शेखर: एक जीवनी / भाग 2 / शशि और शेखर / अज्ञेय

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क्या बाबा मदनसिंह का स्वर है यह, जिसकी गूँज मेरे कानों में है? क्या यह उत्फुल्ल गरिष्ठ स्वर उसी वीर का है, जिसकी निबलता भी उसके स्वर से गौरव-युक्त हो जाती थी?

“अपने विचारों को इस चारदीवारी से बाहर मत भटकने दो। अपने सगों का विचार करके तुम उनकी यातना नहीं घटा सकते, न उन्हें कोई सुख पहुँचा सकते हो। उलटे हर समय उनके क्लेश की याद से तुम अपनी दृढ़ता की नींव खोद रहे हो!”

क्या यह सच है? नहीं, यह बाबा का स्वर नहीं हो सकता-बाबा का ज्ञान इससे बड़ा था! तब क्या है यह? मेरा अहंकार है?

अतीत से मेरी दृढ़ता घटती नहीं, बढ़ती है, क्योंकि जितना ही मैं उसे देखता हूँ, उतना ही मैं उसके भीतर की अनिवार्यता को पहचानता हूँ-जानता हूँ कि आज वह ‘भूत’ इसलिए है कि एक दिन वह भविष्य-अवश्य भवितव्य-था...मैं जानता हूँ कि मुझे लड़ना होगा, हमें लड़ते जाना होगा, कि लड़ाई से होनेवाले क्लेश के कारण रुक जाना उस क्लेश और अन्याय और महायातना को स्थायी बनाना है, जो पहले से मौजूद है...

लेकिन वह गम्भीर स्वर मुझसे सहमत भी होता है,-घूम-घूमकर सनक उठता है, “बन्दी, एक दिन आएगा जब तुम आज की इस यातना के गौरव के लिए अपनी दाहिनी भुजा देने को तैयार होगे-इतना बड़ा है यह गौरव-”

क्यों? क्या मैं आज भी तैयार नहीं हूँ? क्या मैं आज भी केवल एक भुजा नहीं, अपना सिर भी देने को तैयार नहीं हूँ?

वह स्वर हँसता है। “सिर? सिर तो तुम्हारा दे दिया गया।”

किन्तु क्या यह स्वर सच है? क्या यह आत्मरक्षा का एक साधन नहीं है? क्या यह यातना सचमुच गौरव है, क्या वह सचमुच गौरव नहीं होता, जिसकी याद का यत्न ही मुझे ऐसा डरा देता है कि मैं बहाने खोजता हूँ? यदि मैं ‘साधारण’ मानव ही होता, अखबारों का और हस्ताक्षर माँगनेवालों का और सिपाहियों का और साम्राज्य-सत्ता का खिलौना न होता, केवल जीने और रहने और मरने की स्पष्टतया अकिंचन परम्परा में प्यार पा और दे लेनेवाला एक ‘कोई’, तो क्या सचमुच उसका गौरव बहुत कम होता?

तुम्हारा जाना भी भवितव्य था या नहीं, शशि, मैं नहीं जानता, पर तुम चली तो गयी हो; और मुझे यह मानने में शर्म नहीं कि तुम न गयी होतीं तो-तो...

पर नहीं, परिताप कैसे हो सकता? तुम्हीं होतीं, तो परिताप की जरूरत किस बात के लिए होती!

फाटक के बाहर खड़ा होकर शेखर कुछ क्षणों के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। क्षण भर तो उसे ऐसा लगा, मानो वह फिर जेल लौट जाना चाहता है, बाहर आने में उसकी अनिच्छा है। फिर उसने अपने पैरों को बाध्य किया कि वे आगे बढ़ें। एक-एक मंजिल नाँघता हुआ वह मानो अपने को चलता रखने के लिए अपने को याद दिलाता जाता, ‘यह तुम क्वार्टरों से आगे निकल आये।’ ‘यह मुर्दाघर पीछे रह गया।’ ‘यह लुहार-हाता भी निकल गया।’ ‘यह बाहर का जँगला है और यह फाटक, और अब तुम सड़क पर हो।’ ‘वह सड़क का मोड़ है।’

मोड़ पर वह फिर क्षण भर रुका; फिर अनिश्चय की, अनिच्छा की एक रगड़ उसके हृदय को छीलती चली गयी। साथ ही उसने जान लिया कि वह अनिच्छा लौटने की इच्छा नहीं है, वह उधर बढ़ने का डर है, जिधर वह जा रहा है।

वह कहाँ जाए? कॉलेज? स्वप्नवत् एक दृश्य उसके आगे दौड़ गया-लड़कों की भीड़ शेखर को घेरे है, कुछ उसे कन्धों पर उठाना चाहते हैं, और हल्ला हो रहा है-जिन्दाबाद! शेखर! इन्कलाब! और उसके तत्काल बाद एक दूसरा चित्र-टिकटी पर मोहसिन नंगा हुआ बँधा है, और उसके चूतड़ों की चिरियों से खून बह रहा है। नहीं, कॉलेज में उसके लिए स्थान नहीं है-और दस मास बाद क्या उसका नाम खाते पर होगा?

डरते-डरते उसका मन फिर उधर को बढ़ने लगा, जिधर से अनिच्छा का सोता फूटा था-शशि के घर? “उस शशि को आशीर्वाद, जो आज तक तुम्हारी बहिन थी...उस पद से तुम्हें अन्तिम बार प्रणाम करती है...” क्या मैं उसे जानता हूँ? क्या वह बदल नहीं गयी है, क्या वह चली नहीं गयी है-क्या ‘शादी के बाद रमा अपने घर चली गयी,’ वाली बात उसके लिए भी वैसी ही दुर्निवार सच नहीं हो गयी, जैसी एक दिन पहले भी शेखर के जीवन में हुई थी?

नहीं, नहीं, नहीं! यह मेरी नीचता है!

और अपने को दिलासा देने के लिए शेखर ने हठात् बाबा का वाक्य याद किया-‘दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है’-क्या मुझमें विश्वास की कमी है?

वह आगे चल पड़ा। लेकिन कदम उठाने की प्रेरणा के साथ ही उसने जान लिया कि वह शशि के घर की ओर नहीं उठ रहा है।

वह नहीं समझ सका कि क्यों उसके पैर उसे इस प्रोफ़ेसर के घर ले आये हैं। प्रोफ़ेसर हीथ से उसकी कभी विशेष घनिष्ठता नहीं हुई थी, और इस समय कोई कारण नहीं था कि वह उधर आकर्षित हो-प्रोफ़ेसर हीथ अँग्रेज थे और शेखर ने उपन्यासों से ब्रिटिश मध्यवर्ग के आदमी का जो खाका खींचा था, वह उन पर बहुत ठीक उतरता था। सामाजिक अलगाव, रूढ़ि-बद्धता, रीति-व्यवहार के कड़े बन्धनों के नीचे छिपी हुई शर्मिन्दा-सी भावुकता-शेखर ने समझ रखा था कि ये सब बातें प्रोफेसर हीथ में पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। इस समय उनसे मिलने में उसके बिखरे हुए मन को एकाग्र होने के लिए काफ़ी ज़ोर लगाना पड़ेगा-शायद वह उसके लिए असमर्थ होकर बुद्धू बने...पर क्या कहीं इस विवश एकाग्रता के लिए ही तो नहीं वह उधर जा रहा था? एकाग्र होने को बाध्य होना एक सामाजिक लड़ाई के लिए बाध्य होना है, और उसकी डरी हुई आत्मा लड़ाई से ही तो भागना चाहती है...

प्रोफ़ेसर साहब उसे सीढ़ियों पर से मिले। उनके चेहरे का पहला विस्मय-भाव फ़ौरन ही प्रसन्नता में परिणत हो गया-”हैलो शेखर! तुम आ गये?” और उसके कुछ कहने से पहले, “बिलकुल बरी हो न-कोई झंझट बाकी तो नहीं है?”

हाथ मिलाकर शेखर ने हाथ खींच लिया, पर उसके चेहरे की मुस्कराहट बनी रही।

“जी हाँ, कोई झंझट बाकी नहीं है। सब कुछ-पूर्ववत् हो गया है।” एक छाया उसके अन्तर्पट पर दौड़ गयी-क्या सचमुच? और शशि...

“अच्छा, तो तुम भीतर बैठोगे न? मैं एक क्लास लेने जा रहा हूँ-मुफ्त की झंझट सिर आ पड़ी थी-चाय तो नहीं पियोगे न-ज़रूर मेरे साथ पीना-भीतर पुस्तकें बहुत हैं-और चित्र-”

“धन्यवाद; मैं केवल मिलने आया था; फिर मिलूँगा-”

“नहीं, चाय तो तुम्हें पीनी होगी-” शेखर के चेहरे पर विकलता का भाव देखकर, “क्या दूसरा काम है? तो फिर चाय के समय तक लौट आना-हाँ, तुम्हारी रिहाई कब हुई थी?”

शेखर ने धीरे-धीरे कहा, “रिहा होकर सीधा यहाँ आ रहा हूँ।”

“ऐं-सच? तब तो तुम्हें अपने बन्धुओं से मिलना होगा, मैं अन्याय कर रहा हूँ। तुम मिल आओ। चाय पर अवश्य आना-”

प्रोफ़ेसर के साथ उतरता हुआ शेखर एक खोखली मुस्कान लेकर रह गया। नीचे उतरने के बाद वे जब चाय का न्योता दुहराकर चले गये, तब वह मुस्कान हँसी में फूट निकली-‘बन्धुओं से मिलना!’ शेखर ने ऐसा मुँह बनाया, जैसे कोई कड़वी वस्तु खा गया हो।

शेखर के चचा तिमंजले पर रहते थे। सीढ़ियाँ चढ़ने में शेखर को कम आत्मग्लानि नहीं हुई थी, और उन तंग सीढ़ियों पर समय इतना लगता था कि आत्मग्लानि की चरम सीमा तक पहुँचा जा सकता था...शेखर का साहस-नहीं, साहस की कमी से पैदा हुई बाध्यता-ऊपर पहुँचते-पहुँचते मुरझा गयी थी। बन्द किवाड़ की साँकल पर हाथ रखकर वह क्षण भर रुका रहा।

मुझमें और इस डाक विभाग के इन्स्पेक्टर चचा में क्या साम्य, क्या सम्बन्ध है? शेखर को याद आया, एक बार गर्मियों के दिनों में कॉलेज में वह बीमार हुआ था तो चचा से समाचार जानकर चाची ने एक तोला इमली भिजवाई भी कि इसका शर्बत करके पिए...शेखर यदि मनुष्य न होकर एक बोरिंग चिट्ठी होता, तो चचा को उसमें अधिक दिलचस्पी हो सकती-वर्ना शेखर उनकी दुनिया के बाहर की वस्तु था...उसका हाथ कुंडे पर से उठ गया और वह दबे पाँव नीचे उतर गया।

शशि का घर वहाँ से बहुत दूर नहीं होना चाहिए-पते से शेखर ने ऐसा अनुमान लगाया, पर वहाँ तो जाना नहीं है-और-

क्यों शेखर ने शशि की सब चिट्ठियाँ फाड़ दी थीं? इस समय उनकी कितनी जरूरत थी उसे-उनकी घनिष्ठता की, उनके प्यार की, उनकी उस समीपता की ‘जो अन्तिम प्रमाण कर गयी है’! उफ़ यदि वे पत्र होते, तो शेखर फिर खींच ला सकता उस बीती हुई स्थिति को-

जैसे पत्र कभी प्यार का स्थान ले सकते हैं।

मूर्ख कहीं का!

शेखर समय से पहले नहीं पहुँचा था। किवाड़ खटखटाते ही खुल गया और प्रोफ़ेसर हीथ ने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा, “शेखर, तुम्हारे लिए एक सरप्राइज रखा है।”

शेखर ने आँख उठायी। परिचय की ज़रूरत नहीं थी, सामने शेखर का मुकदमा सुननेवाले मजिस्ट्रेट साहब बैठे थे।

मिस्टर बर्नेस ने कहा, “रिहाई पर बधाइयाँ।”

शेखर ने तत्काल उत्तर दिया, “फैसले पर आपको भी बधाई-कम-से-कम फैसले के इस अंश पर!” वातावरण कुछ हल्का हो गया। शेखर बैठ गया, इधर-उधर की बातें होने लगीं। प्रोफ़ेसर हीथ ने बताया कि उन्होंने बर्नेस को भी चाय के लिए निमन्त्रित कर लिया था ताकि बातचीत दिलचस्प हो सके, और वे परस्पर अपने असली भाव व्यक्त कर सकें।

चाय शुरू हुई। बातचीत के सिलसिले में प्रोफ़ेसर ने बर्नेस को बताया कि शेखर लेखक है। “क्या लिखते हैं आप-” बर्नेस ने प्रश्न शुरू ही किया था कि प्रोफ़ेसर ने उत्तर दे दिया, “शेखर प्रायः गल्प लिखता है, कभी कुछ-”

“मैंने पहले ही यही सोचा था।”

शेखर ने कुछ उत्सुक होकर पूछा, “क्यों?”

“क्योंकि अदालत में आपकी सफ़ाई का बयान गल्प-कला का बढ़िया नमूना था!” कहकर बर्नेस अपने मज़ाक पर खिलखिलाकर हँस पड़े।

मोहसिन के नंगे चूतड़ और बाबा के अन्तिम दिन की आँखें शेखर के आगे नाच गयी; अपना अपमान उसे दुगना तीव्र होकर चुभ गया, पर उसने ढीठ होकर हँसते हुए कहा, “आपकी साहित्यिक परख का मैं कायल नहीं हो सकता।” मन-ही-मन निश्चय किया कि वह बदला लेगा।

प्रोफ़ेसर हीथ ने शायद बात टालने के लिए कहा, “शेखर मैंने सोचा कि तुम दोनों यहाँ होगे, तो एक-दूसरे को जानने का अच्छा मौका मिलेगा। प्रायः भारत में भारतीयों और अँग्रेजों का सम्बन्ध ऐसा रहता है कि हम लोग तकल्लुफ़ में ही रह जाते हैं। मिस्टर बर्नेस को साहित्य में बहुत रुचि है। शतरंज के भी खिलाड़ी हैं। बर्नेस, कभी शेखर को अपने यहाँ बुलाना-” उन्होंने बर्नेस की ओर देखा, वे बोले, “अवश्य ही-”; प्रोफ़ेसर फिर कहने लगे, “और शेखर, तुम अवश्य इनके यहाँ जाना। श्रीमती बर्नेस बड़ी सज्जन हैं और कई दृष्टियों से असाधारण महिला हैं-”

शेखर को रास्ता दीखा। उसने कुछ खिलकर कहा, “मैंने पहले ही यही सोचा था।”

बर्नेस कुछ चौंके, लेकिन उनके मन का प्रश्न व्यक्त हुआ प्रोफ़ेसर के मुँह से-”क्यों?”

“क्योंकि अदालत में मिस्टर बर्नेस को देखकर मुझे ख्याल आया करता था कि यह व्यक्ति किसी असाधारण स्त्री का ही पति होगा।” सन्तुष्ट होकर शेखर कुछ पीछे झुककर आराम से बैठ गया। वातावरण में आये हुए हल्के-से तनाव को दूर करने की इच्छा से प्रोफ़ेसर ने पैंतरा बदला, “शेखर, तुम अँग्रेजी में क्यों नहीं लिखते?”

शेखर ने कुछ सोचते-से स्वर में कहा, “अँग्रेज़ी में...?”

“हाँ, इधर कुछ समय से उधर के लोग भारत में काफ़ी दिलचस्पी लेने लगे हैं। यदि भारतीय जीवन के कुछ चित्र कहानी के रूप में अँग्रेज़ी पाठक के आगे रखे जाएँ, तो शायद काफ़ी पसन्द किये जाएँ।” कहते-कहते प्रोफ़ेसर ने सम्मति के लिए बर्नेस की ओर देखा।

“हूँ-ऐसी चीज़ों के लिए अमरीका में तो काफी माँग है, पर मेरे ख्याल में हम लोग तो बहुत आकर्षित नहीं हैं। निजी तौर पर मुझे तो बहुत अच्छी लगती हैं, पर हम अँग्रेज़ कोई खास पसन्द नहीं करते।”

प्रोफ़ेसर हीथ ने सहमति जताते हुए कहा, “हाँ, हमारे लिए वे कोई महत्त्व नहीं रखतीं-”

शेखर ने प्रोफ़ेसर की ओर उन्मुख होकर पूछा, “वैसे आपका क्या ख़्याल है-यानी निजी तौर पर आपका? क्या आपको वे पसन्द आती है?”

“हाँ, अवश्य; मैं तो बहुत पसन्द करता हूँ-”

शेखर उठ बैठा। तो ये है बात! ये दोनों ही व्यक्ति किसी वस्तु को चाहते हैं, किन्तु फिर भी कहते हैं, हमें उसमें दिलचस्पी नहीं है, हमारे लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है, हम परवाह नहीं करते-हम जो एक देश हैं, एक राष्ट्र हैं, एक इकाई हैं, हम जो हम हैं, हम थे, हम रहेंगे...

उसे लगा, जैसे किसी ने उसे थप्पड़ मारा है। उसके दाँत घुँटकर बन्द हो गये, उसकी आँखों में दो अपूर्ण आँसू जलने लगे। किसी तरह दो-चार घूँट और पीकर उसने विदा माँगी, और बाहर जल्दी से नीचे उतर गया।

क्या हमारे देशवासी भी ऐसे कहते हैं-कह सकते हैं? हाय भारत! हाय हम! हाय हम!

सड़क पर बत्ती जलने के पहले के धुँधले चिकले अरुणाले प्रकाश में उसे लगने लगा कि वह व्यर्थ ही उत्तेजित हो गया है, जेल से आने के पहले दिन की उत्तेजना अप्रत्यक्ष मार्गों में प्रकट हो रही है...क्या हमारी भी संस्कृति एक नहीं है, क्या ब्रिटेन से पचीस गुने वर्गफल और दस-गुनी आबादी के इस देश में ब्रिटेन की अपेक्षा अधिक घनीभूत सांस्कृतिक एका नहीं है? और यहाँ भी अकेले व्यक्ति की रुचि और समूह के सम्मान में वैसा ही भेद हो सकता है-‘मैं’ एलियट अथवा एज़रा पाउंड पसन्द कर सकता हूँ, जबकि ‘हमारी’ रुचि छायावाद की ओर है...व्यर्थ ही हिस्टीरिकल (उन्माद-ग्रस्त)हो रहा हूँ...

पर उसका मन नहीं माना, उसे लगा कि वह खींचतान कर अपनी सफ़ाई दे रहा है। बात चाहे वैसी हो, उसकी चेतना हममें नहीं है, अपनी एकता का अभिमान तो क्या, उसका जीता-जागता ज्ञान भी हमें नहीं है। वह एक मरा हुआ सत्य है, इसलिए झूठ है...

कसक उसके मन में बनी रही। वर्षा में बैठकर भीगता हुआ बन्दर अपने भाग्य से जब भी कुछ सन्तुष्ठ होने लगे, तभी ऊपर से ओले पड़ने लगें, तब जैसा ओछा वह अपने को अनुभव करता होगा, वैसा ही शेखर उस समय कर रहा था, और किसी भीतरी ग्लानि की गरदनियों से घिकलता हुआ चला जा रहा था...

एकाएक बत्तियाँ जलीं, वह ठिठक चला। उसकी आँखें जिस जगह टिकी थीं वहाँ एक पीतल का बोर्ड लगा हुआ था।

शेखर के सामने शशि का घर था।

‘भोगनेवाले प्राणी में और रचना करनेवाले कलाकार में सदा एक अलगाव बना रहता है। जितना ही बड़ा वह अलगाव है, उतना ही बड़ा कलाकार होगा।’

लेकिन क्या मैं कलाकार हूँ? क्या मुझे कलाकार होने की परवाह है, जब कि मैं उस जीवन को जी सकता हूँ, जो कि तुम्हारे संसर्ग से बना है? अलगाव का मुझे क्यों मोह, तटस्थता से मुझे क्यों प्रेम, जब कि मैं जीवन के एक अणु से भी अलग नहीं होना चाहता; जब कि उसका एक-एक अणु तुमसे अनुप्राणित है! कलाकार मुझसे बड़े हैं, हुआ करें; मैं झुका हुआ हूँ, स्तब्ध हूँ, प्रतीक्षमान हूँ और जानता हूँ कि तुम्हारा वरद हस्त मेरे ऊपर है...

शेखर तनिक-सा काँप गया, पर कोई आशंका इतनी बड़ी नहीं थी एक बार उस द्वार के आगे ही जाने पर शेखर को मोड़ ले जाए। शेखर ने दो बड़े लम्बे-लम्बे श्वास खींचे, जैसे कोई झील में कूदने से पहले खींचता है। उन साँसों के साथ वह जैसे बहुत-सी सम्भावनाओं को एक साथ ही पी गया-जिसमें एक यह भी थी कि शशि पराई है-पराई ही नहीं, सदा के लिए अपरिचित हो गयी है, क्योंकि वह परिचय के घेरे से स्वयं निकल गयी है।

फिर उसने किवाड़ खटखटाने के लिए हाथ उठाया, पर तत्काल ही अनुभव करके कि यहाँ कुछ समय और रुकने का बहाना है, उसने हाथ खींच लिया और सीढ़ियाँ चढ़कर दुमंज़िले पर जा पहुँचा।

बैठक में तीन-चार कुर्सियाँ पड़ी थीं। एक पर कोई सूटधारी व्यक्ति बैठा हुआ फल खा रहा था; उसके आगे की तिपाई पर चाय के जूठे बर्तन भी पड़े थे। शेखर के आने के स्वर से उस व्यक्ति ने मुड़कर देखा, और सहसा उसकी आँखों में अपरिचय घना हो आया। शेखर ने उस क्षण में दो बातें देखीं-कि सूट अच्छा फिट बैठता है, और उस व्यक्ति की भँवें बहुत घनी और बीच में मिली हुई हैं। फिर उसने कहा, “मेरा नाम चन्द्रशेखर है-”

“आइए, आइए-आप कब आए? यह तो बड़ा अच्छा दिन है...” वह व्यक्ति जल्दी से उठकर आगे बढ़ा और फिर रुककर बोला, “आइए, आइए बैठिए न-” श्ेाखर ने देखा कि वाक्य के आरम्भ का सहज भाव क्रमशः शिष्टाचार के आवरण में छिप गया है, और जैसे वह व्यक्ति भी इसका अनुभव करके ही कुछ बात कर डालना चाह रहा है।

“शशि से तो अक्सर आप ही की बातें होती हैं। हम लोग तो वहीं मिलने आने की सोच रहे थे; पर इधर कुछ-यह काम भी बड़ा-” सहसा पुकारकर, ‘शशि, यह देखना, कौन आये हैं, तुम्हारे भइया!”

तो यही शशि के पति रामेश्वर हैं। प्रतीक्षा के दो-एक क्षणों के बाद भीतर के कमरे की ओट से शशि आयी। देहरी पर पैर रखते ही उसने पूछा, “अरे, तुम कैसे आ गये?” और ठिठक गयी।

एक मुस्कराहट भी नहीं-चेहरे पर किसी तरह का कोई भाव नहीं झलका। पर क्या उन बड़ी-बड़ी खुली आँखों का स्निग्ध विस्मय और उस प्रश्न की सहज आत्मीयता झूठी थी? पर-किन्तु शेखर को निराश होने का समय नहीं मिला।

रामेश्वर ने कहा, “मैंने तो शशि से कहा भी था कि कम-से-कम फैसले के दिन तो मिल ही आवें, पर इन्होंने कोई खास उत्साह ही नहीं दिखाया-” शेखर ने शशि की ओर पुष्टि के लिए देखा, पर शशि की शून्य दृष्टि में कोई उत्तर नहीं था-”फिर मैं भी रह गया। मैं तो कहता हूँ कि ऐसे वीर पुरुष के दर्शन करना भी सौभाग्य से ही मिलता है। आप तो त्यागी महात्मा हैं।”

नहीं, यह सच नहीं हो सकता! पर यह मिथ्या प्रशंसा किसके लिए है, उसके या शशि के? उसने छिपी हुई पर भेदक दृष्टि से रामेश्वर की ओर देखा, और स्थिर भाव से शशि की ओर ही देख रहा था। शशि अब भी चुप ही थी, और वैसे ही एक पैर देहरी पर रखे खड़ी थी।

“अरे, आप अच्छी बहिन हैं-न नमस्कार, न कुछ, न बैठने तक को कहा; लाइए न इनके लिए कुछ चाय वगैरह-लीजिए तब तक फल खाइए-”

शेखर के कुछ ननुनच करने से पहले ही शशि वहीं से मुड़कर भीतर चली गयी और मिनट भर बाद एक प्याला चाय वहीं से तैयार करके ले आई।

“अरे, ऐसे-” कुछ हिचकती-सी दृष्टि से रामेश्वर ने मेज़ पर पड़ी हुई केतली, दूधदानी आदि की ओर देखा।

शेखर ने जल्दी से कहा, “ठीक है, ठीक है, असल में मैं चाय पीता भी नहीं हूँ-” और बात समाप्त करने के लिए प्याला अपनी ओर खींच लिया। शशि नीचे बिछी हुई चटाई पर बैठकर एक तश्तरी में कुछ फल रख रही थी।

रामेश्वर ने कुछ हँसकर कहा, “आपकी बहिन का स्वभाव विचित्र है।” हँसी में कोई सार नहीं था, उसका उद्देश्य केवल यही था कि इस उक्ति को आलोचना न समझा जाए, केवल बोध ही माना जाए।

शेखर ने भी कुछ हँसकर कहा, “असल में हमारा सारा कुनबा ही विचित्र है”

शशि ने एक द्रुत, तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा और फिर अपने काम में लग गयी। रामेश्वर ने कृत्रिम विस्मय से कहा, “अच्छा?” शेखर को लगा कि उसकी मुस्कराहट में हल्का-सा उपहास का भाव है। किन्तु क्यों, वह नहीं जान सका।

शेखर तुरन्त कोई नयी बात छेड़ना चाह रहा था, पर उसे कुछ सूझा ही नहीं। इस बीच शशि ने फल लाकर उसके आगे रख दिए। उसने पूछना चाहा कि तुम नहीं खातीं? पर यह सोचकर कि घर-घर का व्यवहार अलग-अलग होता है और शायद पति के सामने वह नहीं खाती होगी, उसने तश्तरी अपनी ओेर खींच ली और रामेश्वर से पूछा, “आप भी लीजिए न?”

“लीजिए, लीजिए-” कहकर उसने एक एक फाँक सन्तरे की उठा ली। आपकी तो हम कुछ खातिर ही नहीं कर रहे। और आप तो अभी सीधे छूटकर आ रहे हैं? हाँ, यह तो हमने पूछा ही नहीं कि फैसला कब क्या हुआ!”

शेखर छूटने के बाद जहाँ-जहाँ गया था, उसका ब्योरा बता दिया।

“आप अब ठहरे कहाँ हैं!”

शेखर ने कुछ हँसकर कहा, “अभी ठहरा कहाँ हूँ-अभी तो चल-ही-चल रहा हूँ!”

“अच्छा, तो आप यहीं रहिए न। बहिन का घर तो अपना घर होता है। आप जरूर यहीं रहिए, मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, और शशि को तो होगी ही। वह तो अक्सर आपकी बात करती रहती है-”

शेखर को हल्का-सा याद आया कि यह बात दूसरी बार कही जा रही है। उसने शशि की ओर देखा, पर जैसे इस निमन्त्रण से तटस्थ थी। रामेश्वर ने शेखर की दृष्टि का अनुसरण करते हुए कहा, “आप भी कहिए न इन्हें कि यहीं रहे? मुझसे तो शायद संकोच करते हैं-”

शशि ने दृष्टि नीचे किए हुए ही कहा, “मैं तो छोटी हूँ।”

यह उत्तर रामेश्वर को ही नहीं, शेखर को भी कुछ पहेली-सा लगा।

“तो क्या?” कुछ रुककर, जैसे नयी सूझ पाकर रामेश्वर ने कहा, “आप कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि छोटी बहिन के घर कैसे रहा जाए? चलिए-” और वह ज़ोर से हँसा, “आप इसे होटल ही समझकर दाम चुका दीजिएगा! पर आजकल तो”

शेखर ने कहा, “नहीं, यह बात तो बिलकुल नहीं है।” फिर वह भी हँसा। “नहीं तो मैं इन फलों के दाम निकालूँ? यह तो मैंने बिना वह सब सोचे ही खा लिये हैं।”

रामेश्वर ठठाकर हँसा।

किन्तु हँसी के शान्त होने के बाद फिर एक शून्य उत्पन्न हो गया-साथ हँसने के बाद घनिष्ठता नहीं, तो कम-से-कम परिचिति के जो हल्के तन्तु दो व्यक्तियों के बीच में बन जाने चाहिए, वह जैसे नहीं बने। शिष्टाचार के पैंतरे फिर होने लगे। रामेश्वर ने पूछा, “आप भोजन तो करेंगे न? शशि, भोजन में कितनी देर है?”

“तैयार ही है-”

“नहीं, भोजन तो-”

“वाह, यह कैसे हो सकता है? चाय तो मैं देर से पीता हूँ, इसीलिए आपसे पूछा था। समय तो भोजन करने का है। आइए, तब तक ज़रा घूम आएँ, लौटकर भोजन करेंगे।”

“जी नहीं, मुझे भूख बिलकुल नहीं रही, मेरा भोजन तो हो भी चुका है-यह फल। और-”

“चलिए, थोड़ा घूम तो आएँ, लौटने तक भूख लग आएगी-”

शेखर ने कहा, “घूमते-घूमते तो थक गया। अब चलता हूँ-ज़रा कॉलेज से पता लगाऊँ कि आगे कैसे क्या होगा!”

“यह सब तो कल हो जाएगा। पर आप थके हैं तो बैठिए, मैं ज़रा क्लब तक हो आऊँ, थोड़ा-सा काम है। अभी आता हूँ लौटकर।” फिर शशि की ओर उन्मुख होकर “ये यहीं ठहरेंगे, इन्हें जाने नहीं देना-जैसे भी हो राज़ी कर लेना।”

शेखर को बिना कुछ कहने का मौका दिए रामेश्वर नीचे उतर गया।

पाँच-सात दीर्घ सैकंडों तक कोई कुछ नहीं बोला। फिर शशि ने पूछा, “कहाँ रहोगे?”

