऊँगा-यह नहीं होगा। तुम जो हो उसका गौरव, मैं जो हूँ उससे पचास गुना-सौ गुना ज्यादा है-उसकी बलि मैं नहीं लूँगा, नहीं लूँगा, नहीं लूँगा।”

शशि ने चौंककर उसकी ओर देखा, फिर पास आकर कहा, “हूँ-क्या कह रहे हो, शेखर?”

एक गहरी साँस लेकर शेखर फिर बोला, “कहता हूँ, मैं तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ, शशि! कितना-यह कह नहीं सकता; पर इसलिए तुम्हारा यह अपमान नहीं कर सकता। तुम मुझे कुछ बताना चाहती हो, पर तुम्हारा ज्ञान मुझसे अधिक है, बोध मुझसे बड़ा है, संवेदना मुझसे गहरी है; और तुम उस सबको मिटा रही हो-मेरे लिए?”

शशि और पास आ गयी। “तुम पूछते हो, तो कहती हूँ। लो सुनो। स्त्री हमेशा से अपने को मिटाती आयी है। ज्ञान सब उसमें संचित है, जैसे धरती में चेतना संचित है। पर बीज अंकुरित होता है, धरती को फोड़कर; धरती अपने-आप नहीं फूलती-फलती। मेरी भूल हो सकती है, पर मैं इसे अपमान नहीं समझती कि सम्पूर्णता की ओर पुरुष की प्रगति में स्त्री माध्यम है-और वही एक माध्यम है। धरती धरती ही हैं; पर वह भी समान स्रष्टा है; क्या हुआ अगर उसके लिए सृजन पुलक और उन्माद नहीं, क्लेश और वेदना है?”

सन्नाटा छा गया। जमुना के ऊपर छाए हुए धुएँ में से जैसे एक नीरव साँय-साँय उमड़ने लगी...

“मैं अपने को मिटा नहीं रही-जिस शेखर को मैं देखती हूँ, उसके बनाने में मेरा बराबर का साझा होगा, इसलिए देने-लेने का कोई सवाल नहीं है; और तुम्हारा यह झिझकना और कृतज्ञता जताना ही अपमान है।”

और घना सन्नाटा, और फिर और भी नीरव साँय-साँय की ओर भी उच्छृङ्खल उमड़न-और उस उमड़न के बीच में से सहसा आलोक का लहरिल पारावार और शशि के अदूरत्व, अपार्थक्य का प्लवनकारी बोध-शेखर ने हठात् आगे बढ़कर केशों और त्वचा के संगम-स्थल पर शशि का माथा चूम लिया, और फिर साँस के-से स्पर्श से उससे ओठ...

“नहीं, शेखर, नहीं, वह नहीं-एकाएक टूटते-से स्वर में, “वे जूठे हैं!” दंशित-सी शशि पीछे हट गयी, और उसकी तीखी सिसकी सुनकर ही शेखर ने जाना कि क्या घटित हो गया है...और जानकर जैसे वह एकाएक जड़ित, हतसंज्ञ हो गया, और सामने शशि को रोती खड़ी देखकर भी न हिल सका, न बोल सका, निर्निमेष शशि के धुँधले चेहरे की ओर देखता रह गया।”

“शेखर-”

“...”

“शेखर मुझे क्षमा करो-वह नहीं...तुम नहीं जानते, मेरे जीवन का एक अंग है, जो जूठा हो गया है, और एक ऐसे व्यक्ति के स्पर्श से-जिसकी-छाँह से भी तुम्हें-बचाना चाहती हूँ...”

बहुत धीरे से, मानो अपनी ही वाणी से लज्जित, “शशि...”

सच कहती हूँ, तुम नहीं जानते...अगर जीवन से उसे बिलकुल निकालकर फेंक सकूँ, तो फेंक दूँ-पर सकती नहीं...मैंने उसको-अपने विवाह को बहुत निकट, बहुत सच मानकर झेला...इसके लिए तैयार थी कि वह मुझे मिटा दे, नष्ट कर दे; पर उसने नष्ट नहीं किया, केवल पंगु करके, जूठा करके छोड़ दिया...और अब...”

शेखर ने साहस बटोरकर एक हाथ शशि के कन्धे पर रखा और अनुभव किया कि कन्धा भी संकुचित हो गया है, फिर भी किसी तरह कहा, “शशि, मत रोओ...”

शशि सिसकती रही। शेखर ने फिर कहा, “तुम यों ही अपने को क्लेश दे रही हो-वह पात्र नहीं है, शशि...वह निकल गया है तुम्हारे जीवन से-अनुताप मत करो-उसके लिए रोना-”

एकाएक और भी फूटकर, बिखरकर शशि ने कहा, “मैं उसे कब रोती हूँ-मैं अपने प्यार को रोती हूँ, जो मैंने उसे दिया...”

रात मूर्तिमती करुणा है, अन्धकार देवताओं का कोई रामबाण मरहम है, जो कुल वेदनाओं की टीस को सोख जाता है...

अँधेरे में घिरे हुए उसे दुहरे एकान्त में एक-दूसरे की व्यथा के स्पन्दन को देखते हुए, न देखकर स्पष्टतर जानते हुए और इसलिए न देखकर आश्वस्त, शशि और शेखर चुपचाप पड़े रहे। शशि का सिसकना क्रमशः मूक हो गया था, और वह धीरे-धीरे टटोलती-सी भीतर चली गयी थी। देर बाद शेखर ने भीतर जाकर रसोईघर की बत्ती बुझा दी थी, और फिर अपने बिस्तर पर जा लेटा था...

अन्धकार में उसे कुछ नहीं दीखता था, किन्तु शशि की वेदना स्पष्ट दीखती थी...वह तो सदा दीख सकती थी, पर इस अँधकार में उसे कुछ अधिक भी दीख रहा था, जो पहले नहीं दीखा था...सप्तपर्णी की छाँह पारिजात की छाँह है, उसमें निरी सान्त्वना नहीं हैं, उसमें उत्साह है, उसमें गन्ध है, रस है, प्रस्फुटन है; निरा अतीत नहीं, उसमें स्पन्दित वर्तमान और, और उनींदा भविष्य भी है-और इसीलिए उसमें इतना बड़ा शून्य है, जो अभी तक नहीं भरा...

शेखर ने देखा, निर्निमेष आँखों से, निष्कम्प दृष्टि से देखा...देखा...देवता चौंक जाएँ सुनकर तो चौंक जाएँ-पर उस प्यार को कहना ही क्यों जरूरी है?

शेखर, तुमने आरम्भ से ही क्यों नहीं अपनी नियति को देखा?

जाड़ों का एक और प्रभात-वही क्रमशः धूसर, ताम्रलोहित, लाल और फिर सफेद होनेवाली प्रातःकालीन धुन्ध, फिर दिशाहीन आलोक, फिर अलसाई-सी पहली रविकिरण...किन्तु किरण से पहले ही शेखर उठा और शशि के कमरे की खिड़की के पास जा खड़ा हुआ, काँच पर जमी हुई नमी को एक उँगली से नीचे बहाकर, भीतर झाँकने लगा।

शशि सोई थी-मुद्रा से जान पड़ता था कि रात-भर जागकर अभी सोई है; उसका शरीर छुईमुई-सा सिकुड़ा हुआ था, पर तकिये पर एक ओर झुका हुआ चेहरा जैसे आगे उठा हुआ था, ओठ किंचित खुले थे, और माथे से आगे को लटक आया बालों का एक गुच्छा उसके श्वास-प्रश्वास के साथ झूल रहा था...

शेखर बहुत देर तक निश्चल खड़ा उसके चेहरे को देखता रहा-उसकी दृष्टि एक अत्यन्त स्नेहिल स्पर्श से उसे सहलाती रही, जैसे उस उन्मुक्त लट को शशि का प्रश्वास....शशि की पलकें पारदर्शी-सी जान पड़ती हैं, यह उसने पहले भी लक्ष्य किया था; पर अब उसे लगा मानो समूचा चेहरा पारदर्शी हो गया है-मानो इतने दिनों चुपचाप सही हुई यातना ने उस स्वच्छ त्वचा को और भी शोधकर एक आन्तरिक कान्ति दे दी है...शशि का चेहरा पीड़ित चेहरा नहीं है, और इस प्रशमन के क्षण में तो कदापि नहीं-किन्तु उसे देखकर सहसा किसी व्यापक शुभ्र वेदना का बोध हो आना अनिवार्य था-ऐसी वेदना, जो चाँदनी की तरह नहला और कँपा जाए...

‘नहीं, नहीं, शेखर, वे जूठे हैं-’ क्या कुछ भी ऐसा है, जो उस चेहरे को जुठला क्या, छू भी गया हो-जिस प्रकार श्वेत दीप्ति की सीमा तक तने हुए धातु को कोई छू नहीं सकता, उसी प्रकार यह वेदना से मँजा हुआ दीप्त चेहरा भी अस्पृश्य है-जब तक कि कोई समान दीप्ति ही उसे छू न ले-

किन्तु शशि की तपस्या क्या उसे सचमुच इतनी दूर ले गयी है-इतनी अलंघ्य, अपरिमेय दूर-क्या वह शोधक दुःख उसी के आगे स्फटिक की दीवार-सा आ गया है-जिसमें सब-कुछ अतिशय स्पष्ट दीखे, किन्तु हो अस्पृश्य?

धुन्ध का अन्तरालोक बढ़कर किरण बन गया; शेखर ने एक लम्बी साँस ली, जो हठात् शशि के लिए आशीर्वाद बन गयी, फिर दबे-पाँव वहाँ से हटकर काम पर जाने की तैयारियों में लगा...अच्छा ही है कि शशि अभी सोई रहे, विश्राम भी कर ले और-क्या जाने, उसके जागते ही वह घना संकोच भी उमड़ आये जो...

पेंटर-मंडली फिर दिन के अधिकांश भर काम करती रही; बोर्ड तैयार हो गये। साँझ को अभी सूखे भी नहीं थे कि ग्राहक लेने आ गया। दो उसी दिन चले गये और तीसरे के अगले दिन जाने की बात ठहरी-दो के दाम भी चुका दिए गये। शेखर ने आमदनी में दो हिस्से किये-एक उसका था, दूसरा दल का-दल अनेक प्रकार के खर्च चलाता है, जिसमें प्रत्येक सहयोगी को भी भरसक कुछ देना होता है...आय के पंचमांश से लेकर आधे तक देने की परम्परा है...

सात रुपये लेकर शेखर घर की ओर चला। यह अक्षरणशः पसीने की कमाई है-मजूरी है, और आज वह दल को भी कुछ दे सका है और अपने उद्योग का फल लेकर घर की ओर-शशि की ओर-भी जा रहा है...शशि, जो प्रिय सदा से थी, किन्तु जो-किन्तु जो-शेखर को शब्द नहीं मिलते, वह केवल कल्पना कर सकता है कि प्रिय का कोई विराट्-रूप हो, जिसमें जीवन की इयत्ता समा जाए, तो वही रूप शशि ने धारण कर लिया है...

किन्तु कल जिस उत्साह से वह काम मिलने की बात लेकर घर लौटा था, आज न जाने क्यों काम का फल लेकर लौटने में वह उत्साह नहीं जागता, ज्यों-ज्यों वह घर के समीपतर आता जाता है, त्यों-त्यों एक अज्ञात आशंका, एक झिझक उसे पकड़ रही है...निस्सन्देह शशि आनन्दित होती, किन्तु वह जैसे डरता है, उस आनन्द में भी वह सहसा हताश हो जाएगा, और उस हताश को पहचानकर शशि भी न जाने किस अभेद्य दूरी में सिमट जाएगी...और यह है प्रेम का विराट्-रूप-निस्संशय विराट् और निस्संशय प्रेम...!

घर के बाहर वह क्षण भर रुका तो ठिठका रह गया। भीतर शशि गा रही थी-पंजाबी के टप्पे-पहाड़ी सुर में, जो वैसे ही पहाड़ों के सूने अकेलेपन का, अगम्य ऊँचाइयों और अलंघ्य दूरियों का सुर होता है, और जो शशि के गले की गूँजती हुई तरलता के कारण और भी असह्य हो गया था, मानो किसी निर्व्यैक्तिक असीम विरह का सुर हो...

दो पत्तर अनाराँ दे-

दुःख साड्ढा समझनगे

दो पत्थर पहाड़ाँ दे!

मेरा चोला लीराँ दा-

इक वारी पा फेरा

तक हाल फकोराँ दा!

शेखर को एक ग्रीक गाथा याद आई, जिसमें किसी दुःखिनी वनदेवी के आँसू कलस्वनित जल-प्रपात बन जाते हैं, जिसका प्रवाह हर आते-जाते पथिक के भीतर करुण चीत्कार कर उठता है और एक टीस छोड़ जाता है-फिर उसने धीरे-धीरे भीतर प्रवेश किया...

आहट सुनते ही शशि चुप हो गयी; वह मौन एकाएक शेखर को इतना घना लगा कि उसने तत्काल कुछ कहने के लिए कहा, “लो, आज कमाई करके लाया हूँ।”

“अच्छा? कितनी-” शशि हँसने का प्रयत्न करती है।

“तुम लो तो, बहुत है-वे हिसाब। लो, हाथ बढ़ाओ-”

शेखर एक-एक दो-दो करके रुपये निकालकर शशि के हाथ में रखने लगा। जब सातों रुपये निकल आये और उसका हाथ रुक गया, तब शशि ने चिढ़ाते हुए स्वर में कहा, “और?”

“और क्या? एक दिन की तो कमाई है।”

शरारत से हँसकर, “बस, कुल इतनी ही? इसी के लिए हाथ फैलाने को कहते थे?”

थोड़ा-सा चिढ़कर पर हँसते-हँसते ही शेखर ने कहा, “और क्या अब-जो कुछ था, सब तो दे दिया-” और एकाएक अपनी बात के गूढ़तर अभिप्राय से स्तम्भित होकर चुप हो गया।

उस चुप्पी से वह गूढ़तर आशय शशि पर भी व्यक्त हो गया, उसका चेहरा गम्भीर हो आया, आगे बढ़ा हुआ हाथ नीचे लटक आया, और वह धीरे-धीरे भीतर चली गयी। भीतर शेखर ने रुपये रखे जाने की खनक सुनी, फिर स्वयं बरामदे की ओर चला गया।

फिर एक सूनापन उसके मन में छा गया-आँखें अनदेखी हो गयीं...उस शून्य में वह धीरे-धीरे शशि से सुने हुए शब्द गुनगुनाने लगा-

दुःख साड्ढा समझनगे

दो पत्थर पहाड़ाँ दे-

दो पत्थर पहाड़ाँ दे-

पत्थर क्या समझेंगे दुःख-शायद यही अभिप्राय है कि उस दुःख को कोई नहीं समझ सकता...दो पत्थर पहाड़ाँ दे...किन्तु पत्थर पहाड़ों के हैं, जिन्होंने सदियों तक बर्फ़ीली आँधियों के प्यासे प्यार के नीचे चोटियों को छीजते देखा है, सदियों तक पवन को अँधी उँगलियों से नंगी चट्टानों पर जीवन की हरियाली की एक छोटी-सी फुनगी को भी छू सकने की निराशा में हाहाकार करते देखा है, जो अभिमान कि ऊँचे-ऊँचे उठे हैं और अहंकार की तरह ढह गये हैं-पहाड़ों के पत्थर शायद सचमुच दुःख को समझ सकते हों...”दुःख साड्ढा समझनगे दो पत्थर पहाड़ाँ दे...”

