शेखर: एक जीवनी / भाग 2 / बन्धन और जिज्ञासा / अज्ञेय

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बन्दी होने के ठीक इक्कीस दिन बाद शेखर पहले-पहल अदालत में पेश किया गया। उस दिन उसे मालूम हुआ कि पाँच और व्यक्तियों के साथ उस पर मार-पीट, हमला, हिंसा के लिए साज़िश, सरकारी अफ़सरों की हत्या का प्रयत्न, सरकारी अफ़सर के कार्य में अवरोध, और मुकदमे से सम्बन्ध रखनेवाली सामग्री छिपाने के आरोप लगे हैं। उसी दिन उसे पुलिस की हवालात से जेल में भेज दिया गया।

शेखर को मालूम नहीं था कि पुलिस की हवालात में और जेल में क्या अन्तर है-इसके सम्बन्ध में कानून क्या है, यह भी वह नहीं जानता था। उससे अगर पूछा जाता कि ‘क्या तुम जेल जाना चाहते हो?’ तो वह सहज सचाई के साथ कह देता, ‘नहीं।’ अब उस उसे जेल भेज दिया गया, तब वह सोचता हुआ जा रहा था, क्या मुकदमा खत्म हो गया? न गवाही, न सुनाई, न फैसला-क्या मैं जेल ही में पड़ा रहूँगा? उसने दूसरे मुकदमों की बातें पढ़ी-सुनी थीं, यह कार्रवाई उसे विचित्र मालूम हुई...वह अपने साथियों से पूछना चाहता था, पर डर रहा था कि वे हँसे नहीं। उस समय वह अपने को बहुत छोटा, बहुत अकिंचन, बहुत बेवकूफ अनुभव कर रहा था...उसके साथी लारी को बहुत छोटा, बहुत अकिंचन, बहुत बेवकूफ अनुभव कर रहा था...उसके साथी लारी में बैठे-बैठे हँस रहे थे और वह विस्मय से सोच रहा था, इन्हें तो कुछ सोच नहीं है...उनमें से दो पहले जेल हो आये थे, ऐसा शेखर ने उनकी बातों से जाना। तब क्या एक बार जेल हो आने से ही उनका साहस इतना हो गया है?...

“लेकिन सरदार, आप कैसे इनमें आ फँसे?”

शेखर को विस्मय हुआ कि वह कैसे अनायास अपने पकड़े जाने की बात कह गया है।

प्रश्नकर्ता ने हँसकर कहा, “देखा आपने उसकी सफ़ाई-‘यह आदमी उन वालंटियरों का अफ़सर है, जिन्होंने मुझ पर हमला किया था’-खूब? हमले से आपका सम्बन्ध कैसे जोड़ा गया है?” एकाएक उसका चेहरा गम्भीर हो गया। “आपको उन्होंने ऐसे नाटकीय ढंग से गिरफ्तार किया है-हम लोग तो अगले दिन प्रातःकाल पकड़े गये-और आपको अफ़सर भी बताते हैं, तब हमले की सारी जिम्मेदारी भी आप ही पर डालेंगे। हाँ, आपने बदली किसकी की थी?”

शेखर ने बता दिया।

“उसी ने तो पकड़ा था उसको। हम लोग पीछे पहुँचे थे। जब हम लोग पकड़ कर कैम्प लाने लगे, तब उसने कहा कि वह तो ड्यूटी पर ही रहेगा; किसी साले सी.आई.आई. से उसे कोई मतलब नहीं है। हाँ, प्रतिमा से छेड़छाड़ करेगा कोई तो देखी जाएगी।”

“हूँ।”

“आप सफ़ाई देंगे!”

शेखर ने चुपचाप उसकी ओर देख लिया-वह नहीं जानता था कि इसका क्या उत्तर है।

“आप पहली बार आये हैं न? खैर। जेल में आप हर बात में हम लोगों का साथ माँगते रहिएगा। एक मुकदमे के अभियुक्तों को इकट्ठे रहने का अधिकार है। सफ़ाई के लिए वकील आदि का कुछ-न-कुछ प्रबन्ध होगा ही-फिर हम लोग इकट्ठे सलाह करेंगे किया जाए।”

“अच्छा।”

“और खूब अकड़कर रहिएगा। अकड़ के बिना जेल में काम नहीं चलता; और फिर अभी आप कैदी नहीं है, केवल अभियुक्त हैं। आप पर शासन करने का अधिकार किसी को क्यों हो? है न?”

“ठीक।” शेखर मुस्करा दिया। उसे याद आया, कहीं उसने पढ़ा था; न्याय का सिद्धान्त है कि कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है, जब तक कि वह दोषी सिद्ध नहीं हो जाता। और अकड़-वह तो उसकी आदत ही थी।

जब लारी जेल की ड्योढ़ी में जाकर खड़ी हुई, उतरते हुए शेखर ने देखा कि उसके आगे और पीछे लोहे का बड़ा फाटक है और एक हाथ में पड़ी हुई हथकड़ी के दूसरे छोर पर सिपाही, तब एकाएक उसे स्वाधीनता का अर्थ समझ में आ गया, और वह अपने को कोसने लगा कि क्यों अब तक-वह उसके प्रति उदासीन रहा है; क्यों नहीं अब से कहीं पहले स्वाधीनता उसके लिए भूख-प्यास और श्वास-गति की तरह एक अत्यन्त आवश्यक, जीवन-मरण की-सी महत्त्वपूर्ण वस्तु बनी...

जब शेखर ने अपने को एक कोठरी में बन्द पाया, जिसमें दाईं ओर खड्डी पर उसका बिस्तर पड़ा था, बाईं ओर एक चबूतरे पर चक्की जमी हुई थी, पिछले कोने में निसर्ग के लिए कोलतार से रँगा हुआ एक पतरा और मिट्टी की एक छोटी-सी टोंटी थी, ऊपर छत में प्रकाश के लिए जँगला-सा था, सामने सींखचे थे, जिनके बीच से एक लोहे का फाटक, फाटक के एक छिद्र से और सींखचे थे, और सर्वत्र, सर्वत्र दुर्गन्ध थी-तब एकाएक अपनी भौगोलिक स्थिति का समाधान उसके लिए आवश्यक हो गया। मैं ठीक कहाँ पर हूँ, मेरे आसपास जेल का और पृथ्वी का प्रसार किस तरह है, यह जाने बिना जैसे वह साँस नहीं ले सकेगा...जेल नगर के किस ओर है, वह जानता था; जेल का फाटक उत्तर की ओर था, वहाँ से वह पहले इधर मुड़ा था, फिर उधर, फिर उधर, फिर...तो उसकी कोठरी का मुख पूर्व की ओर था, पर उससे आगे...

यह समस्या अगले दिन ही हल हो सकी। प्रातःकाल उसे टहलने के लिए निकाला गया, तब उसने देखा कि वह चालीस कोठरियों की एक कतार में बारहवीं कोठरी में है। उस कतार से आगे शायद चालीस कोठरियों की एक और कतार है। सामने की दीवार में दो फाटक हैं...जो नम्बरदार उसे टहलाने लाया था, उसने बताया था कि एक कारखाने में खुलता है, दूसरा गोरा बारक में...शेखर ने मन-ही-मन जेल पर पृथ्वी के नक्शे का आरोप किया, और तब अपनी स्थिति का खाका उसके आगे स्पष्ट हो गया-फाटक उत्तरी ध्रुव, दरोग़ा का दफ्तर उत्तरी हिमवृत्त, कारखाना जापान, दूर उधर फाँसी की कोठरियाँ अरब; और वह-वह कहाँ है? वह साइबेरिया के हेमावृत्त मरुस्थल में...उसे कुछ शान्ति हुई-वह कहीं है तो-यहाँ तो यही डर है कि उसका अस्तित्व ही न खो जाए।

थोड़ी देर बाद अभिमान जागा। वह दूसरी तरफ़ दक्खिनवाली कतार में होता, तो भारत में होता। वह कतार अच्छी नहीं है; नम्बरदार ने कहा था कि वहाँ बदमाश रखे जाते हैं, पर होता तो वह भारत...उसे एकाएक अचम्भा हुआ कि अपने देश की मिट्टी का, उसके नाम का, नक्शे में उसकी आकृति और स्थिति का मोह उसमें कब से जाग गया है...पहले तो ऐसा नहीं था-सुन्दर प्रदेश थे, घर के लोग थे, पर भारत-भूगोल को पुस्तक के बाहर कहाँ था वह? उसे याद आया, पिता कभी राजपूतों की, ऋषियों की, वीरता की गाथाएँ कहते-कहते एकाएक कह उठते थे-”इस आर्यों की भूमि से ऐसे ही रत्न उत्पन्न हुआ करते थे”...और शेखर को लगता था, उस समय अपने अभिमान के तीव्र आलोक में ही परख लेना चाहते हैं कि शेखर भी वैसा रत्न है या नहीं; पर वह तो दूर किसी पुराने देश की बात थी-आर्यावर्त की, और उन वीर गाथाओं का आर्यावर्त उसके मन में कभी उसके पैरों तले रौंदे जाते आज के भारत से एकरूप नहीं हुआ था...

‘खूब अकड़कर रहिएगा’...अकड़ तो उसके भीतर खाहमखाह बढ़ती जा रही है...उसने कोई अपराध नहीं किया है; पर जो उन कोठरियों में हैं, जो ‘भारत’ में हैं और सजा भुगत रहे हैं, वह उन्हीं की तरफ़ होगा, वह अकड़ेगा और लड़ेगा...

उसका सैर का समय चुक गया।

पूरे तीन दिन बाद उसे यह माँग करने का मौका मिला कि उसे ‘साथियों’ के साथ रखा जाए। दरोग़ा निरीक्षण के लिए आये थे। तिरस्कार के स्वर में बोले, “तो वे तुम्हारे साथी हैं, क्यों?”

शेखर ने व्यंग्य की उपेक्षा करते हुए कहा, “हमें एक ही मुकदमे का अभियुक्त बनाया गया है, हमें मिलने का अधिकार है।”

“अधिकार! ऐ है! यह जेल है, बाबू साहब! यहाँ का अधिकार है चक्की पीसना, समझे? वह देखो!” दरोग़ा ने कोठरी के भीतरवाले चबूतरे की ओर इशारा किया। “घबराओ मत! सब देखोगे।” उसकी माँग का उत्तर दिए बिना वे चले गये।

किन्तु शाम को जब शेखर को कोठरी से निकाला गया, तब उसने देखा कि दस बारह कोठरियों से आगे चलकर एक और कोठरी भी खुली है, जिसमें से उसे अकड़ने का परामर्श देनेवाला विद्याभूषण निकला है, और दूसरी ओर से बाकी तीनों साथी लाए जा रहे हैं।

विद्याभूषण को देखकर वह इतना प्रसन्न होगा, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। वह लपककर उससे गले मिला, और फिर एकाएक अपने उत्साह के लिए कुछ लज्जित-सा होकर कुछ अलग होकर खड़ा हो गया।

क्षण-भर के लिए दोनों एक-दूसरे को सिर से पैर तक देखते रहे। विद्याभूषण क़द का मध्यम, बलिष्ठ शरीर का और गोरे रंग का कोई बीस वर्ष का युवक था। पीछे की और सँवारे हुए रूखे बाल, चौड़ा माथा, सीधी नाक और पतले ओठ, सीधी और पतली ठोड़ी-शक्ल से वह अध्ययनशील हठी दीखता था; आँखों में अवश्य उसके एक कोमल हास का चंचल प्रकाश था। शेखर ने निश्चय किया कि यह व्यक्ति उसके मन के अनुकूल है। उसने पूछा, “आप पहले भी जेल आये हैं न? कैसे?”

“हाँ; असहयोग के ज़माने में आया था। तब मैं छोटा ही था। तब कड़ाई भी अब से ज्यादा थी। वन्देमातरम् का नारा लगाने पर मुझे बेंत लगे थे। अब तो राजनैतिक कैदी को कम ही बेंत लगते हैं।”

शेखर ने एक बार फिर उसे सिर से पैर तक देखा। नहीं, इस गम्भीर युवक के आगे अपनी अनभिज्ञता स्वीकार करने में लज्जा नहीं है। उसने कहा-”राजनैतिक कैदी अलग होते हैं? मैं कुछ जानता-वानता नहीं।”

विद्याभूषण मुस्कराया। “कोई बात नहीं-यहाँ बहुत जल्दी सब कुछ जान जाएँगे। अच्छा कॉलेज है, जेल। मुझे तो जब बेंत लगे थे, जब टिकरी पर ही कई बातें समझ में आ गयी थीं। चरित्र की डिग्री तो यहीं मिलती है। पर फेल बहुत होते हैं।” उसका चेहरा गम्भीर हो गया।

“हूँ।”

एकाएक कुछ याद करके विद्याभूषण बोला-”हाँ, हम लोगों को साथ नहीं रखा जाएगा, पर दिन भर हम मिल सकेंगे। यही फैसला हुआ है। ऐसे भी ठीक है।”

“और मुकदमे का क्या होगा?”

“आज मेरे भाई मुझसे मिलने आये थे। एक वकील का प्रबन्ध हुआ है; वे कल हम सबसे मिलेंगे। तभी आगे के बारे में निश्चय होगा।”

शेखर एकाएक इस आकांक्षा से भर गया कि कोई-‘कोई’ नहीं, शशि!-उससे मिलने आये...भाई शायद आएँ-पर यदि शशि आती-आ सकती...

बाकी तीनों साथी भी आये थे। परिचय हुआ, शेखर ने उनके नाम जाने, उन्हें सिर से पैर तक जाँचा और तय किया कि वे विद्याभूषण के पाये के नहीं हैं; स्वयंसेवक वे भले ही अच्छे रहे हों, पर ऐसा उनमें अधिक नहीं है जो जेल में आकर निखर आये। और उसने यह बहुत सहल पाया कि बातें करता हुआ भी वह शशि के आने की सम्भावना पर सोचता जाए...जेल के जीवन के बारे में उसे अधिक चिन्ता नहीं थी-वहाँ के दैनिक जीवन की व्यवस्था उससे कोई विशेष बुरी नहीं थी, जो उसने वयःसन्धि के दिनों अपने को दंड देने के लिए अपने लिए तजबीज कर ली थी...दिन बीत ही जाएँगे-शरीर उसका काफ़ी कठोर था; हाँ प्रारब्ध उसके वश में नहीं था और वे अशान्त इतने थे कि...

अभियोग की सुनाई आरम्भ हो गयी। वकील ने शेखर को बताया कि उसे चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है, और तो कोई धारा उस पर लगती नहीं-केवल एक लग सकती है, सरकारी अफ़सर के काम में अवरोध डालने की; और वह भी शामवाली घटना के कारण नहीं, रात को गिरफ्तारी के समय की घटना से...पुलिसवाले कह सकते हैं कि वे उस समय सरकारी काम पर गये थे, जब उसने रुकावट डाली और झगड़ा किया आदि-आदि...किन्तु उस आश्वासन के बिना भी मुकदमे में शेखर की दिलचस्पी मिट-सी गयी थी। जेल ने उसके सामने एक नयी दुनिया ही मानो खोल दी और उसके अपने भीतर इतने नये प्रश्न जाग रहे थे कि अदालत में पूछे गये व्यर्थ के प्रश्नोत्तर की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता था...उसे जान पड़ता था, वह जेल-संसार को मानो एक क्कह्म्द्बह्यद्व के बीच में से देख रहा है; प्रत्येक दृश्य के कई रंगों के कई रूप कई दिशाओं में उसे दीखते थे, और यह कहना असम्भव हो रहा था कि कौन सत्य है, कौन मिथ्या...उसके अब तक के बने हुए सब पैमाने निकम्मे हो गये थे, वह एक नयी और भीषण वास्तविकता को जान रहा था कि सभी कुछ सत्य है, सभी कुछ मिथ्या है; सभी कुछ अच्छा है और सभी कुछ बुरा है...अब भी वह देख रहा था कि ऐसी दशा में मार्ग का, कार्यक्रम का, निर्णय आदर्शवाद के सहारे ही हो, सकता है, लेकिन उस आदर्शवाद के आधार पुराने आदर्शों पर नहीं टिकते थे-उसकी आत्मा के भीतर क्रान्ति की जरूरत थी...विद्याभूषण का साथ उसके लिए आवश्यक हो चला था। किन्तु दिन में तो विद्याभूषण मुकदमे को देखता था-शेखर ने अपना हित उसी के सिपुर्द कर दिया था-अतः शेखर प्रातःकाल उससे उलझता और दिन भर उस उलझन पर विचार किया करता और उसके धागे सुलझाया करता...

आरम्भ उस दिन हुआ था, जिस दिन विद्याभूषण के यह कहते समय, कि हमें देश के आत्माभिमान की रक्षा के लिए एक ऐसा संगठन बनाना चाहिए, जो सरकारी अफ़सरों और शासकों का दिमाग़ दुरुस्त रखे, शेखर ने एकाएक पूछा था, “अच्छा, यह तो बताओ, तुमने उस सी.आई.डी. वाले को पीटा था भी कि मेरी तरह ही आए?”

“पीटा तो था। इतना उद्धत व्यवहार करके वह अछूता लौट जाता तो मैं आयु-भर अपने को क्षमा नहीं कर पाता।”

“क्यों?”

“राह चलते तुम्हें कोई माँ-बहन की गाली दे जाए, तो तुम क्या करोगे? तब वह क्या इसीलिए बच जाता कि कमीना होकर वह सरकार का गुमाश्ता भी है?”

“वह सरकार का एक अंग तो था-ऐसे सरकार कैसे चलेगी? मान लो अपनी सरकार होती, तब-”

“सरकार का अंग-तो सरकार के आतंक से हीन हम उसे पीटने से रह जाते? अगर तुम हिंसा की बात कहते हो, तो क्या डर के कारण अपने गौरव की रक्षा से चूकना हिंसा नही है? आत्महिंसा सबसे बड़ी हिंसा है, क्योंकि वह राष्ट्रीय अभिमान की-राष्ट्र की-रीढ़ तोड़ डालती है।”

“तुम्हारे कहने का मतलब यह हुआ कि जब भी गुस्सा आये, उसे व्यक्त ही करना चाहिए, दबाना नहीं? ऐसे तो बड़ा अनाचार फैलेगा-”

“नहीं मैं यह नहीं कहता। एक गुस्सा कमज़ोरी होता है, एक गुस्सा कर्तव्य होता है। अगर अपने राष्ट्र का अपमान होता है, तो उस पर रोष राष्ट्र के और समाज के प्रति कर्तव्य होता है-वह रोष हमें देश को देना ही है। नहीं तो हममें भीतर कहीं प्राणों की जगह कचरा भरा हुआ है।”

“अगर देश के अपमान पर रोष उचित है तो, प्रान्त के, सम्प्रदाय के, परिवार के और फिर स्वयं अपने अपमान पर भी उचित है। वही क्यों कमज़ोरी है?”

“ठीक है। पर सवाल उस स्थूल वस्तु का नहीं है, जो देश या प्रान्त या हम हैं। सवाल भावना का है। हमारे देश की मिट्टी अनुर्वर है, यह सीधी-सच्ची बात भी हो सकती है, पर ‘हमारा राष्ट्र नपुंसक है’ यह अपमान है। आदर्शों के लिए रोष उचित है।”

“तब धर्मान्धता उचित है? धर्म आदर्श है न?”

विद्याभूषण कुछ हिचकिचाया। “न-नहीं। कहीं पर सीमा बाँधनी ही होगी। पर धर्मात्मा और धर्मान्ध हम कहते हैं और उसका अलग-अलग अर्थ भी समझते हैं, जिसका अर्थ यही है कि धर्मान्धता में कुछ ऐसे तत्त्व आते हैं, जो बुरे हैं। वे क्या हैं, यह खोजना होगा। जैसे धर्मान्ध रोष में सबसे पहली बात होती है व्यक्तिगत सहिष्णुता-मैं सिद्ध करना चाहता हूँ कि मेरा धर्म तुम्हारे धर्म से अच्छा है, क्योंकि मैं तुमसे अच्छा हूँ। यह स्पष्टतया अनुचित है और इस अभिमान की तो जड़ ही उखाड़नी चाहिए।”

“हूँ?” शेखर कुछ देर तक सोचता रहा। “तब हम कहाँ पर पहुँचे?” अपने प्रश्न पर वह हँस भी पड़ा।

“जो रोष आदर्श के लिए है, वह धर्म है, यह तो तय है। रहा यह कि आदर्श क्या है, सो उसके बारे में साधारण नियम कठिन है, पर कहा जा सकता है कि जो भी भावना मानव-और-मानव के भेद को मिटाने की, उसकी सीमाओं और बन्धनों को अधिकाधिक प्रसारित करने की चेष्टा करती है, वह आदर्श है।”

“तब जहाँ मानव-और-मानव का सवाल आये, वहाँ राष्ट्रीयता की विघ्न हो सकती है?”