शेखर जानता था कि शशि के यहाँ वह नहीं रहेगा। पर शशि उससे कहेगी भी नहीं, पति के कहने के बाद समर्थन में भी नहीं, यह उसे कुछ विचित्र लगा। पर निराशा को छिपाने के लिए वह जल्दी-जल्दी कुछ-न-कुछ झूठ आविष्कार करने के लिए बोला, “सोचता हूँ, होस्टल ही जाऊँगा। कॉलेज का पता करूँगा कि पढ़ाई आगे चलेगी कि नहीं। नहीं तो और कुछ सोचना होगा।”

“घर नहीं जाओगे? माताजी बीमार हैं।”

“अच्छा? पर मैं अभी तो नहीं जाऊँगा-”

“खाना खाओगे?”

“नहीं, इच्छा नहीं है।”

थोड़ी देर मौन रहा। फिर शशि ने पूछा, “जेल कैसा लगा?”

शेखर को अचानक उत्तर नहीं सूझा। बोला, “क्यों?”

“बहूत-से लोग जेल जाकर खट्टे हो जाते हैं-उनका किसी में विश्वास नहीं रहता। तुम तो वैसे नहीं हो गये?”

मदनसिंह का चित्र शेखर की अन्तर्दृष्टि के आगे दौड़ गया।

“धम्-नहीं। मैंने जेल में बहुत-कुछ सीखा है-काफ़ी कड़वा, पर मैं तो शायद कड़वा नहीं हुआ हूँ-”

शशि ने भरपूर दृष्टि से शेखर की आँखों की ओर देखा। उसकी दृष्टि में आश्वासन और सन्तोष देखकर शेखर को अच्छा लगा। शशि के इस विचित्र व्यवहार से जो रूखापन उसके प्राणों में समा रहा था, वह कुछ स्निग्ध हो गया।

“अब जल्दी-जल्दी कुछ निश्चय कर डालो न कि क्या करोगे। यों ही भटकना अच्छा नहीं है। अबकी जब आओगे तो मैं पूछूँगी कि क्या निश्चय किया है-अबकी क्यों, कल तो आओगे ही। आओगे न? वह भी तो कह गये हैं।”

शेखर ने चौंककर शशि की ओर देखा। शशि की बात में जो एक रहस्यमय अन्तर्ध्वनि है, वह क्या है? उसने एकाएक जाना कि आरम्भ में ही शशि ने कितनी बातें की हैं, प्रत्येक की स्पष्ट ध्वनि के नीचे एक गहरा और विशालतर अर्थ है-पर क्या? उसका ध्यान रामेश्वर की बातों की ओर गया-उसकी बातों में भी कुछ था जो-

उसके विचार रुक गये, पर वह निर्मम होकर उन्हें आगे घकेलने लगा और उनके प्रत्याक्रमण से तिलमिलाता गया-

यहाँ कुछ है जो रहस्यमय है, जिसके रामेश्वर और शशि साथी हैं-मैं उसमें गैर हूँ! क्या है वह? क्या यही बात है कि पति-पत्नी-सम्बन्ध के कारण उनमें एक गहरी आत्मीयता है, जिसको गहरी ही रहना चाहिए, क्योंकि वह आत्मीयता है, और जिसे उघाड़कर देखना चाहना पाप है? पर वह आत्मीयता तो प्यार की होती है, और प्यार में आनन्द मिलता है-क्या शशि सुखी है? नहीं, मुझे तो नहीं लगता कि शशि के और मेरे-बीच में जो अनविच्छेद्य पर्दा खड़ा हो गया है, वह वही पर्दा है जिसके पीछे आनन्द भोगनेवाला व्यक्ति जा छिपता है! आनन्द एक झिल्ली की तरह है, जिसमें व्यक्ति सिमटकर बन्द हो जाता है और दूसरों से पृथक् हो जाता है; अपना जीवन दूसरों के लिए देकर भी वह दूसरों में मिलता नहीं, उनसे अलग रहता है...क्या यही दूरी शशि ने पायी है?

नहीं। शशि मेरे जीवन से बाहर चली गयी है। सुख के कारण नहीं, वैसे ही। हम लोग अपरिचित हो गये हैं। तब नया जो परिचय होगा, वह रामेश्वर की मार्फत होगा, और रामेश्वर में और मुझमें साम्य क्या हैं? मेरे व्यसन अलग हैं। और शील-शील तो मुझमें है ही नहीं...शशि सुखी नहीं है, पर मैं यह जाननेवाला कोई नहीं हूँ कि उसे क्या दुःख है। मैं गैर जो ठहरा-

“क्या सोच रहे हो?”

शेखर ने सकपकाकर कहा, “कुछ नहीं, यों ही। अब चलूँगा।” वह उठ खड़ा हुआ। एक भीषण उत्साह उसके मन में उमड़ रहा था, जिसके कारण वह वहाँ ठहरना नहीं चाहता था।

शशि ने कहा, “बैठो अभी-” पर फिर उसके मुख की ओर देखकर चुपचाप उठ खड़ी हुई। शेखर के साथ-साथ वह सीढ़ियों के ऊपरवाले द्वार तक गयी। वहाँ पहुँचकर शेखर ने कुछ रुककर उसकी ओर मुड़कर कहा, “अच्छा, तो अब चलता हूँ-”

सहसा शशि ने पूछा, “देख लिया मेरा घर?”

तब एकाएक बाढ़-सी में शेखर ने देखा कि अगर कहीं दुराव है तो वह शशि का बनाया हुआ नहीं है, और अपनी कुढ़न की सम्पूर्ण तुच्छता का अनुभव करते हुए, निश्छल स्नेहभरे सहज अपनेपन के साथ उसने कहा, “देख लिया, शशि, बहुत कुछ देख लिया-और नीचे उतर गया।”

पीछे प्रश्न आया, “कब आओगे?” पर इस प्रश्नकर्त्री को वह जानता था, और इस अपनेपन के नाते समझता था कि यह प्रश्न जिज्ञासा नहीं है, केवल सूचना है कि वह प्रतीक्षा करेगी।

यह सब निरुद्देश्य आवेग लेकर मैं कहाँ जाऊँगा, क्या करूँगा?

“अब जल्दी-जल्दी कुछ निश्चय कर डालो न कि क्या करोगे...”

मैं क्या निश्चय करूँ? आगे मैंने कौन-से निश्चय किये हैं? या किये हैं तो कौन-से निश्चय का अनुसरण सम्भव हो सका है...क्या जीवन की अबाध गति ही मुझे लहर पर के उतराते हुए टीन के खाली डिब्बे की तरह इधर-उधर नहीं पटकती रही-कहीं पत्थर से टकरा गया तो ‘खन्न्!’ से गूँज उठा, पर वह गूँज प्राणों के विद्रोह की थोड़े ही थी वह केवल आन्तरिक शून्य की, खोखल में भरी हुई वायु की ही थी-कभी ऊँचा उठा और कभी नीचा धँसा, वह भी अपनी अन्तःशक्ति के सहारे नहीं, बहती लहर में प्रवहमान प्रेरणा के कारण...शक्ति के नाम पर मेरे पास क्या रहा है? एक आन्तरिक खोखलापन, जिसके कारण मैं तैरता गया हूँ, डूबा नहीं! क्या इसी सम्बल के सहारे जीवन का युद्ध लड़ा जाता है, क्या यही है वह पाथेय, जिससे कर्म का कँटीला पथ-

कविता, स्नपक; शब्दाडम्बर!

किन्तु इस दिशा में सोचने से तो कुछ सिद्ध नहीं होता। हो सकता है कि जीवन की लहर के प्रति अर्पित हो जाना ही सबसे बड़ा काम हो-पर यह मेरे स्वभाव के साथ तो नहीं चलता...या यही सही कि अभी इतनी मार नहीं खायी है कि वह सिद्धि स्वीकार्य जान पड़े-अभी संघर्ष बाकी है, जिसमें मैं अपने को प्रेरक मानता रहूँ-चाहे भ्रमवश...अहंकार-तो-अहंकार ही सही, पर जब तक अहंकार अघा न जाए, तब तक निष्काम आएगा कैसे, या सच्चा वह कैसे होगा?

“अबकी बार आओगे तो पूछूँगी कि क्या निश्चय किया है-”

सड़कों पर भटकते हुए शेखर ने आकाश की ओर देखा। शहर की जिस घूल ने उड़-उड़कर सड़क की बत्तियों की ज्योति फीकी कर दी थी, वह आकाश में भी छाई हुई थी। शेखर ने सोचा कि जेल के तारे शहर के तारों की अपेक्षा निर्मलतर होते हैं-और मन-ही-मन मुस्करा दिया। फिर उसे बाबा मदनसिंह की याद आयी; और निश्चय-वाला प्रश्न फिर सामने आ गया...

क्या करूँ मैं?

“अपने भीतर जो सत्य तुमने पाया है, वह दूसरों को दे सकते हो?”

शेखर को जान पड़ा कि यह बाबा का ही स्वर है। वह विस्मित नहीं हुआ, क्योंकि उसके विचारों पर बाबा की जो गहरी छाप पड़ी हुई थी, उसे वह जानता था। वह मानो बाबा के इस कल्पित स्वर से ही बातचीत करने लगा।

“तो क्या यह जीवन का उद्देश्य हो सकता है? पर मैंने सत्य कहाँ पाया है-मैंने तो सन्देह-ही-सन्देह पाए हैं!”

“वही सही। कोई भूतपूर्व सत्य अब असन्दिग्ध नहीं रहा है, यह भी एक नकारात्मक नहीं है।”

“पर नकारात्मा सत्य के सहारे-”

“शेखर, अपने भीतर कुरेदकर देखो। क्या कोई घटनात्मक राशि, कोई विश्वास वहाँ नहीं है, केवल ऋण ही ऋण है?”

‘विश्वास... “दर्द से भी बड़ा विश्वास”...शायद हो। अपने में विश्वास-यानी अहंकार। क्या वह उद्देश्य हो?’

“क्या तुम्हें कुछ भी नहीं दीखता, जो तुम कर सकते हो-अपने लिए नहीं, अपने से बड़ी किसी इकाई के लिए-अर्थात् कोई भी काम, जो तुम्हारा नाता तुमसे बड़ी किसी चीज़ से जोड़े?”

“जब अहंकार है, तब मुझसे बड़ा क्या! मैं ही तो बड़ी चीज़ हुआ न-!”

“टालो मत-तुम जानते हो कि तुम बच रहे हो, जानते हो कि अपने से बड़ी वस्तु की झाँकी तुमने पायी है-सभी पाते हैं-”

शेखर ने एक बार फिर आकाश की ओर देखा। वातावरण वैसा ही धूलभरा था, पर आकाश का रंग कुछ और गहरा हो गया था, इसलिए तारे कुछ कम धूमिल दीख रहे थे! एक तारे के टिमटिमाने में शेखर को ऐसा भी लगा कि वह दो-तीन रंगों में चमकता है और रंग कुछ पहचाने भी जाते हैं, नीला, लाल, श्वेत...

उसे याद आया कि रात किसी के यहाँ काटनी है, तो अब उस किसी को अपनी आसन्नता को सूचना देनी चाहिए। वह होस्टल की ओर चला, जहाँ कम-से-कम एक लड़का ऐसा था, जिसके यहाँ वह जा सके...

शेखर जब दुबारा शशि से मिला, तब रामेश्वर घर नहीं था। कुछ तो इसलिए, और कुछ इसलिए कि शेखर ने अपने भावी कार्यक्रम की कुछ रूपरेखा बना भी ली थी, वह शशि के सामने अधिक सुस्थ रूप में आ सका और बातचीत कर सका। कांग्रेस के और जेल के अनुभव, बाबा मदनसिंह के संस्मरण, उनके कुछ सूत्र और उनकी भव्य मृत्यु, रामजी और मोहसिन की बात, घटना के रूप में जितनी बातें बताई जा सकती थीं, सब उसने संक्षेप में बता दीं। शशि मुग्ध भाव से सुनती रही। पर जब शेखर पूरी बात कह चुका और कुछ यह भाव थी उसमें आ चला कि वह बहुत देर तक लगातार बोलता रहा है, तब शशि ने एकाएक ऐसे पूछा, जैसे बहुत देर से वह यही प्रश्न पूछना चाह रही थी-”और तुम?”

शेखर ने अचकचाकर कहा, “क्या?”

“यह तो सब बाहर की घटना है। तुमने अपनी बात तो कुछ कही नहीं। मैं वह भी सुनना चाहती हूँ।”

“अरे, मैं...” शेखर सकुचा गया। शशि से कैसे उस अन्तरंग जीवन की बात कहे, जिसमें शशि की ही देन इतनी बड़ी थी?

“नहीं, मैं ज़रूर सुनूँगी। आज चाहे न सही, पर छोडूँगी थोड़े ही। तुम बनो अपरिचित तो बनो, मैं तो नहीं बनती, न मुझे तुमसे डर लगता है।”

शेखर चौंका, फिर लज्जित होकर सिर झुकाए रह गया।

“अच्छा, कुछ निश्चय किया है क्या करोगे?”

“हाँ।”

शशि प्रतीक्षा में चुप रही, पर शेखर को न बोलते देख उसने पूछा, “क्या?”

शेखर को लगा कि जो वह कहना चाहता है, वह तभी कह सकेगा जब साथ ही उसका उपहास भी करता जाए, नहीं तो बात बड़ी बड़बोली लगेगी...हँसते हुए बोला, “कुछ करूँगा जिसे क्रान्ति कहते हैं। सब चीज़ उलट-पलटकर रखूँगा, कुछ टूट-फूट जाएगी तो कहूँगा कि पुरानी सड़ी हुई थी।”

शशि जानबूझकर और गम्भीर बनती हुई बोली, “हूँ। और?”

“और क्या? बाबा कहते थे, तोड़ना ही धर्म ही, बनता तो अपने-आप है। यानी अगर मेरा एक दाँत फूट जाए-टूट क्यों जाए, तुम तोड़ डालो-तो डेंटिस्ट अपने आप प्रकट हो जाएगा। यह विज्ञान का नियम है-कि प्रकृति को सूना मसूढ़ा अच्छा नहीं लगता।”

शशि ने उसी आरोपित गम्भीरता के साथ, पूछा “यह तो हुआ उद्देश्य। इसके लिए करोगे क्या?”

“करूँगा क्या? हथौड़ा तो पास होगा नहीं, और कंकड़ मारने से दाँत टूटेगा नहीं, इसलिए हर किसी के दाँत में रस्सी बाँधकर एक-एक पत्थर उसके नीचे लटकाऊँगा-कि दाँत अपने-आप खिंच आएँ! कश्मीर में मैंने एक बुढ़िया को दाँत से पत्थर लटकाए बैठे देखा था-उसका दाँत दुखता था।”

शशि थोड़ा-थोड़ा झल्ला रही है, यह देखकर कुछ और हँसकर शेखर ने कहा, “मतलब यह कि मैं लिखूँगा। दाँतों में पत्थर नहीं, अपनी पुस्तकों के थट्टे बाँधकर लटकाऊँगा, आखिर कभी तो इतना बोझ होगा कि-”

अब जाके शशि थोड़ा-सा मुस्कराई। बोली, “तो तुम साहित्यकार बनोगे? अच्छा।” एकाएक उसकी आँखों में एक दीप्ति जागी। “और तुम्हारा लिखना एक उद्देश्य के लिए होगा-विनाश के लिए और पुनर्निर्माण के लिए।” फिर उसने कुछ शान्त होकर कहा, “लेकिन शेखर, ऐसा लिखा हुआ सब अच्छा नहीं होता, सब साहित्य नहीं होता। वहाँ साहित्य का मोह करोगे कि उद्देश्य का?”

शेखर ने अनुभव किया कि अपनी बात को उपहास की आड़ में कहने की आवश्यकता नहीं थी। वह एकाएक गम्भीर होकर कहने लगा, “मोह तो मैं किसी का नहीं करूँगा। मोह ही तो वह दाँत है जो उखाड़ना है। पर उसके लिए तो कोई तरकीब निकालनी ही होगी-मैं जो कुछ लिखता हूँ, बहुत उबलकर लिखता हूँ, पर पीछे मुझे लगता है कि वह अच्छा नहीं है। बल्कि कभी यह भी लगता है कि उद्देश्य भी उसमें नहीं है, क्योंकि वह उबाल-ही-उबाल है, और उद्देश्य के लिए तो नक्शा बनाकर संयम से चलना चाहिए।”

दोनों चुप हो गये। एकाएक शशि ने उठकर कहा, “चाय बनानी है मुझे।”

शेखर ने विदा ली और चला आया।

शेखर ने ग्वालमंडी के पास एक चौमंजिले मकान की सबसे ऊपर की मंजिल में बारह रुपये महीने भाड़े पर डेढ़ कमरा लिया। बड़ा कमरा मकान के एक कोने पर था, आधे हिस्से में सीढ़ियों के लिए जगह घिर जाने के कारण कमरे का आकार चौरस न होकर कोण का हो गया था। कोण की बड़ी भुजा पूरब-पच्छिम थी, इसमें शेखर ने बैठक बनायी। दूसरी भुजा उत्तर-दक्खिन थी, इसमें उसने चारपाई रखी। इसके साथ ही एक छोटी-सी कोठरी थी, और कोठरी के बाहर सीढ़ियों से सटा हुआ छोटा-सा आँगन, जिसमें एक ओर पानी का नल था और दूसरी ओर किसी पहले किराएदार के चूल्हे की बची हुई लिपायी। पहले दिन तो शेखर को यह सोचकर आनन्द आया कि एक कमरे से वह दो कमरों का काम निकाल सकता है, दूसरे दिन उसे विस्मय होने लगा कि इस इतनी जगह में जो लोग गिरस्ती और बाल-बच्चे लेकर रहते होंगे, वे कैसे रहते होंगे; तीन दिन बाद उसने सोच लिया कि घर के बारे में ज्यादा सोचना भले लोगों का काम नहीं है। और फिर इस ‘घर’ का क्षेत्रफल उस कोठरी से लगभग दुगुना है, जिसमें बाबा मदनसिंह ने अठारह साल तक...बल्कि, यहाँ तो पटरा कमरे में रखना आवश्यक नहीं है, इसकी व्यवस्था नीचे अलग है...

नौकर है नहीं, खाना होटल से आ जाएगा (बिल का प्रश्न उठेगा, पर वह बाद का प्रश्न है।) अतः काम बहुत न था और फुर्सत पर्याप्त।

शेखर अपने बड़े-अर्थात् एकमात्र-कमरे में टहल रहा था। सोच रहा था कि इसी कमरे में उसे वह साहित्य उत्पन्न करना है, जो क्रान्ति की प्रेरणा देगा...एकाएक उसे ध्यान हुआ कि यह पहला अवसर है कि वह अपना अलग मकान लेकर अपने भरोसे अकेला खड़ा हुआ है-कि एक परिवार का या समुदाय का छोटा-सा अंग न होकर वह परिवार का मुखिया है-मुखिया ही क्यों, समूचा परिवार, क्योंकि और आगे-पीछे कौन है! जिस समाज को उसे बदलना है, उसी की वह एक स्वतन्त्र इकाई है...यह विचार कोई साधारण विचार नहीं था, पर इसमें शेखर का समूचा आग्रह समाज पर नहीं स्वतन्त्र इकाई पर था, इसलिए उसे यह नया मालूम हुआ। स्वतन्त्र होना, इकाई होना, अपने-आपको एक खंड, एक टुकड़ा, अस्तित्व का एक अल्पांश न देखकर समूचा देखना-चाहे वह अकेला कण, किन्तु सम्पूर्ण, जिसका एक स्पष्ट वास्तविक रूप है, एक छोटे-से अस्तित्व का पृथक् तेजपुंज...अभी उसने कुछ किया नहीं था, पर इस विचार में उसे बल मिला, सान्त्वना मिली, थोड़ा-सा रस मिला, जिसके सहारे वहाँ अपनी अवस्था का उज्ज्वल पक्ष देखने लगा...

उसे याद आया, कभी कहीं एक लेख उसने पढ़ा था, जिसमें मकान की उपल्ली मंजिल में रहने के लाभ बताए गये थे। क्या-क्या लाभ गिनाए गये थे, वह भूल गया था, पर अपने-आप भी तो सोचा जा सकता है! स्वच्छ वायु, एकान्त, नगर के कोलाहल से दूरी, जन-समाज के प्रति एक तटस्थता का भाव...बचपन में वह सोचा करता था कि जो लोग पहाड़ पर रहते हैं, वे ईश्वर के कुछ निकटतर होते होंगे...शेखर मन-ही-मन हँसा; फिर सोचने लगा कि इस ऊँचे जीवन-स्तर पर पहुँचकर वह क्या लिखे, जो दातव्य हो...

साहित्य-वह साहित्य जो क्रान्ति की प्रेरणा दे...और का्रन्ति? एकपक्षीय नहीं सर्वतोमुखी क्रान्ति? जो क्रान्ति एक दिशा में तभी बढ़ती है जब दूसरे मार्ग बन्द कर ले, वह क्रान्ति नहीं है। हम जो इतनी हलचल के बाद भी आगे नहीं बढ़ पाते, उसका यही कारण है कि हम प्रगति को कृत्रिम प्रणालियों में बहाना चाहते हैं। संयम आवश्यक होता है, पर यह संयम नहीं है। शेखर को केंचुए की जाति का एक छोटा चेंपदार कीड़ा याद आया, जो एक ओर बढ़ने के लिए दूसरी ओर सिकुड़ता जाता है; जब इधर का सिकुड़ना सीमा पर पहुँच जाता है, तब दूसरी ओर प्रसरण होने लगता है। हमारे कई नेता भी तो ऐसे हैं, किसी ने आर्थिक क्षेत्र चुना है, किसी ने सामाजिक, किसी ने राजनीतिक तो किसी ने धार्मिक, पर प्रत्येक ने अपनी हलचल की सतह के नीचे किसी स्तर में अपने अस्तित्व के किसी दूसरे क्षेत्र से अपने को संकुचित कर लिया है...

शायद यह संगठन का अनिवार्य दोष है? संगठन एक ध्येय लेकर होता है, उसका एक निश्चित कार्यक्रम हो जाता है, फलतः उसको बढ़ाने के लिए लोग दूसरी दिशाओं से हाथ खींच लेते हैं...

पर संगठन के बिना भी क्या होता है?

होता है। क्रान्ति का एक संगठित पक्ष है, तो एक महानतर व्यक्ति-पक्ष भी है। बिना संगठन के भी-बिना संगठन के ही-व्यक्ति अकेला भी बहुमुखी वृद्धि के बीच बो सकता है...और शायद जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए साहित्य का मार्ग चुनता है, वह तो कर ही यही सकता है, क्योंकि वह पहले व्यक्ति है, पीछे किसी संगठन का सदस्य! उसका तो विशेष धर्म है बहुमुखी क्रान्ति के लिए भूमि जोतना और बोना, क्रान्तिबीज की सिंचाई और निराई करना...

तीसरी बार जब शेखर शशि से मिला, तब उसके चेहरे पर प्रसन्नता का ऐसा भाव था कि उसे देखते ही शशि ने पूछा, “क्या कुछ लिख डाला है?”

“लिखा तो कुछ नहीं है, पर सोच-सोचकर कुछ समझ में आने लगा है। घर में लगा तो कुछ है नहीं, सोच-सोचकर नक्शे बनाता हूँ, अब लिखूँगा।”

रामेश्वर भी था। बोला, “तो आप लेखक बनना चाहते हैं? कॉलेज छोड़ने का ही निश्चय कर लिया?”

“वह तो अपने-आप छूट गया। दस महीने की अनुपस्थिति के बाद अब परीक्षा तो दे नहीं सकता, और नये सिरे से पढ़ने बैठकर दो साल लगाने का धीरज नहीं है। फिर पढ़कर कौन नौकरी करनी है, जो एम.ए. की डिगरी ज़रूरी हो!”

“नौकरी ऐसी बुरी तो नहीं है। मेरी तरह की सरकारी नौकरी न करिये, पर प्रोफ़ेसरी तो बड़ी अच्छी चीज़ है। आदर भी होता है, काम भी कम होता है, छुट्टियाँ भी अच्छी मिलती हैं। फिर विद्या का साथ रहता है, आदमी पढ़ता-लिखता रह सकता है और अच्छे विचारों का प्रचार भी कर सकता है। आपके लिए तो सबसे अच्छा काम है।”

शेखर ने कहा, “यह तो ठीक है। पर मेरी कुछ आदत ही बिगड़ गयी है, किसी के अधीन काम करने का जी नहीं होता।”

“तो बात दूसरी है। आप आदर्शवादी हैं।” शेखर नहीं जान पाया कि इसमें कितना अंश व्यंग्य का है। “तो आजकल आप क्या करते हैं? बहुत पढ़ते होंगे? हमें तो-शशि तो पढ़ती है-अक्सर पढ़ती ही रहती है। हँसना-खेलना तो इन्हें अच्छा नहीं लगता। हम तो कई काम करते-करते थक जाते हैं, तफ़रीह ज़रूरी मालूम होती है...”

शेखर के कुछ लिखने के सब प्रयत्न व्यर्थ गये। न जाने क्यों, जब भी वह लिखने बैठता, तभी उसके सब विचार कहीं उड़ जाते; कभी उसे लगता कि वह लिखने को पेशा बना रहा है, तभी उसमें से चमत्कार की भावना नष्ट होती जा रही है। पर अभी तो उसने कुछ लिखा ही नहीं, लिखने से कमाने की बात दूर रही, तब पेशा कैसा? किन्तु पेशा दृष्टिकोण की बात है, साहित्य जब साध्य नहीं, एक साधन है तब...

हाँ, साधन तो है, पर साधन किस चीज़ का? क्या उसका ध्येय घटिया है, दूषित है? साहित्य साहित्य के लिए है, स्वान्तःसुखाय है, पर क्या ध्येय की साधना स्वान्तःसुखाय नहीं है? लक्ष्य एक विशेष प्रभाव नहीं होना चाहिए, लक्ष्य होना चाहिए केवल सौन्दर्य, क्योंकि प्रभाव की खोज में सौन्दर्य ओझल हो जाएगा। पर क्यों? सौन्दर्य देखकर ही तो इतर वस्तु को उसमें ढालने की प्रेरणा मिल सकती है? लोक-कल्याण की भावना से अलग सौन्दर्य क्या हो भी सकता है? एकाएक उसे शशि का प्रश्न याद आया, ‘साहित्य का मोह करोगे कि उद्देश्य का?’ मोह वह किसी का नहीं करेगा, क्योंकि जब तक दृष्टि उद्देश्य को विमल और निष्कम्प एकाग्रता से देखती रहेगी, तब तक एक निष्कलुष सौन्दर्य को ही देखेगी, जब निष्ठा नहीं रहेगी तब यह भी कहाँ कहा जा सकेगा कि उद्देश्य स्पष्ट है?

पर विचार से नहीं चलेगा। रचना चाहिए। वह ठीक सोचता है कि गलत, इसकी कसौटी तो वही हो सकता है, जो वह लिखेगा। और लिखा उससे कुछ जाता नहीं, क्यों नहीं वह अपने विचार ही लिख पाता?

दोपहर की धूप उसके कमरे के अधिकांश में भर रही थी, केवल एक कोठरी के पास का कोना उससे बचा था। वहीं बैठकर, अपने पैर धूप की ओर फैलाकर शेखर बैठ गया और सोचने लगा कि वह क्या लिखे।

धूप अभी उसके पैरों से हटी नहीं थी कि नीचे से एक लड़के ने आकर पूछा, “देखिए, यह चिट्ठी आपकी है?” और एक लिफ़ाफ़ा उसे दे गया।

शेखर ने ‘हाँ’ कहकर चिट्ठी ले ली, और विस्मृत होकर उसके पते की लिखवाट देखने लगा...मौसी विद्यावती की चिट्ठी थी। उन्होंने लिखा था कि शशि ने उन्हें लिखा है कि वह अलग मकान लेकर रहने लगा है और साहित्य-सेवा करना चाहता है, इसलिए वे शशि की किताबों में से अच्छी-अच्छी छाँटकर उसे भेज दें। उन्होंने किताबें एक पेटी में भरकर भेजी हैं, जिसकी बिल्टी चिट्ठी के साथ है। और जेल से आने की बहुत बधाई, और सगुन के दस रुपये और थोड़ी-सी मिठाई भी उन्होंने पेटी में रख दी है और आशा की है कि वह रुपये भेजने पर बुरा नहीं मानेगा। बहुत-बहुत आशीर्वाद, और वह कभी छुट्टी पाए तो उन्हें मिलने जरूर जाए...मौसी विद्यावती।

बहुत देर बाद जब शेखर उठा, तो धूप कभी की लुप्त हो गयी थी। साँझ के रंगीन प्रकाश में कमरा कुछ बड़ा-बड़ा लगने लगा था। किन्तु स्निग्ध आनन्द की एक अद्भुत दीप्ति उस पर छा गयी थी-क्योंकि उसने एक लम्बी कविता और एक छोटी-सी कहानी लिख डाली थी...

वह चाहता था, उसी समय दौड़ा जाकर शशि को कहे कि देखो, मैंने कुछ लिखा है...सहसा उसने सोचा, अगर वह बिना बताए मौसी को लिख सकती है, तो मैं भी बिना बताए-कविता और कहानी डाक से उसे भेजूँगा। यही निश्चय करके उसने हस्तलिपि कमरे की सूनी अलमारी में रख दी। तब उसे याद आया कि उसकी अपनी पुस्तकें भी तो थीं, जो होस्टल में रह गयी थीं, वे भी वह होस्टल के कमरे के भूतपूर्व साथी से ले आएगा और वहीं रक्खेगा, अध्ययन भी जारी रक्खेगा...