शशि फिर उसके पास आकर चुपचाप खड़ी हो गयी। शेखर को उससे पहली साँझ याद आ गयी; और एक क्षण के लिए उसे लगा कि उस साँझ की घटना की आवृत्ति दिनों के बाद दिनों और बरसों के बाद बरसों तक होती चली जा सकती है-निष्परिणाम आवृत्ति...और फिर भी वह कुछ नहीं माँग सकता, क्योंकि उन दोनों की धमनी एक है, चाहे शाप की एकता से एक, चाहे वरदान की...

शशि ने कहा था, वह सृष्टि है, जिसमें वह सहभागी है, समान स्रष्टा है...किन्तु यह निर्माण है, रचना है-जीवन के अशेष विफ़ल-पथ पर यह अन्तहीन अभियान?

“शेखर, मैं वापस चली जाऊँ?”

“कहाँ-”

“वापस-वहाँ जहाँ दे दी गयी थी-”

चकित और आहत स्वर में शेखर ने पूछा, “शशि, क्या कह रही हो तुम-वहाँ वापस! यह क्या अभी हो सकता है?”

“हाँ। वे-प्यार देना जानते होते तो शायद न हो सकता; पर अभी शायद-हो सकता है। अधिक-से-अधिक-”

“वह मैं नहीं पूछता शशि, तुमसे पूछता हूँ-क्या यह अभी हो सकता है-तुम्हारी ओर से अभी-”

“ओह मैं...शेखर, मैं देख रही हूँ कि मैं तुम्हारे मार्ग में बाधा हूँ तुम्हें नीचे खींच रही हूँ। और वह मैं कभी नहीं होने दूँगी-उससे कहीं आसान है लौट जाना-”

“तुम कैसी बातें करती हो, शशि? मेरी तो बात ही अभी छोड़ो-तुम लौटने की सोच कैसे सकती हो-”

“क्यों? अगर उसमें तुम्हारी उन्नति है, तुम्हारी सुविधा है, तो-”

“और तुम्हारी अपनी आत्मा कुछ नहीं है? ऐसा कोई कुछ नहीं हो सकता जिसके लिए आत्मा का हनन-”

“मेरी आत्मा उसमें नहीं मरेगी, शेखर। मैं वहाँ भी जी लूँगी-जी सकूँगी-क्योंकि तुम्हें बचाती रहूँगी-तुम्हें बढ़ाती रहूँगी।...तुमसे दूर हटती हूँ, शेखर, क्योंकि पंगु हो गयी हूँ; इसलिए नहीं कि-प्यार का अर्थ नहीं जानती। कोई स्त्री प्यार नहीं जानती, जो एक साथ ही बहिन, स्त्री और माँ का प्यार नहीं देना जानती-और मैं लौटकर इसलिए जी सकूँगी कि-माँ की तरह तुम्हें पाल सकूँगी-तुम नहीं जानते कि यह विश्वास मेरे लिए कितना आवश्यक है-अब और भी अधिक।...मैं जरूर जी लूँगी। जीवन वह कीड़े का होगा, पर नारी अग्निकीट हो सकती है, जिसके पेट में निरन्तर आग जलती है...”

शेखर ने क्षुब्ध स्वर से कहा, “मैं यह सब नहीं सुनूँगा, शशि; तुम तो पागल हो गयी हो-मनोवैज्ञानिक केस हो गयी हो। तुम-” शब्द न पाकर उस कमी को आवेश द्वारा पूरा करते हुए, “तुम निरी हिन्दू हो गयी हो-आत्म-पीड़न को तपस्या माननेवाली हिन्दू! पर तुम्हारा आत्म-हनन मुझे स्वीकार नहीं है-और वैसी मूर्खता दो जन भी कर सकते हैं।”

शेखर ने देखा कि शशि चुपचाप रो रही है। न जाने क्यों एकाएक कड़े पड़कर उसने कहा, “शशि, तुम्हारे दुःख से मेरा कुछ बने, तो धिक्कार उस बनने को! तुम्हारे-”

“तुम नहीं समझते, शेखर; तुम समझते हो, मैं दुःख को तूल दे रही हूँ। क्या मैं चाहती हूँ वहाँ लौटना? पर मैं प्यार का नाम नहीं लेती, क्योंकि-मुझसे नाम लिया जाता नहीं-उतना प्यार तुम सोच भी नहीं सकते, शेखर!”

और उसे फिर वहीं आहत और निर्वाक् छोड़कर शशि भीतर चली गयी; और थोड़ी देर बाद उसकी सिसकियों का दुर्बल स्वर शेखर तक पहुँचने लगा...

क्या शशि ठीक कहती है? अगर शशि उसे नीचे घसीटती है, तो और क्या है जो उसे उठाएगा, उसे रसातल ही जाने से बचा लेगा? और पंगु होने की बात-क्या वह शशि के भीतर की ही कठोर निर्ममता नहीं है, जो उसे पंगु बनाती है, जिसने उसके जीवन को एक गाँठ में बाँध दिया है और खुलने नहीं देती-क्या उस गाँठ को चुपचाप स्वीकार करना ही कर्तव्य है, क्या उसमें बँधे हुए जीवन को विद्रोह के लिए उभारना कर्तव्य नहीं है? अगर जीवन वरदान है-अगर जीवन कुछ भी अर्थवाद है, तो उसकी प्लवनशीलता को बनाए रखना कर्तव्य है; डूब जाने को निरीह भाग्यवाद से स्वीकार कर लेना जीवन की अवहलेना है और पाप है-हार ही झूठ है, हारा हुआ ही झूठा है; जो परास्त नहीं है, उसमें मलिनता कौन-सी है? शशि आहत है, किन्तु जो ग्लानि उसे सुझाती है कि जीवन जूठा हो गया है, क्या वह ग्लानि ही इस बात का प्रमाण नहीं है कि जीवन की शक्ति परास्त नहीं हुई-और इसलिए जूठी भी नहीं हुई, अनाहत और अनवत है? नहीं, शशि को हारने नहीं देना होगा, इस तरह घुल जाने नहीं देगा होगा-वह स्वयं नहीं लड़ती तो उसकी ओर से लड़ना होगा-

शेखर ने शशि के पास जाकर कहा, “सुनो, शशि, तुमसे कुछ बात कहने आया हूँ।”

शशि ने अपना गीला चेहरा उसकी ओर फेरकर एक बार देख दिया, बोली नहीं। शेखर दोनों हाथों से उसका सिर पकड़कर अचंचल आँखें उसकी आँखों पर टिकाकर, धीरे-धीरे, शब्दों पर जोर देता हुआ बोला, “तुम कहीं जाओगी नहीं; और-हारोगी नहीं, और-डरोगी नहीं।” फिर हाथों की जकड़ ढीली किये बिना आगे झुककर एक बार फिर उसने शशि के ओठ अपने ओठों से छू लिये। शशि का सिर पीछे को ऐंठा हुआ था, सारी देह काँप रही थी, और आँखें बन्द थीं; सिर उठाकर शेखर ने शशि की बन्द गीली काँपती हुई पलकों को देखा और एक बार आगे झुककर उसके ओठ चूम लिए। ओठ भी काँप रहे थे, और आँसुओं से खारे थे...

फिर शेखर ने सिर छोड़ दिया और शशि के कमरे से बाहर चला आया, बत्ती जलाई और रसोई में जाकर बर्तन इधर-उधर करने लगा...थोड़ी देर में खिचड़ी तैयार हो गयी, पहले से आया रखा दूध गर्म हो गया, और तब उसने शशि के कमरे के सामने जाकर कहा, “शशि, उठो, खाना तैयार है। मुँह-हाथ धो लो।”

भीतर से स्थिर, सधे हुए स्वर ने कहा, “आई।”

उस स्वर की शान्ति ने जैसे शेखर को आश्वासन दिया। शायद जीवन अभी असम्भव नहीं हो गया है...

कहते हैं कि वासना नश्वर है, प्रेम अमर। दोनों में कोई मौलिक विपर्यय है या नहीं, नहीं मालूम; किन्तु यदि ये दो हैं तो यह बात कितनी झूठी है! प्रेम के एक ही जीवन है; वह एक बार होता है और जब मरता है तो मर जाता है, उसे दूसरा जीवन नहीं मिलता। अमर तो वासना है, जो चाहे खंडित होकर गिरे, चाहे तृप्त होकर, गिरते-न-गिरते रक्तबीज की तरह नया जीवन पाकर फिर उठ खड़ी होती है...

शिक्षा, सभ्यता, संस्कार...हमें अपने से ऊपर उठाते हैं, अपने व्यक्तित्व की सीमाओं से निकालकर एक बृहत्तर अस्तित्व के, उच्चतर, अपर-लौकिक, बल्कि सार्वलौकिक अनुभूति के क्षेत्र में ले जाते हैं।

किन्तु व्यक्ति-जीवन की कितनी बड़ी गाँठ है संस्कार और शिक्षा! क्योंकि जो भी शिक्षित हैं, जो संस्कारी जीवन के सूक्ष्मतर स्पन्दों को पहचानते हैं (वे स्पन्दन जो निरे शिष्ट लोकाचार से गहरे कुछ हैं), वे जीवन के महान् क्षणों में-प्रेम के या किसी भी गहरे भाव-विलोड़न के क्षण में सहसा पाते हैं कि उसमें पूर्णता नहीं है, तन्मयता, चूड़ान्त तद्गति नहीं है, है एक अद्भुत असंगत तटस्थता-स्वयं अपने गहरे भावों से एक प्रकार का अलगाव, जो कर्ता को ही कर्म का दर्शक और आलोचक बना देता है-अर्थात् अपने को अपनेपन की सम्पूर्णता से बहिष्कृत कर देता है...हम कल्पना में चित्रित करते हैं एक प्रेयस (अथवा प्रेयसी) जो कि हमारी आत्मा के सूक्ष्मतम कम्पन के साथ स्पन्दित हो सकता है (या हो सकती है); जो कि न केवल हमारे शारीरिक और सामाजिक अस्तित्व का सहभागी हो सकता है, बल्कि हमारी कोमलतम और अत्यन्त व्यक्तिगत सूक्ष्म अनुभूतियों में भी साझा कर सकता है-कला की, कविता की, संगीत की, यहाँ तक कि सुख-दुख की भी अनुभूतियों का साझा...किन्तु वास्तव में प्रेम में हम पाते हैं कि हम कहीं भी, कभी भी, अपने अलग व्यक्तियों को एक में या दूसरे में या प्रत्येक को दोनों में नहीं लीन कर सकते...सख्य होता है, सम्बन्ध होता है, बड़ी अन्तरंग अभिन्नता का सम्बन्ध, किन्तु सदैव वह सम्बन्ध एक माध्यम का आश्रित होता है, हमारे अस्तित्व से बाह्य कुछ के अधीन होता हैं-किसी चित्र के, विचार के, कविता के, गीत के, ध्वनि के, सुन्दर स्वप्न के जो कि हमारा ही है, पर हमारा होकर भी अन्ततः हमारा नहीं है, क्योंकि हम स्वयं एकान्त हम नहीं है, उस मौलिक और आत्यन्तिक ‘हम’ की एक शिक्षा-मंडित, संस्कारी सभ्य केंचुल हैं...

दिल सुन्दर थे और बबूल के फूलों के गन्ध को उड़ाते हुए समीर में एक स्निग्धता आ गयी थी, जिसमें और अनेक प्रकार का सौरभ अँगड़ाइयाँ लेता...और शशि के उस पहले विक्षोभ का तीखापन दब गया था। वह शान्त थी, और शेखर को लगता था कि इस सख्य के बाहर कुछ नहीं है-यानी मूल्यवान् कुछ नहीं है, और यहाँ सख्य ही सिद्धि है और सुख है...किन्तु चेतना के इस स्तर को आड़े काटता हुआ एक दूसरा स्तर था, जो कहता था कि काम है, कि समष्टि के प्रति व्यक्ति का देय है, कि अपूर्ति है और कुंठा है और इसलिए विद्रोह है, कि उलझनें हैं और गाँठें है और रस्सियाँ और बन्धन हैं और इसलिए क्रान्ति है; और एक तीसरा स्तर था कि सूम की तरह जो धन बटोर वह बैठे रहना चाहता, वह अपने-आप नष्ट हो रहा है, कि शशि शान्त है, पर घुल रही है, और एक दिन सहसा लुप्त हो जाएगी...और स्तरों में बँटे हुए इस जीवन का क्षोभ सहसा उसमें फूट पड़ता सब बन्धन रड़क उठते, और वह चाह उठता कि किसी तरह यह उलझन कट जाए; चाहे फिर इसके साथ उसका कोई अंग ही क्यों न कटकर चला जाए...फिर वह सोचता, यह सब विक्षोभ उस असन्तोष के संस्कार का ही फल है, जिसमें उसका अन्तर रँगा गया है; तब वह माँगने लगता कि यह विद्रोही आत्मा ही किसी तरह कुचली जाए, छिन्न-भिन्न हो जाए; ताकि वह अपने-आपको बँधने और पालतू बनाया जाने दे सके-न केवल बद्ध और आनत, बल्कि स्वेच्छा से और अनुगत भाव से बद्ध-ताकि वह विद्रोह का अनवरत, आग्नेय, कसमसाता अधीर उत्फोट भूल जाए...आग की लौ का धर्म है ऊपर उठना, इस ज्ञान में कोई असन्तोष नहीं था जब वह सब कुछ भस्म नहीं कर सकती थी और न मिटा ही सकती थी...

अगर वह अनपढ़ गँवार होता, अगर वह पशु होता-कुछ भी होता जो कि वह सम्पूर्णतया हो सकता, कुछ भी जिसमें कि वह निर्द्वन्द्व आमस्तक डूब सकता...

