श्री राधाकृष्णदास / भाग 3 / रामचन्द्र शुक्ल

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'सरस्वती' पत्रिका

बहुत दिनों से हिन्दी प्रेमियों का विचार एक उत्तम सचित्र मासिक पत्रिका निकालने का हो रहा था। बाबू राधाकृष्णदास और बाबू श्यामसुन्दरदास इसके उद्योग में लगे थे। अन्त में 'इंडियन प्रेस' के स्वामी बाबू चिन्तामणीण्‍ घोष साहसपूर्वक पत्रिका निकालने के लिए सन्नध्द हुए और उसके सम्पादन का भार उन्होंने 'नागरीप्रचारिणी सभा' को सौंपा। सब बातें तय करने के लिए 6 सितम्बर, 1899 को बाबू राधाकृष्ण प्रयाग गए। वहाँ एक दिन रात को पाखाने में इनके पास तीन हाथ लम्बा गेहुँअन साँप आ गया। सौभाग्यवश इनकी दृष्टि उस पर पड़ गई और वह भी आहट पाकर भाग गया। काल से रक्षा हुई। अपनी इस रक्षा के लिए इन्होंने तुरन्त परमात्मा को यह दोहा बना कर धन्यवाद दिया-

काल व्याल के गाल सों राखि लियो गहि हाथ।

भूलि सबै अपराधा मम जय जय कालीनाथ।।

बाबू चिन्तामणि से पत्रिका के विषय में सब बातें स्थिर हुईं। नागरीप्रचारिणी सभा ने सम्पादन भार लिया और पाँच सम्पादकों की समिति बनाई जिनके नाम ये हैं (1) बाबू राधाकृष्णदास (2) बाबू श्यामसुन्दरदास बी.ए. (3) पंडित किशोरीलाल गोस्वामी (4) बाबू कार्तिकप्रसाद और (5) बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर बी. ए.। जनवरी 1900 से यह पत्रिका बड़ी धूमधाम से चल निकली। इसके रंग ढंग और लेखों की नवीनता से बहुत लोगों का ध्यातन हिन्दी की ओर आकर्षित हुआ। बाबू राधाकृष्ण ने इसके लिए भारतेन्दु का जीवनचरित्र, सेंबलिन की आख्यायिका तथा कई अच्छे अच्छे लेख तैयार किए जो क्रमश: प्रकाशित हुए। जिस उत्साह और जिस अनूठेपन के साथ यह पहले वर्ष निकली हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्मरणीय है। एक वर्ष तो यह पत्रिका सम्पादक समिति द्वारा प्रकाशित हुई। दूसरे वर्ष से इसका सम्पादन भार बाबू श्यामसुन्दरदास बी. ए. ने लिया है। बाबू राधाकृष्णदास बराबर अपने लेखों से इस पत्रिका की सहायता करते रहे।

भाषासार संग्रह

उस समय नागरीप्रचारिणी सभा शिक्षा विभाग के लिए 'भाषासार संग्रह' और 'पत्रबोधा' तैयार कर रही थी। इन दोनों पुस्तकों के लिए बाबू राधाकृष्णदास से बहुत कुछ सामग्री मिली। 'पत्रबोधा' के लिए चिट्ठियों के नए पुराने नमूने प्राय: इन्होंने छाँटे थे।

अदालतों में नागरी व्यवहार की आज्ञा

18 अप्रैल, 1900 को नागरी के सम्बन्ध में इन लोगों ने जो परिश्रम किया था उसका फल मिला। 22 अप्रैल को पंडित मदनमोहन मालवीय का प्रयाग से तार आया कि-

'आज के गजट में नागरी में भी दरखास्त लेने और सम्मन आदि निकालने की आज्ञा छपी है।'

इस शुभ संवाद के फैलते ही आनन्द छा गया। बाबू श्यामसुन्दरदास बी.ए., शिवप्रसाद राय तथा और कई हिन्दी प्रेमी सज्जन इनके यहाँ इकट्ठे हुए और वह दिन बड़े आनन्द के साथ कटा।

चित्र और चरित्र

हिन्दी समाचार पत्रों में इस नागरी व्यवहार की आज्ञा की महीनों चर्चा रही। नागरी के लिए प्रधन उद्योग करने वाले तीन महाशय थे-माननीय पंडित मदनमोहन मालवीय, बाबू श्यामसुन्दरदास बी. ए. और बाबू राधाकृष्णदास। 10 जून, 1900 के 'श्रीवेंकटेश्वर समाचार' में इन तीनों सज्जनों के चित्र और संक्षिप्त चरित्र प्रकाशित हुए तथा इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की गई।

सर ऐंटनी मैकडानल का काशी में आगमन

आज्ञा प्रचार के दो महीने पीछे संवाद मिला कि श्रीमान् सर ऐंटनी मैकडानल महोदय काशी आने वाले हैं। 8 जुलाई (1900) को नागरीप्रचारिणी सभा की प्रबन्धकारिणी समिति की एक बैठक हुई जिसमें यह स्थिर हुआ कि श्रीमान् को धन्यवाद देने के लिए एक डेपुटेशन भेजा जाय। बाबू राधाकृष्णदास ने इस अवसर के लिए 'मैकडानल पुष्पांजली' नाम की एक कविता रची। 17 जुलाई को लाट साहब का तार आया कि-”केवल धन्यवाद के लिए डेपुटेशन की आवश्यकता नहीं है, और साहित्य सम्बन्धी बातों को हमारे चीफ सेक्रेटरी से मिल कर कहिए। यदि आवश्यकता होगी तो हम डेपुटेशन से मिलेंगे। 24 जुलाई को श्रीमान् काशी पहुँचने वाले थे। दो दिन पहले ही ये स्टेशन मास्टर से मिले और उनसे सजाने के लिए स्टेशन माँगा। स्टेशन मास्टर ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया और अपनी ओर से भी कुछ सजावट का सामान दिया। 24 तारीख को ढाई बजे लाट साहब स्टेशन पर उतरे। सभा की ओर से स्टेशन इन लोगों ने बहुत अच्छा सजवाया था। चारों ओर झंडे फहराते थे। स्थान स्थान पर 'नागरी की जय' 'श्रीमान् की जय' आदि वाक्य लगे हुए थे। दूसरे दिन बाबू श्यामसुन्दरदास बी. ए., बाबू राधाकृष्णदास, बाबू इन्द्रनारायण सिंह एम. ए., बाबू गोबिन्ददास और बाबू प्रमदादास मित्र सभा की ओर से लाट साहब से मिले। उसी दिन संध्याद के समय श्रीमान् को म्युनिसिपैलिटी की ओर से एड्रेस दिया गया। श्रीमान् ने अपने उत्तर में हिन्दी के विषय में भी बहुत सी बातें कहीं।

हिन्दी पुस्तकों की खोज

ऊपर लिखा जा चुका है कि एशियाटिक सोसाइटी की ओर से बाबू बहुवल्लभ चटर्जी हिन्दी पुस्तकों की खोज अधिकतर इन्हीं की सहायता से करते थे। एशियाटिक, सोसाइटी को इन्होंने बहुत सी पुस्तकों की नोटिसें कराई थीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस कार्य में ये बड़े प्रवीण थे। प्राचीन हिन्दी ग्रन्थों और उनके कर्ताओं के विषय में इन्हें बहुत कुछ जानकारी थी। ये इस विषय में पूछताछ और लिखा पढ़ी भी बराबर किया करते थे जिससे इन्हें अनेक बातें मालूम होती रहती थीं। 'मीरानाटक' लिखते समय इन्हें मीराबाई की जीवन घटनाओं के सम्बन्ध में जो जो शंकाएँ हुई थीं उन्हें इन्होंने कुँवर फतेहलाल मेहता और मुंशी देवीप्रसाद आदि अपने मित्रों से बराबर पूछा था। 'प्रतापनाटक' लिखने में भी इन्होंने उदयपुर से सम्बन्ध रखनेवाली एक एक बात की जाँच पड़ताल की थी। आरम्भ काल ही में नागरीप्रचारिणी सभा का ध्या न इस बात की ओर गया था कि हिन्दी में जो बहुत से सुन्दर और अप्रकाशित ग्रन्थ हैं उनका पता लगाया जाय और उन्हें प्रकाशित करके साहित्य का उपकार किया जाय। 1894 ही में उसने गर्वमेंट आफ इंडिया, एशियाटिक सोसाइटी, पश्चिमोत्तार गर्वमेंट और पंजाब गर्वमेंट से इस विषय में लिखा पढ़ी की थी। पर उस समय कुछ सन्तोषदायक फल नहीं हुआ था। अन्त में सन् 1900 में संयुक्त प्रदेश की गर्वमेंट ने हिन्दी पुस्तकों की खोज का काम सभा को सौंपा। तभी से इस ओर नियमित प्रयत्न होने लगा। बाबू राधाकृष्णदास के अनुभव और उद्योग से इस कार्य में बड़ी सहायता मिली।

इसी वर्ष भारतधर्ममहामंडल का एक बड़ा भारी अधिवेशन दिल्ली में होने वाला था। सभा में भी निमन्त्राण आया था। पुस्तकों की खोज के काम के लिए लोगों को राजपूताने की ओर जाना ही था अत: बाबू श्यामसुन्दरदास और बाबू राधाकृष्णदास ने सभा की ओर से महामंडल में जाना निश्चित किया किन्तु जिस दिन जाने को हुआ उस दिन भारतेन्दुजी के भतीजे बाबू ब्रजचन्द्र बहुत बीमार हो गए इससे बाबू राधाकृष्ण का जाना उस समय रुक गया। बाबू श्यामसुन्दरदास अकेले दिल्ली पहुँचे और वहाँ से उन्होंने इनको यह पत्र लिखा-

दिल्ली

11-8-1900

प्रियवर,

मैं यहाँ आगामी बुधावार तक रहूँगा। उस दिन मेरा विचार जयपुर जाने का है। आशा है कि यदि दिल्ली में नहीं तो जयपुर में आप अवश्य मिलेंगे। महामंडल का कार्य हो रहा है। मालवीयजी आए हुए हैं। परसों हिन्दी का मामला पेश था। मालवीयजी ने कुछ नहीं कहा। मुझे वक्तृता1 देनी पड़ी। जल्दी आइए।

भवदीय

श्यामसुन्दरदास

1. बाबू श्यामसुन्दरदास की यह वक्तृता बहुत अपूर्व हुई थी। लोगों पर इनके स्पष्ट स्वर और स्वच्छ भाषा का बड़ा प्रभाव पड़ा था।

