शेखर: एक जीवनी / भाग 2 / पुरुष और परिस्थिति / अज्ञेय

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गाड़ी भड़भड़ाती हुई दौड़ रही थी। नीलगिरि प्रदेश में शेखर अपने माता-पिता और भाइयों को पाँच सौ मील पीछे छोड़ आया था, और अब मद्रास भी पीछे छूटा जा रहा था। नीलगिरी, मद्रास, महाबलिपुर, मालाबार, त्रावनकोर-सब पीछे छूट जाएँगे! वह आगे जा रहा है, गाड़ी उसे खींचती हुई बेतहाशा उत्तर की ओर दौड़ी चली जा रही है, एक हज़ार मील जाकर ही दम लेगी-फिर वहाँ से दूसरी गाड़ी चलेगी, जो एक हज़ार मील और परे घसीट ले जाएगी...सब इन अपने परिचय के स्थानों से दो हजार मील दूर!

लेकिन, ये सब उसके परिचित स्थान क्या हैं? उसे उनसे क्या है? नीलगिरी उसके लिए क्या है, सिवाय इसके कि वहाँ उसके भाई-बन्द रहते हैं। महाबलिपुर क्या है, सिवाय इसके कि वहाँ वह डूबा था। त्रावनकोर भी क्या है, सिवाय इसके कि वहाँ शारदा थी और वह उससे लड़ आया? जब वह नहीं रहेगा, तब ये सब स्थान भी नहीं रहेंगे...ये सब इसीलिए हैं कि इनमें वह है, और अब वह इन सबसे भागा जा रहा है, अपने-आपकी उन पर पड़ी हुई छाप से भागा जा रहा है, अपने-आपसे भागा जा रहा है...

क्या यह सब सत्य है? क्या वे स्थान सत्य हैं? क्या वे सब लड़ाई-झगड़े, प्यार, तिरस्कार, सत्य हैं? क्या वह खुद सत्य है? गाड़ी उसे खींचती हुई दौड़ी चली जा रही है, उसे लगता है कि कुछ भी सत्य नहीं है, शायद गाड़ी का दौड़ना भी सत्य नहीं है...

लेकिन वह सत्य के सिवा कुछ हो नहीं सकता। शेखर अपनी पराजय से भाग रहा है, अपने दर्द से भाग रहा है। वह बेवकूफ़ है। वह जीवन से भागने की मूर्खता-भरी कोशिश कर रहा है। जीवन से भागकर वह जाएगा कहाँ? जो युद्धमुख से भागता है, अपनी पराजय से भागता है, उसके लिए कदम-कदम पर और युद्ध हैं, और पराजय है, जब तक कि वह जान न ले कि अब और भागना नहीं है, टिक कर लड़ने न लगे...जीवन से भागना? आगे और जीवन है; जीवन तो रुक नहीं सकता, उसका तो विस्तार समाप्त नहीं हो सकता...

होने दो। मद्रास एक हजार मील पीछे रह जाएगा, पंजाब एक हजार मील आगे है। और वहाँ नया जीवन है और विद्यावती है, और शशि है, और...गाड़ी का शोर समुद्र के गर्जन की तरह है। समुद्र...लेकिन यह गर्जन उसे समुद्र से परे खींचे लिये जा रहा है, परे...

क़द के लम्बे-तगड़े, रंग के गोरे, देखने में सुन्दर और सुनने से समर्थ जँचनेवाले पंजाबी लोग-शेखर ने उनकी आँखों से आँखें मिलाकर देखा, वे हटती नहीं हैं, न डर से और न अर्थहीन विनय से।

और उसने सोचा, ये आदमी मर्द हैं। इनके साथ काम हो सकेगा, ये लड़ाई में कन्धे से कन्धा भिड़ा सकेंगे।

वह लड़ाई से भागकर आया था, थका हुआ आया था। इसीलिए वह इस समय अपने में रण-तत्परता नहीं पाता था, तनाव नहीं पाता था। उसने मानो अपना कवच ढीला कर दिया था और सुस्ता रहा था। सोया वह नहीं था, आँखें खुली थीं, लेकिन खड्गहस्त भी वह नहीं था, वह सिर्फ़ देख रहा था, उसकी आँखों में सिर्फ पहचानने की चेष्टा का खुला भाव था; न दोस्ती का खिंचाव, न दुश्मनी का संकोच।

और उसने इस नये प्रदेश के लोगों को दो वर्ष बाद फिर देखकर सोचा, ये आदमी मर्द हैं, इनके साथ काम हो सकेगा।

दो वर्ष पहले जब वह मैट्रिक की परीक्षा देने आया था, तब उसने इन लोगों को ठीक से देखा भी नहीं था। अपने मस्तिष्क को शारदा से भरे हुए वह आया था, और शशि की ही एक नयी छाप वह उस पर ले गया था, और विशेष कुछ उसने देखा नहीं था; लेकिन अब एक लड़ाई से आकर वह उन्हें योद्धा के ही माप से मापने लगा-यद्यपि थके हुए और सुस्ता रहे योद्धा के।

शेखर में पक्षपात नहीं था-कुछ था तो पंजाब और उसके निवासियों के हक में ही-और वह आते ही कोशिश करने लगा कि उनके साथ एकात्म, एकप्राण हो सके। होस्टल के लड़कों से मिलकर उनके विचार जानने की, उनके आदर्श और उनकी कामनाएँ समझने की, उसने चेष्टा की। जब उसने देखा कि इसमें वह स्वयं विघ्नरूप है, क्योंकि वह उनकी भाषा नहीं बोलता है, उनके कपड़े नहीं पहनता है, स्पष्ट दिखा देता है कि वह उनमें से नहीं है, तब उसने इनका भी इलाज करना आरम्भ किया। उसने तब दो-तीन सूट सिलवाए; कॉलर, टाइयाँ, मोजे, शू, कंघी-ब्रुश, खुशबूदार तेल, पैंट दाबने का प्रेस और कोट टाँगने का फ्रेम, एक खाकी सोला हैट भी-ये सब चीजें वह निरीह भाव से ले आया। चीजें उसने सब साधारण लीं, बहुत अधिक पैसा खर्च नहीं किया, पर उसकी पसन्द में कुछ ऐसी विशेष सादगी थी कि चीजें दाम की सस्ती होकर भी सूरत की सस्ती नहीं जान पड़ती थीं। भड़कीली चीज़ इतना अधिक सामने आती है कि उसमें दृश्य महँगेपन का होना लाजिमी हो जाता है; जो चीज़ सामने नहीं आती, वह गुज़ारे लायक सस्ती होकर भी चल जाती है। सूट पहनकर जब वह अपने सहपाठियों में आ मिला, जब उसने देखा कि जहाँ तक ‘ट्रेडमार्क’ का सवाल है, वह उनकी पाँत में खड़ा होने का अधिकारी हो गया है। भाषा का प्रश्न अभी था, वह उनकी भाषा ठीक तरह बोल नहीं सकता था, मुहावरा तो बिलकुल ही नहीं जानता था। फिर भी, रंग-ढंग में उन-सा होकर और उनकी बात समझ लेने के काबिल होकर वह ऐसा गैर नहीं दिखता था। और उसे धीरे-धीरे उनके समाज में प्रवेश मिलने लगा।

इस प्रकार वेश के सहारे जिस आसानी से उसे चारों ओर रास्ता मिलने लगा, उस पर उसे सन्देह होना चाहिए था, लेकिन वह सन्देह के लिए उपयुक्त मनःस्थिति में ही नहीं था। स्वीकृति पाना, स्वागत पाना, मान्य होना, कितना अच्छा था...शेखर चेहरे-मोहरे से विशेष असुन्दर नहीं था; और वह नया यूरोपियन वेश भी उस पर बोझ की तरह नहीं बैठता था। चुप रहनेवाले, अपने ही भीतर रहनेवाले इस आधे जंगली, आधे संन्यासी आदमी की जबान विदेशी सभ्यता की हर समय चलती ही रहनेवाली मिथ्या विनयभरी बातचीत में भले ही अटकती हो, लेकिन विदेशी वेश को निभा ले जाने में उसे कोई कठिनाई या हिचक नहीं होती थी। वह वेश उसके लिए बहुत अपरिचित नहीं था, अँग्रेजी भाषा भी उसकी मातृभाषा नहीं तो धातृभाषा तो थी ही-बोलना उसे एक अमेरिकन पादरी ने अपनी भाषा में सिखाया था...शीघ्र ही शेखर ने पाया कि उसे कॉलेज के अधिकांश लड़के जानते हैं, और वैसे नहीं जानते, जैसे मद्रास में जानते थे...उसे अपने आपसे सन्तोष-सा होने लगा, और इस सन्तोष से उसकी पढ़ाई भी अच्छी होने लगी...पहली तिमाही परीक्षा में उसने देखा, वह चार विषयों में से तीन में प्रथम है। इससे उसकी प्रसिद्धि और फैली, उससे कुछ स्वागत और हुआ, कुछ परिचय और बढ़ा...और धीरे-धीरे यह चारों ओर से आता हुआ सम्मान एक नशे की तरह उसके शरीर में असर करने लगा। उसने नहीं जाना कि कब और कैसे उसके खर्च का बिल दुगने से अधिक हो गया है, कैसे उसके एक ट्रंक की बजाए तीन सूटकेस कपड़ों से भर गये हैं, जब कि उसे ठीक समय पर ठीक रंग की टाई तक नहीं मिलती है-टाई जो कुल मिलाकर दो घन इंच स्थान नहीं लेती होगी! जाना उसने तो यही कि लोग कपड़े खरीदने में उससे परामर्श लेने आते हैं, कॉलेज में जिस दिन वह कोई नयी टाई पहनकर जाता है, उसके अगले दिन कई जगह वह देखने को मिलती है, जबकि शेखर के गले से वह उतर चुकी होती है...देखा उसने तो यही कि अब उसे बोर्डिंगों के बाहर रहनेवाले विद्यार्थियों और विद्यार्थिनियों के भी निमन्त्रण आते हैं...

और उसका कवच अभी तक ढीला ही था। कितना सुख था उसे ढीला छोड़कर पड़े रहने में, अपने को वायु के प्रत्येक झोंके को समर्पित कर देने में! वह वायु उसका श्रम हर लेगी, पसीना सुखा देगी, उसकी धमनियों में थकान से दूषित हुए रक्त को ठंडा करके ताज़ा कर देगी, उसका दर्द मिटा देगी...अच्छा है अपने को वायु को समर्पित कर देना, झोंके में बहना...

लेकिन झोंके में बहकर इधर-उधर झूमने में यह लोहे का कवच चुभ जाता है...जब तक कवच है, तब तक उसे कसा ही रहना होगा-या उसे उतारकर फेंक देना होगा ताकि वह उलटा आघात न करे? क्या शेखर उसे उतारकर फेंक दे? लेकिन वह तो अपने सब वस्त्र, वह सब झूठमूठ का आडम्बर जो राह में बोझ होता, पहले ही उतारकर फेंक आया था-अब तो कवच के नीचे उसकी नंगी त्वचा है, नंगी और नरम और जीवित...और उसके नीचे हाड़ और मांस और रक्त में छिपकर रहनेवाला सूक्ष्म निराश्रय, निस्सहाय, अशान्त जीव-स्वयं शेखर...तब क्या वह कवच को फिर कस ले?

लेकिन लड़ाई से हटकर नदी-तट पर पड़ी हुई नाव में कवच ढीला करके पड़ रहना कितना सुखद है-वायु के प्रत्येक झोंके पर उठना और गिरना, मानो वह एक झूला हो...

जिस सारे समाज में शेखर ने प्रवेश पा लिया था, अब वह जानने लगा कि वह समाज कई अलग-अलग टुकड़ियों में विभक्त है। होस्टलों के छात्रों में तो वह इस तरह की टुकड़ियाँ नहीं देख पाया, वहाँ या तो धन के हिसाब से वर्गीकरण था, या बुद्धि के हिसाब से; लेकिन बाहर के जिन लोगों से परिचय उसने पाया था, वहाँ की बात और थी। कभी उसे लगता कि ये टुकड़ियाँ सिद्धान्तों के आसरे बनी हैं, क्योंकि किसी एक में वह प्लेटो को आदर्श रूप में पुजते हुए पाता तो दूसरे में शोपेनहॉर को, किसी में स्टोइक (disillusioned) मत पर बहस होती हुई पाता, तो किसी में हीडोनिज्म की चर्चा; कभी उसे लगता कि यह दलबन्दी अपने-अपने व्यसन-विशेष का समर्थन करने के लिए है...

शेखर ने अपने को धीरे-धीरे दो विभिन्न टुकड़ियों में घनिष्ठ होते हुए पाया। स्वभाव से ये दोनों टुकड़ियाँ एक-दूसरे से काफी भिन्न थीं, लेकिन शेखर का अपना अन्तर्विरोध ऐसा था कि वह दोनों ही में आगे-आगे बढ़ता जा रहा था।

पहली टुकड़ी के अधिकांश सदस्य शेखर के साथ ही छात्रावास में रहते थे। इस छात्रावास में, जिसमें शेखर अपने पहले स्थान से इसलिए आ गया था कि यहाँ उसे छात्र-समुदाय के उन्नत अंग से मिलने की आशा थी, प्रायः अच्छी हैसियतवालों के बेटे रहते थे, और कॉलेज में नाम भी अधिक वहीं का सुनने में आता था, क्योंकि खेलों में-हॉकी, फुटबाल, टेनिस आदि में-और सभा-सोसाइटियों के बहस-मुबाहसे में यहीं के लड़के प्रमुख भाग लेते थे या यों कह लें कि ऐसे छात्रों को इस बोर्डिंग में विशेष स्थान मिलता था...

साथवाले कमरे में नित्य शाम को हँसी सुनकर एक दिन शेखर भीतर गया था, तभी से इस टुकड़ी से उसका परिचय हो गया था। कमरा इस दल के प्रमुख चतुरसेन का था, जिसे किसी ने देशी भाषा में बात करते नहीं सुना, और जो केवल इसी बूते पर बोर्डिंग के तीन मानिटरों में से एक था। वहाँ पर नित्य ही उसके साथियों का आना होता था-जिन्हें पहले दिन परिचय के समय तो शेखर ने नरेन्द्र, भूपेन्द्र, और मोती के नाम से जाना, लेकिन दूसरे दिन से क्रमशः ‘कालू’, ‘भोंपू’, ‘पपी’ नाम से पहचानने लगा। इस दल में किसी को पूरा नाम लेकर बुलाना पाप समझा जाता था-तकल्लुफ़ था। “हम लोग तकल्लुफ़ नहीं चाहते-आदमी-आदमी के सीधे सम्बन्ध में वह विघ्न है। हम इनसान को इनसान कहकर जानना चाहते हैं, समाज के लिपे-पुते ‘स्केयर क्रो’ (डरौना) के रूप में नहीं।” यह कालू ने एक दिन कहा था। बात शेखर को बुरी तो नहीं लगी थी, लेकिन कालू के मुख से अजीब लगी थी क्योंकि कालू सारे दल में सबसे कम बुद्धि रखता था। ‘पपी’ की बुद्धि प्रखर थी-कॉलेज में भी उसका स्थान बहुत अच्छा था, लेकिन वह प्रत्येक बात पर एक विकृत व्यंग्य-भरी हँसी हँस देता था, यहाँ तक कि अपने पर भी वह उसी के साथ निरन्तर कटाक्ष करता रहता था। अक्सर वह कॉलेज की लड़कियों की बात करता था, और उसकी बात-बात से उनके-स्त्री जाति मात्र-के प्रति उसकी घोर अश्रद्धा और अवज्ञा टपकी पड़ती थी...शेखर को लगता, यह आदमी तबीयत का यती है, लेकिन इसका संयम उलटे मार्ग में पड़कर जहरीला हो गया है, तभी यह उपेक्षणीय की उपेक्षा न कर निरन्तर विष उगलता रहता है। यह बात कभी उसे आकर्षित करती, कभी एकदम ग्लानि से भरकर परे धकेल देती, लेकिन अपनी तीव्र बुद्धि के कारण वह शेखर के पास-पास आता गया, और एक दिन विचित्र ढंग से शेखर ने उससे शिक्षा पाई।

‘पपी’ ने शेखर का परिचय मिस कौल नाम की तीन बहिनों से कराया, जो अपनी टोली में रानी, लिली और रूबी के नाम से प्रसिद्ध थीं। बड़ी एम.ए. में पढ़ती थी, दूसरी दोनों बी.ए. में। उनकी फैशनेबल भ्रू-विहीन और रँगी पलकोंवाली आँखों और लिपस्टिक-मढ़े ओठों के पीछे भी वह प्राकृतिक सौन्दर्य दीख ही जाता था, जिसे संस्कृत बनाने की कोई कोशिश उन्होंने छोड़ी नहीं थी। दो-एक बार मिलने के बाद जब शेखर उनकी युद्ध-पीड़ित प्रबुद्ध वर्ग की-सी उपराम “How dare you, Puppy”! बातचीत सुनकर यह सोचता हुआ बाहर निकला था कि इतने उपराम के साथ रंग और लिपस्टिक का निबाह कैसे होता है, तब वह अनजाने में यह प्रश्न जोर से कर गया था। ‘पपी’ ने पूछा, “कौन सबसे ज्यादा उपराम लगी तुम्हें?”