“अवश्य! यूरोप में ऐसा समय आ चला है कि राष्ट्रीयता पाप हो जाए-वहाँ राष्ट्रीय संगठन अब मानव की स्वाधीनता में विघ्न हो गया है।”

“हूँ।” शेखर की ‘हूँ’ विचारों से इतनी लदी हुई थी कि वह आगे जिज्ञासा करना भूल गया। पूर्ण आश्वस्त तो वह हुआ था, लेकिन विद्याभूषण ने उसकी बुद्धि को एक गहरा आघात अवश्य दिया था-इतने बड़े-बड़े प्रश्नों को सामने पाकर वह उनकी ललकार से मानो तिलमिला उठी थी।

अभिमान या अहंकार एक सामाजिक कर्तव्य भी हो सकता है, शेखर के लिए यह एक नया दृष्टिकोण था। वैसे तो राजनैतिक मामलों में उसको कभी अधिक दिलचस्पी नहीं रही थी, और प्रायः राजनैतिक झगड़ों और हिस्सा-बाँट की बातें अखबारों में पढ़कर वह राजनीति की क्षुद्रता पर दुःखी ही हुआ करता था। पर ‘राजनीति क्यों है?’ यह प्रश्न राजनीति का नहीं, जीवन का था, और ऐसे प्रश्नों का आकर्षण वह कभी भी टाल नहीं सकता था। जब विद्याभूषण के निमित्त से उसकी बुद्धि इस प्रश्न से जा उलझी, तब उस नयी दृष्टि के धक्के से वह दो-तीन दिन अचम्भे में पड़ा रहा। वह जानता था कि दूसरे की सोची हुई बातों से कभी भी कोई आश्वस्त नहीं हो सकता, वे अपने ही अन्तरात्मा से निकलें, तभी सच होती हैं; दूसरा अधिक-से-अधिक यह कर सकता है कि अन्तरात्मा की उर्वर भूमि की थोड़ी-सी निराई कर दे...

तीन-चार दिन तक वह इसी एक बात को लेकर अपने से युद्ध करता रहा। क्या अहंकार एक सामाजिक कर्तव्य है? तीन दिन के बाद उसके भीतर जागा हुआ वृहदाकार दानव जिज्ञासु मानो एक प्रतिद्वन्द्वी को पछाड़कर नये युद्ध के लिए तैयार हुआ, तब उसके ‘युद्धं देहि!’ के उत्तर में कई नये भीमाकार प्रश्न आ खड़े हुए-शासन क्यों है? क्या वह स्वाधीनता में बाधक नहीं है? क्या उसके बिना हम रह सकते हैं? क्या उसे हम नष्ट भी कर सकते हैं? कैसे कर सकते हैं?

अगर मुक्ति की ओर बढ़ना ठीक है-और ठीक वह नहीं कैसे हो सकता है? तब शासन-सत्ता का होना बुरा है-है नहीं, तो हो सकता है। कब? और उस समय क्या आदर्श है हमारा जिसके लिए रोष कर युद्ध करना, अहंकार करना धर्म हो जाता है?

और रोष-युद्ध-हिंसा-क्या हिंसा करना उचित है? यदि विद्याभूषण का तर्क ठीक है, तो हिंसा उचित है और धर्म भी हो सकती है। पर...वह विश्वास करता है, करना चाहता है, कि हिंसा से मानव को घृणा है, एक स्वाभाविक प्रवृत्ति-जन्य अनिच्छा है हिंसा करने में...और वह समझता है कि कोई भी मौलिक प्रवृत्ति गलत नहीं हो सकती-अगर हमारा आचारशास्त्र उसका समर्थन नहीं करता तो वही गलत है-प्रकृति नहीं; प्रकृति की आधारभूत एक प्राकृतिक नीतिमयता में उसका अखंड विश्वास है। क्यों है, क्या प्रमाण है उसके पास, इसका जब वह कोई उत्तर नहीं दे पाएगा, तो यही देगा कि उसमें विश्वास करने की मौलिक इच्छा होना ही उसका प्रमाण है। मनुष्य क्यों चाहे उसमें विश्वास करना? क्योंकि अपने गूढ़ातिगूढ़ अन्तरतम में वह नीतिवादी है। वह सृष्टि को नीति की कसौटी पर खरा मानना चाहता है। और अगर मानव-प्रकृति में नीति मूल तत्त्व है, तो प्रकृति में भी आधारभूत कैसे नहीं है?

प्रकृति नैतिक है। तब क्या हिंसा भी नैतिक है? सदा नहीं, तो कभी, किसी परिस्थिति-विशेष में वह नैतिक हो सकती है? क्या कभी हत्या उचित हो सकती है?

और फिर व्यावहारिक प्रश्न यह कि क्या उससे कभी लाभ हो सकता है?

आह देवि जिज्ञासा-इतनी दुर्निवार कि वह दानवी दीखती है!

सिद्धान्त के प्रश्न से व्यवहार का प्रश्न सदा छोटा होता है, और इसीलिए अधिक तात्कालिक; हिंसा की व्यावहारिकता भी शेखर के लिए वैसी ही थी।

उसने विद्याभूषण से पूछा, “क्या हिंसा कभी उचित हो सकती है? क्या उससे कोई लाभ हो सकता है?”

विद्याभूषण ने मुस्कराकर कहा, “तो तुम सोचते रहे हो?”

शेखर ने खीझकर कहा, “सोचूँ न?”

विद्याभूषण हँसा। फिर गम्भीर होकार बोला, “तो सुनो। कई बार हिंसा इतनी नितान्त आवश्यक होती है कि उचित हो जाती है।-या यों कह लो कि इतनी अधिक उचित होती है कि आवश्यक हो जाती है। वास्तव में वह तब हिंसा रहती नहीं। नासूर होता है, तो उसका इलाज यही है कि नश्तर लगा दिया जाए। उससे दर्द होता है तो क्या वह हिंसा है? वह हिंसा इसलिए नहीं है कि रोगी के भले के लिए है, चिकित्सक का स्वार्थ उसमें नहीं है। और लाइलाज रोग का रोगी अगर दर्द से तड़प रहा हो, तो उसे मारक मुक्ति देने में भी हिंसा नहीं है, यद्यपि उसकी जान ले ली गयी होगी। यहाँ फिर हिंसा एक सामाजिक कर्तव्य के रूप में आती है। रहा उपयोगिता का प्रश्न-सो मैंने जो उदाहरण दिये हैं, उनमें उसकी उपयोगिता ही उसका प्रमाण है-हाँ, यह ध्यान रखना कि व्यक्तित्व स्वार्थ नहीं, सामाजिक उपयोगिता ही उसका प्रमाण हो सकती है।”

“तुम्हें यह भेद करते देखकर सन्देह होता है। क्या सचमुच सामाजिक होने से हिंसा क्षम्य हो जाती है? एक समाज-दूसरे-समाज पर अत्याचार कर सकता है?”

“मेरी बात को गलत मत समझो। सामाजिक से मेरा मतलब किसी एक समाज का नहीं है। मेरा मतलब उस सारे संगठन से है, जिसका एक अंग हम-मानवमात्र हैं। इस दृष्टि से जहाँ हत्या अहिंसा हो सकती है, वहाँ राह चलते, गेहूँ की एक बाल तोड़कर फेंक देना हिंसा होगी, क्योंकि वह कर्म उस विश्व-समाज का कोई हित नहीं करता, उलटे थोड़े-से हित की सम्भावना को नष्ट कर देता है।”

शेखर ने अब भी सन्दिग्ध स्वर से कहा, “अच्छा, उसे जाने दो। जहाँ से बात शुरू हुई थी, वहीं लौटें। तुमने जो उस सी.आई.डी. वाले को मारा, उससे क्या लाभ हुआ या हो सकता है?”

“एक तो मैंने बताया-अपने आत्मसम्मान की रक्षा जरूरी थी, और उसे पीटे बिना वह असम्भव था। अगर तुम इसे बहुत काल्पनिक लाभ समझते हो, तो दूसरा यह कि इससे और सी.आई.डी. वालों को सबक मिलेगा कि किसी का अपमान करना हँसी-खेल नहीं है।”

शेखर ने मुस्कराकर कहा, “यही सबक तो वह तुम्हें सिखाने चला है।”

“हाँ, पर ऐसा सबक हर एक सी.आई.डी. वाला हमेशा हर एक को नहीं सिखा सकता। एक मुकदमा करने में सरकार के कई हजार रुपये लगते हैं। अगर सौ ऐसी घटनाएँ हो जाएँ, तो सरकार को कुछ दूसरा इलाज सोचना पड़ेगा।”

“दूसरे शब्दों में तुम यह चाहते हो कि सरकार के दिल में डर बैठा दिया जाये कि ये लोग सम्मान के पात्र हैं। अगर मैं गलती नहीं करता-मेरा इधर का ज्ञान कम है तो यह उन लोगों की दलील है, जो आतंकवादी कहलाते हैं।”

“ऊँ-हाँ। और इतना अन्याय किसी के साथ नहीं होता जितना उनके। सबसे पहले तो उन्हें आतंकवादी कहना ही अन्याय है, यद्यपि आतंक को वे अपने कार्यक्रम से बाहर नहीं निकालते। आजकल के जमाने में जिस आदमी की राजनैतिक दर्शन आतंकवाद तक जाकर समाप्त हो जाता है, वह मानसिक विकास की दृष्टि से सात साल का बच्चा है। साफ बात यह है कि उसमें इतना नैतिक बल ही नहीं हो सकता, जितना कई आतंकवादी कहलानेवालों में सब लोग मानते हैं।”

“तुम तो ऐसे सफ़ाई दे रहे हो, जैसे स्वयं आतंकवादी होओ!” विद्याभूषण को सिर हिलाता देखकर शेखर फिर बोला, “पर मुझे यह दीखता है, यह सब ग़लत है। हिंसा से कभी कुछ नहीं हो सकता। वह नकारात्मक है। वह निरा संहार है, उससे सृजन नहीं हो सकता। यह नश्तरवाली ही बात लो, रोग का इलाज तो चिकित्सा है, स्वस्थ तो वही करती है। नश्तर नगण्य चीज है, स्वास्थ्य-लाभ तो बाद की महीनों लम्बी शुश्रूषा से होता है। इसी तरह परिस्थितियों का सुधार स्वाभाविक विकास द्वारा ही होगा।”

“यों ही सही। नश्तर नगण्य ही सही, अप्रधान ही सही, पर अनिवार्य तो है न समाज के लिए की गयी हिंसा के बाद भी सामाजिक चिकित्सा होती है चाहो तो मुख्य बीज उसी को समझ लो। उससे पहली आवश्यकता नहीं मिट जाती।”

शेखर को एक और बड़ा कौर मिल गया था इसे काफ़ी चबाने की जरूरत थी। तसल्ली उसे नहीं हुई थी। उसे लगता था, तर्क में कहीं कुछ त्रुटि अवश्य है। आपद्धर्म-एक अनिवार्य बुराई-इस तरह की बातें उसने पहले सुनी थीं-विश्वामित्र की कुत्ते का मांस खाने की बात उसने बहुत पहले सुन रखी थी-पर उसे लगता था, वह आदर्श की कोई कमजोरी है, जिसे हम हेतुवाद द्वारा छिपा लेना चाहते हैं। हिंसा-कर्म को तात्क्षणिक भी मानना सब कुछ मान लेना है, हिंसा को स्वीकार कर लेना है। अगर हत्या द्वारा मानवता अपनी रक्षा कर भी लेती है, तो अन्ततः वह एक पाप-कर्म की आड़ में ही जीती है। प्रश्न सीधा है-हिंसा उचित है या नहीं है, या तो वह पूर्णतया अनुमोदित हो सकती है या पूर्णतया वर्जित। किन्तु दोनों ही अवस्थाओं में आगे का मार्ग नहीं दीखता...

शेखर के बड़े भाई ईश्वरदत्त के साथ शशि उससे मिलने आयी।

शेखर ने इच्छा की थी, पर आशा नहीं। वह नहीं जानता था कि आशा करने का कोई कारण हो सकता है। नहीं...शशि वहीं शहर में होती, तब तो आशा होती, पर दूर गाँव से, और अकेली...

पर वह आ गयी। शेखर का अन्तर इतना भर उठा कि वह उससे बात भी न कर सका, और भेंट का समय समाप्त हो चला...वह ईश्वरदत्त से बात करते-करते बीच में क्षण भर स्थिर होकर उसकी ओर देख लेता, और फिर भाई से बात करने लगता...

जब बिलकुल ही समय आ गया, तब अन्त में शशि ने पूछा, “शेखर, क्या तुम सचमुच शामिल थे?”

शेखर ने भेदक दृष्टि से उसकी ओर देखा। वह जानना चाहता था कि उसके मन में क्या है डर, चिन्ता, प्रशंसा-क्या...कुछ नहीं दीखा। उसने सरल गाम्भीर्य से कहा, “नहीं।”

शशि कुछ बोली नहीं। शेखर को लगा, मानो और कोई जिज्ञासा या माँग शशि को नहीं है; उसे विस्मय हुआ इसीलिए अपने भावों के तूफान से कुछ अलग होकर उसने पूछा, “क्यों, शशि? तुम्हें तसल्ली हुई क्या?”

“कैसी तसल्ली?”

“कि मैं निर्दोष हूँ?”

“ऊँ-हाँ, कुछ तो हुई ही-”

“क्यों, अगर मैं अपराधी होता तो?”

“तब भी तसल्ली होती, मैं जानना चाहती थी। तुम्हारी बात जान लेने ही से मुझे सन्तोष हो जाता है, डर नहीं होता।”

कितना चाहता था शेखर यह पूछ उठना, “क्यों शशि, इतना विश्वास है तुम्हारा मुझमें...” पर भाई की उपस्थिति ने उसे साहस नहीं दिया। एकान्त में भी वह इतना निजी प्रश्न उससे उस समय पूछ सकता, वह नहीं जानता, पर शशि ने मानो वह अव्यक्त जिज्ञासा पढ़ ली; तभी तो चलते-चलते उसने शेखर को ओर स्थिर आँखों से देखकर कहा, “वीर कभी अपराधी नहीं होते...” और बढ़ गयी-शेखर ने उसकी आँखों की वत्सलता से रोमांचित होकर मन-ही-मन उस आदिम बहन को प्रणाम किया, जिसने पहले पहल भाई के लिए ‘वीर’ शब्द का आविष्कार किया था...कितना महत्त्व था जेल में वात्सल्य का!-प्रेम-प्रेम अन्ततः एक वासना है और वासना की तो क्रीड़ास्थली ही है जेल; पर वात्सल्य...

मुकदमा अत्यन्त नीरस हो गया था। आज के बाद कल, कल के बाद परसों-नित्य वही कहानी नये-नये गवाहों के मुख से नये-नये रूप में सुनना, एक ही सत्य को उलटाकर दिखाने के लिए वकीलो के दाँव-पेंच और कलाबाज़ियाँ...एक दिन ऊब-ऊबकर ही अन्त में शेखर ने अपने लिए मनोरंजन की सामग्री पैदा कर ली थी, उसने वकील की दलीलों की विडम्बना लिखकर पहले अपने मित्रों को दिखायी थी और फिर लिफ़ाफ़े में बन्द करके हाकिम के आगे रख दी। उस समय मजिस्ट्रेट साहब वकील की बातें सुन रहे थे, उन्होंने लापरवाही से पूछा था, “क्या है, दरखास्त?” और सुनते रहे थे। पर दुपहर की छुट्टी के बाद जब इजलास फिर बैठा, तब उन्होंने एक तीव्र दृष्टि से शेखर की ओर देखा था, जिसमें थोड़ी-सी दया-सी थी, थोड़ी-सी खीझ; और उनके दबाकर प्रभावोत्पादक बनाए गये ओठों पर एक हल्की-सी मुस्कराहट खेल गयी थी...शेखर निश्चय से नहीं कह सका कि उनके मनोभाव वह समझ गया है, पर अपनी दलीलें याद करके वह भी मुस्करा दिया था...”जनाब, गवाह कहता है अमुक चीज़ ऊपर थी, अमुक नीचे, अमुक दाईं ओर...लेकिन अगर हम सिर के बल खड़े होकर देखें-और स्पष्ट है कि वैसे देखे बिना न्याय की रक्षा नहीं हो सकेगी, तब जो ऊपर बताया गया, वह वास्तव में नीचे होगा, और जो दाएँ बताया गया है, वह निर्विवाद रूप में बाईं ओर...ऐसा विकृत और झूठा बयान देनेवाला गवाह बिगड़ा हुआ ही हो सकता है; आपसे निवेदन है कि उसके बयान को महत्त्व न दिया जाए और हमें अनुमति दी जाए कि हमीं जिरह कर सकें...”

लेकिन इस तरह की बात नित्य नहीं हो सकती थी, और अदालत में बैठे-बैठे प्रायः शेखर पाता कि उसका ध्यान शशि की ओर चला गया है। वह उसके कहे हुए एक-एक शब्द को याद किया करता और मानो मन का प्रकाश उन पर केन्द्रित करके उनका चित्र लिया करता; फिर विस्मय से सोचा करता कि क्यों यह लड़की उसके भीतर इतना महत्त्व पाती जा रही है...वह उसकी बहन लगती थी अवश्य, पर शेखर की बड़ी बहन सरस्वती की तरह वह क्यों नहीं थी? सरस्वती को भी शेखर पर बड़ा स्नेह रहा था-अब भी था, यद्यपि अब शादी हो जाने के बाद दो-तीन बच्चो की माँ हो जाने के बाद वह उसके लिए कुछ दूर की वस्तु हो गयी थी-और सरस्वती से भी शेखर ने बराबर का सहज विश्वासी बन्धुत्व पाया था, पर...वह नहीं जानता कि वह उस भेद को कैसे कहे, और जब कह नहीं सकता तो कैसे अपने को समझाए...शशि को जैसे वह उस सहज स्वीकृति में नहीं ला सकता था, जिसमें सरस्वती को उसने पाया था-सरस्वती तो ‘थी’ ही। शेखर ने होश सम्भालने के समय से ही उसको अपने आसपास देखा था-पर शशि मानो उसकी अपनी खोज का परिणाम थी, असंख्य प्राणियों के उस उलझे संसार में से उसने उस एक को खोज निकाला था, अपने स्नेह के दायरे में बिठाने के लिए; वह बहिन, यानी अपनी होकर भी नयी, कुछ अपरिचित, कुछ आयास-सिद्धि थी...जैसे उसे अपनाने के लिए हमेशा सतर्क रहना पड़ता था...नहीं, यह बात नहीं थी-वह नहीं समझ सकता था कि क्या बात थी...

शशि फिर मिलने आयी थी। इस बार शेखर ने अपने में बात करने का साहस पाया था, और उसे जेल की कई-एक बातें सुनाई थीं। वह चुपचाप सुनती गयी थी, उसकी विस्फारित आँखें शेखर पर टिकी थीं...बहुत देर वह शेखर ने एकाएक जाना कि आँखें वहीं स्थिर होने पर भी उनके पीछे नहीं हैं; जैसे शशि उसकी अर्थहीन बातें सुनती हुई उसे कुछ कह रही है।

“क्यों-कुछ कहना है?”

शशि चौंकी नहीं, मुस्करा दी।

“जिन लोगों ने उस सी.आई.डी. वाले को मारा था, उन्हें तुम जानते हो?”

“हाँ, क्यों?”

“सब पकड़े गये?”

“नहीं, अधिकांश बाहर हैं।”

“अच्छा? और तुम्हारे अलावा बाकी सब थे?”

“हाँ, थे ही, यद्यपि-पर खैर वे कानूनी बातें हैं।”

“तो, तुम पकड़े कैसे गये?”

शेखर ने संक्षेप में बता दिया था कि घटनास्थल पर ड्यूटी दे रहे होने के कारण वह फँसा लिया गया है।

“तुम ड्यूटी देते थे-क्यों?”

शेखर ने परिस्थिति समझा दी।

शशि कुछ देर तक चुप रही। फिर बोली, “तुम सन्तुष्ट हो?”

शेखर ने परिस्थति समझा दी।

शशि कुछ देर तक चुप रही। फिर बोली, “तुम सन्तुष्ट हो?”

शेखर ने उससे आँख मिलाकर कहा, “मैं सुखी हूँ। कॉलेज आते समय तुमने जो बात कही थी, वह मैं भुला नहीं सका।”

शशि ने कुछ विस्मय से कहा, “मैंने? क्या कहा था-मुझे तो याद नहीं।”

“अच्छा है। श्रेष्ठ दान दे, तो भूल ही जाना चाहिए। शशि-”

शशि की आँखों में जो प्रश्न था, वह धीरे-धीरे मिट गया। उसकी मुद्रा देखकर शेखर को भी न जाने कैसा लगा-जैसे दूर के भाई-बहन होकर भी एक ही धमनी का रक्त दोनों में प्रवाहित हो रहा है, और उस सम्पूर्ण ज्ञानैक्य में कथोपकथन को स्थान नहीं है...क्या ऐसा ही भाव शशि के मन में था? वह कैसे जाने?

शशि जाने लगी तो उसने पूछा, “पर तुमने बताया नहीं-”

“क्या?”

“तुम कुछ बताना चाह रही थीं न-मुझे दीख गया।”

शशि की मुस्कराहट में वेदना थी। उसने रुकते-रुकते कहा, “हाँ, चाहती थी। पर कह नहीं सकती-यहाँ नहीं। और लिख भी नहीं सकती-मैं नहीं चाहती कि ऐसी बेहूदा चिट्ठी लिखूँ, जो जेलवालों को पढ़ने दी जा सके।”

“मैंने भी एक लिखकर फाड़ डाली थी। तब?”

“देखो-” कहकर वह चली गयी। यदि वह जानती कि जेल में किसी का मन उकसाकर उसे अतुष्ट छोड़ जाना क्या होता है, तो...