इसके उपरान्त बाबू श्यामसुन्दरदास हिन्दी पुस्तकों की खोज के लिए राजपूताने की ओर बढ़े और इधर बाबू राधाकृष्णदास यह पत्र पाकर आकुल हुए। हिन्दी पुस्तकों की खोज में बाबू राधाकृष्ण का योग देना उस समय आवश्यक था। इससे निश्चिंपत होते ही पीछे से इन्होंने भी 15 अगस्त (1900) को जयपुर के लिए प्रस्थान कर दिया। दूसरे दिन मथुरा पहुँचे। वहाँ स्नान दर्शन करके तीसरे पहर पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया से मिले। उन्होंने इन्हें निज सम्पादित पृथ्वीराजरासो का कुछ अंश दिखलाया। ये बड़ी देर तक उनके पास रहे। पंडयाजी उन दिनों खुसरो का वृत्तान्त संग्रह कर रहे थे और युधिष्ठिर संवत् पर भी लेख लिख रहे थे। बाबू राधाकृष्ण ने पंडयाजी के पास रासो की एक अत्यन्त प्राचीन प्रति तथा कई अलभ्य पुराने परवानों के फोटो देखे। ये अपने काम से नहीं चुके। 'केदा रासो', 'राणा रासो' की नोटिस की और उन प्राचीन परवानों के फ़ोटो लिए। इतना करके 20 तारीख को ये आगे बढ़े और दूसरे दिन सबेरे दिल्ली पहुँचे। यहाँ पर स्वर्गीय पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र और शिवप्रसादरायजी से भेंट हुई। रात को ये फिर रेल पर सवार हुए और 22 तारीख को जयपुर पहुँचे। वहाँ पर ये बहुत हैरान हुए। बड़ी बड़ी मुश्किलों से ढूँढ़ते ढूँढ़ते बाबू श्यामसुन्दरदास का पता लगा। दूसरे दिन ये बाबू श्यामसुन्दरदास के साथ परलोकवासी हिन्दी के परम उत्साही प्रेमी मिस्टर जैन वैद्य से मिले और कई जैन ग्रन्थों की नोटिस की। महाराज के (का) पुस्तकालय देखने की आज्ञा अभी तक नहीं मिली थी इससे ये लोग बहुत ही व्यग्र थे। पंडित मधुसूदनजी पुस्तकाधयक्ष से मिलने गए, उनसे भी भेंट नहीं हुई। दूसरे दिन सबेरे ही उठ कर ये लोग महाराज के प्राइवेट सेक्रेटरी बाबू संसारचन्द्र से मिलने गए। वे बड़ी शिष्टता के साथ मिले और शीघ्र ही पुस्तकालय देखने की आज्ञा दिलाने के हेतु प्रयत्न करने का उन्होंने वचन दिया। पुस्तकाधयक्ष मधुसूदनजी से भी भेंट हुई। उन्होंने भी इस विषय में उद्योग करने की प्रतिज्ञा की। पंडित दुर्गाप्रसादजी मिश्र तथा शिवप्रसादरायजी भी इन लोगों से आकर जयपुर में मिले। कई दिन रह कर इन लोगों ने आसपास के समस्त दर्शनीय स्थानों की खूब सैर की। मिस्टर जैन वैद्यजी ने इन लोगों का बड़ा सत्कार किया। उनकी सहायता से पुस्तकालय की बहुत सी पुस्तकों की नोटिसें भी हो गईं। निदान 29 अगस्त (1900) को ये लोग मथुरा की ओर लौट पड़े। आगरा उतर कर वहाँ की प्रसिध्द प्रसिध्द पुरानी इमारतों को इन लोगों ने देखा। बाबू राधाकृष्ण में ऐतिहासिक सहृदयता बहुत थी। भूतचिन्तन से उनकी वृत्तियों पर बड़ा अतुल प्रभाव पड़ता था। सब लोगों के साथ जब इन्होंने सिवं+दरे में अकबर का मकबरा देखा तब इनसे न रहा गया। ये एकबारगी बोल उठे-'हा! यहीं महामहिम अकबर तीन हाथ भूमि के नीचे पड़े हैं'। मथुरा पहुँचने पर इन लोगों का एक ग्रूप उतरा। गोकुल होती हुई मंडली महावन आई। बाबू राधाकृष्ण जिस किसी पुराने स्थान पर जाते थे उसका ऐतिहासिक वृत्ता जानने का अवश्य यत्न करते थे। महावन के विषय में आप लिखते हैं-'यह अत्यन्त प्राचीन स्थान है। किला बहुत पुराना है। दो हजार वर्ष तक का पता लगता है। बौध्दों के बहुत से चिद्द हैं। किले के नीचे एक पुराना मन्दिर है जिसे लोग ओरछा के राजा वीरसिंह जू देव का बतलाते हैं।'

मथुरा के मन्दिरों के दर्शन से इनके हृदय में प्रेम और भक्ति भाव का उद्रेक उठता और ये इस प्रकार के प्रेम और भक्ति रस-पूर्ण दोहे बनाकर कहते-

प्राननाथ प्रीतम ललन पूरन परमानंद।

राखौ अपने चरन में काटि सकल भवफंद।।

10 सितम्बर, 1900 को ये अपनी यात्रा समाप्त कर घूमते घामते काशी पहुँचे। सब कुशल पाया। बहुत दिनों पर घर आने पर स्वभावत: जो आनन्द सबको होता है वह इनको भी हुआ।

नागरीप्रचारिणी ग्रन्थमाला का जन्म

पुस्तकों की खोज के साथ ही साथ सभा का ध्याजन इस बात पर भी दिलाया गया कि केवल पुस्तकों की सूची बन जाने और उन पर संक्षिप्त नोट लिख जाने से कोई विशेष लाभ न होगा जब तक उनमें से चुने चुने ग्रन्थों के छपवाने का भी कोई उत्तम प्रबन्ध न हो। इस प्रस्ताव को आवश्यक समझ सभा ने यह निश्चय किया कि 'नागरीप्रचारिणी ग्रन्थमाला' नाम की एक पुस्तकावली निकाली जाय जिसमें अच्छी अच्छी पुरानी पुस्तकें क्रमश: छपा करें, और जिसके कम से कम वर्ष में चार अंक 64-64 पृष्ठों के प्रकाशित हुआ करें। 'इसके सम्पादन का भार बाबू राधाकृष्णदास को सौंपा गया। इस माला में अब तक अनेक अच्छे अच्छे ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें से कई एक का सम्पादन इन्होंने किया है।

महारानी विक्टोरिया का स्वर्गवास

सन् 1900 समाप्त और 1901 आरम्भ हुआ। जनवरी में महारानी विक्टोरिया के स्वर्गवास का दु:खदायी समाचार सारे भारतवर्ष में फैल गया। भारतीय जन-समाज मर्माहत हुआ। जो दया व ममता महारानी अपनी इस भोली भाली दीन प्रजा पर रखती थीं उसका अन्तर्हित होना उसे बहुत खला। चारों ओर शोक सूचक सभाएँ हुईं। प्रत्येक सभा समाज ने इस अवसर पर घोर दु:ख प्रकट किया। बाबू राधाकृष्ण ने भी एक भाव भरी कविता लिख कर अपने जी को हलका किया।

रामचरितमानस

हिन्दी में गोस्वामी तुलसीदासजी का रामचरितमानस बहुत ही प्रचलित, प्रतिष्ठित और सर्वप्रिय ग्रन्थ है। उत्तारी भारत में कोई ऐसा हिन्दू न होगा जो इसकी दो एक चौपाई न जानता हो अथवा जिसने इसका नाम न सुना हो। किन्तु तब तक इसके जो संस्करण छपे थे उनमें क्षेपकों की इतनी भरमार थी और पाठ में इतना गड़बड़ था कि जिज्ञासुओं को संतोष नहीं होता था। हिन्दी प्रेमियों को यह बात बहुत दिनों से खटकती थी और एक सुन्दर क्षेपक रहित शुध्द संस्करण देखने की सबको अभिलाषा थी। पर यह भारी काम अपने सिर पर ले कौन? अन्त में फिर इंडियन प्रेस के मालिक बाबू चिन्तामणि घोष और नागरीप्रचारिणी सभा ही इस कार्य के लिए आगे बढ़ी। इंडियन प्रेस ने इसके प्रकाशन और 'नागरीप्रचारिणी सभा' ने सम्पादन का भार लिया। 27 मार्च, 1901 को बाबू राधाकृष्णदास के सभापतित्व में नागरीप्रचारिणी की प्रबन्धकारिणी सभा हुई और रामायण के सम्पादन के लिए एक कमेटी बनी जिसमें बाबू राधाकृष्णदास भी चुने गए। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि इस कार्य का अधिक भाग इन्हीं की बाट में पड़ा। भूमिका तथा ग्रन्थकार का जीवनचरित बड़ी छानबीन और विवेचना के साथ इन्होंने लिखा। प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के संग्रह करने में भी इन्होंने बड़ा उद्योग किया।

सभा के डेपुटेशन

दिसम्बर 1901 में काँग्रेस के अवसर पर ये और बाबू श्यामसुन्दरदास अपने कई मित्रों के साथ कलकत्ता गए और वहाँ महाराजा साहब बर्दवान तथा और कई सम्भ्रान्त पुरुषों से मिलकर सभा के कार्यों का परिचय दिया। महाराजा साहब बर्दवान ने उस समय सभा के सहायतार्थ 500 रुपये दिए।

सभा को एक ओर तो अर्थ चिन्ता थी दूसरी ओर निर्विघ्न रूप से नागरीप्रचार के लिए भी यत्न करना था। नागरी-व्यवहार-सम्बन्धी सरकारी आज्ञा तो प्राप्त हो गई पर उसके प्रचार में और और कठिनाइयाँ देख पड़ीं। बहुत सी भोली भाली प्रजा तो इस आज्ञा से अनभिज्ञ ही रही। स्वार्थी अमलों से भी बहुत कुछ हानि की आशंका हुई। अत: नागरीप्रचारिणी सभा ने नागरीप्रचार के सम्बन्ध की सब बातों का निर्णय और प्रबन्ध करने के लिए सात सभासदों की एक सब कमेटी बनाई और बाबू राधाकृष्णदास को उस कमेटी का मन्त्री नियुक्त किया। कमेटी ने स्थिर किया कि सभा का एक डेपुटेशन फैजाबाद की ओर जाय। निदान बाबू राधाकृष्णदास, बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर बी. ए., पंडित माधाव राव सप्रे बी. ए., पंडित रामराव चिंचोलकर, पंडित विश्वनाथ शर्मा और बाबू माधाव प्रसाद 15 फरवरी 1902 को दोपहर के समय फैजाबाद की ओर रवाना हुए। रात को ये लोग अयोध्यार पहुँचे। वहाँ स्टेशन पर महाराज की गाड़ी इन लोगों को लेने के लिए मौजूद थी। सब लोग महाराज के स्वर्गद्वार वाले मकान में ठहराए गए। 17 तारीख को 11 बजे डेपुटेशन महाराज से मिला। महाराज बड़ी शिष्टता और उत्साह से मिले। हिन्दी के लिए निरन्तर उद्योग करने का उन्होंने वचन दिया और बहुत कुछ आशा दिलाई। सबसे बढ़कर कठिन कार्य कचहरी के अमले वकीलों को नागरी की ओर प्रवृत्त करना था जिसमें वे लोग प्रार्थनापत्र आदि नागरी में दिलवाया करें। फैजाबाद को भी लखनऊ का एक पुछल्ला समझना चाहिए। वहाँ उर्दू का बड़ा माहात्म्य है। पर इन लोगों के जाने से वहाँ के लोगों ने बड़ा उत्साह दिखाया। वकीलों की एक कमेटी हुई। सबने हिन्दी में काम करने का वचन दिया और वकालतनामे आदि के फार्म हिन्दी में छपवाने का प्रबन्ध किया। बाबू राधाकृष्णदास तो अयोध्यार से चले आए पर और सज्जनों ने कई स्थानों में घूम घूम कर हिन्दी का बहुत कुछ हितसाधन किया।