शेखर ने कहा, “कह नहीं सकता। लेकिन रूबी शायद-”

“अरे भाई, नाम मुझे याद नहीं रहते, मैं तो उनकी अलग-अलग सेंट की बू से उन्हें पहचानता हूँ।”

शेखर थोड़ा-सा मुस्कराया। उसका परिष्कार इतना हो गया था कि इस ढंग की बातचीत में रस ले सके, यद्यपि स्वयं कह नहीं सकता था। बोला, “मैं तो अभी इतना पारखी हुआ नहीं-”

‘पपी’ ने कहा, “अच्छा ही है। अरे, एक दिन जो गजब हो गया था। मैंने ऐसी बात कालू से कही थी; उस बदमाश ने एक दिन चुपचाप उनकी सेंट परस्पर बदल दी। उसके बाद हम सब मिलकर सिनेमा गये, वहाँ से लौटते समय मैं तो पहचान नहीं सका कि कौन-कौन है।”

कालू को आते देखकर ‘पपी’ चुप हो गया। लेकिन कल्लू ने बात सुन ली थी। बोला, “हाँ, हाँ, पूरी बात कहो न! रुक क्यों गये? बात वह हुई कि हम लोग एक झुरमुट में से होकर आ रहे थे। अँधेरे का फायदा उठाकर ‘पपी’ ने रूबी का हाथ पकड़ा, तो उसने झटककर कहा, (खबरदार, पपी!) बिचारे लगे माफ़ियाँ माँगने, तब लिली खिलखिलाकर हँसने लगी-”

“झूठे कहीं के! अपनी तो कहो-दो ही दिन में भूल गये? लिली तो तुम्हारी हिमाकत पर-”

“कब की बात है?” शेखर ने मुस्कराते हुए पूछा।

“अरे, परसों की-”

लेकिन ‘पपी’ को बीच ही में टोककर कालू ने कहा, “भई सच तो यह है कि आजकल किसी को भी पहचानना मुश्किल है। चैटर (चतुरसेन अपने नाम का उच्चारण ऐसे ही करता था) एक दिन बहुत चालाक बन रहा था, कहता था कि पहचान तो लिपस्टिक के स्वाद से ही होती है, पर-”

शेखर को कुछ ग्लानि हुई। स्त्रियों और उनकी चालढाल के बारे में मज़ाक वह सुन लेता था, लेकिन उन चेष्टाओं का मज़ाक उसे अभी तक बुरा लगता था, जिन्हें वह प्रेम का अंग समझता था। “प्रेम-वेम कुछ नहीं है। शरीर है और बुद्धि है-एक शरीर को पकड़ता है और एक पैसे को, बस यही तो प्रेम है।” यह दृष्टिकोण उसका नहीं बन पाया था। वह अलग हो गया और सोचने लगा, परसों रात को ये सब लोग बोर्डिंग में थे, स्वयं चतुरसेन ने साढ़े नौ बजे हाज़री ली थी, तब सिनेमा कैसे गये?

और यह प्रश्न उसके मन से नहीं निकला। वह बिना जाने ही रात की हाज़री के बाद इन सब लोगों पर पहरा देने लगा। तीसरी रात उसने देखा कि हाज़री के बाद पिछली सीढ़ियों से चारों मित्र उतरे हैं, और उनके पीछे-पीछे बोर्डिंग का एक नौजवान नौकर भी। नौकर उन्हें बाहर निकालकर दरावाजा बन्द करने को ही था कि शेखर ने जल्दी से कहा, “काम है चतुरबाबू से,” और बाहर निकल गया।

नौकर ने अपने हाथ की बोतल छिपा ली, यह चेष्टा भी शेखर ने देखी।

साढ़े ग्यारह बजे शेखर लौट आया। चारों जन दो मील के करीब जाकर एक घर में घुस गये थे, वह देखकर शेखर लौट आया था। द्वार खुला था, वह चुपचाप पिछली सीढ़ियों से चढ़कर कमरे में आकर सो गया।

अगले दिन शाम को वह पता लेने गया कि मकान किसका है। वह उससे कुछ दूर खड़ा सोच ही रहा था कि किससे पूछे, कि कॉलेज के गणित के प्रोफेसर या निकले और शेखर को पहचानकर बोले, “तुम यहाँ कहाँ, शेखर? भले आदमी यहाँ नहीं ठहरते।”

“क्यों?” शेखर ने ज़रा विस्मय से कहा।

“देखते नहीं, वह सामने वेश्याओं का मुहल्ला है?”

शेखर विस्मित और लज्जित होकर प्रोफेसर के साथ ही चल पड़ा।

दूसरे दल में शेखर ने कभी स्त्रियों की चर्चा नहीं सुनी। इस दल की सारी चिन्ता मानो सभ्यता के सुधार की ओर लगी हुई थी। स्त्रियों की चर्चा कभी होती थी तो एक वचन में-नारी सभ्यता की धुरी है, नारी सभ्यता की संचालिका है, नारी इस पुरुष-प्रधान सभ्यता का केन्द्र है, नारी यह है और वह है...सभ्यवतया इसका कारण यही था कि इस दल के सदस्यों में एक ही स्त्री थी और वही इस दल की नेत्री थी।

मणिका ने ऑक्सफोर्ड और पेरिस में शिक्षा पायी थी। वहाँ से डिग्री लेकर वह भारत लौट आयी थी, किन्तु पर्याप्त धन पास होने के कारण उसने नौकरी करना अनावश्यक समझा था। केवल समय बिताने के लिए सप्ताह में चार-पाँच घंटे एक कॉलेज में अवैतनिक रूप से साहित्य पर लेक्चर देना स्वीकार कर लिया था और इस प्रकार विद्यार्थियों से अपना सम्पर्क बना रखा था। कॉलेजों में यह बात प्रसिद्ध थी कि किसी कॉलेज का कोई भी योग्य लड़का अवश्य मणिका देवी के मंडल में होगा; और इसीलिए अपने को योग्य समझनेवाले-या न भी समझनेवाले लड़के सदा इस ताक में रहते थे कि किसी प्रकार उस मंडल की सदस्यता प्राप्त कर सकें...

शेखर को वहाँ उसी की श्रेणी का एक लड़का ले गया था। इस बंगाली लड़के के चपटे मंगोल चेहरे और ऊँची पावर के चमकते हुए चश्मों के पीछे एकटक देखनेवाली और कुछ सूजी हुई-सी आँखों से बेवकूफ़ी टपकी पड़ती थी; किन्तु फिर भी वह था योग्य और अँग्रेजी साहित्य के कुछ अंगों पर उसका ज्ञान बहुत अच्छा समझा जाता था। शेखर ने अपनी परीक्षा में रोज़ेटी और उसके ‘प्री-रेफेलाइट’ दल के कवियों पर जो निबन्ध लिखा था, उसी के कारण वह मणिका देवी के मंडल में जाने का अधिकारी समझा गया था और वह बंगाली लड़का उसे वहाँ ले जा रहा था।

शेखर चल तो पड़ा, किन्तु वह सोचता जा रहा था कि वह समय ठीक नहीं है। उस समय वह इन सब सभ्य दलों के प्रति क्षोभ और घृणा से भरा हुआ था। दिन में नहाते समय बाथरूम में ही उसकी कालू से लड़ाई हो गयी थी-बाथरूम में उसे देर करते देख, बाहर खड़े कालू ने गाली दी थी और शेखर ने नंगे ही बाहर निकलकर उसे पीटा था-उस समय से शेखर के भीतर कुछ उबल रहा था। ऐसी हालत में वह जाना नहीं चाहता था, किन्तु यह जानकर कि उसके लिए समय निश्चित किया गया है, वह चल पड़ा।

मणिका देवी का ड्राइंगरूम सुन्दर था, किन्तु उसे उसका सौन्दर्य देखने का अवकाश न मिला।

कमरे में बैठे तीन और व्यक्तियों को अवश्य वह एक नजर देख गया। सोफे पर लेटी हुई मणिका ने शेखर और उसके साथी को प्रवेश करते देखकर साथी पर आँख टिकाकर पूछा “हैलो, रसगुल्ला, यही तुम्हार मित्र हैं?”

शेखर ने चौंककर अपने साथी की ओर देखा। हाँ, ठीक तो है, रसगुल्ला, इस सोफे पर लेटी हुई दुबली औरत की तीखी ज़बान और उसके द्वारा चुने हुए नाम की उपयुक्तता पर वह इक हल्की सी मुस्कराहट रोक नहीं सका। रसगुल्ला-एक बार यह नाम सुनकर मानो यह कल्पना करना कठिन हो गया कि इस आदमी का दूसरा भी कुछ नाम हो सकता है!

शेखर ने यह भी देखा कि जब तक रसगुल्ला उसका परिचय कराता है-‘मेरे मित्र चन्द्रशेखर पंडित,-मिस मणिका देवी’ तब तक मणिका ने सिर से पैर तक उसे देख लिया है और मन-ही-मन यह तय कर लिया है कि यह व्यक्ति दिलचस्प नहीं है।

मणिका ने बाँह फैलाकर कुर्सी दिखाते हुए कहा,”बैठिए। आप सिगरेट पीते हैं?” दो अँगुलियों से अखरोट की लकड़ी का कामदार डिब्बा उसने शेखर की ओर सरका दिया।

“धन्यवाद, मैं नहीं पीता।”

मणिका के दाईं ओर बैठे एक मोटे से, गुलाबी नाकवाले एंग्लो-इंडियन व्यक्ति ने कहा “मिस मानिका, यह क्यों, वह दीजिए न इन्हें; दीक्षित कीजिए।” और एक गिलास शेखर के पास रखकर पुकारा ‘बेरा!’

शेखर ने उसके हाथ के इशारे का अनुसरण करते हुए देखा, मणिका के पास एक साइड टेबल पर एक ट्रे में दो बोतलें और दो-एक छोटे-बड़े गिलास पड़े हैं।

“धन्यवाद, नहीं।”

“अरे आप नहीं पीते? तब तो यहाँ नहीं चलने का! मैं तो पिए बिना नहीं रुकता। और सभ्यता-”

मणिका ने कुछ रुखाई से कहा, “सभ्यता को तो बख़्श दीजिए, भले आदमी।”

रसगुल्ले ने कहा, “मैथ्यूज़ तो हमेशा यही कहता है कि शराब छोड़ने से ग्रीक सभ्यता बरबाद हुई-जब तक ग्रीक लोग पीते रहे, बने रहे।”

बेरा चाय ले आया था। अब तक चुप बैठे हुए व्यक्तियों में से एक ने पूछा, “चाय तो आप पीते होंगे मिस्टर पंडित?”

“नहीं, मैं नहीं पीता।” प्रश्न में एक हल्का-सा व्यंग्य था, जिससे शेखर झल्ला-सा उठा। बोला, “इतना ही नहीं, मुझे इस पर भी आपत्ति है कि आप यह प्रश्न भी करें।” चाय, तो ‘आप पीते है?’ सिगरेट, तो ‘आप पीते हैं?’ शराब, तो ‘आप पीते हैं?’ मानो सभ्यता की कसौटी ही यह प्रश्न है-”आप पीते हैं?”

मणिका के चेहरे पर पहली बार कुछ दिलचस्पी दीखी। उसने कहा, “खूब, पंडित; आज पहली अक्ल की बात सुनने में आयी है।”

मैथ्यूज ने कुछ द्वेष से कहा, “मिस्टर पंडित बोले तो। मैं तो समझा कि ‘नहीं’ और ‘धन्यवाद’ के सिवाय कुछ बोलते नहीं।”

“महात्मा लोग थोड़ा बोलते हैं, पर बोलते हैं काम का।”

शेखर ने इन बौछारों की ओर उपेक्षा प्रकट करने के लिए रसगुल्ले की ओर उन्मुख होकर पूछा, “तुम भी पीते हो?”

मणिका मुस्कराती हुई बोली, “तो आप उनकी सभ्यता परखने चले हैं?”

हँसी का कहकहा लगा। मैथ्यूज बोला, “अरे रसगुल्ला? वह जो स्पंज रसगुल्ला है-स्पंज की तरह शराब सोखता है-” और अपने श्लेष व्यंग्य पर स्वयं ही हँस दिया।

शेखर ने कहा, “पंजाब का विद्यार्थी-जीवन इतना पतित है, मैं नहीं जानता था। मैं समझा था इस हट्टे-कट्टे शरीर के लोगों में कुछ सार होगा, पर सब सड़े हुए हैं, सड़े हुए।”

पालतू सुनहली मछलियों के रंगीन जल से भरे पात्र में एक केंकड़ा घुस आये, तब मछलियों की जो हालत होती है, वही उस गोष्ठी की हुई। बहुत जल्दी ही सब उठकर चल दिए, और अपने को अकेले मणिका के सामने पाकर शेखर भी विदा लेने को उठ खड़ा हुआ।

मणिका ने भी उठते हुए कहा, “आपसे मिलकर मुझे खुशी हुई-” और इस साधारण शिष्टाचार का वैसा ही उत्तर शेखर देनेवाला था कि वह आगे कह गयी, “मेरे यहाँ आनेवाले लोगों में बुद्धि तो है, पर चरित्र नहीं, इसके लिए मुझे भी दुःख है। हमारे दाँत तो बड़े-बड़े हैं, पर आँतें नहीं है-कौर बहुत बड़ा ले लेते हैं, पर पचा नहीं सकते। आपको खाने में अनिच्छा दीखती हैं, लेकिन सिस्टम ठीक-ठीक है।” क्षण भर रुककर वह फिर बोली, “सचमुच मुझे खुशी हुई है मिलकर।” इस बार स्वर में शिष्टाचार नहीं, सत्य था।

शेखर ने हल्की-सी कृतज्ञता से कहा, “नमस्कार।”

“नहीं, ऐसे-” कहकर मणिका ने हाथ बढ़ाया। शेखर ने हाथ मिलाया, मणिका बोली, “फिर अवश्य आना, जॉन दी बैप्टिस्ट।”

शेखर को नाम अच्छा लगा-”जॉन दी बैप्टिस्ट।” इसमें अवश्य इस आधे पागल, पैग़म्बर की-सी रूखी सद्भावना थी। और मणिका के हाथ का दबाव भी अच्छा था-उसमें वात्सल्य था; वह मानो पुरुष का हाथ था।

मणिका के चरित्र में एक विचित्र कारुणिकता थी, जिसे देखकर झल्लाहट भी होती थी, दया भी आती थी और थोड़-सा आदरभाव होता था-जिसके कारण शेखर तीन-चार बार और उसके घर गया; प्रतिबार वह कुछ अधिक प्रभावित और बहुत अधिक खिन्न होकर आता था। मणिका में प्रखर प्रतिभा थी, किन्तु उसको संयत रखने की दृढ़ता न थी; पर साथ ही अपने में दृढ़ता न होने का करुण और उत्ताप-भरा ज्ञान भी था, जिसके कारण उस पर क्रुद्ध होना सहल नहीं था।

पहली मुलाक़ात के बाद एक दिन तीसरे पहर शेखर ने मणिका से चाय का निमन्त्रण पाया था, जिसमें शिष्टाचार के निमन्त्रण वाक्य के आगे लिखा था, “उस समय कोई अवांछनीय व्यक्ति नहीं होंगे; आप निश्चिन्त रहें।” और उस दिन शेखर ने जाना था कि मणिका का ज्ञान कितना गहरा और शक्ति कितनी कम है-यद्यपि ज्ञान ही को शक्ति कहा गया है।

दो-तीन बार और भी शेखर निमन्त्रित होकर गया, कभी भी उसने किसी अन्य व्यक्ति को उपस्थित न पाया। उसके बाद उसका परिचय ऐसा हो गया कि वह बिना बुलाए भी बेधड़क जा सके।

एक दिन खाना खाकर शेखर घूमने निकला, तो उसके मन में हुआ कि वह मणिका से मिल आये। वहाँ विलायती रीति-रिवाज का पालन होता है, तब डिनर के बाद बातचीत के लिए जाने में कोई अनौचित्य नहीं है, यह सोचकर वह कोठी पर जा पहुँचा।

बाहर ही उसे मैथ्यूज मिला। उसे अच्छा नहीं लगा-मैथ्यूज भी इस आकस्मिक मिलन से प्रसन्न नहीं हुआ।

शेखर ने ड्राइंग रूम का द्वार खटखटाया, फिर खटखटाया; फिर भीतर चला गया। ड्राइंग रूम खाली था, आगे डाइनिंग-रूम का द्वार भी खुला था; मेज पर जूठे बर्तन पड़े थे, किन्तु कमरे में कोई नहीं था। शेखर क्षण भर असमंजस में खड़ा रहा, फिर ड्राइंग रूम में एक कुर्सी पर बैठा और तत्काल उठ खड़ा हुआ। सामने ड्राइंग रूम के कोने की तरफ धीमे प्रकाश में नीले सोफे पर एक अस्तव्यस्त नीली साड़ी पहने मणिका लेटी हुई थी, एक नंगी बाँह लटककर फर्श पर टिकी थी।

शेखर ने पुकारकर कहा, “क्या हुआ, आप स्वस्थ तो हैं?” फिर पास जाकर दुबारा पूछा, “क्या बात है, मिस मणिका?”