उस रात शेखर ने वह किया जो, जेल के अन्य कैदियों को करते सुनकर वह झुँझलाहट से दाँत पीसकर रह जाता था-बन्द होने के कुछ समय बाद जब गिनती हो चुकी और ताले ठोंके-बजाए जा चुके और “सब-अच्छा-आ-आ” की पुकार उस ‘सब-बुराई’ के रौरव की विडम्बना कर चुकी और कुछ शान्ति हुई, तब उसने दोनों हाथों से कोठरी के द्वार के दो सींखचे पकड़े और अपने तन के समूचे जोर से उसे झकझोरने लगा...उसका शरीर झनझना उठा, दाँत जैसे रेत की रड़कन से किचकिचा उठे; ताला, सीखचे, चौखट सब खड़क उठे और सहानुभूति में बाहर आँगन के पार का लोहे के पत्तर का किवाड़ भी क्रुद्ध फुँफकार-सी कर उठा...उसके तने हुए शरीर के हिलाने से उसकी ऐन्द्रिक अनुभूति ने मानो पृथ्वी के ही कम्पन का रूप ले लिया, वह असह्य कर्कश कोलाहल मानो किसी संहारक शक्ति के तांडव-सा गूँज उठा...वह उसे सह नहीं सकता था-सह नहीं सकता था इसलिए और भी ज़ोर से फ़ाटक को झकझोरता था...मैं इस बन्धन को तोड़ना चाहता हूँ, मुक्त होना चाहता हूँ, क्योंकि किसी को मुझे कुछ कहना है और वह जानना मेरे लिए आवश्यक है, सुख से अधिक आवश्यक, शान्ति से अधिक आवश्य, जीवन से अधिक आवश्यक, मेरे बल से, पुरुषार्थ से भी अधिक आवश्यक...विवश, विवश, विवश, मूर्ख क्रोध...व्यर्थ, व्यर्थ, उद्भ्रान्त अहंकार...

उसकी विवश उद्भ्रान्ति ने ही अन्त में सान्त्वना दी-पसीने से तर, थकान से लड़खड़ाता, दूसरे कैदियों की अवमानना के लिए लज्जा से डूबा हुआ वह खड्डी पर जा गिरा और निस्पन्द, निरश्रु आँखों से छत की ओर देखा किया...

उसे कुछ कहना है, मैं जानना चाहता हूँ, मैं जानना चाहता हूँ, मैं...

एकाएक वह तड़पकर औंधा हो गया, एक आँधी-सी उसके तन को हिला गयी, आधे घंटे बाद खजूर की चटाई के नीचे से ताज़े कीचड़ की बू ने ही उसे बताया कि वह अभी तक अवश सिसकता जा रहा है...

एक निर्बुद्धि कुहासा शेखर के मन पर छा गया-जड़ मनहूसियत का एक पर्दा-सा। उस रात उस तरह रोने के बाद से ही जो घनीभूत कुछ उसे दबाए जा रहा था, उसे किसी तरह भी वह उतारकर न फेंका सका।

धीरे-धीरे एक डर-सा उसे लगने लगा-क्या मैं हार रहा हूँ? क्या जेल का जीवन मुझे तोड़ रहा है? क्या मैं कायर हूँ?...जैसे किसी भीतरी घाव में कंकड़ चुभे, ऐसे ही यह संशय उसके भीतर चुभता था...नीं तो मैं क्यों ऐसे बेबस होकर रोया? जो समर्थ है, जो वीर है, वे क्या रोते हैं? ऐसे कोठरी में अकेले बन्द पकड़कर भेड़ की तरह मिमियाते हैं?

उसने कहीं पढ़ा था, जो रो नहीं सकता, वह अवश्य विश्वासघात करता है, रो सकना अपने प्रति-अपने हृदय के प्रति-सच्चे रहने का लक्षण है...शायद वह ठीक है...पर यह-यह और चीज है; यह तो निरी निपट निर्बल बेबसी है...

किन्तु रोने के बाद उसे क्यों लगा था कि वह हल्का है, साफ़ है, और हाँ समर्थ भी है...हारने में तो ऐसा नहीं होता; हार में तो प्रत्येक बार आदमी अपने को कुछ अधिक निर्बल, कुछ पतित अनुभव करता है...क्या वह पतित हो गया है-हो रहा है?

उसका आहत व्यक्तित्व इस प्रश्न पर विद्रोह से चीत्कार उठा; पर निर्दय परीक्षक की तरह वह पूछता ही जाता, क्यों, अगर झूठ है तो तुम्हें चुभता क्यों है? बोलो, बताओ, क्या तुम अपराधी हो, पतित हो?

अगर उसे ज़रा भी सन्देह होता कि जेलवालों ने उसका यह रूप देखकर उसे ‘पराजित’ समझकर ही कुछ अधिक स्वाधीनता दी है, तो वह उसे लेने से इनकार कर देता। अब उसे कहकर तो कुछ नहीं दिया गया था, किन्तु टहलते समय वह अपनी कोठरियों की कतार से आगे बढ़कर दूसरी कतार-‘भारतवर्ष’-तक चला जाता तो वार्डर उसे रोकता नहीं था और प्रायः कैदियों से बात भी कर लेने देता था।

ऐसे ही एक दिन शेखर एक कोठरी के बाहर के आँगन में घुसा, तो वार्डर ने कहा, “बाबूजी, दारोगा साहब हमारी जान को आ जाएँगे-” पर उसके स्वर से ही शेखर ने जान लिया कि दारोगा की ओर से कोई मनाही नहीं है, वार्डर स्वयं ही उसे उस विशेष कोठरी में जाने से रोकना चाहता है। वह कैदी अवश्य ही कोई खास आदमी होगा। वह वार्डर की उपेक्षा करके भीतर घुस गया।

“आप शायद कुछ ही दिन से यहाँ हैं?”

प्रश्न की आत्मीयता और उसकी ध्वनि की सहज प्रसन्नता से शेखर ने चौंककर देखा। सींखचों से सटा हुआ एक वृद्ध चेहरा, ऊपर शुभ्र जटा और नीचे धवल दाढ़ी से आवृत्त एक निर्मल मुस्कान से उसका स्वागत कर रहा था। मानो हिमशृंग पर धूप खिल आयी हो...

शेखर ने विस्मय से कहा, “आपने कैसे जाना?”

“आपके चेहरे पर दीखता है। नया चेहरा हमेशा प्रश्नों से भरा हुआ होता है-वह जानना चाहता है। पुराने पापी तो ताक में रहते हैं कि कोई सुननेवाला मिले। जीवन समाप्त होने पर एक ही बात तो बची रहती है-उसकी कहानी!”

शेखर ने नये विस्मय से भरकर पूछा-”आप कौन है?” इस व्यक्ति के आगे शिष्टाचार मानो स्वयं झर जाता था-प्रश्न या तो सीधा-सीधा पूछा जा सकता था, या नहीं-ही पूछा जा सकता था।

“मेरा नाम मदनसिंह है। सन् 19 में पकड़ा गया था। तब से जेल में हूँ।”

इक्कीस वर्ष जेल में रहकर यह आदमी ऐसे हँस सकता है? शेखर को लगा कि वह कुछ छोटा हो गया है, या उसके सामने वाला व्यक्ति कुछ ऊँचा उठ गया है।

“मैं तो अभी आया हूँ, यह आपने जान ही लिया। कॉलेज में पढ़ता था, वहाँ से यहाँ पहुँच गया।”

“कौन-सी श्रेणी में?”

“एम.ए. में। पिछले साल बी.ए. पास किया था।”

“भाग्यवान हैं आप! मैं तो बिलकुल अनपढ़ था जब आ गया-यहीं मैंने पढ़ना-लिखना सीखा, और यहीं रो-रोककर उन बड़ी बातों को जानने की कोशिश की है, जिनके बिना कोई जी नहीं सकता। और आप-आप विद्या लेकर आये हैं। आपके सामने भारी दुर्ग है, लेकिन, उसकी चाभी आपके पास है।”

शेखर कुछ सोचता हुआ-सा बोला, “पता नहीं-मैं तो अपने को बहुत छोटा अनुभव करता हूँ।”

“है भी मनुष्य कितना छोटा! पर आप मेरी बात मानें-न-मानें, है वह ठीक। मैंने अपने लिए चाभी स्वयं अपने कष्ट से बनाई थी। आपने सुना है न गरीब की साँस वह धौंकनी होती है, जो लोहा गला दे? उसी से मैंने काम लिया...” एक मधुर हँसी फिर कोठरी में गूँज गयी।

शेखर के मुख पर स्पष्ट अविश्वास का भाव दीख गया। कोशिश करने पर भी वह उसे नहीं छिपा सका।

“हाँ, मैं समझ रहा हूँ-आप सोच रहे हैं, यह आदमी बन रहा है। लेकिन सच मानिए, जहाँ मेरी बुद्धि रह गयी, वहाँ आँसुओं के ज़ोर से, हाँ, आँसुओं के जोर से मैं जिया-” एकाएक कोठरी के भीतर की ओर घूमकर उन्होंने कहा, “वह देखिए, मेरे पास सबूत भी है। यह आप पढ़ सकते हैं?”

सामने की दीवार पर जहाँ मदनसिंह ने उँगली रखी थी, कुछ कठिनाई से शेखर ने लिखा कुछ वाक्य पढ़ा-‘दासता क्या है? अप्रिय तथ्य का ज्ञान नहीं, असत्य का ज्ञान भी नहीं; दासता है सत्य या असत्य की जिज्ञासा को शान्त करने में असमर्थ होना; वह बन्धन, वह मनाही, जिसके कारण हमारा ज्ञान माँगने का अधिकार छिन जाता है।’

“और यह देखिए।”

शेखर ने परिश्रम से पढ़ा-‘हमारी सभ्यता मानव की शैशवावस्था को बढ़ाने का अनन्त प्रयास है। वह चाहती है सुरक्षा पुरुषत्व माँगता है साहस!’

“और इधर अँधेरे में है, आप कहें तो सुना सकता हूँ। पर आप शायद अब जाएँगे। खैर, काम की बात यह कि इनमें एक-एक नुस्खा पाने के लिए मैं घंटों रोया हूँ। मुझे दीखता है कि शान्त बैठे रहना तपस्या नहीं है, शान्त न बैठ सकने से ही तपस्या शुरू होती है।” एकाएक उनका चेहरा फिर खिल गया। “देखिए, विद्यावान के निकट आने से ही मैंने बिना रोये यह बड़ी बात जान ली।”

शेखर झेंपा-सा चुप रह गया। मदनसिंह कहते गये “ऐसे सौ-एक सूत्र लिखे पड़े हैं। यह तीन साल का काम है-तब कोठरी में सफ़ेदी हुई थी। उससे पहले, के मिट गये-एक आध शायद दीख सके-” वे एक कोने की ओर झुके, “हाँ, यह देखिए, क्रान्ति का प्रमाण यह है कि उसके लिए चारित्र्य आवश्यक है।”

सीधे होकर उन्होंने शेखर की ओर देखा, वह कुछ कहने को उतावला हो रहा था। “आप कहेंगे कि यह सब मैं किताबों में पढ़ चुका हूँ? आपके पास विद्या की चाभी थी-मैं तो अभी सीख रहा हूँ।”

शिष्टाचार इस आदमी के आस-पास कहीं नहीं फटका था-उसकी विनम्रता भीतर के किसी झरने से फूटी पड़ती थी। अपने को और भी तुच्छ अनुभव करते हुए शेखर ने कहा, “आपको तीन साल इसी कोठरी में हो गये?”

“तीन? मैं तो नौ साल से इसमें हूँ। लेकिन आपने उस पठान की कहानी सुनी है न, जो जेल में तीस साल काटकर अपनी आयु अट्ठाईस बताता था।” शेखर का सिर हिलता देखकर-”जब वह जेल से लौटा तो किसी ने पूछा, ‘खान, तुम्हारी उम्र कितनी है?’ बोला ‘अट्ठाईस’। पूछनेवाले ने फिर कहा ‘जेल में कितनी देर रहे?’ तो जवाब दिया ‘पता नहीं’। जेल गये तब कितनी थी? बोला, ‘अट्ठाईस!’ पूछनेवाले ने जब उसके गणित पर आपत्ति की तो बोला, ‘जेल क्यों जोड़ते हो? उन दिनों तो कुछ हुआ ही नहीं, तो उम्र कैसे बीत गयी?’ वही हाल मेरा है। पर बाल तो पक ही जाते हैं-” एक हल्की-सी उदासी उनकी आँखों में दौड़ गयी।

शेखर के भीतर तीव्र कामना जागी कि वह इस धवल-जूट शिशु को हाथ जोड़कर अभिवादन करे...किन्तु किसी मिथ्या अहंकार ने कहा-‘नहीं, यह नहीं करना होगा-’ उसने सोचा, विदा लेकर चले।

“आप ऊब तो नहीं गये-फिर आएँगे न? मैंने कहा था खूसट बुड्ढे सुनाना ही चाहते हैं, कोई मिल जाये सही सुननेवाला!” मदनसिंह फिर मुस्करा दिए।

शेखर का आन्तरिक तनाव मानो दूर हो गया। उसने हँसकर कहा-”और मैं तो जिज्ञासु हूँ ही!” फिर एकाएक गम्भीर स्वर में उसने कहा, “आपकी बातों से अभी ही कई प्रश्नों का उत्तर मुझे मिल गया, जिन्हें पूछने का साहस मुझमें नहीं था। मालूम होता है कि अहंकार स्वाभाविक होता है, विनय सीखनी ही पड़ती है।”

“सूत्र बोलने का रोग आपको भी लगा क्या? जेल में बातचीत ही अस्वाभाविक हो जाती है।”

आँगन के फाटक तक पहुँचकर एकाएक शेखर ने अपना सारा साहस बटोरकर लौटकर कहा, “पिछले हफ्ते मैं भी खूब रोया था-” और तब एकाएक कृतज्ञता और लज्जा से भरकर जल्दी-जल्दी अपनी कोठरी की ओर बढ़ गया...

फिर एक दिन घूमता हुआ वह ‘भारतवर्ष’ वाली कतार की परली सीमा तक चला गया था। आखिरी चार कोठरियों में शायद फाँसी के कैदी थे-उनके आँगनेवाले पत्तर के फाटक बन्द थे और भीतर सन्तरी बन्दूक लिए पहरा दे रहा था। शेखर लौट पड़ा।

कुछ-एक कोठरियाँ लाँघकर वह सोच ही रहा था कि किसी कैदी से बात करे, कि एकाएक पुकार आयी, “ओ मौलवी!”

शेखर कल्पना नहीं कर सकता था कि यह पुकार उसके लिए थी, पर उसके साथ का वार्डर सिख था, और पुकार फिर आयी, “बात तो सुन जा, ओ मौलवी!”

शेखर ने आँगन में खड़े होकर पूछा, “मुझे पुकार रहे थे क्या?”

“हाँ, और किसे। मौलवी तो बने हुए हो, कितने दिन से हजामत नहीं बनायी है। उस्तरा नहीं है क्या?”

“है तो, पर यहाँ कौन देखता है, यों ही नहीं बनायी।”

“अरे भले आदमी, कोई नहीं देखता तो क्या अपने भी नहीं चुभती? और खुद तो बाहर जाने लायक बने ही रहना चाहिए-फिर कोई छोड़े, न छोड़े, बला से!” वह अपने बड़े-बड़े पर सुघड़ और उज्ज्वल दाँत निकालकर हँस पड़ा।

शेखर तय नहीं कर सका कि इस सहज परिचय का सामना किस तरह करे। अगर यह आत्मविश्वास से उत्पन्न हुआ है, तब तो इसका सम्मान करना चाहिए, अगर ओझेपन से तो-

“न हो तो एक पत्र मुझे ही भेज देना। मुझे तो हर समय रिहाई के लिए तैयार रहना अच्छा लगता है।”

शेखर ने हँसकर कहा, “अच्छा, कल ला दूँगा।”

“तुम उन्हीं नये पॉलिटिकलों में से हो न, जो सी.आई.डी. वाले को पीटने जुर्म में आए हैं?”

“हाँ।”

“ठीक। अच्छा, मैं तुम्हें मौलवी कहा करूँ न?”

“तुम्हारी मर्ज़ी है।”

“मौलवी होते तो मक्कार हैं, पर मेरा मौलवी हिन्दू होगा तो निभ जाएगी।”

शेखर चुप रहा।

“और सुनो, मुझे यहाँ अकेला-अकेला लगता है। शाम को अच्छा नहीं लगता। तुम कौन-सी कोठरी में हो?”

“परली कतार में-बारहवीं में।”

“अरे इतनी दूर। खैर। मैं शाम को तुम्हें गाना सुनाया करूँगा। गाना बुरा तो नहीं लगता?”

“गाना हो, तब तो बुरा नहीं लगता।”

वह ठठाकर हँसा। “यह तो तुम जानना कि गाना है या नहीं, मैं तो गा दूँगा। अच्छा, अब जाओ।”

शेखर चलने लगा।

“मेरा नाम है मोहसिन-मुहम्मद मोहसिन। पर तुम मुझे क्या पुकारोगे?”

शेखर ने शरारत से कहा, “पंडित।”

“वाह-वा! ठीक है। तब मैं हजामत करके तिलक भी लगाया करूँगा।”

लौटते हुए शेखर को वार्डर ने बताया कि यह लड़का मोहसिन अजब लफँगा है-हर किसी को तुम करके बुलाता है-दारोग़ा और साहब को भी-और हर वक्त ठट्ठा करता रहता है। लावारिस है, बाप-माँ, भाई-बन्द कोई नहीं है, तभी ऐसा उलंग हो गया है। एक मौलवी ने पाल रखा था और पढ़ाया था, पर पीछे स्कूल में बिगड़ गया, और बग़ावत फैलाने के जुर्म में एक साल की सज़ा पाकर आया है। पाँच महीने काटे हैं। हरदम, हरवक्त शरारत ही उसे सूझती है, और बराबर सजाएँ पाता रहता है-आजकल भी रात को हथकड़ी लगती है।

“रात को हथकड़ी?”

वार्डर ने बताया कि जेल के दंड-विधान में यह भी एक सज़ा है। शाम को बन्द करते समय कैदी के हथकड़ी लगा दी जाती है, सवेरे खोली जाती है जब मशक्कत का वक्त होता है। बदमाश हो तो उलटी भी लगाते हैं-पीठ के पीछे। तब रात भर औंधा पड़े रहना पड़ता है। “पर, बाबूजी, यह लड़का अजीब बेशरम है कि पिछले पन्द्रह दिन से उलटी हथकड़ी भी लग रही है, पर शरारत से बाज नहीं आता।”

“क्या करता हूँ?”

“एक तो मशक्कत नहीं करता। कहता है, मैंने बग़ावत फैलाई, तुमने जेल में डाल दिया। अब मशक्कत क्यों करूँ? तुम मेरे लिए चक्की पीसो, तब मैं भी बादशाह के लिए पीस लूँगा। दूसरे जो मशक्कत दें, फेंक देता है। चक्की पीसने को दी गयी थी, सब कबूतरों को चुगा दी। पूछने पर बोला, कबूतर मेरे भाई हैं, मुझे खुश रखते हैं! साहब ने बेड़ियाँ डलवा दीं तो बेड़ियों से चक्की उखाड़ डाली, ईंटों से एक बड़ा-सा थाला बनाकर उसमें मिट्टी भर दी और पानी डाल दिया। फिर पेशी हुई तो कहने लगा कि खेती करूँगा-उसमें मक्की बोई है! लड़का क्या है, शैतान की औलाद है!”

शेखर का कौतूहल जाग गया था। उसने मोहसिन से फिर मिलने की ठानी, और कोठरी में चला गया।

शाम को वह बैठा न जाने क्या सोच रहा था कि दूर कहीं कोठरी का ‘जंगला’ खड़कने की आवाज़ उसने सुनी। उसका शरीर तन गया-उसे वह अवस्था याद आयी जब उसने भी आवाज सुनी। उसका शरीर तन गया-उसे वह अवस्था याद आयी जब उसने भी सींखचे पकड़कर झकझोरे थे...उसका हृदय संवेदना से भर आया-इस समय कोई वैसी ही अवस्था में से बीत रहा है, जिसमें से वह निकला था...वह कान देकर सुनने लगा। एकाएक वह कोलाहल बन्द हो गया, और शेखर ने सुना, जैसे कोई पुकार रहा है-

क्या उसने ठीक सुना था? पुकार फिर आयी-हाँ, मोहसिन पुकार रहा था-उसने भी दोनों फेफड़े वायु से भरकर, मुँह उठारकर, स्वर को घना करने के लिए हाथों की आड़ देकर बचपन में सुनी हुई किसानों की पुकार की नकल करते हुए पुकारा-”पंडित हो-ओ!”

इस बार मोहसिन ने सुना। “गाना सुनाऊँ!”

“हाँ, सुनाओ।”

“क्या करते थे?”

“बैठा था।”

“अच्छा सुनो।”

शेखर ने कल्पना से ही अट्ठाईस कोठरियों की दूरी नापी और वहाँ ध्यान केन्द्रित किया। कहते हैं कि इन्द्रियाँ अपना काम अलग-अलग करती हैं; शेखर ने जैसे पाँचों-छहों इन्द्रियों की घनीभूत ग्रहण-शक्ति से मोहसिन का गाना सुना-

“ ... ... ... ... ... आया तो क्या

... ... ... ... ... ... ... “

मोहसिन का गला अच्छा था। स्वर में तीव्रता भी थी और घनत्व भी। इतना अधिक चिल्लाने से उसमें कभी-कभी कर्कशता आ जाती थी-वह फट-सा जाता था-पर फिर भी उसक स्वाभाविक तरंगित कम्पन श्रोता में भी एक सिहरन पैदा करता था-जैसे उसमें चुपचाप सही हुई यातना धक्-धक्-स्पन्दन गूँज रहा था...

