श्री राधाकृष्णदास / भाग 4 / रामचन्द्र शुक्ल
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दु:खिनी बाला-(13 पृष्ठ) एक छोटा सा रूपक 'जिसे बाल्य विवाह, जन्मपत्र विवाह निषेधा (?) और विधवा विवाह के न होने का अशुभ परिणाम दिखाने को' 15 वर्ष की छोटी अवस्था में बाबू राधाकृष्णदास ने लिखा। यह पुस्तक पहिले-पहल संवत् 1937 में बनारस के लाइट छापेखाने में छपी। इसकी भूमिका में बाबू राधाकृष्णदास लिखते हैं यह रूपक मेरा पहिला लेख है....यह भी मेरा साहस केवल श्रीयुत् पूज्यवर बड़े भैया बाबू हरिश्चन्द्रजी के अनुग्रह के प्रभाव से है क्योंकि शंकर दिग्विजय में लिखा है कि मंडन मिश्र के घर तोता मैना भी न्याय वेदान्त का शास्त्राार्थ करते थे तो हम उनके वात्सल्य-भाजन होकर कुछ लिख पढ़ लें इसमें क्या आश्चर्य है।'
यह रूपक 6 दृश्यों में समाप्त हुआ है। इसमें गोवर्ध्दनदास नामक एक मूर्ख बनिया अपनी 7 वर्ष की लड़की सरला का विवाह जन्मपत्री न मिलने के कारण एक सुन्दर सुशील 14 वर्ष के पढ़े लिखे लड़के के साथ न करके एक 6 वर्ष के काने, कुरूप, हठी और मूर्ख लड़के के साथ करता है। पति के साथ विचार न मिलने के कारण सरला ससुराल में अनेक प्रकार का दु:ख पाती है और विधवा हो जाती है। अन्त में वैधाव्य क्लेश को सहने में असमर्थ होकर वह अपनी सहेली से मँगा कर विष खाती है।
पुस्तक की रचना साधारण और भाषा चमत्कार रहित है। रचयिता ने गोवर्ध्दनदास को वज्र मूर्ख और उसकी कन्या सरला को सुशिक्षिता दिखाने में इस बात पर ध्याकन नहीं दिया कि ऐसा मूर्ख पिता अपनी लड़की को शिक्षा कैसे देगा। बाबू राधाकृष्णदास ने नाटक के पात्रों में से बाबू बलदेवदास को अपने विचारों का पात्र बनाया है और उन्हीं से जन्मपत्री की असारता आदि पर व्याख्यान दिलवाया है। व्याख्यान के बीच ये वाक्य आते हैं-'वेद, पुरान, शास्त्रा किसी में जन्मपत्री देख कर विवाह करना नहीं लिखा है.........जो वेद में लिखा है वह करना चाहिए क्योंकि हम वैदिक हिन्दू हैं।' 'वेद' और 'वैदिक' शब्द से लोगों को इनके आर्य समाजी होने की धाारण्ाा हो सकती है पर वह थोड़ी ही देर में 'पुराण' और हिन्दू शब्द से उड़ जाती है।
एक बहुत जीर्ण हस्तलिखित प्रति मिली है जिससे इस रूपक के पूर्व रूप का पता चलता है। पहिले रचयिता ने इस रूपक का नाम 'विधवा विवाह नाटक' और नायिका का नाम सरला के स्थान पर श्यामा रक्खा था। 'दु:खिनी बाला' के अन्तिम दृश्य में सरला का अपनी सहेली के पर पुरुष सम्बन्धी प्रस्ताव पर क्रुध्द होना और विष पान करना दिखलाया गया है, पर इसमें उक्त प्रस्ताव को स्वीकार करना और गर्भपात कराना लिखा है। नीचे इस हस्तलिखित प्रति का अन्तिम दृश्य दिया जाता है। पाठक दु:खिनी बाला के अन्तिम दृश्य से उसका मिलान करें।
श्यामा का मकान
(श्यामा और एक दाई आती है)
श्यामा-हा! पिता तो दूसरा विवाह करते नहीं और कामदेव ने जोर किया। अब पतिव्रत धर्म कैसे निबहेगा।
दाई-आप क्यों सोच करती हैं? और क्यों विधवा विवाह का हठ करती हैं? क्या संसार में और पुरुष नहीं हैं। आनन्द कीजिए। न अब आपका पति ही फिर आवेगा न विवाह ही होगा और अबला लोग काम के बान की चोट कभी नहीं सह सकतीं। यह विश्वामित्रजी ऐसे लोगों से सहन न हो सका और शिवजी का जी तो चलायमान ही हो गया।
श्यामा-परन्तु ऐसा करने से तो बड़ा दोष होता है।
दाई-तो फिर क्या करोगी, आत्महत्या करोगी?
श्यामा-उसमें भी दोष होता है। क्या करें? दोष तो दोनों में है मेरी क्या सम्मतिहै।
दाई-जिसमें सुख हो।
श्यामा-ठीक कहा। दोष दोनों बराबर हैं जिसमें सुख हो वही ठीक है। हा! इस विधवा विवाह के न होने में यही सब सुकर्म होता है। भगवान्! साक्षी रहना, मेरा दोष नहीं है। मैं लाचार हूँ। इसका दोष ब्राह्मनों और पिता पर है।
दृश्य 3
श्यामा और दाई का प्रवेश
श्यामा-हा कर्म! तू बड़ा प्रबल है। तूने क्या क्या कुकर्म नहीं कराए। हा ईश्वर! अब मैं क्या करूँ? न जीने में सुख है न मरने में। मेरी तो 'भइ गति साँप छछुंदर केरी'। अब गर्भ हो गया कैसे क्या करूँ? मेरी तो बुध्दि ही काम नहीं करती।गर्भ गिराऊँ तो दोष, न गिराऊँ तो प्रकट हो जाय। अब बता क्या तेरी इस समय रायहै?