जब खोजकर के उस साथी का कमरा पाकर और उससे यह जानकर कि कई एक पुस्तकें तो ‘लोग’ ले गये और चित्रों के संग्रह चोरी हो गये और इत्यादि, शेखर अपनी बची-खुची पुस्तकों का गट्ठर लेकर लौटा-आधी से अधिक पुस्तकें चली जाने पर भी शेषांश काफ़ी था और उसमें भी पाठ्य पुस्तकें उतनी नहीं, जितने दूसरे और अब शेखर के विशेष रुचि के ग्रन्थ थे-तब रात हो गयी थी। शेखर ने उस समय उन्हें वैसे ही रख दिया। प्रातःकाल उसने अलमारी की सफ़ाई करके उसमें कागज़ बिछाए, और सब पुस्तकें सजाकर रख दीं। फिर वह जाकर शशि की पुस्तकों का पार्सल भी ले आया, और उसकी पुस्तकें भी थोड़ी देर में सफ़ाई से रक्खी गयीं। अलमारी में पाँच खाने थे-ऊपरवाले चार, जिनके आगे किवाड़ में काँच लगे थे, पुस्तकों से भर गये; निचले में एक और शेखर ने कापियों का ढेर रख दिया और दूसरी ओर मौसी को भेजी हुई मिठाई। तब अलमारी के किवाड़ बन्द करके वह कुछ दूर पर होकर अपने परिश्रम का फल देखने लगा।

उस एक अलमारी भर पुस्तकों को देखकर उसे रोमांच हो आया। कितना सुन्दर हो गया था उसका कमरा उन पुस्तकों से-जिनमें आधी उसने एक-एक करके जुटाई थीं, और बाकी शशि ने! शेखर जानता था, शशि ने भी अधिकांश पुस्तकें प्रतिमास मिलनेवाले थोड़े-से रुपयों से ही कई बरसों तक खरीदकर जुटाई थीं; वैसे ही, जैसे उसने अपने मासिक खर्च में से किसी तरह बचाकर (या अपने-आप बच जाने पर) जोड़े हुए घन से। उसे लगा कि उस अलमारी के दो खानों में से शशि की अनुग्रह-भरी सौम्य और वत्सल आँखे उसके कमरे को देख रही है; और उस दृष्टि से कमरे का वातावरण आर्द्र हो गया है। एकाएक कृतज्ञता से उसका मन उमड़ आया,और उसका हृदय यह भी चाह उठा कि वह उस कृतज्ञता को शशि पर प्रकट भी कर सके...पर उसी समय जाने से उसने अपने को रोक लिया। उसने सोचा कि तीसरे पहर ही जाएगा, जब शशि को काम से छुट्टी होगी, और रामेश्वर भी फुर्सत से होगा (उस दिन रामेश्वर की आधी छुट्टी थी)। और एक बात महत्त्व की यह भी थी-तब तक शशि वह पत्र पा चुकी होगी, जो उसने रात डाक में छोड़ा था, उसकी कहानी और कविता पढ़ चुकी होगी...

रामेश्वर एक कुर्सी पर बैठा दूसरी पर टाँगें, फैलाए, सिगरेट पी रहा था। शशि नीचे चटाई पर बैठी कुछ सिलाई कर रही थी। शेखर के आने पर उसने सिलाई घुटने पर रखकर सिर उठाकर एक स्थिर और मृदु दृष्टि से उधर देखा, फिर गर्दन ज़रा सीधी करके पुनः सिलाई में लग गयी। रामेश्वर ने ऊँचे स्वर में कहा, “आइए-आइए, आप अच्छे आए!” और धुएँ के बादल के बीच में मुस्करा दिया। “कहिए, क्या लिखा जा रहा है आजकल?”

“कुछ नहीं, आजकल तो कुछ लिखने को मन ही नहीं होता।” शेखर ने कहते-कहते शशि की ओर देखा, कि वह कुछ कहती है या हँसती है कि नहीं, क्योंकि शेखर की कविता-कहानी तो उसी दिन उसे मिली होगी। पर शशि पूर्ववत् सिलाई करती रही।

“लिखनेवालों को यही तो आनन्द है। लिखा, लिखा; न लिखा, महीनों न लिखा। फिर जहाँ लिखना रोटी के लिए ज़रूरी न हो, वहाँ एक दिन ढील करें तो उतनी फ़ाइलें लादकर घर लानी पड़ें-हमें तो जो करना पड़ता है, दिन-के-दिन करना ही पड़ता है!”

अबकी बार सन्देह के लिए गुंजाइश नहीं थी-रामेश्वर की बात का व्यंग्य स्पष्ट था कि निठल्ले बैठ रहने के लिए लेखक होने के लिए ज़रूरी न हो, वहाँ एक दिन ढील करें तो उतनी फ़ाइलें लादकर घर लानी पड़ें-हमें जो तो करना पड़ता है, दिन-के-दिन करना ही पड़ता है!”

अबकी बार सन्देह के लिए गुंजाइश नहीं थी-रामेश्वर की बात का व्यंग स्पष्ट था कि निठल्ले बैठ रहने के लिए लेखक होने का बहना अच्छा है! शेखर ने उत्तर नहीं दिया। शशि की ओर उन्मुख होकर बोला, “मौसी ने मुझे पेटी भर पुस्तकें भेजी हैं।”

“हूँ।”

“उनकी चिट्ठी भी आयी थी, जेल से आने की बधाई और सगुन भेजा है।”

शशि थोड़ा-सा मुस्कराई। माँ की यह बात उसे अच्छी लगी है, यह बात उसके चेहरे पर स्पष्ट थी।

रामेश्वर ने पूछा, “कैसी किताबें?”

“शशि की पुस्तकें वहाँ पड़ी थीं, वहीं।”

रामेश्वर ने संयत जिज्ञासा के स्वर में पूछा, “तुमने लिख था भेजने को?”

“जी।”

“ओः-अच्छा।” फिर शेखर की ओर, “तो आप बहुत पढ़ते हैं? हाँ, और दिन भी कैसे कटता होगा। पुस्तकें भी बढ़िया होंगी-आपकी बहिन तो बड़े परिष्कृत टेस्ट की हैं!”

फिर वही अस्पष्ट कुछ की झलक-क्या इस उक्ति के पीछे कुछ और बात है? पर बात कही तो बिलकुल सहज भाव से गयी है।

शेखर ने कहा, “मेरी अपनी बहुत-सी पुस्तकें पड़ी थीं, वह भी ले आया हूँ। अब फिर नियम से पढ़ने का विचार है।”

“ज़रूर, ज़रूर।”

नीचे किसी ने किवाड़ खटखटाया। साथ ही आवाज़ आयी-”डाक है सा’ब!”

शेखर सीढ़ियों के सबसे निकट था। रामेश्वर के उठने से पहले उठकर उसने डाकिये के हाथ से डाक पकड़ ली। एकाएक वह चौंका। दो पत्र थे, जिनमें एक उसी का भेजा हुआ था!

वह क्षण भर असमंजस में पड़ गया। फिर उसने दोनों पत्र रामेश्वर को दे दिए, और जल्दी से बोला, “अच्छा, मुझे आज्ञा दीजिए, मुझे कुछ काम है-”

रामेश्वर पत्र खोलने को था, रुककर बोला, “इतनी जल्दी? अभी बैठिए न, थोड़ी देर में चाय-वाय पीकर-”

“जी नहीं, फिर आऊँगा-” कहकर शेखर चल ही पड़ा। पीछे उसने सुना, “लो, यह पत्र तुम्हारा है।”-”मेरा?”-”हाँ, किसका है?” वहीं संयत जिज्ञासा का स्वर, मानो जताना चाहता है कि मैं अधिकार से नहीं पूछता, यों ही पूछता हूँ-”अक्षर तो भइया के लगते हैं-” शशि का हल्का-सा विस्मय-

शेखर मन-ही-मन हँसता हुआ नीचे पहुँच गया। शशि देखेगी कि पत्र में है क्या, तो अचम्भे में आ जाएगी...

घर पहुँचकर शेखर ने अपनी पुरानी कापियाँ उलट-पलटकर देखनी आरम्भ कीं। जिन दिनों वह मणिका के यहाँ आता जाता था, उन दिनों के लिखे हुए कागजों के पुलिन्दे खोल-खोलकर वह पढ़ने लगा। आज उसका जी प्रसन्न था, और वह प्रसन्नता मानो उसके पुराने सोचे हुए अव्यवस्थित विचारों को एक लड़ी में पिरोती जा रही थी...अस्पष्ट, किन्तु क्रमशः स्पष्टतर होते हुए रूप में वह देख रहा था कि पिछले दो-अढ़ाई वर्षों में उसने जो कुछ देखा-सोचा है, उस सबके निष्कर्ष-रूप कुछ धारणाएँ उसकी बन गयी हैं, जो अपने समाज के बारे में उसके विचारों की आधारशिला हैं, इन्हीं धारणओं के सहारे वह समाज की वर्तमान रूढ़ि के विरुद्ध एक अभियोग खड़ा करता है, और माँग करवा सकता है कि समाज को बदला जाए...वह देख रहा था कि इस पुलिन्दे के कागज़ों में ही वह प्रबन्ध बिखरा पड़ा है जो, गठा जाकर एक पुस्तक बनेगा, शेखर के परिकल्पित नव-निर्माण का ‘बाल-बोध’...पुस्तक का नाम भी उसने सोच लिया था-‘हमारा समाज’...क्योंकि केवल समाज कहने से समाज की अमूर्त भावना ही सामने आएगी, और ‘रूढ़िग्रस्त’ या ऐसा कोई विशेषण लगा देने से स्पष्ट नहीं रहेगा कि हमारा आज का समाज ही पुस्तक का विषय है...

नहीं, लिखना उसका पेशा नहीं; उसकी साधना है, क्योंकि उसके पास कुछ कहने को है और उत्कंठा भी उसमें है-उत्कंठा भी और साहस भी...

पाँच-छः दिन तक लिखते रहने के बाद, जब पुस्तक का ढाँचा काफ़ी स्पष्ट हो गया और आरम्भ में कुछ अंश अपने अन्तिम रूप में भी आ गये, तब शेखर को एकाएक याद आया कि उस दिन तो वह शशि को अपनी कृतज्ञता जताने गया था! वह भी उसने नहीं किया, और यह भी नहीं जाना कि कविता और कहानी शशि को कैसी लगी! और असल बात तो यह थी कि वह शशि को वहाँ लाकर दिखाना चाहता था कि उसके आड़े-तिरछे कमरे में वह पुस्तकों-भरी (और कापियों-भरी भी!) अलमारी कैसी सुन्दर और भरी-भरी लगती है-क्योंकि यही तो कृतज्ञता-ज्ञापन का श्रेष्ठ तरीका है, नहीं तो क्या वह मुँह फाड़कर यह कहेगा कि ‘शशि, मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ कि तुमने पुस्तकें भिजवाईं, और शशि आँखें आधी मीचकर और भँवें ऊँची करके उत्तर देगी, ‘अरे, यह भी कोई उल्लेख करने की बात है?’ नहीं, वे सब सभ्य ढंग उसके बस के नहीं हैं।

अपनी अधूरी पुस्तक की रूप-रेखा के पन्ने लेकर शेखर शशि के घर रामेश्वर और शशि को निमन्त्रण देने गया। निश्चय करने के बाद उसे क्षणभर हिचकिचाहट हुई कि वह रामेश्वर की क्या खातिर करेगा; फिर उसे याद आया कि मौसी के भेजे हुए सगुन के रुपये तो अभी आलमारी में पड़े ही हैं, मिठाई समाप्तप्राय है तो क्या; वह एक टी-सेट और अँगीठी और कोयले आदि ले आएगा, जो बाद में भी काम आएँगे-क्योंकि अब तो सर्दी भी काफ़ी हो चली है...

रामेश्वर घर पर नहीं था। शेखर के हाथ में कागजों का पुलिन्दा देखकर शशि ने पूछा, “यह क्या लाए?”

शेखर ने उत्साह से कहा, “मेरी पुस्तक की रूप-रेखा है, देखोगी?”

“हाँ, दो-”

पर शशि ने कविता और कहानी का तो कोई जिक्र ही नहीं किया। क्या वे उसे अच्छी नहीं लगीं? तो उसे यही कहना चाहिए था, चुप क्यों रही? उसने मान से कहा, “क्यों दूँ, तुम्हें कोई दिलचस्पी भी है?”

“क्यों? तुम्हें क्या पता है”

“मेरी कहानी-कविता तो पढ़ी नहीं-”

एकाएक शशि का चेहरा गम्भीर हो गया। उसने शान्त स्वर में पूछा, ‘डाक से क्यों भेजी थी?’

“तुमने मौसी को लिखा था तो मुझे क्यों नहीं बताया था? मैंने सोचा, मैं भी तुम्हें सर्प्राइज-” एकाएक शेखर को बोध हुआ, शशि का चेहरा गम्भीर नहीं, अप्रतिभ है; और उसका स्वर शान्त नहीं, मुर्झाया हुआ था। उसने हड़बड़ाकर पूछा, “क्यों शशि, क्या बात है?”

“कुछ नहीं। मुझे क्या सर्प्राइज-मुझे तो तुम स्वयं दिखला जाते-”।

“नहीं शशि, कुछ बात है-बताओ तुरन्त!” शेखर ने आशंकित आग्रह से कहा।

“कुछ नहीं। तुम्हारे पीछे उन्होंने पूछा, “चिट्ठी किसकी है?” मैंने बता दिया, तो अचम्भे में बोले, “अभी तो आये थे, चिट्ठी क्यों?” मैंने बताया कि कहानी और कविता भेजी है। बोले, “अच्छा, तब तो हम भी पढ़े-” मैंने उन्हें सब कुछ दे दिया, पर उनके वे पन्ने उलटने-पुलटने से मैंने जाना कि उनकी रुचि कविता-कहानी में नहीं है। फिर उन्होंने कहा, ‘भई, हम कविता-अविता क्या जानें, यह तो कलाकार लोग ही समझें-’ और कागज़ मुझे लौटा दिये। बहुत देर बाद फिर बोले, ‘तो ऐसे सकपका कर भागने की क्या ज़रूरत थी?’ पहले तो मैं समझी ही नहीं कि किस बारे में बात हो रही है; फिर मुझे याद आया। मेरा कुछ उत्तर देने को मन नहीं किया।

शेखर सुन्न बैठा रहा। काफ़ी देर बाद उसने कहा, “मैं समझा दूँ उन्हें?”

“नहीं, उससे उलटा असर पड़ेगा। जाने दो, जो हो गयी बात। अब क्या लिख रहे हो?”

शेखर ने विषय बदलने के इस प्रकट प्रयत्न को चुपचाप स्वीकार कर लिया। बोला, “पहले लिखी हुई कई चीज़ों का जोड़-तोड़कर एक निबन्ध बना रहा हूँ-अपने समाज की आलोचना।” पर वह पहले-सा उत्साह उसके स्वर में नहीं था।

“हमारा समाज! कितना लिख डाला है? और शीर्षक क्या रखा है?”

“यही तो-‘हमारा समाज।’ जल्दी ही पूरा कर डालूँगा।” इतने में रामेश्वर आ गया।

“कहिए, अबकी कई दिन बाद आये?”

“हाँ, यों ही, कुछ काम करता रहा।”

“यह क्या लाए हैं, कुछ और लिखा है? वह कविता और कहानी आपकी सुन्दर थी। शशि के कहने से मैंने भी पढ़ी थी। पर अब तो बिना सिफ़ारिश के पढ़ूँगा-आप तो बड़ा सुन्दर लिखते हैं।”

शेखर ने मन-ही-मन इस व्यक्ति को सराहा, जिसके मुँह से बात अपने-आप ठीक निकलती आती है, चहे उसके पीछे अनुभूति हो, न हो! वह स्वयं कुछ भी बोल नहीं सका।

“लाइए, यह तो देखें-”

शेखर का जी हुआ कि इनकार कर दे। वह अधूरी हस्तलिपि उसे अपने व्यक्तित्व का इतना अपना अंश लगती थी कि उसे वह कम-से-कम रामेश्वर को नहीं देना चाहता था...पर यह सोचकर उसने अपने को सँभाला कि मना करने से रामेश्वर कहीं और उलटा अर्थ न करे, और अपनी अनिच्छा को बलपूर्वक दबाकर उसने कापी रामेश्वर को दे दी।

जब रामेश्वर उसके पन्ने अनमनी उँगलियों से इधर-उधर करने लगा, और शेखर को लगने लगा कि वे अनमनी ही नहीं, व्यंग्य से भरी हुई भी हैं, तब एकाएक अपने प्रति ग्लानि उसके मन में उमड़ आयी। वह वहाँ से हट जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। रामेश्वर के बैठने को कहने पर उसने कहा, “असल में मुझे सामने बैठकर अपनी चीज़ पढ़वाते संकोच होता है”-और मन-ही-मन सोचा कि यह पहले दिन की बात की भी अप्रत्यक्ष सफ़ाई है।

रामेश्वर ने शशि की ओर देखते हुए कहा, “वाह, संकोच कैसा? अभी तो ये छपेंगी न?” फिर एकाएक “नहीं तो इसे भी डाक से भेज देते-” और ठहाका मारकर हँस पड़े। “पर इतनी बड़ी कापी डाक से भेजने पर महसूस भी तो कितना लगता-”

ऐसे में निमन्त्रण वह कैसे दे? वह किसी तरह उठकर नीचे उतर गया...

चार-पाँच दिन फिर शेखर घर से नहीं निकला! कुछ लिखने की भी प्रवृत्ति उसकी नहीं हुई। वह अनमना-सा खिड़की के आगे बैठा रहता, और कभी सर्दी अधिक हो जाती, तो उसे बन्द करके कमरे में टहलने लगता। एक आध दिन उसने पढ़ने का प्रयत्न भी किया; पर उसकी अनमनी आँखें बीच-बीच में एकाएक अनदेखी हो जातीं, फिर चौंककर वह सोचता कि जब समय नष्ट ही करना है,तब अपने साथ यह छल क्यों! कभी-कभी प्रातःकाल बिस्तर में लेटे-लेटे ही वह कविता के कुछ-एक पद्य पढ़ लेता, और आशा करता कि उनके प्रभाव से उसका दिन अच्छा बीत जाएगा!

लगभग एक सप्ताह बाद तीसरे पहर शशि वहाँ आ पहुँची। पहले उसने डरते-डरते किवाड़ खटखटाया, किन्तु जब शेखर को देखकर आश्वस्त हो गयी कि वह भूल नहीं कर रही है, तब उसने खिलकर कहा, “आखिर मिल ही गया ठिकाना! नीचेवालों में कोई तुम्हारा नाम ही नहीं जानता!”

शेखर ने विनोदपूर्वक कहा, “यह क्यों नहीं पूछा कि घर-घुसना आदमी किस कमरे में रहता है? सबको मेरे बारे में यही कौतूहल है कि मैं कमरे में पड़ा-पड़ा करता क्या हूँ।”

“हाँ, तो, बाहर क्यों नहीं निकलते?”

शेखर ने एक बार शशि की ओर देख भर दिया।

शेखर के बिस्तर का कोना हटाकर चारपाई पर बैठती हुई शशि बोली, “तुम्हारी पुस्तक मैं ले आयी हूँ। मैंने सारी पढ़ ली है-जितनी तुम दे गये थे-और यही कहने आयी हूँ कि इसे जल्दी पूरा कर डालो।”

“मुझसे तो और कुछ लिखा नहीं गया।”

“क्यों? इतने दिन क्या किया?”

“कुछ नहीं। जी नहीं लगता। सोचता हूँ कि यह सब लिख-लिखाकर होगा क्या!”

चिन्तित तीव्रता से, “हूँ?”

“हाँ, और क्या। लिख चुकूँगा तो छपेगा नहीं। छप जाएगा तो लोग बेवकूफ़ बनाएँगे। बेवकूफ़ बनने में भी सन्तोष हो सकता है-पर किसके लिए?”

“शेखर, क्या उद्देश्य के लिए कुछ क्लेश भोगने में तृप्ति नहीं मिलती? मैं तो समझती हूँ कि बहुत बड़ी तृप्ति है। नहीं तो मैं-”

“मिलती है। पर-पता नहीं क्या। कभी मुझे लगता है कि उद्देश्य के रूप में एक नाम-क्रान्ति-काफ़ी नहीं है। आदर्श वह है, पर तृप्ति आदर्श से ही नहीं मिलती शायद; आदर्श के प्रतीक से मिलती है।”

“सच?”

“हाँ, मुझे तो यही लगता है।”

“तो तुम चाहते हो कि तुम्हारे आदर्श का कुछ प्रतीक हो, जिसके लिए उद्योग करने में तुम्हें तृप्ति मिले?”

शेखर ने सोचते हुए कहा, “हाँ।”

“हाँ।” शशि ने उसकी नकल करते हुए कहा, “कह दिया बच्चों की तरह ‘हाँ’।” फिर कुछ रुककर, “प्रतीक कैसा, कोई वस्तु या कोर्ई-व्यक्ति?”

शेखर ने मानो अनसुनी कर दी। अब तक वह खिड़की पर कोहनी टेके हुए खड़ा था; अब वह बाहर की ओर देखने लगा।

शशि उठ खड़ी हुई। जिधर शेखर खड़ा था, उससे दूसरी ओर मुँह फेरकर बोली, “शेखर, क्या मेरे लिए लिख सकते हो?”

शेखर ने चौंककर कहा, “क्या?”

“मैंने पूछा है, क्या मेरे लिए लिख सकते हो? मैंने नहीं सोचा था कि मुँह से कहना पड़ेगा, पर कहने में भी हर्ज कोई नहीं है।”

शेखर बढ़कर शशि के पास जा खड़ा हुआ। एक क्षण के विकल्प के बाद उसने कन्धा पकड़कर शशि को अपनी ओर घुमाया, शशि की आँखें उसकी ठोड़ी पर टिकी रहीं, ऊपर नहीं उठीं। शेखर ने कन्धे से हाथ उठाया, फिर अपने स्थान पर जा खड़ा हुआ और बोला, “नहीं, शशि, मैं अनिष्ट हूँ। जो मेरे सम्पर्क में आता है, खंडित ही होता है। मेरे द्वारा लिखी जानेवाली किसी चीज़ का महत्त्व इतना नहीं है कि-”

शशि ने फिर कहा, “मैंने पूछा है, मेरे लिए लिख सकते हो? और सुनो, तुम जितना अच्छा लिखोगे, उतना ही बाहर से क्लेश पाओगे। पर भीतर से तुम्हें शान्ति मिलेगी। मैं कहूँ तो यह बड़ी बात लगेगी, पर तुम्हारा प्रतीक उस शान्ति का ही नहीं, उस क्लेश का भी साझी हो सकता है।”

“शशि!”

शशि ने आँखें उठाकर भरपूर दृष्टि से उसकी ओर देखा। अबकी बार शेखर ने आँखें नीची कर लीं-व्यथा के उस अभिमान के आगे उसकी आँख नहीं टिकी।

शशि ने कहा “अच्छा, इससे आगे जो कुछ लिखा है, वह तो मुझे दिखाओ?”

शशि के स्वर से वातावरण बदल गया। शेखर ने कहा, “लिखा कहाँ है? कुछ नोट है, वह चाहे तो देख लो।” अलमारी में से कुछ कागज लाकर उसने शशि को दे दिये।

“और ये सब पुलिन्दे क्या हैं?”

“ये सब यों ही हैं, कॉलेज के दिनों का लिखा हुआ-”

“वह सब भी मुझे पढ़ना है। अब तो अपना लिखा हुआ एक-एक पुर्जा मुझे देना होगा, समझा?”

शशि शेखर के दिए हुए कागज़ पढ़ने लगी। शेखर ने पूछा, “इन पुस्तकों से यह कमरा अच्छा-अच्छा नहीं लगता?”

शशि पढ़ते-पढ़ते मुस्करा दी।

“ये सब किताबें तुम्हारी पढ़ी हुई हैं?”

शशि ने बिना मुँह उठाए ही कहा, “हूँ-ठहरो मुझे यह पढ़ लेने दो।”

शेखर फिर खिड़की पर जा खड़ा हुआ। बाहर देखते-देखते फिर उसके मन में शशि के प्रति कृतज्ञता जागने लगी-वह बिना बुलाये उसके मन की इच्छा पूरी करने जो यहाँ चली आयी है...

“हाँ तो, इसे कब पूरा करोगे?” शशि सब कागज़ पढ़ चुकी थी।

“देखो।”

“देखो नहीं, पूरा करना पड़ेगा!” शशि हँसने लगी। फिर गम्भीर होकर बोली, “तुमने उन्हें कभी यहाँ क्यों नहीं बुलाया?”

शेखर ने कुछ खिन्न स्वर में कहा, “उस दिन बुलाने ही तो गया था।”

शशि ने कागज़ अलमारी में रखते हुए कहा, “अच्छा, अब मैं जाती हूँ। अबकी आओगे, तो उन्हें निमन्त्रित करना ही।” एकाएक अलमारी में दस रुपये पड़े देखकर, “यह कैसे हैं?”

“सगुन है।”

“ये अभी ऐसे ही पड़े हैं? काम नहीं आये?”

“इनका तो यहाँ पड़े रहना ही काम है।” शेखर हँसने लगा।

“खाते क्या हो?”

“क्यों? होटल से खाना आता है, कोई मज़ाक है?”

“होटल का खाना!” शशि ने खोए-से स्वर में कहा। फिर प्रकृतिस्थ होकर पूछा, “होटल का नाम भी तो सुनूँ ज़रा?”

शेखर ने कुछ अकड़कर, आँखें चढ़ाकर, प्रत्येक अक्षर को स्वरित करते हुए कहा, “चितपूरनी देवी प्रेम शुद्ध पवित्तर भोजनालिया”-नाम से ही पेट भर जाता है!” और हँसने लगा।

शशि ने कृत्रिम रोष से त्योरियाँ संकुचित करके कहा, “मेरे सामने मत ऐसे हँसा करो! अच्छा, मैं जाती हूँ।”

वह सीढ़ियाँ उतरने लगी। “चलो नीचे तक पहुँचा आऊँ”-कहकर शेखर भी पीछे-पीछे उतरने लगा।

शशि और रामेश्वर दो-एक बार शेखर के घर हो गये। बैठक के साथवाली कोठरी की अलमारी में एक चाय का सेट और कुछ और बर्तन, छुरी-चाकू, दो-एक डिब्बे, एक बोतल मधु, एक पैकट बिस्कुट का, एक दियासलाई का-यह सब सामान पहुँच गया। बदले में दूसरी अलमारी से सगुन के रुपये गायब हो गये। शेखर ने विशेष कुछ लिखा नहीं; उसकी अलमारी में कागज़ बढ़े तो केवल कुछ-एक चिट्ठियाँ दो-एक मौसी की, एक गौरा की, एक पिता की, जिसमें एक ओर उसके आवारापन पर रोष था और दूसरी ओर उसके जेल हो आने पर दबा हुआ-सा अभिमान भी; और साथ ही यह सूचना कि उसकी माता बहुत बीमार है और उसे उनसे मिलने तत्काल आना चाहिए; एक छोटे भाई रविदत्त की, जो उस वर्ष बी.ए. की परीक्षा दे रहा था; एक मद्रास से सदाशिव की, जिसने लिखा था कि अगले वर्ष वह डॉक्टर हो जाएगा और पूछा था कि शेखर कहाँ है, क्या कर रहा है। शेखर के जेल जाने की बात का उसे पता लग चुका था...

शेखर को उस घर में आये एक महीना हो चला था। एकाएक उसे याद आया कि अगले मास किराया देना होगा, और होटल का बिल भी चुकाना होगा-और उसके पास तो कुछ है नहीं! किराया तो कुछ देर बाद भी दिया जा सकता है, क्योंकि हर महीने पेशगी देना कोई जरूरी थोड़े ही है; पर होटल का तो महीना पूरा हो चुका है, और वहाँ देर करने से रोटी नहीं मिलेगी...

उसे थोड़ी-सी चिन्ता हुई। फिर उसने सोचा, पुस्तक तो लगभग तैयार है, किसी प्रकाशक से उसका कुछ-न-कुछ मिल ही सकता है। न सही अधिक, तत्काल का थोड़ा ही सही, पर कुल जमा पच्चीस रुपया महीना तो उसका खर्च है, तो एक साल का खर्च तो पुस्तक निकाल ही देगी...उसे पता नहीं था कि पुस्तक के लिए प्रकाशक कैसे क्या देते हैं, पर एक पुस्तक के तीन सौ रुपये कुछ बहुत अधिक हैं, ऐसा उसे नहीं लगा।

‘हमारा समाज’...बिकाऊ है-तीन सौ रुपये में हमारा समाज बिकाऊ है-कोई गाहक? शेखर मन-ही-मन हँसा-कौड़ी मोह का नहीं है हमारा समाज, उसके तीन सौ रुपये!

शेखर ने शहर के दो-तीन मुख्य प्रकाशकों के यहाँ पूछताछ करने की सोची। चार दिन लगातार बैठकर उसने पुस्तक की प्रतिलिपि तैयार कर ली, और उसे एक बड़े रूमाल में लपेटकर वाणी-निकेतन के मैनेजर से मिलने जा पहुँचा। मैनेजर से अपना अभिप्राय कहकर जब उसने हस्तलिपि उनके आगे रख दी, तब उन्होंने लिपि की बजाय शेखर को ही बड़े ध्यान से सिर से पैर तक देखना आरम्भ किया। थोड़ी देर बाद बोले, “साहब, हमारे यहाँ तो प्रतिष्ठित लेखकों की ही चीज छपती है। आप जानते हैं, हम यहाँ के प्रमुख प्रकाशक हैं, हमें अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखनी है। बिलकुल नये अनजान लेखक का प्रकाशन हम कैसे जिम्मे ले सकते हैं?”