‘रंगसाजी के कारखाने’ में क्रमशः काम आने लगा, और थोड़ी-बहुत आमदनी होने लगी। जैसा जीवन शेखर बिता रहा था, उसका खर्च इस आमदनी में-आमदनी के उस आधे अंश में जो उसका था-मज़े में चल सकता था। लोगों से मिलने-जुलने से उसने दिल्ली आने का निश्चय करने के पूर्व ही संन्यास ले लिया था, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि शशि को फिर तिरस्कृत होकर शहर छोड़ना पड़े; और इन दिनों राजनैतिक आन्दोलन के हो-हल्ले के कारण वह भी अलग रहता था-दल के सभी लोगों ने मिलना-जुलना यथासम्भव कम कर दिया था और केवल गिने-चुने ‘सहायकों’ से मिलते थे; सम्पर्क का काम, और कम गोपनीय पत्र-व्यवहार सब इन्हीं की मार्फ़त होता था, और चन्दा आदि भी इन्हीं की मार्फ़त उगाहा जाता था। इसलिए ‘सामाजिक खर्च’ के नाम पर कोई खर्च शेखर को नहीं करना पड़ता था, व्यसन कोई विशेष था नहीं, और मनोरंजन की, सिनेमा-तमाशे की उसे कभी सूझी ही नहीं,-न शशि को ही।

किन्तु दूसरी ओर शशि की हालत फिर गिरने लगी थी; वह कुछ कहती नहीं थी, लेकिन शेखर उसके चेहरे पर पढ़ लेता था कि वह घोर यातना भुगत रही है। डॉक्टर के आदेश यथासम्भव पालने और पलाने का वह यत्न करता था, और कोई विशेष व्याघात भी उसमें नहीं पड़ता था, क्योंकि शशि आश्चर्यजनक रूप से अनुगत और ‘आज्ञाकारिणी’ होती जा रही थी; किन्तु फिर भी उसका शरीर क्रमशः दुर्बल होता जा रहा था और कभी-कभी दर्द में वह सहमा आँखें बन्द करके इतनी निश्चल हो जाती थी कि शेखर सोचने लगता, वह क्या प्रत्येक बार बेहोश हो जाती है? वह शशि को लेकर एक प्रसिद्ध डॉक्टर के पास गया था, उन्होंने देखकर रोग का इतिहास पूछा था, फिर पुरानी सब हिदायतें दुहराकर कहा था कि गुरदे के कारण बड़ी एहतियात की ज़रूरत है, और फिर पेट का भी एक्स-रे कराने का परामर्श दिया था। तीन-चार दवाएँ भी बतायी थीं...शशि की अनिच्छा रहने पर भी एक्स-रे लिया गया था और डाक्टर के पास पहुँचा दिया गया था; शेखर के शशि को फिर ले जाने पर उन्होंने देर तक एक्स-रे के प्लेट को देखकर गम्भीर स्वर से कहा था, “हूँ, मेरे सन्देह का खंडन नहीं होता...पर देखें-” और समझाने लगे थे कि कैसे पीठ को ठंड और नमी से बचाना बहुत ज़रूरी है, और पूरा विश्राम, और मानसिक शान्ति, और फल और नरम शाक, और किसी तरह की भी उत्तेजना का निवारण...

इन सबमें खासा खर्च होता था...शशि पर उसकी चिन्ता का कुछ असर न हो, इस अभिप्राय से वह बहुत तड़के उठने लगा; उठकर वह आवश्यक व्यवस्थाएँ करके घूमने चला जाता और घूमते-घूमते अपनी चिन्ताओं को थका डालने का उद्योग करता, ताकि जब लौटे तो स्वच्छ मन लेकर लौटे...नदी के किनारे-किनारे बेलारोड के आरपार घूमकर कभी वह खेतों में भी मुड़ जाता; एक दिन खेत पार करते हुए उस बड़े से पौधे में से दो-चार टमाटर तोड़ लिये और घर ले आया; अगले दिन से वह बिना विशेष कुछ सोचे ही चादर ओढ़कर घूमने जाने लगा तरकारी के खेतों के किनारे-किनारे वह घूमता, और प्रतिदिन नये स्थल से कभी टमाटर तोड़ लेता कभी गोभी का अच्छा-सा फूल काटकर या शलगम के चार-छः पौधे उखाड़कर अपनी चादर के नीचे कर लेता और घूमता हुआ आगे बढ़ जाता; फिर घर पहुँचकर वह शशि के लिए शाक बनाता और सामने खिलाकर, स्वयं खाकर काम पर चला जाता...यह चोरी है, इस ओर उसका तब ध्यान ही नहीं गया; तरकारी शशि के लिए आती है और इस प्रकार जो पैसे बचते हैं, उनसे दवाएँ लाने में सुविधा होती है, इतना ही सोचकर वह गया था। केवल एक दिन जब गोभी का फूल तोड़कर उसने चादर में छिपाया, तब आहट-सी पाकर वह चौंका और कुछ घबराया-सा; तब उस घबराहट को लक्ष्य करके उसने सोचा कि वह जानता है कि वह पाप कर रहा है; किन्तु आखिर कितनी हानि वह पहुँचाता है किसी को? इतना तो चिड़ियाँ चुग जाती है या ढोर चर जाते हैं-इतने बड़े खेत में दो-एक गोभी के फूलों से क्या होता है, और टमाटर तो हाट तक जाते-जाते कितने ही पिचक जाते हैं-इस प्रकार के मिथ्या तर्कों से उसने अपने को शान्त कर लिया...

किन्तु शशि की अवस्था में फिर भी कोई विशेष सुधार नहीं दीखा; डॉक्टर ने केवल फलों के रस की व्यवस्था दी, और शशि की पारदर्शी त्वचा और भी स्वच्छ और कान्तिमान हो आयीं, आँखें और बड़ी दीखने लगीं; और प्रतिदिन शेखर के काम से लौटने पर शशि की स्वागत की आतुरता बढ़ने लगी...घर लौटकर अपनी इतनी उत्कंठित प्रतीक्षा और इतना आश्वस्त अभिनन्दन देखकर उसका हृदय सहसा द्रवित हो आता-शशि के वहाँ होने मात्र से दुनिया कितनी भिन्न है...कारखाने में पेंटरी के काम के साथ-साथ और भी काम उस पर आ पड़ा था-राजनैतिक तनाव के इन दिनों में उसके दल ने भी अपना कार्यक्षेत्र प्रसारित करने का निश्चय किया था और उसे प्रतिदिन किसी-न-किसी विषय पर अपील या पैम्फलेट लिखकर देना पड़ता था। यह भी उसे मालूम हुआ था कि उसके सहकारी, जेल पर आक्रमण करके अपने कुछ विशिष्ट सदस्यों को छुड़ाने की योजना बना रहे हैं और इसमें उसके लिए भी कार्य निश्चित कर दिया गया है, शीघ्र ही उसे एक पिस्तौल भी दी जाएगी; इन सब सूचनाओं से उसका मन उद्वेलित रहता और अनेक प्रकार के प्रश्न, दुविधाएँ और दुश्चिन्ताएँ उसके मन में भरी रहतीं; पर लौटकर शशि का मुँह देखते ही जैसे यह सब अननिवार्य, अमौलिक, अनात्यन्तिक सूखे पत्ते-सा झर जाता और रह जाता शिशिर-वासन्ती आकाश-शशि को आँखों का आकाश...

कभी वह बोल भी न सकता, उठकर बैठी हुई शशि को लिटा देता और सिरहाने बैठकर चुपचाप उसका माथा थपकता रहता; उठकर काम करने की, आग जलाने और भोजन तैयार करने की बाध्यता उसे अखर जाती। वह सोचने लगता कि खाना ही क्यों आवश्यक हैं; शशि के लिए फलों का रस और गर्म दूध ज़रा-सी देर से तैयार हो जाएगा, वह यों ही रह लेगा या बासी खा लेगा-आगे से वह एक ही वक्त अधिक बना लिया करेगा...कभी शशि कहती, “शेखर, तुम खुश नहीं दीखते, क्या बात है?” तब जैसे वह भीतर-भीतर उमड़ आता...शशि का माथा थपकते-थपकते जैसे उसके ताल पर प्राण एक विषण्ण संगीत से गूँज जाते; शेखर का मन उलझे हुए विचारों से भर जाता और कभी ये विचार मुखर भी हो उठते, शेखर धीरे-धीरे अपना मन शशि को बताने लगता और वह चुपचाप सुनती रहती...

एक दिन अचानक शेखर को बताया गया कि उसके ‘सहकारियों’ में से एक, जो युक्तप्रान्त के किसी नगर से भागा हुआ एक इनामी षड्यन्त्रकारी है, शहर में पुलिस द्वारा पहचाना गया है, अतः सम्भव है कि पुलिस उस ‘कारखाने’ का भी पता पा जाए, और उसे चौकन्ना रहना चाहिए। उस दिन तीनों सहकारियों का सहकार समाप्त होगा-दो उसी दिन कहीं चले गये-बाद में शेखर को मालूम हुआ कि कानपुर चले गये थे-और तीसरे का, जो शहर में पहचाना गया था, तत्काल बाहर जाना सम्भव और उचित न समझा जाने के कारण निश्चय हुआ कि वह दो-तीन दिन शेखर के यहाँ रहेगा और मौक़ा लगते ही अन्यत्र चला जाएगा। फलतः दोपहर को ही शेखर घर लौट आया-तय हुआ था कि अपराह्न में किसी समय मेहमान उसके यहाँ पहुँच जाएगा, उसके साथ ही शहर पार करके नहीं आएगा।

जल्दी लौट आने से शशि प्रसन्न होगी-मेहमान के आने से दो-तीन दिन तक उनके सख्य में बाधा पड़ेगी; इन दो विरोधी विचारों को लेकर शेखर जब घर पहुँचा, तो शशि ने अचकचाकर अपने आगे फैले हुए पन्ने समेटते हुए पूछा, “आज अभी कैसे-”

“क्या लिख रही हो-छिप-छिपकर कोई पोथा लिख रही हो क्या? मुझे तो मालूम ही नहीं-”

“कुछ नहीं, चिट्ठी लिख रही थी...”

“इतनी लम्बी चिट्ठी? किस पर इतनी कृपा-”

शेखर उसे चिढ़ाना चाहता था, पर उसके मुँह पर संकोच के भाव को लक्षित करके चुप रह गया। यह भी उसने देखा कि शशि का चेहरा असाधारण पीला है, और थकान के चिह्न उस पर स्पष्ट हैं...एक द्रुत छाया-सी उसके मन में दौड़ गयी कि शायद रामेश्वर को पत्र लिख रही हो-क्योंकि मौसी को होता तो छिपाती क्यों; पर क्या मालूम इसलिए छिपाती हो कि शेखर की बात लिखी हो-जो हो...बोला, “यों ही जल्दी आना हो गया, एक मेहमान आनेवाले हैं।”

“मेहमान-हमारे यहाँ? कौन?”

“हैं एक। और शशि, बड़े संकोची जीव हैं-मेरे साथ नहीं आये, बोले कि पहले जाकर शशिजी को बता दो, नहीं तो मुझे डर लगता है और सामने परिचय कराओगे तो शर्म आएगी!”

“धत्। आखिर है कौन? इतने संकोची हैं तो सीढ़ियों के ऊपर के आले में टिका देना-मेरे सामने ही नहीं आना पड़ेगा-”

शेखर हँसने लगा। फिर उसने पूरी घटना शशि को बता दी।

शशि ने कुछ चिन्तित स्वर से पूछा, “वे सन्दिग्ध व्यक्ति हैं-तो पुलिस यहाँ भी आ सकती है?”

“हाँ, अन्देशा तो नहीं है, पर सम्भावना तो है ही-क्यों, घबराती हो?”

शशि ने अनमने भाव से कहा, “नहीं, घबराना क्या-” पर तब स्वयं शेखर के मन में यह सम्भावना दौड़ गयी कि यदि सचमुच पुलिस आकर मेहमान के साथ उसे भी ले जाए, तो अकेली शशि...इस विचार ने आतिथ्य के मामले को एक नया रूप दे दिया, शेखर-चुपका-सा हो गया; फिर थोड़ी देर बाद बोला, “शशि, छोड़ो सोच को-जल्दी से कुछ व्यवस्था कर डालूँ...”

“क्या व्यवस्था करोगे?”

“पहले तुम लेट जाओ; देखती रहो कि मैं सब कामों में कितना दक्ष हो गया हूँ!”

बहस के बाद तय हुआ कि शेखर के कमरे में मेहमान और शेखर दोनों फ़र्श पर सोएँगे-यदि मेहमान शेखर की चारपाई लेकर उसे अकेले नीचे सोने देना न पसन्द करेंगे। शशि का आग्रह था कि वह नीचे सोएगी और उसकी चारपाई ले ली जाए, पर उसने अधिक हठ नहीं किया। बिस्तर मेहमान अपना लावेंगे-न लावेंगे तो उस समय कहीं से माँग लिया जाएगा। भोजन का निश्चय उनके आने के बाद होगा-सम्भव है, वे खाने अन्यत्र चले जाया करें। यहाँ तक फैसला होने के बाद शशि ने हँसकर पूछा, “तो व्यवस्था क्या करनी है?”

व्यवस्था की बात केवल एक निकली कि अपने कमरे से कापियाँ और पुस्तकें शेखर लाकर शशि के कमरे में डाल देगा, और इधर से एक छोटी चौकी उठाकर उधर रख लेगा, जो मेज, तिपाई और डेस्क का काम देगी...

मेहमान आकर टिक गये। नाम-मात्र बिस्तर वे साथ लाए थे, और कुछ सामान नहीं था। मालूम हुआ कि साँझ का भोजन वे घर पर किया करेंगे, किन्तु दिन भर कोई भरोसा न किया जाए; वे दिल्ली से निकलने के प्रबन्ध में घूमते फिरेंगे और जहाँ मौका लगेगा, खा-पी लेंगे...