“मिट गयीं जब सब उम्मीदें मिट गये सारे ख़याल-

उस घड़ी फिर नामाबर लेकर पयाम आया तो क्या?”

गीत बन्द हो गया। शेखर का तनाव कुछ ढीला हुआ-

“है गाना?”

“है। बड़ा अच्छा है।”

“और सुनाऊँ?”

“थक नहीं गये?”

“गाते नहीं थकता मैं!”

“अच्छा, सुनाओ।”

मोहसिन फिर गाने लगा। किन्तु दो-तीन कड़ियाँ गा लेने के बाद उसका स्वर कुछ मन्द पड़ने लगा, और क्रमशः उसे सुनना असम्भव हो गया। शेखर ने नहीं चाहा कि उसे सूचित करे-वह उस पागल साहसिक के प्रति झुँझलाहट, प्रशंसा और कृतज्ञता से भर रहा था...

दस-एक मिनट के बाद फिर पुकार आयी, “मौलवी ओ-ए!”

“पंडित हो!”

“अब सो जाओ! कल और सुनाऊँगा।”

“अच्छा।”

नीरवता। शेखर को याद आया, अभी अभियुक्त होने के कारण उसके पास लालटेन है, वह पढ़ता रहेगा, फिर सो जाएगा। पर मोहसिन कैदी है, उसके पास प्रकाश नहीं है, है घनी रात। शेखर ने बत्ती नीची कर दी, उठकर कोठरी के द्वार पर जाकर जँगले पकड़कर बाहर अँधेरे आकाश की ओर देखता खड़ा रहा।

ऊपर बादल घिरे थे, अकाल मेघ-अर्थहीन और बेढंगे...

जेल में इस समय चौदह सौ बन्दी होंगे-और कम-से-कम सात सौ के पास प्रकाश नहीं होगा, और नींद का विस्मृति-जनक अन्धकार भी नहीं होगा...

नीरवता-सन्तरियों की पदचाप से, नम्बरदारों की ‘सब अच्छा!’ से और दूर कहीं उल्लूओं के ‘हू-हू’ कराहने से कर्कश नीरवता-शेखर अनझिप आँखों से अदृश्य काले आकाश को देखा किया...

टप्-टप्-वैशाख की पहली बूँदें...एकाएक शिथिल होकर शेखर जाकर लेट गया, और लालटेन के बहुत छोटे-से अधनीले प्रकाश को, और उसके कारण छत पर बने हुए अँधेरे वृत्त को, देखता रहा...

बन्धन...

शेखर को एक पत्र मिला।

उसके पत्र पढ़े जाकर और कट-छँटकर भेजे जाया करें, वह उसे असह्य था, अतः उसने पत्र लिखना ही छोड़ दिया था। बाहर से भी पत्र बहुत कम आते थे, आते तो ऐसे जिनका उत्तर देना आवश्यक न होता। पर एक दिन वकील ने उसे कुछ काग़ज़ दिये और कहा, “इन्हें सम्भालकर ले जाइएगा, आपके मुकदमे के आवश्यक काग़ज़ हैं। घर पर-क्षमा करें, जेल जाकर ध्यान से पढ़िएगा।” और शेखर ने रख लिए; जब जेल आकर वह बन्द हो चुका और रात घनी हो गयी, तब उसने उन्हें निकालकर पढ़ना शुरू किया। कागज़ों पर केवल मुकदमे की टाइप पर छपी हुई कार्रवाई का विवरण था, जिस पर कहीं-कहीं पेंसिल से कुछ नोट लिखे हुए थे; पर बीच में एक सुई से नत्थी किये हुए कुछ पन्ने थे, जिन्हें देखकर शेखर चौंक पड़ा-शशि का पेंसिल से बहुत बारीक लिखा हुआ पत्र था...

क्षण भर तक शेखर सब कुछ भूलकर बेबस रह गया-उसका हृदय इतनी जोर से उछल पड़ा था कि मानो अब डूब ही जाएगा...फिर वह भूखी आँखों से पत्र निगलने लगा...

शशि का विवाह हो रहा था। वर का चुनाव हो गया था; आषाढ़ में तिथि भी नियत हो गयी थी। और शशि नहीं चाहती थी विवाह-अभी कुछ वर्ष वह उसका विचार भी नहीं करना चाहती थी।

अगर शेखर बाहर होता तो वह उसकी सहायता माँगती बातचीत को स्थगित कराने में; पर वह जेल में है, और-और कोई इस इतनी बड़ी दुनिया में हैं नहीं जो उसका पक्ष ले। माँ हैं पर वे अकेली हैं, समाज के विरुद्ध वे क्या करेंगी? अधिक-से-अधिक यह कि आषाढ़ से अगहन तक स्थगित कर देंगी, पर उससे क्या? वचन-बद्ध ही होंगी, तो कुछ नहीं कर सकेंगी...

एक धुन्ध-सी में शेखर को ध्यान आया कि पत्र रखना नहीं है, यन्त्रवत् उसने दुबारा उसे पढ़कर मानो मन में बिठा लिया, परिश्रम से उसके छोटे-छोटे टुकड़े किये, चक्की के एक ओर गेहूँ रखने के थाले में पानी भरकर उसमें उन टुकड़ों को मसलकर लिखत मिटाई और फिर गोली-से बनाकर बाहर फेंक दिया; तब वह पैर पटककर उठ खड़ा हुआ, कोठरी में चक्कर काटने लगा और सोचने लगा...

वह क्या करे? कैसे शशि की सहायता करे? वह सचमुच नहीं चाहती विवाह; उसने स्वयं पत्र में लिखा है कि आम तौर पर लड़कियों को जो डर और अनिच्छा होती है, उससे शशि की अनिच्छा बहुत भिन्न है, वह अनिच्छुक भी है, अप्रस्तुत भी है और वह अपने को अन्याय का शिकार भी अनुभव करती है...

मैं बाहर होता, तो कुछ करता ही। लड़ता-झगड़ता, बहस करता। शायद लड़का भी अच्छा न हो। उसे कॉलेज के अपने परिचित लड़के याद आये, तो भविष्य में सरकारी पद पाएँगे; सफल, और यशस्वी, और कन्याओं के पिताओं की विशेष अभिषा में ‘योग्य’ ठहरेंगे-क्या वह अपनी बहन को वैसे किसी की गृहिणी देख सकेगा?

अगर वह नहीं चाहती विवाह करना, तो कौन-सी मजबूरी है विवाह की? समाज कौन है मजबूर करने वाला? सम्बन्धी कौन हैं? माँ कौन हैं? कोई भी कौन है उस पवित्र यज्ञभूमि में, जिसमें आत्मा संकल्प लेकर अपने को दे देती है-‘इदं कृष्णार्पणमस्तु इदन्न मम-’ नहीं, ‘इदं अग्नये इदन्न मम...अग्नये...’ अग्नये...यही है सत्य-पत्नी की आत्मा सदा हुतात्मा है...

क्या मौसी को लिखा जाए? पर अपनी अनिच्छा तो शशि माँ पर प्रकट कर चुकी है। क्या मौसी उसकी भावनाओं की उपेक्षा कर सकती है? पर बातचीत तो वे आगे बढ़ा रही हैं। क्या शशि ने काफ़ी जोर नहीं दिया?

अगर मौसी उसकी बात सुनकर विवाह से इनकार कर दें तब क्या परिणाम हो सकता है? एक तो जो लोग वर खोजने की दौड़-धूप कर रहे थे-मामा, चाचा, यह, वह-सब कहेंगे कि नहीं मिलता था तो रोती थीं, अब मिलता है तो दिमाग़ आसमान पर चढ़ा जा रहा है, ऐसा है तो अपना काम देखो, हमें कोई वास्ता नहीं!...कहेंगे तो कहें, बला से! बल्कि छुट्टी पा लेंगी मौसी।...दूसरे वर-पक्ष नाराज़ होगा-हो। तीसरे-तीसरे-तीसरे क्या? आगे के लिए कठिनाई होगी-वर मिलेगा नहीं!...जिस पुरुष-जाति में शशि जैसी स्त्री की कद्र नहीं होगी, वह पड़े चूल्हे में-शशि उसमें शादी किये बिना मर नहीं जाएगी।

क्यों नहीं मौसी इनकार कर देतीं? क्या शशि के प्रति उनका उत्तरदायित्व नहीं है? वे अनुभव नहीं करतीं? मौसी विद्यावती न अनुभव करें तो कौन करेगा? वे अवश्य करती होंगी। पर लड़की ब्याहना भी तो उत्तरदायित्व ही है। वह भी तो माता-पिता को करना होता है। दायित्व है या नहीं, कम-से-कम वे अवश्य मानती हैं और सारा समाज मानता हैं। संस्कार ही ऐसा है-परम्परा यही है।...पर ब्याहना कर्तव्य है तो क्या अच्छी तरह ब्याहना कर्तव्य नहीं है? क्या यह ‘अच्छी तरह’ ब्याहना है?...अच्छी तरह क्या होता है? शिक्षा हो, धन हो, कुल हो, शील हो, चरित्र हो, रूप हो, यश हो...और इनकी कसौटी क्या है? डिगरी हो, बँधी नौकरी या जायदाद हो, सम्बन्धी हाकिम हों, बातचीत सलीके से करे, कहीं निन्दा न सुनी गयी हो, रंग गोरा और नाक-आँख भले हों, यार-दोस्त प्रशंसा करें या शायद अखबार में नाम छपे। क्या ये चीज़ें आदमी बनाती हैं? क्या ये और केवल ये आदमी को देवत्व का यह अंश दे देती हैं कि वह किसी की आजीवन तपस्या का पुण्य अपने खाते में लिखने का हक़दार हो जाए?...शेखर का मन फिर अपने कॉलेज के अनेक साथियों की ओर लौट गया-उफ़! इन सब वस्तुओं में भी तो कोई गारंटी नहीं है कि कल्पना का देव-पुरुष वास्तविकता का यज्ञध्वंसक राक्षस नहीं होगा?

सारा प्रश्न यह है कि ब्याह के पहले किसका दायित्व है? माँ-बाप का, या वर-कन्या का? कौन-सा धर्म पहले है-कि व्यक्ति गृहस्थ बने, या पिता सास-ससुर बने? पितरों का काम सहायक का है, विधायक का नहीं।...क्या शशि ही को इनकार करना चाहिए?

उसका परिणाम? सम्बन्धियों का क्रोध तो है ही। माता का भी हो सकता है। निन्दा भी है-‘लड़की का चरित्र अच्छा नहीं है’...‘माँ ने ही बिगाड़ा है’...और जो लड़की चरित्रहीन घोषित हो चुकी, उसकी चरित्रहीनता के प्रमाण खोजते कितनी देर लगती है? और उसके बाद? जिसे ‘समाज के लिए खतरनाक’ कह दिया जाता है, उसके लिए समाज तत्काल खतरनाक हो जाता है...‘लड़की ने शादी नहीं की। क्यों नहीं की? आज़ाद तबीयत की होगी-और ऐसी तबीयत की लड़की क्या बीस वर्ष की उम्र में भी पुरुषों की उपेक्षा ही कर जाएगी? असम्भव!’ और निन्दक समाज निन्दित का प्रसाद पाने भी आ जुटेगा-नृशंस, राक्षस!

शेखर की बुद्धि में मानो गाँठ पड़ गयी, इससे आगे वह नहीं सोच सका...वह द्रुतगति से चक्कर काटने लगा, और हर कदम पर मुट्ठियाँ बाँधकर पूछने लगा, क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ?...गति द्रुततर होती गयी, कदम भी पाँच की बजाय तीन पड़ने लगे, इतनी जल्दी-जल्दी रुख बदलने से सिर भी घूम गया, पर प्रश्न का उत्तर नहीं मिला...उसका आवेश, उसकी पराजित बुद्धि का आक्रोश बढ़ने लगा-उसने दोनों हाथों से सिर पकड़कर मींज लिया, फिर मुट्ठियों में बाल भरकर मुट्ठियाँ जोर से घोंट लीं...बाल खिंचने लगे, उनकी पीड़ा से सिर को कुछ शान्ति मिली, पर प्रश्न...क्या करूँ...क्या करूँ?

“और मौलवी ओ-ए!”

मोहसिन बुला रहा था। उत्तर देने की शेखर की इच्छा नहीं थी। उस समय वह शशि की समस्या के और अपने प्रयास के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानना चाहता था-किसी भी वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं चाहता था। वह, और शशि की समस्या...

“मौलवी-ओ-ए! मर गये? ओ मौलवी!”

नहीं, वह पीछा नहीं छोड़ेगा। शेखर ने पुकारा, “पंडित हो!”

“क्या कर रहे हो?”

“कुछ नहीं।”

“बोले क्यों नहीं?”

“ध्यान नहीं था!”

“रो रहे हो?”

“नहीं-”

“अच्छा, सो जाओ, मैं नहीं बुलाता।”

क्या उसे दुःख पहुँचा? और क्या शेखर के स्वर से ही वह भाँप गया कि शेखर अशान्त है? उसे कुछ परिताप हुआ। उसने अपने को मजबूत करके आवाज़ दी-”पंडित हो!”

“हाँ, ओ-ए!”

“गाना नहीं सुनाओगे?”

“अच्छा? तुम्हारा जी नहीं है-”

“नहीं, सुनाओ।”

“अच्छा।”

मोहसिन गाने लगा-

शेखर ने दो-एक कड़ियाँ सुनीं और सोचने लगा, मोहसिन को इस समय यह गाना क्यों याद आया? क्या मेरे लिए ही वह गा रहा है? किन्तु शीघ्र ही उसका मन भटकने लगा, गाना सुनना वह भूल गया।

पूछता था, ‘रो रहे हो?’ उसने कैसे जाना? वह भी रोया होगा कभी-पर मोहसिन? असम्भव। रोना आया होगा तो किसी से लड़ पड़ा होगा, बस! बाबा मदनसिंह कहते थे, रोना अच्छा हैं-रोने से प्रकाश मिलता है! तीन वर्ष में सौ बार-बरस में तैंतीस-महीने में क़रीब तीन बार...इतना रोए हैं बाबा? कितनी स्वच्छ है उनकी हँसी! कोई कल्पना करेगा कि यह आदमी रोता है? और मैं-

एक क्रुद्ध झपेटे से शेखर ने आँख में आई हुई बड़ी-सी बूँद पोंछ डाली। फिर वह बैठ गया।

नहीं रोऊँगा-नालायक! प्रकाश मिलता है तो मिले! मुझे नहीं चाहिए रोकर पाया हुआ प्रकाश। मैं अपना रक्त जलाकर प्रकाश पैदा करूँगा...रक्त के आँसू-रक्त के आँसू-क्या मतलब? रोना ही रक्त जलाना है? बकवास। कमज़ोरी के बहाने हैं।

-और मैं-मैं ऐसा हूँ कि मोहसिन ने इतनी दूर से पहचान लिया कि मैं रोनेवाला हूँ...इससे तो रोकर स्वच्छ रहना अच्छा-

नहीं, मुझे जवाब खोजना है। शशि के लिए मार्ग खोजना है...

वह उठकर जँगले पर चला गया, आकाश की ओर देखने लगा। इधर-उधर दो-चार तारे बिखरे हुए थे। अनजाने उसकी देह तन गयी थी, उसके हाथ सींखचों को पकड़कर घुट गये थे-उसने चौंककर उन्हें छोड़ दिया।

नहीं, भीतर के इस उबाल को किसी तरह भी बिखरने नहीं दूँगा, किसी की सहायता नहीं लूँगा, स्वयं मार्ग खोजूँगा, अपने लिए और शशि के लिए, शशि के लिए और अपने लिए...

और चक्कर काटकर फिर आरम्भ हुआ-एक, दो, तीन, चार, पाँच-एक, दो, तीन, चार, पाँच...

और रात भी ढलती चली...ग्यारह, सब अच्छा! बारह, सब अच्छा! एक, सब अच्छा! दो, सब अच्छा!...शून्य-धुन्ध...शून्य...उसके आगे शेखर को बोध तब हुआ जब उसने देखा कि उसके मुँह पर धूप पड़ रही है, आठ बजे हैं, और वह थका-चूर खड्डी पर पड़ा है।

क्या हुआ था? स्मृति की लहर आयीं-शशि...

वह जान गया कि वह उसे क्या लिखेगा।

चिट्ठी लिख चुकने के बाद शेखर जैसे किसी तन्द्रा से जाग उठा; एकाएक उसके आसपास का जीवन फिर उसके सामने आ गया, उसकी सब जिज्ञासाएँ पुनः जाग उठीं; मुकदमे की ओर भी कभी-कभी उसका ध्यान जाने लगा। न जाने क्यों मुकदमे की अब लम्बी-लम्बी तारीखें पड़ने लगी थीं। शायद सबूत कमज़ोर समझा जाने लगा था और सरकारी पक्ष नयी तैयारी का प्रबन्ध चाहता था। शेखर कभी-कभी अदालत में बयान सुनकर सोचा करता कि उसका कितना प्रभाव किस ओर पड़ा है। पर प्रायः उसका ध्यान सिद्धान्त या व्यवहार के ऐसे प्रश्न लिए रहता, जिनका दैनिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं-ऐसे प्रश्न जो विद्याभूषण से टक्कर होने पर बार-बार जाग उठा करते...

बाबा मदनसिंह से मिले शेखर को कई दिन हो गये थे। एक दिन अकस्मात् शेखर को विचार आया कि जो प्रश्न वह विद्याभूषण से पूछा करता है, वह बाबा से पूछे-बाबा की बातों से जान पड़ता था कि वे जो उत्तर देंगे; वह शास्त्रीय चाहे-हों- चाहे न हों, उसके पीछे गम्भीर विचार की शक्ति अवश्य होगी...

दूसरी बार मिलने पर भी बाबा मदनसिंह का आनन्दित विस्मय और स्वागतभाव उतना ही सरल था जितना पहली बार; पर उसके बाद फ़ौरन ही उन्होंने गम्भीर होकर पूछा था, “आप चिन्तित दीखते हैं-क्या बात है?”

बाबा से बात करना, प्रश्न करना कठिन नहीं था। शेखर ने संक्षेप में अपने और विद्याभूषण के विवादों की बात उनसे कह दी, और पूछा, “मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ। पहले हिंसा का प्रश्न लीजिए। क्या हिंसा उचित है? और क्या वह लाभकर है।

बाबा मदनसिंह ने आँगन के फाटक की ओर देखकर पूछा, “आप अकेले हैं?”

इधर कुछ दिनों से वार्डर ने अपने कामों से काफ़ी ढील देनी आरम्भ की थी-केवल बन्द करने का समय वह नहीं भूलता था। बाकी उसने शेखर पर छोड़ दिया था-”बाबू साहब, आप समझदार हैं, मुझ गरीब पर कोई मुसीबत न लाइएगा।”

बाबा मदनसिंह बोले, “देखिए, मैं आपसे कह चुका कि मैं पढ़ा-लिखा आदमी नहीं हूँ। मेरी बात में कुछ सार होगा तो इसीलिए कि मैंने जो पढ़कर नहीं जाना, उसे समझ जानने की कोशिश की है। यह भी मैं कह चुका हूँ कि जेल में आदमी स्वाभाविक ढंग से नहीं रहता या सोचता, उसका तर्क विकृत होता है। तब मेरी बात का क्या मोल? मेरे तो कुछ-एक सूत्र हैं, जो मैंने अपनी तसल्ली के लिए गढ़ लिये हैं। एक मन्त्र यह भी है कि हर-एक को अपना रास्ता खुद बनाना चाहिए। यह सूत्र तो आपके शास्त्र में भी होगा?”

शेखर ने कहा, “मैं भी तो जेल में हूँ-अस्वाभाविक अवस्था में। तभी ये प्रश्न भी मेरे लिए इतने बड़े बन गये हैं-स्वाभाविक जीवन में इतनी बातें कहाँ सूझतीं? बाहर तो प्रायः पाँचों ही इन्द्रियों से जीना होता है, यहाँ छठी ही पीछा नहीं छोड़ती। तो समाधान भी अगर अस्वाभाविक हो तो क्या बुरा है? मुझे लगता है कि आपकी बात ही ज्यादा सच होगी, क्योंकि आप उसकी कमज़ोरी भी दिखाते जाएँगे।”

“आप पूछते है, तो मैं कहता हूँ। पर मेरी बात सुनकर भूल जाइएगा, मानिएगा नहीं! कभी-अगर आपको यहीं रहना पड़ा-तब आप खुद सब बातें जान लेंगे-आप तो पढ़े-लिखे भी हैं-तब चाहे इस बुढ़ऊ की बातें याद करके मिलान कर लीजिएगा कि कहाँ क्या फ़र्क है।”

“अच्छा।”

“सूत्र कहने से आपको अच्छा नहीं लगेगा-आप ही की बातें लेकर चलता हूँ। मैं प्रकृति को बड़ी चीज़ मानता हूँ। यह भी मानता हूँ कि उसके नियम एक बहुत विशाल बुद्धि पर, प्रज्ञा पर टिके हुए हैं। और मुझे मानव-जाति के भविष्य में गहरा विश्वास है। ये बातें मैंने जान-बूझकर कही हैं-अभी आपको शायद व्यर्थ लगेंगी।” क्षण भर रुककर वे आगे कहने लगे-”आपको लगता है हिंसा नकारात्मक है, निरा संहार है, उससे सृजन नहीं हो सकता। बिलकुल ठीक। पर यह आप कैसे जानते हैं कि जिस चीज से सृजन नहीं होता, वह ग़लत ही है? और यह भी आप कैसे मानते हैं कि सृजन करना आप ही के हाथ में है?”