शेखर ने आग्रह करते हुए कहा, “पर आपको चीज़ की भी तो परख करनी चाहिए। क्या प्रतिष्ठा ही उसकी कसौटी है? बड़े-बड़े लेखक भी तो पहले अनजान ही थे।”

“जी हाँ। पर तब उनकी पुस्तकें हमारे यहाँ से नहीं छपती थीं। हमने तो उन्हें तभी माना, जब उनकी रचनाओं का महत्त्व स्वीकार कर लिया गया। तब हमने उनको दूसरे प्रकाशकों से अच्छी टर्म्स देकर भी बुला लिया। जिनकी पुस्तकें रह गयीं, वे रह गये।”

“पर यह तो दूसरे पत्तल से ग्रास छीनना हुआ फिर-”

“वैसा ही समझ लीजिए। पर बुद्धिमानी इसी का नाम है कि दूसरों की भूलों से अनुभव प्राप्त करे। हम असफल होने या हो सकनेवाले की चीज छापते ही नहीं।”

सरस्वती-कुंज के मैनेजर ने शेखर को अपने साहित्यिक सलाहकार के पास भेज दिया। जब शहर की एक गली में उनके घर का पता लगाकर शेखर वहाँ पहुँचा, तो उन्होंने शीर्षक देखकर पूछा, “क्या उपन्यास है?”

“जी नहीं। विवेचनात्मक निबन्ध है। मैंने समाज की वर्तमान अवस्था का चित्रण करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि-”

“तो आपने कुछ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है? पर साहब, पहले तो निबन्ध कोई पढ़ता नहीं। दूसरे ऐसा निबन्ध, जिसमें तर्क-ही-तर्क हो! आप साहित्यिक निबन्ध क्यों नहीं लिखते?”

“कैसा?”

“सैकड़ों विषय हैं। मसलन्-मसलन् ‘छायावादी काव्य में नारी की कल्पना’, या ‘स्त्री-कवियों का नारी-रूप-वर्णन’ या ‘संस्कृत और हिन्दी काव्य में नायिका-भेद।’ यह विषय तो आधुनिक भी रहेगा-आजकल तो तुलनात्मक अध्ययन का जमाना ही है।”

शेखर ने पूछा, “ऐसे निबन्ध कोई पढ़ता है?”

“वैसे तो नहीं पढ़ता, पर ऐसे साहित्यिक निबन्ध पाठ्य-पुस्तकों में रखे जा सकते हैं। तब किताब निकल भी जाती है।”

शेखर क्षणभर चुप रहा। सलाहकार फिर बोले, “आपको शायद मेरी सलाह अच्छी नहीं लगी; मैं तो आप ही के हित के लिए कहता हूँ-”

शेखर ने अनमने भाव से उत्तर दिया, “नहीं, आपकी सलाह के लिए आभारी हूँ। पर मुझे तो दिलचस्पी समाज और सामाजिक समस्याओं में है-”

“अच्छा, तो वैसा विषय चुन लीजिए-‘रहस्यवादी काव्य का प्रियतम पुरुष होता था या स्त्री?’ इधर एक मत चल रहा है कि रहस्यवादी कवियों का प्रेम-निवेदन किसी शरीरी व्यक्ति के प्रति ही होता था-फ़ारसी कविता के बारे में तो यह बात मानी हुई ही है कि उसका साक़ी या माशूक काल्पनिक नहीं होता था; पर नया मत कहता है कि यह साक़ी या माशूक न पुरुष होता था न स्त्री, बल्कि नपुंसक होता था। इस अध्ययन में आपको मध्युगीन समाज के भी अध्ययन का अच्छा अवसर मिलेगा। मेरी समझ में तो यह बड़े मौके का विषय है।”

शेखर चुप हो रहा। थोड़ी देर बाद बोला, “तो इस पुस्तक को आप प्रकाशन के लायक नहीं समझते?”

“नहीं, नहीं; यह मैं कब कहता हूँ। प्रकाशन के लायक तो सब कुछ है। पर प्रकाशित होता है वही जो खप सके, नहीं तो जोखम कौन उठाए? पर मैंने तो सरस्वती कुंजवालों को सदा यही राय दी है कि नये प्रतिभावान् लेखकों को प्रोत्साहन देना ही चाहिए-चाहे उसमें थोड़ा-सा जोखम भी हो, ही नहीं तो नया साहित्य बनेगा कैसे? और मेरी बात वे मानते भी हैं।”

शेखर के मन में आशा का संचार हुआ। बोला, “तो आप इसे पढ़कर देखेंगे? मैं चाहता हूँ कि ज़रा जल्दी ही-”

“आप मैनेजर से मिलिए। मैं उन्हें यही सलाह दूँगा कि वे आपके खर्च पर पुस्तक छाप दें, और जहाँ तक हो सके जल्दी ही। नये लेखक को मौका मिलना चाहिए-प्रकाशक का यह कर्तव्य है।”

शेखर फिर हताश हो गया। उसने धीरे-धीरे बस्ता लपेटा और नमस्कार करके चल पड़ा।

शेखर ने दूसरी कोटि के प्रकाशकों के यहाँ भी चक्कर लगा डाला, फिर उसने एक विक्रेता के यहाँ से प्रकाशकों की पूरी सूची ले ली और जितने बच रहे थे, उन सबको एक सिरे से देखना शुरू किया।

एक सप्ताह हो गया। अन्त में ‘युगान्तर साहित्य मन्दिर’ के संचालक ने उसकी पुस्तक इस शर्त पर छापना स्वीकार किया कि छपाई और कागज के दाम शेखर के जिम्मे रहेंगे, पर उसे नकद कुछ नहीं देना पड़ेगा; प्रकाशक पुस्तक छापकर और बेचकर पहले लागत वसूल कर लेगा, उसके बाद जो बिक्री होगी, उसमें चौथा अंश शेखर का होगा। दस दिन भटकने के बाद शेखर में इतना धीरज नहीं रहा था कि बैठकर हिसाब लगाए कि इसमें उसे मिला क्या और कब तक; उसने यही बड़ी कृपा समझी कि प्रकाशक उससे कुछ माँग नहीं रहा है...वह यह भी भूल गया कि वह पुस्तक बेचने इसलिए निकला था कि उसे बिल चुकाना होगा-जिसका तकाजा शुरू भी हो गया था।

उस दिन शेखर बस्ता लेकर नहीं निकला था। उसे आशा ही नहीं थी कि उसकी आवश्यकता पड़ेगी! अतः संचालक से तीसने दिन आने का वायदा करके-दो दिन का अवकाश उसने केवल इसलिए रखा कि प्रकाशक यह न समझे कि वह बहुत उतावला है!-वह घर लौट आया।

आकर वह क्लान्त शरीर और उदास मन लिए बिस्तर पर लेट गया। क्षीण-सा विचार उसके मन में आया कि जाकर शशि को यह सूचना दे आवे, पर उत्साह नहीं हुआ। और अभी खबर भी क्या है? निर्निमेष नेत्रों से वह छत की ओर देख रहा था, एकाएक उसे लगा कि छत इतने दिनों से वैसी-की-वैसी है कि देखकर ऊब आती है। उसने मुँह खिड़की की ओर फेर लिया।

न जाने पुस्तक कब छपेगी, कैसा उसका स्वागत होगा...उससे कुछ आएगा? कब? लागत कितनी होगी? शायद दो सौ रुपये का कागज लगेगा। सौ डेढ़-सौ ऊपर। पुस्तक की कीमत अगर एक रुपया होगी तो...शेखर ने हिसाब लगाना छोड़ दिया। ‘हमारा समाज’...मूल्य एक रुपया। और मैं उसमें लागत काटकर चौथाई का हिस्सेदार हूँ।...शेखर के मुँह पर एक रूखी और म्लान हँसी की रेखा दौड़ गयी...न जाने कब वह सो गया।

जब वह जागा, तब घोर अन्धकार था। रात आधी जा चुकी थी, और ग्वालमंडी के चौक पर भी सन्नाटा हो रहा था। शेखर का शरीर दिसम्बर के जाड़े से ठिठुर गया था...भूख भी उसे लग रही थी। इस महीने के आरम्भ से ही उसने होटल से एक ही समय भोजन मँगाने का तय कर लिया था। होटलवाले से भी उसने कह दिया था कि शाम को वह स्वयं बना लिया करेगा...एक दिन वह चावल-दाल और आटा ले भी आया था, और उस दिन शाम को उसने स्वयं खिचड़ी बनाकर खायी भी थी।

क्या इस समय वह खाना बनाए? इतनी भूख तो उसे नहीं है। नहीं, भूख तो है, पर भूख को इतना महत्त्व देना ठीक नहीं है। उसने बिस्तर ठीक-ठाक किया और कम्बल ओढ़कर सोने का प्रयत्न करने लगा। पर वह इतना ठिठुर चुका था कि अब भी शरीर को गर्मी न आयी। तब वह उठकर शरीर गर्म करने के लिए जल्दी-जल्दी टहलने लगा।

एकाएक अपने सब प्रयासों की विफलता का भाव, जिसे उसने शशि की बात के बाद से दबा रखा था, उसके भीतर बड़े वेग से उमड़ आया। अपने प्रयासों की ही नहीं, प्रयासमात्र की विफलता का...जीवन की इस बुदबुदाती दलदल में हाथ-पैर पटकने का लाभ क्या-उसमें धँसना वैसे भी है...पुस्तक लिखूँगा-पुस्तक, हूँ। जैसे आज तक किसी ने पुस्तक लिखी नहीं। जैसे आज तक किसी ने समाज बदलने का उद्योग नहीं किया। जैसे...

शेखर और भी तेज़ चलने लगा। क्या इस होने और बीत जाने के घातक अनुक्रम से कोई छुटकारा नहीं है? क्या इससे बाहर नहीं निकला जा सकता?

उसके मानसिक उद्वेग के गर्त में से बुलबुले की तरह उठकर एक विचार ऊपर आया-उसने अभी तक कोई ऐसी गहरी अनुभूति नहीं जानी है, जिसके प्रति वह अपने को पूर्णतया उत्सर्ग कर दे-एक क्षण भी ऐसा नहीं आया है, जबकि शेखर के मन से यह ज्ञान बिलकुल मिट गया हो कि वह शेखर है। क्या इसमें समय का ही दोष है? उसका दोष कुछ नहीं है? क्या उसी ने नहीं सूम की तरह अपने को सहेज-सहेजकर रखा, जबकि बात करने को वह सारे संसार को उलट-पलट देने का स्वप्न देखा करता है! और-तो-और उसके जीवन में कितनी कन्याएँ आयी हैं, उनमें भी किसी से उसकी सच्ची घनिष्ठता नहीं हो सकी। उसने स्वयं जीने से इनकार किया हैं! उससे तो मणिका की जीवन परिपाटी कहीं अच्छी थी-उसमें थी वह साहसिकता जो जीवन को मिट्टी की तरह फेंक सकती है! ‘मेरे जीवन की मोमबत्ती दोनों ओर से जल रही है! वह रात भर नहीं जलेगी, पर मेरे बन्धुओ और मेरे शत्रुओ, उसकी दीप्ति कितनी सुन्दर है!’ है उसमें भी यह सामर्थ्य कि ऐसी दीप्ति से नभ को आलोकित करे? मणिका ने मार्ग ठीक नहीं चुना, पर असल चीज़ तो उसमें थी, जीवन की आग, जिसे देवता मानव से छिपा-छिपा कर रखते हैं...

उसे एक और वाक्य याद आया, जो मणिका की दी हुई एक पुस्तक में उसने पढ़ा था-‘संयम क्या है? तीव्र वासना की अक्षमता!’ फिर उसे याद आयी एक पठान की कहानी, जो उसने न जाने कहाँ सुनी थी, शायद जेल में; एक पठान को कोई मौलवी समझा रहा था कि आदमी को अफ़ीफ़ (संयमी) होना चाहिए, पर यह शब्द पठान की समझ में नहीं आता था। मौलवी समझाने लगा कि संयमी वह होता है, जो नज़र नीची रखता है, औरतों के पीछे-पीछे नहीं जाता, स्त्री को-एकाएक पठान ने टोककर कहा, ‘ओ, अम समज गया-अमारा जोबान में उसको खुसरा बोलता ए!’

शेखर रुक गया। उसे लगा कि उसके विचार जिस धारा में बहे जा रहे हैं, उसमें कोई दोष अवश्य है। जैसा सब विचारों में सच्चाई का कुछ अंश है, किन्तु पूरा सच नहीं है। कदापि नहीं है। क्योंकि, उसकी परिस्थितियों ने उसे जीने की इतनी अधिक सुविधाएँ कब दीं, कौन-से ऐसे बड़े अवसर आये, जो उसने हाथ से चले जाने दिए? कोई असाधारण बाधाएँ उसके मार्ग में न भी आयी हों, तो भी कोई...औरों के जीवन भी बाधा और सुविधा के इसी तरह के घोल होते हैं...

तब क्या इतनी ही बात है कि वह भूखा है? क्या यहाँ सारा विद्रोह अतृप्त वासना का घटाटोप है? क्या यह वासना बढ़ती जाएगी और फिर एक विस्फोट होगा और बस फिस्स्?

तब तो यह सब-हिस्टीरिया है!

उसने अनुभव किया कि उसकी प्राणशक्ति अन्तर्मुख हो रही है और क्रमशः उसी को भस्म कर जाएगी अगर किसी गहरे आन्दोलन ने फिर बहिर्मुखी न कर दिया...और यह होना ही चाहिए, क्योंकि बहिर्मुख शक्ति ही क्रान्ति कर सकती है, अन्तर्मुखी नहीं। अन्तर्मुख होकर वह एक विशेष प्रकार का कवि चाहे हो जाए; जो वह होना चाहता है, जो वह करना चाहता है, वह सब धूल हो जाएगा...

शेखर बिस्तर पर बैठ गया, उसने कम्बल ओढ़ लिया। अस्पष्ट रूप से उसने चाहा कि वह निरा लिखना नहीं, कुछ और भी काम करे, जिससे वह लोगों के सम्पर्क में आये, पर क्या और कैसे, वह नहीं सोच पाया। फिर मन-ही-मन तय करके कि शशि से सलाह लेगा, वह लेट गया।

दिन के प्रकाश के साथ ही तार आया कि शेखर की माँ का देहान्त हो गया है।

शेखर एक अजीब-सी शिथिलता का अनुभव करता हुआ उठा था। तार पढ़ने के बाद भी जैसे वह दूर नहीं हुई; उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि उसने अभी-अभी क्या पढ़ा है। तार रखकर, ब्रुश और तौलिया लेकर वह नल पर गया और मुँह-हाथ धोकर भीतर आया; आकर उसने अलमारी में से काग़ज़ निकाले; उसके बाद ही एकाएक तार के चार शब्दों का आशय बिजली की तरह उसके मन में कौंध गया-माँ अब नहीं है!

उसके मन में एक विचित्र प्रकार की वेदना उठी, जो दुःख से भिन्न थी। दुःख का अनुभव उसे नहीं हुआ, और उसे अपने-आप पर थोड़ी-सी ग्लानि भी इस कारण हुई...वह चाहता था कि वह एक बार रो दे-सीधे-सादे मातृहीन मानव की तरह सरल भाव से रो दे! पर उसकी आँखें मानो और भी सूख रही थीं, एक जलन-सी उनमें हो रही थी।

वह शून्य भाव से काग़ज़ों की ओर देखता हुआ बहुत देर तक बैठा रहा। धीरे-धीरे अपने बाल्यकाल की बहुत-सी स्मृतियाँ उसके मन के आगे होती हुई जाने लगीं-किन्तु उन स्मृतियों में जैसे-राग तत्व बिलकुल नहीं था, शेखर की रागात्मक वृत्ति जैसे मृर्च्छित हो गयी थी, केवल दृष्टि काम कर रही थी। देर बाद उसने जाना कि ये चित्र घूम-फिरकर फिर एक ही बिन्दु पर केन्द्रित हो जाते हैं-कि शेखर भोजन कर रहा है, और साथ के कमरे से माँ का स्वर कहता है, मुझे तो इसका भी विश्वास नहीं है? किन्तु चित्र के साथ भी उस असह्य रोष का कोई अवशेष नहीं था, जो पहले इसके साथ गुँथा हुआ था...क्यों? क्या उसने माँ को क्षमा कर दिया था? उसे याद नहीं कि कभी वह जानते-बूझते इस परिणाम पर पहुँचा हो। शायद अनजाने में उसने समझ लिया था कि यों रोष को सहेजकर रखना मूर्खता है, या शायद अभी-अभी उसके मन ने निश्चय कर लिया था कि जो अब नहीं है, उसके प्रति कोई बुरी भावना रखना पाप है। उसने माँ के चेहरे की कल्पना करने का उद्योग किया; प्रायः वह इसमें सफल नहीं होता था, पर आज वह स्पष्ट ही उसे देख सका-वह चेहरा सुन्दर नहीं था, किन्तु आज उस पर वैसी रेखाएँ नहीं थी, जो शेखर प्रायः देखा करता था; पर जो वह जानता था हर समय नहीं होतीं-चेहरा शान्त था, और ऐसा कुछ उसमें नहीं था, जिसका मातृत्व के साथ कोई विपर्यय हो...माताओं के अपने-अपने चेहरे होते हैं, पर मातृत्व का अपना एक विशेष चेहरा है-या होना चाहिए...

किन्तु शेखर रो क्यों नहीं सकता?

अपने से यह प्रश्न पूछते ही उसका मन फिर शून्य हो गया। थोड़ी देर बाद एकाएक वह उठा कि और कुछ नहीं तो साधारण दिन-क्रम के काम ही वह करेगा। उसने कमरे की सफ़ाई की; बर्तन धोकर रखे; बिस्तर ठीक किया। फिर एक बार उसने अपने कमरे की सूनी दीवारों की ओर देखा। किसी दीवार पर कहीं कोई चित्र होता-फ़ोटो टाँगना उसे बहुत बुरा लगता है, पर इस समय अगर माँ का फ़ोटो ही उसके पास होता, तो शायद उसी को दीवार पर टाँगकर वह यत्न करता कि उस चेहरे से नया परिचय प्राप्त करे, जो इतना अपरिचित हो गया था...

अचानक उसे शान्ति की याद आयी-उस मुद्रा में, जिसमें वह रोज़ेटी के चित्र-सी लगती थी-‘मृत्यु का विराटत्व’...क्या मृत्यु विराट् ही होती है...और अब माँ भी नहीं है-

उसे वह कविता भी याद आयी, जो शान्ति ने उससे सुनी थी; पर उसमें इस समय कोई विशेष सार्थकता उसे नहीं दीखी, उससे उसका मन टेनिसन की ही एक दूसरी कविता की ओर गया-‘गोधूली, और साँझ की घंटाध्वनि और मेरे लिए एक स्पष्ट आह्वान; उस समय विदाई का अवसाद न हो जब मैं लंगर उठा कर खुले समुद्र की ओर चल दूँ’...कहते हैं कि यह टेनिसन की अन्तिम कविता थी, बयासी साल की आयु में लिखी हुई...

अपराह्न में न जाने क्यों शेखर उठकर रावी-तट की ओर चला। उसने श्मशान कभी देखा नहीं था, और उसे ध्यान हुआ कि मृत्यु की यथार्थता शायद एक देह का अन्तिम संस्कार देखे बिना समझ में भी नहीं आ सकती।

श्मशान में दो-तीन चिताएँ जल रही थीं। उन्हें जलते समय हो गया था, चिता के भीतर देह का आकार नहीं पहचाना जाता था और न वहाँ कोई व्यक्ति ही थे। शेखर अकेला ही था अगर कुछ-एक कुत्तों का साथ न गिना जाए...

किन्तु विराट तत्त्व? शेखर को लगा कि यह दृश्य लगभग उपहासास्पद है-कैसा बेहूदा अन्त! उसका विश्वास था कि आग किसी भी चीज़ को एक शालीनता और भव्यता प्रदान करती हैं; पर यहाँ तो वह भी नहीं थी, यहाँ के वातावरण से तो उलटे आग की टुच्ची हो गयी थी! एक कटु भावना लेकर शेखर ने सोचा कि शायद इस टुच्चे स्थान के साथ अपने बुजुर्गों का नाता जोड़कर लोग उनके विछोह को आसान बना लेते होंगे...

पर लौटते समय उसे शाम हो गयी। आकर, उसने देखा, लालटेन में तेल नहीं है। ऐसे ही मौके के लिए उसने दो-चार मोमबत्तियाँ ला रखी थीं; दो-एक साथ जलाकर उसने आले में रख दीं और चारपाई पर बैठ गया।

एकाएक मोमबत्तियों की लौ बुझ-सी चली, और सब तिड़-तिड़-तिड़ के स्वर के साथ दीप्त हो उठीं। शेखर ने देखा, एक तितली से भी बड़ा पतंगा, जो नित्य लालटेन के आसपास चक्कर काटा करता था, मोमबत्तियों की लौ से टकराकर जल गया हैं।

एकाएक जीवन निरे अस्तित्व के रूप में उसके सामने आया; अस्तित्व, जो निरी एक घटना है...आज भी लालटेन होती तो पतंगा चक्कर काटता रहता। एक तेल न होने की घटना से-‘तिड़-तिड़-तिड़’-और निर्वाण!

सवेरे के तार का आशय फिर उसके सामने दौड़ गया। माँ अब नहीं हैं!

शेखर उठकर आले के नीचे घुटने टेककर मानो प्रार्थना की मुद्रा में बैठ गया; सिर आले पर टेककर एकाएक रो उठा, पहले निरश्रु पर पिंजर को हिला देनेवाले रोदन के साथ, फिर धीरे-धीरे आर्द्र होकर...

जब उसके पीछे एकाएक शशि का पीड़ित स्वर बोला, “शेखर?” तब अभी उसका रोना बन्द नहीं हुआ था। चौंककर उसने सिर उठाया, शशि ने धीरे से कहा, “तो तुम्हें सूचना मिल गयी-” उसने सिर हिला दिया। फिर उँगली से आँसू झटक डाले और उठकर खड़ा हो गया। शशि के पास आकर उसके कन्धों पर हाथ रखे, और कोमल दबाव से उसे नीचे दबाते हुए चारपाई पर बिठा दिया। फिर भी वह हटी नहीं, एक हाथ से बहुत हलके और सान्त्वना भरे स्पर्श से उसका कन्धा सहलाती रही।

शेखर को लगा कि ऐसे तो उसकी रोने की शर्म गल जाएगी और वह फिर रो उठेगा। बोला, “मैं कुछ देर अकेला रहूँगा-”

“नहीं, तुम बैठो, मैं अभी आया।” और शशि को बिना कुछ कहने का समय दिये वह बाहर निकल गया।

लगभग एक घंटे बाद वह लौटा। शशि चारपाई के कोने पर चिन्तित बैठी थी। शेखर के आ जाने पर उसने कहा, “अब मैं लौटूँ-देर हो गयी है। मुझे अभी शाम को खबर मिली, तभी तुम्हें देखने चली आयी। धीरज से सहना भइया मेरे! कल मैं फिर आऊँगी।”

शशि चली गयी तो शेखर कुछ क्षण सीढ़ियों की ओर ही देखता रहा...फिर उसने देखा कि छोटी कोठरी में भी प्रकाश है। वह देखने गया। एक मोमबत्ती बड़े कमरे से उठाकर उधर ले जाई गयी थी। अचम्भे में शेखर ने देखा, एक ढँकी हुई थाल रखी है।

शेखर की अनुपस्थिति में शशि बेसन की पराँठे बनाकर साथ में थोड़ा-थोड़ा अचार और मधु रख गयी थी-और तो घर में था क्या!

शेखर की इच्छा कुछ खाने की नहीं थी। पर यह थाली देखकर उसे लगा कि निर्णय के बारे में वह स्वतन्त्र नहीं है।

शशि एक बार फिर आयी, और दो दिन बाद रामेश्वर के साथ एक बार और। उस दिन से क्रिसमस की छुट्टियाँ शुरू हो रही थीं, और रामेश्वर और शशि बाहर जा रहे थे। रामेश्वर ने अकारण ही कहा, “मैं तो कहता हूँ, आप यहीं रह जाइए, पर ये मानती नहीं। मैंने तो सोचा था कि इनके यहाँ रहने से आपका भी जी बहल जाएगा-दुःख में अकेले रहने से तो और कष्ट होता है।”

शेखर ने कहा, “जी नहीं, कोई बात नहीं, मैं तो अकेले ही रहने का आदी हूँ।”

चलते समय शशि ने कहा, “तुम एक बार घर हो आते तो अच्छा था। पिताजी से मिल आना चाहिए।”

शेखर दुविधा-सी में चुप रह गया।

सप्ताह भर बाद पिता की चिट्ठी आयी कि वे स्वयं आ रहे हैं। हरिद्वार जाएँगे, वहाँ से लौटते हुए लाहौर होते जाएँगे। चौथे दिन वह आ भी गये। शेखर उन्हें स्टेशन लिवाने गया; पिता के चेहरे पर थकान, उदासी और दुःख की गहरी रेखाएँ देखकर वह स्तब्ध रह गया। इससे पहले उसे कल्पना नहीं की थी कि वह प्रौढ़ गरिमायुक्त चेहरा कभी बूढ़ा भी हो जाएगा, पर इस समय चेहरे पर और आँखों में वह क्लान्ति स्पष्ट थी, काल के दुर्गम पथ पर वत्सर-रूपी कई मील चल आने के बाद धीरे-धीरे प्रकट होने लगती है।

सीढ़ियों पर एक बार कहकर कि ‘कहाँ जाके मकान लिया है!’ पिता उसके पीछे-पीछे उसके कमरे में आ गये। सामान एक ओर रख-रखाकर ताँगेवाले को विदा कर दिया गया; उसके बाद पिता ने पूछा, “यहीं रहते हो?”

प्रश्न अनावश्यक था, पर उसमें जो असम्मति ध्वनित होती थी, वही प्रकट करने के लिए यह बात कही गयी थी। शेखर ने कहा, “जी।”

“नौकर है?”

“जी नहीं।”

“खाना-पीना कैसे होता है?”

“एक वक्त से होटल से आ जाता है।”

“और दूसरे वक्त?”

शेखर चुप रहा।

पिता ने कुछ सोचते हुए-से स्वर में कहा, “अपने-आप ही करते होगे कुछ टीप-टाप-”

प्रश्न के इस रूप में गुँजाइश थी कि उत्तर दिए बिना काम चल जाए? शेखर झूठ बोलना भी नहीं चाहता था, और सच बताना भी नहीं चाहता था।

“और सफ़ाई उफ़ाई-बर्तन?”

“ज़रा-सी तो जगह है, सफ़ाई में क्या देर लगती है?”

थोड़ी देर के मौन के बाद पिता ने फिर कहा, “ऐसे रहकर तुम्हें शर्म नहीं आती?” उनके स्वर में क्रोध उतना नहीं था, जितना आहत अभिमान।

शेखर फिर चुप लगा गया।

पिता कमरे में टहलने लगे। शेखर आवश्यक प्रबन्ध के लिए इधर-उधर दौड़-धूप करने लगा। कोठरी का सामान बाहर रखा, एक पड़ोसी से थोड़ी देर के लिए बालटी माँगकर पानी भरकर कोठरी में रख दिया। पिता का अटैची-केस भी वहीं आले में रख दिया, तौलिया और धोती खिड़की पर टाँग दी। पिता ने एक बार कहा, ‘रहने दो, मैं आप ही कर लूँगा,’ पर जब वह अपना काम करता ही रहा, तब चुपचाप उसे देखते रहे।

पिता जब नहाने जाने लगे, तब शेखर ने कहा, “मैं जरा होटल तक हो आऊँ”

“अच्छा। और बाजार से मेरी दवा भी लेते आना।”

पिता ने नाम बताकर दस-दस के दो नोट शेखर को दे दिए, तो उसने विस्मय से पूछा, “कितने की आती है?”

“जितने की हो। और एक डिब्बा बिस्कुट का भी ले आना-शाम को चाय के साथ कुछ-निरी चाय तो अच्छी नहीं लगती है।”

शेखर ने जब दवा ली और उसका कुल एक रुपये कुछ आने का बिल चुकाया, तब उसे सन्देह हुआ कि बीस रुपये देने का कारण कुछ और था। जब वह लौटा, तो पिता स्नानादि करके पाकेटबुक में कुछ लिख रहे थे। शेखर ने दवा उनके सामने रख दी और जेब में से शेष रुपये निकालने लगा।

पिता ने कहा, “रहने दो अभी-और भी तो कुछ मँगाना होगा-” तब शेखर का सन्देह पक्का हो गया।

थोड़ी देर बाद खाना आ गया। रोज़ तो लड़का खाना छोड़कर चला जाता था और फिर किसी समय बर्तन उठा ले जाता था। आज शेखर ने उसे काम के लिए रोक लिया।

पिता ने एक बार थाली के प्रत्येक व्यंजन को ध्यान से देखा, उसके बाद पाँच-सात कौर खाए और अनमने-से होकर हाथ खींच लिया।

ऐसी बात शेखर से कभी होती नहीं थी, बल्कि औरों के मुँह से सुनकर भी वह विचित्र लगती थी, पर आज कुछ तो उसके मन में उत्तरदायित्व की भावना थी, और कुछ वह यह भी अनुभव कर रहा था कि पिता का पहले-सा आतंक उस पर नहीं है; उसने साहस करके कहा, “आपने तो कुछ खाया नहीं-”

पिता ने असाधारण स्वर में उत्तर दिया, “अब क्या खाना-मेरा खाना-पीना तो उसी के साथ गया-” और एकाएक उठ खड़े हुए। शेखर चुपका-सा हो गया, उसने भी थाली सरका दी और लड़के को इशारा किया कि हाथ धुला दे...

अगले तीन-एक दिनों में कोई विशेष घटना नहीं हुई, केवल एक बार फिर कुछ चीज लाने के लिए पिता ने शेखर को कहा और फिर दस का एक नोट देने लगे। शेखर ने कहा, “अभी तो मेरे पास है-” तो कहा “तो यह भी उसी में जोड़ लेना-”

किन्तु तीन दिन में पिता की और उसकी बातें कई बार हुईं; बीच-बीच में अचानक कोई प्रसंग आता कि पिता को शेखर की माता की याद आ जाती और वातावरण में एक बोझिल और विषन्न क्लान्ति छा जाती; किन्तु थोड़ी देर बाद फिर सिलसिला आगे चल पड़ता। पिता से शेखर की बातचीत पहले बहुत कम होती थी, होती भी थी तो प्रायः एक ही पक्ष से, पर अब शेखर पिता में भी कुछ थोड़ा-सा परिवर्तन देख रहा था, और अपने में भी एक बराबरी का भाव पा रहा था, और इसके कारण बातचीत में बात और चीत का अनुपात लगभग बराबर का ही था, यद्यपि उसका प्रवाह अब भी एक-सा नहीं होता था; बात अकस्मात् ही बीचोंबीच में शुरू हो जाती थी और अचानक अधर में ही समाप्त...