भोजन करके वे बहुत जल्दी सो गये; अगले दिन सवेरे शेखर की नींद खुली तो उसने देखा कि वे बाहर जाने के लिए तैयार हैं। शाम को लौटने का कहकर वे चले गये। जाने लगे तो शशि ने अचानक कहा, “देखिए, आप दिन भर इसलिए बाहर रहने की सोचते हों कि मैं यहाँ अकेली हूँ, तो आपको जता दूँ कि मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी; आप दिन भर यहाँ रह सकते हैं। मैं कोई आतिथ्य नहीं कर सकूँगी, इसका ज़रूर मुझे खेद है; शेखर की अनुमति नहीं है-”

शेखर ने भी कहा, “हाँ, कहीं सचमुच इसीलिए तो नहीं-”

मेहमान कुछ झेंपकर बोले, “थोड़ा-सा संकोच तो था, पर-” शशि की ओर देखकर, “आपका कृतज्ञ हूँ। अगर यहाँ आना ही ठीक जान पड़ा, तो अब संकोच के कारण नहीं रुकूँगा।”

कारखाने में शेखर अकेला था, काम हाथ में होने से वह बराबर उसमें जुटा रहा, किन्तु मन उसका वहाँ नहीं था; शशि का चिन्तित, पीला चेहरा बार-बार उसके सामने आ जाता, और बार-बार यह विचार उठता कि शशि की और उसकी यह समस्या केवल आन्तरिक नहीं है, बाह्य भी है, आध्यात्मिक प्यार की ही नहीं, लौकिक जीवन की भी है; इतना ही नहीं, वह केवल उन दिनों की नहीं, बल्कि उस सारे जीवनपुंज की समस्या है, जिससे उनकी परिचिति है...और इससे आगे बढ़कर कि यही प्यार नहीं, सभी प्यार-प्यार मात्र-मूलतः एक समस्या है और दो इकाइयों तक सीमित नहीं है...कितने सूत्र-पक्के और दुर्बल, मोटे और सूक्ष्म, सीधे और आड़े, उस समस्या में उलझे हुए हैं और उसे विकट बनाते हैं...मूल्य समस्या सामंजस्य की है; प्यार एक आकर्षण है, एक शक्ति, जिससे जीवन की स्थितिशीलता विचलित हो जाती है, यह विचलन ही समस्या है, क्योंकि यह व्यापक है, मौलिक है, जीवन के ‘तरवार की धार पर’-असंख्य धारों पर!-सधे हुए समतोल को डगमगा जाती है...तब तक समस्या है जब तक कि उतना ही व्यापक सामंजस्य फिर न खोज निकाला जाए...समस्या है और साधना है, तपस्या है...और समस्या के इस निरूपण तक पहुँचकर उसका मन फिर लौट जाता शशि के पीले चेहरे की ओर, और इतनी बड़ी उलझन में गुँथी हुई तात्कालिक छोटी-छोटी उलझनों की ओर...

पाँच बजने से कुछ पहले ही उसने जल्दी-जल्दी दूकान बन्द की और घर चला। दिन कुछ लम्बे हो गये थे, अब वह घर ऐसे समय पर पहुँचता था कि बरामदे में शशि के लिए शीतलपाटी और तकिया रखकर उसे वहाँ बिठाकर पास खड़ा होकर जमुना के पानी से लोहित हो उठने की प्रतीक्षा कर सके...

घर से कुछ दूर पर से ही उसने देखा, शशि द्वार पर खड़ी बाट देख रही है। उसे देख और पहचानकर वह तुरत चली गयी और चारपाई पर बैठ गयी। शेखर ने आकर पूछा, “क्यों, शशि?”

“कुछ नहीं-”

“कुछ तकलीफ़ है?”

“नहीं तो, अच्छी भली तो बैठी हूँ-”

“अभी तो बाहर खड़ी थीं-मैंने देख लिया था-”

“ओह, यों ही; सोच रही थी कि तुम कब लौटोगे, कहीं बहुत देर हो जाए”

“क्यों?” कहकर शेखर समझ गया कि शशि मेहमान की उपस्थिति के कारण चिन्तित है। थोड़ी देर चुप रहकर बोला, “कल से और जल्दी आ जाया करूँगा”

“नहीं, काम तो करना ही है। हाँ, लौटकर कुछ लिख-पढ़ सको-”

शेखर ने जैसे रहस्योद्घाटन करते हुए कहा, “कुछ तो कारखाने में भी लिखता रहा हूँ-काम तो और था नहीं-”

शशि ने किंचित् खिलकर कहा, “अच्छा-मुझे नहीं बताया।” फिर कुछ रुककर “यहाँ क्यों नहीं ले आते-जल्दी पूरा कर लेते-”

“नहीं शशि, अब यहाँ नहीं लिखता। तुम्हारे पास और कुछ नहीं करना चाहता-लिखना भी नहीं। ध्यान बट जाता है-”

शशि ने धीरे से कहा, “पागल!” और चुप हो गयी।

थोड़ी देर बाद मेहमान आ गये। भीतर आकर उन्होंने किवाड़ सतर्कता से बन्द कर लिए और शेखर की ओर देखकर कहा, “तुम आ गये, यह अच्छा हुआ।”

कमरे में जाकर उन्होंने कोट के नीचे से दो-एक बंडल निकालकर बिस्तरे पर रखे और फिर स्वयं बैठ गये। शेखर से कहा, “मेरी राय से किवाड़ उढ़का ही दीजिए-” और शेखर के वैसा कर देने पर धीरे-धीेर बंडल खोलने लगे। साथ-साथ बोले, “मैंने जाने का प्रबन्ध लगभग ठीक कर लिया है। परसों तड़के ही चला जाऊँगा-अगर कोई विशेष बाधा न हुई तो। पर कल कुछ आवश्यक काम करना है-और उसमें आपको मदद करनी होगी। इनको परखना है-”

शेखर ने देखा, एक बंडल में से तीन पिस्तौल, दूसरे में से विभिन्न साइज के दो रिवाल्वर और तीसरे में से अनेक छोटी-बड़ी गोलियाँ निकल आयी हैं। कुछ अचकचाकर उसने कहा, “मुझे क्या करना होगा-”

एक रिवाल्वर को हाथ से दुलराते हुए अतिथि बोले, “यह मेरा विश्वासी साथी है-इसे तो जानता हूँ। बाकी नये है। उन्हें टेस्ट करना है। जमुना के पार कहीं जगह देखकर कर लेंगे। उधर मौका ठीक है। फिर भी ‘लुक-आउट’ रखना जरूरी है, इसलिए-”

शेखर समझ गया। “कब चलना होगा?”

“तुम दोपहर को आ सकोगे?”

“अच्छा!”

भोजन करने के बाद मेहमान शेखर से क्षमा माँगकर फिर जल्दी सो गये। शेखर अनमना जागता हुआ लेटा रहा, फिर सोना असम्भव पाकर देखने उठा कि शशि न सोई हो तो उसके पास जा बैठे। पर शशि के कमरे में प्रकाश था-वह भीतर चला गया। शशि चुपचाप लेटी छत की ओर देख रही थी, उसकी चारपाई के पास नीचे दवात और कलम पड़ी थी और सिरहाने दो-चार कागज-

“क्या कुछ लिखने जा रही हो? मुझे दिखा दो-”

“नहीं, ये तो यों ही रखे हैं कि कुछ काम याद आ जाये तो-आजकल बहुत भुलक्कड़ हो गयी हूँ-”

शेखर ने तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा, फिर पूछा, “नींद आ रही है?-मैं थोड़ी देर बैठ जाऊँ-”

शशि ने चारपाई की बाही पर से कम्बल समेटकर जगह कर दी।

“मैं इधर सिरहाने बैठूँगा”, कहकर शेखर तकिये के कोने के पास बैठने लगा।

“नहीं, उधर मुझे दीखता नहीं, सामने बैठो।”

शेखर बाही पर आकर बैठ गया।

आया था वह साहचर्य के लिए, और वह निस्सन्देह उसे मिला, किन्तु कितना गूँगा साहचर्य! वह स्वयं भी कुछ नहीं बोल सका, शशि भी नहीं बोली, बल्कि अब उसने धीरे से आँखें भी बन्द कर लीं।

“सोती हो?”

“नहीं, रोशनी चुभती है-” और फिर मौन...

बात चलाने के लिए शेखर ने कहा, “मौसी का कोई समाचार नहीं आया-न जाने कैसी हैं और क्या सोचती हैं...”

“हमने भी तो नहीं लिखा-उन्हें ठीक पता मालूम है?”

“उन्हें तो डाकघर का ही पता दिया था, यहाँ डाकघरवालों को सूचना दी थी, पर चिट्ठी तो कोई आयी नहीं।”

“ठीक ही होंगी। लिखेंगी भी क्या-मैंने उन्हें तोड़ दिया है...”

शेखर ने धीरे से एक हाथ उसकी बाँह पर रख दिया।

“सोचती हूँ, गौरा को लिखूँ कि मुझे पता देती रहे। वह कर सकती है-अब तो बड़ी है और समझदार तो है ही।” फिर जैसे किसी अव्यक्त विचार का अनुसरण करते हुए, “तुम्हारी तो भक्त है।”

“मेरी-क्यों?”

“जब से जेल गये हो तब से। वह बोलती-बालती कुछ नहीं, पर सोचती बहुत है।”

फिर सन्नाटा छा गया। एकाएक शशि ने पूछा, “किवाड़ बन्द करके क्या कर रहे थे?”

“कुछ नहीं-वे परसों जा रहे हैं।”

“इसलिए किवाड़ बन्द किये थे? कमरे से अन्तर्धान होंगे? और फिर अभी? दो दिन हैं-”

कुछ रुककर शेखर ने बता दिया। “शशि, तुम्हारे ही बचाव की बात सोची होगी उन्होंने-पिस्तौल वगैरह छिपा रहे थे।”

“पिस्तौल किसलिए लाए हैं?”

“पास रखते हैं-ज़रूरत पड़ सकती है।”

“थोड़ी देर बाद, परसों कब जाएँगे?”

“तड़के।”

“कैसे?”

“पता नहीं-यहाँ से चले जाएँगे। पूछना उचित भी नहीं है-बे-मतलब बात जितनी कम जानी जाए, उतना ही अच्छा है-”

“हूँ।”

फिर बातचीत बन्द हो गयी।

“शेखर, तुम पर संकट हो, तो तुम भी पिस्तौल लिए फिरो?”

“...”

“अपने को खतरा हो सकता है, इसलिए दूसरे को मारने को हर वक्त तैयार रहना मुझे तो ठीक नहीं लगता-”

“युद्ध का तो यही नियम है-”

“युद्ध ही क्या ठीक है? पर अन्तर भी है-युद्ध असाधारण बात होती है और आदमी जानता है कि समाप्त होते ही वह साधारण शान्तिपूर्ण जीवन में लौट आएगा। पर यह तो रोजमर्रा के नागरिक जीवन की बात है-हर किसी को हर वक्त मारने को तैयार रहना-”

“क्यों-यहाँ भी तो केवल शत्रु को ही खतरा है-हमें-तुम्हें थोड़े ही उठकर मार देंगे? और असाधारण परिस्थिति तो-”

“यह तो ठीक है, मैं नहीं कहती कि चाहे जिसके मार देंगे, पर इसका मनोवृत्ति पर तो बुरा असर पड़ता होगा-यह आदमी के लिए अच्छा नहीं है।”

“वे शायद यह कहेंगे कि अपने उद्योग का दाम हम अपने जीवन से चुकाते हैं। महँगा सौदा है तो दाम तो हमारे ही लगते हैं, हम भुगत लेंगे।”

“छोड़ो, खैर-कल कब जाओगे?”

“कहाँ-कारखाने? उसी वक्त-”

“फिर मौन हो गया और बहुत देर तक रहा। शेखर बहुत धीरे-धीरे उठने लगा तो शशि ने एकाएक आँखें खोलीं, उसके कुछ कहने से पहले ही शेखर बोला, “नहीं, अभी जाता नहीं-” उठकर उसने बत्ती मन्द कर दी और अब आकर सिरहाने बैठ गया। एक हाथ शशि के माथे पर रख दिया। शशि ने फिर आँखें बन्द कर लीं।

दूर कहीं से खेतों के किसी रखवाले की पुकार का धीमा-सा स्वर आया, उसके कुछ देर बाद गीदड़ों का ‘हुआ-हुआ’ और उत्तर में कुत्तों का भौंकना, फिर दो-तीन बार किसी जलचारी पक्षी का तीखा चीत्कार, फिर सन्नाटा, जिसमें रात की आन्तरिक नीरवता का स्वर गूँज रहा था...

शशि शायद सो गयी थी-सीधी वह अब कभी नहीं लेटती थी, इस या उस करवट ही रहती थी और टाँगें सदा सिकुड़ी रहती थीं। अब भी वह ऐसे ही सोई थी, शेखर का हाथ उसके माथे पर नहीं, कनपटी पर था, और उसकी हथेली कनपटी पर शशि के नाड़ी-स्पन्दन का हल्का-सा अनुभव कर सकती थी...

एकाएक शशि ने चौंककर कहा, “शेखर!” और उसका हाथ पकड़ लिया-शेखर ने कोमल स्वर से कहा, “क्यों, जाग गयीं-” शशि ने उत्तर नहीं दिया, उसका हाथ पकड़कर आगे मुँह पर खींच लिया और उसकी उँगलियों को धीरे-धीरे अपने निश्चल ओंठों पर फिराती रही...थोड़ी देर बाद हाथ छोड़कर उसने कहा, “शेखर, जब जाकर सो जाओ, देर हो गयी है। मैं यों ही जाग गयी, अभी फिर सो जाऊँगी।”

वह फिर पूर्ववत् निश्चल हो गयी, तब शेखर धीरे-धीरे उठा, एक बार मुँह शशि के सिर के बहुत पास लाकर उसने जैसे शशि के केश सूँघे और फिर दबे-पाँव अपने कमरे में चला गया।

सवेरे-सवेरे ही एक युवक ने आकर पूछा, “दादा कहाँ हैं-”

“कौन दादा?” शेखर ने रुखाई के साथ कहा। इतने में अतिथि आ गये और बोले, “ओह-अच्छा। शेखर, ये मेरे लिए आये हैं।”

‘दादा’ ने अपना रिवाल्वर और गोलियाँ रखकर बाकी शस्त्र और गोलियाँ युवक को दे दी और कुछ आदेश देकर विदा कर दिया। फिर स्वयं भी चले, जाते वक्त शेखर से फिर कह गये, “दोपहर को तैयार रहिएगा-”

शेखर ने पहले सोचा था कि शशि से कुछ नहीं कहेगा, किन्तु दोपहर को जल्दी लौटने और फिर जाने पर वह पूछेगी, और तब बताने से अभी कहना अच्छा है, यह सोचकर उसने शशि को बता दिया कि दोपहर को वह लौट आएगा, क्योंकि ‘दादा’ के साथ कहीं जाना है।

“कहाँ? क्या करने?”

“जमुना के पार कहीं। क्यों, यह तो मालूम नहीं।”

“यानी न पूछूँ?”

“नहीं, शशि; सचमुच मेरा क्या काम है, मुझे नहीं मालूम।”

दोपहर को शेखर आवश्यक से भी पहले लौट आया, और दादा की प्रतीक्षा करने लगा।

दादा नहीं आये। लगभग तीन बजे सवेरेवाला युवक आया और बोला, “दादा आपको वहीं बुला रहे हैं, वे स्वयं अभी नहीं आएँगे।”

शेखर चुपचाप तैयार होकर साथ हो लिया। चलते समय शशि ने पूछा, “कब तक लौटोगे?”