शेखर कुछ बोला नहीं, अपनी मुद्रा से ही उसने यह दिखाया कि वह समझा नहीं, बाबा का इशारा किधर है।

“आपने किताबों में पढ़ा होगा, जब घर में स्वच्छ हवा का संचार करना होता है तब केवल हवा निकलने के मार्ग बनाए जाते हैं। प्रवेश उसका अपने आप हो जाता है। जब आप साँस लेते हैं, तब उसे निकालने में ज़ोर लगाते हैं, फिर फेफड़े भर अपने-आप जाते हैं। इसको सूत्र में बाँधकर वैज्ञानिक कहते हैं कि शून्य प्रकृति को नापसन्द है। हाँ, यह सूत्र आपको याद आया दीखता है। मेरा सूत्र यह है कि सबसे आवश्यक देवता रुद्र है-ब्रह्मा तो आवश्यकता-अनावश्यकता के फन्दे से परे हैं। हमें विनाश के गणों की रचना करनी होगी, सृजन, जन्म-आपके शब्दों में रचनात्मक चीज़-तो अनिवार्य है। क्षति-पूर्ति स्वयंभू है, यह मेरा दृढ़ विश्वास है। इसीलिए मैं आज के संहारकारी युग में भी मानव के भविष्य में विश्वास करता हूँ-भविष्य वर्तमान की क्षति-पूर्ति है, इसलिए वह स्वयंभू है, उससे निस्तार नहीं है।”

बाबा ने रुककर शेखर की ओर देखा। मानो कुछ सन्तुष्ट होकर वे फिर कहने लगे, “इस तर्क से शायद हमारे अभिमान को चोट पहुँचती है। अगर संहार और सृजन प्रकृति का भाटा और ज्वार है तो हम कहाँ हैं? क्या हम प्रकृति की उद्देश्य-पूर्ति के निमित्त से अधिक कुछ नहीं है? क्या हम भाग्य-बद्ध हैं? क्या आत्म-निर्णय झूठ है? इन प्रश्नों का उत्तर नहीं है, क्योंकि ये प्रश्न हर किसी के मन में नहीं उठते। और जिसके मन में उठें, वह अपने सूत्र खुद ढूँढे।”

वे फिर कुछ देर के लिए रुक गये।

“नश्तर की और चिकित्सा की बात मुझे नहीं जँची। मुझे लगता है कि प्रश्न को इस ढंग से रखना ही गलत है कि ‘हिंसा हो या न हो।’ प्रश्न यह है कि अहिंसा क्या हैं? क्योंकि यह आपकी बात मैं मानता हूँ कि ‘हिंसा के लिए हममें स्वाभाविक घृणा है तो उसका कारण होना चाहिए। यह आपका सूत्र’-” एक मुस्कराहट उनके चेहरे पर दौड़ गयी-”बहुत महत्त्व का है। हाँ, तो अहिंसा क्या है? यह तो स्पष्ट है कि निष्क्रियता वह नहीं है। निष्क्रियता, कायरता, सबसे भीषण और घृणित प्रकार की हिंसा है। तब अहिंसा क्या है? अगर आत्म-पीड़न, आत्म-बलिदान अहिंसा है, तब हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि ‘अहिंसात्मक’ रक्तपात भी हो सकता है। इस बात को मान लेने पर फिर यह क्यों कहा जाए कि सब रक्तपात हिंसा है?”

बाबा मदनसिंह ने फिर एक बार स्थिर दृष्टि से शेखर की ओर देख लिया।

“यह तर्क अच्छा नहीं है। आपके कहने से पहले ही मैं स्वीकार कर लेता हूँ। मैं इसे पेश कर रहा हूँ तो इसीलिए कि आपका ध्यान एक और बात की ओर जाए-कि रक्तपात कभी सामाजिक कर्तव्य हो जा सकता है। अगर ऐसा है तो, वह रक्तपात अनुचित नहीं रहता, और अहिंसात्मक वह हो ही सकता है, तो फिर रक्तपात के हिंसा या अहिंसा होने की कसौटी सामाजिक-या कह लीजिए आध्यात्मिक-आवश्यकता ही होगी। यह नहीं कि गिरा हुआ रक्त मेरा है या दूसरे का। मेरा रक्त किसी के रक्त से पतला नहीं है।”

शेखर का मन विचलित हो गया था। उसे बाबा का तर्क पसन्द नहीं था, परिणाम भी पसन्द नहीं थे, पर वह सोचने का समय चाहता था। वह बोला “यह आज के लिए काफ़ी है। इसे चबा लूँ, फिर आगे सही। अगर हममें गुठलियाँ निकलेंगी तो आप ही के पास लाऊँगा फोड़ने के लिए।” वह हँस पड़ा।

“ठीक है। मैं आपकी गुठलियाँ अपने लिए फोड़ूँगा। आप अपने फल स्वयं पकाइए और खाइए। मैं तो एक कलम के नमूने पेश कर रहा हूँ।” बाबा भी हँस दिए। फिर कहने लगे, “जब आप गुठलियाँ मुझी से चबवाएँगे, तो एक फल और लेते जाइए। मैंने कहा था न, बुड्ढों को कोई सुननेवाला चाहिए।”

“कहिए-”

“मैंने कहा था कि अहिंसा ठीक है, पर उसकी परिभाषा ठीक हो तभी। सफल भी वह तभी हो सकती है। मुझे लगता है अहिंसा उपयोगी तभी होगी, जब वह आक्रामक अहिंसा हो-यानी जब वह केवल पारिभाषिक अहिंसा रह जाए। जैसे बहिष्कार में-बहिष्कार तभी सफल होता है जब उसे अस्त्र के रूप में किसी विशिष्ट व्यक्ति या संगठन के विरुद्ध बरता जाए-सारी दुनिया का बहिष्कार अपना ही बहिष्कार होगा। अब भारत चाहे कि सारी दुनिया का व्यापारिक बहिष्कार कर दे, तो वह असम्भव भी है और व्यर्थ भी, क्योंकि वह ब्रिटेन के विरुद्ध नहीं पड़ेगा और हमें उससे स्वाधीनता नहीं दिलाएगा। सफल वह तब होगा जब कि उसे ब्रिटेन के विरुद्ध नहीं पड़ेगा और हमें उससे स्वाधीनता नहीं दिलाएगा। सफल वह तब होगा जब कि उसे ब्रिटेन के विरुद्ध केन्द्रित किया जाए, यानी आक्रमण का साधन बनाया जाए। यह स्पष्ट है कि अहिंसा केवल पारिभाषिक अहिंसा है, क्योंकि अहिंसा में तो आक्रमण की भावना नहीं होनी चाहिए, आत्मरक्षा के लिए भी नहीं। है न?”

उत्तर में शेखर ने एक अनिश्चित “हूँ” किया, मानो अभी वह किसी तरफ उत्तर देने को तैयार नहीं है।

“और अगर परिभाषाओं पर लड़ना है तो ‘सच्ची’ अहिंसा आत्मपीड़न है, जो अन्ततोगत्वा एक प्रकार की हिंसा ही हैं। पर इस फिजूल की शब्द-कलह को छोड़कर काम की बात सोंचे। यह मैंने कहा कि अहिंसा सफल तभी होगी जब वह आक्रामक हो, यानी केवल शाब्दिक अहिंसा हो; दूसरी ओर हिंसा आक्रामक हुए बिना भी, केवल स्वरक्षात्मक होकर भी, सफल हो सकती है। यह बात इतनी स्पष्ट है कि उदाहरण बेकार है। आप जानते हैं कि कानून भी स्वरक्षात्मक हिंसा को मानता है। तो नतीजा यह निकला कि हिंसा स्वरक्षात्मक भी सफल हो सकती है-यानी केवल पारिभाषिक हिंसा, क्योंकि बिना आक्रमण के हिंसा कैसी? अब पारिभाषिक अहिंसा और इस पारिभाषिक अहिंसा के बीच में लकीर खींचना मेरा काम नहीं है-निकम्मों का काम है।”

बाबा मदनसिंह चुप हो गये। कुछ देर शेखर प्रतीक्षा करता रहा कि वे शायद आगे बोलेंगे, जब वे नहीं बोले तब शेखर ने सोचते-सोचते कहा, “तो परिणाम क्या निकला?”

“परिणाम?” बाबा जोर से हँसे। “मैंने अपनी बातें कह दीं। अब इनको एक सूत्र में आप बाँधिए!”

शेखर कुछ कहने को था कि उसने बाहर पैरों की आहट सुनी, शायद वार्डर उसे बुलाने आया था। स्वयं उसी को विस्मित करनेवाली प्रतयुत्पन्न मति से उसने, ऊँचे स्वर से कहा, “यह मजे की रही। फिर साहब ने क्या कहा?”

बाबा ने एक बार उसकी ओर देखा फिर मुस्कराकर कहने लगे, “आप बहुत जल्दी सीखने लगे-यह है स्वरक्षात्मक हिंसा या झूठ!-हाँ तो-” फाटक पर खड़े वार्डर की ओर देखकर, “साहब क्या कहता! अपना-सा मुँह लेकर चला गया।”

वार्डर ने कहा, “बाबू साहब आप यहाँ हैं, मैं तो-”

शेखर ने अनसुनी करके कहा, “अभी दूसरी बात तो रह ही गयी। खैर, बाकी फिर किसी दिन सुनूँगा।”

वार्डर ने अपनी बात समाप्त की, “मैं तो खोजता-खोजता हैरान हो गया। अब चलिए न।”

शेखर चल पड़ा।

बाहर वार्डर ने पूछा, “बाबा आपको अपने झगड़े की बात सुना रहे थे क्या?”

“क्यों?”

“वही सबको सुनाया करते हैं। पहले साहब से झगड़ा हो गया था। साहब की नाकों दम कर दिया बुड्ढे ने।”

“हूँ।”

वार्डर ने मानो पुरानी बातें याद करते-करते कहा, “बुड्ढा कभी तूफ़ान ही रहा होगा। पर है बिचारा बड़ा सन्त आदमी-तबीयत का बिलकुल ग़रीब है।”

“हूँ।”

शेखर बन्द हो गया। वार्डर ताला बन्द करके खड़काकर चला, तो शेखर धीरे से हँस दिया-एक मीठी हँसी!

जो आदमी जीवन द्वारा जीने का आदी है, उसे यह असह्य है कि उसे जीवन के बचे-खुचे बासी टुकड़े ही मिलें, जीवन की उच्छिष्ट मिले-किन्तु बन्दी शेखर के लिए यही विधान हो गया था...यह विचार ही उसको असह्य था, पर आता था वह बार-बार, और हर बार मानो उसको बाँधनेवाले लोहे के किवाड़ों का एक सीखचा उसकी अन्तर्ज्वाला से ही तप्त होकर उसके हृदय में घुस जाता था...?

बाहर के संसार से-शशि से-उसका एक सम्बन्ध रह गया था निर्जीव कागज़ के पन्ने, उस पर निर्जीव लिपि के अक्षर...भाषा सजीव होती है, दर्द सजीव होता है, पर क्या उनके प्राण इस ज्ञान के आगे टिक सकते हैं कि आज जो उसके सामने है, उसमें जीवन का स्पन्दन तीन दिन, या सात दिन, या दस दिन पहले था?...

शेखर को शशि का पत्र मिला, तो ऊपर तारीख देखकर उसे अनुमान नहीं हुआ कि चिट्ठी उस तक पहुँचने में जो नौ दिन दिन लग गये हैं, वे उसके जीवन-प्रवाह के एक युग का अधिकांश एक ही घूँट से पी गये हैं। वह बढ़ती हुई वेदना से सारा पत्र एक बार पढ़ गया, फिर दूसरी बार पढ़ गया-हाँ, वेदना बहुत थी, वेदना बहुत थी, पर इतनी नहीं कि वह फूट जाए, निर्वेद हो जाए-वह पीछे आयी जब बायाँ हाथ उठाकर उसने तारीखें गिनना शुरू किया और जाना चौदह में से नौ जाएँ तो पाँच बचते हैं...

अब की बार शशि का पत्र छोटा था। शेखर से वह सहमत थी कि जीवन में हर एक को अपना मार्ग स्वयं खोजना होता है, हम किसी को मार्ग नहीं बता सकते, किसी को प्रकाश भी नहीं दिखा सकते; हम कर सकते हैं तो इतना ही कि पथिक के पैर दाब दें, उसका कवच कस दें, अगर उसके पास दीया है तो उसकी बत्ती कुछ उकसा दें। और इसलिए वह शेखर के प्रति दुगुनी कृतज्ञ है कि वह उसके लिए इतना करके उसके आगे भी जा रहा है, वह उसके दीपक में स्नेह भी भर रहा है।...”भविष्य क्या है, नहीं जानती; और मैंने जो मार्ग अपने लिए निर्धारित किया है, उसमें भविष्य होने-न-होने का प्रश्न भी नहीं है। वह इतना ज्वलित है; पर इतना मैं आज तुम्हें कहती हूँ कि तुमने जो मुझे दिया, वह मैं उसमें नहीं भूलूँगी। तुमने लिखा है निर्णय मेरा है, पर उसका आदर करना तुम्हारा है; तुमने लिखा है एक निश्चय में मुझे तुम्हारा आन्तरिक आशीर्वाद, स्नेह और सद्भावना प्राप्त होगी, दूसरे निश्चय में तुम्हारा सहयोग और संरक्षण, और आवश्यक होने पर तुम्हारे हाथों का परिश्रम और तुम्हारे पसीने की रोटी; तुम्हारी उदारता में मैंने दोनों पा लिए हैं, और अब चुनने के नाम पर तुम्हारा आशीर्वाद ही चुनती हूँ। मैंने माँ से कह दिया है कि मुझे इस मामले में किसी तरह की कोई दिलचस्पी नहीं है, उनकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।”

कठोर कडुवा और स्वयं नारी की तरह चिरन्तन शशि का निर्णय-कठोर और कडुवा और चिरन्तन उसका यह अपनी आहुति दे देने का निर्णय-कठोर और कडुवा और चिरन्तन नारी का अभिमान कि जो समाज उसका आदर नहीं करता, उसी के हाथों नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-त्रस्त-ध्वस्त होकर वह उसकी अवमानना करेगी...आशीर्वाद? क्या आशीर्वाद हो उस नारी को क्षुद्र पुरुष का? कि तू हुतात्मा हो, तेरी ज्वाला उज्ज्वल और सुगन्धित और निर्धूम हो! लज्जा, क्षोभ और आत्मग्लानि से शेखर ने अपनी बँधी हुई मुट्ठी छाती में मार ली...

क्यों उसने शशि को अपनी सम्मति नहीं दी थी? क्यों नहीं उसे कहा था कि समाज पर अपने को बलि देना अपनी और समाज की भी विडम्बना है? क्यों नहीं कहा था कि समाज उसकी विविक्त इकाइयों का समूह है, और इकाई की अवहेलना समाज की अवहेलना है? क्यो नहीं कहा था कि अन्याय को सहना उसका भागी बनना है? क्यों स्वाधीनता दी थी निर्णय की? क्यों दोनों सूरतों में सहानुभूति का वचन दिया था?

उसे याद आया कि उसने क्या लिखा था...कि यह मामला शशि का है, शशि के अतिरिक्त किसी का भी नहीं है, और इसमें परामर्श भी किसी का ग्राह्य नहीं हैं, माँ का भी नहीं, शेखर का भी नहीं...शशि, निपट अकेली शशि, इस समस्या से लड़े और किसी निष्पत्ति तक पहुँचे; बाकी यही कर सकते हैं कि सहानुभूतिपूर्वक देखें, अपनी इच्छा-शक्ति से उसे इतनी प्रेरणा दें कि वह ठीक ही परिणाम पर पहुँचे, यह आश्वासन दें कि निर्णय जो भी हो, वे उसके साथ हैं...”और मैं तुम्हारे साथ हूँ, शशि, तुम विवाह हो जाने दो, अपने भविष्य को किसी और के भविष्य में मिटा दो, तब भी मेरी सारी शक्ति तुम्हारे साथ होगी कि तुम अपने चुने हुए मार्ग में अडिग रहो; और वैसा तुम नहीं करो, एक व्यक्ति पर अपने को मिटाने की बजाय समाज के विरोध से ही टक्कर लेना चाहो, तो भी मैं तुम्हारे साथ हूँ। वह तुम्हें अलग कर दे, घर-बार भी तुमसे छूट जाए, तो मेरा अकिंचन सहयोग तुम्हें मिलेगा; अगर अपने हाथों के परिश्रम से मुझे तुम्हारी रोटी प्राप्त करनी पड़ेगी तो वह मेरा गौरव होगा...मैं जानता हूँ कि तुमने मुझे जो सीख दी है, उसका मूल्य मैं किसी तरह नहीं चुका सकता, उसके लिए कृतज्ञता भी दिखा सका हूँ तो केवल इतनी कि उसी पर चलते-चलते, या चलने की चेष्टा करते-करते समाप्त हो जाऊँ। इतनी भी कृतज्ञता न दिखा सकूँ, ऐसा बुरा मैं नहीं हूँ-पहले रहा भी होऊँ तो तुम्हारी सीख का मुकुट पहनकर अब नहीं हूँ। मैं तुम्हारे साथ हूँ, चाहे जिधर भी तुम जाओ; किधर जाओ, इसका उत्तर तुम्हें भीतर का आलोक दे...”

शशि ने मार्ग चुन लिया। “आज से ठीक दो सप्ताह बाद, आज ही के दिन, मैं-ओह शेखर, यह वाक्य अधूरा ही क्यों नहीं रह जाता!” और यह नौ दिन पहले का पत्र है-केवल पाँच दिन और!

क्यों? किस चीज़ ने बाधित किया शशि को यह निर्णय करने के लिए? क्या बुद्धि ने? विवेक ने? क्या डर ने? अक्षमता ने? क्या हृदय ने? चाह ने? क्या आत्मा ने? अभिमान ने?

“मैं जानती हूँ मेरी सम्पूर्ण अनिच्छा है। पर क्या मुझे अनिच्छा का, अनिच्छा के बाद अस्वीकृति का अधिकार है? समाज का मैं अंग हूँ, उसके प्रति मेरी जवाबदेही है, पर उसकी मैं उपेक्षा कर सकती हूँ, क्योंकि वह मेरे प्रति कर्तव्यशील नहीं है और फिर उसके आदर्श भी बदलते रहते हैं और रहेंगे। पर माँ-माँ तो सनातन है, सदा माँ है, उसके प्रति भी तो मेरा कर्तव्य है...माँ विधवा है, फिर उसके अपने संस्कार हैं। मेरी अस्वीकृति समाज के सम्मुख उनकी क्या अवस्था करेगी, यह तो अभी नहीं कह सकती, पर स्वयं अपने ही सामने उन्हें तोड़ देगी। वे कुछ नहीं कहेंगी, मैं जानती हूँ; पर क्या उससे मुझे कुछ दीखेगा नहीं? उनका मौन उनकी व्यथा को धार दे देगा, जिस पर मैं हर समय कटती रहूँगी...मैं अपना युद्ध लड़ सकती हूँ, पर मुझे क्या अधिकार है, मैं उनसे अपना युद्ध लड़वाऊँ?...और अगर किसी को मूक होकर जलना ही है, तो वह कोई मैं ही क्यों नहीं होऊँ? मैं तो विवाह के बाद चली जाऊँगी, माँ या कोई भी मेरा होम नहीं देखेगा-मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं देखेगा उसे! इस दुःख को अपने बन्धुओं के घेरे से बाहर ले जाने का यही एक तरीका है...शेखर, यही मेरा निर्णय है, आशीर्वाद दो कि मैं साभिमान इसे निभा ले जाऊँ...”

क्या शशि ठीक कहती है? क्या वह बेठीक ही कहती है?

पर सच वह अवश्य कहती है कि दुःख किसी का अवश्य है, प्रश्न यही है कि कौन बढ़कर उसे अपने कन्धों पर ले ले, कौन उसे झेलने में इतना विशाल अभिमान जुटा सके कि वह आसानी से झिल जाए...

उसे अपनी ही लिखी हुई दो-चार पंक्तियाँ याद आयीं, जो उस तक केवल एक शव थीं, किन्तु इस समय प्राणोन्मेष से दीप्त हो उठीं-

(मैं एकान्त में जला किया हूँ, और जलना अपना ही शमन लाया है और भी अनबुझ जलने के रूप में...)

क्या यही है प्रतिनिधिक यन्त्रणा का वह सिद्धान्त, जो उसने कहीं पुस्तक में पढ़ा था और अग्राह्य मानकर छोड़ दिया था-कि हमारी यातना किसी दूसरे के पाप का प्रायश्चित हो सकती है? क्या प्रत्येक व्यक्ति किसी दूसरे का ईसामसीह है, किसी दूसरे का क्रूस ढोनेवाला है? क्या यही है यातना के इस कुम्भीपाक में आलोक की प्रथम और अन्तिम किरण...

व्यथा से शेखर को रोमांच हो आया...

दूसरा पत्र आने में उतना समय नहीं लगा-पर जितना समय लगा था, उतना क्या कम था? शशि ने लिखा था, “आज मेरी उस अवस्था का अन्तिम दिन है, जिसमें अपने आत्मीयों से अलग एक सम्बन्धी मेरा था-मेरे बहिनापे में घिरे हुए तुम! कल से मेरा पहिला परिचय होगा, अमुक की स्त्री; और सब सम्बन्ध उसके बाद आएँगे।...न जाने यह पत्र तुम्हें कब मिलेगा, पर जब भी मिले, तुम उस शशि को आशीर्वाद देना, जो आज तक तुम्हारी बहन थी और उसके अतिरिक्त किसी की कुछ नहीं थी; किन्तु कल वैसा नहीं रहेगी; और जो आज इस पत्र से अन्तिम बार तुम्हें प्रणाम करती है...”