मणिका की पलकें अनिश्चय से काँपी फिर खुल गयीं। क्षण भर शेखर के चेहरे पर स्थिर रहकर फिर झिप गयीं। एक बार वे खुलीं-उन्हें खोलने का प्रयास मुख पर स्पष्ट झलक गया-और तब मणिका ने कहा, “शेखर, ओह!” एक बार उठने का प्रयास किया, हार गयी, और फिर मानो हताश-सी होकर बोली, “शेखर I am dead drunk! (मैं नशे में धुत् हूँ।) वह मैथ्यूज कुछ लाया था-इतनी तेज़ शराब मैंने पहले नहीं पी-मैं नहीं जानती थी-बदमाश!”

“मैथ्यूज लाया था? आपने पी क्यों-” शेखर कुछ सोच नहीं सका कि क्या कहे।

“पी! मैंने पी!” मणिका हँसी। “मेरी हँसी बेहूदा है न?” मैं जानती हूँ I am feeling stupid...stupid (मैं होश में नहीं हूँ।), कुछ रुककर, “वह किताब उठा देना तो, नीली जिल्दवाली-और लैम्प इधर खींच देना-”

शेखर ने वैसा ही कर दिया। मणिका ने किताब लेकर काँपते हाथों से खोली और उँगली से एक जगह बताते हुए कहा-”यह कविता तुमने पढ़ी है?”

शेखर ने विस्मय और सम्भ्रम में वह पुस्तक उसके हाथ से ले ली, और अनमना-सा पढ़ने लगा।

“जोर से पढ़ो, मैं सुनूँगी।”

My Candle burns at both ends

It will not last the night

But ah my foes, and oh my friends—

It gives a lovely light?*

शेखर चुप हो गया।

“आगे पढ़ो।”

पीड़ित स्वर से शेखर ने कहा, “मुझे क्षमा करें; इस समय और पढ़ने की इच्छा नहीं है।”

“इच्छा नहीं है? क्यों? पर तुम ठीक कहते हो। तुम्हें मुझ पर दया आती है न?”

  • मेरी बाती दोनों सिरों से जल रही है,

वह रात भर नहीं रहेगी-

किन्तु मित्रगण और शत्रुगण,

कितनी सुन्दर है उसकी दीप्ति!

शेखर ने उत्तर नहीं दिया।

“लेकिन मैं कहती हूँ-” आवेश में मणिका उठ बैठी-”तुम गलती करते हो। और तुम बिना बुलाये क्यों आये?-चले जाओ-मेरे एकान्त में विघ्न बनकर मुझ पर दया करनेवाले तुम हो कौन?”

शेखर लौटने के लिए फिरा, तब मणिका फिर हँसी-”मैं नशे में हूँ न, मैं जानती हूँ। कैसी बेवकूफ़ों-सी हँसी है मेरी। हाँ, तुम जाओ। बुलाने पर ही आना, समझे?”

शेखर चल पड़ा।

“मैं ठीक कहती हूँ। Burn at both ends, शरीर इसी के काबिल है। इसी के काबिल। तुम मूर्ख-हो-मूर्ख, मेरे जान दि बैप्टिस्ट!”

बाहर शेखर को याद आ रहा था; एक दिन पहले बात-बात में मणिका ने पूछा था, “आपको कोई शौक है?” और उसने यों ही कह दिया था, “मुझे चित्र संग्रह करने का शौक है।”

“How uninteresting! (कितना अरुचिकर!) कोई जीव नहीं?”

शेखर ने बताया कि बहुत पहले उसे पशु-पक्षी पालने या तितलियाँ पकड़ने का शौक था, अब नहीं रहा।

“बस? I Collect men! (मैं तो पुरुषों का संग्रह करती हूँ!) कैसे-कैसे अजीब नमूने होते हैं-लेकिन-” एकाएक उसका स्वर ऊब और थकान से भर गया था-”चमड़ी के नीचे सब एक से! असभ्य, असंस्कृत-लोलुप पशु!”

उस दिन का यह वार्तालाप याद करके शेखर के मन ने जोड़ा-”चमड़ी के नीचे सब एक से-सब पुरुष, सब स्त्रियाँ-पुरुष और स्त्री, स्त्री और पुरुष...”

“दाँत हैं, पर आँत नहीं; कौर लेते हैं, पर पचा नहीं सकते-”

“चमड़ी के नीचे सब एक से-लोलुप पशु-”

“जान दि बैप्टिस्ट-”

“तुम मूर्ख हो, मूर्ख-”

मन में दृढ़ निश्चय किये हुए कि अब वह बिना बुलाए क्या, बुलाने पर भी मणिका के वहाँ नहीं जाएगा; कालू से लड़ने के बाद चतुरसेन के दल से बहिष्कृत; अपने से कम बुद्धिवालों से अभिमान के कारण खिंचा हुआ; बार-बार अधिक खर्चा माँगने पर सन्तोषजनक उत्तर न आने से घर से अप्रसन्न; शेखर जब एक विषण्ण औदास्य में अपने कमरे में बैठकर दुर्दम अभिमानी घोड़े की तरह अतीत की मिट्टी खूँदने लगा, और चाहने लगा कि पहले की भाँति ऐसे समय में अपने को सान्त्वना देने के लिए गद्य में या पद्य में कुछ लिखे, तब उसने पाया कि मणिका के कहे हुए कुछ-एक वाक्य बार-बार आकर उसके विचारों को बिखेर देते हैं और उसे बाध्य करते हैं कि आसानी से उन्हें टालने की बजाय उन पर विचार करे...वह नहीं चाहता था वैसा करना, किन्तु उसकी स्मृति में ही कुछ ऐसाी बाध्यता थी कि वह विवश हो जाता था। चतुरसेन के दल के लोगों को और कौल बहिनों को वह बड़ी आसानी से मन से निकाल सका था-वे केवल एक क्षुद्र व्यभिचार के फैशनेबल रूप थे; किन्तु मणिका-वह एक शक्ति का विकृत और भ्रष्ट रूप था, जो ग्लानिजनक था, पर तिरस्कार्य नहीं-उसकी उपेक्षा नहीं होती थी।-मणिका की-उसकी श्रेणी की-आत्मा रोगग्रस्त थी, किन्तु थी आत्मा, और वह रोग भी एक उसका अकेला नहीं था वह आधुनिक आत्मा का रूझान ही था।...

शेखर ने सान्त्वना की खोज छोड़ दी, गद्य और पद्य का मोह छोड़कर वही लिखना आरम्भ किया जो उसके मन में से बीत रहा था-विद्यार्थी और शिक्षक...फैशन और संस्कृति, बुद्धि और वासना, प्रकृति और निवृत्ति और आसक्ति...धीरे-धीरे उसके लिखने की गति बढ़ने लगी, मन भी मानो ढाँचे में ढलने लगा, और बढ़ते हुए विस्मय में उसने देखा कि अब वह गद्य और पद्य, कथा और निबन्ध सभी कुछ लिखता जा रहा है; और यद्यपि वह लिखकर सृजन का सुख नहीं; केवल परिश्रम का सन्तोष पाता है, यद्यपि वह कल्पना के मधुर रंग से नहीं, केवल परिचित अनुभूति के तिक्त रस से ही पन्ने रंग रहा है, और लिखकर कभी भी लिखे हुए को पढ़ने की इच्छा का अनुभव नहीं करता, कागज उठाकर आलमारी के बड़े दराज़ में पटक देता है, तथापि उसका मन शिक्षित और विकसित होता जा रहा है। धीरे-धीरे उस पर यह ज्ञान या विश्वास हावी होने लगा कि जिनके बारे में वह लिख रहा है, जो पुरुष और स्त्री उसे घेरे हुए हैं और उसकी दुनिया को बनाते हैं, वे सब अन्ततोगत्वा बुरे नहीं है, वे सदिच्छाओं के बलहीन पुंज हैं- उनमें सत्कामना है, लेकिन कामना पर्याप्त नहीं है, वे इससे सन्तुष्ट हैं कि वे शिव की कामना करने जाएँ और अशिव उन्हें घेर ले, बाँध ले, तोड़ ले...क्या ऐसों से घृणा करने का साहस मानव कर सकता है? किन्तु क्या ऐसों पर दया करना ही साहस का काम नहीं है? एक अकेला मानव अखिल संसार को दया की दृष्टि से देखे इतनी स्पर्धा उसकी!-और धीरे-धीरे बिना इस प्रश्न का कुछ निपटारा हुए ही उसके रँगे हुए पन्नों का ढेर बढ़ने लगा, यहाँ तक कि उसने अपनी लिखी हुई कापियाँ एक बक्स में भरना शुरू किया, फिर वहाँ उनको श्रेणियों में बाँटकर रखना सम्भव न पाकर एक आलमारी भर डाली...

और उसके मित्र उसके नव-जागृत वैराग्य पर हँसने लगे। चतुरसेन मंडली ने इसमें अपनी भारी विजय समझी और मौके-बेमौके शेखर के बाहर निकलने पर कुत्ते-बिल्ली की पुकारों से उसका स्वागत करके अपना विजयोल्लास दिखाने का नियम-सा बना लिया; अन्य लोगों ने समझा कि परीक्षा की तैयारी है, कुछ ने कहा कि माँगे हुए सूट-बूट पहनता था, अब मिलते नहीं, इसलिए बाहर नहीं निकलता...बदनाम उसे सबने कर दिया, किन्तु वास्तव में वह करता क्या है, यह जिज्ञासा सबमें बनी रही।

तब गर्मी काफी हो गयी थी-परीक्षा के दिन निकट आ गये थे। एक नशे-से में शेखर ने दो-चार पुस्तकें पढ़कर तैयारी की, नशे-से में परीक्षा दे दी और जान लिया कि वह अच्छी तरह पास हो जाएगा और फिर लिखने में जुट गया। परीक्षा के बाद उसके सहपाठी तो घर चले गये थे, लेकिन बाकी विद्यार्थियों ने उसे अब भी पढ़ाई में जुटे हुए पाकर, आई.सी.एस. की तैयारी से लेकर अफ़ीम खाने तक, सब तरह की अफवाहें उसके विषय में उड़ायीं, पर वह जुटा ही रहा। अन्त में शेष विद्यार्थियों की भी छुट्टियाँ आयीं, सब अपने-अपने घर चले गये और शेखर अकेला रह गया।

एकान्त के लिए शेखर तैयार नहीं था। एकान्त का एक आतंक-सा उस पर छाया हुआ था। उसे आवश्यकता थी निरन्तर उससे-अपने से-भागते रहने की; निरन्तर अपने को कहीं केन्द्रित किये रहने की। होस्टल में अपने को अकेला पाकर उसका मन नौकरों की ओर गया-एकाएक उनके जीवन में उसे दिलचस्पी हो गयी। किन्तु दो या तीन दिन के बाद उसने तय कर लिया कि वहाँ कुछ अधिक नहीं है, जो मन को उलझाए रखे-ये पहाड़िये दिन भर चिलम पीते हैं और गन्दी बातें करते हैं, शाम को दो-एक गीत गा लेते हैं और रात को कबड्डी खेल लेते हैं, बस। तब अपने निकट कहीं भी कुछ रुचिर न पाकर उसने यों ही सड़क-सड़क और गली-गली घूमना प्रारम्भ कर दिया। दिन में गर्मी बहुत होती थी, अतः दिन भर वह सोया रहता, शाम से आधी रात तक घूमता रहता और दो-एक घंटे सोकर फिर प्रातःकाल की सैर कर लेता।

जिन लोगों ने इस तरह निरुद्देश्य भटकने में-विशुद्ध आवारापन में-कुछ समय नहीं बिताया है, वे कल्पना नहीं कर सकते, इसका नशा कितना गहरा है। शेखर ने देर तक नहीं समझा कि जिस जिज्ञासु-वृत्ति ने उसे फ़ुरसत के समय भटकने की ओर प्रेरित किया था, वही इसके कारण नष्ट होती जा रही है-वह क्रमशः पक्का ‘लोफ़र’ बनता जा रहा है जिसे कोई भी जिज्ञासा नहीं है, कोई भी अच्छा, आकांक्षा, अभिलाषा, चेष्टा नहीं है, जो इससे अधिक कुछ भी अस्तित्व नहीं रखता कि ‘वह है।’ अनजाने ही वह ऐसी परिस्थति के निकट आता गया, जहाँ वह भूखा होने पर चोरी करके खा सकता, बिना इसका ध्यान भी किये कि उसने चोरी की और भूख के लिए की; या शीत होने पर बिना उसे अनुभव किये ही किसी का कम्बल चुरा ले सकता था...

इसलिए जिस दिन वह एकाएक उस पथ पर जा पड़ा, जिस पर एक दिन उसने चतुरसेन आदि का अनुसरण किया था, तो इसमें वह पूर्णतया अपराधी नहीं था, यद्यपि उस समय था वह होश में और खूब सचेत।

ज्यों-ज्यों वह उस धुँधले और रंग-बिरंगे प्रकाशवाले मुहल्ले में घूमने लगा, त्यों-त्यों उसका मन अधिक जागृत और चौकन्ना होने की बजाय शिथिल और अलसाना होने लगा। इस पर उसे कुछ खीझ और क्लेश भी हुआ। उसने मानो अपने को जगाने के लिए अपने मन को झकझोरकर कहा, “शेखर, जागो, समझो, तुम कहाँ हो? यह है वेश्याओं का मुहल्ला, यहाँ शरीर बिकते हैं, यहाँ तृप्ति बिकती है, यहाँ सुख बिकता है। समझे?”...किन्तु उसके मन ने इसे पकड़ने से इनकार कर दिया। शेखर ने बढ़ते हुए रोष को बार-बार दुहराना आरम्भ किया, “वेश्या, वेश्या, वेश्या, प्रास्टिट्यूट, रंडी, समझे? जहाँ बन्धन नहीं है-लज्जा नहीं है-रोशनी नहीं है, अन्धकार नहीं है-है रंग-रँगे हुए मुँह...” किन्तु इससे भी उसका मन शिथिलतर ही होता गया; जागा नहीं, शेखर का नियन्त्रण करने को राजी नहीं हुआ, उसे आगे बढ़ाने को भी तैयार नहीं हुआ। मानो आगे जो जा रहा है, और जो चेतावनी दे रहा है, दोनों से उसे कोई सरोकार नहीं है...

