श्रृंखला / अखिलेश / पृष्ठ 1

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श्रृंखला / अखिलेश

बाबा धोती, कुर्ता और बंद गले का चित्तीदार कोट पहने थे। वह सुनिधि के दफ्तर के भव्य सोफा में सहमे हुए धँसे थे। सुनिधि उनके नजदीक आई। उसे वह कुछ पहचाने हुए लगे, 'किससे मिलना चाहते हैं आप?'

'सुनिधि से।'

'मैं हूँ बताइए।'

वह खड़े हो गए। चौकन्नेपन के साथ चारों ओर देख कर फुसफुसाए, 'मैं रतन का बाबा हूँ।'

'आप!', वह अर्से बाद इतना हैरान हो रही थी। लगभग चिल्ला पड़ी, 'कहाँ है रतन?'

'आहिस्ता बोलो बेटी।' उन्होंने लगभग सुनिधि के कान में कहा, 'रतन ने तुमको बुलाया है।'

इमारत से बाहर निकल कर बाबा बोले, 'वह बड़ी मुसीबत में है।'

सुनिधि चुप रही। वह अपनी कार पार्किंग से बाहर निकाल रही थी। जब कार आराम से सड़क पर चलने लगी तो बाबा ने बहुत उदासी से कहा, 'उसकी किस्मत ही मुखालिफ है। आँखें जनम से खराब, थोड़ा बड़ा हुआ - एक्सीडेंट में माँ बाप, भाई, बहन मर गए। और अब यह नई मुसीबत। लेकिन बिटिया वह बहुत भला लड़का है। पढ़ने में भी बहुत तेज था, हमेशा पढ़ाई में अव्वल आता था...।'

'पता है बाबा, मैं उसके साथ पढ़ी हूँ। बचपन में, और बड़ी हो कर भी।'

'बचपन में?' बाबा चकित हुए।

'हाँ मैं आपके पड़ोस में रहती थी, महेश चंद्र अग्रवाल की बेटी टीना।'

'अरे तुम टीना हो।' बाबा के होंठ जरा सा मुस्करा कर फड़के, 'मैं तुझे पहचान नहीं पाया।'

'बड़ी हो गई हूँ। उम्र फर्क ला देती है, बाबा। वैसे मैं भी आपको कहाँ पहचान सकी, जबकि आप अधिक नहीं बदले हैं।'

'झूठ मत बोलो टीना बिटिया, मैं जानता हूँ, मैं काफी बूढ़ा हो गया हूँ। मुझे अब तक भगवान के घर चले जाना चाहिए था लेकिन वह बुलाता नहीं मुझे। पहले सोचता था कि ऊपरवाला मेरा टिकट इसलिए नहीं भेज रहा है कि मैं रतन का ब्याह देखूँ। उसकी ब्याहता को मुँहदिखाई दूँ और उसके बच्चे खिला सकूँ लेकिन अब लग रहा है मैं काफी बुरे दिन देखने के लिए जिंदा हूँ।'

आँख की बीमारी पैदाइशी थी।

सुनिधि और वह बचपन में प्रतापगढ़ के एक ही मुहल्ले में पड़ोसी थे। वह अपने बाबा के साथ रहता था। सारे बच्चे उसे कौतुक, दया, डर और प्यार से देखा करते थे। क्योंकि सभी को मालूम था कि वह एक ऐसा बच्चा है जिसके माँ, बाप, भाई, बहन सड़क दुर्घटना में मारे जा चुके थे। आँखों की बीमारी ने उसे बचाया था, वर्ना वह भी मारा जाता। उस रोज प्रतापगढ़ में मद्रास के प्रसिद्ध शंकर नेत्र चिकित्सालय के कोई डॉक्टर आए थे इसलिए वह बाबा के पास रह गया था। मद्रास के डॉक्टर ने जाँच पड़ताल के बाद कहा था : 'इसकी आँखें कभी ठीक नहीं होंगी। चश्मा लगा कर भी यह उतना ही देखेगा जितना बगैर चश्मा के। हाँ इलाज से यह फायदा होगा कि इतनी रोशनी आगे भी बनी रहेगी और यह अंधा होने से बच जाएगा।' लौटते वक्त बाबा उसे अपनी छाती से चिपकाए रहे। रास्ते में उन्होंने उसके लिए रसगुल्ले खरीदे थे।