दाई-मेरी राय तो यही है कि गर्भ गिराया जाय।
श्यामा-अच्छा तो जा, कोई दवा ले आ।
(दाई बाहर जाती है, दवा ले आती है और श्यामा खाती है)
श्यामा-हा! आज हमने कैसा कुकर्म किया। मैंने ही क्या विधवा विवाह के न होने से इस भारतवर्ष में प्रत्येक मास में हजारों ऐसे ऐसे दुष्कर्म होते हैं। हे जगदीश्वर! हमारी यही प्रार्थना है कि तू अब इन बुरी बातों को इस भारतवर्ष सेदूर करके इस भूमि को सुधार। अब बहुत अपने किए का फल पा चुके, अब कृपाकर।
।। विधवा विवाह नाटक समाप्त।।
11 मई, 1883 के ओवरलैंड मेल (Overland mail) नामक अंगरेजी पत्र में इस रूपक की समालोचना आधो कॉलम में छपी थी जिसका कुछ अंश नीचे दिया जाता है-
‘The Hindi of this book will have special interest to students of that language; for the writer has marked the difference between the friends of progress and their opposites by giving the speeches of the first in literary Hindi and those of the second class in the local patois. This is precisely the style of writing which Europeans have been urging Indians to adopt for a long time and which Hindus have studiously avoided. It has been erroneously held that colloquil Hindi is far beneath the dignity of literature. Thus native writers feel constrained to employ in books a high flowery dialect bristling with portentious Sanskrit words, which none but a Scholar can understand. The book before us is, therefore; remarkable first bold introduction of some specimens of the real Benares dialect, and a single sentence is enough to show how little it resembles the Hindi of books. e. g. तै ऐसे न मनबे, जौ अब न मनबे तो हम तोरि खूब पूजा करबै।' We leave this sentence to the reflection of those who have thoughtlessly asserted that Hindi is only Hindustani written in strange characters and we would say to the Hindus themselves, in the words of the book before as, हम और कुछ नाहीं कहते, इहै कि तु अपनीयै बोली बोला करो।
नि:सहाय हिन्दू (120 पृष्ठ) एक वियोगांत उपन्यास, स्वर्गीय भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की (?) आज्ञानुसार लिखित। यह पुस्तक यद्यपि सन् 1881 में लिखी गई थी, जब कि बाबू राधाकृष्णदास की अवस्था केवल 16 वर्ष की थी, पर छपी जाकर 1890 ई. में।
इसमें मदनमोहन नामक एक देश हितैषी नवयुवक का गोरक्षा के लिए उद्यत होना और एक भलेमानुस न्यायपरायण मुसलमान सज्जन का सस्त्रीनक प्राण रहते तक उसका साथ देना दिखलाया गया है। मुसलमानों के कायरपन और पुलिस की अन्धोर के भी सच्चे नमूने हैं। बीच बीच में शिक्षित मित्रों के संवाद, और सभा के व्याख्यानों के रूप में देश दशा का, विशेष कर हिन्दुओं की अधोगति का, अच्छा चित्र दिखाया गया है जिसमें 'भारत दुर्दशा' और 'भारत जननी' से उध्दृत बहुत से पद्य हैं। कहीं कहीं वाक्य भी बाबू हरिश्चन्द्र के आए हैं जैसे-'अंग्रेजों का राज्य पाकर भी (हिन्दू) न सुधारे।'
इस पुस्तक की भाषा भी मनोहर है और कथा भी रोचक है जिससे इनके दिन दिन बढ़ते हुए वाक्य रचना के अभ्यास और कल्पना की स्वच्छता का प्रमाण मिलता है।
28 अप्रैल, सन् 1890 के सज्जनकीर्ति-सुधाकर1 नामक पत्र में इस पुस्तक की लम्बी समालोचना छपी जिसका कुछ अंश यह है-'नि:सन्देह यह उत्तम समयानुकूल उपयोगी पुस्तक है, ग्रन्थकार अवश्य प्रशंसा के पात्र हैं। इतनी छोटी अवस्था में ऐसी उत्तम पुस्तक की रचना उनकी बुध्दिमानी और दूरदर्शिता को प्रमाणित करता है,
1. यह पत्र महाराणा श्री सज्जनसिंह बहादुर के समय से उदयपुर से निकलता है।
इस विषय में हम आगे के लिए यह भी आशा करते हैं कि यदि उक्त बाबू इसी भाँति देशोपकारी बातों में उद्योग करते रहेंगे तो बहुधा लोगों को लाभ पहुँचाने के सिवा उत्तम प्रशंसा को प्राप्त होंगे।'
17 अप्रैल, 1890 के राजस्थान समाचार में भी किसी ने 'भाषारसिक' के नाम से इसकी अच्छी समालोचना की थी।
महारानी पद्मावती (55 पृष्ठ) अथवा 'मेवार कमलिनी'-एक 'ऐतिहासिक दृश्य रूपक'। यह पुस्तक सन् 1882 वा 1883 में लिखी गई होगी क्योंकि 'दूसरे संस्करण की उपक्रमणिका' में बाबू राधाकृष्णदास लिखते हैं कि 'इस नाटक को मैंने सत्राह अठारह वर्ष की अवस्था में बनाया था।' भूमिका में बाबू राधाकृष्णदास ने पुस्तक निर्माण का कारण इस प्रकार लिखा है-'एक दिन मैं इतिहासतिमिरनाशक नाम की पुस्तक पढ़ रहा था। उसमें श्रीमती महाराणी पद्मावती का वृत्तान्त पढ़ कर मेरे चित्त में सहसा यह बात उत्पन्न हुई कि इस विषय पर हिन्दी नाटक लिखा जाय तो अत्यन्त उत्तम हो।' पर आगे चल कर उपक्रम में लिखा है 'पूज्यपाद भाई साहब बाबू हरिश्चन्द्रजी भारतेन्दु ने जब नीलदेवी लिखा, मुझसे आज्ञा किया (?) कि भारतवर्ष में अब ऐसे ही नाटकों की विशेष आवश्यकता है जो आर्य सन्तानों को अपने पूर्व पुरुषों का गौरव स्मरण करावें अतएव तुम कोई नाटक इस चाल का लिखो।' यह रूपक पहिले साहित्य-सुधानिधि में छपा था, पीछे पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ।
यह नाटक छ: अंकों में समाप्त किया गया है। इसमें चित्तौर की प्रसिध्द महारानी पद्मावती का वृत्तान्त दृश्य काव्य के रूप में दिखाया गया है। रचना इसकी बिलकुल नीलदेवी के ढंग की है, पद्य भी इसमें नीलदेवी, भारत दुर्दशा, विजयिनी विजय-वैजयन्ती आदि से बहुत उध्दृत हैं। मुसलमानों के दोष और हिन्दुओं के गुण खूब जी खोल कर दिखाए गए हैं। कहीं कहीं अलाउद्दीन ऐसे विजयी और चतुर को बिलकुल काठ का उल्लू बना दिया है। एक मुसाहिब कहता है कि 'अगर राणा और रानी ने आपकी दरखास्त न कबूल की तो क्या कीजिएगा?' इतनी ही बात पर अलाउद्दीन उसको कैदखाने में भेज देता है। एक स्थान पर अलाउद्दीन कहता है-'वजीर ने जो कुछ मेरी तारीफ की वह मेरी सिफतों से कहीं घट कर है, किसकी मजाल है कि मेरी पूरी पूरी तारीफ कर सके। पिछले वाक्य भारतेन्दु के 'विषस्य विषमौषधाम्' से लिए गए हैं।