एकाएक कोई औरत उससे टकरा गयी, उसने अचकचाकर देखा, वह टक्कर अचानक नहीं लगी है; औरत ने जानबूझकर उद्धतता से, अश्लीलता से, उसे धकेला है। शेखर एकटक उसकी ओर देखता रहा-बिना क्रोध के, बिना अनुभूति के, और एक ओर हटकर खड़ा हो गया। औरत ने अचम्भे-से में एक गाली दी और बढ़ गयी। शेखर ने अपने को पूछना चाहा, वह क्यों वहाँ आया क्या करने आया, क्या लेने आया...उसने शायद उम्मीद की थी, कोई सनसनीदार घटना होगी या तीव्र घृणा होगी, या क्रोध होगा; कोई ऐसाी विराट प्रतिक्रिया होगी जो उसे भीतर आन्दोलित कर देगी, उसे दहला देगी-वह इस हल्की-बहुत हल्की!-ग्लानि-भर के लिए प्रस्तुत नहीं था-न इस धीमी-सी उलझन के लिए...

एक चबूतरे पर दो छोटे-छोटे अधनंगे लड़के बैठे हुए थे। वे एक वीभत्स मुद्रा बनाए सा सटकर बैठे हुए परस्पर गले में बाँह डाले एक-दूसरे का मुँह चूम रहे थे और प्रत्येक चेष्टा के बाद सामने एक खिड़की की ओर देखकर एक अर्थ भरी हँसी हँस देते थे। शेखर ने उनकी दृष्टि का अनुकरण किया-नीले बिजली के हंडे के प्रकाश में फालसई रंग की साड़ी पहने एक स्त्री बैठी थी और उस रंगीन प्रकाश में उसका पाउडर से रँगा मुँह ऐसा लग रहा था, जैसे पानी में पड़ी हुई लाश का...

शेखर आगे बढ़ गया।

एक खिड़की के नीचे चारखानी जूट की तहमतें पहने चार-पाँच मुसलमान खड़े थे और एक लम्बे क़द के फ़क़ीर की ओर देख रहे थे। फ़कीर बूढ़ा था, गेरुआ पहने था, गले में मोटे-मोटे दानों की कंठी पहने था, और सामने झरोखे पर बैठी एक कुरूपा अधेड़ स्त्री की ओर उन्मुख होकर कह रहा था “क्यों, तुम मादा नहीं हो? मेरे पास पैसा नहीं है, मैं भीख माँगता हूँ, पर-” छाती ठोंककर-”मैं मर्द हूँ, मर्द...” वह औरत उसकी ओर तिरस्कार-भरी दृष्टि से देख रही थी, और जुटे हुए लोग हँस रहे थे...

नहीं। यहाँ भी नहीं। यहाँ भी केवल वही हल्की-सी विरक्ति, एक क्षीण झल्लाहट...और मणिका के एक वाक्य की अनुगूँज-‘चमड़ी के नीचे सब एक से होते हैं’-लोलुप पशु...पुरुष-और-पुरुष, स्त्री-और-स्त्री, पुरुष और स्त्री...शेखर और आगे बढ़ गया।

एक छोटी-सी, चिथड़ों में अधनंगी लड़की ने उसकी बाँह खींचकर कहा, “बाबू, पैसा दो।”

“पैसा मेरे पास नहीं है; भाग जाओ।” शेखर ने बाँह झटक दी; स्वर भी उसका कठोर था।

लड़की उसकी टाँगों से चिपट गयी। बोली-”दो, नहीं तो मेरे साथ आओ-पीछे दे देना।” कहकर उसने एक-एक कोठरी की ओर इशारा किया, जिसमें एक लालटेन जल रही थी...

शेखर ने अपने को छुड़ाया भी नहीं, वैसे ही पंजवत् आगे चलता गया। लड़की ने उसे छोड़ दिया।

एक ओर से आवाज़ आयी, “किन्नो, देख तेरे देस का आदमी जा रहा है-बुला तो?”

शेखर को क्षीण-सा कौतूहल हुआ। नाम से वह नहीं जान सका कि कौन से प्रान्त की है वह, जिसे सम्बोधन किया गया है और जिसका स्वदेशीय उसे समझा गया है। पर वह रुका नहीं, न उसने मुड़कर देखा, यद्यपि उसने उधर से उसे लक्ष्य करके उत्पन्न की गयी चुम्बन की जोरदार ध्वनि सुनी...

वह मोड़ पर मुड़ा ही था कि सामने से आता हुआ कोई बोला-”फूल ले लो!”

नहीं, वे चमेली के गजरे नहीं थे। शेखर ने एक बार देखा, ऐसे लड़खड़ाया जैसे गोली खा गया हो, फिर स्वस्थ होकर सिर झुकाए, एक हाथ से आँखें छिपाता हुआ भागा-भागा...उस स्थान पर-कुमुद के गट्ठे! कुमुद जो, उसके लिए स्वच्छता का प्रतीक बन गये थे, जो...

वह भागा, और न जाने क्यों एक निरर्थक वाक्यांश हथौड़े की चोट की तरह बार-बार उसे उद्वेलित करने लगा-ईश्वर और मानव-ईश्वर और मानव...

उन कुमूद के फूलों ने उसके विचार की धाराओं को जिस मार्ग पर डाल दिया, और छुट्टियों में घर न लौटने के निर्णय ने उस पर जो कैद लगा दी, उसके कारण शेखर के मन में शीघ्र ही काश्मीर जाने की लालसा तीव्र हो उठी। उसके शैशव का वह सुन्दर क्रीड़ास्थल...कितने दिन हो गये थे उसे कुछ भी सुन्दर देखे हुए, और कितनी तीव्र वेदना थी उसके हृदय में कुछ ऐसा देखने के लिए-जो सुन्दर हो, सम्पूर्ण सुन्दर हो...

लेकिन क्या वह सत्य था। क्या वह सचमुच सौन्दर्य की खोज थी, जिसके कारण उसका जीवन इधर इतना अशान्त हो गया था? क्या वह उसकी परिस्थिति की असुन्दरता ही थी, जिसके कारण उसका अन्तर उबल-उबल पड़ता था? उसे निश्चय नहीं था, किन्तु युद्ध तो सम्भावनाओं का पीछा करने का ही दूसरा नाम है, और जीवन केवल सम्भावनाओं को पकड़ने का दीर्घ प्रयास है...

चीन की एक पुरानी कविता है, जिसका भावार्थ है, “व्यक्ति क्यों यह इच्छा लेकर अलसाया पड़ा रहे कि उसकी हड्डियाँ भी उसके पिता की हड्डियों के साथ ही समाधिस्थ हों? जहाँ भी कोई चला जाए, वहीं कोई शस्य-श्यामला पहाड़ी मिल सकती है।”

इसी कविता को प्रणाम-वाक्य बनाकर शेखर काश्मीर के लिए चल पड़ा था। जाता हुआ वह अपने मस्तिष्क को अतीत की पुनर्जात स्मृतियों से भरता जाता था, किन्तु उसकी मधुरता उसे बाँधती नहीं थी, अतीत के साथ समाधिस्थ होने की ओर आकृष्ट नहीं करती थी, केवल यह चाहना जगाती थी कि वह उससे भी अधिक शस्य-श्यामला पहाड़ी खोज ले, चाहे जहाँ भी उसके लिए जाना पड़े...

कुछ हँसी भी उसे आती थी अपनी खोज पर-सत्य की खोज, ज्ञान की खोज, मुक्ति की खोज तो सुनी थी, सौन्दर्य की खोज करने वाला जिज्ञासु वह पहला ही था!

अतीत झूठ था। कोई शस्य-श्यामला पहाड़ी उसमें नहीं थी-केवल समाधियाँ।

शेखर ने श्रीनगर पहुँचकर गली-गली छान डाली-उस पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। श्रीनगर में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था-सिवाय भिन्न-भिन्न प्रकार की गन्ध के। नगर के बाहर सुप्रसिद्ध उद्यानों की सैर भी उसने की-किन्तु वहाँ पर थी केवल रेखाएँ और कोण और वृत्त-और वृक्षों की कठोर शालीनता और अति-व्यवस्था केवल मृत्यु की शान्ति का ध्यान दिलाती थी। जिस व्यक्ति ने इन उद्यानों पर लिखाया था-”अगर फिरदौस बररुए ज़मीन अस्त, हमीन अस्तो हमीन अस्तो हमीन अस्त”-वह अवश्य कोई गणितज्ञ रहा होगा, जिसे बाग़बानी का शौक़ चर्राया होगा...शेखर ने नदी-नाले और झीलें पार कीं, पर उनका सौन्दर्य दर्शकों और यात्रियों की, और उनके धुएँदार डूँगों की बेडूबा भीड़ से विकृत हो गया था। तब उसने नगर छोड़कर हिमालय की अक्षत शुभ्रता में छिपी हुई एक झील की ओर प्रयाण किया; राह के दोनों ओर पार्वत्य उपत्यकाओं में खिले हुए लाल, पीले, नीले, और श्वेत पुष्पों को उड़ती निगाह से देख कर वह इतनी ऊँचाई पर पहुँचा कि जहाँ-तहाँ चट्टानों की ओट में छिपी पिछले वर्ष की बर्फ़ दीखने लगी। एक चट्टान की आड़ में से उसने अकेला खिला हुआ वह आसमानी रंग का पोस्त का फूल भी तोड़ा जिसे पाना सौभाग्य है-कैसा है उस फूल का भाग्य, जिसका पाया जाना पानेवाला का सौभाग्य है, किन्तु फूल का अन्त!-किन्तु सौन्दर्य, सौन्दर्य उसे न मिला। वह और ऊपर चला, साथ के कुली विद्रोह की तैयारी करने लगे, क्योंकि जिधर वह जा रहा था, उधर गये तो लोग थे, पर टिका कोई नहीं था-किसी का खेमा वहाँ नहीं गड़ा था...पर “वहीं तो मिलेगा सौन्दर्य!” कहकर शेखर उन्हें किसी तरह झील तक ले गया; झील के किनारे खेमा गाड़कर वह पड़ गया और सोचने लगा, इससे आगे कहाँ?

झील बड़ी थी, बीच में जगह-जगह बर्फ़ की चट्टानें तैर रही थीं; ऊपर कुंजों की एक डार कभी इधर कभी उधर उड़ जाती थी, और हवा का झोंका झील के आर-पार मानो किसी पार्वत्य देवी का प्रशस्त पथ तैयार कर रहा था। शेखर देखा किया, फिर थकान के कारण और जाड़े से कुछ काँपकर उसने खेमे का परदा डाल दिया और लेटकर सोचने लगा, यहाँ से आगे पथ नहीं है, पीछे ही लौटना होगा, पर उसे तो पीछे कभी पथ दीखा ही नहीं है, वह जाएगा कैसे...

झील के किनारे की एक चट्टान की आड़ में खड़े शेखर को जान पड़ा, सामने दो चट्टानों से जो अँधेरी-सी गुफा बन गयी है, उसमें खड़ी कोई शुभ्रवसना देवी पानी में अपने पैर भिगो रही है। फिर उसे लगा, वह देवी नहीं, मानवी है, शेखर की परिचिता है। किन्तु कौन? नहीं, चेहरा केवल किसी से मिलता है-शारदा? शशि?

शेखर एकाएक जाग पड़ा। वह सो गया था, सोते समय खेमें के परदे की थोड़ी-सी खुली जगह में से चाँदनी उसके मुँह पर आ रही थी। स्वप्न से वह अशान्त-सा हो गया, कुछ-कुछ अपराधी होने का भी भाव उसके मन में आया। उसने कन्धे पर कम्बल डाल लिया और खेमे से बाहर निकल गया।

बाहर खुली चाँदनी छिटकी थी, इतनी प्रोज्ज्वल कि निरभ्र आकाश में भी तारा एक-आध ही दीखता था। झील चमक रही थी। रंगों का वह खेल-केवल एक रंग, श्वेत का खेल-बल्कि केवल मात्र प्रकाश का और उसी अनुपस्थिति का वह खेल देखकर शेखर स्तब्ध रह गया। झिलमिलाती हुई झील पर धुँधले श्यामल पहाड़, और दूर पर कुहरे-सी मधुर स्निग्ध ज्योतिर्मयी हिम श्रेणी...उस विस्तीर्ण, अत्यन्त निस्तब्ध रात में इस दृश्य को देखते हुए बोध की लहरें-सी उसके शरीर में दौड़ने लगीं; मानो वह इस जीवन के स्वप्न से उद्बुद्ध होकर किसी ऊँची यथार्थता के लोक में चला जा रहा है...उसे रोमांच हो गया। उसने आँखें मूँद लीं, मानो आँखें मूँदकर ही वह इस दृश्य को बनाए रख सकता है, खुली आँखों के आगे वह छिन्न हो जाएगा...

आह सौन्दर्य...

शेखर को कँपकँपी आ गयी। उसे जान पड़ा कि उसके मस्तिष्क पर कोई भारी बोझ है, जिसे उतार देना आवश्यक हो गया है; वह धीरे-धीरे खेमे की ओर लौट पड़ा।

भीतर आकर उसने मोमबत्तियाँ जलायीं; काग़ज़-कलम लिया, और क्षणभर अनिश्चय में कलम हिलाता रहा। फिर उसने लिखा, “सौन्दर्य और बुद्धि का सम्मिलन कभी भी बन्ध्य नहीं होता।” थोड़ी देर फिर रुककर, एकाएक निश्चय में उसने क़ागज़ घुटने पर रखा, और सिर झुकाकर लिखने लगा-अपने जीवन की सबसे पहली और सबसे सुन्दर कहानी...

“उसने अपना जीवन नगर में बिताया था-नगर की गन्दगी और भीड़ में, कलह और कोलाहल में, और उसी में इतना सन्तुष्ट और चुप रहना वह सीख गया था कि सिवाय नगर को जनसंख्या में इकाई जोड़ने के और कोई महत्त्व उसका नहीं था। वह उस गन्दगी और भीड़, कलह और कोलाहल का एक अंग था। अड़ोस-पड़ोस में उसकी नीरसता प्रसिद्ध थी। इसीलिए, जब उन्होंने सुना कि उसने अबकी बार काश्मीर जाने का फैसला किया है, तब हँसते-हँसते उनके पेट फूल गये। “वह काश्मीर देखने? वह तो भैंस का भी सौन्दर्य नहीं पहचान सकता-काश्मीर? जिस सौन्दर्य को बड़े-बड़े कलाकार बोध के घेरे में नहीं बाँध सके, उसको पकड़ने चला है वह-वह शहर की गली का रेंगता केंचुआ, जिसकी आँखें नहीं होतीं, जो इधर बढ़ना चाहे तो उधर सिकुड़े बिना बढ़ नहीं सकता! यही तो है-गदहा पूछे, कितना पानी!”

किन्तु नीरस व्यक्ति होने के कारण इन सब बातों का कोई असर उस पर नहीं हुआ। उसे जाना था, वह गया।

श्रीनगर में वह बहुत दिन रहा। घूमा किया, भटका किया उस सौन्दर्य की खोज में, जिसे सब देख सकते थे और बखानते थे और वही एक अभागा नहीं पहचान पाता था। धीरे-धीरे उसका विश्वास होने लगा कि सौन्दर्य निरी कल्पना है-और ज्यों-ज्यों यह विश्वास जमने लगा, त्यों-त्यों उसकी खोज भी अधिक व्याकुल होने लगी। उसने मुगलों के उद्यान देखे-सस्ती सजावट और गणित के प्रयोग-और बस! उसने पहलगाँव देखा और निराश लौटा, गुलमर्ग का उस पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा-डल झील नीरस दीखी, और वुलर तो थी ही गँदले पानी का प्रसार।

अन्त में वह फिर अपने नगर-उसकी गन्दगी और भीड़, कलह और कोलाहल के लिए छटपटाने लगा। वे चीजें सुन्दर नहीं थीं, तो कम-से-कम ग्राह्य तो थीं, पकड़ में तो आती थीं, समझा तो उन्हें जा सकता था! क्या वह लौट चले?

किन्तु कार्यारम्भ करके बीच में छोड़ देना तो-रसिकों का काम है-वह अरसिक कैसे अपनी खोज बीच में छोड़कर चल दे? वह अपने खेमे के बाहर बैठकर सोचता ‘क्यों मैं ही संसार में एकमात्र व्यक्ति हूँ, जिसमें सौन्दर्यानुभूति नहीं है? क्या मैं ही एक पंगु बनाया गया हूँ? या मैंने अभी अपने को अधिकारी सिद्ध नहीं किया है...’

उसने निश्चय किया कि वह एक बार और चेष्टा करेगा-अगर तब भी अनुभूति उसे प्राप्त नहीं होगी, तब वह सदा के लिए अपने गन्दे और संकुल कोलाहल भरे नगर को लौट जाएगा...वह निर्णय कर लेगा कि वह हार गया या जीता-वह नीरस है तो इस सम्बन्ध में कठोर नीरस सत्य को जानकर ही रहेगा...