इसी वर्ष महामंडल का अधिवेशन मथुरा में था। उस अवसर पर सभा की ओर से भी प्रतिनिधियों का जाना उचित समझा गया। बाबू श्यामसुन्दरदास और बाबू राधाकृष्णदास मथुरा गए। बाबू राधाकृष्णदास ने महामंडल के नियमों में कई परिवर्तनों का प्रस्ताव किया जो सब स्वीकृत हुए। महामंडल ने इन्हें अपने अपने ट्रस्टियों में चुना। दूसरे दिन से ये लोग नागरीप्रचारिणी सभा के डेपुटेशन के काम में लगे। वृन्दावन जाकर पंडित राधाचरण गोस्वामी से मिले और कई स्थानों में घूमकर चंदा लिखवाया। मथुरा से ये लोग आगरा गए। वहाँ पंडित माधावराव सप्रे बी.ए. से ग्वालियर में हिन्दी प्रचार के विषय में बहुत कुछ सलाह हुई। अन्त में महाराज साहब ग्वालियर के नाम एक एड्रेस तैयार किया जिसे लेकर उक्त पंडितजी ग्वालियर रवाना हुए। पंडित माधावराव सप्रे तथा पंडित रामरावजी चिंचोलकर के सच्चे प्रयत्न से ग्वालियर में इस समय हिन्दी के लिए बहुत कुछ रास्ता साफ हो गया और थोड़े दिन पीछे वहाँ नागरी लिपि जारी हो गई। इन सब लोगों के यात्रा से लौटने पर बाबू राधाकृष्णदास ने हिन्दू कॉलेज में उनके सम्मानार्थ कुछ जलपान का प्रबन्ध किया और यह प्रशंसा सूचक पद्य पढ़ा-

निज भाषा हित निरत होइ तजि गृह कारज छति।

देस देस पर्यटन कियो सहि कै कलेस अति।।

अति सुदच्छता सहित सभा उद्देश्य प्रचारयो।

पाल्यो निज कर्तव्य नागरी काज सुधारयो।।

श्री रामराव, माधावउभय, विश्वनाथ कीरति अयन।

अति हरखित चित हम सबन को, धन्यवाद कीजैग्रहन।।

सभा के जिन डेपुटेशनों में बाबू राधाकृष्णदास रहे इनमें अवश्य कुछ न कुछ सफलता प्राप्त हुई। मिलनसारी से चित्त को आकर्षित करना इनमें प्रधन गुण था। 24 जनवरी, 1903 को एक डेपुटेशन स्थायी कोश के निमित्ता चन्दा करने के लिए मिरजापुर गया जिसमें निम्नलिखित महाशय सम्मिलित थे। बाबू राधाकृष्णदास, बाबू जुगुल किशोर, बाबू माधावप्रसाद और बाबू श्यामसुन्दरदास। ऐसे छोटे स्थान से तीन चार दिन के भीतर ही इन लोगों को 1552.75 रुपये मिला।

सभा का मन्त्रित्व

सितम्बर 1902 में बाबू श्यामसुन्दरदास ने, जो सभा के मन्त्रीर थे, कार्यवश तीन मास की छुट्टी ली और बाबू राधाकृष्णदासजी इनके स्थान पर मन्त्रीि हुए। 27 सितम्बर को 'द्रव्य के प्रयोग' पर इन्होंने साधारण अधिवेशन में एक अच्छी वक्तृता दी थी।

स्थानिक समाचार पत्र भारतजीवन ने महाराजा बनारस के विषय में कोई अनुपयुक्त बात लिख दी थी जिसको लेकर कुछ स्वार्थी और भारतजीवन के विरुध्द खुशामदी लोगों ने एक वितंडावाद खड़ा कर दिया और टाउनहाल में एक सभा कर डाली। बाबू श्यामसुन्दरदास और बाबू राधाकृष्णदास ने सभा में उपस्थित होकर विरोध को बहुत कुछ शान्त किया।

दिल्ली दरबार

दिसम्बर 1908 लगा और दिल्ली दरबार का समय निकट आया। हिन्दी प्रेमियों के हृदयों में यह प्रश्न उठने लगा कि इस अवसर पर हिन्दी का कुछ उपकारसाधन हो सकता है वा नहीं। नागरीप्रचारिणी सभा में भी इस विषय पर सोच विचार हुआ। यद्यपि उस भीड़भाड़ के समय विशेष उपकार की आशा किसी को न थी तो भी एक डेपुटेशन का वहाँ जाना स्थिर हुआ। 25 दिसम्बर को बाबू राधाकृष्ण दिल्ली रवाना हुए और दूसरे दिन वहाँ पहुँचकर परलोकवासी डॉक्टर वंशगोपाल के यहाँ उतरे। वहाँ पर बाबू श्यामसुन्दरदास और महामहोपाधयाय सुधाकर द्विवेदी पहिले ही से पहुँचे हुए थे। 29 दिसम्बर को वाइसराय और डयूक की सवारी जिस ठाटबाट के साथ निकली भारतवासियों को उसका स्मरण कराते रहने का ठेका इतिहास ने ले रखा है। एक हाथी पर लेडी सहित लार्ड कर्जन थे उसके पीछे दूसरे पर डचेज़ और डयूक थे। बाबू राधाकृष्णदास के देखने में 'वाइसराय बहुत ही प्रसन्न' और 'डयूक कुछ उदासीन थे'। यह सब हो चुकने पर इन लोगों को अपने कार्य की चिन्ता हुई। सभा का डेपुटेशन काशमीर के कैम्प में गया और वहाँ महाराज साहब तथा पुंछ के राजा से मिला। भभ्भड़ के कारण कुछ विशेष फल न हुआ लोग अपने ठाटबाट में व्यस्त थे। चारों ओर चित्त की तुच्छ और नि:सार वृत्तियों का प्रवाह उमड़ रहा था, उसमें किसी प्रकृत और उपकारी विचार का मुहूर्तमात्र भी टिकना असम्भव के लगभग था। तीसरी जनवरी को डेपुटेशन महाराज बड़ौदा के पास गया। महाराज सयाजीराव कैसे विद्याव्यसनी और उच्च विचार के मनुष्य हैं यह सारे भारतवर्ष में विशेष कर शिक्षित समाज के बीच प्रसिध्द ही है। डेपुटेशन के मेंबरों से महाराजा साहब बड़ी शिष्टता और सज्जनता के साथ मिले और सभा के उद्देश्यों को जानकर बहुत प्रसन्न हुए। इन्होंने सभा के साथ बहुत सहानुभूति प्रकट की और विचार कर उसकी सहायता करने को भी कहा। इसके उपरान्त डेपुटेशन ने महाराज से सभाभवन को खोलने की प्रार्थना की जिसकी नींव रखी जा चुकी थी। श्रीमान् ने कहा 'मैं उक्त अवसर पर आने का उद्योग करूँगा'। इसके उपरान्त लोग बर्दवान के महाराज से मिले। महाराज ने सभा की जो सहायता की थी उसके लिए धन्यवाद दिया गया। महाराज ने प्रसन्न होकर और भी सहायता करने की प्रतिज्ञा की। इतना कार्य हो जाने पर 5 जनवरी को बाबू राधाकृष्णदास काशी लौट आए।

सभाभवन

अब तक सभा का कोई निज का भवन नहीं था। इससे अधिवेशनों में भीड़भाड़ होने से लोगों को बड़ा कष्ट होता था। नित्य के कार्य में भी बाधा पड़ती थी। सभा को एक भवन की बड़ी ही आवश्यकता थी। किन्तु सभा के पास इतना संचित द्रव्य नहीं था कि झटपट यह कार्य आरम्भ कर दिया जाता। किन्तु लोग उद्योग में लग गए। इसी बात की प्रतीक्षा थी कि हिन्दी प्रेमी लोग आशामात्र दे दें फिर कार्य में हाथ लगा दिया जाय। सौभाग्यवश मुँह से आशा बँधाने वालों की कमी हमारे हिन्दी समाज में नहीं है। कई ओर से सुन पड़ा कि 'हाँ, हाँ, आप आरम्भ कीजिए हम तन मन धन से तैयार हैं। कार्य आरम्भ कर दिया गया। बाबू राधाकृष्णदास ने एस्टिमेट (तखमीना) आदि बनाकर तैयार किया। ता. 14 दिसम्बर 1902 को एक डेपुटेशन काशीराज के पास रामनगर गया। 21 दिसम्बर को महाराज बनारस के हाथ से बड़ी धूमधाम के साथ सभा की नींव डाली गई। अच्छा समारोह था। भवन की नींव पड़ गई पर उसका बन कर खड़ा होना तो द्रव्याधाीन था। सहायकों ने तो चारों ओर से सन्नाटा खींचा। अब यह खटका हुआ कि किस तरह यह भवन बन कर खड़ा होगा। बनवाने का ठेका भी बाबू राधाकृष्णदास के ऊपर और सभा की आर्थिक अवस्था भी उनकी ऑंखों के सामने। उस समय भवन को बनवाते जाना ऐसे ही मनुष्य का काम था जिसकी नागरी भवन देखने की लालसा हानि लाभ की चिन्ता से कहीं बढ़ कर हो। धीरे धीरे रुपया भी आने लगा और भवन बन कर खड़ा हो गया। प्रान्तीय लाट सर लाटूश महोदय से भवन खोलने की प्रार्थना की गई। 18 फरवरी, 1904 को बड़ी धूमधाम का उत्सव हुआ। संध्याो को ठीक 5 बजे लाट साहब आए। उनके पहुँचते ही बैंड बजने लगा और स्वागतकारिणी कमेटी के निम्नलिखित सभासदों ने उनका स्वागत किया-