शेखर ने अनुमान से कहा, “दिन छिपे तक लौट आऊँगा-घबराना मत।” और चला गया।

पुल पार करके दोनों नदी के किनारे हो लिए। एक गाँव पार करके मील भर जाने के बाद सरकंडे के एक झुरमुट की ओट में ‘दादा’ मिले। देखते ही उन्होंने युवक से पूछा, “ऑल क्लियर?”

“मेरे ख्याल में तो ठीक ही है। पुल पर एक दीखा था, पर यहाँ तो ठीक है।”

झुरमुट से आगे रेती का ढाल था जिससे एक सूखी खाई-सी बन गयी थी, उससे आगे फिर ऊँची जगह थी। खाई में आदमी किसी ओर से नहीं दिखता था, और चाँद-मारी के लिए दोनों ओर की रेत की दीवार मानो खास बनाई गयी थी। एक ओर को जमुना की दुबली धारा थी-कुछ विस्मय से शेखर ने जाना कि वहाँ से लगभग सामने परली पार उसका घर था...

शेखर को एक ओर पहरा देने को नियुक्त किया गया; युवक को दूसरी ओर। दादा खाई में चले गये। थोड़ी देर बाद एक फ़ायर सुनाई दिया; फिर थोड़ी-थोड़ी देर बाद इक्के-दुक्के कई एक फ़ायर, कुछ तीखे और कुछ चिड़चिड़े, कुछ गम्भीर...

थोड़ी देर बाद लौट आये; बोले, “सब ठीक ही है। बल्कि कारतूसों में कुछ पुराने हैं-धोखा दे सकते हैं।”

तीनों वापस लौटने लगे। किन्तु जब सड़क के पास पहुँचे तो दादा अचानक ठिठक गये। शेखर ने देखा, पुल की ओर से एक खाकी रंग की लारी आ रही है, जिसमें कई एक पुलिस के सिपाही हैं। लारी रुकी नहीं, धीमी चाल से शाहदरे की ओर बढ़ती रही, किन्तु दादा ने कहा, “मामला कुछ गड़बड़ दीखता है,” और थोड़ा चक्कर-सा काटकर वापस वीरान की ओर लौट चले। शेखर और तीसरा युवक भी पीछे-पीछे मुड़ गये।

वीरान के एक ओर रास्ता था, दादा ने उसी को पकड़ा।

“यह कहाँ जाता है?”

“कहीं बस्ती की ओर ही जाता होगा-शाम तक यहाँ थोड़े ही बैठा जा सकता है?”

शेखर ने पूछना चाहा कि शाम तक बैठना क्यों जरूरी है, और उसके बाद क्या होगा, पर सब बात दादा पर छोड़कर चुप रहा। लगभग तीन मील जाकर एक गाँव आया; तब सूर्यास्त में अधिक देर नहीं थी, इसलिए दादा ने गाँव में जाना व्यर्थ समझा और एक बगल हो लिए।

“शेखर, तैरना जानते हो?”

“हाँ, थोड़ा-बहुत; क्यों?”

“यहीं-कहीं से जमुना पार की जाएगी-पुल से खतरा है।”

“अच्छा, आजकल पानी तो ज्यादा नहीं होगा-शायद तैरने की ज़रूरत न पड़े-”

“तब तो अच्छा है, पर अगर पड़ जाये तो-और इन चीज़ों को भी तो पानी से बचाना है न-पर वह मैं कर लूँगा, मुझे हाथ उठाकर तैरने का अभ्यास है। नदी कितनी दूर होगी?”

“मील भर तो होगी-रास्ते से दो मील-”

“रास्ते से क्यों, यहाँ से सीधे निकल चलेंगे-”

“बीच में नाला-सा दीखता है-कीचड़ होगा-”

प्रश्नात्मक “हूँ-” कहकर दादा मुड़े और एक खेत की बगल से चलने लगे।

सामने से खेत की मेड़ पर अपने को तौलती हुई एक किसान लड़की चली आ रही थी; सिर पर उसके एक गट्ठर था, जिसको सँभालने के लिए एक बाँह उठी थी, पर गट्ठर को छूती नहीं थी; उसकी चाल के साथ-साथ झूलती जाती थी। लड़की धीरे-धीरे कुछ गुनगुना भी रही थी।

दादा ने क्षण भर रुककर पूछा, “जमुनाजी कितनी दूर होंगी?”

लड़की ठिठक गयी। “ऐं-जमुनाजी? लौटके फिरके सीधे चले जाओ, एक कोई डेढ़ कोस होगी। इधर कहाँ जा रहे हो?”

“इधर से रास्ता नहीं है?”

“ना।”

शेखर ने पूछा, “इधर से काटकर नहीं जा सकते-अगर रास्ता बच जाए-?”

लड़की ने एक बार शेखर की ओर देखा, फिर एक बार धीरे-धीरे दादा को सिर से पैर तक; फिर शेखर की ओर उन्मुख होकर बोली, “कीचड़ है, और बड़े ऊँचे कराड़े हैं। तुम तो चले जाओगे, पर इन फफ्फसनाथ से कैसे चला जाएगा?”

शेखर स्तब्ध रह गया। दादा शरीर से काफ़ी भारी थे, पर अपनी काया की इतनी स्पष्ट आलोचना उन्होंने कभी सुनी थी या नहीं, नहीं मालूम। कटाक्ष को मुस्कराकर स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, “बिटिया, वक्त करा लेता है, देखें-” और बढ़े।

लड़की ने आगे जाते हुए कहा, “फँस जाओगे!” और मानो उनकी उस परिस्थिति की कल्पना करते हुए हँस पड़ी।

तीनों नाले की ओर उतरे, जब रेती नरम हो चली, तब जूते उतारकर उन्होंने हाथ में पकड़ लिये और चुपचाप बढ़ने लगे। कीचड़ सचमुच दलदल से कम नहीं थी...सूर्य अस्त हो गया था; सामनेवाले का ऊँचा करारा धीमा-सा दीख रहा था और साँझ की हवा से झाऊ सरसरा उठे थे...

जब करारा बिलकुल सामने आ गया, तब दादा ने सोचते हुए से कहा,...”साठ-साठ मील का पैंड़ा मैंने किया है, छोकरी कहती थी फफ्फसनाथ!” फिर थोड़ा हँसकर, “हों ही गया हूँ कुछ मोटा-” और मानो लड़की द्वारा लगाए लाँछन का प्रतिवाद करने के लिए सबसे पहले ऊपर चढ़ने लगे....

ऊपर से जमुना दीखने लगी; पार बत्तियाँ जल रही थीं। शेखर का मन एकाएक शशि के लिए अत्यन्त चिन्तित हो उठा...नदी पार करके भी कम-से-कम दो मील लौटना होगा...

जब दादा ने कहा, “शेखर, मैं ज़रा एक जगह होता हुआ आऊँगा,” और उसे अनुमति दे दी कि वह सीधा घर लौट जाए, तब शेखर प्रसन्न ही नहीं, कृतज्ञ-सा हो आया-क्योंकि अब वह तेज़ी से चलकर लौट सकेगा और किसी के आने से पहले शशि से क्षमा भी माँग सकेगा...

सिर झुकाए हुए बड़ी तेज़ गति से वह चलने लगा-बीच-बीच में एकान्त सड़क देखकर थोड़ा दौड़ लेता और फिर चलने लगता...एकाएक अपने घर के चौखटे पर पैर रखते हुए ही उसने सिर ऊपर उठाया, क्योंकि अँधेरे में कोई निश्चल खड़ा था-शशि...आँचल हाथ से उठाए हुए उसने नाक और मुँह ढँक रखा था, केवल आँखें खुली थीं...

शेखर का हृदय धक् से हो गया। बिना एक शब्द बोले उसने एक बाँह से शशि को घेर लिया और लगभग धकेलता-खींचता हुआ भीतर ले गया-शशि का शरीर शीत से काँप रहा था...जब वह उसे खाट पर बिठाने लगा, तब उसे लगा कि शशि की आँखों से दो बूँदें गिरी हैं-घर में बत्ती नहीं जली थी-उसने लज्जित, चिन्तित और स्नेह भरे स्वर में कहा, “शशि”

इतना पर्याप्त था। शशि ने टूटती हुई आवाज में कहा, “आ गये तुम-” और फूट पड़ी...

शेखर लज्जा से गड़ गया, कुछ बोल नहीं सका...फिर सहसा कर्तव्य याद करके शशि को कम्बल उढ़ा दिए, और लपककर अँगीठी जलाने चला। कोयलों को जल्दी भड़काने के लिए ज़ोरों से फूँकता हुआ वह शशि के सिसकने का धीमा स्वर सुनता रहा, वह स्वर उसके भीतर बहुत गहरे में कहीं भोंडी छुरी की तरह चुभता रहा...जब आग कुछ सुलग गयी, तब वह अँगीठी लेकर शशि के कमरे में पहुँचा, अँगीठी रखकर शशि को धीरे-धीरे लिटाने का प्रयत्न करते हुए बोला, “बच्चे, सर्दी क्यों लगा ली-इतनी फ़िक्र काहे की थी-”

शशि शरीर कड़ा करके बैठी रही, कन्धे से उसका हाथ परे धकेलती हुई बोली, “हटो-”

शेखर अप्रतिभ कुछ देर तक खड़ा रहा। फिर उसने दुबारा कहा, “शशि, बच्चे, लेटकर कम्बल ओढ़ लो-मेरे अपराध की सज़ा अपने को क्यों देती हो-”

शशि कुछ बोली नहीं, हिली नहीं। शेखर हताश-सा खड़ा रहा।

थोड़ी देर बाद शशि एक लम्बी साँस लेकर अपने आप लेट गयी-हाथ-पाँव सिकोड़कर, स्थिर आँखों से अँगीठी के कोयलों की ओर देखती हुई-

“शशि, मैंने जानबूझकर देर नहीं की, बहुत दूर से नदी पार करके यहाँ आना पड़ा, इसलिए देर लग गयी-”

वहीं आँखें गड़ाए हुए, “क्यों क्या हुआ था-”

“कुछ नहीं, हम लोग लौटने लगे तो एक पुलिस की लारी देखकर दादा ने कहा, पुल पर से नहीं जाएँगे। तब पाँच-छः मील भटककर नदी पार करके आये।”

“गये क्या करने थे?”

शेखर चुप रहा। थोड़ी देर बाद शशि बोली, “चलो, लौट तो आये-”

“क्यों, शशि, तुम इतना घबरा क्यों गयी-”

आग की ओर देखते-देखते शशि ने फीकी हँसी हँस दी। “हूँ-घबरा क्यों गयी! तुम्हें क्या मालूम घबराना क्या होता है...मैं तो समझी थी कि अब-तुम नहीं आओगे”

“क्यों, शशि, ऐसी क्या बात थी भला-”

शशि ने जैसे अपने भीतर की ओर देखते हुए, सोचते-से स्वर में कहा, “तुम पार गये थे, यह मुझे मालूम था। पीछे मैं बाहर खड़ी थी तो मुझे लगा, पार कहीं से गोलियाँ चलने की आवाज आ रही है। तुम्हारे बारे में विशेष कभी नहीं डरती-मुझे लगता है कि तुम्हारा अनिष्ट कुछ होगा तो अपने आप जान जाऊँगी; पर आज न जाने क्यों मैंने समझा कि अब तुम्हें नहीं देखूँगी-कि तुम गये अब...शायद इसलिए कि अब-मैं ही जा रही हूँ।”

“क्या, शशि-”

“हाँ, शेखर, घबराहट बुरी चीज़ है; पर कभी-कभी उससे दिव्य-दृष्टि मिलती है। तुम्हारी बाट देखते-देखते-तुम्हारी क्या, तुम्हारे कुछ समाचार की प्रतीक्षा करते-मैंने बहुत कुछ देखा है, जो पहले नहीं देखा था-इतना स्पष्ट नहीं।”

“क्या, शशि?”

“बहुत कुछ...किसी विदेशी उपन्यास में पढ़ा था कि प्यार एक कला है, और कला संयम का दूसरा नाम है। और इसकी व्याख्या की गयी थी, किसी भी एक व्यक्ति को इतना प्यार नहीं करना चाहिए कि जीवन में किसी दूसरे उद्देश्य की गुंजाइश ने रह जाए-कि जीवन एक स्वतन्त्र इकाई है और यदि वह बिलकुल पराधीन हो जाये तो यह कला नहीं है, क्योंकि कला के आदर्श से उतरकर है। तब नहीं समझी थी कि यह सब क्या है...”

शेखर भी चुपचाप आग की ओर देखने लगा।

“स्वीकार तो अब भी नहीं किया-पर समझ आज गयी...मैं-कला से आगे चली गयी हूँ...और-और मैंने देखा, यह ठीक है-मेरे लिए ठीक है। जीवन में दूसरे उद्देश्य की गुंजाइश मुझे नहीं चाहिए-क्योंकि-जब जीवन भी और नहीं है।”

शेखर ने आहत होकर कहा, “शशि, तुम्हें बहुत क्लेश पहुँचा है, इसलिए ऐसी बातें कर रही हो-”

“नहीं, शेखर, नहीं। तुम्हारे बारे में जो कुछ मैंने आज देखा, उसमें चाहे भूल की हो, पर इस बारे में-नहीं। मेरा काम पूरा हो गया...”

शशि के स्वर में इतनी निश्चयात्मकता थी कि प्रतिवाद में शेखर कुछ बोल नहीं सका। अब तक खड़ा था, अब सहसा शशि की चारपाई पर बैठ गया। उसका स्तब्ध मन शशि की बात का पूरा अभिप्राय समझने का प्रयास करने लगा-पर इससे आगे नहीं बढ़ सका कि शशि कहती है, वह अधिक नहीं जिएगी...

शशि ने धीरे-धीरे आँखें बन्द कर लीं। शेखर आग की ओर देखता रहा। बहुत-सा समय बीत गया-कोयलों पर राख की परत पड़ गयी...शेखर अँगीठी को हिलाने के लिए उठनेवाला था कि उसे लगा, शशि की साँस काफ़ी तेज़ चल रही है। उसने धीमे से पुकारा, “शशि-” और उसके माथे पर हाथ रखा और तत्काल खींच लिया। शशि को ज्वर हो आया था...

शशि ने कहा, “अभी चढ़ रहा मालूम होता है।”

शेखर ने एक कम्बल अपने बिस्तर से लाकर और उढ़ा दिया, अँगीठी में आग भड़का दी और फिर कमरे में टहलने लगा...