“ऐसे कब तक रहोगे?”

“...”

“कुछ करो-धरोगे नहीं? होटल की रोटियाँ तोड़-तोड़कर बनेगा क्या? यह कोई ढंग है रहने का?”

“कर तो रहा हूँ। बल्कि इतनी मेहनत तो मैंने पहले कभी नहीं की-”

अविश्वासपूर्वक-”करते होगे; पर बिना उद्देश्य के मेहनत किस काम की? निरी मेहनत से कुछ थोड़े ही होता है? जीवन का एक प्लान चाहिए, जिसके अनुसार मेहनत हो। सबसे पहले रहन-सहन व्यवस्थित होना चाहिए-यह क्या साँसियों की तरह एक पोटली फैलाकर बैठ गये!”

“उद्देश्य तो मैंने अपने सामने रखा है। वह आपको पसन्द न आये, यह दूसरी बात है; पर मैं मेहनत तो उद्देश्य से ही कर रहा हूँ।”

“क्या उद्देश्य? पढ़ाई तो तुमने छोड़ दी है। आगे क्यों नहीं पढ़ते? कम-से-कम एम.ए. तो कर लो। मेहनत करो तो बड़ी अच्छी तरह पास हो सकते हो-स्कॉलरशिप भी मिल जाएगी। फिर यहाँ न पढ़ना चाहो, विलायत चले जाना।”

“पढ़ाई में तो अब रुचि नहीं है। एम. ए. करके भी क्या होगा-आज तो एम.ए. पासों की भरमार हो रही है, और सब नालायक भी नहीं है। मुझमें ही ऐसी कौन-सी बात है कि-”

“न सही एम.ए., कोई और लाइन ले लो। वह बैरिस्टर और इंजीनियर बनने की सब बातें ही थीं? ये लोग लोक-सेवा भी कर सकते हैं-या फिर एजुकेशनल लाइन ले सकते हो अगर सेवा करने की धुन है। कोई बुरी बात थोड़े ही है सेवा”

“अब मैं समझ गया हूँ कि उन बातों में दूसरों के आदर्श बोलते थे, मेरे नहीं। और जिस काम में जी नहीं है, उसमें मेहनत करके मेहनत भी नष्ट ही होगी।”

“तो आखिर तुम्हारा कुछ तो विचार होगा-”

“मैंने तो साहित्य का क्षेत्र चुना है।”

“चुना है! साहित्य से क्या होगा? साहित्य के सहारे जीवन थोड़े ही चलता है? और फिर साहित्य तो दूसरे कामों के साथ-साथ भी हो सकता है। क्या डॉक्टर और वकील और प्रोफ़ेसर लेखक नहीं हो सकते? हिन्दी में तो जिस लेखक का नाम देखता हूँ, साथ में प्रोफ़ेसर लिखा होता है। ये लोग आखिर कुछ पढ़ाते ही होंगे न कहीं। अच्छा है, सेवा भी है, जीवन में निश्चिन्तता भी है, और साहित्य भी है। बात हुई न! और-”

“पर सब लेखक ऐसे तो नहीं होते। जो अच्छे-अच्छे साहित्यकार हुए हैं वे तो-”

“उनकी बात और है। हर कोई शेली और कीट्स थोड़े ही होता है। और कालिदास ने क्या दरबार में अपनी ड्यूटी नहीं भुगताई होगी? या फिर कोई सूरदास या तुलसीदास जैसा सन्त हो-वह तो असाधारण आदमियों की बात हुई, हर कोई थोड़े ही उनके मार्ग पर चल सकता है।”

“देखिए, या तो मुझमें कुछ प्रतिभा है, या नहीं है। अगर नहीं है, तो आप यह क्यों समझते हैं कि मैं ही एम.ए. करके दूसरे एम.ए. पास बेकारों से अच्छा हो जाऊँगा? और अगर है तो क्या पता, मैं साहित्य-क्षेत्र में भी कुछ कर ही सकूँ-”

“हूँ, दलीलें छाँटता है!”

बात ठप हो गयी।

इसके काफी देर बाद, एकाएक, “लिखोगे किसमें, हिन्दी में?”

“जी।”

“हूँ; हिन्दी में क्या रखा है? अँग्रेजी में लिखकर तो कुछ प्रतिष्ठा भी बनेगी। अच्छी आमदनी न हो, तो कम-से-कम प्रतिष्ठा से ही आदमी सन्तोष कर लेता है। हिन्दी से क्या मिलेगा?”

“पर लिखने का कुछ उद्देश्य तो होना चाहिए। निरी प्रतिष्ठा के लिए थोड़े ही लिखना होता है? अँग्रेज़ी की पुस्तक तो इने गिने ही पढ़ेंगे-हिन्दी तो करोड़ों-” (फिर एकाएक याद करके कि हिन्दी-भाषी करोड़ों हों भी, पाठक तो बहुत कम होंगे! “या कम-से-कम लाखों पढ़ सकते हैं।”)

“पर पाठक किस श्रेणी के? हमारे जीवन में हिन्दी की हैसियत ही क्या?”

शेखर ने कुछ अभिमान के साथ कहा, “हिन्दी जन-भाषा है। करोड़ों व्यक्तियों के प्राण इसमें बोले हैं।” फिर यह सोचकर कि एक ऐसी दलील पिता को रुच सकती है, जान-बूझकर शरारत की भावना से (यद्यपि ऐसा नहीं था कि इस युक्ति में उसे विश्वास बिलकुल न हो) “और हमारी जाति की परम्परा इसमें बोलती है-हमारा सारा अतीत इसमें बँधा हुआ है!”

“होगा। पर जिससे आदमी का भविष्य न बने, उसके अतीत को लेकर क्या करें, चाटें?”

“मुझे तो भविष्य दीखता ही हिन्दी में है-अगर हिन्दी हम सबसे छूट गयी तो भविष्य हुआ-न-हुआ बराबर है।”

“तुम्हें तो दीखेगा ही-हर बात में मेरा खंडन जो करना हुआ। तुम्हारी माता तुम्हें बहुत याद करती रहीं। पर तुम ऐसे नालायक निकले कि आये ही नहीं। माता-पिता बुरे ही सही, तब भी ऐसे कोई करता है?”

शेखर चुप।

“और वह तो बिचारी अन्त तक तुम्हारी बात सोचती रही। उसने निश्चय किया था कि तुम जेल से लौटोगे तो तुम्हारा ब्याह कर देगी। तुम्हारे लिए बहू भी देख रही थी।”

तीर की तरह शेखर के मन में स्मृति चुभ गयी, “अबकी बार वह लौटकर आये तो उसकी शादी कर दो।” बड़ा भाई ईश्वरदत्त जब घर से भागा था, तब उसके लिए माँ ने यह प्रस्ताव किया था...एकाएक उसे लगा कि उसका सारा उद्योग-मानसिक और शारीरिक-जीवन के मानचित्र में ही एक ठीक जगह बैठा दिया गया है, जो सदा से वैसे उद्योगों के लिए निश्चित है-कि अबकी बार वह लौटकर आये तो शादी कर दो! जैसे उसके सब विचार एक परिचित रोग हैं, जिसका स्पष्ट उपचार है-अमुक नम्बर का मिक्शचर! शेखर ने उत्तर देना चाहा ‘सब भाइयों के लिए एक ही नुस्खा होगा?’ पर फिर संयत-भाव से बोला, “मेरा क्यों? मैं तो ब्याह करना नहीं चाहता। और अभी तो बड़े भाई हैं।”

“तुम्हारे चाहने का क्या अर्थ है? लड़कों के चाहने से थोड़े ही ब्याह होते हैं। यह तो सामाजिक कर्तव्य है। लड़का, कन्या, माता-पिता, बिरादरी, सभी उसमें होते हैं। हाँ, यह बात ठीक है कि पहले बड़े भाइयों का होना चाहिए। पर ईश्वर की सगाई हो ही गयी है, प्रभु की भी हो ही जाएगी। सगाई का तो पहले-पीछे का कुछ होता भी नहीं, जिसके योग्य कन्या मिले, सगाई हो जाती है। और-”

शेखर ने देखा कि यह तो प्रश्न बड़ी आसानी से हल होते चले जा रहे हैं! उसने जोर देकर कहा, “मुझे अभी विवाह करना ही नहीं तो-”

“क्यों? प्रभु तो अभी पढ़ रहा है; इंजीनियर बनते उसे दो साल और लगेंगे। तुमने तो पढ़ाई छोड़ दी है, अब तुम्हें ढंग से रहना चाहिए, आगे का कुछ सोचना चाहिए। घर-गिरस्ती बनाओ, चार पैसे कमाओ, अलग निश्चिन्त होकर रहो। बहू अच्छे घर की होगी तो थोड़े में भी काम चला लेगी, बल्कि आधी गिरस्ती तो बहू के साथ आती है। और मैंने कुछ जोड़ा तो है नहीं, जो कुछ होता रहा है, तुम लोगों पर खर्च कर दिया है; पर फिर भी जो कुछ बन पड़ेगा, कर ही दूँगा। मुझे कौन साथ ले जाना है-जैसा पीछे दिया, वैसा अब दिया। ब्याह अच्छी तरह हो जाएगा, तो समझ लूँगा कि उसके मन की एक साध पूरी हो गयी। जीवन में तो बिचारी ने सुख देखा नहीं। अब पहले जमाने की बात थोड़े ही है-पहले तो बहुएँ कितनी-कितनी सेवा किया करती थीं-” पिता फिर कुछ अन्यमनस्क-से हो गये।

शेखर ने कहा, “देखिए, मुझे विवाह करने की रत्ती भर इच्छा नहीं है। और मैं उसके योग्य भी नहीं हूँ-कुछ कमाता नहीं हूँ, और ऐसी डिगरी भी नहीं है कि आगे चलकर कुछ कमाने की आशा हो। क्लर्की में तीस-चालीस मिल सकते होंगे, पर वह मैं कभी नहीं करूँगा। ऐसी दशा में यह बन्धन पालना पाप भी हैं और मूर्खता भी। और फिर-” एक क्षण रुककर शेखर फिर आग्रहपूर्वक कहने लगा, “फिर मैंने अपने जीवन का एक मिशन चुन लिया है, अब जान-बूझकर उसके मार्ग में बाधा क्यों खड़ी करूँ?”

“क्या मिशन? कैसा मिशन?”

“मुझे कुछ कमाना-जोड़ना नहीं है। लिखना है, तो वह भी पैसा जोड़ने के लिए नहीं। वह साधन होगा एक बड़े उद्देश्य का-मैं अपने समाज की, अपने आस-पास के जीवन के सब अंगों की व्यवस्था बदल देने का व्रत ले रहा हूँ-यह तो आप भी मानेंगे कि परिवर्तन आवश्यक है? और नहीं तो इतना तो आप मानेंगे ही कि देश को स्वाधीन होना चाहिए?”

पिता ने कुछ खीझ और कुछ पितृत्व के अभिमान के स्वर में कहा, “कितनी बातें सीख गया है!” फिर थोड़ा हँसकर बोले, “हम तुम्हें अपने जीवन की बातें बतलाते हैं-हमने कभी कही नहीं, पर अब छिपाने में क्या रखा है, अब तुम बड़े हो गये।” उनकी आँखें बहुत दूर चली गयीं और गहरे स्वर में उन्होंने कहना आरम्भ किया, “जब मैंने पढ़ार्ई समाप्त की, तब हम तीन-चार लड़कों ने भी ऐसा व्रत लिया था। हमारी पढ़ाई तो गुरुकुल में हुई थी, जब हम वहाँ से निकले तो हमने आपस में सलाह की कि पचीस वर्ष की आयु होने में जितने-जितने वर्ष बाकी हैं-मेरी आयु तब अठारह वर्ष की थी-उतने-उतने हममें से प्रत्येक व्रत का पालन करते हुए बिताएगा, क्योंकि ब्रह्मचर्य की अवस्था पचीस तक की होती है। तन पर जो कपड़े थे, उनके अलावा केवल एक लाठी और एक झोले में दो-तीन पुस्तकें ही हमारी पूँजी थीं। तुम व्यवस्थ बदलने की बात कहते हो; हमारे उद्देश्य बहुत स्पष्ट थे। अँग्रेजों को निकाल बाहर करना और हिन्दू राष्ट्र को संगठित करके विुशद्ध आर्य-संस्कृति की पुनःस्थापना...चार साल तक हम लोगों ने भीख माँग-माँगकर प्रचार किया। ऐसे-ऐसे बीहड़ स्थलों में हम गये कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते; देखे तो तुमने क्या होंगे! और-” कुछ रुककर एक झेंपी-सी हँसी हँसकर, “अँग्रेजों के विरुद्ध हमने जितना विष-वमन किया-आज के आतंकवादी क्या करेंगे! पर अन्त में-” उनकी भँवों और कन्धों ने संकेत से वाक्य पूरा किया कि ‘सब निष्फल’!

पिता ने शेखर की ओर देखा। उसके चेहरे पर कौतूहल स्पष्ट देखकर फिर कहने लगे, “एक साल तक हम लोग लोग इकट्ठे रहे। फिर अलग-अलग मार्ग पकड़े। अपना कर्तव्य हमारे आगे इतना स्पष्ट था कि राह चलते कोई इक्का-दुक्का अँग्रेज मिल जाये तो उसकी बुरी गत बनाते थे! मैं-” उनके नथने अभिमान से फूल गये-”बहुत तगड़ा था-और चेहरा ऐसा लाल होता था कि बस! आजकल की तरह थोड़े ही। बाबू साहब नहीं थे हम!”

फिर थोड़ी देर के लिए उनकी दृष्टि अन्तर्मुख हो गयी, मानो दूर दबी हुई स्मृति को खोदकर ला रहे हों...”पर अन्त अच्छा नहीं हुआ। दो साथी किसी आतंककारी दल के साथ पकड़े गये और फाँसी लग गये। तीसरे का कुछ पता नहीं लगा कि वह कैसे मर गया। पता यही लगा कि कुछ ईसाई मिशनरियों ने उससे चिढ़कर उसे विष दिल दिया था। चौथा-चौथा मैं था। चार साल तक यह करते-करते मुझे लगने लगा कि मैं व्यर्थ काम कर रहा हूँ-केवल इसलिए नहीं कि यह टटीहरी का प्रयास है; अधिक इसलिए कि यह घृणा का प्रचार कभी अच्छा फल नहीं ला सकता...फिर एक दिन एक घटना से मेरी आँखें बिलकुल खुल गयीं और-” एकाएक विषय बदलकर उन्होंने कहा, “घृणा का प्रचार तो यह है ही। तुम भी क्या करोगे? जो अच्छा नहीं है, उसके विनाश का ही तो प्रचार करोगे न?”

“उतना ही नहीं, जो हम चाहते हैं उसका-”

“हाँ, हाँ; पर परिस्थिति की लाचारी है कि विनाश पर ही तुम्हारा आग्रह हो जाएगा। मैंने देखा है कि सब प्रचार अन्ततः घृणा का प्रचार है; क्योंकि घृणा में शक्ति है, प्यार में वह नहीं है। वैसे ही जैसे विष में शक्ति है। लड़ाई लड़ी जाती है, जिहाद होते हैं, तो घृणा के सहारे...और घृणा सचमुच विष है। वह दूसरे को भी मारती है, अपने को भी नहीं छोड़ती। और जब दूसरों को नहीं मार पाती, तब तो अपने को इतनी जल्दी खा लेती है कि...”

वे एकाएक चुप हो गये। शेखर कुछ प्रतिवाद भी करना चाहता था, और यह भी पूछना चाहता था कि वह घटना क्या थी, पर उसे डर हुआ कि पूछने से कहीं पिता का मूड ही न बदल जाए। क्योंकि आज तक अपने अतीत की बात उन्होंने कभी नहीं कही थी। सचमुच शेखर ने कभी इस कल्पना से साक्षात्कार नहीं किया था कि पिता भी कभी एक ऐसे युवक रहे होंगे! अतः वह चुप ही खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद पिता फिर बोले-”तुम भी पागल हो जाओगे।” और फिर खो-से गये। फिर जैसे अपने को जगाकर कहने लगे, “तीन-चार साल में अपने कामों से आस्था बिलकुल उठ गयी। तब मुझे इस बात की बड़ी आवश्यकता जान पड़ने लगी कि किसी से उपदेश लेना चाहिए। पर ऐसा था ही कौन! फिर किसी ने मुझे बताया कि टिहरी की तरफ़ हिमाचल की किसी गुफ़ा में एक महात्मा रहते हैं, उन्हीं से सच्चा उपदेश मिल सकता है। संस्कार तो ऐसे थे ही कि हिमालय की कन्दराओं में सच्चे साधक और ज्ञानी रहते हैं; मैं इधर ही को चल पड़ा। कई महीने भटकने के बाद एक दिन जंगल पार करते-करते एक खुले-से टीले पर बैठ गया। टीले के नीचे ही एक पहाड़ी नाला बहता था; उसकी धारा का ऊपर का भाग तो पथरीली जमीन में शोर करता हुआ बहता था, पर निचला एक चौड़े-से थाले की घास में खो गया था, और वहाँ दलदल-सी भी हो रही थी।

साँस लेकर पिता फिर कहने लगे, “थोड़ी देर बाद उधर से एक भीमकाय मृर्ति आती दीखी। काला चमकता हुआ शरीर, लम्बी-लम्बी रूखी जटा और सिंह की-सी अयाल, बदन पर एक कौपीन। जहाँ से दलदल आरम्भ होती थी, वहीं बैठकर उसने हाथों से बहुत-सा कीचड़ खोदा और टीले के ढलाव पर जमा करने लगा। जब काफ़ी कीचड़ जमा हो गया, तब वह उसे थाप-थापकर जाने क्या करने लगा। मैं वहाँ से बहुत दूर था, अतः बिना उसे चौंकाए कुछ पास आने के लिए मैंने दूसरी ओर से टीले का चक्कर लगाया और जहाँ वह बैठा था, वहाँ से कुछ ही नीचे एक पेड़ की ओट में खड़े होकर उसे देखने लगा। जो मैंने देखा, उससे मैं चकित रह गया।

“उसने मिट्टी की एक तोप बनायी थी। नीचे झुककर निशाना देखता, फिर हाथ की एक लकड़ी से तोप को आग देता, और फिर मुँह से ज़ोर का शब्द करता-‘ठाँय!’ फिर एक अट्टहास से जंगल गुँजाकर वही क्रम दुहराने लगता...”

पिता ने रुककर देखा कि शेखर पर इसका क्या असर हुआ है, फिर बोले, “मैं बहुत देर तक मुग्ध भाव से यह देखता रहा। फिर मैंने देखा, उसी स्थान के आस-पास और भी कई मिट्टी की तोपें पड़ी हैं, जिनकी मिट्टी सूखकर टूट गिरी है...दो घंटे बाद मैं उठकर चला आया।”

अबकी शेखर ने पूछा ही तो, “फिर?”

“बाद में पूछताछ करने पर मुझे पता लगा कि वह सन् सत्तावन का एक विद्रोही सिपाही था, जो पीछे जब अँग्रेजों ने अमानुषी ढंग से बदला लेना आरम्भ किया, तब भागकर वहाँ आ छिपा था। तब से उसका यही नित्य-क्रम था-चालीस बरस से वह ये मिट्टी की तोपें दाग रहा था!”

बहुत देर तक मौन रहा।

“उस घटना से अपने प्रयासों की विफलता मेरे सामने स्पष्ट हो गयी। मैंने महात्माओं की खोज छोड़ी, और लौटकर दूसरे आश्रम में प्रवेश किया। इस बात को पैंतीस साल हो गये। मुझे नहीं लगता कि मैंने भूल की।” फिर क्षण भर रुककर सोचते हुए-”घृणा का यही अन्त होता है-हो ही यही सकता है। पागलपन।” फिर कुछ इस भाव से कि इसके आगे सब तर्क परास्त हैं, उन्होंने कुछ मुस्कराकर शेखर की ओर देखा।

शेखर के मुँह पर दर्जनों प्रतिवाद एक साथ आ गये। बोला, “यह आप कैसे कह सकते हैं? पहले तो यही सिद्ध नहीं है कि वह घृणा से पागल हुआ-या कि घृणा से ही उसे असफलता मिली। जंगल में रहकर मिट्टी की तोपें दागने का असल कारण तो था आतंक-वह छिपकर तोप दागता था, इसीलिए मिट्टी की तोप थी। वह बेबसी का विद्रोह था-और बेबसी भी आप मोल ली हुई, इसीलिए विद्रोह था-और बेबसी भी आप मोल ली हुई, इसीलिए विद्रोह भी विफल था। न छिपता, लड़ मरता, तो घृणा क्यों असफल मानी जा सकती? और मान ही लीजिए कि वह विद्रोह करने के कारण पागल हुआ, तो आपके पास यह कहने का क्या कारण है कि उसका जीवन कम सिद्ध हुआ? पागल तो सभी होते हैं, उसके पागलपन में एक असाधारण एकाग्रता थी, बस इतना ही तो सिद्ध हुआ न?”

पिता ने झल्लाकर कहा, “पागल हो गये क्या, तुम तो अभी पागल हो।”

पिता ने कहा, “निश्चिन्तता बड़ी बात होती है।”

शेखर कुछ सोच नहीं सका कि क्या कहे।

“तुम अभी इसका महत्त्व नहीं समझोगे। जीवन में सिक्योरिटी बड़ी चीज़ है। साहित्य से कुछ टका-पैसा आ भी गया, तो उसका क्या भरोसा? आमदनी की बरकत तब होती है जब नियम से एक-सी आती रहे, चाहे थोड़ी हो। इसीलिए कहता हूँ, घर बसाओ, कुछ कमाओ, चैन से रहो। जीवन का कुछ ढंग हो तो आदमी को पता रहता कि वह कहाँ खड़ा है।”

शेखर फिर चुप रहा। पिता ने कहा, “बोलते क्यों नहीं?”

“क्या बोलूँ, मेरी तो समझ में नहीं आता।”

“इसमें समझने की क्या बात है? ऐसा कौन है, जो जीवन में सिक्योर होना नहीं चाहता? नहीं तो यह बीमा, प्रॉविडेंट फंड, पेंशन आदि का रिवाज़ ही कैसे होता? आजकल तो कोई नौकरी करता है, तो पहले पूछता है कि पेंशन या प्रॉविडेंट फंड है या नहीं। क्यों, मेरी बात ठीक नहीं है?”

“ठीक है। पर मैं तो सिक्योर होना नहीं चाहता। आप घर-गिरस्ती, निश्चित आमदनी और सिक्योरिटी की बात कहते हैं; मुझे यही जीवन के रोग लगते हैं-इन्हीं से तो मैं बचना चाहता हूँ। यह चैन की जिन्दगी, यह आश्वासन का भाव, यह दिनों-दिन जोखम की अनुपस्थिति-यही तो घुन है, जो जीवन की शक्ति को खा जाता है। मैं इन सबका उलटा चाहता हूँ। चाहता हूँ निरन्तर आशंका और जोखम का वातावरण, ताकि मैं हर समय लड़ने को बाध्य होऊँ; अपने हाथ से तोड़कर नष्ट करूँ और अपने ही हाथ से फिर नये सिरे से बनाऊँ।”

“ख़ाहमख़ाह बहस करने के लिए बहसते जाओगे। दो दिन सचमुच ऐसे रहना पड़े तो नर्वस ब्रेकडाउन हो जाए! जोखम राह चलते आता है तो भुगत लिया जाता है, कोई माँगता भी है? तुम बहुत विज्ञान बघारते हो, क्या यह सभ्यता के विकास की ही गति नहीं है कि मानव निरन्तर निरापद अवस्था की ओर बढ़ता गया है?”

“सभ्यता! यह सभ्यता तो ढकोसला है। सिक्योरिटी, सुख-शान्ति और उन्नति की सब बातों का असली मतलब यह है कि मानव का बचपन लम्बा होता जाता है। जो जितना सभ्य है, उसकी बचपन की अवस्था उतनी लम्बी है। सभ्यता तो परावलम्बिता का नाम बन गया है। पशुओं में बचपन एक साल का होता है, हद-से-हद दो साल का। जंगली लोगों में दस-बारह साल का होता होगा। हम लोग इतने सभ्य हो गये हैं कि अब तीस-तीस साल तक बच्चा, बच्चा ही बना रहता है, अपने पैरों नहीं खड़ा होता। कई लोग तो बचपन से निकले बिना ही मर जाते हैं।”

“क्या मतलब?”

“अब मैं ही इक्कीस साल का हो चुका। अभी आप मुझे इस लायक नहीं समझते कि लाहौर जैसे निरापद शहर में अपना मकान लेकर रह सकूँ। मैं तो समझता हूँ कि आपके ऐसा सोचने का मतलब यही है कि आपने बीस साल तक मुझे जो कुछ सिखाया-पढ़ाया है, उस सबको आप रद्दी कर रहे हैं, क्योंकि उसने मुझे इस लायक नहीं बनाया। मुझे लगता है कि हम ज़रूरत से ज्यादा सभ्य हो गये हैं। हमारे संयुक्त घरों में न जाने क्या हाल होता होगा! क्या इस तरह व्यक्ति को ज़बरदस्ती पर निर्भर नहीं बनाया जाता, उसके सच्चे व्यक्तित्व को और आन्तरिक शक्ति को सुलाया नहीं जाता? सभ्यता का क्या यही अर्थ होना चाहिए कि जीवन की ललकार को अनसुनी कर दी जाए, बढ़कर उससे टक्कर लेने की शक्ति को कुचल दिया जाए? आप ही बताइए कि अगर आर्य शुरू से ऐसे आराम चाहनेवाले होते, तो जावा और कम्बोज और चीन तक उनकी संस्कृति कैसे पहुँचती? बल्कि आर्य होते ही कहाँ-आर्य तो वे तब कहलाए, जब कहीं से वे एक नये देश में आकर बसे।”

पिता ने झुँझलाई हुई सराहना के साथ शेखर की ओर देखकर कहा, “ये सब पढ़ी हुई बातें बोल रहे हो, या अपनी सोची हुई?”

शेखर को एकाएक बाबा मदनसिंह की याद आई। अपनी व्यथा में से सूत्र खोजना होता है’...शायद उसकी दलीलों पर बाबा के विचारों की छाप है, पर क्या इतनी कि शेखर केवल तोते की तरह दुहरा रहा है? क्या जो कुछ वह कह रहा है, उसका अनुभव उसकी नाड़ियों में नहीं है?

उसने खिन्न होकर मौन साध लिया...

पिता ने दो-तीन दिन और शेखर के साथ मगज़ मारा। बीच में एक-आध दिन वे कुछ घूमघाम कर लोगों से मिल भी आये; और दो-एक व्यक्ति वहाँ आकर भी उनसे मिल गये। तीसरे दिन रामेश्वर के साथ शशि भी उन्हें मिलने आयी-उसी दिन वे लाहौर लौटे थे। जब उसके समवेदना के वाक्यों से पिता का हृदय पिघल गया और वे माता के संस्मरण कहने लगे, शेखर दबे-पाँव उठकर बाहर चला गया। उसे लगा कि उसकी अनुपस्थिति में शशि अधिक सहज भाव से उन्हें वहाँ सान्त्वना दे सकेगी, जो देने की शेखर में तनिक भी योग्यता नहीं है-पता नहीं और किसी को भी वह सान्त्वना दे सकता है या नहीं, पर पिता से ऐसी बात करते तो उसकी जीभ ऐंठ जाती है।

रात को शेखर एकाएक चौंककर जागा। उसने स्वप्न नहीं देखा था, उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्यों ऐसे घबराकर उठ बैठा है। घबराहट और असह्य बेचैनी बड़ी स्पष्ट थी-उसने मुड़कर पिता की ओर देखा और फिर चौंका-पिता भी उठकर बैठे हुए थे। एकाएक पिता के भर्राए हुए कंठ से एक विचित्र स्वर निकला, जो न चीख थी, न कराह-और शेखर ने जाना कि इसी स्वर से वह हड़बड़ाकर जागा था...वह थोड़ा-सा काँप गया; पिता ने शायद जान लिया कि वह बैठा है, तब वह जल्दी से उठकर और जूता घसीटते हुए बाहर आँगन में चले गये।

शेखर ने पिता को कभी रोते नहीं देखा था-और इस बेबस ढंग से रोते...उसके अन्तर में बहुत गहरे कहीं दर्द होने लगा, और शब्दहीन संवेदना उसमें उमड़ने लगी। वह नहीं जानता था कि पिता इतना दुःख मना सकते हैं; अब तक उसने यह भी नहीं समझा था कि दैनिक व्यवहार की कठोरता और रुखाई का मोल हर कोई कभी कहीं अकेले में चुकाता ही है-कि सन्तान पर कठोर शासन करनेवाले पिता की भी नैसर्गिक मानवी कोमलता आखिर कहीं तो प्रकट होती ही होगी...

बाहर आँगन से उसने हाँपे हुए कंठ का ‘हुँहुँक-हुँहुँक’ सुना, और फिर नाक साफ करने की आवाज...फिर चप्पल के स्वर से अनुमान करके कि पिता भीतर को आ रहे हैं, वह जल्दी से मुँह ढँककर लेट गया, और साँस को नियमित बनाकर हृद्गति की तीव्रता को छिपाने का यत्न करने लगा...

थोड़ी देर बाद पिता आकर चारपाई पर बैठ गये, एक बड़ी लम्बी और टूटी हुई आह उन्होंने भरी; फिर धीरे से लेट गये।

बहुत देर बाद तक शेखर सोचता रहा कि वे अभी सो गये हैं या नहीं और अन्त में स्वयं सो गया।

अगले दिन पिता को लौटना था। प्रातःकाल मुँह-हाथ धोकर और सामान ठीक करके चाय पीते समय उन्होंने रूखे स्वर से पूछा, “फिर क्या निश्चय किया तुमने?”