बाबू राधाकृष्णदास, बाबू श्यामसुन्दरदास, मुंशी (अब राय बहादुर), गंगाप्रसाद वर्मा, माननीय पंडित मदनमोहन मालवीय, महामहोपाधयाय पंडित सुधाकर द्विवेदी, शिवप्रसाद राय, बाबू रामप्रसाद चौधारी, बाबू साँवल सिंह, बाबू इन्द्रनारायण सिंह।

श्रीमान् ने अभिनन्दन पत्र ग्रहण करने के उपरान्त कहा 'दो वर्ष हुए जब मैंने इस सभा से एक एड्रेस पाया था। उस समय प्रधन प्रश्न जिस पर विचार हो रहा था वह गर्वमेंट की इस नीति के विषय में था कि इस प्रदेश में किस अक्षर को व्यवहार में लाना चाहिए। आज मैं इस भवन को खोलने के लिए आया हूँ, जिसकी नींव को एक वर्ष हुआ मेरे मित्र महाराज बनारस ने रखा था और जो इस सभा का स्थान होगा। सभा के मुख्य अभिप्राय से अर्थात् सर्वसाधारण की शिक्षा और सुख की उन्नति करने में गर्वमेंट पूरी तरह पर सहमत है। सभा का जो यह उद्देश्य है कि वह एक साहित्यमय भाषा की उन्नति करे इसमें हस्तक्षेप करने की गर्वमेंट की कोई इच्छा वा उसका कोई अधिकार नहीं है। प्रत्येक जाति को अपने साहित्य की भाषा स्थिर करनी चाहिए। परन्तु शिक्षा के हित के लिए गर्वमेंट इस बात पर जोर देने के लिए बाधय है कि आरम्भ की पाठय पुस्तकें नित्य की बोलचाल की भाषा में, अर्थात् ऐसी भाषा में जिसे शिक्षक और शिष्य समझ सकें, बनाई जायें। मुझे यह देखकर हर्ष है कि इस विषय में सभा गर्वमेंट से बहुत कुछ सहमत है।'

इसके उपरान्त श्रीमान् ने वैज्ञानिक कोश और हिन्दी पुस्तकों की खोज के लिए सभा को बधाई देते हुए अपने कर कमलों से सभा-भवन को खोला। इस अवसर पर प्राय: बहुत से हिन्दी प्रेमी बहुत दूर दूर से आए थे। काशी की जिस गली में जाइए दो एक हिन्दी के लेखक प्रसन्नमुख आते जाते दिखाई पड़ते थे। बड़ा मनोहर दृश्य था। दूसरे दिन भी नए भवन में हिन्दी प्रेमियों का समारोह हुआ और हिन्दी के हित के बहुत से उपायों पर विचार हुआ। तीसरे दिन सबका ग्रूप उतरा और बाबू राधाकृष्णदास की ओर से निमन्त्रित सज्जनों के लिए जलपानादि का भी बहुत सुन्दर प्रबन्ध किया गया। ये तीनों दिन बड़े आनन्द और उत्साह में बीते।

व्यवसाय आदि

इन्हें संसार का पूरा ज्ञान था। अत: अर्थसंग्रह की चिन्ता भी इन्हें कभी नहीं छोड़ती थी। ये ग्रन्थकार भी बनना चाहते थे और नगर के धनी मानियों में भी अपनी गिनती रखना चाहते थे। ये सरस्वती के अनन्य उपासक नहीं थे। इनमें लिखने पढ़ने की वासना इतनी तीव्र और प्रचंड नहीं थी कि ये संसार की और बातों की कुछ परवा न करते। ये बड़े व्यवहार कुशल भी थे। लेन देन के अतिरिक्त इन्होंने और भी कई व्यवसाय किए। चौखम्भे में काशी सिल्क की इनकी एक दूकान थी। अन्नपूर्णा मिल में इनका कुछ शेयर था। पर इधर बहुत दिनों से इमारतों के ठेके का काम करते थे जिससे इन्हें अच्छा लाभ हो चला था। नागरीप्रचारिणी सभाभवन, चौक का थाना, भिनगा राज अनाथालय आदि इमारतें इन्हीं के ठेके में बनी हैं। सन् 1902 तक तो ये बाबू हरिश्चन्द्र के परिवार के साथ चौखम्भे में ही रहते थे। पर पीछे से अपने लिए एक स्वतन्त्र साफ सुथरा मकान जगतगंज में बनवा लिया था जिसमें शान्ति पूर्वक अपने दिन बिताते थे। हाकिमों से भी ये मेलजोल रखते थे और उनसे काम भी निकालते थे। 1901 में मि. बर्न जातियों की जाँच में लगे थे तब कलक्टर साहब के कहने से इन्होंने अगरवाले वैश्यों की एक सूची पूरे विवरण के साथ बनाकर उन्हें दी थी जिससे उन्हें बहुत सहायता मिली थी और इन्हें अच्छा धन्यवाद मिला।

मृत्यु

ऊपर लिखा जा चुका है कि इनका शरीर स्वस्थ दशा में बहुत कम रहा। जो कुछ इन्होंने किया अस्वस्थ शरीर लेकर। इससे इनके मन की दृढ़ता और शक्ति का आभास मिलता है जो इनके क्षीण शरीर को उकसाता था। ज्वर इत्यादि से पीड़ित रहकर भी ये व्यवसाय का उद्योग और लिखने पढ़ने का काम बराबर किए जाते थे। जब बहुत अशक्त हो जाते थे तभी बैठते थे। कभी कभी तो ये अपने जीवन से बिलकुल निराश हो जाते थे। 3 दिसम्बर, 1899 को ये खाँसी और बुखार से बहुत तंग आकर लिखते हैं 'जान पड़ता है कि पापों के प्रायश्चित का समय निकट है। बरस दिन तक यों ही खाँसी और बलगम से दु:ख पाकर अन्त में 6 दिन में पूज्य भारतेन्दुजी अस्त हुए थे। वही दशा अपनी भी जान पड़ती है।'

इनका परिश्रम देखकर लोगों को चकित होना पड़ता था। व्यवसाय की हाय हाय भी वैसी ही, साहित्य सेवा की धुन भी वैसी ही। इनकी जिस कार्य विभाग पर दृष्टि जाती ये उसी में लीन देख पड़ते थे। एक दिन की बात है कि मैं किसी कार्यवश काशी आया और इनसे मिलने गया। ये उन दिनों बीमार थे। मैंने देखा कि एक चारपाई पर ये बिलकुल अशक्त और क्षीण होकर पड़े हैं, बीच बीच में अपने रोगजनित कष्ट को आसपास बैठे हुए लोगों से कहते जाते हैं। मुझे देखकर इन्होंने तुरन्त बात फेर दी और हिन्दी की चर्चा चला दी। इतने ही में कोई गुमाश्ता वहाँ आया। उसे देखते ही बड़ी व्यग्रता के साथ आप व्यवसाय सम्बन्धी कई बातों की जिज्ञासा करने लगे। एक ओर अर्थ की कराल चिन्ता, दूसरी ओर लोकोपकार और साहित्य चिन्ता। ये दोनों चिन्ताएँ इनके स्वभावत: क्षीण शरीर को चर गईं। इनका शरीर और मन श्रम और चिन्ता के भार को सहते सहते ऊब गया। यों तो ये बराबर बीमार ही रहा करते थे पर इधर दो तीन वर्षों से बहुत लट गए थे। दस दिन अच्छे रहते तो चार दिन बीमार। इतने पर भी कार्य का क्रम बराबर जारी रहा। संध्यास के समय ठेके के काम पर जाना और नागरीप्रचारिणी सभा के कागज पत्रों की देखभाल करना न छूटा। अपने परिवार के कार्यों में भी इन्होंने किसी प्रकार की रुकावट डालना न चाहा। अपने पुत्र बाबू बालकृष्णदास के विवाह की बातचीत में थे और उसके निमित्ता कुछ तैयारी भी कर रहे थे। मार्च 1907 की बात है कि इनके कोई परिचित मित्र बीमार थे। ये उन्हें देखने के लिए गए। वहाँ इन्हें बहुत रात हो गई। रास्ते में लौटते समय इन्हें कुछ हवा और सर्दी लगी इससे पुरानी बीमारी लकवे का जोर हो गया। उसी दिन रात को जो ये चारपाई पर पड़े तो फिर न उठे। ये उन दिनों सभा के मन्त्रीथ थे, अत: 1 अप्रैल को प्रात:काल तक तो आपने सभा के कागजों पर दस्तखत किए। फिर उसी दिन संध्याक को जब और कुछ कागज हस्ताक्षर के लिए लाए गए तब आप इस लोक से प्रस्थान करने की तैयारी में थे। यहाँ के लोगों से बातचीत करना छोड़ दिया था। उसी दिन रात को दो बजते बजते बाबू राधाकृष्णदास इस लोक से चल बसे। भारतेन्दु की अवशिष्ट कला विलीन हुई, हिन्दी का एक सच्चा हितैषी और ग्रन्थकार, समाज का एक अनुभवी सुधारक संसार से उठ गया।

शोक

तुरन्त यह दारुण संवाद हिन्दी-पठित मंडल में फैल गया। जिसने जहाँ सुना वह वहीं ठक रह गया। किसी को भी इनके इतने शीघ्र परलोकगामी हो जाने का अनुमान नथा। समस्त हिन्दी प्रेमियों में इनकी मृत्यु की उदासी छा गई। काशी का तो कहना ही क्या है। 2 अप्रैल को इनके शोक में हरिश्चन्द्र स्कूल, नागरीप्रचारिणी सभा का दफ्तर तथा इनके कई मित्रों के कारबार बन्द रहे। नागरीप्रचारिणी सभा के लिए इन्होंने जो कुछ किया वह किसी से छिपा नहीं है। अत: 6 अप्रैल, 1907 को संध्याए समय उक्त सभा का एक विशेष अधिवेशन इनकी मृत्यु पर शोक व्यंजनार्थ हुआ। नगर के कोई डेढ़ दो सौ व्यक्ति सभा भवन में एकत्रित थे। इससे इनकी लोकप्रियता का प्रमाण्ा मिलता है। सभापति महामहोपाधयाय पंडित सुधाकर द्विवेदी थे। सुधाकरजी ने कहा-

'मैं बाबू राधाकृष्णदास को उस समय से जानता हूँ जब वे 12 वर्ष के थे। उसी समय से उनको हिन्दी का अनुराग था उनके प्रधन शिक्षक बाबू हरिश्चन्द्र थे।'