एक बार सूचनात्मक खड़का करके उढ़काए हुए किवाड़ खोलकर दादा घर में आ गये; शेखर शशि के कमरे से निकलकर स्वागत करने बढ़ा, और एक साथ ही आतिथ्य के अनेक दायित्व उसके याद आ गये-

पर दादा ने कहा, “यह लो, तुम दोनों के लिए खाना बाज़ार से लेता आया हूँ-बहुत देर हो गयी थी-”

शेखर कृतज्ञ-भाव से चुप रह गया।

“शशिजी की तबीयत ठीक है?”

“ऊँ-नहीं-उन्हें कुछ ज्वर है।”

दादा शेखर के कमरे में जाकर सामान आदि रखने लगे, शेखर तश्तरियाँ लेने बढ़ा।

दादा ने बताया कि बड़े तड़के वहाँ से चले जाएँगे-दिन निकलने से पहले दिल्ली से बाहर चले जाएँगे और किसी छोटे से स्टेशन से गाड़ी पर सवार हो जाएँगे। उनके जाते समय शेखर के जागने की ज़रूरत नहीं है, वे चुपचाप चले जाएँगे, फिर कभी मिलना होगा तो अच्छा, नहीं तो-”नहीं तो फिर जैसा हो!”

जब सोने का उपक्रम करके वे नियमित साँसें लेने लगे तब शेखर चुपके से बाहर आया और शशि के कमरे में गया। शशि का माथा छूकर देखा, ज्वर था। शशि सोई नहीं थी, शिथिल पड़ी थी...थोड़ी देर उसका माथा सहलाकर वह फिर बाहर आया, अँगीठी में कुछ और कोयले डालकर आँच भड़काकर शशि के कमरे में रख दी, सिरहाने के पास चौकी पर पानी रखा; शशि से धीरे से कहा, “शशि, कुछ ज़रूरत हो तो मुझे बुला लेना-यों ही उठना मत...” और क्षण भर अनिश्चित खड़ा रहकर अपने कमरे में जाकर लेट गया।

उसे लगा कि उसे रात भर नींद नहीं आएगी, वह सोचता रहेगा-पर न जाने कब दिन की भटकन की प्रतिक्रिया ने उसे घर दबाया और वह सो गया। जब जागा तो हड़बड़ाकर दादा के सिरहाने पड़ी रेडियम घड़ी देखी, चार बज रहे थे...वह रात का सबसे ठंडा समय होता है, यह सोचकर वह अँगीठी में फिर से आग जलाकर शशि के कमरे में रखने के विचार से उठा तो देखा, वहाँ लैम्प का तीखा प्रकाश है, यद्यपि वह बत्ती धीमी कर आया था...लपककर वहाँ पहुँचा तो देखा, शशि एक कोहनी पर शरीर साधे लेटी-लेटी लिख रही है-लिख नहीं, लिखती रही है, और अब मानो थककर सिर झुकाकर विश्राम कर रही है, कलम अभी उसके हाथ में है। पहली प्रवृत्ति हुई कि पढ़े, क्या लिख रही है, किन्तु उसे दबाकर वह शशि को आराम से लिटाने के लिए आगे बढ़ा तो वह उठ गयी, बैठी होकर उसने थकी हुई बाँह को सीधा किया और कागज उठाने लगी।

शेखर ने गहरे उपालम्भ के स्वर में कहा, “शशि...”

शशि सहज भाव से बोली, “बस, अब तो लिख चुकी-” पर शेखर के मुँह का पीड़ित भाव देखकर कुछ लज्जित-सी हो गयी “यह लिखना जरूरी हो गया था-अब और कुछ शैतानी नहीं करूँगी-शेखर, मैं बड़ी आज्ञाकारिणी हो गयी हूँ, अब तो-”

निरस्त्र-भाव से शेखर ने अँगीठी उठाई और जलाने ले चला।

खड़के से दादा जाग गये। उठकर बाहर आये और बोले, “मैं तो चुपचाप खिसकने वाला था, आप मुझसे पहले जाग गये!”

शेखर अभी अँगीठी सुलगा ही रहा था कि वे मुँह-हाथ धोकर तैयार हो गये। “अच्छा शेखर, मैं तो अब चला। फिर कहीं मिलना अवश्य होगा-हमें तुम्हें अभी बहुत कुछ करना है!” तनिक हँसकर, “शशिजी से मेरा प्रणाम कह देना। उनका मैं कृतज्ञ हूँ-हालाँकि कृतज्ञता से मैंने कष्ट ही दिया है...अच्छा-”

जल्दी से काले हाथ धोकर शेखर उन्हें द्वार तक पहुँचाने आया, पर विदाएँ लेने के अभ्यस्त दादा रुके नहीं, एक भागती मुस्कान उसे देकर चले गये।

शेखर ने धीरे-धीरे द्वार बन्द कर दिया, लौटकर अँगीठी उठाई और फूँकता हुआ शशि के कमरे की ओर चला।

अँगीठी रखकर कमरे का द्वार भी उसने उढ़का दिया, केवल खिड़की किंचित खुली रह गयी; फिर मानो वह सोचने-सा लगा कि अब क्या करे-

शशि हिली, अपने शरीर को ढीला छोड़कर और फैलाकर उसने एक लम्बी साँस ली, कम्बल ठोढ़ी तक खींच लिया और शेखर की ओर देखने लगी।

शेखर ने पूछा, “शशि, तुम आराम से हो? इस वक्त ठंड बढ़ जाती है,

अँगीठी-” और रुक गया। शशि सुन नहीं रही थी; उसकी खोई-सी मुद्रा एक हल्की मुस्कान में घुल गयी थी और उसने आँखें मूँद ली थीं। शेखर चुपचाप उसका मुँह देखने लगा। एकाएक शशि ने आँखें खोलीं, स्थिर दृष्टि से शेखर पर टिकाई और देखती रही। उसकी दीर्घ भेदकता के आगे शेखर का अन्तर उद्वेलित हो उठा; उसने देखा-कुछ परम सत्य, सीमातीत, परिव्याप्त...

“शेखर, यहाँ आओ।”

शेखर बढ़कर चारपाई के पास आ गया।

“मेरे पास बैठ जाओ।”

किसी अज्ञात भावना से प्रेरित शेखर बढ़कर शशि के पैताने बैठ गया-शशि इतनी दूर, लोकातीत-स्वप्नमय, अशरीरी लग रही थी, मानो छूने से वायु में घुल जाएगी-

“नहीं,”-कौन-सा रहस्य उसके स्वर में बोलता है!-”वहाँ नहीं, पास आओ।”

मन्त्रचालित शेखर आगे सरक आता है।

तब बिना एक शब्द और कहे शशि अपनी ठोड़ी उठाती है; उसकी आँखें अर्धनिमीलित हैं और ओठ अधखुले, वह निश्चल मुद्रा बोलती नहीं-

क्षण भर शेखर कुछ नहीं समझता, फिर एक बाढ़ उसके भीतर उमड़ आती है, और वह उन उठे हुए अर्धमुकुलित ओठों की ओर झुकता है-झुकते-झुकते उसकी आप्लावनकारी आतुरता ही उसे संयत कर देती है, एक वत्सल कोमलता उसमें जागती है कि बेले के अधखिले सम्पुट को स्निग्धतम स्पर्श से ही छूना चाहिए, और ओठों के निकट पहुँचते-पहुँचते वह ग्रीवा कुछ मोड़कर अपना कर्णमूल शशि के ओठों से छुआ देता है। ओठ तप्त हैं-ज्वर से; उस रोमिल स्पर्श से एक सिहरन-सी उसके माथे में दौड़ जाती है, तब चेतना की एक नई लहर के बाधित वह फिर झुकता हैऔर शशि के स्निग्ध, स्तब्ध, किन्तु बे-झिझक ओठ चूम लेता है-निर्द्वन्द्व, वरद, दीर्घ चुम्बन...

शशि ने एक गहरी साँस ली और आँखें बन्द कर लीं; शेखर विमूढ़ और निश्चल, नीरव साँस लेता हुआ बैठा रहा। नीरवता में वह अपना नाड़ी-स्पन्दन सुनने लगा, फिर उसे भ्रम हुआ कि यह उसका नहीं, शशि की हृत्स्पन्दन है-फिर लगा कि वह उन दोनों का नहीं, प्रत्यूष की आन्तरिक परिव्याप्त नीरवता का स्पन्दन है...

रात की धूसर आच्छन्नता में भोर की अरुणाली घुल आई...

“शेखर?”

“हूँ-”

“तुम मुझसे गाना सुना करते हो; अब मैं कहूँ तो कुछ सुनाओगे-”

“मैं?...”

“हाँ, गाकर नहीं, पढ़कर,” आँख के इशारे से अलमारी की ओर जताते हुए शशि ने कहा, “वहाँ से एक काली-सी कापी निकालो-निचले खाने में-”

शेखर ने कापी निकाली।

“मुझे दो-”

शशि ने कापी खोली, एक हाथ और ठोढ़ी के सहारे कुछ पन्ने उलटकर एक स्थल चुना और कहा, “लो-यहाँ से-”

शेखर ने विस्मय से कापी ले ली-उसमें शशि के अक्षरों में कविताएँ नकल की हुई थीं-हिन्दी, अँग्रेजी, बांग्ला-

“और मत देखो-पढ़ो-”

शेखर पढ़ने को हुआ, आधी पंक्ति पढ़कर रुक गया; फिर एक बार शशि के चेहरे की ओर देखकर धीरे-धीरे पढ़ने लगा-

“I want to die while you love me

While yet you hold me fair,

While laughter lies upon my lips

And lights are in my hair,

I want to die while you love me.

Oh who would care to live

Till love has nothing more to ask

And nothing more...to give?

I want to die—”*

एकाएक रुककर उसने कहा, “नहीं, शशि, मैं नहीं पढूँगा यह-” और कविता की टेक का, और शशि के उस समय उसे पढ़वाने को गूढ़तर गुरुतर अभिप्राय उसकी आत्मा में बैठ गया...I want to die while you love me... “नहीं, बिलकुल नहीं!”

“डरते क्यों हो, शेखर, यह तो पुरानी कविता है-मेरी हँसी तो पहले ही जा चुकी!-नहीं शेखर, तुम्हें दुःख नहीं पहुँचाना चाहती, ऐसे मत देखो मेरी ओर-हमने जाना ही बहुत देर से-मैंने तो कल रात में-कल शाम को, जब तुम जमुना पार गये थे-”

शेखर ने कापी बन्द कर दी, उसे एक ओर रखकर हाथ बढ़ाकर शशि के दोनों हाथ कसकर पकड़ लिए...

देर बाद शशि ने कहा, “छोड़ो, मैं अभी थोड़े ही मर चली हूँ-” और मुस्करा दी। फिर स्वर बदलकर, “शेखर, तुम अब काम-धाम करना चाहो तो करो, जाओ; मैं सो जाऊँगी।”

शेखर ने आँख उठाकर दिन की ओर देखा, कहना चाहा कि मुझे अब कोई काम नहीं है, सोचा कि सो सके तो शशि के लिए हितकर है, और चुपचाप उठकर बाहर आ गया, यद्यपि उसका निश्चय था कि वह आज कारखाने नहीं जाएगा...

  • “तुम्हारे प्यार के रहते हुए ही मैं मर जाना चाहती हूँ-”

जबकि मेरा रूप तुम्हारी आँखों में सुन्दर है,

और मेरे ओठों पर हँसी है,

मेरे केशों में कान्ति...

तुम्हारे प्यार के रहते हुए ही मैं मर जाना चाहती हूँ-

तब तक कौन जीना चाहेगा

जबकि प्यार के पास शेष रह जाए-

न कुछ माँगने को, न कुछ देने को?

मैं मर जाना चाहती हूँ-”

नित्यकर्म के बाद चूल्हा जलाकर उसने दूध में थोड़ा-सा दलिया बनाया, तीन सन्तरों का रस निकाला फिर शशि के कमरे की ओर दबे-पाँव देखने गया। खिड़की से झाँककर देखा, शशि स्निग्ध नींद में सोई थी...

शशि ने वह कविता क्यों उस समय उससे पढ़वाई? I want to die while you love me...शशि निरी भावुकता की बातें तो नहीं किया करती-तब क्या वह-सन्देश है? कि केवल सम्भावना है?...कि भावना है-प्यार के प्रति कृतज्ञता की...कि-पूर्व-सूचना है।

उसने अपने कमरे में जाकर मौसी को एक छोटा-सा पत्र लिखा कि बहुत दिन से समाचार न मिलने से वे दोनों चिन्तित हैं, कि और सब ठीक चल रहा है, कि शशि अस्वस्थ है, और हो सके तो वे थोड़ा-सा रुपया भेज दें। एक बार उसका हाथ अटका कि वह पहले का अभिमान क्या हुआ, किन्तु उस अभिमान की यथार्थता उस समय किसी तरह उसके मन के आगे स्पष्ट न हो सकी...उसने लिफ़ाफ़े पर पता लिखा, एक बार फिर शशि की ओर झाँककर देखा, फिर धीरे से बाहर निकलकर कुछ दूर पर लैटर-बक्स में डालने चला।

शशि अभी जागी नहीं थी, उसके माथे पर प्रस्वेद की बूँदें थीं...ज्वर उतर रहा है...शेखर धीरे से कमरे के भीतर गया और शशि के सिरहाने ज़मीन पर बैठ गया। बाइर कई-एक काम करने को थे, कमरे में कोई काम नहीं था जब तक शशि सो रही थी; किन्तु शेखर को उस सोए हुए चेहरे से तत्काल ही बहुत कुछ कहना था...

यह क्यों है कि जीवन के तीव्रतम इन दिनों की स्मृति में मैं बार-बार दुविधा में पड़ जाता हूँ कि क्या सचमुच हुआ; और क्या हुआ नहीं, केवल सोचा गया? बाहरी और भीतरी जीवन ऐसे उलझ गये हैं कि उनको अलग-अलग नहीं कर पाता-शायद आन्तरिक जीवन का दबाव इतना तीव्र हो गया था कि वह बाह्य की भौतिक सीमाएँ तोड़-तोड़कर फूटा पड़ता था-न होकर भी तीव्रतर सत्य था, यथार्थ था-यथार्थ है...

“सुनो, शशि, मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है। तुम जानो नहीं, सोई रहो, तुम सोई-सोई भी सुन लोगी जो मैं कहना चाहता हूँ-क्योंकि मुझे वह तुम्हारे कानों से नहीं कहना, तुम्हारे ओठों से कहना है-जो आज मेरी ओर बे-झिझक उठे हैं, जिन्हें कुछ भी कहने में झिझक मुझे नहीं है-जब वे सोते हैं, तब और भी नहीं...”

“शशि, तुमने मुझे प्यार दिया है-तुमने मुझे वर दिया है...वर देने से पहले परीक्षा क्यों नहीं ली? लो परीक्षा मेरी-देखो कि मैं अधिकारी भी हूँ कि नहीं...”