उसने दो पहाड़ी टट्टुओं पर अपना आवश्यक सामान लादा, और टट्टुओं के मालिक को साथ लेकर चल पड़ा। चार दिन निरन्तर वह चढ़ाई चढ़ता ही गया-जंगल घना होता गया और निस्तब्धता बढ़ती गयी, हवा हल्की और तरल और शीतल जान पड़ने लगी। फिर तीन दिन और, वह और उसका पहाड़ी साथी आगे बढ़ते गये-असंख्य छोटे-छोटे पहाड़ी झरनों को और मोती की लड़ी से झर-झर झरनेवाले जल-प्रपातों को लाँघते हुए-यहाँ तक कि देवदारु और भोजवृक्ष भी चुक गये, और उनके सब ओर विस्तीर्ण उपत्यकाएँ छा गयीं, हरित, लोहित, नील-पीत, श्वेत, निर्गन्ध पुष्पों से ढँकी हुई उपत्यकाएँ...

इससे भी आगे वे बढ़े-तब फूल भी चुक गये-केवल कहीं-कहीं एक-आध भूला सा नीला पोस्त दीख जाता, कहीं-कहीं तीव्र गन्धवाली कोई बूटी या रूखे पत्तोंवाली कोई कुरूप झाड़ी...

और उससे आगे सौभाग्य-सूचक वे नीले पोस्त भी चुक गये, बूटियाँ भी चुक गयीं, रह गयीं केवल ऊबड़-खाबड़ नीरस चट्टानें और पिटी हुई-सी भावहीन नीरस दूब...

उसके मन में भावना हुई, उस दुर्गम पथ पर एक-एक करके सब रसिक रह गये हैं-वृक्ष रह गये, फूल रह गये, बूटियाँ रह गयीं, एकान्त तपस्वी नीले पोस्त तक रह गये-अब बचे हैं तो नीरस पत्थर, नीरस घास और नीरस जिज्ञासु वह...इस बीहड़ मार्ग पर सौन्दर्य उसे दीखना ही चाहिए-पर क्या सौन्दर्य कुछ है भी? क्या रस की कल्पना, आसन्न रसलब्धि की भावना ही को सौन्दर्य नहीं कह देते? ‘इससे मैं अभी-अभी सुख पाऊँगा’, इस चिन्ता में ही व्यक्ति इतना डूब जाता है कि सुख पाने से पहले ही रस-बोध उसे हो जाता है, तब वह कहता है, ‘कितनी सुन्दर!’ वासना की अमूर्त के द्वारा पूर्ति का नाम ही सौन्दर्य है न...

तब क्या वह वासना से परे है? वह जानता है कि यह मिथ्या है, उसका गात भी वासना से झुलस सकता है, और झुलसा है और झुलसेगा...तब क्या संसार में ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है, जो उसे सुख दे सके, या जिससे वह सुख की आशा कर सके? इतना अभागा भी होना कठिन है-इन आसपास पड़े हुए काले पत्थरों के भीतर भी तो कहीं-कहीं हरे या श्वेत रंग की एक नाड़ी दीख पड़ती है।

एक घाटी पार करके वे सहसा खुली जगह पर आ गये, जहाँ सामने एक विस्तीर्ण झील थी, चारों ओर चोटियों से घिरी हुई-कोई नंगी और श्यामकाय, कोई हिमाव-गुंठित...

उसने घोड़ेवाले से खेमा गाड़ने को कहा, और हल्की-हल्की बूँदाबाँदी में वह भीतर जाकर कुछ खा-पीकर लेट गया-वह बहुत थक गया था। इतना थक गया था कि उसे नींद भी न आयी-वह लेटा-लेटा सोचने लगा...

कैसा मूर्ख है वह...क्या और भी कोई ऐसे सौन्दर्य की खोज में निकला होगा? कहानियों में अवश्य सुनते थे, अमुक राजकुमार-नीलम के द्वीप में गया, जहाँ सौन्दर्य की देवी रहती थी, या अमुक बादशाह ने अपने वज़ीर से कहा कि मुझे सौन्दर्य का सार चाहिए-लेकिन कभी किसी ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि वे कहानियाँ सच हैं? ‘कहानी’ और ‘यथार्थ’-ये दो अलग श्रेणियाँ हैं, यह ज्ञान छोटे-से बालक के मन में भी बिठा दिया जाता है...वही एक मूर्ख ऐसा है कि नहीं समझ पाया-यथार्थ-जीवन में रहकर कहानी-जीवन की चीज पकड़ना चाहता है...क्यों न लोग उस पर हँसें? उसे मूर्ख समझें? घर पर-नगर की गन्दगी और कोलाहल से घिरी हुई उसकी स्त्री भी उस पर हँसती होगी कि मूर्ख शादी करके सौन्दर्य की खोज करने चला है...

वह अचकचाकर जागा। उसने स्वप्न में देखा था, एक काली चट्टान की गोल-गोल आँखें उस पर टिकी हैं और चट्टान कह रही है, ‘तुमने बहुत अच्छा किया, जो सौन्दर्य की खोज में चले आये-मेरे पास।’ और फिर वह एकाएक उसकी स्त्री में परिणत हो गयी थी, जो ठठाकर हँस पड़ी।

वह उठकर बाहर निकल आया और लम्बे-लम्बे डग भरकर झील की ओर जाने को हुआ-

वज्राहत-सा पथ के बीच में वह रुक गया। कोई अनिर्वचनीय पदार्थ लहरें बाँध-बाँधकर उसकी ओर उमड़ा आ रहा था-कुछ तुषार-शीतल, कुछ भव्य, कुछ रोमांचकारी-उमड़ा ही नहीं, उसके मेरुदंड की कड़ी-कड़ी कँपाता हुआ उसके मस्तिष्क में बैठ रहा था...

उसके आगे बिछी हुई-राका की ज्योत्स्ना, छायाएँ, बर्फ का फैला हुआ आँचल, झिलमिल जल, लहरें, तारे...

सौन्दर्य-गहरे मार्मिक आघात की तरह-अनुभूति उसकी रगों में दौड़ गयी...

लहरों पर चन्द्रमा की किरणों का नर्तन-तरल मखमल के पट पर थिरकती हुई पार्वत्य अप्सराएँ-और दूर उस पार-हिमस्तूपाकार और अचल मुद्रा में आसीन ऋषिगण-शान्त और ध्यानस्थ और अडिग...

प्रज्ञा के आघात के आगे वह लड़खड़ा गया-अनन्त आकाश में खो गया-उपलब्धि उसे हुई थी, किन्तु उसकी पकड़ से बहुत बड़ी-उसकी बुद्धि आहत, पराजित, खंडित पड़ी थी उस प्रवाह के आगे...

जो डायन को स्नान करते देख लेता है, वह अन्धा ही होकर रहता है-उस रूप के बाद कुछ देखने की सामर्थ्य भी रहना असम्भव है...

उस पर उन्माद छा गया था, वह बड़बड़ा रहा था, वह बाँहें फैलाए हुए झील और बर्फ और आकाश के सौन्दर्य को घेरने के लिए बढ़ा जा रहा था...किन्तु स्वप्न क्या बाँहों से घिर सकते हैं, बँध सकते हैं...?

वह तन्द्रा में ही आगे बढ़ा जा रहा था-झील की ओर, जहाँ चन्द्रमा की किरणों पर-अप्सराएँ थिरक रही थीं...

अगले दिन जब सूर्योदय तक भी वह तम्बू से बाहर नहीं निकला, तब घोड़ेवाला भीतर गया, पर वह वहाँ नहीं था। कुछ देर घोड़ेवाले ने प्रतीक्षा की, फिर खोज के लिए निकल पड़ा।

कहीं कुछ नहीं-केवल बर्फ पर कुछ-एक पद-चिह्न झील की ओर जाते हुए और झील के किनारे तक जाकर लुप्त-और उससे आगे कुछ नहीं, केवल अभेद्य अवगुंठन डाले हुए चिरन्तन सौन्दर्य-नीरव सस्मित, रहस्यमय...

अगले दिन प्रातःकाल ही शेखर ने सामान बाँधा, तम्बू उखाड़ा और वापस चल पड़ा। अपनी नयी अनुभूति को गाँठ में बाँध लेने के बाद उसके लिए वहाँ रहना अनावश्यक हो गया था-अनावश्यक ही नहीं, असह्य भी हो गया था।

तीन दिन के बाद वह पहले डाकघर पर पहुँचा, जहाँ उसे कई जगह भटककर आई हुई उसकी डाक मिली। डाक में कुछ अधिक नहीं था, दो-चार परिचित लिपियाँ ही थीं-एक नयी लिपि देखकर उसने वही लिफाफा सबसे पहले खोला, और उसके बाकी पत्र अनपढ़े ही रह गये।

शशि ने तीन लाइन का पत्र लिखा था-उसके पिता का देहान्त हो गया और माँ को बार-बार ग़शें पड़ती हैं।

सन्ध्या के समय निरालोक नीरव घर में प्रवेश करते समय किसी को सामने न देखकर शेखर ने सन्तोष की गहरी साँस ली। न जाने क्यों, उसके मन में डर बैठा हुआ था कि वह इस घर के ऊपर छाए हुए दुःख में हिस्सा नहीं बटा सकेगा। यद्यपि शशि के पिता की बीमारी में वह यहाँ आ चुका था और रह चुका था, और घर से एकरस हो चुका था, तथापि उसे लगता था कि उसका लगाव मौसी विद्यावती और शशि से ही है, और इस समय वे दुःख से घिरी हुई होंगी, तब वह उनके निकट नहीं जा सकेगा और न दुःख में हिस्सा बटा सकेगा। ऐसा जान पड़ता था कि वह स्वयं निर्वैयक्तिक हो गया है, व्यक्ति की अनुभूति-दुःख-सुख-उसे नहीं छूती; और ऐसी दशा में समवेदना प्रकट करना असम्भव और न करना नृशंसता होगी...

द्वार पर, ड्योढ़ी में, आँगन में, सीढ़ियों पर-शेखर को कोई नहीं दीखा। उसने चुपचाप अपना छोटा-सा बिस्तर आँगन में रखा और दबे पाँव ऊपर चढ़ गया।

भूमि पर बिछी हुई एक चटाई पर मौसी विद्यावती मूर्च्छा में पड़ी थी, उसके माथे पर एक हाथ रखे, दूसरे से पंखा करती हुई शशि बैठी थी। शशि की छोटी बहिन गौरा हाथ में पानी का गिलास लिए खड़ी थी, लेकिन पानी की छींटों के बजाय नीरव आँसुओं की बूँदें ही गिरा रही थी।

शेखर के मुँह से अकस्मात् निकला, “शशि-”, फिर वह सकुचा गया। मौसी के पास ही घुटनों बैठकर पानी का गिलास उसने गौरा से लिया और छींटे देने लगा; शशि ने एक बार उसकी ओर देखा, एक सरल विशाल स्वीकृति में उसकी उपस्थिति को अपना लिया और पंखा झलती रही। गौरा शायद सामान देखने के लिए नीचे उतर गयी। मौसी ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और एक निर्वेद दृष्टि से उसे पहचानकर फिर मूँद लीं, फिर करवट लेने की कोशिश की और रह गयीं; फिर उनके अंग शिथिल हो गये और साँस नियमित चलने लगी। शशि ने धीरे से कहा, “सो गयी-आज तीन दिन बाद सोई है”; शेखर ने एक बार आँख उठाकर उसकी ओर देखा, मानो पूछना चाहता हो, “तो तुम तीन दिन तक देखती रहीं कि सोती हैं या नहीं?” पर कुछ बोला नहीं; शशि उठकर बाहर चली, शेखर पीछे हो लिया, उसके बाहर जाने पर शशि ने किवाड़ बन्द करके पूछा, “मेरी चिट्ठी मिली थी-कब?”

“आज पाँच दिन हुए हैं।”

“थे कहाँ तुम?”

“काश्मीर गया था-”

“काश्मीर कहाँ? आते-आते पाँच दिन लगे?”

“कहीं नहीं, शशि, मेरी अक्ल ठिकाने नहीं थी,” कहकर शेखर एकाएक चुप हो गया।

शशि रसोईघर में गयी और धीरे-धीरे रसोई की सामग्री जुटाने में लगी। शेखर ने कहा, “मैं मदद करूँ?” शशि ने चुपचाप आटे की परात उसकी ओर धकेल दी और एक लोटा पानी भी रख दिया, स्वयं तरकारी काटने लगी।

मदद के इस प्रकार निर्विवाद स्वीकार हो जाने पर शेखर को विस्मय हुआ उसने स्थिर दृष्टि से शशि की ओर देखा। तब उसने जाना कि शशि स्वयं वहाँ नहीं हैं, वहाँ केवल एक मानव-यन्त्र है, जो दूसरों को चलाने के लिए स्वयं चलता जा रहा है, चलता जा रहा है...

और तब एकाएक उसने पाया कि वह निर्व्यैक्तिक नहीं है, कि वह विषाद में डूब गया है, कि उनका दुःख उसका दुःख है-गहरी संवेदना का स्रोत उसके भीतर कहीं उमड़ पड़ा...

दुःख संसर्ग-जन्य है, वह उदात्त और शोधक भी है। दुःख का संसर्ग परिवर्त्ती को भी शुद्ध और उदात्त बनाता है।

कुछ ऐसा ही ज्ञान वहाँ रहते हुए शेखर के भीतर से प्रस्फुटित हो रहा था, तभी उसने निश्चय किया कि वह वहाँ से न जाकर वहीं दुःख के आँचल में विश्राम करेगा...

मृत्यु के झंझावात की चोट से क्षत-विक्षत हुए उस परिवार को एक मास से ऊपर हो चला था; घर कम-से-कम कार्य-व्यवस्था की दृष्टि से अपनी साधारण अवस्था पर आ चला था-काम-काज ही तो संसार की व्यवस्था को स्थिर, एकरूप रखनेवाली एकमात्र वस्तु है-और मौसी विद्यावती तथा शशि दिनभर किसी-न-किसी काम में जुटी रहती थीं...कभी जब पास-पड़ोस की औरतें हमदर्दी दिखाने आ बैठतीं, तब भी वे कुछ-न-कुछ काम लिए बैठी रहतीं और निष्ठापूर्वक उस छिछली, कभी-कभी मिथ्या, और प्रायः ही रूढ़िगत समवेदना के लिए आँचल पसारे रहतीं, क्योंकि वही परम्परा थी, भले ही उससे भाग्य के गहरे क्षत और भी गहरे होते जाएँ, फूट उठें, जीवन-रस बहा ले जाएँ...

और शेखर इस विशाल मौन कर्त्तव्यनिष्ठा को स्तब्ध होकर देखा करता-वह दूर खड़े अपलक दृष्टि से मौसी या शशि की और देखता रहता। जब कभी उनका ध्यान इसकी ओर खिंच जाता, तब वह जल्दी से वहाँ से हट जाता...कभी मौसी बुलाकर पूछतीं, “क्या है, शेखर?” तब वह कुछ उत्तर न दे पाता और वे समझतीं कि उन्हें अपना दुःख दिखाकर उसे दुःखी न करना चाहिए-यह उनकी कल्पना में न आता कि उनका दुःख-सुख, आक्रोश-आवेग, राग-विराग तत्काल ही कार्य में परिणत कर देता है, जो व्यक्ति के लिए ऊँची-से-ऊँची चोटी तक ऊबड़-खाबड़ पगडंडी दिखाने को तैयार है, किन्तु समष्टि के लिए थोड़ी-सी दूर तक भी प्रशस्त-पथ बनाने के लिए रुक नहीं सकता...वह जिसमें संयम नहीं है, जिसने पानी का बहने और बहाने का धर्म तो अपना लिया है, पर सींचने का काम नहीं सीखा...तब वह दौड़कर किसी एकान्त कमरे में छिप जाता और अपने को कोसा करता कि इतना लम्बा जीवन उसने व्यर्थ बिता दिया है; अपनी पूँछ का पीछा करनेवाले कुत्ते की तरह अपने आसपास ही चक्कर काटकर रह गया है, दूसरों का दुःख, दूसरों की वेदना उसने जानी नहीं, जाननी चाही नहीं, जानने की सम्भावना नहीं छोड़ी...