आगे चलकर सुधाकरजी ने फिर कहा-

'हिन्दी की कविता जोड़ लेना तो सबही जानते हैं पर वास्तविक कविता करना और कविता का मर्म समझना सहज नहीं है। बाबू राधाकृष्णदासजी वर्तमान समय के लिए भारतवर्ष में एक अद्वितीय पुरुष थे। बहुत सी बात ऐसी थी जो मुझे उनसे पूछनी पड़ती थी। 1 देखिए एक पद का अर्थ मैं कुछ दूसरा लगाता था, बाबूराधाकृष्णदास ने ठीक अर्थ समझाया। उनका छपवाया हुआ सूरसागर जब आप लोग देखेंगे तब स्वयं उनकी प्रशंसा करेंगे। 2 उनकी जो पुस्तकें आप पढ़ेंगे सबमें

1. इस पर मुझे अपने एक मित्र की बात याद आई, जो कहीं डाक्टरी की नियमित शिक्षा न पाकर भी अपनी डाक्टरी जमा रहे थे। मैंने एक बार उनसे उनके बीमार पिता का स्वास्थ्य पूछा। उन्होंने कहा 'बस इसी से समझ जाइए कि मैं और डाक्टर बुलाने जा रहा हूँ।' मेरे मित्र को तो लोग चाहे जो कहें पर संस्कृत के पंडितों के लिए यह कोई बहुत बड़ा बेढंगापन नहीं।

2. जान पड़ता है वक्ता महाशय ने स्वयं उस सूरसागर के पन्ने नहीं उलटे थे। उस संस्करण के विषय में आगे देखिए।

कुछ न कुछ उपदेश मिलेगा। वे बड़े सच्चे थे। घर में एकान्त में बैठकर सूरदासादि कवियों के एक एक पद पर कई दिनों विचार करते थे। वे बड़े गुणी थे। एक वही हिन्दी के प्रेमी थे जिन्होंने यह सभा भवन खड़ा कर दिया। हिन्दी के लिए जिसने घर स्थापित कर दिया उसकी कीर्ति स्थापित करने के लिए हम लोग कुछ यत्न करें और प्रार्थना करें कि बाबू राधाकृष्णदास की आत्मा को स्वर्ग में अनन्त सुख मिले और वहाँ से वे हम लोगों के प्रति आशीर्वाद करें।'

सुधाकरजी के बैठ जाने पर बाबू भगवानदास गुप्त बी. ए. उठे और बोले-'उनकी जीवनी से बहुत शिक्षा मिलती है। वे गुरु और चेले का सम्बन्ध खूब जानते थे। बाबू हरिश्चन्द्रजी तो स्वयं प्रसिध्द हैं पर इनके कारण और भी अधिक प्रसिध्द और सम्मानित हुए। बाबू साहब जाति सुधारक भी थे। कन्या शिक्षा की प्रथा अगरवालों में रुकती थी। वह इन्हीं के उद्योग से जारी रही। इस समय यहाँ पचासों लड़कियाँ पढ़ रही हैं। उनकी जीवनी से यह भी उपदेश मिलता है कि आदमी चाहे अमीर हो या गरीब, सबल हो या निर्बल, इच्छा करने से उत्तम कार्यों में सफलता प्राप्त कर सकता है।'

इसके पीछे बाबू बैजनाथदास बी.ए. ने बाबू राधाकृष्ण के गुणों की प्रशंसा करते हुए कहा-'यद्यपि वे कमजोर और बीमार रहा करते थे पर उनकी तबीयत बहुत तंदुरुस्त थी। जिस काम में लगते थे उसे धीरे धीरे पूरा कर डालते थे। उनकी सच्चाई का अनुभव मुझे बिरादरी की कमेटी से हुआ। मुझे अब उन कमेटी में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता जो उतना सच्चा हो। लड़कियों की शिक्षा के लिए उन पर बहुत कुछ हमले लिए गए, लेकिन वे अपनी बात पर कायम रहे। बिरादरी पर उनका बड़ा प्रभाव था।'

इन सब महाशयों के कह चुकने पर सभा स्थल में सन्नाटा फैल गया। सब लोगों के चेहरे पर उदासी छा गई। वे लोग जो सभा के अधिवेशनों में इनकी शान्त और नम्र मूर्ति देखते थे विशेष व्यथित देख पड़ते थे। अन्त में सभा की ओर से नीचे लिखे हुए तीन मंतव्य पास हुए-

(1) आज की यह विशेष सभा हिन्दी भाषा के परम सहायक, सुलेखक और इस सभा के परम हितैषी उन्नायक और मन्त्रीे बाबू राधाकृष्णदास की मृत्यु पर अत्यन्त शोक प्रकट करती है। उनकी इस असामयिक और अचानक मृत्यु से हिन्दी भाषा और विशेष कर इस सभा की बड़ी हानि हुई है और उनका स्थान पूरा करना बड़ा कठिन है। यह सभा ईश्वर से उनकी आत्मा को शान्ति और उनके कुटुम्बियों को सांत्वना देने की प्रार्थना करती है।

(2) बाबू राधाकृष्णदास ने हिन्दी की जो सेवा की है वह बहुमूल्य है। इसलिए यह सभा निश्चय करती है कि उनका एक उपयुक्त स्मारक स्थापित किया जाय और इसके लिए यह हिन्दी के सब प्रेमियों से धन द्वारा सहायता करने की प्रार्थना करती है। धन एकत्रित होने पर नागरीप्रचारिणी सभा यह निश्चय करेगी कि स्मारक किस प्रकार का हो।

(3) यह सभा निश्चय करती है कि इन प्रस्तावों की नकल उनके कुटुम्बियों के पास भेजी जाय।

तीसरे प्रस्ताव के अनुसार पहिले दो प्रस्तावों की लिपि बाबू राधाकृष्णदास के चाचा बाबू पुरुषोत्तामदासजी के पास भेज दी गई।

सुजन समाज, भारतवर्षीय आर्यधर्म प्रचारिणी सभा, काशी अग्रवाल समाज, अग्रवाल स्पोर्ट्स क्लब आदि स्थानिक सभाओं ने इनकी मृत्यु पर बहुत शोक प्रकट किया और अपनी अपनी हानि स्वीकार की।

6 अप्रैल, 1897 को श्रीभारतधर्ममहामंडल की मैनेजिंग सब कमेटी का विशेष अधिवेशन हुआ और बाबू राधाकृष्णदास की अकाल मृत्यु पर निम्नलिखित मंतव्य पास किया गया।

'श्रीमान् बाबू राधाकृष्णदासजी श्रीमहामंडल के प्रतिनिधि और कार्यकारिणी सभा के एक परिश्रमी सदस्य थे। वे अपनी धर्मबुध्दि और परोपकार प्रवृत्ति के कारण देश प्रसिध्द थे। श्रीमान् के द्वारा महामंडल के धर्म कार्यों में बहुत कुछ सहायता मिली थी। उनको काशीलाभ हुआ है। उनके वियोग से इस कमेटी को विशेष शोक है। यह कमेटी उनकी पारलौकिक उन्नति के लिए श्रीभगवान् से प्रार्थना करती है और उनके शोकाकुल आत्मीय परिजनों के साथ सहानुभूति प्रकाशित करती है।'

हिन्दी के प्राय: सब समाचार पत्रों ने इनके लिए शोक प्रकाश किया था। 'श्रीवेंकटेश्वर समाचार' से हम कुछ वाक्य उध्दृत करते हैं-

'काशी नागरीप्रचारिणी सभा केर् वत्तामान सेक्रेटरी, हिन्दी के एक जबर्दस्त प्रचारक, सहायक और पोषक, अनेक ग्रन्थों के रचयिता, भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रके फूफेरे भाई, सौजन्यशील बाबू राधाकृष्णदास अब इस संसार में नहीं रहे। ता. 2अप्रैल (सन् 1907 ई.) मंगलवार को आपका परलोकवास हो गया। आपके परलोकवास से हिन्दी समाज बहुत शोकान्वित हुआ है। भगवान् आपको मोक्ष का अधिाकारी बनावे। तमाम हिन्दी संसार की इनके कुटुम्ब के साथ हार्दिक सहानुभूति है।'

बाहर से न जाने कितने शोक सूचक पत्र और तार आए। हिन्दी के प्राय:सब प्रेमियों तथा लब्धाप्रतिष्ठ लेखकों ने अपना अपना आन्तरिक दु:ख प्रकट किया। नीचे हिन्दी हितैषियों और लेखकों के कुछ शोक पत्र दिए जाते हैं जिनसे यह बात खुल जायगी कि हिन्दी साहित्य समाज में इन पर कितने लोगों की प्रीति और श्रध्दा थी।

नं. 1, कटरा रोड, इलाहाबाद

11-4-1907

महाशय,

प्रियवर बाबू राधाकृष्णदास का असमय परलोक प्रस्थान सुन घोर विषाद हुआ। उनकी गुणगरिमा का स्मरण चित्त को करुणार्द्र करता है। उनकी मृत्यु से हिन्दू वर्ग ने एक नर रत्न खोया, हिन्दी भाषा के सच्चे सेवकों की संख्या घटी और भारत का एक सच्चा सुपुत्र गया। हिन्दी हितैषियों को बाबू राधाकृष्णदास से अभी बहुत कुछ आशा थी, वह एक क्षण में विनष्ट हो गई। यद्यपि जो कुछ वह कर गए हैं उसके लिए हमारी भाषा सदैव ऋणी रहेगी।

दैवी घटनाएँ सदैव दैवाधाीन ही रहती हैं। मनुष्य का वश उन पर नहीं। गोसाईं तुलसीदास का निम्नलिखित कथन स्मरणीय है-

हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस बिधि हाथ।

हम इतनी ही प्रार्थना कर सकते हैं कि परमात्मा राधाकृष्णदास की आत्मा को शान्ति प्रदान करे।

आपका समदु:खित,

श्रीधर पाठक।

जुही, कानपुर

9-4-1907

श्रीयुत् महाशय,

7 एप्रिल का पत्र मिला। बाबू राधाकृष्णदास के शरीरपात का समाचार सुनकर बड़ा दु:ख हुआ। सरस्वती से उनका विशेष सम्बन्ध था इसलिए हम उनका चरित प्रकाशित करना अपना कर्तव्यश समझते हैं।

भवदीय,

महावीरप्रसाद द्विवेदी

The Indian Press

Allahabad

श्रीयुत् बाबू पुरुषोत्तामदासजी

महाशय,

हिन्दी भाषा के प्रशंसनीय लेखक, सहायक और पोषक बाबू राधाकृष्णदास ने हम पर, हमारी मासिक पत्रिका 'सरस्वती' पर जो जो कृपाएँ की थीं उनके लिए हम उक्त बाबू साहब के कृतज्ञ हैं। हमको बाबू साहब की मृत्यु से बहुत शोक हुआ है। खैर ईश्वर की इच्छा बलवती है। हम प्रार्थना करते हैं कि परमात्मा मृतात्मा को शान्ति और आपको धैर्य प्रदान करे। आशा है आप हमारे ऊपर इन्हीं की तरह कृपा बनाए रखेंगे।

भवदीय दु:ख से दु:खित,

चिन्तामणि घोष,

प्रोप्राइटर।

नागपुर

7-5-1907

प्रियवर महाशय,

हमारे मित्र बाबू श्री राधाकृष्णदास के परलोकगमन से जो असीम दु:ख हमको हुआ है तथा जो हानि हमारे हिन्दी साहित्य की हुई है वह अकथनीय है। हमारी ओर से परमात्मा से विनय है कि वह उनकी आत्मा को शान्ति और आप तथाऔर बन्धुमबांधावों को धैर्य प्रदान करें। चि. बालकृष्णदास के साथ मुझे पूर्ण सहानुभूतिहै। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उनके चिरंजीवी भी उन्हीं की तरह हिन्दी-साहित्य-सेवाकरें।

भवदीय,

माधावराय सप्रे।

श्री वृन्दावन, मथुरा

प्रिय महाशय,

मेरे परमांतरंग, अभिन्न हृदय, जीवन सर्वस्व बाबू राधाकृष्णदासजी जिन्हें मैं भारतेन्दु का प्रतिबिम्ब समझ कर फूले अंगों नहीं समाता था, हा! अपनी उन्नति के शिखर पर प्रथम पद रखते ही एक साथ ही अदृश्य हो गए। हा दैव! हा भारत दु:खदायक!! हा, नागरी के प्रति निर्दय!!!