पुस्तक की रचना प्रभावशालिनी है और भाषा ओजस्विनी है। जिन मनोविकारों के संचार के लिए यह पुस्तक रची गई है पढ़ने से उनका आवेश चित्त में होता है। कहीं कहीं के वाक्य अत्यन्त उद्वेगजनक है।
आर्यचरितामृत (13 पृष्ठ) इसमें केवल चित्तौर के वाप्पारावल का वृत्तान्त है। यह भी सन् 1882 में लिखा गया। इसे इनके बहनोई बाबू दामोदरदास बी. ए. ने प्रकाशित किया था।
बाबू राधाकृष्णदास का विचार था कि इसमें और और प्रसिध्द भारतीय पुरुषों के चरित्र निकालें पर पीछे न जाने क्या हुआ।
रामेश्वर का अदृष्ट (23 पृष्ठ) यह बंकिम बाबू के भाई श्री सजीवनचन्द्र महोपाधयाय की एक बंगला कहानी का अनुवाद है जिसे बाबू राधाकृष्णदास ने बाबू हरिश्चन्द्र से बंग भाषा सीखने पर उन्हीं के प्रेरणानुसार 1883 के लगभग कियाथा।
स्वर्णलता (336 पृष्ठ) यह श्री तारकनाथ गंगोपाधयाय कृत बंग भाषा के एक प्रसिध्द उपन्यास का अनुवाद है जिसमें आजकल के हिन्दू परिवार का बहुत सच्चा और शिक्षाप्रद दृश्य दिखलाया गया है। इस पुस्तक को बाबू राधाकृष्णदास ने 'रामेश्वर का अदृष्ट' का अनुवाद करने के पीछे बाबू हरिश्चन्द्र के आज्ञानुसार सन् 1884 में लिखना और 'नवोदिता हरिश्चन्द्रचन्द्रिका' में छापना आरम्भ किया। 6 परिच्छेद तक उसमें छपा। भारतेन्दु की मृत्यु के पीछे जब चन्द्रिका अस्त हो गई तब इनका उत्साह भी रुक गया। फिर जब पंडित प्रतापनारायण मिश्र हिन्दोस्तान पत्र के सम्पादक हुए तब इन्होंने फिर अनुवाद करने में हाथ लगाया। जब तक पंडित प्रतापनारायण मिश्र सम्पादक रहे तब तक तो क्रमश: स्वर्णलता का अनुवाद उसमें छपता रहा, उनके अलग होने पर फिर रुक गया। अन्त में बाबू रामकृष्ण वर्मा के अनुरोध से यह उपन्यास पूरा हुआ और 1893 में उनके भारत जीवन यन्त्राालय में पुस्तकाकार छपा।
यह उपन्यास बंग भाषा में अपने ढंग का निराला ही है। अनुवादक ने इसकी भाषा में, और कहीं कहीं कथा में भी आवश्यक परिवर्तन करके इसे इन प्रांतों की रीति और व्यवहार के अनुकूल बनाने में बड़ा काम किया है। पुस्तक अन्य भाषा से अनुवादित जान ही नहीं पड़ती। 17 मई, 1894 के भारतमित्र में इसकी अच्छी समालोचना हुई थी।
धर्म्मालाप (पृष्ठ 10) यह स्वामी बुध्दानन्द के धार्मामृत पत्र में निकलता था। इसमें वेदान्ती, शैव, वैष्णव, दयानन्दी, ब्राह्म, थिआसोफिस्ट ईसाई आदि भिन्न भिन्न मतावलंबियों का संवाद सनातनधर्म के आगे कराया है। सबकी ही बातों को सुनकर सनातन धर्म कहता है-
'भए सब मतवारे मतवारे। अपनो अपनो मत लै लै सब झगरत ज्यों भठियारे।'
अन्त में प्रेमी भक्तजी आते हैं और कहते हैं कि 'हमको तो यह सब बखेड़ा सा ही प्रतीत हुआ। हमारी समझ में तो जाँति-पाँति पूँछे नहि कोई। हरि को भजै सो हरि को होई।' सनातन धर्म भी इन्हीं की बात को पक्की मानता है।
इस छोटी सी पुस्तक में बाबू राधाकृष्णदासजी ने अपने धर्म विश्वास का परिचय दिया है। इसमें बाबू हरिश्चन्द्र के पद अधिकता से उध्दृत हैं। यह पुस्तक संवत् 1942 (सन् 1884-1885) में लिखी गई।
स्वर्ग की सैर-(सार सुधानिधि से उध्दृत) यह भी एक छोटी सी पुस्तक है जिसमें स्वप्न द्वारा भिन्न भिन्न मतों के स्वर्ग की व्यवस्था दिखा उनकी खूब धूल उड़ाई गई है।
सती प्रताप-इस नाटक का अधिकांश बाबू हरिश्चन्द्र का लिखा था बाबू राधाकृष्णदास ने कई वर्ष बाद इसे पूरा किया। इस नाटक के विषय में बाबू राधाकृष्णदास एक पत्र में लिखते हैं 'पहिले भाई साहब ने थोड़ा सा सती प्रताप लिखा था कि वह खो गया, जिसका उन्हें बड़ा ही खेद हुआ और उस समय उन्होंने अपना हृद्गत भाव मुझको समझा कर आज्ञा दिया (?) कि तू इस चाल पर फिर से इसको लिख। मैंने थोड़ा सा लिखा भी परन्तु वह खोई हुई प्रति मिल गई इस कारण उन्होंने फिर उसको लिखना आरम्भ किया। पाँचवाँ दृश्य आधा पूज्य भाई साहब ने लिखा था उसके आगे से इस बुध्दिविहीन ने इस अभिप्राय से कि प्रसंग पूरा हो जाय लिखा, और इसके लिखने में जो अनुचित साहस मैंने किया उसकी क्षमा प्रार्थना पहिले ही कर ली। मैंने इसी विचार से अपना नाम इस ग्रन्थ में प्रगट किया कि मैं जानता था कि पूज्य भारतेन्दु में और मुझमें कितना बड़ा भेद है अतएव मेरे दोष उनके लेख को न दूषित करें।'
सती प्रताप के चार दृश्य बाबू हरिश्चन्द्र के नाम से नवोदिता हरिश्चन्द्र चर्न्द्रिका में छपे थे जो पीछे 1885 में विक्टोरिया प्रेस से पुस्तकाकार निकले थे और अब भी ढूँढ़ने से मिलते हैं।
इसकी समालोचना करते हुए किसी ने लिखा था कि पाँचवें दृश्य में जो वनदेवी और वनदेवता द्वारा सावित्री और सत्यवान का प्रेम वर्णन कराया गया है उसके स्थान पर यदि विवाहोत्सव दिखाया गया होता तो अधिक उपयुक्त होता। पत्र द्वारा इसका जो उत्तर बाबू राधाकृष्णदास ने दिया था वह यह है-
'पाँचवें दृश्य में वेदोक्त मन्त्रों से सर्व जाति की दर्शक मंडली के सामने रंगभूमि में विवाहलीला अथवा बारात की धूमधाम दिखलाने के बदले वनदेवी और वनदेवता के मधुर भाषण में सावित्री सत्यवान का अलौकिक प्रेम दिखाना क्या बुराई करता है? क्या नाटकों के बीच बीच की क्रियाओं को छोड़ कर उनकी बात ही बात में प्रकाश कर देने का नियम नहीं है।'
नागरीदास का जीवन चरित्र-24 मार्च, 1894 को नागरीप्रचारिणी सभा के एक बड़े अधिवेशन में यह निबन्धा बाबू राधाकृष्णदास ने पढ़ा था जिसे लेकर खड्गविलास प्रेस ने छापा था। उसके अनन्तर ये बराबर अनुसंधान में लगे रहे और कृष्णगढ़ से नागरीदासजी के जीवन वृत्तान्त मँगा कर फिर से जीवन चरित्र लिखना आरम्भ किया। इसी बीच में पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया का एक लेख नागरीदास पर एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल No. I–1897 में निकला। अत: इन्होंने प्रथमसंस्करण में जो भूल रह गई थी उन्हें दूर करके उसे फिर से नागरीप्रचारिणी पत्रिका में छपाया।
हिन्दी भाषा के सामयिक पत्रों का इतिहास-बाबू श्यामसुन्दरदास बी.ए. और बाबू कार्तिक प्रसाद की सहायता से आषाढ़ शुक्ल 2 संवत् 1951 वा सन् 1894 में लिखा गया और नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हुआ।
कविवर बिहारीलाल-यह निबन्धा 17 जून, 1895 को नागरीप्रचारिणी सभा के एक अधिवेशन में पढ़ा गया। इसमें बाबू राधाकृष्णदास ने बिहारी को केशवदास का पुत्र सिध्द करना चाहा है।