शशि ने शेखर के अभ्यन्तर का कोमलतम मर्म छू लिया था-दर्द इतना था कि शेखर आह भी नहीं कर सकता था...अन्तिम बार प्रणाम...मेरे बहनापे में घिरे हुए...उसके अतिरिक्त कुछ नहीं...

यह सच था-उफ़ कितना सच!-कि शशि ने ही उस ‘न-कुछ’ को खींचकर सगेपन का गौरव दिया था-ऐसे दिया था जैसे कभी किसी ने नहीं दिया था-उसकी अपनी दो सहोदरा बहनों ने नहीं...शशि ने उसके जीवन को अर्थ और उद्देश्य दिया था, एक ऐसी निधि दी थी जिसके गौरव के लिए जीना और लड़ना और मरना स्वयं पुरुष का गौरव है...तब क्या यह भी सच है कि आज उस निधि के रक्षकत्व का अन्तिम क्षण है?-आज क्यों, आज तो शशि को नये संरक्षण में गये हुए भी दो दिन हो गये!-क्या जो आरम्भ ही नहीं हुआ था, वह आज समाप्त होने जा रहा है?

वेदना...कोई उसके भीतर कहता है, वह नहीं था सहोदरा, नहीं थी बहिन; जो हुआ है वह होना ही था...उसे दुःख का अधिकार नहीं है...हाँ, नहीं है अधिकार, अधिकार होता तो दुःख क्यों होता? दुःख उसको मेरी स्नेह की भेंट है, जैसे बहिनापा उसका मुझे स्नेह का दान था! नहीं है वह सहोदरा, वह सहजन्मा है; एक खंडित आत्मा दो क्षेत्रों में अंकुरित हुई है...तभी तो...तभी तो शेखर अपने को देखता है, और नहीं समझ पाता कि कहाँ वह अपंग हो गया है-यद्यपि एक गहरी टीस उसमें उठती है और एक मूर्च्छना भी उसके बचे हुए गात पर छाई जा रही है...

किन्तु कर्तव्य अभी बाकी है-यन्त्रवत् शेखर ने कागज़ और कलम उठाया, एक छोटा-सा आशीर्वाद का पत्र लिखकर लिफाफे में बन्द किया, पता लिखा और वार्डर को बुलाकर दफ्तर में भिजवा दिया। दूसरा मार्ग नहीं था-और किसी तरह पत्र भेजने में बड़ी देर लगती।

तब एकाएक क्षत-विक्षत और शून्य और निष्प्राण शेखर चक्की पर सिर टेककर खड़ा हो गया। उसकी निविड़ वेदना में ज्वाला की तरह उसके अन्तरंग को फोड़ता हुआ कुछ फूट निकला...

जल, ऊर्ध्वगे, जलयज्ञ-ज्वाले जल! उत्तप्त जल, उज्ज्वल और सुवासित जल, क्षार-हीन और निर्धूम और अक्षय जल! यह मुझ अभागे का तुझे आशीर्वाद हो!

तब आँसू आये, घने और झरझर...

फिर एक बार कुहासा शेखर के प्राणों पर छा गया। पर अब की बार उसमें जैसे विरोधभाव नहीं जागृत हुआ। अपने रोने पर क्षोभ नहीं हुआ, परास्त हो जाने के ज्ञान का प्रतीकार करने की भी इच्छा नहीं हुई। वह मानो अस्तित्व के किसी निचले स्तर पर उतर आया। जीवन शिथिल हो गया, और शैथिल्य स्वाभाविक धर्म मालूम पड़ने लगा।

शेखर ने ‘साहब’ से अनुमति माँगी कि उसे पहले सिरे की एक कोठरी में रखा जाए। ‘साहब, ने विस्मित होकर कारण पूछा, और यह जानने पर कि शेखर एकान्त चाहता है, मुस्कराकर अनुमति दे दी। “तुम स्वयं अपनी आज़ादी क़म करना चाहते हो तो तुम जानो। वहाँ पर तुम्हें वहीं के नियम मानने पड़ेंगे-बन्द भी रहना पड़ेगा। हाँ, अगर फाँसीवाले अधिक हो गये तो वहाँ से हटना पड़ेगा।” शेखर ने मौन स्वीकृति दे दी।

फाँसी की कोठरी साफ़-सुथरी थी। पक्का फ़र्श था, चक्की कोई नहीं थी, पतरे के लिए फाटक के पास कोने में अलग जगह बनी हुई थी, जहाँ से पानी बाहर को बह जाता था, अतः कोठरी में बदबू नहीं थी। शेखर दिन में बन्द रहता, सुबह-शाम टहलने बाहर निकलता और तलाशी के बाद बन्द हो जाता। ये नियम उसे पसन्द नहीं थे, पर वह मानो अपनी देह से हटकर कहीं रहता था, ये उसे छूते ही नहीं थे। दिनभर वह अर्धसुप्त-सी अवस्था में रहता-जैसे अफ़ीमची अफ़ीम न मिलने पर रहते हैं। केवल सायं-प्रातः जैसे उसकी तन्द्रा टूट जाती, वह जानता कि वह जीवित है।

उषःकाल से लेकर टहलाई के लिए द्वार खुलने तक, और शाम की टहलाई के बाद बन्द होने से लेकर दिनावसान तक-ये दो मुहूर्त्त न जाने कैसे थे कि दिनभर मुरझाए रहनेवाले प्राण उसके भीतर एकाएक प्रदीप्त हो उठते थे-चार-साढ़े-चार बजे उसकी नींद खुलती, तब वह पलटकर सिर फाटक की ओर कर लेता, और आकाश की ओर देखकर मन के मन के फेरा करता, कभी वर्षा हो रही होती, तो बूँदों का स्वर उसके विचारों पर ताल देता चलता...

फूटते आलोक की पहली किरण के साथ, मिटते आलोक की अन्तिम दीप्ति के साथ, तीर-सा एक प्रश्न शेखर के हृदय को बेध जाता, “क्या आत्माहुति देकर वह सुखी है?” उसका पत्र फिर नहीं आया था; जानकारी के लिए शेखर के पास कुछ नहीं था सिवाय अपनी समझ के-कितनी क्षुद्र समझ!-और अपनी समवेदना के-कितनी असमर्थ संवेदना!

क्यों नहीं लिखा उसने? क्या दुःख में है इसलिए? या सुखी है इसलिए?

कभी व्याकुलता इतनी उग्र हो उठती कि वह दाँत भींचकर, मुट्ठी बाँधकर, फ़र्श पर, दीवार पर, जँगले पर दे मारता, एक बार, दो बार, तीन बार...जब तक कि जोड़ों पर से खून न फूट आता-तब उस रक्त को वह माथे पर पोंछ लेता और उसकी ललाई से उसे कुछ शान्ति मिलती! कभी अपने ही कार्य से घबराकर यह पूछ उठता, क्या मैं पागल हो गया हूँ? पर तत्काल ही पहला प्रश्न इस दूसरे प्रश्न को निकाल देता, और मानो इस अल्पकालिक विस्मृति के दंड-स्वरूप स्वयं अधिक तीव्र हो उठता...

किन्तु दिन में इतनी शक्ति का संचय कभी न होता, वह केवल एक क्षीण-सी चिन्ता में सोचा करता, क्या वह आत्मबलिदान उचित हुआ?...कौन कह सकता है? कोई नहीं जानता-जाननेवाली, कहनेवाली, निश्चय करनेवाली एकमात्र शशि है! यह प्रश्न उसका प्रश्न है...बाबा मदनसिंह ने भी तो कहा था, हर एक को अपना रास्ता खुद खोजना होता है...

कभी उसे इसमें भी सन्देह हो आता। क्या सचमुच यह व्यक्तिगत प्रश्न है? क्या सामाजिक उत्तरदायित्व इसमें शामिल नहीं है? व्यक्ति अपने को रखे या बलि दे, अच्छे काम में बलि दे या बुरे में, क्या इसका एकमात्र निर्णायक वह व्यक्ति स्वयं है और समाज को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है? उसका मन भटकने लगता...यह तो वही पुराना हिंसा और अहिंसा का प्रश्न है...

चाहे यह अपने प्रश्न का उत्तर पाने की उत्कृष्ट इच्छा रही हो, चाहे केवल कुछ घूमने-फिरने की; शेखर बाबा मदनसिंह से मिलने गया। और न जाने क्यों उसकी पुरानी जिज्ञासाएँ उबल पड़ी; शशि का प्रश्न भी बीच में उलझ गया और शेखर हिंसा-अहिंसा और सामाजिक दायित्व के पचड़े फिर ले बैठा।

बाबा बोले, “देखिए, आजकल न जाने मन क्यों बहुत दुःखी रहता है। शायद मैं कोई नया सूत्र पानेवाला होऊँ, शायद केवल बुढ़ापा ही हो। इसलिए आपके सवालों का जवाब सूत्रों में ही-पुराने सूत्रों में ही दूँगा। प्रश्न अवश्य सामजिक भी है। मुझे दीखता है कि हमारा भारतीय जीवन और दर्शन अन्तर्मुखी और व्यक्तिवादी है-जैसे, हम मुक्ति का साधन यही मानते हैं कि जहाँ तक हो सके, अपने को समाज से अलग खींच लें और ‘आत्मानं विद्धि।’ इस व्यक्तिवाद का परिणाम है कि हम पाप-पुण्य भी व्यक्तिगत ही समझते हैं। तभी तो हमारे घर्मात्मा लोग साँपों को दूध पिलाना भी पुण्य समझते हैं। सामाजिक दृष्टि से यह हिंसा है। दूसरी ओर पश्चिम का जीवन और दर्शन हमारे बिलकुल विपरीत है। वह बहिर्मुखी और समाजवादी है। उसका मानदंड भिन्न है, उनकी समझ में हमारा दृष्टिकोण आध्यात्मिक कलाबाजी और कायरता है। हम उन्हें निकृष्ट पदार्थवादी कह सकते हैं, वह हमें थोथे अध्यात्मवादी कह सकते हैं। पर इस गाली-गलौज से भी यह बात नहीं छिपती कि हम दोनों एक-दूसरे के आदर्श नहीं भूल सकते। खासकर हम लोगों को अपने आदर्शों में सुधार की जरूरत है, क्योंकि हम नीचे हैं।” कुछ देर चुप रहकर बाबा मुस्कराये : “भेड़ों की तरह झुंड बाँधकर रहेंगे, तो भेड़-चाल चलनी पड़ेगी। भेड़-चाल का सभ्य नाम संस्कृति है।”

शेखर कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा। चेहरे पर एक साथ पड़ी दो बूँदों ने उसे चौंका दिया। उसने ऊपर देखा, आकाश में सावन के घने बादल थे, और पश्चिमी क्षितिज पर एक मटमैला धब्बा क्रमशः फैलता हुआ बढ़ रहा था-उसके भीतर से मानो किसी तरह का प्रकाश फूट रहा था।

“अन्धड़ आ रहा है।”

“अच्छा ही है, मुझे आजकल इसकी जरूरत थी।” बाबा की आँखों पर भी एक बादल छा गया। “वह कहानी का पठान बाहर चला गया था, तब जेल की अवधि नहीं गिनता था, पर मेरे लिए तो ‘कुछ न होना’ ही स्थायी हो गया है। ये इक्कीस वर्ष मुझ पर बोझ हो गये हैं। इसीलिए आँधी-तूफान से कुछ सहारा मिलता है।”

शेखर ने विस्मय से उनकी ओर देखा, उस क्षण में बाबा उसे पहली बार बूढ़े लगे-उनकी आँखें बूढ़ी हो गयी थीं, और धवल जटा और धवल दाढ़ी से भी कितनी अधिक बूढ़ी! मानो शाप-ग्रस्त प्रथम मानव का शाप उनमें चमक गया हो!-”अपने दुःख के सहारे ही तू जिएगा!”

वह सहमा हुआ-सा धीरे-धीरे लौट पड़ा।

कोठरी की ओर लौटते हुए शेखर के भीतर सहसा ग्लानि उमड़ आयी। कितनी घोर लज्जा की बात है कि वह इस समय कोरी बौद्धिक उलझनों में पड़ा हुआ है, जबकि शशि पर न जाने क्या बीत रही होगी...मानसिक क्लेश, शायद शारीरिक यातना-वह चलते-चलते ठिठक गया-कौन जाने क्या अवस्था होगी इस समय शशि की!

क्या अवस्था होगी? किस बात को डर रहा है वह? वह नामहीन कौन-सा डर है, जो उसके भीतर है?

मानो उसके प्रश्न के उत्तर में वायु का एक झोंका जेल के असंख्य सींखचों, लौहद्वारों और वातायनों में से कराहता हुआ निकल गया-वह कराह फिर ऊँची उठी और फिर धीमी पड़ गयी, फिर उठी और एक अपार्थिव पीड़ित प्राणी की चीख बन गयी; उसकी व्याकुल साँस शेखर को धकेलने-सी लगी-आँधी का पहला वातचक्र उसे घेरे ले रहा था...

वह फिर चल पड़ा।...किन्तु सोचने से कैसे रुका जाए-सोचने में नहीं, प्रश्न पूछने से कैसे रुका जाए! और प्रश्नों का अन्त कहाँ-जिज्ञासा के घूँट नहीं होते, वह तो भीमप्रवाहिनी कूलहीना नदी है स्वयं जीवन की तरह दुर्निवार...

मदनसिंह ने कहा था, पीड़ा तपस्या है, किन्तु असली तपस्या तो जिज्ञासा है-क्योंकि वही सबसे बड़ी पीड़ा है...

वह कोठरी में पहुँच गया था। सन्तरी पहले ही वहाँ मौजूद था, शेखर के भीतर जाते ही उसने ताला बन्द कर दिया और स्वयं आँगन से बाहर निकलकर कुछ दूर पर सामने बने हुए कठघरे में जा खड़ा हुआ-आँधी के साथ ही बड़ी बूँदें वर्षा की पड़ने लगी थीं...

जिज्ञासा-जिज्ञासा-यह मर्मान्तक पीड़ा...

पर मैं जानना चाहता हूँ-शशि की अवस्था जानना चाहता हूँ...क्या वह सुखी है?

...‘जहाँ अपना वश नहीं है, वहाँ दुःख करना ही मोह है।...कहाँ पढ़ा था उसने यह? या यह मदनसिंह के शब्दों में ‘सूत्र’ है, दुःख की चोट से पाया हुआ? वेदना के बिना ज्ञान नहीं है तभी तो ज्ञान अपौरुषेय है-पुरुष की बुद्धि में वह नहीं पाया जाता, वेदना में, तपस्या में, वह उदित होता है। वह मन्थन में मिलनेवाला अमृत नहीं है, वह अवतीर्ण होनेवाला कोई अप्रमेय है...इसी तरह कभी प्राचीन ऋषियों ने वह सूत्रबद्ध ज्ञान पाया होगा, जो अब वेद है-जो ‘जाना हुआ’ है, किसी भीतरी आलोक से सहसा प्रकट हुआ-इसी तरह पीड़ा की तपस्या से सहसा जागकर उन्होंने प्रज्ञा के बोझ से लड़खड़ाकर कहा होगा, ‘अपौरुषेय! अपौरुषेय!’...

एक चौंधियानेवाले प्रकाश ने घिरती रात के अन्धकार को फाड़ डाला, भीषण गड़गड़ाहट ने जेल के लोहे और पत्थर को कँपा दिया, आकाश का बोझीला पर्दा मानो अपने भार से फट गया और धारासार वर्षा होने लगी; शेखर के पैरों में कुछ आकर लगा तो उसने देखा एक बड़ा-सा ओला है; वह जँगले के पास जाकर खड़ा हो गया; शीत से काँपता हुआ, बादल के गम्भीर घोष और बिजली की तड़पन से हतबुद्धि, आँधी और पानी के क्रुद्ध थपेड़ों से पिटता हुआ खड़ा रहा...कितना अच्छा था यह सामने की मार खाना, कितना अच्छा था इस तरह पिटते हुए खड़े रहना, उस नामहीन, आकारहीन शत्रु द्वारा असहाय लील लिए जाने की अपेक्षा...

किन्तु उसने निस्तार कहाँ है? प्राकृतिक तत्त्वों की इस उथल-पुथल में भी आत्मा कहाँ चुप है...जेल में दूसरे भी तो हैं, वे भी क्या कर रहे होंगे इस समय?...उसे याद आया, एक दिन उसने देखा था, जेठ की दुपहरी में एक कैदी वर्षा में भीगे और ठिठुरे हुए बन्दर की तरह कोठरी के जँगले के नीचे उकड़ू बैठा था; और बिल्लौर के मनके-सी उसकी आँखें उत्तम सफ़ेद आकाश पर टिकी थीं...क्या वह जीवन था? उस समय उसका जीवन मानो स्थगित था, प्राणीत्व भी मानो स्थगित था; उस समय उसके भीतर से वह कई अर्व वर्षों का जड़त्व झाँक रहा था, जो विकास-द्वारा जीवोद्भव से पहले उसकी मिट्टी का रहा होगा...बाबा मदनसिंह की कहानी का पठान ठीक ही कहता था-जेल में आदमी जीता नहीं, वृद्धि नहीं पाता...पर वृद्ध अवश्य हो जाता है-गात सूख जाते हैं और बाल पक जाते हैं...

और स्थगित जीवन के उस भीषण अन्तराल में क्षुद्र बुद्धि ही एकमात्र सम्बल है, जिज्ञासा ही एकमात्र सम्बल है...वही स्थानापन्न प्राण है...

शेखर एक बार काँपा, और फिर लिखने बैठ गया। हाँ, “...”

ईश्वर ने सृष्टि की।

सब ओर निराकार शून्य था, और अनन्त आकाश में अँधकार छाया हुआ था। ईश्वर ने कहा-‘प्रकाश हो।’ और प्रकाश हो गया। उसके आलोक में ईश्वर ने असंख्य टुकड़े किये और प्रत्येक में एक-एक तारा जड़ दिया। तब उसने सौर-मंडल बनाया, पृथ्वी बनायी। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।

तब उसने वनस्पति, पौधे, झाड़-झंखाड़, फलमूल, लता-बेलें उगायीं; और उन पर मँडराने को भौंरे और तितलियाँ, गाने को झींगुर भी बनाये।

तब उसने पशु-पक्षी भी बनाये। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।

लेकिन उसे शान्ति न हुई। तब उसने जीवन में वैचित्र्य लाने के लिए दिन और रात, आँधी-पानी, बादल-मेह, धूप-छाँह इत्यादि बनाए; और फिर कीड़े-मकोड़े, मकड़ी-मच्छर, बर्रे-बिच्छू और अन्त में साँप भी बनाए।

लेकिन फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। तब उसने ज्ञान का नेत्र खोलकर सुदूर भविष्य में देखा। अन्धकार में, पृथ्वी और सौर-लोक पर छायी हुई प्राणहीन धुन्ध में कहीं एक हलचल, फिर उस हलचल में धीरे-धीरे एक आकार, एक शरीर का, जिसमें असाधारण कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी सामर्थ्य हैं; एक आत्मा जो निर्मित होकर भी अपने आकार के भीतर बँधती नहीं, बढ़ती ही जाती है; एक प्राणी जो जितनी बार धूल को छूता है नया ही होकर अधिक प्राणवान् होकर, उठ खड़ा होता है...

ईश्वर ने जान लिया कि भविष्य का प्राणी यही मानव है। तब उसने पृथ्वी पर से धुन्ध को चीरकर एक मुट्ठी धूल उठायी और उसे अपने हृदय के पास ले जाकर उसमें अपनी विराट आत्मा की एक साँस फूँक दी-मानव की सृष्टि हो गयी।

ईश्वर ने कहा-”आओ, मेरी रचना के महाप्राणनायक, सृष्टि के अवतंस।”

लेकिन कृतित्व का सुख ईश्वर को तब भी नहीं प्राप्त हुआ, उसमें कलाकार अतृप्त ही रह गया।

क्योंकि पृथ्वी खड़ी रही, तारे खड़े रहे। सूर्य प्रकाशवान नहीं हुआ, क्योंकि उसकी किरणें बाहर फूट निकलने से रह गयीं। उस विराट सुन्दर विश्व में गति नहीं आयी।

दूर पड़ा हुआ आदिम साँप हँसता रहा। वह जानता था कि क्यों सृष्टि नहीं चलती। और वह इस ज्ञान को खूब सम्भालकर अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हुआ था।

एक बार फिर ईश्वर ने ज्ञान का नेत्र खोला, और फिर मानव के दो बूँद आँसू लेकर स्त्री की रचना की।

मानव ने चुपचाप उसकी देन को स्वीकार कर लिया; सन्तुष्ट वह पहले ही था, अब सन्तोष द्विगुणित हो गया। उस शान्त जीवन में अब भी कोई अपूर्ति न आयी और सृष्टि अब भी न चली।

और वह चिरन्तन साँप ज्ञान को अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हँसता रहा।

2

साँप ने कहा, “मूर्ख, अपने जीवन से सन्तुष्ट मत हो। अभी बहुत कुछ है जो तूने नहीं पाया, नहीं देखा, नहीं जाना। यह देख, ज्ञान मेरे पास है। इसी के कारण तो मैं ईश्वर का समकक्ष हूँ, चिरन्तन हूँ।”

लेकिन मानव ने एक बार अनमना-सा उसकी ओर देखा, और फिर स्त्री के केशों से अपना मुँह ढँक लिया। उसे कोई कौतूहल नहीं था, वह शान्त था।

बहुत देर तक ऐसे ही रहा। प्रकाश होता और मिट जाता; पुरुष और स्त्री प्रकाश में, मुग्ध दृष्टि से एक-दूसरे को देखते रहते, और अन्धकार में लिपटकर सो रहते।

और ईश्वर अदृष्ट ही रहता, और साँप हँसता ही जाता।

तब एक दिन जब प्रकाश हुआ, तो स्त्री ने आँखें नीची कर लीं, पुरुष की ओर नहीं देखा। पुरुष ने आँख मिलाने की कोशिश की, तो पाया कि स्त्री केवल उसी की ओर न देख रही हो ऐसा नहीं हैं; वही किसी की ओर भी नहीं देख रही है; उसकी दृष्टि मानो अन्तर्मुखी हो गयी है, अपने भीतर ही कुछ देख रही है, और उसी दर्शन में एक अनिर्वचनीय तन्मयता पा रही है...तब अन्धकार हुआ, तब भी स्त्री उसी तद्गत भाव से लेट गयी, पुरुष को न देखती हुई, बल्कि उसके ओर से विमुख, उसे कुछ परे रखती हुई...