आपका कृपाभिलाषी

श्री राधाचरण गोस्वामी।

सरहरी गोरखपुर

10-4-1907

हा हन्त

बन्धुरवर,

आज की डाक में अशुभ चिद्दांकित लिफाफा देखने के साथ ही माथा ठनका। कलेजा धाड़कने लगा। जी कड़ा कर के खोल कर पढ़ा तो मूर्छा की दशा हुई। ऐसी असामयिक और आकस्मिक मृत्यु दूसरों की सुनकर हृदय विदीर्ण होता है न कि एक अभिन्न और आत्मीय मित्र वा सखा के वियोग की यातना असह्य हो सकती है। आप सब लोग जानते हैं, लिखने का प्रयोजन नहीं; मेरा उनका जो घनिष्ठ प्रेम था उसका धर्म चित्त ही जानता है। दु:ख और अनुताप से रोम रोम रो रहे हैं। परन्तु उनका हँसमुख और सहज स्वभाव तथा सच्चा बर्ताव सबको रुलाता होगा। हा! खेद है, अभी मैं गत मार्च के आरम्भ में उनसे मिला था। चि. बबुआ (बालकृष्ण) के विवाह में आने का आग्रह था। कहाँ इधर वह हम सबको छोड़ कर चल दिए। फिर साक्षात् होने का अवसर ही न मिला। जब मैं स्वयं अधीर हो रहा हूँ तब किस मुँह से आप सबको धौर्यावलम्बन करने की प्रार्थना करूँ। पर संसार की गति पर ध्या न देकर कहना ही पड़ता है कि हृदय को पाषाण बना कर इस घोर आघात को सहन करने का धैर्य पकड़िए और बालक तथा परिवार को आश्वासन दीजिए।

नितान्त संतप्त

व्यास रामशंकर

स्वर्गीय पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र और बम्बई के सेठ खेमराज श्रीकृष्णदासजी ने तार द्वारा अपने आन्तरिक शोक का उद्गार निकाला। 'हिन्दोस्तान' पत्र के स्वामी स्वर्गवासी राजा रामपाल सिंह तथा हिन्दी के परम सहायक श्रीनगर (पुर्निया) के परलोकगत राजा कमलानंदसिंहजी ने भी हिन्दी के नाते से इनकी मृत्यु पर शोकपूरित लम्बे चौड़े पत्र भेजे। महाराज दरभंगा और राजा प्रताप बहादुर सिंह सी. आई. ई. की ओर से भी शोक और सहानुभूति के पत्र आए।

बाबू राधाकृष्णदास बड़े चलते पुरजे के आदमी थे। सब तरह के उद्योगों सेअपनी थोड़ी बहुत सहानुभूति और सब श्रेणी के लोगों से कुछ न कुछ लगाव रखतेथे।भारतप्रसिध्द श्रीयुत् आशुतोष मुखोपाधयाय ने इनकी मृत्यु का संवाद पा कलकत्ता से लिखा-

77 Russa Road, North

Bhowanipore

14th April, 1907

My Dear Sir,

I have been very much schocked at the sadness of the death of my good friend Babu Radhakrishna Das. I had hoped to be able to enjoy the advantages of his friendship for many years to come. The deep regard I had for him makes me feel his loss very keenly. My sincere condolences to yourself and all the members of his family.

Yours Sincerely

Asutosh Mukerjee.

संतति

बाबू राधाकृष्णदास तीन संतति छोड़कर मरे हैं, एक पुत्र और दो कन्याएँ। पुत्र का नाम बाबू बालकृष्णदास है और वे स्कूल में पढ़ते हैं। कन्याएँ छोटी छोटी हैं। एक का नाम श्यामप्यारी और दूसरी का नाम नवलबीबी है। दोनों कन्याओं को घर पर अच्छी शिक्षा दी जा रही है। बाबू राधाकृष्ण की माता अभी वर्तमान हैं। बाबू राधाकृष्णदास के पीछे इस समय घर के सँभालने वाले केवल उनके चाचा बाबू पुरुषोत्तामदास हैं। आप ही अब गृहस्थी भी सँभाले हुए हैं और ट्रस्टी के रूप में कारबार की भी देखभाल करते हैं। आप भी बड़े ही सज्जन और मिलनसार हैं।

पहिला वसीयतनामा

24 मार्च, सन् 1899 ई.

मेरे ग्रन्थों का प्रबन्ध-

(क) मेरे लिखित वा अनुवादित ग्रन्थों का स्वत्व नागरीप्रचारिणी सभा को होगा। मेरे ऐसे ग्रन्थ जो किसी मित्र द्वारा छपे हैं उन पर भी मैं अपनी ओर से सभा को अधिकार देता हूँ क्योंकि न तो मैंने किसी से कुछ लेकर ग्रन्थ बना दिया है और न अपनी ओर से कोई अधिकार पत्र ही लिख दिया है तथापि मैं इतना अवश्य कहूँगा कि मैं अपने मित्रों का भी जी दुखाना नहीं चाहता। यदि वे इस देशोपकारी काम में ग्रन्थ न देना चाहें तो सभा उनसे झगड़ा न करे।

(ख) बाबू रामदीनसिंह के पास 'सिध्दशकुनावली,' 'दुर्गेशनन्दिनी', 'चित्रकूट यात्रा' आदि कई ग्रन्थ अप्रकाशित हैं और बाबू देवकीनन्दन खत्री के पास मुझे स्मरण आता है कि 'कोटा यात्रा' है। कई अप्रकाशित ग्रन्थ जैसे 'वर्णमाला' रहिमन शतक पर 'कुंडलिया' मेरे बैठक में है। ये सब उचित रीति से प्रकाशित कर दी जायँ।

बहुत सी अप्रकाशित कविताएँ हैं जिनमें से कुछ तो निरी रद्दी और अशुध्द हैं, कुछ अच्छी हैं और कुछ मेरे जीवन से सम्बन्ध रखती हैं। इनमें से रद्दी फाड़ कर फेंक दी जायँ शेष एक संग्रह में छाप दी जायँ। यदि कवि रत्नाकर जी कृपा करके इनको देख कर शोध दें तो बड़ा उपकार हो। अधूरे ग्रन्थों के विषय में मेरे मित्रगण जो उचित समझें करें।

(ग) मेरे पास जितनी बिक्री की पुस्तकें निकलें वे सब नागरीप्रचारिणी सभा को दी जायँ।

(5) मेरे सम्पादित देशहितकर कार्यों का प्रबन्ध-

(क) यद्यपि मैं काशी के प्राय: सभी समाजों में सम्मिलित और सहायक होता था परन्तु मेरा विशेष प्रेम हरिश्चन्द्र स्कूल और नागरीप्रचारिणी सभा पर है। परमेश्वर ने मुझे इस योग्य किया नहीं है कि मैं कुछ आर्थिक सहायता द्वारा इन दोनों कार्यों का चिर स्थायित्व स्थापन करूँ, परन्तु मेरी सविनय अपने मित्रों से यही प्रार्थना है कि वे लोग इनके उत्तरोत्तर उन्नति साधन का उद्योग करते रहे हैं और जहाँ तक हो सके इन दोनों को टूटने न दें।

(ख) ऊपर लिखे तीनों वसियों को चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर चाहेसब विषयों में चाहे किसी विशेष विषय में नीचे लिखे मित्रों से सलाह और सहायतालें-

(1) पंडित जगन्नाथ मेहता।

(2) बाबू श्यामसुन्दरदास बी. ए.।

(3) पंडित रामशंकर व्यास।

(4) बाबू रामदीनसिंह बाँकीपुर

(5) बाबू ठाकुरदास-बुलानाला, काशी।

(6) शिवप्रसाद राय।

तीनों वसियों में से किसी एक के कम हो जाने पर आवश्यकता होने से इन 6 मित्रों में से किसी को चुन लें।

हमने अपना कर्तव्यर किया अब इसके पालन करने का भार मित्रों पर रहा।

(6) यदि देवेच्छा से हमारा वंश लुप्त हो जाय तो हमारी समस्त सम्पत्ति ऊपर लिखे दोनों कार्यों में से किसी एक में अथवा दोनों में लगा दी जाय। परम करुणामय श्रीव्रजराज किशोर सब मंगल करें।

श्रीराधाकृष्णदास

25 मार्च शनिवार 1899

परिवर्तित वसीयतनामा

मैंने 25 मार्च, सन् 1899 ई. को एक वसीयतनामा लिखा था। तब से सात वर्ष भगवत् की कृपा से बीत गए। मेरे तीन वसियों में से अब दो नहीं हैं, केवल बाबू द्वारकादास हैं। इसलिए अपने चाचा बाबू पुरुषोत्तामदास और बाबू कृष्णचन्द्र को वसी नियत करता हूँ। ये तीनों वसी कृपा कर सब प्रबन्ध करें।

जो कुछ अदल बदल करना है वह नीचे लिखता हूँ। जिनमें कुछ बदला नहीं गया है वैसे ही कायम रहेंगे।