डॉक्टर ग्रियर्सन ने अपनी सतसई की भूमिका में इस विषय का उल्लेख इस प्रकार किया है-
‘Traces of his birth in Bundelkhand appear in the poets' language–See कविवर बिहारीलाल by Radhakrishna Das of Benaras. According to the writer of this scholarly little pamphlet the poet was a Brahman and was probably the son of the well known author on rhetoric Keshodas. But I am unable to assent to this theory of his parentage. If he had been the son of so famous a man, the fact would assuredly have been remembered by tradion but this is not the case. (Introduction P:4)
राजस्थान केशरी वा महाराणा प्रताप सिंह-(ऐतिहासिक नाटक) (118 पृष्ठ) आरम्भ-अप्रैल 1895, समाप्त-दिसम्बर 1897। इस नाटक में उदयपुर के प्रसिध्द महाराणा प्रताप सिंह की वीरता और धीरता तथा मोगल बादशाह अकबर की गम्भीर राजनीतिक चाल बड़े कौशल से दिखलाई गई है। इनकी रचना की प्रौढ़ता सबसे अधिक इसी में झलकती है। इस नाटक में बड़ा भारी गुण यह है कि इसमें हल्दीघाटी के युध्द से सम्बन्ध रखने वाली छोटी से छोटी ऐतिहासिक घटना भी नहीं छूटने पाई है। नाटक एक सम्बध्द कथा के रूप में नहीं होता, उसके आख्यान की कुछ घटनाओं को रंगभूमि से अलग करना पड़ता है। अत: ऐतिहासिक नाटक में सबसे अधिक निपुणता की बात यह है कि वह इतिहास की मर्मस्पर्शी घटनाओं को चाहे वे क्षुद्र भी हों रंगभूमि के लिए चुन लें। बाबू राधाकृष्णदास ने यह निपुणता पूरी तरह से दिखाई है। चेतक घोड़े का मरना और सक्ता (शक्तिसिंह) का मिलना दिखाने के लिए एक गर्भांक ही रचा गया है। एक गर्भांक में महाराणा का जंगल में विपत्तिा के दिन काटना, लड़की के हाथ से बिल्ली का रोटी छीन ले जाना ऐसे स्वाभाविक ढंग से प्रदर्शित किया गया है कि कठोर से कठोर हृदय पिघल सकताहै।
महाराणा प्रताप सिंह के शब्द प्रति शब्द से स्वाभाविक तेज टपकाया गया है। बीकानेर के पृथ्वीराज का पत्र पढ़कर प्रताप कहते हैं-
जब लौं तन में प्रान न तब लौं मुख को मोड़ौं।
जब लौं कर में शक्ति न तब लौं शस्त्राहिं छोड़ौं।।
जब लौं जिह्ना सरस दीन बचन नाहिं उचारों।
जब लौं धाड़ पर सीस झुकावन नाहिं बिचारों।।
महाराणा और रानी को लड़ाई की बातचीत करते सुन राजकुमार अपनी माता से पूछता है-'माँ, दलबाल जवनों का सिकाल खेलने जायेंगे। माँ कहती है' हाँ बेटा! तुम भी जाना। बताओ तो हमारे लिए क्या लाओगे। राजकुमार-'भाई! अम तो छहजादा को मालैंगे उसके गले की हीले की कंथी ले आवेंगे छो तुमको देंगे।'
सारांश यह कि यह नाटक हिन्दी में अपने ढंग का एक है। भारतेन्दु के पीछे ऐसा नाटक और नहीं बना। हिन्दी साहित्य में बाबू राधाकृष्णदास का स्मरण यह सदा बनाए रहेगा। यह उनकी कीर्ति की सबसे गहरी गड़ी हुई पताका है। स्कूल और कॉलेज के छात्रों को यह नाटक बहुत प्रिय हुआ और इसके कई अभिनय कई स्थानों में हो चुके हैं।
पुस्तक में थोड़ी सी त्रुटियाँ रह गई हैं जिन पर ध्यासन बहुत शीघ्र जाता है। जैसे, मीनाबाजार और अकबर के महल आदि का दृश्य आगरे में न दिखा कर दिल्ली में दिखाया गया है। यह इतिहास प्रसिध्द बात है कि अकबर आगरे में रहता था दिल्ली में नहीं। आगरे के किले के भीतर मीना बाजार आदि अब तक बने हैं।
चतुर्थ अंक के द्वितीय गर्भांक में जहाँ हिन्दू और मुसलमान नागरिक से बातचीत कराई है वहाँ हिन्दू के मुँह से कहलाया है-'देखिए पंडितराज ने हमारे हज़रत सलामत के बारे में क्या अच्छा कहा है-'दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा'। यह बात निर्विवाद है कि जगन्नाथ पंडितराज अकबर के बहुत पीछे शाहजहाँ के समय में हुए हैं। जगदीश्वर शब्द से भी शाहजहाँ की ध्वरनि निकलती है।
भूमिका में सलीम का मेवाड़ की चढ़ाई में जाना इतिहास विरुध्द बतला कर भी नाटक में उसका लड़ाई पर जाना दिखाया गया है।
अकबर अपने शाही कमरे में अकेले बैठा हिन्दुओं के प्रति अपनी छिपी चाल के सम्बन्ध में कुछ बुड़बुड़ा रहा है कि 'एकाएक राजा टोडरमल का प्रवेश' होता है और बादशाह घबड़ाता है कि उसकी बात कहीं टोडरमल ने सुन न ली हो। जहाँ तक मैं समझता हूँ बादशाहों के कमरे में बिना इत्ताला कोई एकाएक इस तरह नहीं प्रवेश कर सकता।
प्रथम अंक के तृतीय गर्भांक में राजमहिषी यह कहती हुई प्रवेश करती हैं-'आर्यपुत्र की जय हो, क्या मैं सुन सकती हूँ आज आपकी चिन्ता का क्या कारण है'। रंगभूमि में पति को आर्यपुत्र कह कर सम्बोधन करना और उसकी जय मनाना संस्कृत नाटकों की चाल है। अत: हिन्दू समय के प्राचीन आख्यानों में ही उसका अनुकरण उचित और आवश्यक है।
वाक्यों में असंबध्दता और शिथिलता भी कहीं कहीं है, जैसे-'और आपके पूर्वजों को इस राज्यासन पर किसने बिठाया है? केवल अपने बाहुबल से अपने स्वाभाविक तेज, से अपनी हृदय की दृढ़ता से।' और भी-जो वे किसी लोभ में पड़ कर वा प्रान के डर से उनका सर्वनाश करते हैं तो न केवल अपनी कुल मर्यादा का उल्लंघन करके संसार में अपयश के भागी होते हैं वरंच परमेश्वर के यहाँ भी उत्तर दाता होना पड़ता है।'
जिस समय यह नाटक प्रकाशित हुआ है हिन्दी के सब सामयिक पत्र इसकी प्रशंसा से भरे निकले हैं। हिन्दी प्रदीप, विद्याविनोद समाचार (1 फरवरी 1898), हिन्दोस्तान (1 फरवरी 1898), भारत भ्राता (4 फरवरी 1898), भारतजीवन (14 फरवरी 1898), श्री वेंकटेश्वर समाचार (27 मई 1898), हिन्दी बंगवासी (30 मई 1898), भारतमित्र (18 जून 1900), स्वदेश वस्तु प्रचारक, लाहौर (15 जुलाई 1898), सज्जन कीर्ति सुधाकर (28 नवम्बर 1898), राजपूत (15 मई 1900), राजपूताना मालवा गजट, (उर्दू) आदि पत्रों में विस्तृत समालोचनाएँ हुई हैं। मेरठ के उर्दू पत्र अनीस हिन्द (29 जून 1898) ने भी एक कॉलम में रिव्यू किया था। अंगरेजी पत्रों ने भी अच्छी समालोचना की थी। लखनऊ के Advocate (Feb. 22, 1898) ने लिखा था-We have also received a copy of Maharana Pratap Singh a drama from the same author. Babu Radha Krishna Das is a standard author of Hindi and this book is one of his best productions.