पुरुष उठ बैठा। नेत्र मूँदकर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। उसके पास शब्द नहीं थे, भाव नहीं थे, दीक्षा नहीं थी। लेकिन शब्दों से, भावों से, प्रणाली के ज्ञान से परे जो प्रार्थना है, जो सम्बन्ध के सूत्र पर आश्रित हैं, वही प्रार्थना उसमें से फूट निकलने लगी...

लेकिन विश्व फिर भी वैसा ही निश्चल पड़ा रहा, गति उसमें नहीं आयी।

स्त्री रोने लगी। उसके भीतर कहीं दर्द की एक हूक उठी। वह पुकारकर कहने लगी, “क्या होता है मुझे! मैं बिखर जाऊँगी, मैं मिट्टी में मिल जाऊँगी...”

पुरुष अपनी निस्सहायता में कुछ भी नहीं कर सका, उसकी प्रार्थना और भी आतुर, और भी विकल, और भी उत्सर्गमयी हो गयी, और जब वह स्त्री का दुःख नहीं देख सका, तब उसने नेत्र खूब ज़ोर से मींच लिए...

निशीथ के निविड़ अँधकार में स्त्री ने पुकारकर कहा-”ओ मेरे ईश्वर-ओ मेरे पुरुष-यह देखो!”

पुरुष ने पास जाकर देखा, टटोला और क्षण भर स्तब्ध रह गया। उसकी आत्मा के भीतर विस्मय की, भय की एक पुलक उठी, उसने धीरे से स्त्री का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया...

फूटते हुए कोमल प्रकाश में उसने देखा, स्त्री उसी के एक बहुत स्निग्ध, बहुत प्यारे प्रतिरूप को अपनी छाती से चिपटाए है और थकी हुई सो रही है। उसका हृदय एक प्रकांड विस्मय से, एक दुस्सह उल्लास से भर आया और उसके भीतर एक प्रश्न फूट निकला, “ईश्वर, यह क्या सृष्टि है जो तूने नहीं की?”

ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब मानव ने साँप से पूछा-”ओ ज्ञान के रक्षक साँप, बताओ यह क्या है जिसने मुझे तुम्हारा और ईश्वर का समकक्ष बना दिया है-एक स्रष्टा-बताओ, मैं जानना चाहता हूँ!”

उसके यह प्रश्न पूछते ही अनहोनी घटना घटी। पृथ्वी घूमने लगी, तारे दीप्त हो उठे, फिर सूर्य उदित हो आया दीप्त हो उठा, बादल गरज उठे, बिजली तड़प उठी...विश्व चल पड़ा!

साँप ने कहा-”मैं हार गया। ईश्वर ने ज्ञान मुझसे छीन लिया।” और उसकी गुंजलक धीरे-धीरे खुल गयी।

ईश्वर ने कहा-”मेरी सृष्टि सफल हुई, लेकिन विजय मानव की है। मैं ज्ञानमय हूँ, पूर्ण हूँ। मैं कुछ खोजता नहीं। मानव में जिज्ञासा है, अतः वह विश्व को चलाता है, गति देता है...”

लेकिन मानव में उलझन थी, अस्तित्व की समस्या थी। पुकार-पुकारकर कहता जाता था-”मैं जानना चाहता हूँ!”

और जितनी बार वह प्रश्न दुहराता था, उतनी बार सूर्य कुछ अधिक दीप्त हो उठता था, पृथ्वी कुछ अधिक तेजी से घूमने लगती थी, विश्व कुछ अधिक गति से चल पड़ता था और मानव के हृदय का स्पन्दन भी कुछ अधिक गति से चल पड़ता था और मानव के हृदय का स्पन्दन भी कुछ अधिक भरा हो जाता था।

आज भी जब मानव यह प्रश्न पूछ बैठता है, तब अनहोनी घटनाएँ होने लगती हैं।

शशि का एक और पत्र-वह लिखती है कि शायद उसका जीवन चल जाए-उसमें सुख नहीं तो दुःख भी नहीं है, किसी तरह की कोई गहरी अनुभूति नहीं है, केवल उनींदे रहने से हो जानेवाले सिरदर्द की तरह एक हल्का-सा बोझ हर समय उसके ऊपर पड़ा रहता है...‘कभी सोचती हूँ क्या जीवन ऐसे ही बीतेगा? गाजर-मूली की तरह बढ़ना और उखाड़ लिए खाना, बस? पर फिर ध्यान आता है, कई ऐसे जीते हैं और दर्जनों बरस निकल जाते हैं...और यहाँ ऐसे यन्त्र-तुल्य जीवन के सभी साधन हैं, किसी को मुझमें इतनी भी दिलचस्पी नहीं है कि तिरस्कार भी करे...”यह वह जीवन नहीं है, जिसकी मैंने कल्पना की थी, पर शायद सबका उदाहरण देखकर मैं भी ऐसी बन जाऊँ कि अपनी अवस्था का तिरस्कार न कर सकूँ और शान्त, सन्तुष्ट, निर्वेद होकर जीना जी डालूँ। दुःख तो मुझे अब भी कोई नहीं है।...” और फिर एकाएक बदलकर “तुम कब आआगे?”

कब जाएगा वह? वह नहीं जानता। मुकदमा मालूम होता है कभी समाप्त नहीं होगा! गवाही प्रायः समाप्त हो गयी थी, वकील ने कहा था कि शेखर के विरुद्ध कुछ नहीं है, तब नये गवाह लाने की अनुमति माँगी गयी थी और अदालत ने उन्हें बुला भी लिया था...

पर अब जाए-न-जाए, कोई बात नहीं है। विवाश शशि का हो चुका, और अपना घर जैसे उसके मन से ही निकल गया है। और शशि अब निराग्रह होकर जी रही है, जीवन से कुछ माँगती नहीं है, अतः दुख भी नहीं पाती है। वह भी उपराम है, शून्य है, जेल और बाहर सब बराबर है।

भादों...आश्विन...कार्तिक...प्रकाश होता है और धुँधला पड़ जाता है; जेल के चौदह सौ आदमी गिनते हैं कि एक दिन और बीत गया; लोग मानते हैं कि अस्तित्व का छकड़ा एक मंजिल और पार कर गया; सभी समझते हैं कि वे जी रहे हैं...इसी प्रकार तीन महीने-शेखर सुनता और देखता है, पर जीवन उसका भी स्थगित हैं...

मोहसिन पर दारोग़ा का क्रोध होता है, हजामत बनाने के अपराध में उसे सजाएँ मिलती हैं, कड़ा पहरा बिठाया जाता है; पर न जाने कैसे प्रति सोमवार परेड के समय उसकी दाढ़ी साफ़ और चिकनी होती है और वह कहीं से निकालकर उस्तरे की एक पुरानी पत्ती दारोग़ा के आगे पेश कर देता है...ऐसी खुली अवज्ञा असह्य है-दारोगा सजाएँ बढ़ाते जाते हैं-बेड़ी के बाद डंडा बेड़ी, फिर खड़ी हथकड़ी, फिर रात हथकड़ी, फिर दो-दो और तीन-तीन सजाएँ एक साथ-रात को उलटी हथकड़ी और दिन-रात डंडा-बेड़ी फिर ‘कसूरी खूराक’ यानी भोजन की बजाय पानी में घुला हुआ आटा...फिर एक दिन उसें बेंत लगने की आज्ञा हुई, वार्डर उसे पकड़कर शेखर की कोठरी के सामने से ले गये, मोहसिन ने उसे देखकर हँसकर कहा, “देख, मौलवी, मैं हज करने चला हूँ!” पन्द्रह मिनट बाद वह उसी तरह अकड़ता हुआ चला आया-पर अबकी बार बिलकुल नंगा और कमर तक खून में लथपथ-शेखर को देखकर बोला, “मौलवी, मुझे तेरे पास ला रहे हैं, अब गाना सुना करना!” और बढ़ गया-घसीटकर आगे ले जाया गया...स्तम्भित शेखर को वार्डर ने बताया, बेंत कसूरी थे, अदालती नहीं-यानी जेल के अपराध के कारण जेल अधिकारियों द्वारा लगवाए गये थे, इसलिए तेल में भिगोकर रखे गये थे और जल्लाद के पूरे जोर से लगवाए गये थे...जब मोहसिन तीस बेंत खा चुका और टिकटी से उतारा गया, तब दारोग़ा को देखकर बोला, “बस? अब तो मैं खलीफ़ा हो गया, अब क्या है!” इस पर छोटे अधिकारियों को मुस्कराता देखकर दारोग़ा आपे से बाहर हो गया था; मोहसीन को एक और नया दंड मिला टाटवर्दी का! बेंत लगाने के लिए मोहसिन को नंगा तो किया ही गया था, जब उसके बाद पहनने के लिए उसे टाट-बोरिए का एक जाँघिया दिया गया, तब उसने उसे पहनने से इनकार कर दिया, इसलिए उसे नंगा ही कोठरी में भेजा गया-कोठरी भी बदलवा दी गयी कि पहरा और कड़ाई से हो सके। अब वह पूरबवाली फाँसी की कोठरियों में रखा गया है...

किन्तु न जाने कैसे, मोहसिन को परास्त नहीं किया जा सका। अगले परेड में उसकी ठोढ़ी फिर चिकनी थी, और वह साभिमान नंगा ही साहब के सामने खड़ा था...

उसके बाद दारोग़ा ने अपना दैनिक अपमान देखना असम्भव पाकर मोहसिन को परेड में पेश करना ही छोड़ दिया, फाँसी की कोठरी से हटाकर एक और कोठरी में डाल दिया, जो जेल में कब्रिस्तान के नाम से प्रसिद्ध थी-उसमें प्रायः भीषण छूत रोगों के रोगी ही रखे जाते थे या लाइलाज बदमाश। जब ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होता था, तब खाली पड़ी रहती थी। मोहसिन ने हज़ामत करना नहीं छोड़ा, और टाटवर्दी नहीं पहनी। दारोग़ा शायद इस आशा में रहे कि सर्दी आने पर वह स्वयं हार मानेगा-अगर टाटवर्दी ही पहन लेगा तो वही हार होगी। पर कार्तिक भी आया और मोहसिन में कोई परिवर्तन नहीं आया, केवल उसकी दुबली देह में हड्डियाँ और निकल आयीं, सूखी त्वचा और साँवली पड़ गयी...तब एक दिन शेखर ने सुना कि उसके शरीर पर कई-एक फोड़े...निकल आये हैं, और डाक्टर ने कहा कि उसे क्षय हो गया है...

एक दिन अपराजित मोहसिन को दफ्तर में बुलाया गया, वहाँ उसको उसके अपने कपड़े पहनाए गये; पाँच मिनट बाद उसे पुलिस की लारी में बिठाकर चलता कर दिया गया। मालूम हुआ कि उसकी रिहाई समीप आ गयी थी, इसलिए उसे घर के जिले की जेल में भेज दिया गया...

और बाबा मदनसिंह भी अस्वस्थ रहने लगे। शेखर अब प्रायः नित्य ही उनसे मिलने जाता और देखता कि उस अत्यन्त बूढ़े चेहरे में तो कोई परिवर्तन नहीं आया है, पर उसका वह अंश जो अभी तक युवा था, वह तीव्र गति से वृद्धत्व का मार्ग तय कर रहा है-बाबा की आँखें...इक्कीस-बाईस वर्ष के स्थगित जीवन का अन्धकार मानो एकाएक ही उन चमकीली आँखों की ज्योति को छू लेना चाहता है...इस बन्दी ऋषि के लिए शेखर के मन में गहरे आदर का भाव हो गया था, और जब से उसने सुना था कि बाबा को संग्रहणी हो गयी है, तब से एक गहरी चिन्ता हर समय उसे सताती रहती थी...दिन भर वह चिन्ता लिए रहता और सायं-प्रातः नियमपूर्वक वह बाबा के पास जाता, यही उसकी दिनचर्या हो गयी थी।

इसी तरह भादों बीता, आश्विन बीता, कार्तिक भी बीत चला। तब एक दिन सहसा शेखर के स्थगित जीवन में एक गहरा आघात हुआ और उसने पाया कि स्थगित कुछ नहीं है, उसके मर्म के ऊपर बहुत ही हल्का आच्छादन है, जो कभी भी छिन्न-भिन्न हो सकता है और मर्मस्थल को किसी भी चोट के लिए नंगा छोड़ दे सकता है...

फाँसी-कोठरियों की जिस कतार में शेखर था, उसमें कुल चार कोठरियाँ थीं। उनके वासी प्रायः बदलते रहते थे। एक कोठरी में शेखर था ही, बाकी तीन में उसके होते-होते ग्यारह आदमी आ चुके थे। दो-तीन वहाँ आने के बाद भी छूट गये थे, बाकी को फाँसी हो गयी थी।

आश्विन में एक दिन सन्ध्या समय एक नया आदमी लाया गया। शेखर ने कौतूहल से उसे देखा-23-24 वर्ष का जाट युवक, सुन्दर गठा हुआ शरीर, गोरा रंग, छोटी-छोटी ऐंठदार मूँछें, बड़ी स्वच्छ और निर्भीक आँखें-शेखर सोच नहीं सका कि यह आदमी हत्यारा हो सकता है। जब वार्डर उसे शेखर के साथवाली कोठरी में छोड़कर चले गये, तब शेखर ने पहरेवाले सन्तरी से उसके बारे में पूछकर जाना कि यह हत्यारा है, इसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है।

उसका नाम था रामजी। नाम तो शेखर ने शेखर ने पहले ही दिन जान लिया था, दूसरे दिन शेखर के घूमने निकलने पर उसने उसे बुलाकर परिचय भी कर लिया।

“बाबूजी, ज़रा सुनिए तो!”

शेखर उसकी कोठरी के आगे जा खड़ा हुआ था।

“इस सुरंग के प्लेटफार्म पर आप कैसे?”

“क्या मतलब?”

“आपको भी सज़ा हुई है क्या?”

शेखर ने बता दिया कि वह अभी अभियुक्त है, स्वेच्छा से ही उस कोठरी में आया था।

“तब तो आप बाहर से सामान मँगा सकते होंगे? मुझे कभी दो-एक सिगरेट दे दिया कीजिए-बुरी आदत है बाबूजी, पर अब तो फाँसी चढ़ना ही है, इसलिए पी लेता हूँ-आप पीते हैं न?”

“नहीं, पर मँगा लूँगा, ले लिया करना।”

“आप हत्यारे पर इतनी दया दिखाना बुरा तो नहीं समझते? नहीं तो-”

“इसमें दया की कौन-सी बात है-” शेखर रुक गया; एक प्रश्न उसकी जबान पर आया था, जो वह पूछना नहीं चाहता था।

“आप रुक क्यों गये? कुछ पूछना चाहते थे-यही न कि मैंने हत्या क्यों की?”

“हाँ...”

“सो भी औरत की हत्या। आप जानते हैं न?”

“नहीं।”

“आपने पूछा है, तो सारी बात बता देता हूँ। अदालत में तो कह ही आया था।” कुछ रुककर कहने लगा, “गाँव में हमारी थोड़ी-सी जमींदारी थी-मेरे बड़े भाई की और मेरी। पर भाई को यह काम पसन्द नहीं था, इसलिए वह भाभी को घर में छोड़कर नौकरी की तलाश में शहर चले गये थे। नौकरी उनकी लग भी गयी थी, और वे हर दूसरे महीने बीस-पच्चीस रुपया भाभी को भेज देते थे।”

“पर भाभी का मन अच्छा नहीं था। पड़ोस के जो लोग हमारे घर आकर भाई का हाल-चाल पूछा करते थे, उन्हीं में से एक से उसकी कुछ बातचीत हो गयी थी, और मेरे पीछे वह अक्सर उससे मिलने आता था मुझे कोई खबर नहीं थी; मुझे एक दिन एकाएक ही पता चला। भादों में एक दिन साँझ को घर आकर मैंने भाभी को बताया कि मुझे रात खेत पर ही रहना पड़ेगा, क्यों, इसमें आपको कोई दिलचस्पी नहीं होगी। खेत में काम था। मैं कहकर और बासी रोटी लेकर चला गया।

“बारिश तो दिन में भी होती रही थी, पर रात को बड़े ज़ोर की हुई और ओले भी पड़ने लगे, तब मैं काम छोड़कर लौट पड़ा। घर आकर दरवाज़ा खटकाने पर बहुत देर तक नहीं खुला, आवाजें देने पर भी नहीं। जब मैं गुस्से में आकर तोड़ने लगा, तब भाभी ने आकर किवाड़ खोले और सहमी-सी एक तरफ खड़ी हो गयी। मैंने देखा, सामने वही आदमी खड़ा है, उसके कपड़े और जूते सूखे हैं जिससे जान पड़ता है, वह देर का आया हुआ है।”

रामजी चुप हो गया। फिर लम्बी साँस लेकर बोला, “बाबूजी, मेरी जगह आप होते तो क्या करते?”

शेखर कुछ उत्तर नहीं दे सका। चुपचाप खड़ा रहा। रामजी कहने लगा, “खैर, मैं तो जो कर चुका, कर चुका। मैंने भाभी से पूछा कि यह कौन है, क्यों आया है? उसने जवाब नहीं दिया। मैंने उस आदमी से पूछा, वह भी नहीं बोला। तब मैंने भाभी को धमकाकर पूछा कि यह पहले भी आता रहा है? बहुत धमकाने पर बोली, कई बार आया है। मैंने पूछा, तू इसे चाहती है? तो कुछ नहीं बोली। मैंने आदमी से पूछा, वह भी नहीं बोला। तब मैंने कहा, “अगर तुम लोगों में प्रेम है, तो तुम ब्याह कर लो। मैं कुछ नहीं कहूँगा। पीछे जो होगी, सो मैं देख लूँगा। भाई को भी मना लूँगा। बोल, तू है तैयार?” भाभी कुछ नहीं बोली। मैंने उस आदमी से पूछा, तो बोला, ‘तू....है बीच में पड़नेवाला?’

“मुझे गुस्सा आ रहा था, पर मैं चाहता था भाभी से अन्याय न करूँ। भाभी तो वह नहीं रही थीं, पर भाई के साथ जो तीन बरस रह चुकी थी, उसका कुछ लिहाज था ही। मैंने फिर पूछा, ‘बता, तू इससे ब्याह करने को तैयार है?’ वह बोला, ‘मैं बीबी-बच्चेवाला आदमी हूँ, मैं क्यों मुसीबत मोल लूँ?’ मैंने पूछा, ‘तब पहले क्यों उस घर में घुसा था? वह बोला, ‘इसी ने बुलाया था।’ उसके कमीनेपन पर मुझे इतना क्रोध आया कि मैं मुश्किल से सम्भाल सका, पर किसी तरह मैंने कहा, ‘यह सब मैं नहीं जानता। या तो तुम दोनों सबेरे ब्याह कर लो, या फिर जो मेरे मन में आएगा, करूँगा!”

“उसने मुझे गाली दी। भाभी में से मैंने पूछा, ‘तू है तैयार? अगर है तो मैं इसे मनाकर छोड़ूँगा,’ पर वह भी नहीं बोली। तब मेरी आँखों में खून उतर आया और मैंने गड़ासे से दोनों को काट डाला।”

साँस लेने के लिए और शेखर पर बात का असर देखने के लिए, वह थोड़ी देर रुका। “फिर मैंने उसी वक्त थाने में जाकर बयान दे दिया-भाभी को मारकर मेरा मन दुनिया में रहने को नहीं हुआ। खूनी को मरना ही चाहिए। बस आगे तो जो होता है, सो है ही!”

थोड़ी देर मौन रहा। फिर रामजी अपने आप बोला, “बाबूजी, मैं आपसे नहीं पूछूँगा, मैंने अच्छा किया या बुरा। मैं शर्मिन्दा नहीं हूँ। और अच्छी तरह मरूँगा। मैंने इसीलिए अपील नहीं की है।”

शेखर चुपचाप सोचता हुआ चला गया था। उसके बाद क्रमशः उसका परिचय बढ़ता गया था-शेखर के मन में कुछ स्नेह भी इस आधे जंगली और पूर्णतः ईमानदार व्यक्ति के लिए हो गया था।

कार्तिक में एक दिन सुना कि रामजी की अपील नामंजूर हो गयी है, और चौथे दिन उसे फाँसी हो जाएगी। रामजी ने अपील नहीं की थी, पर जेलवालों ने स्वयं ही उसकी ओर से हाईकोर्ट में दरखास्त भिजवा दी थी।

शेखर उदास था। पर रामजी पर मानो कोई असर ही नहीं था, जैसे कोई नयी बात हुई ही नहीं थी।

शाम को रामजी ने शेखर को पुकारा, “बाबू साहब!”