मेरे ग्रन्थों का प्रबन्ध-इस विषय में जो कुछ हमने पहिले लिख दिया है सब ठीक है। बाबू रामदीन सिंह अब नहीं हैं। 'दुर्गेशनन्दिनी' उन्होंने छाप दिया है शेष की आशा नहीं है। जो ग्रन्थ मेरे पुस्तकाकार न छपे हों छाप दिए जायँ। एक संग्रह कविता का और एक लेखों का छाप दिया जाय। मेरा पुस्तकालय रक्षापूर्वक रख सकें तो ठीक है नहीं तो पूर्व नियमानुसार बाँट दिया जाय। बिक्री की पुस्तकों की आमदनी नागरीप्रचारिणी सभा को दी जाय। मेरे वंशज यदि रखना चाहें तो उचित मूल्य सभा को दें।

यदि मेरे वंशज मेरे ग्रन्थों का कॉपीराइट अपने पास रखना चाहेंगे तो उन्हें उचित होगा कि या तो एक हजार रुपया सभा को दें या उसकी आमदनी का कम से कम आधा हिस्सा दिया करें। इसके अतिरिक्त अवस्थानुसार सभा से तय कर लेने का अधिकार है।

मेरे सम्पादित हितकर कार्यों का प्रबन्ध

हर्ष का विषय है कि नागरीप्रचारिणी सभा का भवन तो बन गया है, आशा है कि हरिश्चन्द्र स्कूल का भवन भी शीघ्र बन जायगा। इन दोनों कार्यों में मेरी सम्पत्ति से यथाशक्ति सहायता होती रहे।

श्रीराधाकृष्णदास

जगतगंजकाशी।

11 सितम्बर, 1906 मंगलवार।

विविध विषयों पर मत

इनके धर्म सम्बन्धी विचारों का उल्लेख हम पहिले कर आए हैं। इन्हें मत मतान्तर के झगड़े पसन्द नहीं थे। सदाचार और भगवद्भक्ति ही को ये मुख्य समझते थे। बहुत से देवी देवताओं का पूजना पहले आप कैसा समझते थे इसका आभास शायद धार्मालाप के टाइटिल पेज पर उध्दृत इन पद्यों से मिले-

खसम पूजते देवता भूत पूजती जोय।

एकहि घर में द्वै मता कुशल कहाँ से होय।।

(प्राचीन)

बहु देवी देवता भूत प्रेतादि पुजाई।

ईश्वर सो सब विमुख किए हिन्दू घबराई।।

श्रीभारतेन्दु हरिश्चन्द्र।

पर यह उस समय की बात है जब इनकी अवस्था बीस वर्ष की थी। पीछे समाज से संसर्ग बढ़ने पर इनके विचारों ने मधयस्थ मार्ग पकड़ा। इनका दो पन्ने का एक लेख मिला है जिसमें अपनी आधयात्मिक धारणा ये इस प्रकार प्रकट करते हैं 'निर्गुण परब्रह्म जब गुण और शक्ति के साथ अन्वित किया जाता है तब जननी बुध्दि से उसी परब्रह्म को ईश्वरी कहते हैं और पिता बुध्दि से ईश्वर। यदि ब्रह्ममयी शक्ति को ब्रह्म के साथ समन्वित न किया जाय अर्थात् ब्रह्म से व्यतिरेक पूर्वक उसे द्वैत भाव से ग्रहण किया जाय तो वह जड़ है। जड़ की पूजा नहीं होती। पर शक्ति को मिथ्या उपाधि समझ परब्रह्म को स्वतन्त्र भाव से शुध्द, बुध्द और मूल स्वरूप ग्रहण करने की चेष्टा की जाय तो तादृश निरुधिाक ब्रह्म दृष्टि देहाभिमानी अविमुक्त जीवन के पक्ष में सुलभ नहीं है। यदि गृहस्थ तादृश ब्रह्मदर्शी हो तो भी शक्ति से समन्वित ब्रह्म को नाना प्रकार स्थूल सूक्ष्म रूप की जो उपासना भारतीयसामाजिक धर्म रूप में प्रतिष्ठित है उसे ईश्वरार्थ और लोकशिक्षार्थ पालन करना उसके पक्ष मेंर् कर्तव्यम कहा गया है। वर्तमान काल में जिन युवा लोगों ने देव देवी की पूजा परित्याग पूर्वक एक मात्र ईश्वर की उपासना करने का व्रत ग्रहण किया है उन लोगों का ऐसा व्रत आर्यधर्म विहित नहीं है।' लेख शैली से ये वाक्य कहीं से उध्दृत वा अनुवादित जान पड़ते हैं पर अपने कुछ अनुकूल पाकर ही बाबू राधाकृष्णदास ने इन्हें अपने लेख में स्थान दिया होगा।

साहित्य क्षेत्र में भी आप एक शासक का होना जरूरी समझते थे एक बार कई सज्जनों के सामने आपने कहा था कि 'आजकल हिन्दी लेखकों की क्या बात है, सब आप आप को बादशाह हैं।'1 इनकी लिखने पढ़ने की प्रवृत्ति आदि ही से आदर्शानुगामिनी थी इसी से प्रत्येक मनुष्य के लिए ये एक आदर्श की जरूरत समझते थे। पर संसार में सबको अपने ऊपर इतना अविश्वास नहीं होता। यदि हो तो भिन्न भिन्न रूपों के नए नए कार्य ही संसार में न हों। यदि लोग अपने प्रत्येक विचार के लिए व्यक्तिगत अवलम्ब ढूँढ़ने लगें तो फटफटाते ही मर जायँ। बात यह है कि जहाँ नवीन विचार के लोग सहमति की आवश्यकता समझते हैं वहाँ आप पुरानी परिपाटी के अनुसार अनुमति की आवश्यकता समझते थे।

चन्दबरदाई की भाषा को आप एक प्रान्त की भाषा कहते थे जो दिल्ली की इस टकसाली भाषा से भिन्न थी जो सर्वस्वीकृत हुई। आप अपने एक नोट में लिखते हैं कि 'यह कहना सर्वथा अशुध्द है कि चन्द की हिन्दी से बदल कर यह हिन्दी बनी है। जैसे इस समय भिन्न-भिन्न प्रान्तों की भिन्न-भिन्न भाषा (?) है वैसे ही उस समय में अवश्य ही थी। चन्द की भाषा भी एक प्रान्त की भाषा थी।' इसके उपरान्त खुसरो की कुछ पहेलियों को उध्दृत करके आप लिखते हैं-'क्या यह सम्भव है कि एक ही सौ वर्ष में चन्द की भाषा ऐसी भाषा में बदल गई हो? कभी नहीं। वह राजपूताने की बोली थी यह दिल्ली की।'

हिन्दी, साहित्य के इतिहास के ये तीन काल मानते थे-

1. सन् 1896 में स्वर्गीय बाबू रामदीनसिंह की सहायता से जब उचित वक्ता फिर निकला था तब स्वर्गीय पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र ने भी लिखा था कि 'जब से भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का गोलोकवास हुआ तब से हिन्दी के सारे लेखक एक प्रकार स्वतन्त्र और बन्धनविहीन हो गए और लगे अपनी अपनी डफली और अपना अपना राग अलापने। न कोई किसी की आन मानता है...दगहे साँड़ से फिरा करते हैं।'

1. चन्द का समय 2. अकबर का समय 3. हरिश्चन्द्र का समय। इनके विचार में अकबर के समय में हिन्दी साहित्य ने बड़ी प्रौढ़ता प्राप्त की और तुलसीदास तथा अष्टछाप के कवियों ने इसे बहुत सर्वप्रिय रूप दिया। 24 नवम्बर, 1889 के हिन्दोस्तान में इन्होंने इस विषय पर अपना मत विस्तार के साथ प्रकट किया है। नागरीप्रचारिणी सभा के प्रथम वार्षिकोत्सव पर इन्होंने 'हिन्दी क्या है' नाम का जो लेख पढ़ा था उसमें हिन्दी भाषा के सम्बन्ध में अपने बहुत से विचार प्रकट किए थे। जो लोग आजकल हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं उन्हें यह जान कर प्रसन्नता होगी कि बाबू राधाकृष्णदास ने 18-19 वर्ष पहले कहा था कि 'हिन्दुस्तान की यदि कोई एक भाषा हो सकती है तो वह हिन्दी ही है।' उर्दू की चर्चा करते हुए आप कहते हैं कि 'कुछ लोगों का यह कथन है कि प्राय: ग्रामीण लोग उर्दू ही समझ सकते हैं संस्कृत के शब्द मिली हिन्दी नहीं समझ सकते। परन्तु यह ठीक नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि वे संस्कृत के शब्द नहीं समझ सकते परन्तु साथ ही वे उर्दू के शब्द भी नहीं समझ सकते। उनके लिए जैसे महाशय और महोदय हैं वैसे ही जनाब और हुजूर हैं।' हिन्दी भाषा के ये चार मुख्य भेद मानते थे-1. पूरबी, बनारस प्रान्त की, 2. कन्नौजी, कानपुर प्रान्त की 3. व्रजभाषा, आगरा मथुरा प्रान्त की 4. खड़ी बोली, सहारनपुर मेरठ प्रान्त की। आपका यह दृढ़ सिध्दान्त था कि किसी देश की उन्नति और श्रीसमृध्दि की प्राप्ति बिना उस देश की भाषा की उन्नति के नहीं हुई है। जब तक सब विषयों के ग्रन्थ ऐसी भाषा में न हों जिसको उस देश के रहने वाले बहुत कम परिश्रम से पढ़ और समझ सकें तब तक सम्भव नहीं कि सारे देश में विद्या का प्रचार यथार्थ रूप से हो सके। 'भाषा कविता की भाषा' पर विचार करते हुए व्रजभाषा और खड़ी बोली का झगड़ा आप यों निपटाते हैं 'मेरी समझ में तो भाषा कविता पर दोनों ही बोलियों का समान अधिकार है।' आगे चलकर आप लिखते हैं कि 'थोड़े से व्रज के कवियों के अतिरिक्त अधिकांश भाषा कविता की कोई विशेष भाषा नहीं है। कविगण यथावसर उचित शब्दों को भाषा का विचार छोड़ कर यथा स्थान रख देते हैं।' इनकी सम्मति में 'कई भाषा (1) के आश्रय से हिन्दी की कविता होती आ रही है।' पर ये यह स्वीकार करते हैं कि 'हिन्दी के सब रूपों में व्रजभाषा ही को प्रधानता मिलती थी'। यद्यपि इन्होंने खड़ी बोली और व्रजभाषा दोनों ही का स्वत्व स्वीकार किया है पर अपनी रुचि व्रजभाषा ही की ओर अधिक दिखाई है, क्योंकि आपने कहा है कि 'कविता की प्रचलित भाषा (व्रजभाषा) में माधुर्य गुण के अतिरिक्त सुगमता बहुत अधिक है। बहुत दिनों से परिमार्जित होते होते इसके शब्द ऐसे बन गए हैं जो कविता के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं। 'देख कर के' इतने बड़े शब्द के लिए केवल 'लखि' 'निरखि' 'विलोकि' यथावसर काम दे देते हैं। यद्यपि इन्होंने खड़ी बोली की कविता रोकना अनुचित बतलाया है पर सच पूछिए तो 'भाषा कविता की भाषा' शीर्षक यह लेख खड़ी बोली के विरोध की शान्ति के उद्देश्य से उतना नहीं लिखा गया जितना व्रजभाषा के बचाव के उद्देश्य से। यह बात कई जगह लक्षित होती है, जैसे-'यदि कहा जाय कि ऐसी कविता (व्रजभाषा) साधारण बोधागम्य नहीं है तो सर्वथा भ्रम है। सच पूछिए तो आजकल की गद्य की हिन्दी सर्वसाधारण की समझ में नहीं आती, परन्तु सूरदास, कबीर, तुलसीदास, मीराबाई आदि की कविता का प्रचार गाँव गाँव में है।' कहीं कहीं हिन्दी का पक्ष लेकर ये बहुत दूर की भी हाँक गए हैं, जैसे-'भारतवर्ष की Lingua Franca भाषा जो हिन्दी कहलाती है वह केवल इसलिए नहीं कि वह सर्वत्रा समझी और बोली जाती है वरंच इसलिए भी कि भारतीय सब भाषाएँ उसी के आश्रय से बनी हुई हैं।'