आर्यचरित्र-(पृष्ठ 52) श्री वीरेश्वर पाण्डेय की बंगला पुस्तक का अनुवाद। यह खड्गविलास प्रेस के लिए लिखी गई थी, और वहीं 1896 में छपी। इसमें वाल्मीकि, वेदव्यास, कालिदास, शाक्यसिंह, शंकराचार्य, चाणक्य और विजयसिंह के जीवनचरित्रहैं।
दुर्गेशनन्दिनी-(पृष्ठ 174) यह बंगभाषा के विख्यात ग्रन्थकार बंकिम बाबू के प्रसिध्द उपन्यास का अनुवाद है। यह अनुवाद भी खड्गविलास प्रेस के लिए किया गया और वहीं से प्रकाशित हुआ।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवनचरित्र-(पृष्ठ 107) सन् 1900 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके पिता बाबू गोपालचन्द्र के जीवनचरित इन्होंने सरस्वती में प्रकाशित कराए थे। उन्हीं को जनवरी 1904 में सन्निवेशित कर और बहुत सी बातें बढ़ा कर इन्होंने यह पुस्तक तैयार की। इसमें बाबू हरिश्चन्द्र के जीवन से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हें केवल ये ही जानते थे। यदि ये उन बातों को न लिख जाते तो वे रह ही जातीं। पुस्तक ऐसे ढंग से लिखी गई है जिसमें संक्षेप में बहुत सी बातें आ जायँ।
46 पृष्ठ तक तो इसमें भारतेन्दु की वंश विरुदावली ही वर्णन की गई है जिसके स्थान पर यदि भारतेन्दु ही के जीवन से सम्बन्ध रखने वाली बातें आई होतीं तो अच्छा होता।
रहिमन विलास-रहीम के दोहों पर कुंडलिया। रहीम ने अपने दोहों में मनुष्य की सामाजिक स्थिति खूब दिखाई है। बाबू राधाकृष्णदास ने उनमें इन कुंडलियों को जोड़कर उनके भावों को और भी विस्तृत क्षेत्र में झलका दिया है। एक उदाहरण लीजिए-
अब रहीम घर घर फिरैं माँगि मधूकरी खाँहिं।
यारो यारी छोड़ दो अब रहीम वे नाहिं।।
अब रहीम वे नाहिं रहे जिनको मुख जोवत।
कौड़ी के भये तीन द्रव्य अपनो सब खोवत।।
रहिए इननो दूरि लेहिं नहिं माँगि कछू अब।
अब सब बातें गईं रहीं तब रहीं दास जब।।
नया संग्रह-यह पुस्तक इन्होंने पंडित सुधाकर द्विवेदीजी के साझे में सरकारी जूनियर सर्विस के कोर्स के लिए लिखी थी। इसमें महाभारत का सभापर्व इनका लिखा हुआ है।
सम्पादित ग्रन्थ
सूरसागर-यह सूरसागर भागवत के क्रम पर बारह स्कन्ध में है। भागवत कीसबकथाएँ इसमें आ गई हैं। यद्यपि इसके टाइटिल पेज पर बाबू राधाकृष्णदास सम्पादित लिखा हुआ है और उनका लिखा सूरदास का जीवन वृत्तान्त भी इसके साथ लगा दिया गया है पर ग्रन्थ को पढ़ने से प्रकट होता है कि बाबू राधाकृष्णदास ने इस ग्रन्थ का एक प्रूफ भी नहीं देखा है, हस्तलिखित कापी वेंकटेश्वर प्रेस में भेज दी है वहाँ के पंडितोंने जैसा जी में आया है पाठ अंडबंड करके छाप कर इसे किनारे किया है। यह संस्करणऔर दूसरे संस्करणों से भी भ्रष्ट है। मुश्किल से कोई पद ऐसा मिलेगा जिसका पाठ ठीक ठीक हो और जिसे बिना थोड़ी अपनी बुध्दि खर्च किए कोई पढ़ तक सके। सूरसागर यों ही कठिन ग्रन्थ है, इस संस्करण ने उसे और भी लोहे का चना बना दिया है।
सूरदासजी का एक पद है-
अति मलीन बृषभानु कुमारी।
हरि श्रमजल अन्तर तनु भीजे ता लालच न आवति सारी।
अधोमुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी।
छूटे चिहुर बदन कुम्हिलाने ज्यों नलिनी हिमकर की मारी।।
यह पद इस संस्करण में इस प्रकार छपा है-
अति मलीन बृषभानु कुमारी।
हरिश्रम जल अन्तर तनु भीजे ता लालच मधु आवत सारी।
अधोमुख रहति उरधा नहिं चितवति ज्यों गथहारे थकित यूथ अरी।
छूटे चिहुर बदन कुम्हिलाने ज्यों नलिनी हिमकर की मारी।।
बाबू राधाकृष्णदास ने जब यह देखा कि यह संस्करण ऐसा भ्रष्ट छपा है तब उन्होंने बड़े परिश्रम से इसका बड़ा भारी शुध्दि पत्र क्या शुध्दि पुस्तक बनाकर भेजी पर प्रेस उसे चुपचाप हजम कर गया।
भक्त नामावली-धारूवदास कृत। गोस्वामी हितहरिवंश के शिष्य धारूवदास ने 114 दोहों में भिन्न भिन्न काल के भक्तों के नाम गिनाए हैं जो भक्त नामावली के नाम से प्रसिध्द है। बाबू राधाकृष्णदास ने बड़े परिश्रम के साथ सब भक्तों का थोड़ा थोड़ा वृत्तान्त भी देकर इस पुस्तक को अच्छे ढंग से सम्पादित किया है। यह नागरीप्रचारिणी ग्रन्थमाला की पहली पुस्तक है जो सन् 1901 में पुस्तकाकार निकली।
सुजानचरित्र-सूदन कवि कृत। इसमें भरतपुर के जाट राजा सुजान सिंह के युध्दों का वर्णन उसी के आश्रित कवि ने किया है। इसमें 'अस्त्रा, शस्त्रा, कपड़े, गहने, बरतन, पशु, पक्षी, वाहन, मेवे, फल आदि यावत् पदार्थों के इतने नाम गिनाए हैं कि जिनका कुछ दिनों पीछे लोग नाम तक न जानेंगे'। बाबू राधाकृष्णदास की इच्छा थी कि 'इस ग्रन्थ में आए पदार्थों और शब्दों का एक छोटा सा कोश सा बना कर प्रकाशित' कर दिया जाय। पर वे अपनी यह इच्छा पूरी न कर सके। इस ग्रन्थ की खोज बाबू राधाकृष्णदास ने मुसलमानी राज्य के अन्तिम समय के प्रसिध्द इतिहासवेत्ता इरविन साहब के लिए की थी। यह नागरीप्रचारिणी ग्रन्थमाला की तीसरी पुस्तक है जो सन् 1903 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुई।
रासपंचाधयायी-नन्ददास कृत। यह नागरीप्रचारिणी ग्रन्थमाला की छठी पुस्तक है जो सन् 1903 में पुस्तकाकार प्रकाशित की गई।
जंगनामा-कवि श्रीधर कृत। इसका सम्पादन इन्होंने पंडित किशोरीलालगोस्वामी के साथ किया था। इसमें जहाँदार और फर्रुखसियर के युध्द का वर्णन है। यह नागरीप्रचारिणी ग्रन्थमाला का आठवाँ ग्रन्थ है जो सन् 1904 में पुस्तकाकार छापागया।
नहुषनाटक-यह बाबू हरिश्चन्द्र के पिता कवि गिरिधारदास का रचा हिन्दी का पहिला नियमबध्द नाटक है जिसे कविवचनसुधा के पहिले वर्ष के एक अंक से निकाल कर इन्होंने नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित कराया था। इस नाटक का एक ही अंक मिला है।