न जाने इसका श्रेय किसे था कि उस दिन एकाएक बातें होने लगी थीं और मौसी, शशि, शेखर तीनों ही जैसे कोई बाँध तोड़कर बोलते रहे थे। शेखर को यह देखकर बहुत सन्तोष हुआ कि उसकी एक-आध बात पर मौसी मुस्करा भी दी थीं-यद्यपि वह मुस्कराहट ही किसी दूसरे की आँखों में आँसू लाने के लिए पर्याप्त थी।

शेखर शायद अपने भावी कार्यक्रम के बारे में कुछ बात कहते-कहते एकाएक कह गया था, “यह मुझसे नहीं हो सकता-इसकी तो रेखा ही मेरे हाथ में नहीं है।”

और शशि ने पूछा था, “आपको हाथ देखना आता है?”

शेखर के कुछ उत्तर देने से पहले ही विद्यावती ने हाथ बढ़ाकर कहा, “सच? देखकर बताओ तो मेरी आयु कितनी है?”

शेखर प्रश्न से इतना विस्मित हुआ कि शशि के प्रश्न का नकारात्मक उत्तर भी न दे सका, मौसी का हाथ अपने हाथ में लेकर आयुरेखा देखते हुए उसने जैसे किसी अनुक्त संशय का प्रतिवाद करते हुए कहा, “क्यों, अभी तो बहुत है-”

“नहीं, नहीं, शेखर, यह बताओ कि कम है?” मौसी के स्वर में एक मर्मभेदी तीखापन था-”कम बताओ, शेखर, कम!” और मानो एकाएक करुणा के प्रवाह में वह खो गया, मौसी ने चुप होकर हाथ खींच लिया...

शेखर का आगे बढ़ा हुआ हाथ वैसे ही अधखुला रह गया, जैसे वह मौसी का हाथ थामते समय था-वह एकटक कटी-सी आँखों से मौसी की आँखों की ओर देखता रह गया-आत्मा के उन अतल सरोवरों में किसी अमिताभ की ज्योति कौंधकर बुझ गयी-मौसी ने संयत, प्रकृतिस्थ होकर एक झूठी हँसी हँसते हुए कहा, “यों ही, सामुद्रिक भी कभी सच होता है...”

क्या जीवन इतना कठोर होता है, और क्या जीवन के लिए एक स्पष्ट उद्देश्य इतना अनिवार्य है? शेखर तो नहीं जानता कि उसके जीवन का क्या उद्देश्य है...वह उठकर चला गया।

शशि ने अपने जीवन के सत्रह वर्ष पूरे करके अठारहवें में प्रवेश किया था। घर में कभी इधर-उधर-मानो दीवारों से-और कभी समवेदना के लिए आयी हुई स्त्रियों के मुँह से, इस बात की चर्चा शेखर सुन लेता था “हाय-हाय, इसका ब्याह कौन करेगा? हाय-हाय, इतनी बड़ी अनब्याही लड़की घर में!” पर विद्यावती कभी इसकी चर्चा नहीं करती थीं और शशि का इधर कभी ध्यान नहीं गया था-यद्यपि शेखर स्पष्ट देखता कि चार वर्ष पहले की शशि और अबकी इस प्रशान्त गम्भीर मूर्ति में भारी अन्तर है।

शेखर की छुट्टियाँ समाप्त हो चुकी थीं, समय आ गया था वह कॉलेज जाकर एम.ए. में भर्ती हो जाए। किन्तु जाने का उसका मन नहीं था। विद्यावती ने जब उससे पूछा, “शेखर, अब छुट्टियाँ कितनी और बाकी हैं?” तब यह सोचकर कि दाखिले के दिनों के बाद भी जाने पर वह तो ले ही लिया जाएगा; उसने कह दिया था, “अभी काफ़ी हैं।” किन्तु शशि के फिर वही प्रश्न पूछने पर उसने कहा था, “क्यों?”

“आप आगे पढ़ेंगे नहीं?”

“पढ़ूँगा तो। पर जाने की क्या जल्दी है?”

“पढ़ाई तो करनी चाहिए न। यहाँ फिर आ जाइएगा-हम लोगों का क्या है? और आजकल तो हम लोग आपको तनिक भी सुख नहीं दे सकते-”

“इतना शान्त तो मैं और कहीं नहीं रहता जितना यहाँ-”

“यह तो कहने की बात है-”

“नहीं, सच। और अबकी बार तो विशेष शान्ति मिली हैं आप लोगों का दुःख बटाकर-”

“क्यों?-”

“दुख की छाया एक तरह की तपस्या ही है-उससे आत्मा शुद्ध होती है।”

“क्या आपको निश्चय है?”

कुछ विस्मित-सा होकर शेखर ने कहा, “क्यों?”

“दुःख उसी की आत्मा को शुद्ध करता है, जो उसे दूर करने की कोशिश करता है। और किसी का नहीं!”

“तो...मैं समझा नहीं।”

“आप हमारे दुःख में आकर मिल गये, हमें उसमें सान्त्वना भी मिली, पर आपका कर्तव्य क्या वहीं तक था? दुःख सब जगह है। आप उसे एक ही जगह समझकर उसकी छाया में रहना चाहते हैं, और आपका जो काम है, उसमें अनिच्छा दिखा रहे हैं। आप कॉलेज जाइए-”

शेखर अचम्भे में आ गया था। शशि ने इतनी लम्बी बात उसे कभी नहीं कही थी-और बात लम्बी ही नहीं, गहरी भी थी...उसने धीरे-धीरे कहा, “आप ठीक कहती हैं-मैं...”

“और देखो, खबरदार जो अब कभी मुझे ‘आप’ कहा तो! मेरा नाम शशि है, और तुम्हारा शेखर।”

शायद अपने ही साहस पर कुछ झेंपकर शशि एकदम लौटकर चली गयी, शेखर देखता रह गया।

अबकी बार पढ़ाई के नाम से शेखर को अधिक कुछ नहीं करना था, क्योंकि साहित्य विषय लेकर एम.ए. करने में तो इधर-उधर की सब पढ़ाई भी पाठ्यक्रम में ही आ जाती थी-दो चार विशेष ग्रन्थ-लक्षण-ग्रन्थ, भाषा-शास्त्र आदि-पीछे भी पढ़े जा सकते थे...

शेखर ने अपने को साधारण विद्यार्थी-जीवन से कुछ खींचकर पिछले कुछ महीनों के अनुभवों को पचाना आरम्भ किया-एक छोटे-से होस्टल का संरक्षक बन जाने से उसे यह अलगाव प्राप्त करने में सुविधा भी हुई। इसके कुछ ही दिन बाद जब राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के लिए स्वयंसेवकों की माँग हुई, तब उसने भी अपना नाम पहले ही दल में लिखा लिया और नियमपूर्वक ड्रिल की शिक्षा लेने लगा। उमसें कोई विशेष राजनैतिक जागृति हो, ऐसा नहीं था; किन्तु ड्रिल के नियमाचरण से उसे कुछ शान्ति मिलती थी। वह यह भी सोचता था कि शायद इस प्रकार बाह्य नियम से उसके भीतर भी कहीं नियम की व्यवस्था हो जाए।

अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उसे बाद में भरती होनेवाले जत्थों को ट्रेनिंग देने का काम मिला। वास्तव में यह और भी अच्छी ट्रेनिंग थी, क्योंकि इसमें शरीर के साथ मन को भी चौकन्ने रहकर देखता होता था कि इसमें क्या त्रुटि है, और उसे कैसे पूरा करना होगा...

कांग्रेस का अधिवेशन समीप आते देर न लगी। एक दिन शेखर भी बिस्तर गोल कर, उसे वर्दी-वेष्टित कन्धों पर लादकर लारी में पटक, स्वयंसेवकों के पहले दल के साथ कैम्प में जा पहुँचा।

ट्रेनिंग प्रायः पूर्ण हो चुकी थी, केवल देर से आये हुए कुछ-एक व्यक्तियों को जल्दी-जल्दी चार-चार बार परेड कराकर तैयार करने की कोशिश की जा रही थी; किन्तु स्वयंसेवी सेना का संगठन अभी तैयार नहीं हुआ था। सेनापति थे, और स्वयंसेवी थे। किन्तु उनके बीच सम्बन्ध स्थापित करने के लिए छोटे-बड़े अफ़सरों का जो जाल रहता है, वह नहीं था। उसकी ओर अभी तक विशेष ध्यान नहीं दिया गया था, क्योंकि “चार दिन की बात है, सबको मिलाकर किसी तरह काम चलाना है।” किन्तु ‘मिलकर काम चलाने’ में यह तो स्पष्ट होता नहीं कि कौन आज्ञा दे और कौन उसे पाले, अतः एक दिन पाँच मुख्य अफ़सर...दलपति-चुने गये और अगले दिन परेड में बाकी अफ़सरों का ‘चुनाव’ हुआ। शेखर के पास अपनी योग्यता या अयोग्यता के अतिरिक्त कोई सिफारिश नहीं थी, फिर भी उसे एक मातहत अफ़सर-‘सरदार’-बना दिया गया, और काम यह मिला कि कैम्प का प्रबन्ध वह सँभाले।

कैम्प में चौदह सौ स्वयंसेवक थे। उनकी देख-रेख की विशेष आवश्यकता न होनी चाहिए थी, किन्तु स्वयंसेवकों में कम-से-कम तीन सौ कॉलेज के छात्र थे, जिनका विचार था कि जब वे स्वयंसेवक बन ही गये, और वर्दी के लिए भी आधी कीमत दे चुके, तब कोई कारण नहीं कि उनसे काम की भी आशा की जाये और कांग्रेस का तमाशा न देखने दिया जाए। सप्ताह में तीन बार उन्हें शहर में अपने घर जाने की भी आवश्यकता थी-वे इस जंगल में ठिठुरकर मरने नहीं आये थे। काम दिन में होता है, रात को वे चाहे कहीं सोएँ-किसी को क्या? और फिर, स्वयंसेवा का भारी बोझ उठाकर उन्हें मनोरंजन की भी ज़रूरत है, कांग्रेस नगर में सिनेमा तो है नहीं, शहर जाना होगा; कैम्प में ताश या चौसर ही तो खेली जा सकती है, कभी जरा दिलचस्पी लाने के लिए दो-चार पैसे का दाव हो सकता है...

फिर कुछ बेचारे ऐसे भी थे, जिन्हें यह भी पता नहीं था कि निवृत्ति के लिए कहाँ जाना होगा, भोजन के लिए कहाँ कैसे क्या करना होगा, कम्बल न होने पर किससे माँग करनी होगी; और जो इन सब बातों के लिए पूछताछ या ‘शिकायत’ करना बुरी बात समझते थे, ‘भई कांगरेस का काम है, थोड़ी तकलीफ से भी कर लिया तो क्या...’

और कुछ ऐसे थे, जो वर्दी पहनकर अपने को उन सब कर्मों का अधिकारी समझते थे, जो उन्होंने गोरे सैनिकों या पुलिसवालों को करते देखा था और देखकर घृणा और विवश क्रोध से भर गये थे-राह चलतों को धमकाना, किसी गरीब पर शक हो जाने पर उसे गाली देना और सताना, आदि...उनकी समझ में उनका यह अधिकार सीमित करना मानो ‘सेना’ को पंगु बनाना था, क्योंकि वह है किसलिए यदि हाथ जोड़ना और खुशामद करना ही यहाँ आवश्यक है तो...

फिर कांग्रेस में आये हुए कुछ प्रतिनिधि (और दर्शक) ऐसे थे, जिन्होंने खेमे का किराया देकर संग में सारा स्वयंसेवक दल भी नौकर रख लिया था-समय-असमय पर उनकी माँग आती थी कि पेट में दर्द है, सेंक देने के लिए स्वयंसेवक चाहिए; ज्वर है, रात में पास रहने के लिए स्वयंसेवक चाहिए, हाजमा दुरुस्त नहीं है, वालंटियर भेजें कि कमोड साफ कर दिया करे...इस प्रकार की माँगें उचित भी हों तो भी डॉक्टर के पास जानी चाहिए थीं, जो रोगियों के लिए उचित व्यवस्था करने का उत्तरदायी था; पर ऐसा उत्तर देने पर सदा स्वयंसेवक-या शेखर-को याद दिलाया जाता था कि स्वयं सेवक का धर्म है किसी काम को क्षुद्र न समझे-”तुम्हें मालूम है, अफ्रीका में महात्मा गाँधी स्वयं मैला ढोते थे। तुम उनसे बड़े तो नहीं हो-”

और कुछ वालंटियर अफ़सर भी ऐसे थे, जिनकी पात्रता का आधार उनकी योग्यता नहीं, उनके सम्बन्धियों का प्रभाव था। ऐसे लोगों को दूसरे कामों की कमी नहीं थी कि कैम्प में आकर बेवकूफों से माथापच्ची करें। जिन महाशय का काम स्वयंसेवकों को काम पर नियुक्त करना था, वे दिन में तो दो बार नियुक्तियाँ कर जाते थे, पर शाम के भोजन के बाद पौष की कड़ाके की सर्दी में अपने स्थान से कैम्प तक आना उन्हें नागवार था; अतः प्रायः ही शाम की ड्यूटीवाला स्वयंसेवक अपने स्थान पर दूसरा आदमी आता न पाकर आधी-आधी रात तक खड़ा रह जाता था...ग्यारह बजे के बाद से शेखर के पास सन्देशे आने लगते, “अमुक सेवक पाँच घंटे से ड्यूटी पर है, कोई उसे मुक्त करने नहीं गया,” “अमुक को छः घंटे हो गये, वह बारिश में भीग भी गया है,” “मैं आठ घंटे से खड़ा हूँ, अब अपनी जगह एक आदमी को खड़ा करके आया हूँ; दूसरा स्वयंसेवक दीजिए तो उसे वहाँ पहुँचा आऊँ...”

शेखर को काफी काम था। प्रातःकाल छः बजे वह खेमे के दफ्तर में आकर स्टूल पर बैठ जाता, दो बजे दिन और दस बजे रात उसका पठान ‘अर्दली’ किसी तरह लड़-झगड़कर उसका खाना ले आता, वही एक बार चाय भी पिला देता, रात के बाहर बजे शेखर खेमे से निकलता, और शिकायतों से ऊबकर सोचता कि सोने से पहले एक चक्कर लगाकर देख आऊँ, कौन कब से कहाँ है, ताकि फिर निश्ंिचत हो सो सकूँ...एक समस्या उसकी और थी-नियुक्तियाँ तो वही अफ़सर कर सकते थे, जो नियुक्ति के ज़िम्मेवार थे, शेखर तो अनधिकारी था, अतः जब उसे स्वेच्छा से आनेवाले स्वयंसेवक न मिलते, तब वह अपने अधीन के स्वयंसेवकों को ही भेजता, लैम्प की सम्भाल के लिए ही उसे मिले हुए थे...

दो बजे रात वह थका-चुका अपनी? तक पहुँचता, और बिना वर्दी ढीली किये या बूट तक भी खोले पुआल पर अपने बिस्तर पर पड़ जाता...बूट न खोलना ठीक भी था, क्योंकि ग्यारह आदमियों से भरी उस छोलदारी में इतना ही स्थान था कि वह पैर बाहर निकालकर पड़ सके-उसके भारी बूट और मोटी पट्टियाँ ही तब उसकी प्राणरक्षा करती थीं...