“शशि, शक्ति मेरे पास रही है, पर मैंने उसे जाना नहीं, आजीवन मैं विद्रोही रहा हूँ, पर बराबर मैं अपनी विद्रोही शक्ति को व्यर्थ बिखेरता रहा हूँ...एक दिन तुम्हारे ही मुख ने मुझे यह दिखाया-बताया कि लड़ना स्वयंसाध्य नहीं है, लड़ने के लिए लड़ना निष्परिणाम है, कि विद्रोह किसी के विरुद्ध होना चाहिए-ईश्वर, समाज, रोग, मृत्यु, माता-पिता, अपना-आप, प्यार, कुछ भी हो, जिसके विरुद्ध विद्रोह किया जा सके...तब मेरे विद्रोह को धार मिली-वह विरुद्ध हुआ...मैं प्रतिद्वन्द्वी हुआ...”

“किन्तु वह आधा ज्ञान था, इसलिए मेरा विद्रोह भी आधा था...फिर-फिर तुम्हीं ने सिखाया कि विरुद्ध लड़ना ही पर्याप्त नहीं है...मैंने देखा, सर्वत्र कलुष है, ह्रास है, पतन है-कि एक अकेला समाज ही नहीं, जीवन आमूल दूषित है-ईश्वर, मानव, सब कुछ...आमूल दूषित-दूषित और सड़ा हुआ, विरुद्ध लड़ने के लिए कुछ भी नहीं है! या सब कुछ है, जो कि एक ही बात है-मिट्टी को काटा जा सकता है, पर दलदल को नहीं-उसमें धँसना-ही-धँसना है...किसी के विरुद्ध लड़ना पर्याप्त नहीं है, किसी के लिए लड़ना भी जरूरी है...”

“किसी के लिए लड़ना....किन्तु किसके? जब सभी कुछ सड़ा है, तो क्या है जिसके लिए लड़ा जाए...”

“तब तुमने क्या निश्चय किया, शेखर?”

“मुझे आवश्यकता नहीं पड़ी-तुम फिर आ गयी-तुम मेरे जीवन में चली आईं...मैं नहीं जानता था कि किसके लिए लड़ूँ, पर तुम मेरे पास थीं, तुम्हारे लिए मैं लड़ने लगा-या उद्योग करने लगा लड़ने का। शशि, मैं निरन्तर संघर्ष करता आया हूँ-तुमसे भी लड़ता आया हूँ, पर अब स्वीकार करता हूँ, कि मैंने तुम्हें प्यार किया है। लड़ने में अपना श्रेष्ठतम मैं देता आया हूँ, क्योंकि मैंने तुम्हारे लिए दिया है। बीच में शंका हुई थी कि यह आदर्श घटिया है, फिर दूर हो गयी, क्योंकि तुम किसी कोरे आदर्श से कम नहीं थीं...किन्तु फिर मेरे भीतर एक भूख जागी, और उससे फिर एक नया सन्देह...शशि, क्या मैंने पाप किया है?”

“शेखर, मैंने सदा तुम्हें प्यार किया है। पाप मैंने कभी नहीं किया।”

...दो असम्बद्ध वाक्य...इसका अभिप्राय धीरे-धीरे ही शेखर के प्राणों में उतरा...किन्तु जब पूर्ण-रूपेण उतर गया, तब-

“और शशि-अब जब मैंने लड़ने के लिए साध्य पाया तो-शशि, शशि, तुम क्या सचमुच चली जाओगी, शशि-”

हठात् शेखर ने शशि का माथा ज़ोर से पकड़ लिया...शशि जाग गयी, उसकी उँगलियाँ शशि के हाथों को टटोलती हुई आईं-

“शशि, क्या तुम सचमुच चली जाओगी-क्या मेरे जीवन में कभी कुछ सार नहीं होगा-”

शशि ने उसके हाथ को थपकते हुए कहा, “होगा, शेखर, है। मेरे बाद भी होगा। तुम नहीं हारोगे-कभी नहीं हारोगे-मेरे लिए, शेखर, मेरे लिए...”

“मैं जानता हूँ, शशि...रुकना मेरे लिए नहीं है-तुमने मुझे दिया नहीं। पर चलूँगा कैसे, मैं नहीं जानता-मुझे नहीं दीखता-किसके लिए...या कि तुम्हारे ही लिए होना-मेरे बिना देखे, बिना जाने किसी तरह तुम्हारे लिए, तुम्हारे ही लिए, शशि...”

शशि का माथा शीतल, चेहरा स्निग्ध और प्रशान्त, इतना शान्त, इतना स्तब्ध कि शेखर आतंकित...भर्राए स्वर में, “शशि, तुम-चली गयीं?” फिर अपने प्रश्न की मूर्खता पर लज्जित, चकित...पर शशि नहीं चौंकती, उसकी अँगुलियाँ शेखर के हाथ पर फिर आती हैं-

क्या वातावरण बदल गया है? क्या धूप-छाँह के कारण भ्रम होता है? क्यों शशि के माथे पर हल्की-हल्की छायाएँ थिरककर दौड़ जाती हैं जबकि उसकी अनझिप आँखें बिलकुल स्वच्छ हैं और उसके ओठ निश्चल स्निग्ध? क्यों उसके बाएँ हाथ की उँगलियाँ कभी-कभी छाती पर पड़ी-पड़ी ही सिकुड़-सी जाती हैं जबकि वक्ष की गति नियमित है?

“शशि, दर्द होता है?”

आँखों की झपक, की नहीं।

किन्तु क्यों उसके हाथ के नीचे शशि के शीतल माथे पर बल आते-आते रह जाते हैं, क्यों उसे लगता है कि शशि काँप-सी रही है?

“बताओ, शशि, क्यों, क्या होता है...”

तब शशि हाथ उठाकर उसके बाल पकड़कर उसका सिर अपनी ओर खींच लेती है और कहती है, “सुख, शेखर, सुख...”

दिन, दोपहर, साँझ, रात, सवेरा, दिन, दोपहर, साँझ; रात, प्रत्यूष...ज्वर, प्रस्वेद, क्लान्ति, स्निग्ध ताप, कँपकँपी, ज्वर; स्नेह-श्लथ हाथ; ज्वर, प्रस्वेद, शैथिल्य...होलियों की हवाएँ, स्निग्ध-शीतल; अनवरत पतझार; छिटपुट रुई के गाले-से सफेद बादल, आवारे, निचिन्त, निर्मोही; धूल-धसर चक्रवात...डॉक्टर; राख-भरी चिलमची, चार्ट और बोतलें, फलों का रस...मौसी की ओर से गौरा के हाथ की लिखी हुई चिट्ठी-‘माँ की आँखों में घोर कष्ट है, इसलिए वे स्वयं नहीं लिख रहीं, तुम दोनों को बहुत-बहुत आशीर्वाद दे रही हैं और कहती हैं कि शशि का हाल जल्दी-जल्दी लिखना, इतनी-इतनी देर से पत्र लिखना अच्छी बात नहीं है। परमात्मा करे, वह जल्दी अच्छी हो जाए...सौ रुपया भेजा है...’ फिर गौरा का अपनी ओर से, ‘मौसी कहती थीं कि रुपया मनीआर्डर से भेज दूँ, पर मैं चिट्ठी में नोट डालकर रजिस्ट्री से भेज रही हूँ, क्योंकि यहाँ से मनीआर्डर शायद तुम न चाहो। शशि के स्वास्थ्य की मुझे बहुत चिन्ता है, चिन्ता की बात न होती तो तुम भला लिखते? मैं शुश्रूषा के लिए आ जाऊँ? माँ से नहीं पूछा, पर तुम कहोगे तो ज़रूर आ जाऊँगी, चाहे जो हो-सब हाल जल्दी लिखना...’ गौरा बड़ी समझदार हो गयी है-इतनी-सी लड़की...हल्ला-गुल्ला, मोटरों की दौड़ और घरघराहट, नारे, सफेद टोपियाँ, लाल कमीजें, ‘काला कानून’ ‘भगतसिंह को फाँसी हो गयी।’ ‘गाँधी जी की भिक्षा अस्वीकार!’....

दोपहर, साँझ, रात; और सब असत्, मिथ्या, भ्रान्ति-बड़ी दूर की मरीचिका... निकट केवल दो बड़ी-बड़ी स्वाति-सी आँखें, तारे-सी तरल झिलमिलाहट, जो व्यथा को छिपा लेती है, व्यथा, चिन्ता, डर...

मैं शेखर की कहानी लिख रहा हूँ, क्योंकि मुझे उसमें से जीवन के अर्थ के सूत्र पाने हैं, किन्तु एक सीमा ऐसी आती है, जिससे आगे मैं अपनी और शेखर की दूरी बनाए नहीं रख सकता-उस दिन का भोगनेवाला और आज का वृत्तकार दोनों एक हो जाते हैं, क्योंकि अन्ततः उसके जीवन का अर्थ मेरे ही जीवन का तो अर्थ है; और जो सूत्र मुझे पकड़ने हैं, उनके प्रति मैं अनासक्त नहीं हूँ, नहीं हूँ!

इसमें इतिहासकार की पराजय है तो हो। इतिहास मेरे लिए कुछ नहीं है; घटनाओं का अनुक्रम भी कुछ नहीं है। जीवन का अन्तिम मान है जीव-हमारे जीवन का मान है यह अद्भुत सृष्टि, मानव प्राणी-और प्राणी की प्राणवत्ता का मान है उनका प्यार-उसकी अपने आपसे बाहर प्रसारित होने की, निछावर होने की शक्ति...कथा का महत्त्व मेरे लिए नहीं है, जिस चरित्र की कथा कहता हूँ, उसी का महत्त्व है; और इस बात का कि मैं स्वयं जाने से पहले उसका स्वीकार कर जाऊँ, साक्षी दे जाऊँ...अब मैं नहीं रहूँगा, तो यही एक स्मारक मैं उसके नाम पर खड़ा कर सकता हूँ! अगर उसके जीवन की परिस्थितियाँ भिन्न रही होतीं, तो उसका भविष्य भी रहा होता-शायद वह एक कुटुम्ब की अधिष्ठात्री होती और उन सबके जीवन में प्रकट होता वरदान-सा वह पुनीत वत्सल प्यार, जो एक विशाल आत्मा की देन होता है...पर वह नहीं हुआ; उस विशाल आत्मा की सामर्थ्य को निकट से केवल मैंने देखा, मैंने जोकि उसके टूटने का निमित्त हुआ...

किन्तु यह साक्षी, यह ज्ञापना, अपने अपराध के धोने के लिए नहीं है, प्रायश्चित के लिए नहीं है। उस प्यार में अपराध भी डूब सकते थे, इतना विशाल था वह...मैं शेखर का अपराध छोटा करके नहीं दिखाता, क्योंकि उसके पीछे शेखर के प्यार की तन्मयता थी, उस शेखर की जो मैं हूँ...

चिन्ता, चिन्ता डर...निश्चय...शशि शायद पहले जान गयी थी, किन्तु एक दिन एकाएक शेखर ने जान लिया, अनदेखी दिखाना शायद उचित या आवश्यक हो, अनदेखी करना क्षम्य नहीं है-कारखाने जाना उसने कई दिन से छोड़ दिया था, अब उसने शशि के पास से हिलना ही छोड़ दिया। उसी कमरे में अपना बिस्तर ले आया, दो घंटे रात में और एक-डेढ़ घंटा दिन में कभी अवसर मिलने पर वह सो लेता, नहीं तो निरन्तर शशि के सिरहाने निश्चल बैठा रहता। वह जागती तो उसका माथा या छाती पर पड़ा हुआ हाथ सहलाता रहता; सोने लगती तो सिमटकर अचल हो जाता कि बाधक न हो; अनिश्चित तन्द्रा में होती तो एकदम उसका चेहरा देखा करता-और ऐसे देखने के अवसर क्रमशः बढ़ते जाते थे...या कभी शशि उसे आराम करने को कहती, तो अपनी चारपाई पर औंधा लेटकर कोहनियाँ टेककर और हथेलियों पर ठोढ़ी जमाकर उसे देखा करता...

रोगी की शुश्रूषा एक विज्ञान है, बुद्धि पर आश्रित है, उसमें भावना के लिए स्थान नहीं है। पाश्चात्य सभ्यता से आक्रान्त लोग उस भारतीय माँ पर हँसते हैं, जो रोगी बच्चे को डॉक्टर के पास नहीं ले जाती, छाती से चिपटाकर रात भर सुन्न बैठी रहती है...निरा प्रवृत्तिजन्य प्रेम-पशु-माता की आहत शिशु के लिए निर्बुद्धि व्याकुलता-ये वैज्ञानिक शुश्रूषा नहीं है; पर प्राणी को प्राणी की पुकार भी एक औषध है, जो एकमात्र औषध नहीं है, पर अनिवार्य तो है-कम-से-कम विज्ञान-सी अनिवार्य-धमनी के स्पन्दन-सी अनिवार्य...और जहाँ विज्ञान अपनी लाचारी जानता है, वहाँ इस मूल वृत्ति की शक्ति ही एक शक्ति है, जो लाचार नहीं है-मृत्यु के आगे भी नहीं; क्योंकि मृत्यु सबसे पहले मृत्यु-भय है, और प्यार के वातावरण से घिरे हुए प्राण को वह भय छू नहीं पाता...

डॉक्टर दिन में दो बार आते, दवा दे जाते या भेज देते, शेखर के दल के दो युवक बारी-बारी से खाना पहुँचा जाते और समाचार पूछ जाते, कभी बाहर के समाचार बता जाते, जो शेखर के मन में बैठकर भी न बैठते, क्योंकि वहाँ उनके लिए स्थान न होता...

शेखर बहुत कम बोलता, शशि लगभग बिलकुल नहीं बोलती, केवल जब-तब आँखों से एक आश्वासन का सन्देशा शेखर को दे देती...रोग के प्रत्येक नये आक्रमण के बाद-जब कम्पन के बाद ज्वर और ज्वर के बाद प्रस्वेद और शिथिलता का एक चक्र पूरा हो जाता-जब शशि के क्लान्त हाथ उसके वक्ष पर पड़े-पड़े काँप-से जाते, उँगलियाँ सकुचकर खुल जातीं और बन्द आँखों पर पलकें सिकुड़कर फिर पूर्ववत् हो आतीं, तब शेखर को ध्यान आता कि शशि को प्रसन्न रखने के लिए और पीड़ा से उसका ध्यान हटाने के लिए कुछ मनोरंजक बातचीत करना आवश्यक है। वह यत्न करता कि कुछ ऐसी बात करे, पर उसका मन सूना हो जाता, मनोरंजक कोई बात ही उसे न सूझती। तब वह टटोलकर शशि का हाथ पकड़ लेता और धीरे से कहता, “शशि, घबरा मत, मैं तेरे पास हूँ-” शशि आँखें खोलकर एक बार उसकी ओर देख लेती; उस दृष्टि में बड़ी हल्की-सी हँसती करुणा होती-”मैं घबराती हूँ? तू मत डर, मैं तेरे पास हूँ...”