शेखर जँगले पर आकर बोला, “क्या है?”

“आपने कभी फाँसी देखी है?”

“नहीं।”

“आप तो सिखनेवाले हैं न, आपको सब कुछ देखना चाहिए।”

“...”

“क्यों नहीं साहब से कहते, मेरी फाँसी देख लेने दें आपको? मुझे भी अकेला नहीं लगेगा-नहीं तो आखिरी समय सब जल्लादों का ही मुँह देखना पड़ेगा!”

शेखर निस्तब्ध कुछ बोल नहीं सका। रामजी की फाँसी देखने की दरखास्त दे वह!...

“बाबूजी आप चुप क्यों हैं? इसमें बुराई नहीं है, एक बिचारे की मदद की है। मैं समझूँगा, मरते वक्त एक दोस्त मौजूद था।”

शेखर ने काँपते स्वर से कहा, “अच्छा...”

पर अनुमति नहीं मिली। शेखर ने उदास वाणी से रामजी से कहा, तो वह भी कुछ खिन्न होकर बोला, “जल्लाद, साले! सब जल्लाद हैं!” और चुप हो गया।

उस दिन शेखर बाहर नहीं निकला, कुछ बोला भी नहीं। रामजी ने कई बार बात करने की चेष्टा की, पर शेखर ‘हाँ-हूँ’ से अधिक नहीं कर सका। अन्त में शाम को रामजी बोला, “बाबूजी, आप तो कोई बात नहीं करते, उदास दीखते हैं। घर से कोई बुरी चिट्ठी आयी है क्या? लीजिए; मैं गाकर आपका मन बहलाता हूँ-ऐसा मौका कब मिलेगा?”

शेखर लज्जा से गड़ गया...

रामजी आधी रात तक गाता रहा। फिर न जाने कब शेखर को नींद आ गयी...

एक दिन और भी किसी तरह बीत गया। रात आयी, तब फिर रामजी गाने लगा। आधी रात के लगभग उसने थककर कहा, “बाबूजी, अब आप कुछ सुनाइए, मैं तो थक गया। सुनता-सुनता सो जाऊँगा।”

शेखर गा नहीं सकता था। पर रामजी के लिए कुछ गाने की कोशिश की। सफलता नहीं मिली। रामजी ने मीठी चुटकी ली, “बाबूजी, आप मेरे ही लिए गा रहे हैं...” तब शेखर कहानियाँ कहने लगा-कभी पुराणों से, कभी विदेशी साहित्य से, कभी एकआध अपने जीवन की घटना...रामजी का ‘हूँ-हूँ’ धीमा पड़ने लगा और नीरव हो गया, शेखर ने वार्डर से पूछकर जाना कि वह सो गया है।

पर शेखर नहीं सो सका। जेल की ‘सब अच्छा’ की पुकारों की ताल पर रात बीतती चली...एकाएक ऊँघ से चौंककर शेखर ने देखा, उषा फूट रही है। डाक्टर रामजी की परीक्षा के लिए आया है।

“डाक्टर साहब, टाँग तो आप देंगे ही, फिर नाड़ी क्यों देखते हैं?”

“भाई, मेरा फर्ज है सो अदा करता हूँ। तुम भी खुदा को याद करो-”

डाक्टर गया। दिन निकलते-निकलते साहब, दारोगा, मैजिस्ट्रेट, चीफ वार्डर और वार्डरों की फ़ौज आ गयी।

शेखर अपनी कोठरी के जँगले पर खड़ा जो देख सकता था, देखता था, बाकी सुनने की कोशिश कर रहा था।

रामजी की तलाशी ली जा रही थी।-हाथ बाँधे जा रहे थे-बाहर निकाला जा रहा था-

क्या वसीयत लिखानी है? किसी को कुछ कहना है?

“इन साथवाले बाबूजी से दो मिनट बात कर लूँ?”

कोई तीन सेकेंड बाद साहब का उत्तर, “नहीं, यह तो हम नहीं कर सकते!”

“तब चलिए।”

कुछ घबराहट, कुछ अव्यवस्था, कुछ गति...

एकाएक आँगनों को जोड़नेवाले फाटक पर रामजी, “अच्छा बाबूजी, अब तो फिर कभी मिलेंगे, उस पार कहीं-” एक द्रुत मुस्कान-जुलूस चला गया-

और जँगले भींचकर पकड़े हुए खड़ा शेखर सहसा पाता है उसकी मुट्ठियाँ खुल गयी हैं, हाथ छटक गये हैं, सिर झुक गया है...

छः दिन के बाद शेखर ने बाहर निकलने का विचार किया ही था कि एक और घटना हुई, जिसने उस बुरे स्वप्न-जैसी अवस्था को तीन दिन और बढ़ा दिया। शशि का पत्र आया कि वह बहुत कष्ट में है, और मनाती है कि शीघ्र उसे जीवन से छुटकारा मिल जाए...क्यों, क्या कष्ट है, कुछ नहीं लिखा था-कल्पना के दानव के लिए ही यह छोड़ दिया था कि वह उस दुःस्वप्न में मनमाने रंग भरे...

शेखर सोचता था, जेल में जीवन स्थापित हो जाता है। और यह क्या है, जो मानो उसे पटककर उसके गले पर चढ़ बैठा है और कह रहा है, ‘मैं स्थगित? तो ले देख, यह मेरा बोझ और मेरी गति की चोट!’ आह, नहीं सहा जाता...नहीं सहा जाता...नहीं सहा जाता जीवन, नहीं सहे जाते बन्धन...

क्यों नहीं सहे जाते? दुर्बल, कायर, झूठा कहीं का! उसके सामने ही मामूली-से-मामूली आदमी, जीवन की हर एक देन से वंचित, धन से, कुल से, आत्मीयों से, विद्या से वंचित, जीवन का सामना करते हुए चले जाते हैं, और वह अभिमानी रोता है कि मैं उसे नहीं सह सकता...कायर, दम्भी...वेदना होती है...संवेदना होती है...संवेदना क्या है, जो जीवन को गहरा नहीं बनाती, घनी नहीं बनाती, जीवन के लिए कृतज्ञ नहीं बनाती? संवेदना की दुहाई देकर जीवन से डरता है! आत्मवंचक...

पीड़ा और अपमान से जलकर सहमा शेखर उठ बैठा, उन्मत्त साँड़ की तरह कन्धे झुकाकर जीवन के दबाव से टक्कर लेने को तैयार...फूले हुए नथनों से फुंकार की तरह साँस लेता हुआ, पृथ्वी को पैरों से मानो रौंदता हुआ वह कोठरी से बाहर निकला कि टहलेगा, सबसे मिलेगा, और नहीं दीखने देगा कि जीवन उसके लिए स्थगित है, बल्कि दुगुनी गति से चल रहा है...

बाबा मदनसिंह खड्डी पर दीवार के सहारे बैठे थे। शेखर ने एक बार उनके चेहरे की ओर देखा, उसकी जिह्वा पर आया हुआ प्रश्न वहीं रह गया। बाबा की हालत अच्छी नहीं थी।

बाबा उठे नहीं, मुस्कराए भी नहीं। शेखर ने देखा, जटा और दाढ़ी के बीच अब त्वचा भी सफेद हो गयी है, अब केवल आँखे हैं जिनमें रंग है-और रंग ही नहीं, आज उनमें दीप्ति है-वे जल रही हैं...

“तुम आए...इतने दिन कहाँ रहे?”

“मेरा मन ठीक नहीं था। मेरे पड़ोसी को फाँसी हो गयी!”

“मेरा भी मन ठीक नहीं है शेखर! शरीर तो अब चला ही, मन भी बहुत खराब है।”

“क्यों बाबा?”

“कुछ नहीं, कमज़ोरी! मैं बाहर के समाचार सुनता-पढ़ता हूँ, तो विचलित हो जाता हूँ!”

“कैसे समाचार?”

“तुमने चटगाँव का हाल पढ़ा है?”

“हाँ-”

“वहाँ जो गोली-ओली चली, उसकी नहीं, उसके बाद जो कुछ हुआ उसका?”

शेखर ने अखबार में पढ़ा था कि वहाँ काफ़ी सख्ती हो रही है, कई तरह की मनाहियाँ जारी हुई हैं, और यह भी पढ़ा था कि वहाँ के समाचार छपने नहीं दिए जाते, तार और चिट्ठियाँ रोकी जा रही हैं।

“और?”

“और तो मैं नहीं जानता।”

“शेखर, सुना है कि वहाँ सैनिक मनमानी कर रहे हैं, गाँव के लोगों को पीट-पीटकर सलामी कराई जाती है, स्त्रियों पर बलात्कार किया जाता है, और-और-एकाएक बाबा का गला रुँध गया, वे कुछ बोल नहीं सके, आवेश में खड़े हो गये...”

“कहाँ सुना आपने?”

“मुझे चिट्ठी आयी है-

“पर जब ख़बरें नहीं आतीं, तब चिट्ठी भेजनेवाले ने कैसे जाना?”

‘जाना नहीं, सुना। तुम यही कहना चाहते हो न कि ये अफ़वाहें हैं, हुआ ही करती हैं, झूठी हैं, कोई प्रमाण नहीं है, जब तक पूरा पता न मिले, तब तक कुछ कहना अनुचित है? ऐसी बहुत बातें में भी सोच चुका हूँ! पर यह सब धोखा है। मेरा क्रोध इसलिए नहीं कि मेरे पास प्रमाण है; क्रोध इसलिए है कि प्रमाण नहीं है। तुम नहीं समझते, हमारी परिस्थिति कितनी भयंकर है, कितनी विवश है कि ऐसे-ऐसे संगीन अभियोगों की भी हम जाँच नहीं कर सकते; उसके प्रमाण में या सफ़ाई में ही, कुछ पूछताछ नहीं कर सकते; कुछ जान नहीं सकते! ये अभियोग सच ही है, ऐसा मैं नहीं कहता। लेकिन ये अभियोग लगाए जा रहे हैं, और हमारे पास साधन नहीं है कि हम जाँच करें। इन साधनों को पाना अधिकार है, और वह अधिकार हमें नहीं मिल रहा...”

बाबा जँगले के पास आ गये। भिंची हुई मुट्ठी शेखर की ओर उठाकर उन्होंने कहा, “दासता-एकदम घृणित परवशता-और किसे कहते हैं? अप्रिय के ज्ञान को नहीं, असत्य में विश्वास को भी नहीं, दासता कहते हैं उस अवस्था को, जिसमें हम सत्य और असत्य को जानने में असमर्थ हो जाते हैं; दासता है वह बन्धन, वह मनाही, जो हमारा ज्ञान माँगने का अधिकार छीन लेता है...”

एकाएक वे रुक गये। “यह बात शायद मैं पहले कह चुका हूँ-इसका अनुभव किये मुझे एक वर्ष हो गया।” वे एक खोखली हँसी हँसे। “एक साल पहले जानी हुई बात आज सत्य बनकर चुभती है, और मैं बँधा हुआ हूँ!” बाबा की साँस फूल गयी थी। दो-तीन लम्बी साँसें खींच उन्होंने फिर कहा, “शेखर, चटगाँव हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर कलंक है। यही मेरी समझ में क्रान्ति का प्रमाण है-उसके लिए चारित्र्य की आवश्यकता है, वह चारित्र्य बनाती है-और उससे बड़ी चीज़ क्या है? हमें चारित्र्य चाहिए, तो हमें क्रान्ति चाहिए! क्रान्ति! और मैं बँधा हुआ हूँ...”

बाबा खड्डी पर लौट गये। फीके स्वर में बोले, “शेखर, तुम जाओ। मेरा मन ठीक नहीं है। मैंने चाहा था, तुम मुझे हँसता ही देखो-संसार मुझे हँसता ही देखे, पर ऐसे भी दर्द होते हैं, जो अभिमान से भी बड़े हों। यही मैं आज सीख रहा हूँ-अच्छा हुआ कि इतना तीखा दर्द मुझे मिला! जाओ।”

शेखर चुपचाप, सहमा हुआ और रोमांचित अपनी कोठरी में लौट आया।

तीसरे दिन शाम को बाबा की हालत बहुत खराब हो गयी। डाक्टर ने अस्पताल में ले जाना चाहा, पर बाबा ने कहा, “एक दिन के लिए वहाँ नहीं जाऊँगा। मैंने अपने जीवन का उत्तम अंश कोठरी में बिताया है, अब सबसे महत्त्व का दिन कहीं और बिताने नहीं जाऊँगा।” कोई और होता तो ज़बरदस्ती ले जाते, बाबा से ज़बरदस्ती करने का साहस किसी में नहीं था। डाक्टर एक वार्डर की ड्यूटी वहाँ लगवाकर चले गये, एक बार रात में भी आकर देख गये।

शेखर को समाचार कोठरी में बन्द होने के बाद मिला था। जेल में बाबा का कितना आदर था, यह उसने तभी जाना। उस रात जैसा सन्नाटा उसने जेल में नहीं देखा था-बाबा की बीमारी की खबर कानों-कान फैल गयी थी, और नम्बरदार लोग ‘सब अच्छा!’ भी धीमे, सहमे-से स्वर में पुकार रहे थे...

‘एक दिन के लिए’...‘सबसे महत्त्व का दिन’...सचमुच? शेखर के भीतर प्रार्थना का भाव उमड़ आया...

सवेरे कोठरी खाली हो गयी।

जब कोठरियाँ खुलीं, तब बाबा का शरीर हटाया जा चुका था। कोठरियाँ खुलने में देर होती देखकर शेखर ने वार्डर से पूछा था, ‘क्या आज कोई फाँसी है?’ क्योंकि ऐसे ही दिनों खुलने में देर होती थी।

“नहीं।” वार्डर हिचकिचाकर रुक गया था।

“तब?” और फिर एकाएक भय से प्रकाश पाकर, “क्या बाबा-”

वार्डर बोला नहीं था...

शेखर दौड़ा हुआ बाबा की कोठरी की ओर गया, जैसे कोई भक्त भूकम्प से ध्वस्त मन्दिर की ओर जाता है...

कोई कह रहा था,...”रात में उठ बैठै, घंटा भर रोते रहे। फिर दीवार से सटकर खड़े रहे, और फिर आकर लेट गये और बोले, ‘अब चल!’ बस-”

यह रात की ड्यूटीवाला वार्डर था। शेखर तड़पकर कोठरी के भीतर घुसा...हाँ, उसका अनुमान ठीक था, दीवार पर काँपते अक्षरों में एक नया लेख था...

“अन्तिम सूत्र-अभिमान से भी बड़ा दर्द होता है, पर दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है...”

बाबा के पैर छूने में शेखर ने अपमान समझा था, उसके लिए अपने को कोसते हुए उसने उस अन्तिम सूत्र पर माथा टेक दिया, फिर आँखों में आये हुए दो बड़े-बड़े आँसुओं का निर्लज्ज भाव वार्डरों को दिखाता हुआ कोठरी में चला गया-

दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है...

बेहूदे दिन...

मुकदमा समाप्त हो गया था। सफ़ाई की काफ़ी-सी तैयारी करने के बाद एकाएक यह परिणाम निकला कि सफ़ाई देना व्यर्थ है। वादी पक्ष कमज़ोर हो, तो प्रतिवाद से लाभ नहीं होता, हानि हो सकती है। केवल विद्याभूषण के लिए कुछ गवाहियाँ पेश की गयी थीं; और उन सबके बयान एक ही दिन में हो गये थे क्योंकि जिरह नहीं की गयी थी...वकीलों की तू-तू मैं-मैं भी हो गयी थी जिसे बहस कहते हैं।

“अब मैं फैसला ही सुनाऊँगा...उसकी तारीख फिर तय की जाएगी, अभी अर्जी तौर पर तारीख डाल देता हूँ।” और हाकिम ने मुकदमे की अवधि तेरह दिन और बढ़ा दी थी...

ये दिन बीतते नहीं थे। यह नहीं कि फैसले के बारे में बहुत अधिक चिन्ता या उत्कंठा थी, पर इस प्रकार आकाश में लटके रहना...मुकदमा समाप्त हो चुका है, फैसले के लिए जो कुछ आधार होता, वह सामने आ चुका है, शायद हाकिम ने मन-ही-मन फैसला कर भी लिया है। अब केवल जानने की देर है, और इसके लिए तेरह दिन बैठे रहना होगा! नहीं तेरह दिन बाद तो यही विदित होगा कि फैसला किस दिन सुनाया जाएगा...

अन्त में तेरहवाँ दिन आया...पर दुपहर हो गयी, अदालत जाने के लिए बुलाहट नहीं आयी। शेखर ने समझ लिया, हाकिम ने उन्हें बुलाए बिना तारीख डाल दी होगी, अपने-आप पता चल जाएगा। वह लेटकर सोचने लगा, सोचते-सोचते सो गया।

“बाबूजी, बाबूजी? आपको दफ्तर में बुलाया है।”

शेखर हड़बड़ाकर उठा। “किसने बुलाया है?”

“दारोग़ा साहब ने।”

“मुलाक़ात है?”

“नहीं, दफ्तर में बुलाया है। पेशी है।”

“कैसी पेशी?” कहकर शेखर वार्डर के साथ चल पड़ा।

दफ्तर पहुँचकर मालूम हुआ कि मुकदमे का फैसला सुना दिया गया है। शेखर के बारे में मजिस्ट्रेट की राय है कि उसके विरुद्ध गवाही इतनी दृढ़ नहीं है कि सज़ा दी जा सके, यद्यपि सन्देह बहुत अधिक होता है। किन्तु अगर प्रमाण अकाट्य भी होता, तो भी शायद जिनती क़ैद वह भुगत चुका है, वह पर्याप्त होती, इसीलिए उसे छोड़ा जाता है।

बेजान-से स्वर में दारोगा ने कहा, “बधाई है। आप अब आज़ाद हैं। दफ्तर से अपना सामान वगैरह ले लीजिए।”

“और बाकी लोग? पूरा फैसला तो सुनाइए-”

“विद्याभूषण को एक वर्ष; सन्तराम और केवलराम को छः-छः महीने, हंसराज रिहा हो गया है।”

“मैं उनसे मिल नहीं सकता?”

दारोगा जोर से हँसे। “आपने सुना नहीं, जेल की यारी क्या होती है? क़ैदियों से भी कोई मिलता है?”

“तो आप नहीं मिलने देंगे?”

“वे अब क़ैदी हैं। तीन महीने में एक मुलाक़ात कर सकते हैं। आप दरखास्त दे सकते हैं; पर आप मिलेंगे तो तीन महीने तक वे दूसरी मुलाकात नहीं कर सकेंगे। शायद इसके लिए वे आपके शुक्रमन्द नहीं होंगे।”

“और हंसराज?”

“उसे एक घंटा पहले रिहा कर दिया गया है।”

शेखर चुपचाप दफ्तर में चला गया।

उदास भाव से शेखर दफ्तर की कार्रवाई समाप्त करने के बाद ड्योढ़ी का फाटक खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा था। उसे लेने कोई नहीं आया था-किसी को ख़बर नहीं थी। वकील को रही होगी, पर वे अभी काम में व्यस्त होंगे...अकेला ही वह बाहर निकलेगा, अकेला और उदास-जीवन के बड़े-बड़े दस महीने नष्ट करके...

नष्ट? बाबा मदनसिंह ने इक्कीस वर्ष वहाँ बिताये थे, और उसके बाद भी लिख गये थे कि दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है...इस एक बात को जानने में दस महीने सफल हो जाते-और उसने बाबा मदनसिंह को जाना था, मोहसिन को जाना था, रामज़ी को जाना था, स्वयं अपने को जाना था...नष्ट? अकृतज्ञ शेखर...

दस दीर्घ जीवनाक्रान्त महीने...बन्धनों का अन्त-जिज्ञासाओं का अन्त-जीवन, केवल जीवन, विस्तृत और अबाध जीवन...

किन्तु जब फाटक खड़खड़ाकर खुलने लगा, बाहर का दृश्य उसके सामने आ गया, ठीक उसी के सामने, बिना सींखचों की ओट लिए, तब एकाएक उसे अपनी बात पर सन्देह हो आया। बन्धनों का अन्त? जिज्ञासा का अन्त? शेखर को बहुत पहले पढ़ी हुई कविता की दो पंक्तियों याद आयीं-

Peace, peace, such a small lamp

illumines, on this highway.

So dimly, so few steps infront of my feet*

सभी कुछ जानने को है अभी, सभी कुछ काट गिराने को है...

और शशि?

सहारे के लिए केवल एक छोटी-सी बात-पर बाबा ने लिखा था, अन्तिम सूत्र...उन्हीं के लिए अन्तिम, या मानव-मात्र के लिए अन्तिम?...

फाटक उसके पीछे बन्द हो गये थे। वह मुक्त था।

“अभिमान से भी बड़ा दर्द होता है, पर दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है...”

  • शान्ति, शान्ति। इस राजमार्ग पर केवल एक छोटा-सा दीप

आलोकित करता है-

इसके फीके प्रकाश से इतने थोड़े-से कदम मेरे चरणों के आगे...