आकृति और प्रकृति

प्रकृति इनकी बहुत ही नम्र थी। बातचीत करते समय ये अत्यन्त विनीत भाव धारण कर लेते थे। स्वभाव के ये इतने धीमे थे कि अपनी बात ऊपर रखने की इन्होंने कभी परवा न की। मिलनसार ऐसे थे कि मिलते ही लोगों का चित्त वश में कर लेते थे। पहिले पहिल भी जो कोई इनसे मिलता उसे यही प्रतीत होता कि वह मानों अपने किसी पुराने सुहृद से बातचीत कर रहा है। जिनसे जिनसे इनका परिचय था वे इनको अपने सुख दु:ख का साथी समझते थे। अभिमान तो इनमें छू नहीं गया था। यदि किसी की रुचि के प्रतिकूल इन्हें कोई बात कहनी होती थी तो ये उसे सहसा उसके ऊपर नहीं झोंक देते थे बल्कि क्रमश: कुछ स्वयं ढीले पड़ते हुए कुछ उसके विचारों को अपनी ओर खिसकाते हुए ये अपना कार्य सधाते थे। ये बड़े भारी शान्तिप्रिय थे। मेल कराने और विवाद को शान्त करने का इनमें प्रधन गुण था। द्वेष वा विरोध का रहना ये नहीं देख सकते थे, जिस तरह से हो ये उसे उखाड़ने का यत्न करते थे। जब किसी विषय को लेकर परस्पर दो विरोधीदल खड़े हो जाते थे तब ये उन बातों को जिन्हें मानने में दोनों पक्षों में से किसी को भी आपत्ति न रहती थी प्रधानता देकर और विवादग्रस्त बातों को गौण ठहरा कर झगड़ा निपटा देते थे। प्राय: नागरीप्रचारिणी सभा के अधिवेशनों में यह देखा जाता था कि बढ़ता हुआ विरोध इनके खड़े होते ही शान्त हो जाता था। अपनी बिरादरी के झगड़ों को भी ये बड़े कौशल से निपटाते थे। साहित्य सम्बन्धी झगड़ों में भी आपकी यही स्थिति रहती थी। व्रजभाषा और खड़ी बोली के सम्बन्ध में आप लिखते हैं कि 'व्रजभाषा कविता के पक्षपातियों का कहना कि खड़ी बोली में कविता उत्तम हो ही नहीं सकती और खड़ी बोली वालों का कहना है कि व्रजभाषा की कविता हिन्दी की कविता ही नहीं है सर्वथा अनुचित है...मेरी समझ में भाषा कविता पर दोनों बोलियों का समान अधिकार है।'

इनका हृदय अत्यन्त कोमल था। इन्हें इस बात का ध्या.न बराबर बना रहता था कि किसी को हमारे व्यवहार से दु:ख न पहुँचे। कभी कभी कोई बात इनके हृदय पर बहुत खटक जाती थी। एक दिन कुछ मित्रों के साथ ये कहीं जा रहे थे। मार्ग में इन्होंने देखा कि एक दूकानदार अपने तीन या चार वर्ष के लड़के से यह कह रहा था कि 'हे भगवान्! कल त्यौहार है, कहीं से पैसा आ जाय।' इस पर ये ठिठक गए और ठंढी साँस भर कर बोले कि 'हाय! दरिद्रता से देश की यह दशा हो गई!'

जब किसी के व्यवहार से इन्हें दु:ख पहुँचता था तब उसकी आलोचना ये बड़े ही मर्मभेदी शब्दों में करते थे और झगड़ा लड़ाई बचाकर अपने मन को आप समझा लेते थे। इनके हाथ का लिखा एक चिट मिला है जिससे यह पता चलता है कि लोगों के कुव्यवहार से इनके मन में कैसे भाव उठते थे। उसे हम यहाँ उध्दृत करते हैं-

'समय पलट गया। दिन के बदले रात हो गई। घनघोर अन्धाकार छा गया। पश्चिमी हवा पूर्वी हवा में परिवर्तित हो गई, नैराश्य की घटा चारों ओर फैलने लगी। परन्तु उसमें भी एक प्रकार का आनन्ददायक प्रकाश दिखाई देने लगा। संसार तथा उसका यथार्थ रूप दिखाई देने लगा। जो भ्रम वश परमहित जान पड़ते थे काम पड़ने पर परम अहितकारी दिखाई देने लगे। समय! धान्य तेरी महिमा! तू जो न दिखावे वही थोड़ा है। जो हमारा मुँह देखा करते थे आज हमें उनका मुँह देखना पड़ता है। जो हम दूसरों की जाँच करते थे वही हम दूसरों से जाँचे जाते हैं। वे जाँचने वाले भी कैसे? जिनके दोषों पर परदा दे कर हमीं ने निबाहा।... ...

हृदय! तू दृढ़ रह। तुझे परम संतोष करना चाहिए कि तूने अब तक धोखा नहीं खाया है। इतने अंधाड़ों ने भी तेरी गति को अभी तक नहीं बदला है। तुझे बधाई है कि इतने विघ्नों पर भी तुझ पर धाब्बा नहीं लगा। संसार को कहने दे। तू यह देखता रह कि जिसे कहना चाहिए वह क्या कहता है। सबकी दृष्टि में दोषी रहने की चिन्ता न कर। परन्तु उसके आगे दोषी न ठहर। तू तैयार रह उन सख्तियों को झेलने के लिए जो तुझ पर आजमाई जाने वाली हैं। घबड़ा मत।'

इसी प्रकार जब इनके साथ कोई कुछ बुराई करता था तब उसे प्राय: कुछ न कह कर संसार की गति पर, समाज की स्वार्थपरता पर ये दु:ख प्रकट करते थे। अधिकांश भारतवासियों की तरह जमाने की शिकायत इन्हें भी रहा करती थी। इसी से जहाँ किसी से कोई बुराई बन पड़ी कि उसे इन्होंने संसार का प्रतिनिधि समझा। इनके शरीर में क्रोध ने उग्र रूप शायद ही कभी धारण किया हो। इच्छा के विरुध्द कार्य देखकर थोड़ा चिरचिरा उठते थे। शुध्द क्रोध की प्रेरणा पर इन्होंने किसी कार्य का अनुष्ठान नहीं किया। मनोविकारों में करुणा और शान्ति ही का संचार इनमें अधिक था। जिन जिन रचनाओं में इन्होंने इन रसों का उद्गार निकाला है वे बहुत चोखी हुई हैं।

इनका शरीर दुबला, रंग साँवला और चेहरा बैठा हुआ था, पर चेहरे पर माधुर्य था। चाल भी इनकी सादी और पुराना ढंग लिए हुए थी। ये लम्बा चपकन, चूड़ीदार पायजामा और चौगोशिया (कभी कभी फेल्ट भी) टोपी पहनते थे।

पुस्तक रचना

बाबू राधाकृष्णदास की रचनाओं को हम दो भागों में बाँट सकते हैं-

(1) भारतेन्दु के जीवनकाल की।

(2) भारतेन्दु के पीछे की।

इनमें भारतेन्दु के जीवन काल में अर्थात् 1885 तक जो पुस्तकें लिखी गईं वा प्रकाशित हुईं उनसे इनकी प्रसंग कल्पना और उन्नत विचारों के अनुकरण की प्रवृत्ति का अच्छा परिचय मिलता है। अनुकरण से मेरा अभिप्राय यह नहीं कि वे पुस्तकें अन्य पुस्तकों से उध्दृत वा अनुवादित हैं, मेरा मतलब यह है कि उनमें जिन अवस्थाओं का वर्णन है वे इनकी प्रत्यक्ष अनुभव की हुई नहीं (क्योंकि इनका वय बहुत छोटा था) बल्कि दूसरों की प्रत्यक्ष की हुई हैं। दु:खिनी बाला में विधवा विवाह न होने का अशुभ परिणाम और नि:सहाय हिन्दू में हिन्दुओं की स्थिति 15-16 वर्ष के बालक के अनुभव की बातें नहीं कही जा सकतीं, और बिना अनुभव की हुई बात का लिखना एक प्रकार का अनुकरण ही है। इसके अतिरिक्त 'महारानी पद्मावती' 'धार्मालाप' आदि में बाबू हरिश्चन्द्र की कविताएँ भी बहुत उध्दृत हैं और वाक्य भी कहीं-कहीं ज्यों के त्यों आ गए हैं।

भारतेन्दु की मृत्यु के पीछे बहुत दिनों तक इन्होंने कोई पुस्तक वा बड़ा प्रबन्ध नहीं लिखा। इनके साहित्य जीवन का दूसरा उत्थान नागरीप्रचारिणी सभा से सम्बन्ध होने के पीछे हुआ। तभी से ये अपने मूल और परिपक्व भावों को निज की शब्द योजना द्वारा बाहर निकालने लगे और इनकी प्रतिभा और सम्पादित शक्ति का विकास देखने में आने लगा। भाषा इनकी सरल, गँठी हुई तथा वैलक्षण्य विहीन होती थी। इनकी भाषा ऐसी नहीं होती थी कि पढ़ते ही लोग बतला दें कि 'हाँ! यह बाबू राधाकृष्णदास की भाषा है।' 'संग्रहीत', 'आधीनता', 'मनोर्थ' और 'नर्क' आदि अशुध्द शब्दों का प्रयोग भी इनकी भाषा में मिलता है। इनकी कविता बाबू हरिश्चन्द्र के ढंग की तथा सरल और भावपूर्ण होती थी।