अनुशासन-अनुशासन-अनुशासन-अनुशासन के लिए दिन-रात पिसते हुए शेखर ने एक दिन उनके विरुद्ध घोर अपराध किया।

कॉलेज के विद्यार्थियों वाले तम्बुओं में तीन-चार बार जुआ खेलती हुई टोलियाँ पायी गयी थीं। पहली बार शेखर ने केवल पाँसे ज़ब्त कर लिये थे और चेतावनी दे दी थी कि यह काम अशोभन है, दुबारा नहीं होना चाहिए। दूसरी बार उसने ताश और लगे हुए पैसे जब्त करने के अतिरिक्त एक परेड भी कराई थी। तीसरी बार उसने तीन व्यक्तियों को दिन भर के लिए कैम्प से बाहर निकाल दिया था, और सारे कैम्प में नोटिस फिरवा दिया था कि जुआ खेलनेवाले को स्वयंसेवक दल से निकाल दिया जाएगा।

जो लोग परिश्रम करते थे, अपनी ड्यूटी बजा लाते थे, उनको इतनी फुरसत नहीं होती थी कि जुआ खेलें, और फिर नियुक्त करनेवाले अफ़सर की कृपा से वे चूर भी ऐसे होते थे कि फुरसत होने पर भी चित पड़े रहने के अतिरिक्त कुछ न करते। किन्तु कॉलेज के विद्यार्थी काम तो कुछ करते नहीं थे, और यदि नियुक्ति अफ़सर के चंगुल में फँसकर (वह भी उनकी स्वछन्दता में विघ्न नहीं डालता था, क्योंकि सबसे अधिक हल्ला करनेवाले दल को अप्रसन्न करके वह अपनी निर्बाध स्वच्छन्दता कैसे बनाए रखता?) कभी कोई ड्यूटी पर भेज ही दिया जाता, तो वह प्रातः अपना स्थान छोड़कर चल देता-”अरे यार, क्या मनहूस काम है-सड़क पर पहरा दो। भला सड़क भी कोई लेकर भाग जाएगा।” इसी श्रेणी के पास फुरसत बहुत थी, इसीलिए तीनों बार शिक्षा विफल हुई।

चौथी बार जब फिर एक टोली जुआ खेलती पकड़ी गयी, और उसमें दो व्यक्ति ऐसे निकले, जो पहली तीनों घटनाओं में भागी थे, तब शेखर ने आवश्यक समझा कि कोई अधिक गम्भीर कार्रवाई करनी चाहिए।

सम्मिलनी का बिगुल बजा, कैम्प में जितने स्वयंसेवक उपस्थित थे, सब बीच में परेड के लिए छोड़ी गयी जगह में कतारें बाँधकर खड़े हो गये। उनके चेहरे से दीख रहा था कि दोपहर के समय अकस्मात् बिगुल की पुकार से वे चौंक गये हैं कि जाने क्या संकट कैम्प पर आया है...

कतारों को “आराम” मुद्रा में खड़े होने का आदेश देकर ध्वजदंड के नीचे खड़े शेखर ने कहा, “स्वयंसेवकों,” आज आपको एक आवश्यक सूचना देने के लिए बुलाया गया है। कैम्प के लिए कलंक की बात है कि यहाँ चार बार जुआ खेलनेवाले दल पकड़े गये हैं। पहली बार-” और शेखर ने क्रमशः चारों बार के अपराधियों के नाम और पिछली तीन बार की दंड-व्यवस्था की बात सुनी थी। “चौथी बार के तीन व्यक्ति नये हैं, उन्हें वही दंड दिया जाएगा, जो पिछली बार दिया गया है, लेकिन दो व्यक्ति ऐसे हैं, जो आज चौथी बार जुआ खेलते पाए गये हैं। स्पष्ट है कि वह दंड इनके लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि किसी भी दंड की बात ही व्यर्थ दीखती है।”

क्षण भर के लिए वह रुक गया। एक बार उसने चारों ओर देखा, उसका रुकना प्रभाव डाल गया था।

“इनके लिए यही उपाय है कि हम लोग खेदपूर्वक स्वीकार कर लें कि वे स्वयंसेवक की वर्दी के योग्य नहीं हैं।”

क्षणभर और रुककर, “-और-, तीन कदम आगे-मार्च!”

दोनों आगे निकल आये। शेखर ने अपने ‘अर्दली’ से कहा, “इन दोनों का सामान ले आओ।”

अर्दली ने समान लाकर रख दिया-एक-एक बिस्तर, एक-एक छोटा बैग।

“तुम दोनों वर्दी उतार दो। अपने कपड़े पहन लो।”

दोनों ने एक बार अवज्ञा-भरी दृष्टि से शेखर की ओर देखा, पर सारी परेड में जो निस्तब्धता छायी थी, उसने उन्हें बाँध रखा था। उन्होंने चुपचाप कपड़े बदल लिये।

“सामान उठाओ-दाहिने रुख-मार्च! खान, इनको कैम्प के बाहर पहुँचा आओ।”

तीन जोड़ी कदमों की थप्-थप्-थप् स्पष्ट सुन पड़ रही थी...शेखर उधर कान लगाए सुन रहा था और बाकी स्वयंसेवकों को देख रहा था और सोच रहा था, यदि ये कहा मानने से इनकार कर देते, तो मैं क्या करता?

एकाएक परेड में से तीन आदमी आगे बढ़ आये। तीनों कॉलेज के छात्र थे-शेखर ने उन्हें कहीं देखा हुआ था। वे भी उसे पहचानते थे।

“क्या है?”

“आपको कोई हक नहीं है वर्दी उतरवाने का। हम इसका विरोध करते हैं। आपने कॉलेज के छात्रों का अपमान किया है-हम हड़ताल करेंगे।”

वह अनिश्चिय दिखाने का मौका नहीं था। शेखर ने कहा, “स्वयंसेवकों, आपमें से जो जुआ बन्द कराना अपमान समझते हों, तीन कदम आगे बढ़ आएँ।”

तीन-एक व्यक्ति और आगे आये। मानो अपनी सफाई में उन्होंने कहा, “हम आपके रवैये का विरोध करते हैं।”

“ठीक है। आप लोग अनुशासन का विरोध करना चाहते हैं। आप कर सकते हैं। आप छहों आदमी वर्दी उतार दीजिए। अर्दली, इन सबकी वर्दी माल में जमा करा दो।”

उनके थोड़े-से विकल्प में शेखर ने समझ लिया, अनुशासन विजयी होगा। वह बोला, “जो लोग अनुशासन मानते हैं, वे अब भी अपने स्थान पर चले जाएँ।”

चार आदमी हट गये।

“और आप लोग-आप अब भी अनुशासन तोड़ना चाहते हैं?”

“हम सेनापति के पास अपील करना चाहते हैं। हम-”

“अपील दंड के बाद में होती है। लेकिन आप कर सकते हैं। अपने स्थान पर जाइए।”

परेड बरखास्त कर दी गयी। शेखर चुपचाप अपने दफ्तर की ओर जाता हुआ सोचने लगा, बात बढ़ाना तो वह नहीं चाहता था, लेकिन और चारा क्या था? और कोइ अनुचित बात तो उसने नहीं की-

वह दफ्तर में बैठा ही था कि बुलावा आया-सेनापति जी बुलाते हैं।

शेखर ने जाकर सावधान मुद्रा करते हुए एड़ चटकाई और सलाम किया। सेनापति अपने खेमे में गद्दे के सहारे बैठे थे। पास ही दो-एक और उच्च कार्यकर्ता बैठे थे।

“आइए, आइए, बैठिए-क्या बात है?”

शेखर ज्यों का त्यों खड़ा रहा।

“इन दोनों को कुछ शिकायत है।”

“जी हाँ।”

“मामला क्या है?”

शेखर ने संक्षेप में चारों बार की जुए की बात और उस दिन की कार्रवाई बताकर कहा, “इन लोगों को मेरे फैसले पर आपत्ति है।”

सेनापति ने वादियों की ओर उन्मुख होकर कहा, “क्यों भाई, जुआ खेलना तो बुरी बात है न, फिर खेलनेवालों को सज़ा तो मिलनी चाहिए-”

“उसकी बात हम नहीं कहते। लेकिन कॉलेज के दो छात्रों की सरेआम बेइज्ज़ती करना तो बहुत बुरी बात है। वालंटियरों में बहुत से अनपढ़ देहाती हैं, वे क्या समझेंगे? ऐसे अपमान कराने के लिए हम लोग नहीं आये हैं। यदि आप दखल नहीं देंगे तो हम सब...”

अब सेनापति शेखर की ओर उन्मुख होकर बोले, “देखो भई, दस-पन्द्रह दिन की कुल बात है। किसी तरह मिल-मिलाकर बरतना है। किसी को नाराज करने का क्या फ़ायदा? गुज़ारा ही तो करना है-”

यह शेखर से नहीं सहा गया। रोष से ओठ चबाकर बोला, “गुज़ारा? आप गुज़ारा करना चाहते हैं? तब यह सब वर्दियाँ क्यों, संगठन क्यों, ओहदे क्यों? आप क्यों सुनहरी बिल्लेवाली वर्दी कसकर और तलवार लगाकर बैठे हैं? परेड क्यों होती हैं, बिगुल क्यों बजता है? पंचायत का ढंग इससे कहीं अच्छा रहता। मैं तो यह जानता हूँ कि अगर संगठन है तो अनुशासन है। मैं अपने फैसले को ग़लत नहीं मानता, आप उसे रद्द करें, वह आपकी मर्ज़ी है।”

सेनापति इस आवेश के लिए तैयार नहीं थे। बोले, “आप बहुत गुस्से में मालूम होते हैं-”

“नहीं। मैं क्या कर रहा हूँ, मैं अच्छी तरह जानता हूँ। जानता हूँ कि जैसा अनुशासन मैं चाहता हूँ, वैसा होता तो मेरे लिए वही व्यवस्था होती, जो इन जुआरियों के लिए मैंने की है। लेकिन अगर वैसा होता, तो मेरे यहाँ पेश होने की ज़रूरत न होती। आप जैसा गुज़ारा करना चाहते हों, कीजिए। मुझे उससे कोई सरोकार नहीं होगा। मुझे इजाज़त दें-”

शेखर लौटकर जाने को ही था कि सेनापति के पास बैठे हुए शुद्ध खद्दरधारी महाशय बोले, “और यह तो हमारे अहिंसा के सिद्धान्त के खिलाफ़ है-”

शेखर ने घूमकर तीव्र स्वर में कहा, “क्या?”

“दो आदमियों को ऐसे बेइज़्ज़त करना और पीड़ा पहुँचाना हिंसा है। हमारी वालंटियर सेना अहिंसक है।”

शेखर क्षण भर निर्वाक् रह गया। फिर उसका मन हुआ कि एक बार ठठाकर हँस दे और चला जाये। फिर अपने को वश में करता हुआ वह बोला, “आपके प्रश्न का उत्तर भी हिंसा ही होगा।” और बाहर चला आया। बाहर निकलते हुए उसने सन्तोषपूर्वक याद किया कि कुछ दिन पहले उसे लम्बे क़द के कारण अवसर दिया गया था कि वह सेनापति के अंगरक्षक दल में आ जाए-उस दल के सदस्य को काम कुछ नहीं करना पड़ता, सिवाय इसके कि दूसरे-तीसरे दिन जब सेनापति महोदय पूरी सज्जा के साथ कहीं निकलें, तब उनके आगे-पीछे कन्धे पर लुइसगन के नमूने पर बने हुए चरखे लेकर चला करें-तब उसने अवसर का लाभ उठाने से इनकार कर दिया था। यदि वैसा उसने न किया होता, तो आज क्या अपने को क्षमा कर सकता?...

परिणाम कुछ नहीं हुआ। निकाले गये व्यक्ति वापस नहीं बुलाए गये, यद्यपि उन्हें उनकी वर्दियाँ दे दी गयीं, क्योंकि उसकी कीमत उन्होंने दी थी। दो-चार बड़े अफ़सरों को छोड़कर, जो केवल अफ़सरी करते थे, हाज़िरी नहीं देते थे, बाकी सभी शेखर का फैसला उलटने के विरुद्ध थे।

और जो विद्यार्थी-विद्रोह होनेवाला था, नहीं हुआ। ख़ाहमख़ाह झगड़ा करके बवाल पालना और घपले में मुफ्त तमाशा देखने का अवसर भी खोना-यह उनका मार्ग नहीं था!

रात के नौ बजनेवाले थे। शाम ही को जो घना कुहरा छा गया था, वह अब मिलने लगा था, क्योंकि वर्षा होनी आरम्भ हो गयी थी। शेखर कन्धे पर ओवरकोट डाले, कैम्प के द्वार पर खड़ा नौ बजे अपने-अपने काम पर जानेवालों की तैयारी देख रहा था और सोच रहा था, अभी थोड़ी देर बाद शिकायतें अपनी शुरू होंगी कि हमारी ड्यूटी बदलने वाला कोई नहीं आया...न जाने नियुक्ति के अधिकारी क्यों नहीं उचित प्रबन्ध कर पाते?...

बाईं ओर जहाँ नगर को नाम देनेवाली स्वर्गस्थ नेता की प्रतिमा पड़ी थी, कुछ कोलाहल हुआ। शेखर ने कान देकर सुना, कोलाहल बढ़ रहा है और उधर ही आ रहा है। वह लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ उस ओर चल पड़ा।

तीन-चार दिन पहले कैम्प में पुलिस ने छापा मारा था-कैम्प की तलाशी लेकर खाली हाथ लौट गयी थी। तबसे कांग्रेस नगर का वातावरण कुछ तना-सा था-प्रत्येक असाधारण दीखनेवाले, काले कोटवाले, लम्बी मूँछवाले, तुर्रेदार पगड़ीवाले, पटेदार नालोंवाले, या बेंत हाथ में लेनेवाले व्यक्ति पर खुफिया पुलिस के चर होने का सन्देह स्वयंसेवकों को रहता था। खुफिया के वहाँ होने में हानि कोई न थी, न कोई मनाही थी; किन्तु एक तो स्वयंसेवकों को यह अनुचित हस्तक्षेप मालूम होता था, दूसरे मानव प्रकृति की स्वाभाविक वृत्ति है खुफिया जाहिर बनाना; अतएव प्रायः ऐसे व्यक्तियों से वालंटियरों की नोक-झोंक हो जाती थी और कभी उन्हें कैम्प के दफ्तर में भी ले आया जाता था।

उस समय भी एक ऐसे ही व्यक्ति को पकड़े हुए पाँच-सात स्वयंसेवक घसीटे ला रहे थे। वह गालियाँ देता जा रहा था, छुड़ाने की कोशिश भी करता जा रहा था और घिसटता भी आ रहा।

शेखर ने निकट पहुँचकर डपटकर कहा, “कौन है-छोड़ दो इसको! क्या मामला है?”

“सी.आई.डी. है, सी.आई.डी.!”

“चोर-है-चोर! भागा जा रहा था!”

“बच्चू, कांगरेस का राज कोई मखौल नहीं है!”

एकदम इतने सब उत्तरों की उपेक्षा करते हुए शेखर ने फिर कहा, “छोड़ दो!” स्वयंसेवक छोड़कर अलग खड़े हो गये। “किसने पकड़ा था? क्या बात थी?”

“यह प्रतिमा के पास अँधेरे में घूम रहा था। मैंने पूछा कि वहाँ क्या काम है, तो बोला कि अपना काम देखो। मैंने कहा कि प्र्रतिमा का पहरा ही मेरा काम है, और उसे कोई काम न हो तो वहाँ से चला जाए, तो बोला कि बहुत देखे हैं तुम जैसे पहरेदार। मैंने फिर जाने के लिए कहा और नाम-पता पूछा तब इसने गाली दी। फिर हम इसे पकड़कर कैम्प में लाने लगे, हल्ले में और भी लोग आ गये, दो-एक ने इसे थप्पड़ भी मारे हैं।”

धूल झाड़ते हुए उस आदमी से शेखर ने पूछा, “ये ठीक कहते हैं?”

“मैं सी.आई.डी. का इंस्पेक्टर हूँ। इन सालों ने मेरी बेइज़्ज़ती की है और मेरे काम में हर्ज किया है। मैं एक-एक को मजा चखाऊँगा-”

“आपने पहले ही कह दिया होता कि मैं सी.आई.डी. का आदमी हूँ तो क्यों ज़िल्लत उठानी पड़ती? चोर-उचक्कों की देखभाल इनका काम है। आप खुद मानेंगे कि आपका रवैया तसल्ली देनेवाला नहीं था। खैर आप जाएँ; आपको जो तक़लीफ हुई, उसके लिए हम माफ़ी माँगते हैं।” शेखर ने फिर स्वयंसेवकों को कहा, “तुम लोगों ने नाहक एक भले आदमी को बेइज़्ज़त किया है। जिन्होंने इसे पीटा है, उन्हें माफ़ी माँगनी चाहिए और कैम्प में भी दंड लेना चाहिए। और दो आदमी इन्हें नगर के बाहर तक सम्मानपूर्वक पहुँचा आये।”

“मुझे किसी साले की ज़रूरत नहीं है”-कहकर वह एक ओर को बढ़ा।

“ये आपकी हिफ़ाजत के लिए हैं कि दुबारा ऐसी घटना न होने पावे।”

दो सेवक उसके पीछे हो लिये।

पहरे बदल चुके थे। शेखर ने सोचा कि लगे हाथ नगर का चक्कर भी लगा ले और देख ले कि कहाँ-कहाँ ड्यूटी बदली नहीं गयी, ताकि कुछ प्रबन्ध हो सके।

यह जानकर उसे कुछ अचम्भा हुआ कि वर्षा के कारण कई लोग अपना पहरा चुकाकर बदलीवाले के आये बिना ही चले गये थे और कैम्प से बदलीवालों को खोज-खोजकर भिजवा रहे थे। अधिवेशन का केवल एक दिन और था-कैम्प के तीन दिन-इसलिए उसने इस सम्बन्ध में अधिक पूछताछ अनावश्यक समझी। और फिर जानेवालों को इतना तो ध्यान रहा ही था कि बदलीवाले को भेज दें। सेनापति की ‘गुज़ारा करने’ वाली बात याद करके वह मुस्करा दिया।

बारिश जोर की होने लगी थी। शेखर ने अपनी गति बढ़ा दी।

प्रतिमा के पास पहुँचते-पहुँचते उसने सुना, कोई गा रहा है-

‘किशन बंसीवाले आ जा-’

और फिर कुछ अटक-अटककर मानो नया प्रयोग कर रहा हो,

“मोहन बदलीवाले आ जा-”

उसके बूटों की चाप सुनकर गायक चुप हो गया। शेखर ने देखा, प्रतिमा का पहरेदार सतर्क दृष्टि से उसे देख रहा है।

शेखर ने पूछा “नयी ड्यूटी लगी है?”