रामचरितमानस-जो इंडियन प्रेस से निकला है उसके पाँच सम्पादकों में ये भी थे। उसमें गोस्वामी तुलसीदास का जीवनचरित इन्हीं का लिखा है।
रामसहाय की सतसई
छीतस्वामी की पदावली
इन दोनों पुस्तकों को भी ये सम्पादित करने के लिए ठीक कर रहे थे, पर शायद पूरा नहीं कर सके।
1885 के पीछे के लेख और कविताएँ1
1. सूरदास मदनमोहन-यह लेख इन्होंने 29 अगस्त, 1895 को समाप्त किया था। कहीं अलग प्रकाशित नहीं देखने में आया।
1. 1885 के पहिले के लेखों और कविताओं का वर्णन पहले हो चुका है।
2. रोमन लिपि की अपूर्णता-यह लेख इन्होंने सितम्बर, 1895 में लिखा था जब रोमनलिपि के प्रचार की आशंका हुई थी, यह लेख प्रकाशित नहीं हुआ।
3. जुबिली पर कविता-यह कविता प्रीतिकुसुमांजलि में समावेशित की गई थी जिसका पाठ 21 जून, 1897 को हुआ था।
4. भारतवर्ष का इतिहास वा पुरातत्व-21 अगस्त, 1897 के 'विद्याविनोद' में प्रकाशित।
5. मैकडानलाष्टक-यह कविता इन्होंने दिसम्बर, 1897 में सर एंटोनी मैकडानल को एक इवनिंग पार्टी में समर्पित करने के लिए लिखी। जब लाट साहबने इसे पार्टी में लेना स्वीकार नहीं किया तब इन्होंने डाक द्वारा उनकी सेवा में भेजदी।
6. हिन्दी होने से मुसलमानों को भी सुबीता होगा-यह लेख फरवरी, 1898 में लिखा गया था और 'हिन्दोस्तान' पत्र में प्रकाशित हुआ था।
7. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर-मई 1898 में लिखा गया।
8. वर्षा वा देशदशा-यह कविता इन्होंने अक्टूबर, 1898 में लिखी थी और भारतमित्र (9 अक्टूबर) में प्रकाशित कराई थी। कविता खड़ी बोली में है। इनकी खड़ी बोली की यही एक कविता देखने में आई है जो नीचे दी जाती है।
देश दशा
फूले कास आस वर्षा की टूटी, पछवाँ वाय बही।
स्वच्छ हुआ आकास चिलकती धूप चार दिस छाय रही।।
पहिली वर्षा पाय खेत में पौधो जो थे हरखाए।
हाय धूप की तेजी से सो जाते हैं अब मुरझाये।।
कर कर आस किसानों ने जी जान लगा कर बोए थे।
सह कर धूप जेठ की चिल्ला बीज पास के खोए थे।।
सहैं आप दु:ख पेट जरावैं जिमींदार का पोत भरैं।
तिस पर मारी जाय फसिल तो कहो क्यों न बे मौत मरैं।।
सम्बत तिरपन के अकाल में टूट चुकी थी प्रजा सभी।
परै जो छप्पन में भी टोटा पनपेंगे फिर नहीं कभी।।
सम्बत छप्पन के फल सुन सुन उड़े होश थे पहिले से।
राजा प्रजा सशंकित थे औ सब के जी थे दहले से।।
जो वह बात हुई सच्ची तो रहा ठिकाना नहीं कहीं।
तो गारत यह आरत भारत होगा कुछ सन्देह नहीं।।
पाद्बचाल, मद्रास, बम्बई, राजस्थान आदि की ओर।
तरस रहे, असाढ़ही से, पर बूँद पड़ी नहिं कोई ठोर।।
कौन नाज की कहै ठिकाना कौन घास औ चारे का।
जल का टोटा, प्रान बचै क्यों जल बिन हाय बिचारे का।।
दीनबन्धुा करि नेह मेह आनन्द से जो तुम बरसाते।
हम भी जीते सुख से खाते उनको भी कुछ पहुँचाते।।
सहते सहते दु:ख जरजरित होय रहे हैं हम सब हाय।
जीवनधन! जीवन बिनु मारौ तो जीवन क्यों रहैं बचाय।।
नि:सन्देह भूल कर तुम को नित नित पाप कमाते हैं।
धारती माता को कुपूत हम बोझ से सदा दबाते हैं।।
पर हो खेल कूद में मायल बालक जो अघ करते हैं।
तुम्हीं कहो माँ बाप कभी भी सूली पर ले धारते हैं।।
जगतपिता, जगजीवन, जगनायक, जगस्वामी होकर भी।
जगजीवन अपराधा देख जीवन न देव, है उचित कभी।।
त्रााहि! दयानिधिा करुणासागर त्रााहि दीन के हितकारी।
बहुत भई अब द्रवौ नाथ! नवनीत प्रिया गिरिवरधाारी।।
सुनत बचन आरत दुखियन के दयासिन्धाु रुक सकै नहीं।
होय दयार्द्र तुरंत दिया है सब अपराधा बहाय यहीं।।
लगी झकोरन पुरवैया बादल भी कुछ कुछ दिखलाए।
गई आस कुछ बंधी फेर कर मुरझाए चित हरखाए।।
लगी टकटकी बादल के दिस, वह आये घन वह आये।
वह बिजली चमकी घन गरजे, वह देखो बादल छाये।।
हाय! हाय! यह बादल तो उड़ करके निकल गए उस ओर।
ऑंखें पथरा गईं न बरसे क्यों तुम ऐसे भए कठोर।।
मरे तो आपी हैं हम सब क्यों मार रहे हौ तरसा कर।
अब तो दया करो दुख नासो, सरसाओ कुछ बरसा कर।।
बोल उठा एक, मीठी सोंधी लपक इधर से आती है।
इठला इठला हवा और कुछ ठंढी खबर सुनाती है।।
झींसी भी कुछ पड़ी न घबड़ाओ पानी भी आता है।
आनन्द घन कर कृपा तुम्हारे सब दु:ख दूर बहाता है।।
जाते, आते, तरसा सरसा, कर निरास, दे आस कभी।
हँसा, रुला, गाली खा, बिनती करा, हरा दुख अन्त सभी।।
वह बरसे, सरसे, तरसे जिय सरसे सुख पर से सबही।
झर से निकल सके नहिं घर से, हर से नर नारी सबहीं।।
सूखत धान परा पानी सब धारा हरष के फूल उठी।
दीन किसान प्रसन्न अन्न अब पावेंगे दो चार मुठी।।
धन! धन! दीनदयाल तुम्हारी दया का पारावार नहीं।
कर दिया लहर बहर छिन भर में रहा न दुख का नाम कहीं।।
ठहर गई बाजार, दहल गए निठुर सभी गल्ले वाले।
रह गये लोग लोभ सब बह गए, भए अकाल के मुँह काले।।
पर जब दशा और प्रान्तन की याद करै जी काँप उठै।
दीनानाथ! दीन जन पर क्यों रह रह कर तू हाय रुठै।।
प्रभो दीन भारतवासी हम, तुम बिनु नहिं अवलम्ब कहीं।
तुम जो दया दीठ नहिं देखो, मरैं सभी सन्देह नहीं।।
नाम दया चित धारो, हुई अब बहुत, हरो दुख के रासी।
कृपा वारि सींचो भारत भुव, सुख पावैं भारतवासी।।
9. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र-इसे बाबू राधाकृष्णदास ने 'खड्गविलास प्रेस वालों की ढील से उकता कर' जनवरी 1899 में लिखा था। पर इसके छपने की नौबत जनवरी 1900 में आई जबकि सरस्वती मासिक पत्रिका की पहली संख्या निकली। सरस्वती का यह पहिला लेख है।