रात की स्मृति अभी तक बनी होने के कारण शेखर नहीं चाहता था कि कोई ऐसी बात उसके मुँह से निकले, जिससे पिता को क्लेश हो। उसने अपना स्वर यथासम्भव विनीत बनाकर कहा, “जी, मैं तो पहले ही बता चुका हूँ। एक पुस्तक तो मैं छपने भी दे रहा हूँ-” इतने दिन तक शेखर वह हस्तलिपि देने नहीं गया था।

“अच्छा? क्या पुस्तक है?”

“हमारा समाज शीर्षक रखा है। उसमें-”

“तो समाज के पीछे लाठी लेकर पड़े हो। तुम्हारी मर्जी बाबा! अक्ल की बात सुनोगे थोड़े ही।” फिर जैसे कुछ ढीले पड़कर, “हम भी कब सुनते थे। जवानी का लहू ही ऐसा होता है। आज पटकी खाये बिना मानता कौन है।”

शेखर ने मन-ही-मन कहा, ‘तो-ठीक-तो है।’ पर प्रकाश्य कुछ नहीं बोला।

इतने में शशि आ गयी। पिता ने उसकी ओर देखकर पूछा, “तुम क्यों नहीं समझातीं इसे? सुना है, तुम्हारी बहुत मानता है।”

शेखर ने पूछा, “किससे सुना है?”

“किसी से सुना सही। क्यों, बात ठीक नहीं है?”

शशि ने कहा, “मेरी बात कब सुनते हैं-मुझे तो झट डाँट देते हैं।”

“डाँटने का क्या मतलब उसका? तुम क्यों सुनती हो?”

शशि के झूठे अभियोग पर शेखर को हँसी आने लगी; वह उठकर कुछ लाने के बहाने कोठरी में चला गया और वहाँ से आँगन में; काफी देर तक वहीं घूमता रहा। फिर उसे विस्मय भी हुआ कि अभी तक उसकी बुलाहट नहीं हुई। शशि न जाने कैसे बिना झिझक पिता से बातें कर लेती है-वह भी तो उससे एक स्निग्ध स्वर में बोलते हैं, जिसमें अधिकार की भावना नहीं होती। उन दोनों में लगातार सहज भाव से वार्तालाप हो सकता है, शेखर और पिता के बीच तो बहस ही होती है, या फिर खिंचा हुआ मौन।

एकाएक शेखर को याद आया, उसके पास रुपये पड़े हैं, जिनका हिसाब नहीं दिया गया। वह भीतर चला, इतने में पिता की आवाज़ आई, “शेखर!”

शेखर ने अपने कुर्ते की जेब में से नोट और रुपये निकालकर पिता की ओर बढ़ाते हुए कहा, “यह लीजिए बाकी; हिसाब भी मैंने एक पर्ची पर लिख दिया है।”

पिता ने किंचित् डाँटकर कहा, “अच्छा-अच्छा, रखो; बड़ा आया हिसाब देनेवाला!”

शेखर क्षणभर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा। फिर शशि को इशारे से कहता पाकर कि इस प्रसंग को तुरन्त बन्द कर दे, उसने रुपये जेब में रख लिये।

थोड़ी देर में ताँगा आया, शशि प्रणाम करके लौट गयी और शेखर पिता के साथ स्टेशन चला।

‘हमारा समाज’ की पांडुलिपि प्रकाशक को दे आने के बाद शेखर को ऐसा अनुभव होने लगा कि जो उद्देश्य उसने अपने सामने रखा है, उसकी ओर एक सीढ़ी वह चढ़ गया है। इससे उसे बहुत सान्त्वना मिली, और वह कुछ अधिक नियमित होकर काम करने का प्रयास करने लगा। अबकी बार उसने संसार के विभिन्न समाजों में पुरुष और स्त्री के अधिकारों का तुलनात्मक अध्ययन करने का निश्चय किया। प्रतिपाद्य विषय यह था कि इस समय पुरुष और स्त्री के आपस के सम्बन्धों को, और एक-दूसरे के सम्मुख प्रत्येक के अधिकार को, नियमित करनेवाली जो सीढ़ियाँ हैं, उनमें बहुत कम ऐसा हैं, जो विवेक की नींव पर खड़ी हुई हैं, या कि जिनके पीछे प्रकृति ही विशालतर अर्थशास्त्र की व्यवस्था है, उस अर्थशास्त्र की, जिसकी पूँजी की इकाई रुपया न होकर जीव है। इतना ही नहीं, इससे आगे बढ़कर वह यह भी सिद्ध करना चाहता था कि सुधारकों ने भी जो प्रचलित तर्क-परम्परा है-कि रूढ़ियाँ किसी जमाने में ठीक थीं, क्योंकि उस समय की परिस्थिति के लिए बुद्धि-संगत थीं, पर अब नयी परिस्थिति में असंगत हो गयी हैं-वह भ्रान्तिपूर्ण है, क्योंकि बहुत से विश्वासों की जड़ नवीन या प्राचीन किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य नहीं है-अर्थात् अतीत की परिस्थिति के साथ भी उनका अपरिहार्य कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं हैं। उनकी जड़ है विशुद्ध अन्धविश्वास या जादू-टोने की तर्कातीत क्रियाओं में। टोने की प्राचीन रीतियों के ही बहुत से अवशेष हैं, जिन्हें हम अनन्तर बुद्धि-संगत बनाने का प्रयत्न करने लगते हैं। यह प्रयास वैसा ही है, जैसे पुरानी टूटी हुई मिट्टी की लुटिया मिल जाने पर हम उसमें पीतल की नयी पेंदी टाँकना चाहें-पर ऐसा उपहासास्पद प्रयास हम नित्य ही करते हैं।

शेखर यह भी कहना चाहता था कि इन सुधारकों के असफल होने का कारण यह भी है। वे ऐसी रूढ़ियों को पुराने जमाने की दृष्टि से ठीक मानकर मानव के अहंकार को पुष्ट करते हैं-वह और भी आग्रहपूर्वक कहने लगता है कि अजी साहब, पुराने सब रिवाज तो ऋषियों ने निर्दिष्ट किये थे-आप खुद मानते हैं कि वे समयानुकूल थे! इससे फिर वह आसानी से एक सीढ़ी और बढ़ता है जब वह देखता है कि बहुत से नये रिवाज भी बुद्धिसंगत नहीं हैं, तब वह कहता है, ‘साहब, वे तो ऋषि थे, वे जो निश्चित कर गये, वह उसी जमाने के लिए नहीं, युग-युगान्तर के लिए ठीक था, क्योंकि वे तो त्रिकालदर्शी थे-अगर वह अपने जमाने के लिए बुद्धि-संगत विधान बना सकते थे, तो क्या भविष्य के लिए नहीं बना सकते थे?’ बस, इस दृष्टिकोण के आगे सुधारक की एक नहीं चल सकती-यह रूढ़ि का दुर्भेद्य कवच है।

शेखर चाहता था उसकी पुस्तिका में निरे सिद्धान्त का प्रतिपादन न हो, जो युक्तियाँ वह उपस्थित करे, उन्हें पुष्ट करने के लिए इतिहास, मनोविज्ञान और जीव-विज्ञान-विशेषकर मानवशास्त्र से प्रमाणों का ऐसा पहाड़ खड़ा कर दे कि उसकी एक-एक युक्ति अकाट्य हो जाए। वह अनुभव कर रहा था कि इसके लिए उसका अध्ययन पर्याप्त नहीं है। कॉलेज में विज्ञान विषय ही रहा था, और वैसे भी वह इधर-उधर की बहुत पुस्तकें पढ़ता था, और जेल के दस महीनों में भी उसने बहुत कुछ पढ़ा था, जिससे समाजशास्त्र और मानवशास्त्र में उसकी रुचि भी परिष्कृत हुई थी; पर वह अच्छी तरह जानता था कि मानव का ज्ञान-पुंज जिस तीव्र गति से बढ़ रहा है, उसके साथ-साथ चलना बहुत कठिन है, विशेषकर उस व्यक्ति के लिए, जिसके अध्ययन को किसी बहुज्ञ का निर्देश न मिल सकता हो-वह चाहता था कि नगर के प्रमुख सार्वजनिक पुस्तकालय का सदस्य बन जाए, ताकि पढ़ने की सामग्री मिल सके; और पिता के दिये हुए रुपये में से होटल का बिल आदि चुकाकर बारह-एक रुपये उसके पास बाकी भी थे; पर पुस्तकालय का आठ रुपये तो वार्षिक चन्दा था, और जिन विषयों की पुस्तकें वह लेना चाहता था, उनके लिए बीस रुपये का डिपाजिट भी आवश्यक था...

एक दिन बैठे-बैठे उसे ध्यान हुआ, उसकी कई किताबें खो गयी हैं? अवश्य, पर बहुत-सी बची हुई भी हैं। जो पुस्तकें वह पढ़ चुका है; उन्हें पूँजीपतियों की तरह सँजोकर रखने का उसे क्या अधिकार है? वे उसे बहुत प्यारी हैं, बल्कि उन्हें वह अपने विशालतर अर्थात् सामाजिक शरीर का एक अंग मानता है; पर ज्ञान क्यों कम प्यारा हो? और ज्ञान क्यों बिना प्रयास मिले-ज्ञान क्या कोई चूरन की पुड़िया है कि मुफ़्त चखने को मिल जाए!

शेखर ने आलमारी के पास जाकर पुस्तकें देखना आरम्भ किया। दो-एक बार सब देख चुकने के बाद उसने अधिक दामोंवाली तीन पुस्तकें निकालीं; फिर एक बार सब पुस्तकों को देखकर दो वापस रख दीं और एक और निकाली; फिर सबको वापस रखकर टहलने लगा...फिर उसने बड़े आकार की दो जिल्दों की एक पुस्तक निकाली-वेल्स लिखित ‘इतिहास की रूपरेखा’। जल्दी-जल्दी उसके बहुत-से पन्ने उलट डाले, फिर मन-ही-मन कहा, यह तो जनरल पुस्तक है, और इसे बार-बार देखने की आवश्यकता तो पड़ती नहीं-दो बार पढ़ ही चुका है और उसे बाहर रख लिया। फिर दो चक्कर काटकर उससे भी बड़े आकार की एक पुस्तक निकाली-चुग़ताई का चित्र-संग्रह...इसके दो-एक चित्र देखकर वह जैसे पुस्तक को सम्बोधित करके मन-ही-मन कहने लगा, जब और संग्रह नहीं रहे, तब इस एक से क्या होगा! फिर चुग़ताई कौन दुनिया का सबसे बड़ा चित्रकार है-और चित्र तो आदमी तब रखे जब रखने लायक जगह हो। यहाँ क्या जाने कब दीमक लग जाए-और उसने अपने को याद दिलाया कि उसकी पहली रचना को कीड़े खा गये थे; और दूसरी को गाय खा गयी थी...पर उसके मन का भाव चोर का-सा अधिक था, निश्चय उसमें बिलकुल नहीं था...

शेखर ने तीनों पुस्तकों की जिल्दें खोलकर फिर देखीं। ये पुस्तकें उसे कॉलेज में पुरस्कार में मिली थीं, और जिल्द के अन्दर इस आशय का प्रमाण-पत्र भी चिपका हुआ था। क्षणभर शेखर उसे देखता रहा, फिर एकाएक उसने दृढ़ हाथों से प्रमाणपत्र कोने से पकड़-पकड़कर उखाड़ डाले, पुस्तकें पुराने अखबार में लपेटीं और बाहर चल दिया।

पुस्तकें कुल लगभग अड़तालीस रुपये की थीं, पर बाज़ार में उनके अठारह रुपये से अधिक नहीं लगे। दो-एक जगह पूछकर शेखर ने ‘वेल्स का इतिहास’ एक सेकंडहैंड पुस्तक-विक्रेता के पास साढ़े पन्द्रह रुपये में बेच दिया-यह उसकी कीमत का ठीक आधा था। दूसरी पुस्तक के चार रुपये से अधिक देने को कोई तैयार नहीं हुआ, क्योंकि शेखर को पता लगा, मूल्य सत्रह होने पर भी नयी पुस्तक बाजार में पचास प्रतिशत कमीशन काटकर साढ़े आठ में मिल रही थी। अतः शेखर उसे लेकर कॉलेज के एक लड़के के पास गया, जो उसका परिचित भी था और चित्रकला में रुचि रखता था; शेखर ने वह पुस्तक किसी तरह उसके मत्थे मढ़कर उससे आठ रुपये ले लिये-यद्यपि शेखर ने स्पष्ट अनुभव किया कि ग्राहक पर जितना दबाव डाला जा सकता है, उससे किसी तरह भी कम वह नहीं डाल रहा है...

किन्तु सदस्य बनकर जब वह पहले ही खेप में फ्रेजर की ‘गोल्डन बो’, काली की ‘मिस्टिक रोज़’ और पालिनोस्की की...तथा ‘मनुस्मृति’ का एक सटीक और विशद आलोचना-युक्त संस्करण ले आया, तब उसके मन का अवसाद उतर गया, और इन पुस्तकों को, जिनका उल्लेख बार-बार पढ़कर उसकी उत्कंठा तीव्र हो चुकी थी, वह मनोयोग-पूर्वक पढ़ने में जुट गया। पढ़ना स्थगित करके जब वह पुस्तक अलमारी में रखता, तब उसे ऐसा जान पड़ता कि ये भी पराई नहीं हैं, उसकी आत्मीयता के घेरे में आ गयी हैं...

एक दिन शेखर ने लिखते-लिखते चौंककर देखा कि कोई उसके द्वार पर खड़ा प्रतीक्षा कर रहा है कि वह मुँह उठाए तो अनुमति लेकर प्रवेश करे। शेखर ने हड़बड़ा कर कहा, “आइए-आइए-” और इधर-उधर फैले हुए काग़ज़ समेटकर चारपाई पर स्थान बनाने लगा।

आगन्तुक ने चेहरे पर बनावटी मुस्कान का जाल फैलाते हुए कहा, “मेरा नाम अमोलक राय है, और मैं यहाँ की हिन्दू सुधार सभा का मन्त्री हूँ।”

शेखर ने कहा, “आज्ञा?”

“मैंने सुना है कि आप समाज-सुधार के कार्य को अपने जीवन का मिशन बनाना चाहते हैं। आप अध्ययनशील भी बहुत हैं, यह तो प्रत्यक्ष ही देख रहा हूँ। असल में साधना ही सुधार की पहली माँग है। मैं-”

शेखर ने विस्मय से पूछा, “आपने यह सब कहाँ सुना?”

“प्रतिभा छिप थोड़े ही सकती है-आप विनय से लाख छिपाएँ-”

यह नहीं हो सकता-कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है। शेखर ने कुछ रुखाई से कहा, “कैसे कृपा हुई?”

“यों ही दर्शन के लिए चला आया। समाज सेवा के काम में इतने कम व्यक्तियों को दिलचस्पी होती है-और आजकल के नौजवान तो आप जानते हैं जैसे हैं-किसी काम-के-काम में उन्हें रुचि नहीं-सेवा के तो नाम से चिढ़ते हैं-आपसे हमें बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं-”

“कहिए, मैं क्या कर सकता हूँ-”

“आप बहुत कुछ कर सकते हैं। आपमें उत्साह है, लगन है, जवानी का बल है। आप कभी हमारी किसी सभा में आकर देखिए, हमारा कार्यक्रम देखकर आप स्वयं जान लेंगे कि आप कितनी मदद कर सकते हैं।”

शेखर ने कुछ रुचि दिखाते हुए कहा, “अवश्य आऊँगा। पर आप कुछ संक्षेप में-”

“हाँ, हाँ। सुधार तो हम बहुत-सी बातों का चाहते हैं, पर यह अनुभव करके कि समाज की बुनियाद परिवार पर खड़ी है, और समाज का सुधार तभी हो सकता है जब पहले परिवार का जीवन सुधारा जाए, हमने उसी को अपना क्षेत्र चुना है।”

“बहुत ठीक-”

“और परिवार की बुनियाद विवाह है, इसलिए हम सबसे पहले विवाह की परिपाटी में सुधार चाहते हैं।”

“यह तो बड़े महत्त्व का काम है। आपका कार्यक्रम क्या है?”

“कोई एक बात हो तो बताऊँ न ? ऐसे काम में बहुमुखी उद्योग करना पड़ता है। नवयुवकों और नवयुवतियों और उनके माता-पिताओं सबका सहयोग आवश्यक होता है; फिर पत्र-पत्रिकाएँ अपना महत्त्व रखती हैं, फिर नेताओं, पंडितों आदि को भी प्रसन्न रखना पड़ता है-”

“क्यों?”

“क्योंकि व्यर्थ का विरोध बढ़ाने से लाभ? अपना काम जितने कम विरोध के साथ सम्पन्न हो सके उतना ही अच्छा, क्यों आपकी क्या राय है?” लाला अमोलक राय कुछ हँसे।

“ठीक है। अच्छा, अवश्य आपकी सभा में आऊँगा। कब है?”

“आइए ही नहीं, आपको बोलना भी अवश्य पड़ेगा-”

शेखर ने कुछ झिझकते हुए कहा, “बोलने का तो मुझे बिलकुल अभ्यास नहीं है, मैं तो बातचीत करके ही अधिक उपयोगी हो सकता हूँ-”

“वाह! यह भी कोई बात है? समाज-सुधार के काम में समाज से भागने से कैसे चलेगा? और फिर कोई बड़ा जलसा थोड़े ही है-इने-गिने आदमी होंगे जिन्हें काम में रुचि है। समझ लीजिए कि वर्करों की मीटिंग है-बाकी हमारा सब काम तो बाहर होता है, मीटिंग में केवल विचार-विनिमय होता है-”

अन्त में तय हुआ कि शेखर मीटिंग में जाएगा और विचारों के आदान-प्रदान में हिस्सा लेने के लिए कुछ कहेगा भी। लाला अमोलक राय चले गये।

यद्यपि शेखर इस मीटिंग में जाएगा और विचारों के आदान-प्रदान में हिस्सा लेने के लिए कुछ कहेगा भी। लाला अमोलक राय चले गये।

यद्यपि शेखर ने इस निमन्त्रण की बात शशि को बड़े शान्त भाव से बतायी, और उसकी सहमति भी शान्त भाव से स्वीकार कर ली, तथापि भीतर-ही-भीतर उसके उत्तेजना बढ़ने लगी-एक ओर नये दायित्व की भावना और काम के लिए मार्ग मिलने का उत्साह, दूसरी ओर पहले-पहल शास्त्रार्थ का संकोच और डर...कॉलेज में और विशेषकर ‘एंटिगोनम क्लब’ में वह काफ़ी उत्साह के साथ अपने मत का पोषण कर लेता था, पर वह बात और थी-वहाँ सब परिचित और साथी थे, और वहाँ स्वयं क्लब के निर्माताओं में वह एक था; यहाँ पर वही एक गैर होगा, निमन्त्रण की औपचारिकता में बँधा हुआ, और अनुभवी समाज-सेवियों में एक अकेला नौसिखिया ‘अमेचर’...फलतः उसने बड़े परिश्रम से तैयारी आरम्भ की-और अपने वक्तव्य के लिए ‘पाइंट’ लिखते-लिखते पूरा एक निबन्ध लिख डाला...उन दिनों वह जो कुछ पढ़ रहा था, उसका और उसके दृष्टान्तों का उसने भरपूर उपयोग किया-कौटुम्बिक प्रणाली के सुधार की बात करते हुए उसने कुटुम्ब की व्युत्पत्ति से आरम्भ करके उसके विकास का निरूपण किया-सिद्ध किया कि आरम्भ में उस विकास और जीवन के अर्थशास्त्र में कोई सम्बन्ध नहीं था और कौटुम्बिक जीवन की प्रागैतिहासिक रूढ़ियों की आर्थिक भित्ति खोजना मूर्खता है; किन्तु क्रमशः रूढ़ियों का विकास जादू-टोने की परिधि से निकलकर आर्थिक नियमों से प्रभावित होने लगा, और फलतः आर्थिक विकास के साथ-साथ उनका भी घोर परिवर्तन होता रहा। ‘मनुस्मृति’ से उद्धरण देकर उसने प्रमाणित किया कि स्मृतिकाल का परिवार-चिन्तन तात्कालिक आर्थिक परिकल्पनाओं से बँधा हुआ था-इसीलिए स्मृतियों की तर्क-परम्परा ही नहीं, उनके रूपक और दृष्टान्त भी एक विशेष अवस्था की कृषि-मूलक सभ्यता के द्योतक हैं। इसीलिए स्त्री के अधिकारों का नियमन करने में बराबर गाय, घोड़ी, ऊँटनी, दासी, महिषी के दृष्टान्त देकर निर्धारणाएँ की गयी हैं-पुरुष को ‘उत्पादक’ मानकर इन सबको और स्त्री को उत्पादन का उपकरण माना गया है-और कृषि की भाँति ही इन सबकी सन्तान को उत्पादक की सम्पत्ति, इन सबके धन को स्वामी का धन! पितृत्व का निर्णय करने के लिए भी श्रेत्री और क्षेत्र और फल का रूपक व्यवहृत हुआ। किन्तु यह कहने में स्मृतियों की अवज्ञा नहीं है-जब तक समाज का नियमन सभ्यता की तात्कालिक अवस्था के साथ विकसित होता रहा, तब तक समाज ठीक रहा और उसके भीतर सड़ाँध नहीं उत्पन्न हुई। किन्तु (शेखर ने प्रतिपादन किया) आधुनिक युग में यह सामंजस्य नष्ट हो गया-हमारे जीवन की परिस्थितियाँ अधिक तेजी से बदलने लगीं, पर समाज का विकास रुक गया। इसका एक कारण निस्सन्देह यह था कि विदेशी शासन-सत्ता ने एक नयी और कृत्रिम स्मृति खड़ी कर दी-समाज की व्यवस्था बनाए रखने के लिए उसने जोड़-बटोरकर जहाँ-तहाँ के प्रचलनों का एक पुंज खड़ा किया और उसको प्रमाण मान लिया...यह भूलकर कि प्रमाण भी सदा विकासशील रहे हैं और रहते हैं; और जिस परिस्थिति में ये प्रमाण इकट्ठे किए गये थे, वह तो अपेक्षाकृत और भी अधिक स्थायी, अनिश्चित और द्रव थी! बहते पानी को एकाएक बाँधकर जमा लिया गया-उस जमी हुई बर्फ़ीली पपड़ी के नीचे नया बीज फूटता और बढ़ता तो कैसे? किन्तु यह बाहरी कारण केवल एक कारण था-दूसरा और हमारे लिए अधिक महत्त्व का कारण अवश्य यह था कि समाज के भीतर ही दुर्बलता और जड़ता थी-उस लचकीलेपन की कमी जो जीवन का अपरिहार्य धर्म है...इन साधारण सैद्धान्तिक स्थापनाओं के बाद शेखर ने पारिवारिक जीवन के मुख्य-मुख्य अंगों का विवेचन करके आधुनिक सभ्य जीवन की परिस्थितियों के साथ उनका सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक परिवर्तनों का उल्लेख किया था।’

ज्यों-ज्यों सभा का दिन निकट आता गया, त्यों-त्यों शेखर की उत्तेजना बढ़ती गयी-‘हमारा समाज’ की समाप्ति के बाद भी वह इतना उतावला नहीं हुआ था जितना इस मीटिंग के लिए हो गया...

एक पथरीले नीले रंग की धूमिल साँझ-चौतल्ले के एक अकेले कोणाकार कमरे की खुली खिड़कियों में से ठंडा और बोझीला और तेज़ाब की तरह चुभेनवाला, साँप के केंचुल-सी मरी और बदरंग चिकनाहट लिए शहर के पौष का धुआँ भीतर धँसा चला आ रहा है। नीचे और आसपास फैले हुए अदृश्य शहर में से प्रेत-सा आकारहीन शोर धुएँ के कफ़न को भेदकर ऊपर उठ रहा है, पर उसकी नीरव चाप मानो कमरे के पथराए हुए सन्नाटे को बढ़ा रही है। शेखर धुएँ से अन्धी, पर जलन के कारण और भी निर्जल आँखों को बलात् खोले हुए खाट के एक कोने में दुबका बैठा है, और घूमिल भाव से अनुभव करता है कि यह बाहर का चित्र उसकी भीतरी अवस्था की अच्छी विडम्बना है...

शेखर को सुधार-सभा की बैठक से लौटे घंटा भर हुआ है। वह अपने को मना लेना चाहता है कि बैठक की बात को वह बिलकुल भूल चुका है, पर जैसे पक्षाघात उत्पन्न करनेवाले विष से पैदा होनेवाली जड़ता ही उसके प्रसार की चेतना उत्पन्न करे, वैसे ही शेखर की स्तब्धता उस मीटिंग के अनुभव की आवृत्ति का रूप ले रही थी...

सभा में सौ से ऊपर व्यक्ति देखकर शेखर ने विस्मय से सोचा था कि क्या सचमुच समाज-सुधार के इतने ‘वर्कर’ शहर में हैं? उसके मन में आशा का नया संचार हुआ था, और कार्यवाही के विषय में जो नया कौतूहल जागा था, उसमें वह अपने वक्तव्य की अकुलाहट भूल गया था। किसी तरह सभा आरम्भ हुई-पहले वक्ता ने अपना विषय घोषित किया ‘ब्राह्मण समाज में विवाह की समस्याएँ’-शेखर एकाग्र होकर सुनने लगा, पर क्रमशः एकाग्रता कम होने लगी, और थोड़ी देर बाद उसका मन बिलकुल उचट गया। वह वक्ता की ओर से मन सर्वथा हटाकर श्रोताओं में से एक-एक की मुद्रा का अध्ययन करने लगा। अनेक बहुत एकाग्र होकर सुन रहे थे-बल्कि उनकी तन्मयता यहाँ तक पहुँची थी कि वे हाथ या सिर हिलाकर,होठ और भावों की भंगिमा बदल-बदलकर न केवल अनुमोदन कर रहे थे, बल्कि वक्ता के अमूर्त्त विचारों को मानो मूर्त्त क्रियाओं में अनुवादित भी करते जा रहे थे। शेखर सहसा अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर सका-क्योंकि वह किसी तरह भी अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रहा था, बल्कि वक्ता पर कुढ़ भी रहा था। धुँधला-सा ज्ञान उसे रहा कि वक्ता ने प्रस्ताव का रूप ले लिया है-कि प्रस्ताव का आशय यह है कि ब्राह्मणों में वर इतने दुर्लभ हो रहे हैं कि कुमारियों के विवाह की भीषण समस्या उपस्थित हो गयी है, अतः उनकी सहायता के लिए और उन माता-पिताओं के निस्तार के लिए सुधार-सभा एक कमेटी बना दे, जो ब्राह्मण-कुमार-विवाह-प्रबन्धक-समिति कहलाए, और जिसका सबसे पहला काम को प्रान्त भर के विवाह-योग्य ब्राह्मण कुमारों की एक सर्वांगपूर्ण सूची तैयार करके प्रकाशित करना, जिससे किसी जरूरतमन्द पिता को अपनी कन्या के लिए उपयुक्त वर का पता मिल जाये और साथ ही अन्य ज्ञातव्य सूचनाएँ भी-आयु, आय, कुल, शील, पिता की आय, पद, रंग-रूप, रुचि-व्यसन, कैसी कन्या पसन्द है, भविष्य के लिए प्लायन इत्यादि...इस प्रकार की तालिका से कितनी सुविधा हो जाएगी, कितनी दौड़-धूप, कितना कष्ट और व्यय बच जाएगा! प्रस्ताव पेश भी हो गया, मत लिए बिना सर्वसम्मति से पास भी हो गया...शेखर ने छुटकारे की एक लम्बी साँस ली और अगले वक्ता की प्रतीक्षा करने लगा, जिसका परिचय देने के लिए लाला अमोलक राय खड़े हुए थे। एकाएक चौंककर उसने जाना कि इतने सब प्रशंसात्मक विशेषणों के साथ जिसे बखाना जा रहा है, वह शेखर ही है! उसका मन और भी डूब गया; पर किसी तरह साहस बटोरकर (उस समय उसके लिए साहस बटोरना मीटिंग के अनुभवों की छाप को बिखेरने का ही पर्याय था!) वह आगे आया और पहले से तैयार की हुई योजना के अनुसार अपनी बात कहने लगा। आरम्भ करते ही अगली कतार में दो-एक व्यक्तियों की कानाफूसी और उसके बाद एक के द्वारा अमोलक राय के कहा हुआ वाक्य, ‘लड़का तो अच्छा मालूम होता है, लालाजी बधाई-’ सुनकर उसे कुछ ढाढ़स भी हुआ और कुछ उलझन भी, पर जिस वीर भाव से नया साधक सब प्रलोभनों को दुतकार कर मन बाँधता है, कुछ उसी भाव से शेखर अपने प्रतिपाद्य से चिपटा रहा...

