श्री राधाकृष्णदास / निवेदन / रामचंद्र शुक्ल

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सन् 1908 में बात ही बात बाबू श्यामसुन्दरदासजी ने मुझसे परलोकप्राप्त बाबू राधाकृष्णदास का जीवनचरित लिख डालने को कहा। मैंने 'अच्छा' तो उसी समय कह दिया पर अपना संकल्प बहुत दिनों पीछे स्थिर किया। एक तो जीवनचरित लिखने में जिस संग्रहश्रम की आवश्यकता अधिक होती है वह मेरी रुचि के अनुकूल नहीं, दूसरे इस बात का ठीक निश्चय भी नहीं कि अपने साहित्य-सेवियों का बहुत थोड़ा ध्याेन रखनेवाले हिन्दी पाठक बाबू राधाकृष्णदास का वृत्तान्त जानने को कहाँ तक उत्सुक हैं। इस प्रकार अपनी अनुपयुक्तता क्या अयोग्यता को खूब समझते हुए और बड़े सामान्य उत्साह के साथ मैंने इस पुस्तक के लिखने में हाथ लगाया। पर कुछ दूर चल कर भारतेन्दु काल की तथा उसके थोड़े ही पीछे की कुछ ऐसी ऐसी बातें मिलने लगीं जिनके जानने की उत्कंठा मुझे बहुत पहले से थी। मेरा मन तो बढ़ा, पर बीच में कुछ कारण ऐसे आ पड़े जिनसे यह काम बरसों अधूरा ही पड़ा रहा। अन्त में जम्बू से लौटने पर इस चरित के पूरे होने की नौबत आई और आज यह आप लोगों के सामने है।

बाबू श्यामसुन्दरदास और बाबू राधाकृष्णदास नागरीप्रचारिणी सभा की उन्नति के उद्योग में हर घड़ी के साथी थे, इस कारण इस पुस्तक के लिखने में बाबू श्यामसुन्दरदास से पूरी सहायता मिलना कुछ आश्चर्य की बात नहीं, साथ ही यदि पंडित केदारनाथ पाठक सामग्री आदि जुटाने में अपना उद्वेगपूर्ण प्रयत्न न करते और अपनी जानकारी का पुराना भांडार न खोलते तो कम से कम मेरी लिखी तो यह पुस्तक न लिखी जाती। बाबू पुरुषोत्तामदासजी की कृपा भी थोड़ी नहीं जिन्होंने बहुत से कागज पत्र घर में से ढूँढ़ ढूँढ़कर दिए और वंशपरम्परा आदि से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी बातें बतलाईं। अत: इन महानुभावों को मैं तो हृदय से धन्यवाद देता ही हूँ, पाठकों से भी इन्हें बार बार धन्यवाद देने की प्रार्थना करता हूँ।

शिवाला घाट -रामचन्द्र शुक्ल

14 मई, 1913