10. सेंबलिन-शेक्सपियर के नाटक की आख्यायिका। यद्यपि यह लेख अक्टूबर 1898 में लिखा गया था पर प्रकाशित हुआ जनवरी 1900 की सरस्वती में। शेक्सपियर के नाटकों की जो कई आख्यायिकाएँ बाबू राधाकृष्णदास ने लिखी हैं वे यथार्थ में बाबू हाराणचन्द्र रक्षित की बंगला पुस्तक से अनुवादित हैं लैंब की अंगरेजी पुस्तक से नहीं।
11. एथेंसवासी टाइमन-यह भी शेक्सपियर के नाटक की आख्यायिका है जो अक्टोबर 1898 में लिखी गई और फरवरी 1900 की सरस्वती में प्रकाशितहुई।
12. पेरिक्लिस-शेक्सपियर के नाटक की आख्यायिका। मार्च 1900 की सरस्वती में प्रकाशित।
13. छप्पन की विदाई, नए वर्ष की बधाई-(कविता) मार्च 1900 की सरस्वती में प्रकाशित।
14. लार्ड कर्जन-मार्च 1900 की सरस्वती में प्रकाशित।
15. राम जानकी-(कविता) जुलाई 1900 की सरस्वती में प्रकाशित।
16. कौतुकमय मिलन-शेक्सपियर के नाटक की आख्यायिका। सितम्बर और अक्टोबर 1900 की सरस्वती में प्रकाशित।
17. पृथ्वीराज प्रयाण-(कविता) ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली के अन्तिम हिन्दू सम्राट् महाराज पृथ्वीराज को बन्दी बना कर सुलतान शहाबुद्दीन गोरी अपनी राजधाानी में ले गया था।
उसी प्रयाण के समय का दृश्य इस कविता में बड़े ही हृयदद्रावक भावों के साथ दिखाया गया है। महाराज पृथ्वीराज अपनी जन्म-भूमि को सम्बोधन करकहतेहैं-
जननी हमैं सीख अब दीजै।
परम कुपूत पूत तेरो यह ताहि बिदा अब कीजै।
पूत कपूत होत बहुतै पै होति कुमाता नाहीं।
वरु कपूत पै अधिक मातु, रुचि होतै रही सदा ही।
रक्त प्रवाह बहाइ, जीति बहु देस छत्रा सिर धारयो।
राज बढ़ावन लोभ मातु हम देश बन्धुो बहु मारयो।
सोइ सब पाप आइ सिर नाच्यो छलियन के छल हारयो।
हाय मातु! तोहि दै मलेच्छ कर चहत विदेस सिधारयो।।
फिर अपने देश भाइयों की ओर फिर कर और ऑंखों में ऑंसू भर कर कहतेहैं-
भैया! मैया दै मलेच्छ कर हम तौ जात विदेसा।
तुम रच्छा करिहौं जहँ लौं बस होय न याहि कलेसा।।
जद्यपि पराधीन भए, पै जो आत्मपनो न बिसरिहौं।
धर्म, ऐक्य, विद्या अनुसरिहौं तौ अरि सीस विहरिहौं।।
जनि भूलौ निज पुरुषन के गौरव की भ्रात कहानी।
सिमिटि, शत्रु बल मेटि उबारौ भारत भुव सुखखानी।।
इतने में-
सुनत वचन ये म्लेच्छ सैन चहुँ दिसि सों गरजन लागी।
मुसुक बाँधिा भारतगौरव को भारत सों लै भागी।।
चिर स्वतन्त्रता, चिर गौरव सब इमि छिन माहिं बिलाई।
बँधि चिर दिन दासत्व-शृंखला, भारत भुव विलखाई।।
यह कविता लिखी तो गई थी नवम्बर 1900 में, पर छपी फरवरी 1901 की सरस्वती में। जिसे थोड़ी भी ममता अपने देश और जाति पर होगी इन मर्मस्पर्शी वाक्यों को पढ़कर उसके चित्त की दशा थोड़ी देर के लिए और ही हो जायगी।
18. विजयिनी विलाप-(कविता) यह लम्बी कविता इन्होंने महारानी विक्टोरिया की मृत्यु पर जनवरी 1901 में लिखी थी जो मार्च 1901 की सरस्वती में प्रकाशितहुई।
19. विक्टोरिया-शोक-प्रकाश-यह छोटा सा लेख भी इन्होंने महारानी की मृत्यु पर जनवरी 1901 में लिखा था, जो नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसमें महारानी विक्टोरिया का संक्षिप्त जीवन वृत्तान्त है।
20. भाषा कविता की भाषा-यह लेख 4 नवम्बर, 1901 की नागरीप्रचारिणी सभा के एक अधिवेशन में पढ़ा गया था और नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
21. बाबू गोपालचन्द का जीवनचरित-मई जून 1902 की सरस्वती में प्रकाशित।
22. प्रताप विसर्जन-(कविता) अप्रैल 1902 की सरस्वती में प्रकाशित। इसमें बाबू राधाकृष्णदास ने नन्ददास के भ्रमरगीत की चाल पर महाराणा प्रताप सिंह के पुत्र अमर सिंह की काँटे में उलझने वाली घटना का वर्णन किया है। महाराणा ने अपने पुत्र की अधीरता देख मेवाड़ राज्य का भविष्य जिस उदासी के साथ कहाहै उसके लिए कवि ने कैसा उपयुक्त स्थान और उदासी लाने वाली ऋतु चुनी है,देखिए-
मंद पवन सीरी बहै होन लगे पतझार।
पर्णकुटी नरसिंह लसत इक मानहुँ कोउ अवतार।।
23. श्रीराम प्रत्यागमन-(कविता) सरस्वती में प्रकाशित।
24. विनय सुनीति, जानकी जयमाल-मई, जुलाई 1902 की सरस्वती में प्रकाशित।
अपूर्ण और अप्रकाशित पुस्तकें
एक छोटा सा रूपक-(नाम नहीं दिया है) यह इनकी बहुत लड़कपन की रचना है। 5 दृश्य तक लिख कर इन्होंने इसे छोड़ा है। दूसरे दृश्य में दो स्कूली युवकों का संवाद है, तीसरे में रामकृष्णदास नामक उनमें से एक युवक का कम्पनी बाग में बैठ किसी युवती के लिए हाय हाय, चौथे में रामकृष्णदास के मनोरंजन के लिए गप्पीलाल की बकवाद और पाँचवें में युवा मनोरंजक समाज की कार्रवाई है। प्रस्तावना में इसको इन्होंने अपना दूसरा नाटक लिखा है। सम्भव है कि इसे इन्होंने दु:खिनी बाला के बाद ही आरम्भ किया हो और किसी कारण से छोड़ दिया हो।
एक इतिहास-इस इतिहास के केवल 12 पृष्ठ अर्थात् पृ. 58 से 69 तक मिले हैं जिनमें औरंगजेब के राजत्वकाल से लेकर अंगरेजों के जमाने तक का बंगाल का इतिहास है। आदि और अन्त के पन्ने नहीं मिले।
वर्ण-शिक्षा-यह लड़कों को वर्णों और वाक्यों का बोधा कराने के लिए जनवरी 1895 में बनाई गई थी।
खिलवाड़-यह पुस्तक भी बच्चों के लिए इन्होंने नागरीप्रचारिणी सभा के निमित्ता लिखी थी पर स्वीकृत नहीं हुई।
मीरा नाटक-इस नाटक में ये प्रसिध्द मीराबाई का वृत्तान्त बड़े परिश्रम के साथ अगस्त 1895 से लिख रहे थे। 13 दृश्य तक लिख चुके थे, पुस्तक समाप्त ही होने पर थी क्योंकि इसे शीघ्र छापने की सूचना इन्होंने महाराणा प्रताप सिंह की भूमिका में बड़े उत्साह के साथ दी थी। पर ईश्वर को हिन्दी साहित्य में इस एक पुस्तक का बढ़ाना अभीष्ट न था इससे यह प्रयाग में बक्स के साथ चोरी हो गई। इस पुस्तक को इन्होंने महाराणा प्रताप सिंह के साथ ही आरम्भ किया था इससे पाठक अनुमान कर सकते हैं कि इसकी रचना भी कैसी प्रौढ़ रही होगी।