किन्तु तपोबल से अपनाया हुआ अन्धापन भी दूर होता ही है-उर्वशी और तिलोत्तमा को देखकर नहीं, ऊब से फैले हुए जमुहाए मुख-विवरों को और तिरस्कार से कुंचित भवों को देखकर! एक क्षण ऐसा आया कि शेखर समूची सभा की उपेक्षा की और अनदेखी नहीं कर सका-अपनी बात की गति दूनी तेज करके भी नहीं...तब जैसे उसका मन एक साथ ही दो-तीन स्तरों पर काम करने लगा, और उसकी स्मृति भी मानो पूर्वापर का ज्ञान छोड़कर कई एक बातों या घटनाओं को साथ मिलाने लगी...सभा के बाद अँधेरे होते हुए कमरे में बैठा हुआ प्रत्यवलोकी शेखर किसी तरह भी इस उलझन के तार अलग न कर सका-क्या पहले हुआ, क्या बाद में, वह नहीं निश्चय कर पाया एक साथ ही वह सुनने लगा कि शेखर ‘मनुस्मृति’ के उद्धरण दे रहा है, कोई कह रहा है (या कह रहे हैं?) ‘लड़का राज़ी है, लड़की का बाप राजी है, तो बाबा हमें क्या? शादी करो, छुट्टी करो, हमारी क्यों मिट्टी-पलीद करते हो? पंडितजी आप-तो-आप, यहाँ तो मनु की मिट्टी-पलीद है!’ विलायती पढ़ाई जो न करे सो थोड़ा! आखिर ईसाई लोग पढ़ाएँगे तो हिन्दू-धर्म का आदर रहेगा कैसे-वे हिन्दू धर्म का प्रचार करने थोड़े ही आये हैं? लालाजी ने यह नहीं सोचा होगा! खत्री लड़की ब्राह्मण लड़के से शादी करेगी-ब्राह्मण लड़का मनु की नाक काटेगा! चाल तो लालाजी की खूब थी, पर आखिर ब्राह्मण क्वारियों के भाग्य तगड़े हैं-शेखर मालिनोवस्की का प्रमाण देता है, अमोलक राय का नाम सुनता है या कि अमोलक राय का प्रमाण देता है और मालिनोवस्की की लड़की की बात सुनता है; याकि दोनों याकि कोई नहीं-वह कुछ समझ नहीं पाता; थोड़ा-सा जानता है कि उस सभा में कहीं वह खो गया है, पर असल में मंच पर खड़ा होकर बोल रहा है याकि मंच खो गया है और वह सभा में है, याकि सभा खो गयी है और मंच-तब एकाएक जलता हुआ एक वाण शेखर की चेतना की ढाल को बेध जाता है और वह सब समझ जाता है-अमोलक राय की कन्या विवाह योग्य है, और वे खत्री हैं, पर ब्राह्मण जमाई पाकर प्रसन्न ही होंगे; और समाज-सुधारक ससुर को समाज-सुधारक दामाद मिल जाए तो और क्या चाहिए-सम्बन्ध-का-सम्बन्ध, सुधार-का-सुधार!-और वह खड़ा है इस सब जाननेवाली भरी सभा के आगे घोषित करने को कि देखो, मैं शेखर, उल्लू बनाया जा रहा हूँ और उसके लिए मनु प्रमाण है, मालिनोवस्की प्रमाण है...

धुआँ अच्छा है, तेजाब की चुभन अच्छी है, केंचुल की मरी बदरंग ठंडी चिकनाहट अच्छी है, सबको घुस आने दो इस चौतल्ले की कब्र में-समाज-सुधारक शेखर!

उस खंडित अवस्था में लोंदे-सा शेखर सब कुछ के लिए तैयार था; तैयार नहीं था तो उसी बात के लिए जो हुई-किसी ने दरवाजा खटखटाया और बिना उत्तर की प्रतीक्षा के भीतर चला आया-हड़बड़ाकर उठते हुए शेखर ने देखा कि एक अपरिचित व्यक्ति के साथ सामने खड़े हैं-लाला अमोलक राय!

नैसर्गिक विनय ने कहा था कि बत्ती जला ले, पर विनय शेखर को अपने साथ अन्याय लगा। उसने कहा, “कहिए?”

लाला अमोलक राय ने कुछ आहत स्वर में उत्तर दिया, “आप तो बहुत नाराज़ जान पड़ते हैं?”

“मेरी क्या नाराज़ी-”

“आप थक गये मालूम होते हैं-लाइए, मैं बत्ती-वत्ती जला दूँ-”

शेखर ने जल्दी से बत्ती जलाकर एक ओर रख दी और बोला, “बैठिए!”

लाला बोले, “ये स्वामी हरिहरानन्द हैं। हम लोग आपसे मीटिंग के बारे में बात करने आये हैं-”

शेखर ने देखा कि नवागन्तुक गेरुआधारी हैं, और मुँड़ी हुई चिकनी खोपड़ी के कारण उनके तैलाक्त बाल फूले हुए मालूम होते हैं। अधूरा-सा प्रणाम करते हुए उसने पूछा, “मीटिंग की क्या बात? मीटिंग तो हो चुकी-”

स्वामीजी बोले, “कर्म अपने-आप में पूरा नहीं होता, उसका फल भी होता है। मीटिंग में जो सिलसिला चला था वह...” इसके बाद वे ऐसे रुक गये, जैसे ज्ञान के इस चारे को पगुराना आवश्यक हो।

लाला ने कहा, “आपकी स्पीच से तो मीटिंग में तहलका मच गया। मैं तो आपको बड़ी आशा से ले गया था-”

शेखर ने भभककर कहा, “आशा? मुझे आपने अच्छा बेवकूफ बनाया। यही बात थी तो-”

“क्या बात-कैसी बात-मैं तो बिलकुल शुभेच्छा से आपको ले गया था, लोग तो बकते हैं-”

स्वामीजी ने समर्थन किया, “हाँ, बेटा, लोगों की तो आदत होती है, ईर्ष्या से जलते हैं।”

शेखर ने रुखाई से कहा, “अच्छा जाने दीजिए। अब तो खत्म हुई बात”

“मीटिंग की बात छोड़िए, अब आपसे हमारा परिचय हो गया है तो उसे पुष्ट करना चाहिए-”

“यह आपकी कृपा है। मैं तो जंगली आदमी हूँ, अकेला रहने का आदी हूँ-मुझसे परिचय से क्या लाभ-”

“समाज में रहना तो हर आदमी का कर्तव्य है; बल्कि समाज के बिना कोई जी ही कैसे सकता है-”

“मुझे तो समाज के बीच में जीना ही कठिन मालूम होता है-उतना ही कठिन जितना डिब्बे के ‘वैकुअम’ में! अकेले रहना तो बहुत आसान है-रहे, सो रहते चले गये!”

“माना कि आप असाधारण व्यक्ति हैं। पर असाधारण आदमी भी-”

स्वामीजी ने बात काटकर कहा, “क्यों असाधारण? हर बात में असाधारण की दुहाई देने से नहीं चलता। मैं कहता हूँ, सब आदमी साधारण हैं, और होने चाहिए।”

शेखर ने कहा, “मैंने तो असाधारण होने का कभी दावा नहीं किया; मैं साधारण हूँ और असाधारण ही बना रहना चाहता हूँ-आप ही मुझ पर असाधारणता का जामा लादकर मेरी जान मुसीबत में डाल रहे हैं-”

स्वामीजी ने दुहराया, “सब कोई साधारण हैं। और कोई खास बात किसी में हो भी तो क्या? उसके सहारे जिया नहीं जा सकता। आपकी नाक लम्बी है तो क्या आप पाखाने नहीं जाते? नाक कट भी जाये तो भी आदमी जी सकता है; पाखाने जाये बिना नहीं जी सकता। इसीलिए सब कोई साधारण हैं।”

शेखर को इस आदमी से, उसके तर्क से, और उसके बात को दुहराने के ढंग से विराग हुआ। उसने बहस से बचने के लिए कहा, “आप ठीक कहते हैं।”

“इसीलिए कहता हूँ, समाज ज़रूरी है। आप समाज में जाइए, नाक फिर भी लम्बी रहेगी। (शेखर ने चाहा, स्वामीजी से कहे कि वे अपना वाक्य सुधारकर कहें कि ‘आप पाखाने जाइए, नाक फिर भी लम्बी रहेगी,’ पर चुप रहा)-क्यों, आप सहमत नहीं हैं?”

शेखर कुछ बोला नहीं, वह चाहता था कि बात किसी तरह खत्म हो और ये लोग जाएँ!

“आप उत्तर नहीं देते। मन में सोचते होंगे कि इनको बकने दो। नौजवानी का अहंकार सबमें होता है। मुझमें भी था-उसका नतीजा यह देख लीजिए-”

शेखर ने अबकी बार कुछ दिलचस्पी से हरिहरानन्द की ओर देखा।

“मैं संन्यासी हूँ, गेरुआ पहने हूँ। आप संन्यास का अर्थ जानते हैं। पर मैं संन्यासी इसलिए नहीं हूँ कि मैंने सब छोड़ा है, इसलिए हूँ कि सब कुछ मुझसे छिन गया। और सब अहंकार के कारण। अहंकार ही थाती था; फिर वह भी टूट गया। मैं प्रचार करता फिरता हूँ, पर यह गेरुआ झंडा नहीं हैं, कफ़नी है। मिट्टी के रंग की-जो मिट्टी सब कुछ ढक देती है। सब कोई साधारण होते हैं-”

स्वामीजी की इस स्वीकारोक्ति की स्पष्टता शेखर को छू गयी। उसने कुछ नर्म पड़ कर कहा, “मैं अहंकार के कारण चुप नहीं, चुप इसलिए था कि कुछ कहना नहीं है। मैं अपनी अकिंचनता जानता हूँ। पर अकिंचन हूँ, इसलिए अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारूँ, यह तर्क मेरी समझ में नहीं आता।”

“लालजी आपके शुभचिन्तक हैं। वे जो कहते हैं, ठीक कहते हैं। प्रतिभा का हौवा नहीं बनाना चाहिए, सब कोई साधारण होते हैं और इसलिए विवाह ठीक बात है।”

“मैं कब कहता हूँ कि ठीक नहीं है। पर मुझे अभी नहीं करना है, और किसी के कहने से नहीं करना है। चाहता ही नहीं, चाहता भी तो योग्य नहीं हूँ।”

“क्यों?” लाला ने कुछ आशा से पूछा।

“पचास बातें हैं। पर छोड़िए उन्हें-”

“आखिर कुछ तो बताइए-”

“नहीं, रहने दीजिए। अभी विवाह की बात सोचना आफत मोल लेना है।”

एकाएक हरिहरानन्द ने उत्तेजित स्वर में कहा, “ठीक है, आफत मोल लेना है। तो है हिम्मत-बढ़ो आगे और लो आफत सिर पर-”

शेखर ने एक बार फिर ध्यान से हरिहरानन्द की ओर देखा, फिर बोला, “क्षमा कीजिए, मैं थका हूँ। यह बहस तो समाप्त होगी नहीं, मैं अपने मन की बात आपसे कह चुका हूँ।”

आखिर लालाजी का आसन हिलता देखकर उसने तसल्ली की साँस ली...

शशि से दुबारा मिलने पर शेखर ने मीटिंग की सारी कहानी उसे सुना दी, और मीटिंग के बाद अमोलक राय और हरिहरानन्द से हुई बातचीत भी। शशि पहले चुपचाप सुनती रही, फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी। फिर कुछ गम्भीर होकर उसने पूछा, “बहुत दुःखी हुए थे क्या?”

शेखर ने झिझकते हुए कहा, “उस समय तो काफ़ी क्षोभ हुआ था। अब सोचता हूँ कि तुम्हारी तरह मैं भी क्यों न हँस सका-”

शशि फिर हँसने लगी।

थोड़ी देर बाद शशि ने पूछा, “वे लोग फिर आएँगे?”

“अन्देशा तो है। पर मैंने उनकी बात मन से बिलकुल निकाल दी है।”

“बिलकुल? अच्छा, एक बात पूछूँ, शेखर? उन दोनों की किसी बात में तुम्हें कोई सार मिला?”

“सार? किसी में नहीं-किस बात में-?”

“कि ‘बढ़ो आगे और लो आफ़त सिर पर’-”

शेखर एक क्षण शशि की ओर स्थिर भाव से देखता रहा। फिर बोला, “हाँ, कुछ तर्क था तो मेरे जैसे लोगों के मन के अनुकूल, पर-” एकाएक कुछ चौंककर-”शशि, तुम्हारा अभिप्राय क्या है?”

शशि चुप रही। शेखर ही फिर बोला, “तुम्हें भी इस ब्राह्मण कुमार के भविष्य की चिन्ता है क्या?”

“हाँ कुछ है तो। सचमुच, तुम शादी क्यों नहीं कर लेते-”

“शशि!”

थोड़ी देर सन्नाटा रहा। फिर शशि कहने लगी, “पिताजी मुझसे कहते थे, तुम्हें समझाऊँ। समझाने की तो बात क्या है, पर तुमने जिस तरह अपने को संसार से अलग खींच लिया है, इस तरह आदमी बहुत देर तक काम का रहेगा, इसमें मुझे सन्देह होता है। इससे यथार्थ पर तुम्हारी पकड़ छूट जाएगी-”

“यथार्थ पर मेरी-या मुझ पर यथार्थ की?”

“एक ही बात नहीं है क्या? यों कहो कि यथार्थ का और तुम्हारा सम्बन्ध-सूत्र टूट जाएगा-”

शेखर ने जैसे एकाएक बहुत-सा साहस बटोरकर कहा, “देखो, शशि, हम लोगों ने इस ढंग की बात कभी की नहीं, पर तुम सच-सच बताओ, तुम्हीं ने शादी में क्या पा लिया है?” फिर शशि के मुँह पर वेदना की हल्की-सी रेखा देखकर-”मैं तुम्हें कष्ट नहीं देना चाहता, पर-”

शशि ने सुस्थ होकर कहा, “नहीं मैं समझती हूँ। पर मेरी बात उदाहरण नहीं बन सकती-मेरे ब्याह की तो बुनियाद ही और है। मैंने ब्याह किया नहीं था, मेरा तो ब्याह हुआ था। ब्याह करके कुछ पाने का प्रश्न मेरे आगे नहीं था; पाना तो”-वाक्य अधूरा ही रह गया।

थोड़ी देर बाद शेखर ने कहा, “पर फिर मेरे लिए परिस्थिति भिन्न कैसे हुई-मेरे लिए भी तो...या क्लेश पाना ही अगर पाना हो तब तो-”

“नहीं, वह मैं नहीं कहती। तुम्हें एक साथी खोजना चाहिए, जो बराबर साथ चल सके, साथ क्लेश भोग सके और साथ सुख पा सके-क्लेश या सुख बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात साथ की है-साझा करने की क्षमता की!”

“शादी करने से यह सब मिल ही जाएगा, इसका क्या प्रमाण है? और विशेषकर ब्राह्मणकुमार बनकर-”

“प्रमाण नहीं है, यह मैं जानती हूँ। और मैं नहीं कहती कि वैसे ढंग से शादी करो। मैं इतना ही कहती हूँ कि अगर ठीक साथी तुम्हें मिल सके तो-”

शेखर ने संक्षेप से कहा, “तो छोड़ो इस बात को-अगर वैसा कोई मिलेगा तो देखी जाएगी। यह स्पष्ट है कि ढूँढ़ने से वह नहीं मिलेगा-मिलेगी; राह चलते ही मिल जाएगी तो मिल जाएगी, तब आँचल पसार लूँगा, बस?”

एकाएक उसने देखा कि शशि का ध्यान उसकी बात की ओर होकर भी नहीं है, उसकी बड़ी-बड़ी आँखें किसी बड़ी दूर के पथ पर कोई दृश्य देखती हुई और भी बड़ी हो गयी हैं, मानो उस दूर दृश्य के अर्थ का अभिनन्दन करने को उसकी आत्मा द्वारा खोले बैठी है...शेखर ने भी कुछ खोए-से पर साथ ही कुछ कौतुक भरे स्वर में कहा, “और जब राह चलते मोती मुझे मिलेगा, तब मैं कोई प्रश्न नहीं पूछूँगा, संशय नहीं करूँगा, शर्तें नहीं बाँधूँगा। जो देवता देते हैं...”

शशि बिलकुल नहीं सुन रही थी। शेखर ने जान-बूझकर उसे चौंकाने के लिए कहा, “जो देवता देते हैं, उसके लिए शास्त्रों की भी साक्षी क्यों माँगी जाए?”

शशि ने सहसा जागकर कहा, “क्या?”

उनकी आँखें मिलीं और जैसे जकड़ी गयीं। शेखर ने बलात् कल्पना कहकर उसे निकाल देना चाहा, पर फिर भी वह देखता रहा कि उन खुले कपाटों के पीछे आलोक है, उस आलोक के भीतर गहरी वेदना है, उस वेदना के भीतर और गहरा आहत आलोक-

और इस इतने अपलक काल तक उसके भीतर किसी गुम्फ में प्रतिध्वनि गूँजती रही, ‘साक्षी क्यों माँगी जाए...साक्षी क्यों माँगी जाए...साक्षी क्यों माँगी जाए...’

एक विचित्र शान्ति उसके मन पर छा गयी और वह लगन से पढ़ने और लिखने लगा। सुधार-सभा वाले लेख का परिष्कार; दो नये निबन्ध, दो कहानियाँ-इतना सब काम समाप्त करके जब उसने साँस ली, तब सभावाली घटना को लगभग दो सप्ताह हो गये थे; और शशि को आये भी उस दिन-इन दस दिनों में शेखर ने होटलवाले लड़के के सिवा किसी को नहीं देखा था; केवल एक दिन नीचे तीन तल्लेवालों के दो बच्चे न जाने किस बाल-सुलभ विश्वास के साथ उसके पास चले आये थे, “आपको पतंग बनानी आती है?” शेखर के स्वीकार करने पर वे कह गये थे, “अच्छा, हमको पैसे मिलेंगे तो हम काग़ज़ ले आएँगे-हमें पतंग बना दीजिएगा, ज़रूर!” शेखर ने हँसकर वचन दे दिया था, और साथ ही यह भी पता लगा लिया था कि किसको कितने पैसे मिलेंगे; कितने डोर और चरखी में खर्च हो जाएँगे और कितने मंझा तैयार करने में-फलतः अगर काग़ज़ लेकर स्वयं पतंग न बनाई जाएगी तो केवल एक पतंग आ सकेगी और वसन्त पंचमी के दिन एक-एक पतंग से क्या होगा?

वसन्त-पंचमी...क्यों न शेखर स्वयं उन बच्चों के लिए सब सामान ला दे और उनके पैसे और परिश्रम बचा दे? वसन्त-पंचमी...पर कैसे कहाँ हैं? और होटल का बिल और घरभाड़ा...

शेखर ने निश्चय किया कि जो कुछ लिखा है, सब पत्रिकाओं को भेज देगा और सब से पारिश्रमिक माँगेगा-कोई तो कुछ देगा ही...पर सब रचनाएँ लौट आयीं। सबके साथ प्रशंसात्मक पत्र थे। शेखर यह विरोधाभास पहले नहीं समझ सका, पर अन्त में एक सम्पादकीय पत्र के अस्पष्ट संकेत से जान गया कि जो मुफ्त अच्छा है वह पारिश्रमिक का भी अधिकार ही है, ऐसा नहीं है...उसने दुबारा उद्योग करने की ठानी, पर डाक-महसूल का भी जुआ खेलने की उसकी सामर्थ्य नहीं थी। एक बार उसने सोचा कि पुराने ही लिफाफे का पता काटकर फिर भेज दे, पर नये पत्र के सामने पहले से ही यह स्वीकार कर लेना कि रचना और कहीं से लौटकर आयी हैं, कुछ बुद्धिमानी नहीं जँची...अन्त में उसने रचनाएँ स्वयं लेकर स्थानीय सम्पादकों के द्वार खटखटाने की ठानी।

‘हमारा समाज’ वाले ही चक्कर की आवृत्ति फिर हुई, अबकी बार कुछ और करुण रूप में, और कुछ अधिक निष्परिणाम...केवल एक साप्ताहिक के सम्पादक ने उससे वसन्त-पंचमी के विषय पर कहानी या कविता माँगी, क्योंकि पत्र का विशेषांक निकलनेवाला था। शेखर ने अपना पुराना निश्चय याद किया कि फरमाइशी साहित्य वह कभी नहीं रचेगा; पर फिर सोचा कि जो फरमाइशी है, उसे साहित्य कहने की कोई बाध्यता नहीं है और जो साहित्य है, उसे तराजूबाट से ऊपर रखने के लिए आवश्यक भी है कि रोटी कमाने का साधन दूसरा हो...उसने कहानी लिखना स्वीकार कर लिया और पारिश्रमिक के बारे में इतना आश्वासन पर्याप्त समझा कि ‘रचना पर विचार किया जाएगा, जो कुछ पत्रंपुष्पं-’

किन्तु वैसी रचना आसान नहीं थी। घंटों अपने साथ युद्ध करके भी शेखर वसन्त पंचमी पर कहानी नहीं लिख सका; और बार-बार उसका परास्त और कुंठित मन तीन-तल्लेवाले बच्चों और उनकी पतंग की माँग की ओर जाने लगा...वसन्तोत्सव... पतंगोत्सव...वह कल्पना में देखता, वह पतंग और डोर और चरखी और मंझा सब ले आया है, और बच्चे किलकारियाँ मारते हुए छत पर कूद रहे हैं; और शेखर उन्हें सिखा रहा है कि पतंग कैसे उड़ाएँ-वह जानता हो, यह नहीं है, पर उन बच्चों के सामने वह ‘जानकार’ जो है...और फिर उसकी कल्पना की पतंग कट जाती, और यथार्थ की सूनी चरखी घुमाता हुआ वह सोचता कि वसन्त-पंचमी की कहानी और होटल का बिल...एकाएक उसे ध्यान आया, क्यों न यही बात वह कहानी के रूप में लिख दे? यह विचार उसे ओछा लगा; कुछ उन बच्चों के साथ विश्वासघात भी लगा, पर हिन्दी में नित्यप्रति ऐसी चीज़ें छपती हैं, और अगर वह उसे साहित्य मान लेने की भूल नहीं करता, तो क्या हर्ज है? फरमाइशी काम है अनासक्त भाव से श्रमिक की तरह वह पसीने की रोटी कमाता है तो क्या बुरा है...इस तर्क से उसकी तसल्ली नहीं हुई, फिर भी उसने कहानी लिख डाली-नाम रख दिया ‘पतंग-पंचमी’।

सम्पादक ने एक बार शीर्षक और एक बार शेखर का चेहरा देखकर कहा, “आप बड़े उत्साही युवक हैं-”

शेखर ने संक्षेप से कहा, “जी।”

सम्पादक ने रचना एक ओर रख दी, फिर शेखर की ओर यों देखा, मानो उपयोगिता समाप्त हो जाने के बाद किसी वस्तु का जहाँ-तहाँ पड़े रहना उनकी व्यवस्था-बुद्धि को पसन्द नहीं है।

शेखर ने जान-बूझकर रूखे स्वर में कहा, “और मेरा पारिश्रमिक?”

सम्पादक ने अत्यन्त विस्मय जताते हुए कहा, “ओ-हाँ। पर पारिश्रमिक तो हमारे यहाँ त्रैमासिक हिसाब के समय दिया जाता है-और अभी तो निर्णय-”

शेखर ने क्रोध दबाते हुए कहा, “निर्णय अभी कर लीजिए न?”

सम्पादक ने शान्त और चिकने स्वर में कहा, “साहित्य तो बड़ी साधना चाहता है-”

एकाएक शेखर को लगा कि शिष्टाचार व्यर्थ है यानी फलप्रद नहीं हैं; और जो श्रमिक है, उसके लिए फल अनिवार्य है। बोला, “चाहता होगा जो साहित्य होगा। पर आप ऐसी चीज़ को साहित्य समझने की भूल करते भी हों तो मैं नहीं करता। जब साहित्य लिखूँगा तब साधना भी कर लूँगा, अभी तो अपना आप बेचता हूँ, नकद दाम चाहता हूँ।”

सम्पादक ने ध्यान से और नये विस्मय से शेखर को सिर से पैर तक देखा, फिर कहा, “देखिए, नियम तो मैंने आपको बता दिया, पर आपने मेरे अनुरोध से ही यह कहानी लिखी थी, इसलिए इसके प्रकाशित होते ही पारिश्रमिक की व्यवस्था करूँगा।” फिर खीसें काढ़कर “पर आप जानते हैं, हमारी परिस्थिति...केवल पत्रंपुष्पं”

शेखर ने अनमने-से स्वर से कहा, “धन्यवाद!” और लौट चला...

एक और चक्कर में जब वह युगान्तर साहित्य मन्दिर की ओर जा निकला तो उसने सोचा, ‘हमारा समाज’ का भी हाल पूछता चलूँ। संचालक महोदय स्वयं उपस्थित थे, शेखर को देखकर बोले, “आप अच्छे आये-मैं सोच रहा था कि किसी को आपके यहाँ भेजूँ-”

“क्यों, कुछ विशेष बात है-”

“नहीं, यों ही”-अर्ध-निमीलित नेत्रों से वे कुछ देर शेखर को देखते रहे, फिर बोले, “बात यह है कि-असल में-मैंने वह पुस्तक दो-एक विशेषज्ञों को दिखायी है, उनकी राय है कि उसमें कुछ संशोधन आवश्यक है-”

शेखर ने विनीत भाव से कहा-”हो सकता है। मैं केवल अध्येता हूँ, विशेषज्ञ नहीं हूँ। क्या-क्या संशोधन उन्होंने सुझाए-”

“देखिए, यह तो मैं जवानी नहीं बता सकता, पर यह समझ लीजिए कि परिणाम वाले परिच्छेद उनकी राय में ठीक नहीं है और बदले जाने चाहिए-”

“यह तो आमूल परिवर्तन हो गया। इतना बड़ा परिवर्तन तो लेखक-”

“मेरा तो विचार है कि आप सब परिवर्तन करके उनकी अनुमति से उनका नाम भी दे दें तो अच्छा हो; उनके सम्पादकत्व में किताब छपेगी तो बिक्री भी निश्चित है और-”

“वे सज्जन हैं कौन?”

प्रश्न का उत्तर न देते हुए संचालक फिर बोले, “अन्तिम परिच्छेद बदलने में समय नहीं लगेगा-”

“किन्तु तथ्यों से जो परिणाम निकलते हैं, उन्हें बदला कैसे जाए? परिणाम तो-”

“परिणाम तो अपना-अपना मत है। एक ही तथ्य से पाँच परिणाम निकल सकते हैं, सब दृष्टिकोण की बात है। और जब परिणाम बदल जाएँगे तो तथ्य-”

शेखर ने आग्रह से कहा, “तथ्य से परिणाम निकलते हैं कि परिणाम से तथ्य? जो तथ्य हैं, उनकी अनदेखी तो नहीं हो सकती-”

“तथ्य आखिर क्या है। जो कुछ है सब तथ्य है। जो नहीं है, वह भी तथ्य है-उसका न होना तथ्य है? आदमी अपनी रुचि के अनुसार तथ्य चुनता है, फिर उन तथ्यों से परिणाम निकालता है, अतः परिणाम भी रुचि द्वारा नियमित हुए न?”

“अच्छा, ऐसे ही सही। तब फिर मैंने अपनी रुचि के तथ्य और परिणाम पुस्तक में रख दिए, संशोधन का प्रश्न ही कहाँ रहा? पर मैं तो यही कहता हूँ कि तथ्य तथ्य है, और मेरी समझ में जो परिणाम मैंने निकाले हैं, वे अनिवार्य हैं।”

संचालक ने कुछ दृढ़ता के साथ कहा, “यह तो आपका हठ है। रुचि अपनी होती है, पर रुचि का परिष्कार भी तो हो सकता है। और समाज की आलोचना बड़े दायित्व का मामला है-हम तो विशेषज्ञों की राय अवश्य लेते हैं। आपके लिए तो बड़ा अच्छा अवसर है-पुस्तक के साथ योग्य सम्पादक का नाम होगा तो बिक्री भी होगी और भविष्य के लिए मार्ग खुल जाएगा-आपको तो कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने इतने परिश्रम से परिवर्तन कर दिया है-”

शेखर ने चौंककर कहा, “कर दिया है? पर आपको पहले मुझसे पूछना तो चाहिए था? आखिर वे विशेषज्ञ हैं कौन?”

“बड़े अनुभवी विद्वान हैं और समाज-सेवा तो उनके जीवन का व्रत है-”

“आखिर नाम तो बताइए-”

“लाला अमोलक राय-”

शेखर ने रुक-रुककर प्रत्येक शब्द पर जोर देते हुए कहा, “मेरी पुस्तक ज्यों की त्यों छपेगी-अपने तर्क और मत के लिए मैं उत्तरदायी हूँ।”

“पर हम तो विद्वानों की राय के विरुद्ध-आप जानते हैं, प्रकाशक के उत्तरदायित्व का मामला है-हम तो आपके हित-”

शेखर ने पूछा “क्या आप यह कहना चाहते हैं कि बिना परिवर्तन के आप पुस्तक नहीं छापेंगे?”

“देखिए-हमारी असमर्थता-यह आवेश में आने का मामला नहीं है-”

“तो आप मेरी हस्तलिपि लौटा दीजिए-”

“आप सोचकर देखिए-”

शेखर ने दृढ़ता से कहा, “मेरी हस्तलिपि आप तुरन्त लौटा दीजिए-”

“आप तो मानते नहीं। मुझे बड़ा खेद हो रहा है-”

शेखर ने फिर कहा “हस्तलिपि मुझे देने की कृपा कीजिए तो मैं जाऊँ-”

संचालक ने आवाज दी, “चपरासी!” एक सुस्त-सी मूर्ति सामने आकर खड़ी हो गयी।

“जाना लाला अमोलक राय के यहाँ से काग़ज़ ले आना-उन्हें कहना कि ‘हमारा समाज’ के काग़ज़ दे दें-नाम याद रहेगा न ‘हमारा समाज’?”

“जी। ‘हमारा समाज’।”

“हाँ।”

शेखर ने पूछा, “कितनी देर लगेगी?”

“घंटे डेढ़ घंटे में आ जाएगा-”

शेखर वहाँ ठहरना नहीं चाहता था। बोला, “अच्छा, मैं दो घंटे बाद

आऊँगा -” और उठकर चल दिया।

ऐसा आन्दोलित मन लेकर वह घर नहीं लौटना चाहता था, और बाहर उसे कोई और काम था नहीं; शेखर निरुद्देश्य सड़कों और गलियों में चक्कर काटने लगा। केवल एक बार एक दुकान के बाहर कई एक चरखियाँ टँगी हुई देखकर वह थोड़ी देर रुक गया और चरखियों को तथा दुकान के भीतर के अन्धकार में धुँधली-सी दीखती हुई दो एक हंडियों और कोने में पतंगों के ढेर की आकृति का अध्ययन करता रहा; फिर आगे चल पड़ा। और एक जगह फलों की एक और दुकान देखकर उसे याद आया, जेल में उसने खाद्यतत्व पर एक पुस्तक पढ़ी थी और सोचा था कि वह फलाहारी हो जाएगा। कुछ आगे बढ़कर उसने दुकानदार से कन्धारी अनारों का भाव पूछा, सुना कि सवा रुपये सेर है, और एक अनार लगभग चौदह आने का होगा। उसके बाद वह और कही नहीं ठहरा, साढ़े चार बजे के लगभग वह फिर ‘युगान्तर साहित्य मन्दिर’ पहुँचा; और वहाँ से अपनी हस्तलिपि लेकर, बिना एक शब्द बोले संचालक को संक्षिप्त नमस्कार करके घर चल पड़ा...दिन बहुत छोटे हो गये थे, कुछ बदली-सी भी थी, और साढ़े चार बजे ही ऐसा लगने लगा था कि दिन ढल रहा है...