और इस प्रकार दीप की बाती चुकती जाती, पर शेखर बैठा, आलोक को देखता जाता...

रात लम्बी थी, पर बीत चली थी; अँगीठी बुझ गयी थी, शेखर जागता था...

शशि ने धीरे से पुकारा, “शेखर-”

शेखर उसकी ओर झुक गया कि शशि की बात अच्छी तरह सुन ले, कुछ उसे दोहराना न पड़े।

“शेखर-अलमारी में-चिट्ठी।”

आशय समझकर शेखर ने अलमारी खोली, निचले खाने में मोड़कर रखे हुए कई एक पन्ने निकाले और पूछा, “यह पत्र कहीं भेजना या किसी को देना चाहती हो?”

आँख की झपकी, कि हाँ।

“किसे-मैं भेज दूँगा-”

आँखें शेखर पर स्थिर, ओठ धीरे से खुलते हैं, “पढ़ो।”

न जाने किसे शशि ने पत्र लिखा है-क्या पढ़ना उचित है? दुविधा में वह पन्ने खोलता है, अटकते हुए पहली पंक्ति पढ़ता है (-क्या शशि ने रामेश्वर को लिखा है?-कैसे लिख सकती है-) कि एक बिजली उसके शरीर में दौड़ जाती है, इतना अन्धा वह कैसे हो सका...शशि ने उसे लिखा है, शेखर को-शेखर को!

इस ज्ञान तक पहुँचकर शेखर रुक गया, उसका हाथ काँपने लगा, आगे न पढ़कर उसने दृष्टि शशि पर टिकाई-

“नहीं, पीछे नहीं, अभी-”

एक साँस में शेखर पढ़ गया-इतनी जल्दी पढ़ने से उसका अभिप्राय कम समझ में आया हो, सो नहीं, उसके शब्द-वाक्य-के-वाक्य तपी हुई धातु की तरह उसकी चेतना को दाग गये और उसके कानों में गूँजने लगे...साथ-साथ घटनाएँ भी घटने लगीं, उन घटनाओं में शेखर अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ भागी था, पर वह गूँज भी साथ-साथ थी, मानो दो जीवन साथ-साथ जिए जा रहे हों, एक तीव्र क्योंकि वह तत्काल का जीवन है, दुसरा तीव्रतर, क्योंकि वह तत्क्षण से पिछड़ा हुआ था और उस क्षण को पकड़ लेना चाहता है...

‘...तुम कुछ ही घंटों के लिए गये थे, लौट आये; पर इतनी देर में मैंने कितनी बार तुम्हें खोया और पाया, विसर्जन किया और फिर अपने हाथों बना खड़ा किया...तुम्हारे स्नेह को मैं क्षण भर भी नहीं भूली, शेखर, पर जब क्षण का उद्वेग चला गया तब मैंने तुम्हारे स्नेह से भी बड़ा कुछ देखा, शेखर, तुम्हारा भवितव्य। स्नेह से बड़ा इसलिए कहती हूँ कि वह स्नेह उसका एक अंग है...उस क्षण की मैं कृतज्ञ हूँ...

‘शेखर, यह पत्र तुम्हें लिख रही हूँ कि तुम मेरे बाद पढ़ो-बाद में जब तुम पढ़ोगे तब शायद पूछोगे कि शशि ने यह सब मुझे पहले क्यों न बताया, जब यह इतना तीखा अभिशाप न होता-पर यही ठीक है शेखर...यदि मुझे बहुत जीना होता, तब और बात थी, पर उस स्पष्ट दृष्टि में यह भी देखा कि कुछ दिन ही और बाकी हैं...इसीलिए अब भी इस पत्र में अपने प्यार की बात नहीं करूँगी-जो चला गया है, उसका प्यार केवल वेदना है, और वेदना को चुप रहना चाहिए...केवल तुम्हारे प्यार की बात करूँगी...’

‘प्यार कला भी हो सकता है, शेखर; वह आदर्श बुरा नहीं है, कल्याणकर है, मैं मानूँगी; पर मेरे लिए वह कला से भी अधिक अन्तरंग और जरूरी हो गया था-इसे अहंकार से नहीं कहती, अपनी लाचारी मानती हूँ...कला का आनन्द संयत आनन्द है, मैंने अपना समूचा व्यक्तित्व, समूचा इह एक ही बार स्रुवा में भरकर उँड़ेल दिया-वह संयत नहीं था, इसीलिए शायद-आनन्द भी नहीं हुआ-यद्यपि इतनी बड़ी वेदना हुई कि उसे ट्रेजेडी भी नहीं कह सकती।...’

‘एक बार मैंने मान से कहा था, “क्या मेरे लिए लिख सकते हो?” तुमने कहा था कि आदर्श पर्याप्त नहीं है, आदर्शों का एक स्थूल प्रतीक चाहिए; और तब मैं प्रतीक बनने को आ खड़ी हुयी थी...शेखर, उसमें अहंकार नहीं था-यह दावा नहीं था कि मैं तुम्हारे जीवन का अथ और इति हूँ-अपने को अन्त मानने का दुस्साहस मैंने नहीं किया...केवल इतना था कि अपना जीवन नष्ट करके-होम कर देकर, राख कर देकर-मैंने माँगा था, चाहा था, कि वह तुममें फलित हो, तुममें अपनी सिद्धि पाये। तुम हो गये थे प्रतीक, मेरे लिए मेरे अपने जीवन के प्रतीक-हमारे आसपास हहराते हुए वैफल्य और कुंठा और निराशा और खंडन के सागर में मेरे अवस्थान के, मेरे संतरण के प्रतीक...इसीलिए मैंने कहा था कि मेरे लिए लिखो-तुम्हारे जीवन में आशा देने के लिए नहीं, तुमसे आशा माँगने के लिए...

‘तुमने मुझे जो दिया, वह मैंने कृतज्ञ होकर स्वीकार किया-वर मानकर, अधिकार मानकर नहीं, यह कल्पना मैंने नहीं की कि मैं उसे सदा के लिए बाँध रखूँगी। तुम्हारी आवश्यकता मुझे है, क्योंकि मेरा खंडित व्यक्तित्व तुम्हारे द्वारा अभिव्यंजना का मार्ग पाता है-तुम्हारे द्वारा, और तुम्हारे लिए मैं जो स्वप्न देखती हूँ उनके द्वारा; किन्तु मैं जानती हूँ, देखती हूँ, कि तुम खंडित नहीं हो, और इसलिए मेरा निश्चय है कि जहाँ तक मेरा वश है, वह मेरा प्यार नहीं होगा, जो तुम्हें बन्दी बनाने का यत्न करेगा...शेखर, मेरा तुम पर अगाध स्नेह है,पर मैं चाहती हूँ कि तुम जानो कि मैंने तुम्हें बाँधा नहीं, बाँधती नहीं-न अब, जब मैं हूँ, और न-पीछे...’

‘तुम्हारा अपना भविष्य है, शेखर; मेरा भविष्य तुम और केवल तुम थे। उस

अपने भविष्य की खोज में यदि-’

शेखर शशि की ओर देखता है कि यह सब अभी तुम्हार सामने पढ़ना अनिवार्य है या-पर देखता है, उस पत्र से भी कुछ अधिक, तात्कालिक शशि की आँखें कह रही हैं, वह उसके बहुत पास चला आता है; शशि के ओठ कुछ कहना चाहते हैं, पर निश्शब्द हैं, शायद निश्शब्द ही कुछ कहना चाहते हैं-शेखर उन पर अपने ओठ रख देता है और उनका कम्पन स्थिर हो जाता है, शेखर शशि की आँखों से आँखें मिलाता है और धीरे-धीरे उठता है-जानता है कि शशि की बात उसने सुन ली, चूमे जाने भर की क्षमता उन ओठों में शेष थी-उसके बाद और शब्द नहीं, केवल स्नायविक कम्पन, जिन्हें मानो वश करने का उद्योग संकल्पना धीरे-धीरे व्यर्थ मानकर छोड़ देती है-सब तनाव और खिंचाव और कर्षणों के एक परम शमन में-

‘उस अपने भविष्य की खोज में यदि तुम्हें मेरी याद आये तो अपने को इसलिए अपराधी मत ठहरना कि मेरे बिना तुम अकेले आगे चल सके; तुम चल सके, यह मेरी पराजय नहीं, मेरी अन्तिम विजय होगी...’

शशि का सारा शरीर निःस्पन्द जड़ हो गया था, सिवाय आँखों के-

‘कभी, एक दिन, एक क्षण भर के आदर्श माने जाने का सौभाग्य हर किसी को मिल जाता है; पर चिरन्तन आदर्श कोई नहीं है, न हो सकता है। इसलिए जो अपने प्रिय के प्रति ‘चिरन्तन’ सच्चा है, वह अवश्य किसी आदर्श से च्युत है, और जो आदर्श के प्रति निष्ठावान् है, वह अवश्य, कभी-न-कभी प्रिय को झर जाने देगा...साधारण मानव और कलाकार-विद्रोही में यही अन्तर है...मैं नहीं चाहती कि तुम मानव कम होओ, शेखर, किन्तु अगर तुममें उसकी क्षमता है, तो उससे बड़े होने की अनुमति-स्वाधीनता मैं तुम्हें सहर्ष देती हूँ...’

आँखें शशि की मरी नहीं; उनके भीतर का उदार निर्भय आलोक, समिधा चुक गयी देखकर अपने भीतर तिरोभूत हो गया...

‘हम दोनों वर्षों से एक भवन बनाते रहे हैं, तुम और मैं, जिसमें न तुम रहोगे, न मैं...किन्तु हम उसमें नहीं रहेंगे, इसी मात्र से वह कम सुन्दर नहीं होगा...’

इस प्रशान्ति में, सिमटे हुए आलोक में भी क्या क्रन्दन है; चीत्कार है? स्तब्ध-प्राण शेखर का देह-यन्त्र खिड़की की ओर बढ़ा, खिड़की खुल गयी, दिन का प्रकाश भीतर भर आया...शेखर ने मुड़कर देखा, लाल किरणों से घुलकर शशि का चेहरा जीवन के रंग से चमक उठा था...

शेखर ठिठका रह गया-स्तब्ध, किसी अतिमानवी अलौकिक परिव्याप्ति के बोध से आप्लावित, किसी अन्तर्भव सत्य के उदय का प्रतीक्षमाण...

सहसा ज्ञान आया...

किन्तु इससे आगे कहानी नहीं है, अनुक्रम नहीं है। जीवन ने अर्थ खो दिया है, यथार्थता, व्यवस्था, गति सब-कुछ खो दिया है। निरा अस्तित्व-एक क्षण से दूसरे क्षण तक एक अणु-पुंज का बने रहना-वह भी मिट गया है। मैं एक छाया हूँ, एक स्वप्न, एक निराकार आक्रोश, एक वियोग, एक रहस्य...भावना-से-भावना तक भटकता हुआ एक विचार-हर जगह आग देता हुआ और स्वयं ज्वाला में झुलसता हुआ, जल उठता हुआ, निरन्तर उठता हुआ, उठता हुआ न, बुझता हुआ, न मरता हुआ...

मृत्यु, तू भी तो छाया है-ग्रस ले इस छाया को यदि सकत है तुझमें-यदि साहस है...मशाल को तोड़ दे, कुचल दे, मटियामेट कर दे-देह मशाल है और उसे एक दिन जलकर मिटना ही है, पर उसकी लौ तो ऊपर उठती है,-वह, और वह, और वह-तेरे चंगुल से परे, मुझे चुनौती देती हुई, अक्षय, मुक्त...

ग्रस उसे, छू उसे, यदि सकत है तुझमें, यदि साहस है...

एक युवक आया।

लाहौर से दादा ने दस्ती चिट्ठी भेजकर शेखर से अपील की थी कि अगर हो सके तो वह लाहौर आ जाए-दल के कुछ सदस्य जो बन्दी थे, कुछ दिनों बाद काले पानी भेजे जानेवाले हैं; यदि स्वाधीनता के आन्दोलन को जीवित रखना है, तो इस जीवित समाधि से उन्हें बचाना आवश्यक है, और इस कार्य में शेखर का सहयोग अनिवार्य है...शशि की तबीयत कैसी है, वे नहीं जानते, पर वे उसकी देखरेख और चिकित्सा का पूरा प्रबन्ध करने को तैयार हैं-

युवक ने समवेदना के स्वर में कहा, “दादा ने चिट्ठी दी तब वे नहीं जानते थे...आपको गहरा आघात पहुँचा है...पर आप चलिए, काम में आपको सान्त्वना मिलेगी, और काम बड़ी तपस्या का है...यदि शशि बहिन होतीं तो वे ज़रूर यही कहतीं-और मेरा विश्वास है कि अब भी इससे उनकी आत्मा को शान्ति मिलेगी-”

शेखर ने पहले सुना नहीं था, अन्तिम वाक्य सुना; चाहा कि एक थप्पड़ मार दे इस युवक के मुँह पर, जो इतनी आसानी से बात कर सकता है; फिर कहा केवल इतना कि ‘यह सब सँभालना होगा-और कारखाना-’

प्रणाम, यमुना; प्रणाम, पूर्वदिशा; प्रणाम, वैशाख के फूले हुए पलाश और बबूल; प्रणाम, झाऊ के उदास मर्मर और धूल के बगूले; प्रणाम, दो पैरों से लाख बार रौंदें हुए रेतीले नदी तट; प्रणाम, बही हुई मुट्ठी भर राख...मैं सोचता था, कि यदि ऐसा न होकर वैसा होता, और वैसा होता, और वैसा होता, तो...पर आज सोचता हूँ कि नहीं, आज लगभग माँग रहा हूँ कि यदि फिर कुछ हो तो ऐसा ही हो; छाया, हम-तुम भी ऐसे ही हों-अलग पर सदा एक-दूसरे की ओर अग्रसर होने में सचेष्ट, साधारण अभिधा में ग़ैर, पर वास्तव में अखंड विश्वास में बँधे, धमनी के एक...

छाया, तुम्हें भूलने नहीं जाता, तुम साथ चलो-पहले मौसी के पास और गौरा के पास, फिर-आगे; कर्म में विस्मरण नहीं है, शशि कर्म में तुम हो, चिरन्तन प्रेरणा-चिरन्तन क्योंकि मुक्त और-मोक्षदा...