सुदामा के तन्दुल-सुदामा का चरित्र उपन्यास के रूप में लिख रहे थे। इसकी प्रति देखने में नहीं आई।
दारोगा दफ्तर-प्रियालाल मुकर्जी की इस बंगला जासूसी उपन्यास माला का अनुवाद भी खड्गविलास प्रेस के लिए ये 1895 से कर रहे थे। 'चोर के घर ढँढोर' इस उपन्यास के कई परिच्छेद ये लिख कर छोड़ गए हैं। 'आसमानी लाश' नाम की कहानी में भी कुछ हाथ लगा है।
आनंदमठ-बंकिम बाबू के इस प्रसिध्द उपन्यास का अनुवाद श्री खड्गविलास प्रेस के लिए इन्होंने जुलाई 1901 से आरम्भ किया था। द्वादश परिच्छेद तक ये अनुवाद कर चुके हैं।
अनुवाद बहुत सुन्दर हुआ है। 'बन्दे मातरम्' गीत का अनुवाद इन्होंने इस प्रकार किया है-
बन्दे श्रीमातु चरन
मलयज सब ताप हरन
शस्य पूर्ण श्याम वदन
सुजल, सुफल माता।
सुमधुरभाषिनि सहास
रजनि-ज्योत्स्नाप्रकाश
प्रफुलित नव कुसुम रास
सुखद वरद माता।
सात कोटि कंठ गान
तासु द्विगुन कर कृपान
कौन कहत तोहि अबल
रिपुदल हर माता।
तुमहीं विद्या सुधर्म
तुमहिं हृदय तुमहिं मर्म
मधि शरीर तुमहिं प्रान
बहु बल धार माता।
तुमहिं बाहु शक्ति रूप
मधय हृदय भक्ति रूप
राजत प्रतिमा अनूप
मन्दिर प्रति माता।
राइ हाउस प्लाट-नामक रेनल्ड के अंगरेजी उपन्यास का अनुवाद भी तीन परिच्छेद तक करके इन्होंने छोड़ दिया है।
श्री श्यामसुन्दरदास की साहित्यिक पहेली
शब्दसागर की प्रस्तावना का रहस्य
[ अभ्युदय के पिछले एक अंक में श्री रामचन्द्र शुक्ल और श्री श्यामसुन्दरदास के दो लेखों में अक्षरश: समानता दिखलाते हुए, हमने यह सवाल उठाया था कि 'इन दोनों महारथियों के दो लेखों में इतनी समानता कहाँ से और कैसे आई?' हमने यह भी लिखा था कि हमारी यह निश्चित धारणा है कि श्यामसुन्दरदास अपनी किताबों के खुद लेखक हैं। ऐसी दशा में इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता कि सन् 1923 में श्री रामचन्द्रजी ने कैसे अपनी प्रस्तावना लिखने में श्री श्यामसुन्दरदास के सन् 1924 में प्रकाशित गोस्वामी तुलसीदास पर निबन्धा से इतना बड़ा अंश अक्षरश: नकल कर दिया। यह निबन्धा तो सन् 1924 में प्रकाशित हुआ था। तो फिर क्या यह बात हो सकती है कि यद्यपि यह प्रकाशित सन् 1924 में हुआ था परन्तु लिखा वह बहुत पहले गया था और श्री रामचन्द्र शुक्ल ने उसकी पांडुलिपि न सिर्फ पढ़ी बल्कि उसे अक्षरश: अपनी प्रस्तावना में नकल भी कर डाला। इस सम्बन्ध में हमारे एक विशेष संवाददाता ने श्री रामचन्द्र शुक्ल से भेंट की, जिसका विवरण हम नीचे छाप रहे हैं। इंटरव्यू को छापने के पहले शुक्लजी के पास हमने इस इंटरव्यू की एक नकल भेजी थी ताकि यदि उसमें कोई गलत बात कही गई हो तो वह उसे सुधार दें। पर शुक्लजी ने हमारे पास उसका कोई प्रतिवाद न भेजा। ऐसी दशा में, जब तक श्रीश्यामसुन्दरदास इस मामले में सही-सही बातों को प्रकट करने के लिए मैदान में न उतरें, हमें विवश होकर यही मानना पड़ेगा कि चोरी बाबू साहब ने की है।-सं. ]
जिस समय मैं शुक्लजी के यहाँ पहुँचा वह अन्दर थे। किन्तु यह जानकर कि कोई मिलने आया है, आप तुरन्त बाहर आ गए। शुक्लजी को इधर कुछ दिनों से दमे की शिकायत है, और आज तो थोड़ा ज्वर भी था। मुझे दु:ख हुआ कि ऐसे कुअवसर पर मैं पहुँचा। किन्तु जब आ ही गया था और शुक्लजी भी निकल ही आए थे, तब मैंने यह उचित ही समझा कि उनसे प्रश्न कर ही लूँ। पहले मैंने उनसे यह स्पष्ट कह दिया कि मैं अभ्युदय की ओर से उनसे भेंट करने आया हूँ। (क्योंकि बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, जिनको लोग निजी तौर पर कह देते हैं, पर जिन्हें खुलेआम नहीं कह सकते और मैं निजी तौर पर मुलाकात करके फिर उसे पत्र में छपवाने की जघन्य नीचता कर ही नहीं सकता।)
शुक्लजी ने पूछा - “क्या आज्ञा!”
मैंने कहा - “दो-तीन प्रश्न हैं।”
उन्होंने कहा - “कहिए!”
“रायबहादुर श्री श्यामसुन्दरदास ने 'भाषाविज्ञान' की भूमिका में यह लिखा है कि उनकी उस पुस्तक का अन्तिम परिच्छेद परिवर्ध्दित और परिशोधिात होकर 'हिन्दी शब्दसागर' की प्रस्तावना के रूप में छपा है। किन्तु प्रस्तावना पर आपका नाम है। ऐसा क्यों?”
“बात यों है कि प्रस्तावना का इतिहास वाला अंश मेरा लिखा हुआ था, शुक्लजी बोले। बाबू साहेब की यह इच्छा थी कि वह प्रस्तावना पुस्तक रूप में छपे और उस पर हम दोनों का नाम रहे। मुझे यह स्वीकार न था। इसलिए मैंने अपने लिखे अंश पर हस्ताक्षर कर दिया। बाबू साहेब ने ऐसा क्यों नहीं किया, यह तो वही जान सकतेहैं।”
“बाबू श्यामसुन्दरदास ने जो कुछ तुलसीदास पर लिखा है, उसमें ऐसे बहुत से अंश हैं जिन्हें हम आपके लेख में शब्दश: पढ़ चुके हैं। इसका क्या आप कोई कारण बता सकते हैं?” मैंने पूछा-
“मैंने बाबू साहेब की वह पुस्तक आज तक नहीं पढ़ी।” शुक्लजी ने उत्तर दिया। “मैं बिलकुल नहीं जानता कि उन्होंने क्या लिखा है।”
“क्या आप भाषा विज्ञान के लेखक हैं?”
“कौन कहता है।”
“लोगों की यही धारणा है।”
शुक्लजी हँसकर चुप हो रहे। दमे के रोग को वह दबाना चाहते थे। मैंने भी देखा कि अब उन्हें कष्ट हो रहा है। इसलिए इस प्रश्न का उत्तर लिए बिना ही मैं चला आया। ऊपर की बातचीत के समय एक सज्जन और भी उपस्थित थे। यद्यपि मैंने उस समय नोट नहीं लिए फिर भी पूरी बातचीत जहाँ तक सम्भव है, ज्यों-की-त्यों लिख रहा हूँ। शुक्लजी ने अपनी कैफियत दे दी है। क्या हम आशा करें कि सभा के सर्वस्व, रायबहादुर श्री श्यामसुन्दरदास भी मौन भंग करेंगे।
अभ्युदय -आपका संवाददाता
11 जून 1934
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