वह रसगुल्ले खा रहा था तभी घर के लोगों की मौत की खबर आई थी। बाबा ने उसके हाथ से रसगुल्लों का कुल्हड़ छीन कर फेंक दिया था। बाबा ने पहली और आखिरी बार उसके हाथ से कुछ छीना था। इसके बाद हमेशा उन्होंने उसे कुछ न कुछ दिया ही था। वह उसके लिए खिलौने खरीदने में समर्थ नहीं थे, तो खुद अपने हाथ से खिलौने बना कर देते थे। उनकी हस्तकला से निर्मित मिट्टी और दफ्ती की अनेक मोटरों, जानवरों, वस्तुओं ने बचपन में रतन कुमार का मन लगाया था। बाबा उसे खाना बना कर खिलाते थे और जायका बदलने के लिए मौसमी फल तोड़ कर, बीन कर लाते थे। वह पोते के स्वाद के लिए प्रायः आम, जामुन, चिलबिल, अमरूद और करौंदे के वृक्षों तले भटकते थे। उन्होंने पोते के लिए फटे कपड़ों की सिलाई करना और उन पर पैबंद लगाना सीखा। इतना ही नहीं उन्होंने अपने हाथों से लकड़ी गढ़ कर रतन कुमार को बल्ला, हाकी और तोते दिए थे।

लेकिन इस बच्चे को हर तरह से खुश करने की कोशिश के बावजूद उसे लगातार यह सबक भी सिखाते रहे कि वह खूब मन लगा कर पढ़े। पढ़ाई ही उसकी दुश्वारियों का तारणहार बनेगी, यह बात बाबा ने उसके दिमाग में शुरुवाती दौर में बैठा दी थी। नतीजा यह था कि किताबें उसे प्रिय लगने लगी थीं। छपे हुए शब्द उसको ज्ञान और मनोरंजन दोनों देते थे।

उसे किताबें चेहरे के काफी नजदीक रख कर पढ़नी पढ़ती थीं, हालाँकि पढ़ने में उसको तकलीफ होती थी। शायद इस तकलीफ को कम करने के लिए उसकी याद्दाश्त विलक्षण हो गई थी या हो सकता है कुदरत ने कोई चमत्कार किया था - वह जो भी पढ़ता सुनता तुरंत याद हो जाता था। इसलिए इम्तिहानों में वह हमेशा टॉप करता था। लोग उसकी स्मरणशक्ति से इतना हतप्रभ और भयभीत रहते कि प्रचलित हो गया था, उसको एक साधू का वरदान प्राप्त है, कोई किताब छूते ही उसके माथे में छप जाती है।

फिर भी वह बुझा बुझा रहता था, जैसे कोई बात, कोई बुरा सपना सताता रहता हो। दरअसल उसे वहम था कि अपने परिवार वालों की तरह उसकी और बाबा की मौत सड़क हादसें में होगी। हालत यह थी कि बाबा घर से निकल कर कहीं जाते तो वह तब तक थर थर काँपता था जब तक वह लौट कर वापस नहीं आ जाते थे। खुद भी सड़क पार करते उसके टखने काँपते थे। पर इस अंधविश्वास ने दूसरी तरफ उसे ऐसा निडर बना डाला था कि वह बड़ी से बड़ी विपत्ति में कूद पड़ता था। यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दिनों में वह एक कुख्यात गुंडे से भिड़ गया। गुंडे ने उसके मस्तक पर तमंचा रखा लेकिन खौफजदा होने के बजाय उसने गुंडे को कई झापड़ मारा। इसकी व्याख्या यह हुई कि आँखें कमजोर होने की वजह से उसे तमंचा दिखाई नहीं पड़ा था। प्रतापगढ़ से उसके साथ आई सुनिधि ने उससे पूछा था, 'तुम्हें डर नहीं लगा।' उसका जवाब था, 'क्यों डरता! मुझे पता है, मेरी मौत तमंचे नहीं एक्सीडेंट से होगी।'