“जी नहीं।”

“कब से हो?”

“तीन बजे से-”

“तीन? छः बजे भी नहीं बदली?”

“जी नहीं। छः बजे वाले ने मुझे कहा था कि उसे बाहर जाना है, मैं उसकी ड्यूटी दे लूँ। मैंने मान लिया था।”

“और नौ बजे?”

“उसका तो पता नहीं। कोई बदली के लिए लगा होता आ ही जाता-

शेखर ने मुस्कराकर कहा, “उसी को टेर रहे थे क्या?”

कुछ झेंपकर, “यों ही थकान मिटा रहा था-”

“बहुत थक गये हो?”

“नहीं, भीग गया हूँ, और बाँह में दर्द हो रहा है-”

एकाएक शेखर इस आदमी के प्रति कृतज्ञ हो आया, जो दो आदमियों का काम करके तीसरे का शुरू करते समय गा रहा है-उसे जान पड़ा कि चौदह सौ आदमियों में एक ने उसके अनुशासनवाले आदर्श का समर्थन किया है-समर्थन ही नहीं, पालन किया है। एक तो इसी से उसका जी एकाएक कुछ हल्का हो गया, दूसरे यह भी जानने की उसे इच्छा हुई कि वर्षा में तीन-चार घंटे अकेले खड़े रहना कैसा लगता है...उसने निश्चय करते हुए कहा, “अच्छा, अब तुम जाओ, तुम्हारी बदली मैं करूँगा।”

“आप?”

“हाँ-मुझे भी तो देखना चाहिए, रात की ड्यूटी कैसी लगती है।”

“पर आपके पास छाता नहीं है-” कुछ अनिश्चित-से स्वर में अपना एक ओर से फटा छाता बढ़ाते हुए स्वयंसेवक ने कहा...

“यह ओवरकोट बहुत काफी है। जाओ, अब आराम करो तुम।”

स्वयंसेवक चला गया। शेखर चुपचाप नियमित गति से टहलने लगा...

रात लम्बी थी। शेखर का मन बहुत थोड़ी देर के लिए ही उस स्वयंसेवक पर टिका रह सका, फिर उधेड़बुन में पड़ गया।

उस सी.आई.डी. वाले को उन्होंने पीट दिया-बुरी बात हुई। पर उसने अपना नाम-पता नहीं बताया-तब बिना उसे पकड़े क्या होता? पहरे का मतलब क्या होता? अभी कोई अजनबी यहाँ आ जाए, तो क्या मैं पूछूँगा नहीं, वह कौन है?...हो सकता है, वह आया ही इसलिए हो कि झगड़ा हो जाए-यह तो इनका काम ही होता है। मार पीट हो गयी-यह तो उसकी सफलता हुई। पर मार-पीट से बचते कैसे यदि प्रतिमा से छेड़-छाड़ करने लगता तो...कहाँ तक सहा जा सकता? क्या बात खत्म हो गयी है, या अभी और कुछ गुल खिलेगा? देखा जाएगा...

यह स्वयंसेवक तो तीन बजे से पहरे पर था-यह भी उसे पकड़ने में रहा होगा? तब यह क्यों नहीं गया? शायद प्रतिमा के पास खड़ा रहना जरूरी समझा हो-खड़ा तो ऐसे था, मानो वही एक उद्देश्य रह गया हो जीने का...काम तो ऐसे ही होता है...क्या मैं भी किसी काम के लिए ऐसी लगन दिखा सकूँ? अपने मन का काम होना है तब तो जोंक की तरह चिपट जाता हूँ, पर ऐसा काम जिससे कोई वास्ता नहीं-सिर्फ काम-ही-काम हो?...क्या मैं अपने आपको अलग करके काम में लग सकता?

यही तो शशि ने कहा था, ‘मैं अपनी उलझनों में पड़ा रहता हूँ, आसपास दुनिया में जो मेरा कर्तव्य है, वह नहीं करता...दुःख उसकी आत्मा को शुद्ध करता है, जो उसे दूर करने की कोशिश करता है। और किसी का नहीं।’ यही तो उसने कहा था...और ‘दुःख सब जगह है’-मैं उसे एक जगह-समझ रहा हूँ-अपना ही दुःख लिए फिरता हूँ...और शुद्धि दूसरे के साथ दुःखी होने में नहीं है, दूसरों के लिए दुःखी होने में है...

मैंने जो उसकी बदली कर दी, क्या उसी के लिए? मेरा भी तो मन था कुछ ऊटपटाँग काम करने का-अपने सन्तोष के लिए तो मैंने उसे छुट्टी दे दी...पर इस सन्तोष से बचकर कोई कहाँ जाए? यह तो सब जगह है। अपने को नष्ट कर देने में भी तो सन्तोष होता है-तब क्या सन्तोष के लिए ही कोई अपने को नष्ट कर देता है?...

असल में मुझे चाहिए था, पहले उस नालायक नियुक्ति अफसर को बुलाकर यहाँ लाता, फिर दो-चार सुनाता और कहता कि इस गरीब की जगह ड्यूटी तुम दो, जरा इस पौष की वर्षा में चलो फिरो, तोंद हल्की होगी...अन्याय को सह लेना उसे बढ़ावा देना है-अनुचित परिस्थिति में अपने को कष्ट देना कोई त्याग है?

दूर आधी रात के घंटे खड़के। उस वर्षा में मानो घंटे की आवाज भी भीगकर ठिठुर गयी थी-ऐसी शिथिल-सी थी वह...शेखर ने अनुभव किया कि-उसका ओवरकोट पहले से चौगुना भारी हो गया है, और जो अब तक रक्षक था, वही अब शत्रु हो गया-ओवरकोट के कारण वर्दी भी भीग गयी है और पानी की बहुत छोटी-छोटी धारें उसकी पीठ गुदगुदा रही हैं। टाँगों में पट्टियाँ भी भीग गयी हैं-पानी बूटों में भर रहा है। बूटों के तले ‘वाटरप्रूफ’ है, बाहर का पानी भीतर नहीं घुसने देंगे-और भीतर का बाहर नहीं निकलने देंगे...शेखर एक बार काँपा और फिर जल्दी-जल्दी चलने लगा...

ठंड बढ़ती ही जाती थी...बदलीवाला अभी तक क्यों नहीं आया? क्या यह पहरा भी ऐसे ही जाएगा? ठेहूनी और घुटनों तक उसका शरीर सुन्न हो गया था। अब उसे बिलकुल अनुभव नहीं होता था कि बूटों में पानी है या नहीं, पैर भी हैं या नहीं...मानो बैसाखियों के सहारे ही, उसका सिर और कन्धे टिके हों...उसने सोचा, अगर मैं भी जमकर खड़ा हो जाऊँ, तो इस प्रतिमा की तरह खड़ा ही रह जाऊँगा।

एक...घंटे का स्वर इतना मन्द था कि अगर शेखर के कान नीरवता को भी सुन लेने के लिए चौकन्ने न होते तो वह सुन भी न पड़ता।

नियुक्ति अफसर...अनुशासन के नाम पर सब चिढ़ गये थे-हिंसा है। यदि यह हिंसा है, तो कर्तव्य की-जीवन की ही-भित्ति हिंसा पर कायम है। मैं कहूँ, नियुक्ति अफसर को निकालकर रात भर इस वर्षा में खड़ा रखना चाहिए, तो वह हिंसा है, पर वह बिना कहे, बिना सुने अनेकों को रात भर यहाँ भीगने और गलने दे, तो वह हिंसा नहीं है...किसी से ऐसा कह दूँगा, तो वह कहेगा, तुम्हें किसी से क्या, तुम निष्काम कर्म करते चलो। उसकी भूल को तुम सह लो। त्याग इसी में है। त्याग पुण्य है। त्याग धर्म है। त्याग-त्याग-त्याग! हम नहीं कहते त्याग बुरा है, पर तुम त्याग माँगने वाले हो कौन? अगर हमें कह सकते हो कि त्याग करें, निष्काम कर्तव्य करें, तो क्यों नहीं उसे कह सकते कि निष्काम या सकाम किसी तरह तो कर्तव्य करे...

दो...अबकी बार शेखर को क्रोध नहीं आया, एक नीरस मुस्कान भर उसके मुख पर दौड़ गयी...

त्याग...त्याग मापने के लिए हर एक का अपना-अपना गज़ होता है-और वह गज़ होता है उस व्यक्ति का अपना त्याग करने की क्षमता...जो खुद कभी त्याग नहीं करता, वही हर जगह, हर समय त्याग की प्रशंसा करता है-‘अमुक ने इतना बड़ा त्याग किया’, ‘अमुक ने उतना भारी आत्म-बलिदान कर दिया’...उसका गज इतना छोटा होता है कि सैकड़े से कम की कोई वस्तु ही उसे नहीं दीखती...और जो स्वयं त्याग करता है, उसे जान ही नहीं पड़ता कि त्याग है क्या चीज़? अपने को दे देना उसके लिए साधारण दैनिक चर्या का एक अंग होता है, जो होता ही है, जिसे देखकर विस्मय, कौतूहल, श्लाघा, किसी से भी रोमांच नहीं होता, मुखर भावुकता नहीं फूटती...

लेकिन क्या बदली रात भर होगी ही नहीं, और रात क्या कभी चुकेगी नहीं?...

नियुक्ति अफ़सर...यदि उन्हें स्टेज पर खड़ा कर दिया जाये कि त्याग पर भाषण फटकारें, तो शायद नियुक्ति के मामले से कहीं अधिक सफलता दिखाएँगे...वह तुंदिल मनहूस लोग...क्या नालायक ही अफ़सर बना करेंगे, और ईमानदार लोग ही नौकर?...यदि ऐसे ही नेता होंगे, तो और नेता पाकर हम क्या करेंगे? रोज सुनने में आता है कि नेता नहीं है, नेता नहीं है...ऐसे नेताओं के बोझ से तो समाज कुचला ही जाएगा, उठेगा कैसे..जो ऊपर से लादा जाएगा, वह भार ही होगा, भारवाहक कैसे होगा? भार उठाने की सामर्थ्य तो उसमें होगी, जो नीचे से उठेगा, विघ्नों, बन्धनों, भारों, शृंखलाओं की उपेक्षा करता हुआ, चोटों से दृढ़ हुए पुट्ठे और संघर्ष से दृढ़ हुआ हृदय लेकर अभिमान-भरा और मुक्त...हम मुक्ति के लिए लड़ रहे हैं, पर हमारे सभी नेता-हमें आगे खींचनेवाले, हमारे भारवाहक-ऊपर बादलों से बरसे हुए तुषार की तरह; एक भी तो पददलित मिट्टी से नहीं उठा है; नहीं फूटा है कठोर धरती को तोड़कर नये अंकुर की तरह...

मुक्ति, स्वराज, स्वतन्त्रता-कितने सुन्दर शब्द! किन्तु कहाँ है इनके पनपने के लिए खंडित और खाद-युक्त मिट्टी,-जनता; कहाँ है वह मिट्टी में ही रासायनिक क्रियाओं से बनी हुई खाद-जनता का अपना जननायक; और कहाँ है-

तीन...

नहीं, बदली की बात सोचने का कोई फ़ायदा नहीं है-अब क्या होगा? जैसे तीन, वैसे छः, छः बजे कोई आएगा ही या वह किसी को बुलाएगा-छः बजे उत्थान का बिगुल होगा और उसे हाज़िरी लेनी होगी...

हाँ, नेतागण जनता को कोसते हैं, किन्तु क्या यह जनता का दोष है कि वे नेता उसमें से उत्पन्न नहीं हुए हैं?

स्वाधीनता तो प्रकृत अधिकार है-उसके चाहनेवाले आप उत्पन्न होने चाहिए-वे तो जंगली वनस्पति की तरह फूटने चाहिए। क्यों मिट्टी और क्यों खाद और क्यों परवरिश? तब क्या यह ठीक है कि जनता ही अपराधिनी है, देश की मिट्टी ही खराब है, और हम स्वाधीनता के अयोग्य है?

पर हमारा वन-प्रदेश काट दिया गया है, हमारे स्वाभाविक सोते और जलागम सूख गये हैं, हमारी मिट्टी बंजर हो गयी है। जंगल हो या उद्यान, हमें उसे फिर से खड़ा करना है, इसीलिए यह आवश्यक है...और ये हमारे नेता-ये नहीं है आवश्यक-मरुभूमि के इन कँटीले झँखाड़ों में नहीं है जीवन-रस, और नहीं है जीवनरस को बाँधकर या स्वयं गलकर, भूमि को हरा करने की क्षमता...

शेखर चौंका-पैरों की चाप क्या बदली आखिर होगी? अब तो उसकी आवश्यकता नहीं थी, वर्षा थम चली थी और सर्दी भी अब जितनी लग सकती थी, लग चुकी थी...

लेकिन यह तो कई एक पैरों की चाप है-एकाएक चार-पाँच टार्च-बत्तियों के प्रकाश से शेखर चौंधिया गया-किसी ने कहा, “यहीं का वाक़या है-यह आदमी उन वालंटियरों का अफ़सर है, जिन्होंने हम पर हमला किया था”-शेखर ने रातवाले सी.आई.डी. के आदमी का स्वर पहचाना और देखा कि कई-एक पुलिस के सिपाही उसके सामने हैं-उनके अफ़सर ने कहा, “गिरफ्तार कर लो, सवेरे कांग्रेस के दफ्तर को खबर देना”-दो सिपाही शेखर के अगल-बगल हो गये-शेखर ने पूछा, “मैं बन्दी हूँ क्या? क्यों?”-उत्तर मिला, “हाँ, थाने में चलना होगा।”

“ऐसी जल्दी है क्या? सवेरे गिरफ्तार कर लीजिएगा; अभी तो ठंड से मेरी टाँगें अकड़ी हैं, चला नहीं जाता।”

सिपाहियों ने उसकी बगल में हाथ डाल लिए-पिटे हुए सी.आई.डी. वाले ने कहा, “देखा अपने रंग-ढंग?”-सिपाही उसे खींच ले चले-एकाएक अपने को अपमानित अनुभव करते हुए शेखर ने झटका देकर अपने को छुड़ा लिया और कहा, “चलिए जहाँ चलना है-इतना निकम्मा तो मैं नहीं हूँ कि सहारा चाहूँ।”

अफ़सर और मुखबिर ने फिर आँखें मिलायीं। टोली चल पड़ी-और चलते-चलते शेखर ने देखा कि आस-पास के वालंटियरों ने कुछ गोलमाल देखकर खबर कर दी है और लोग जुटने लगे हैं।

पुलिस की मोटर में बैठते हुए उसे फिर शशि के वे शब्द याद आये-‘दुःख उसी की आत्मा को शुद्ध करता है, जो उसे दूर करने की कोशिश करता है। शुद्धि दूसरे के साथ दुःखी होने में नहीं, दूसरे के स्थान पर दुःखी होने में है...

क्या वह पात्र है? क्या उसकी आत्मा का एक नया परिच्छेद खुलनेवाला है? क्या वह पूर्ण पुरुष है-विजेता-परिस्थिति का स्वामी?