घर पहुँचकर शेखर ने हस्तलिपि नीचे पटक दी और चारपाई पर लेट गया। फिर एकाएक उठा और हस्तालिपि उठाकर पन्ने उलटने लगा...उत्तरांश के कई पन्ने निकाल दिए गये थे और उसकी जगह नये पन्ने थे, किसी और हाथ के लिखे हुए-अक्षरों से स्पष्ट था कि हाथ कच्चा है, और शायद लड़की का है...शेखर ने झटककर उन पन्नों को अलग किया और दो टुकड़े करके फेंक दिया। फिर उसने देखा, कई पन्नों पर उसके लिखे हुए अंश काट दिए गये हैं और हाशिये में नया कुछ लिखा हुआ है। इन पन्नों को भी उसने झटककर अलग किया-पुस्तक की मूल असंशोधित लिपि तो उसके पास थी ही!-और उसी तरह दो टुकड़े करके एक ओर डाल दिया। फिर शेषांश को दो-एक बार उलट-पलटकर देखा, फिर कर खिन्न ‘हूँ;’ के साथ उसे भी नीचे डाल दिया और पैर से पन्ना-पन्ना इधर-उधर बिखेर दिया।

एक बार उसने चारों ओर देखा, फिर चारपाई पर औंधे लेटकर तकिये में मुँह छिपा लिया।

तकिये के भीतर रुई का गुदगुदा अन्धकार-स्वागत, अन्धकर। तुम सूक्ष्म और अमूर्त नहीं हो, तुम्हारा आकार है, भार है, घनत्व है, तो और भी स्वागत! ...शेखर को लगा, किसी तरह उसी अन्धकार में वह भी पिघलकर मिल जाए-तो-तो...

एक अन्धी-सी धुन्ध में वह उठा और धीरे-धीरे नीचे उतरकर फिर सड़क पर आ गया। क्रमशः ठिठुरते और संकुचित होते हुए दिन का फीकापन उसके भीतर जम गया, पर उसके बिना भी शेखर के अन्दर पर्याप्त अन्धकार था...अन्धकार और एकान्त-निर्लिप्त शून्य-विविक्त, अनासक्त, अन्धकार...किसी चीज़ में कोई अर्थ नहीं है; सब कुछ एक परिणाम है, जिसका आधारभूत तथ्य खो गया है...कारण से कार्य है, पर उद्देश्य न कारण का है, न कार्य का, अनुद्देश्य ही सत्य है...अनुद्देश्य, शान्ति, भटकन...

वह क्या कर रहा है-कहाँ जा रहा है-पर कर रहा है और जा रहा है तो क्या हुआ? आगे और धुन्ध अभी बाकी है, और जमता हुआ अँधेरा आँखों में चुभता है तो आँखों को देखने से मतलब क्या है...जंगल में जब लोग खो जाते हैं तो अपने आप उनके पैर चक्कर काटने लगते हैं, चक्कर काटते ही वे मर जाते हैं। उसे कहीं जाना नहीं है, चक्कर काटना नहीं है। बर्फ से अन्धे हुए-हुए पहाड़ी बकरे की तरह वह सिर झुकाए लड़खड़ाता चला जा रहा है, चला जा रहा है। वह जानने लगा है कि उसकी इस उद्देश्यहीनता में छिपा हुआ उद्देश्य है; कि वह उद्देश्य पुनः उद्देश्यहीनता है, बुझ जाने की माँग है...

पीछे मोटर का हार्न बजता है, वह अनसुनी करता है, मोटर पास से निकल जाती है। हॉर्न फिर बजता है, शेखर फिर उपेक्षा करता है, वैसा ही बीच सड़क चलता जाता है। हॉर्न फिर बजता है, जोर से बजता है, घृष्टता से बजता है, ललकार से बजता है, धमकी से बजता है-

अनुद्देश्य; अनुद्देश्य वह चला जा रहा है बीच सड़क-

एकाएक दो हाथों ने उसकी बाँह पकड़कर ज़ोर से उसे खींच लिया; ब्रेकों की चीख को डुबाती हुई एक चीख निकली, “बाबूजी!” शेखर ने आँख उठाई-एक स्त्री थी। जवान नहीं थी सुन्दर नहीं था। मोटर शेखर को छूकर सर्राती हुई निकल गयी, ब्रेक दबने से जो लड़खड़ाहट उसमें आयी थी, वह सध गयी और पालिश की झकझक की कौंध में खो गयी।

शेखर ने अत्यन्त चिड़चिड़े स्वर में कहा, “क्यों, तुम्हें क्या?”

किसी को क्या-वह मरे, जिये, मोटर के नीचे आये, नदी में डूबे, आग में पड़े, किसी को क्यों कुछ मतलब?

स्त्री ने आहत विस्मय में कहा, “बाबूजी, मैंने तो-” और चुप रह गयी।

शेखर की आँखें उसकी आँखों से मिलीं। नहीं, वह जवान नहीं थी। वह सुन्दर नहीं थी। पर उसकी आँखों में वह आग्रह, वह वत्सल डर...

शेखर ने सहानुभूतिहीन स्वर में कहा, “बहिन, मुझे माफ़ करो-” और जल्दी से मुड़कर घर की ओर चल पड़ा। किन्तु उसके पैरों की चाप आगे अब भी अर्थहीन ललकार से दुहराती जाती थी, “किसी को क्या, किसी को क्या”...

सीढ़ियाँ चढ़कर कमरे की देहरी पर पैर रखते-रखते शेखर एकाएक ठिठक गया। कमरा ज्यों का त्यों था, पर बत्ती जल रही थी और चारपाई के कोने में सिमटकर बैठी हुई शशि एकटक उसकी ओर देख रही थी।

जाने कितनी देर तक कोई नहीं बोला, न हिला। फिर शशि ने कहा, “कहाँ थे, शेखर? मैं कब से बैठी राह देख रही हूँ...और यह सब क्या है?” और फिर एकाएक लपककर शेखर के पास आकर उसके दोनों कन्धे पकड़कर घबराए हुए स्वर में कहा-”शेखर! शेखर! क्या हुआ-”

शेखर ने शशि की दोनों कलाइयाँ पकड़ लीं और मृदुल दबाव से उसे पीछे धकेलता हुआ चारपाई तक ले गया; उसी मृदुल दबाव से उसने शशि को चारपाई पर बिठा दिया। फिर धीरे से अपने कन्धे छुड़ाकर बिखरे हुए कागजों को रौंदता हुआ कमरे के पार जाकर स्वयं खड़ा हो गया, और क्षण भर बाद कागजों के बीच में भूमि पर बैठ गया।

“कुछ नहीं, शशि; होना क्या था-”

शशि फिर उठकर शेखर के पास आ खड़ी हुई।

“बताओ शेखर! यह सब क्या करने गये थे। और-और क्या करके आये हो?”

शेखर चुप रहा। सामने खड़ी शशि के पैरों पर उसकी दृष्टि गड़ी रही।

“कहों, शेखर! तुम नहीं जानते कि अभी राह देखते-देखते मैं-”

वाक्य अधूरा छोड़कर शशि चुप हो गयी। न जाने कितनी देर तक दोनों चुप और निश्चल रहे; फिर काग़ज़ों में कहीं एक ‘टप्’ सुनकर शेखर चौंककर उठ खड़ा हुआ, किन्तु शशि की पीठ लैम्प की ओर थी, उसका मुख अँधेरे में था...शेखर ने एकाग्र दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए कन्धे से पकड़कर शशि को घुमाना चाहा, पर उसके स्पर्श करते ही शशि का शरीर कठोर पड़ गया और वह हिली नहीं...शेखर ने एकाएक उसका कन्धा छोड़ दिया; चारपाई के पास जाकर धप् से बैठा और फिर लेट गया; उसके बुझते मन ने जाना कि आगे कुछ गति नहीं है-उसकी आँखें अपलक छत को देखने लगीं-अनुद्देश्य, अनुद्देश्य, जड़ अनुद्देश्य-

शशि अपने आप आकर उसके सिरहाने खड़ी हो गयी। एक अनिश्चित स्वर में उसने पुकारा, “शेखर?” और उसके ऊपर को तनिक-सा झुकी-ट्प से एक बूँद शेखर के माथे पर गिरी-

एकाएक शेखर ने हाथ बढ़ाकर उसे धीरे-धीरे नीचे झुका लिया, उसकी छाती में मुँह छिपाकर फूटकर रो पड़ा...उसका पिंजर बेतरह हिलने लगा, उसकी मुट्ठियाँ शशि के कन्धों पर जकड़ गयीं। शशि एक शब्द भी बोले बिना वैसे ही उस पर झुकी रही, जैसे पहाड़ी सोते के ऊपर छायादार सप्तपर्ण का वृक्ष...

सप्तपर्ण की छाँह में से समीर काँपता हुआ जाता है, एक प्रच्छन्न शिथिलता अंगों में भर जाती है, छाँह के अमूर्त स्पर्श तले सब कुछ क्रमशः शान्त होता जाता है। एक रेशमी स्पर्श शेखर के बालों को सहलाता हुआ पूछता है, “अब बताओेगे?”

नहीं, जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है, तो चुप रहने में, छिपाने में भी कोई उद्देश्य नहीं है, बात अगर नहीं छूती तो उसकी रागात्मक प्रतिक्रिया भी नहीं छू सकती...शेखर ने कहा, “गया था तब नहीं जानता था, पर चलते-चलते जान पड़ा कि आत्महत्या का उपाय खोज रहा हूँ।”

एक हल्की-सी सिहरन सप्तपर्ण को कँपा गयी!

“क्यों, शेखर?”

“यों ही; समझ में आया कि मरने के लिए कारण ढूँढ़ना आवश्यक नहीं है, प्रमाण तो जीने के लिए चाहिए। जिसके जीने का स्पष्ट उद्देश्य नहीं है, उसका मर जाना तो स्वतः सम्मत है।”

चिन्तित और बहुमुख प्रतिवाद का स्वर-”शेखर!”

“पाने के लिए न जियो, देने के लिए जियो। माना! पर क्या दो? निरुद्देश्य, कारणहीन, अर्थहीन आत्मपीड़ा? क्यों दो, किसके लिए दो? अगर साध्य एक है जनमात्र का सुख, तो देय भी एक है सुख-नहीं तो कुछ नहीं है, सब धोखा है। और मैं देखता हूँ कि अपने होश के अठारह-बीस सालों में मैंने-” एक कँपाती हुई सिसकी, फिर उसकी शिथिल देह को हिला गयी।

“मैंने किसी को सुख नहीं दिया; एक अहंकार के लिय जिया हूँ और सबको क्लेश देता आया हूँ-”

“तुम जानते हो, शेखर?”

“नहीं जानता, यही जानना है। जिनसे स्नेह किया है, उन्हें भी सुख नहीं दिया। पूछा नहीं, पर क्या स्नेह इतनी भी बुद्धि नहीं देता कि कोई जान ले, जिसे स्नेह देता है, उसे सुख भी देता है कि नहीं?”

शशि ने धीरे-धीरे उठते हुए कहा, “शायद नहीं देता। नहीं तो तुम देखते-” वह धीरे-धीरे चलकर खिड़की के पास गयी, क्षण भर चौखटे पर हाथ रखकर बाहर देखती रही-एकाएक बूँदें पड़ने लगीं थीं, जो खिड़की के चौखटे में घिरे हुए फीके आलोक में आकर पल भर चमक जाती थीं-एक शून्य में से आकर दूसरे में लीन...फिर उसने वहीं खड़े-खड़े घूमकर कहा, “और शेखर, क्या स्नेह ही देय नहीं है-सुख से बढ़कर देय?”

“है, बहुत बड़ा देय है-पर इसीलिए कि वह इतना बड़ा सुख है। अगर स्नेह सुख नहीं देता, जलाता-ही-जलाता है, तो उसका भी दग्ध होना ही अच्छा-”

शशि जल्दी से फिर अपने स्थान पर लौट आयी; शेखर के सिरहाने चारपाई के कोने पर बैठती हुई डपटकर बोली, “चुप रहो, शेखर तुम्हें कुछ पता नहीं है कि तुम क्या कहे जा रहे हो।”

शेखर चुप हो गया, और वहीं लेटे-लेटे आँखें ऊपर उठाकर शशि की ओर देखने लगा। शशि किसी ओर नहीं देख रही थी, ठीक सामने ही उसकी दृष्टि गड़ी थी, पर उसने अवश्य जाना कि इस ऊपर देखने के प्रयास से शेखर के माथे पर त्योरियाँ पड़ गयी हैं, क्योंकि एक हाथ से वह उन्हें सहलाने लगी, जैसे कोई रेशमी कपड़े में से सलवटें निकाल रहा हो। जब यह उद्योग सफल नहीं हुआ, तो उसकी उँगलियों ने बढ़कर शेखर की पलकों को बलात् बन्द कर दिया-फिर वे वही टिकी रहीं, आँखों पर से हटीं नहीं।

शेखर ने बहुत धीमे स्वर में कहा, “सुनो, शशि।”

शशि फिर उसके ऊपर किंचित् झुक गयी।

“शशि, तुम क्या हो, कुछ समझ में नहीं आता-”

स्थिर स्वर से, “क्यों, शेखर?”

“कब से तुम्हें बहिन कहता आया हूँ, पर बहिन जितनी पास होती है, उतनी पास तुम नहीं हो, इसलिए वह जितनी दूर होती है-उतनी-दूर भी तुम नहीं हो।” एकाएक उसने शशि की उँगलियों को दोनों हाथों से अपनी आँखों पर ज़ोर से दाब लिया, मानो आँखें खुलने से कुछ अनर्थ हो जाएगा...

शशि की काँपती हुई आवाज़ में शेखर जैसे बाहर की वर्षा की अनवरत मार सुन रहा था-”क्या अभिप्राय है तुम्हारा, शेखर?”

शेखर ने फिर दोनों हाथ उठाए, कनपटी के पास से शशि का सिर हल्के से पकड़ा और उसे अपने ऊपर झुका लिया, फिर बोला, “अभिप्राय मैं नहीं जानता, तुम्हें जानता हूँ, और जानता हूँ कि जितने स्वप्न मैंने देखे हैं, सब तुममें आकर घुल जाते हैं-”

शशि के झुकने में न अनुकूलता थी न प्रतिरोध; वह झुकी हुई थी पर स्तब्ध, निःशब्द थी...

वह स्तब्धता जैसे शेखर के प्राणों में भी समा गयी; उसे लगा कि सब कुछ ज्यों का त्यों स्तिमित हो गया है; क्योंकि आगे और कुछ होने को नहीं है, सब कुछ वहाँ पहुँच गया है जहाँ कैवल्य है, क्योंकि निर्वाण है...यद्यपि, दूर कहीं, बादल की गर्जन थी और बूँदों का फूत्कार, और कौंध का वह प्रकाश, जो स्वयं भी कुछ नहीं दिखाता और बाद के अन्धकार को भी घना कर जाता है।

और शेखर के ऊपर थी सप्तपर्ण के तरुण गाछ की छाँह, जिसे दूर की कोई बहती साँस कँपा जाती थी; दूर दक्षिणी किसी समीर की साँस, क्योंकि उसमें स्निग्ध गर्माई थी, और जब-जब एक सोंधापन शेखर के नासा-पुटों को भर देता था-वह सोंधापन, जो मलय के प्राणद पहले स्पर्श में होता है...

सप्तपर्णी, मैं कुछ नहीं जानता, कुछ नहीं मानता। यह मिट्टी शायद अनुर्वर ही है, पर तुम्हारी छाँह में यह साँस उसे छूती हुई चली जाती है, तो उसे और कुछ नहीं चाहिए, वह जीती है...

एक सीमा होती है, जिससे आगे मौन स्वयं अपना उत्तर है, और सब जिज्ञासाएँ उसमें लीन हैं, क्योंकि वह परम अ-प्रश्न है...न जाने कब और कैसे शेखर की बाहरी शिथिलता उसके भीतर समा गयी और वह सो गया-थोड़ी-थोड़ी देर बाद बिजली की कड़कन से कुछ चौंककर वह जागा, पर वह जागरण एक तन्द्रिल व्यामोह से आगे नहीं बढ़ा, और ऊपर छाए हुए सप्तपर्णी के सोंधे प्रच्छन्न आश्वान में फिर लवलीन हो गया...केवल एक बार जैसे उस द्रवित अवस्था में जीवन के ठोस ज्ञान ने व्याघात डालना चाहा, शेखर ने चौंककर कहा, “शशि, बहुत देर हो गयी, तुम्हें वापस जाना है”-और मानो उठने का उद्योग किया, पर शशि हिली नहीं, उसकी निश्चलता में पौष की हिमशीत वर्षा ने ही उत्तर दिया कि अब वापस जाने के लिए भी अधिक देर हो गयी है; फिर शेखर ने कहा, “तुम थक जाओगी; शशि,” और दुबारा उठने का उद्योग किया ताकि ढंग से बैठ जाए; पर शशि ने फिर एक हाथ से उसके उद्योग जड़ित कर दिए और उसके पाया कि उसके मन की संकल्प-शक्ति और पेशियों की प्रेरणा-शक्ति एक चिकने अमूर्त और सर्वथा स्वीकार्य बन्धन में बँधी है; फिर वह तन्द्रा पूर्ववत् छा गयी और सप्तवर्णी की छाँह में अस्तित्व सो गया...

अवश्यमेव यह अरुणाली स्वप्न की है-वातावरण में स्फटिक की-सी शीतल स्वछता है, किन्तु उसमें रंग की स्निग्धता भी है-शेखर अपना सिर तनिक-सा उठाकर अपने ऊपर छाए हुए सप्तवर्णी के गाछ को छूता है-क्या उसका माथा सप्तपर्णी के भीतर के जीवन-प्रवाह की नाड़ी देख सकेगा-उसके हृदय का स्पन्दन अनुभव कर सकेगा?

सप्तपर्णी की आत्मा बोली-आत्मा का स्वर कितना कोमल होता है!-”जानते हो, शेखर?”

“हूँ-”

“तुमने जो कुछ कहा था, वह याद है?”

“हाँ-”

“उसका अभिप्राय समझते हो?”

मौन बोला कि हाँ समझता हूँ।

“अब मैं कुछ कहूँ, सुनोगे?”

मौन ही फिर बोला कि सुन रहा हूँ।

“तुमने जो दिया है, उसमें लज्जा नहीं है। वह वरदान है, यह मैं भी बिना लज्जा के देखती हूँ। वरदान में अस्वीकार का विकल्प नहीं है।”

“...”

“मैं विवाहिता हूँ। अपना आप मैंने स्वेच्छा से दे दिया है; अपने का, इह का सकल्प कर दिया है-आहुति दे दी है। जो दे दिया है, मेरा नहीं है, उसकी ओर से मैं कुछ नहीं कह सकती; न कुछ स्वीकार ही कर सकती हूँ, न प्रतिवाद कर सकती हूँ, और-न कुछ दे सकती हूँ।” वह चुप हो गयी, बहुत देर तक कोई नहीं बोला, केवल वातावरण का स्फटिक कुछ और शीतल जान पड़ने लगा-

“अपने को मिटा देने में मैंने कंजूसी नहीं की-खुले हाथ से दिया-होम कर दिया, और देख लिया कि सब जल गया है-धूल हो गया है। यह नहीं सोचा कि धोखा खाया, मैंने स्पष्ट देखा था कि यही होगा।”

शान्ति में कितनी व्यथा हो सकती है, और स्वप्न के स्फटिक की लाली में कितनी हिम-विजड़ित पराजय...यही है सब कुछ का अन्त-स्वप्न का भी अन्त-

सप्तपर्णी की आत्मा ने एकाएक बल पाकर-जैसे नयी आहुति से होमाग्नि दीप्त हो उठे!-कहा, “पर तुम में मेरा वह जीवन है, जो मैं हूँ, जो मेरा मैं है।”

फिर एक विश्राम...

“और वह मूर्त नहीं है, इसीलिए कम सच नहीं है, कम जीता नहीं है। शेखर, तुम मुझे बहिन, माँ, भाई, बेटा, कुछ मत समझो, क्योंकि मैं-अब-कुछ नहीं हूँ। एक छाया हूँ।” और फिर किसी आन्तरिक तेज से भरकर-”और अमूर्त होकर मैं-तुम्हारा अपना-आप हूँ, जिसे तुम नाम नहीं दोगे।”

फिर मौन, जिसमें वह लाल स्फटिक काँपता-सा है-

“शशि, क्या इसमें-तुम्हारे लिए-सिद्धि है-सम्पृर्ति है?”

“सिद्धि! नहीं। मेरा जीवन न इतना मिट्टी था, न इतना हवा-। सिद्धि और सम्पूर्णता नहीं है; पर मैं सन्तुष्ट हूँ शेखर; और सन्तोष का यह सुख तुम्हारा वरदान है।”

वह स्फटिक अरुणाली में घुल गया है, वह शीतलता स्वप्न की नहीं है, पौष के कड़कड़ाते वर्षा-धुले प्रत्यूष की है...शेखर ने एकाएक अपने को सप्तवर्णी की छाँह के नीचे से खींच लिया और उठ बैठा, चेतना की एक दीप्ति उसे सहसा पिछले दस घंटों के जीवन-विकास की एक द्रुत झाँकी दिखा गयी; सहसा इस भावना से भरकर कि आज भोर की पहली किरण के साथ वह शशि को नये रूप में देखेगा, और कुछ बाल्यकाल में रटे हुए और हाल में दुबारा नये प्रकाश में पढ़े हुए वैदिक भावगीतों के श्रद्धाभाव से आप्लावित होकर उसने स्थिर दृष्टि से शशि की आरे देखते हुए कहा, “मेरी आँखें पुनीत हों-”

शशि के खोए-से स्वर ने उसकी मनःस्थिति को भरपूर अपनाते हुए कहा, “और मेरा जागरण...”

शशि उठ खड़ी हुई थी, रात भर चारपाई के सेरुए पर जहाँ वह बैठी रही थी, वहाँ पड़ी हुई एक सलवट को उसने हाथ से सँवारा, फिर जाकर खिड़की के सामने खड़ी हो गयी। चौखटे के साथ सटकर उसने दोनों बाँहें बाहर फैला दीं।

सप्तपर्णी के इस प्रतनु, लचकीले, पर उद्ग्रीव गाछ को देखकर शेखर का हृदय हठात् एक कृतज्ञ आशीर्वाद-भाव से उमड़ आया। खिड़की के चौखटे में जड़े हुए उस विमुख आकर को सिर से पैर तक एक वत्सल दृष्टि से छूकर उसने मन-ही-मन शब्दहीन प्रार्थना की, और प्रतीक्षा करता रहा कि आलोक की पहली किरण शशि की आकार रेखा को कुन्दन से मढ़ दे...

अरुणाली का आश्वासन दीप्ति की यथार्थता नहीं बना, केवल एक फीका उजाला बनकर रह गया-दिन निकलते-निकलते बदली फिर घनी हो गयी थी। शेखर न जाने किस विनोद-भरी उमंग से नीचे बिखरे हुए ‘हमारा समाज’ के पन्नों के मुख्यांश पर बैठ गया था; शशि वहीं खिड़की में खड़ी थी, पर अब शेखर की ओर उन्मुख।

“शशि, तुम अब भी गाती हो?”

एक अन्तर्मुख, म्लान ‘हुँह!’ ने मानो कहा, “अब, गाना!” पर प्रकट शशि बोली, “अब मैं वापस जा रही हूँ।”

शेखर ने हाथ के इशारे से बिखरी हुई हस्तलिपि को एक घेरे में बाँधते हुए कहा, “हमारा सारा समाज प्रतीक्षा कर रहा है-” (फटा हुआ, चिथड़े-चिथड़े बिखरा हुआ समाज और लाला अमोलक राय सुधारक द्वारा संशोधित समाज।...)

शशि ने कहा, “गाये एक वर्ष हो गया-” पर इसमें प्रतिवाद नहीं था, केवल आग्रह की स्वीकृति थी, “अभी गाऊँगी नहीं, पाठ ही कर सकती हूँ-”

क्रमशः स्पष्टतर होती हुई स्वरलहरी से कमरा गूँजने लगा-

“अभयं नः करोत्यन्तरिक्षं अभयं द्यावा पृथिवी उभे इमे।

अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु।

अभयं मित्रादभयममित्राद् अभयं ज्ञातादभयं पुरो यः।

अभयं नक्तं भयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु॥”

किन्तु अपने आप ही शशि मुड़कर फिर खिड़की में प्रत्यभिमुख होकर खड़ी हो गयी, और क्षण भर गुनगुनाने के बाद निष्कम्प किन्तु गूँजते स्वर में गाने लगी-सतेज और स्पन्दनशील प्रवाह के साथ, जैसे स्वस्थ धमनी में रक्त...

“आजि मर्मर-ध्वनि केन जागिलो रे!

पल्लवे-पल्लवे हिल्लोले-हिल्लोले थरथर कम्पन लागिलो रे।

“...”

आजि मम अन्तर माझे

कोथा पथिकेर पद-धुनि बाजे

ताइ चकित-चकित घूम भाँगिलो रे-

आज मर्मर ध्वनि केन जागिलो रे!”

उस स्वर को सुनते हुए, और उस सधी हुई पीठ के तरंगायित आरोह-अवरोह को देखते हुए शेखर का मन बहुत दूर चला गया। कितनी दूर लगता था वह समय, जब वह छिपकर शशि की उत्फुल्ल गीत-लहरी सुनने का यत्न किया करता था, जब वह स्तब्ध होकर उसका गाना सुना करता था-उसी से नहीं, शशि से भी कितनी दूर...तब वह सुखी थी-उस रन्ध्रहीन सुख से सुखी, जो स्वयं अपने अस्तित्व को नहीं जानता; और आज वह जानती है कि सुख में भी वह सुखी नहीं है, केवल सन्तुष्ट है-सन्तुष्ट अर्थात् धैर्यवान्-अपने व्यक्तित्व के इस भ्रंश, इस विभागीकरण को गौरव मानकर अपनाती हुई...

किन्तु यदि यही है, यदि शशि आज इस क्षण सन्तुष्ट भी है, तो क्या यही अब शेखर के जीवन का सबसे सार्थक क्षण नहीं है, क्योंकि इससे बड़ा सुख वह अब शशि को नहीं दे सकता? और-और क्योंकि इस क्षण ने कल और आज के बीच में उसका जीवन बदल दिया है-

उसे याद आया कि रात ही एक अजनबी स्त्री द्वारा खींचकर बचा लिए जाने पर वह झल्लाया था और सोचता हुआ लौटा कि किसी को क्या-किसी को क्या...आज-आज किसी को कुछ है-और वह जानता है कि किसी को कुछ है...

तब जो कल वह करने जा रहा था, क्या उसका उचित समय आज नहीं है-इस क्षण नहीं है? सिद्धि और सन्तोष के दिये हुए और पाए हुए सुख में बुझ जाना-कितनी बड़ी सिद्धि!...अगर वह अभी चुपचाप खिसक जाए, कानों में शशि के गाने की चिरन्तन गूँज लेकर लुप्त हो जाए-

वह धीरे-धीरे द्वार की ओर खिसकने लगा, चौखटे को छूते ही सीधा खड़ा हो गया-

एकाएक शशि ने गाना बन्द करके कहा, “कहाँ, शेखर?”

वह जड़ित हो गया। शशि ने घूमकर फिर पूछा, “कहाँ जा रहे थे?”

शेखर कुछ नहीं बोला।

“अभी तुम्हारा मन नहीं धुला? शेखर, मैं कहती हूँ, तुम नहीं जाओगे।”

घात में पकड़े गये चोर की-सी उद्धतता से शेखर ने कहा, “क्यों?”

शशि ने अधिकार के स्वर में कहा, “क्यों नहीं है। मैं कहती हूँ, तुम नहीं जाओगे।” फिर उतने ही स्थिर किन्तु सर्वथा बदले हुए स्वर में, “मेरी तरफ़ देखा, शेखर-मेरी आँखों की तरफ़। क्या तुम मनमानी कर सकते हो-अकेले ही?”

शेखर ने आँखें नीची कर लीं। परास्त भाव से कमरे में लौट आया।

“क्या करूँ बताओ, क्या कहती हो-”

शशि ने हाथ के इशारे से एक मीठी फटकार देते हुए कहा, “अब बहुत समय है कहने-सुनने को। अब मैं चली-सवेरा हो गया है। पर अब कुछ पागलपन किया तो-” तर्जनी उठाकर उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

शेखर ने कहा, “मेरी अकल को कुछ हो गया है-बिलकुल पागल हूँ।” उसके स्वर में खिन्न लज्जा का भाव था।

शशि ने विचारक के गम्भीर स्वर से, पर हँसती आँखों से कहा, “पागल-पागल तो नहीं; बहुत बड़ा बच्चा!” और सीढ़ियाँ उतर गयी।

शेखर ‘हमारा समाज’ के बिखरे पन्ने बटोरने लगा।

एकाएक प्रातःकाल का भाव उसके मन में फिर उमड़ आया, और विस्मय से उसने अपने-आपसे पूछा कि उसके मनोभाव का प्रतिबिम्ब कैसे इतनी जल्दी शशि के मन में उदित हो जाता है...इस जिज्ञासा से और भी पुष्टि हुई। कृतज्ञता से उसने फिर कहा, ‘मेरी आँखें पुनीत हों...’

शशि ने जोड़ा था, ‘और मेरा जागरण’। किन्तु जागरण तो मेरा है, शशि, जागरण तो मेरा है-मैं तुम्हारे पुण्यायन का जागरूक हूँ...