अजीब बात थी उसे सड़क दुर्घटना की हमेशा चिंता रहती थी लेकिन अपनी दृष्टिबाधा को ले कर वह कभी परेशान नहीं दिखता था। बाद में ऐसा हुआ कि वह वास्तविकता से भी ज्यादा दृष्टिमंदता को कुछ बढ़ा चढ़ा कर प्रचारित करने लगा। नजदीक से ही सही, नन्हें अक्षरों को पढ़ लेने वाला वह कभी कभार सामने वाले को पहिचानने से इनकार कर देता अथवा गलत नाम से पुकारता। यह हरकत लड़कियों को विशेष रूप से आहत करती थी। वह छरहरी रूपयौवना को किसी अध्यापिका के रूप में संबोधित करता तो वह खफा हो जाती थी। दिल्ली के करोलबाग की एक प्रसि़द्ध दुकान से मँगाए गए दुपट्टे पहने लड़की से उसने कहा, 'लड़कियों में यह अगौंछा पहनने का फैशन अभी शुरू हुआ है?' लेकिन वह इतना मेधावी था, नाकनक्श से आकर्षक था और वक्तृता उसकी ऐसी पुरजोर थी कि लड़कियाँ पलट कर उसे जली कटी नहीं सुनाती थीं। उलटे इस वजह से उसकी ओर अधिक खिंचने लगती थीं। वे अकसर अपने को दिखा पाने के लिए उसके काफी पास खड़ी हो जातीं, तब वह यह कह कर आहत कर देता था, 'इतनी दूर खड़ी होने के कारण मुझको ठीक से दिखाई नहीं दे रही हो।' वे उदास हो जाती थीं। और तब शर्मशार हो जातीं जब उनकी सुडौल उँगलियों की नेलपालिश देख कर वह कहता, 'पेन लीक कर रही थी क्या जो उँगलियों में इतनी इंक पुती है।' एक लड़की की भाभी उसके लिए फ्रांस से लिपस्टिक लाई थी जिसकी लाली उसके होठों पर देख कर उसकी टिप्पणी थी, 'वैदेही, पान मत खाया करो, दाँत खराब हो जाएँगे।' ये सब देख कर लड़कों ने उसके विषय में घोषणा की, 'रतन कुमार एक नंबर का पहुँचा हुआ सिटियाबाज है और लड़की पटाने की उसकी ये स्टाइल है।' लेकिन जब इन्हीं में एक की शर्ट में पेन देख कर उसने कहा, 'तुम कंघी ऊपर की जेब में क्यों रखते हो, तुम्हारी पतलून में हिप पाकेट नहीं है?' तो लड़कों को भरोसा होने लगा कि रतन कुमार वाकई में कम देखता है। इस ख्याल में इजाफा एक दिन कैंटीन में हुआ। उसने समोसा चटनी में डुबोने के लिए हाथ नीचे किया तो वह प्लेट की जगह मेज पर जा गिरा था।

उस वक्त सुनिधि भी कैंटीन में बैठी हुई चाय पी रही थी। रतन कुमार की विफलता देख कर उसे दया आई और फिक्र हुई कि रतन की आँखें अब ज्यादा खराब हो गई हैं। उसने सोचा, इस बेचारे की नैया कैसे पार लगेगी। इसकी हालत यह है और इस संसार में इसका एक बाबा के सिवा कोई है भी नहीं जो अब बूढ़े हो गए हैं। उनके बाद कौन इसका ख्याल रखेगा। उसने खुद से कहा, 'मैं! मैं उसके बचपन की सखी, मैं इसका ख्याल रखूँगी।' उसे रतन पर बेपनाह अनुराग उमड़ा था और उसी पल से वह यूनिवर्सिटी में ज्यादा वक्त उसके संग रहने लगी थी। साथ रहते हुए, वह अपने भीतर खुशी, भरापन और सुकून महसूस करती थी। बस एक कमी उसको सालती थी कि क्या रतन कुमार उसे ठीक से पहिचानता भी है। घुटन उसमें इस रूप में प्रकट होती, 'क्या सैकड़ों के बीच वह मुझे पहचान सकेगा और कहेगा कि यह मैं हूँ।' संभावित जवाब उसे निराशा में डाल देता, 'मेरी त्वचा का रंग, मेरी गढ़न, मेरे शरीर की हलचल को वह कभी नहीं देख सकेगा।' अजीब बात थी, वह जितना ही अधिक इस कमी के बारे में विचार करती उतना ही अधिक रतन के प्रति लगाव महसूस करने लगती। जब उसे याद आता कि रतन की इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है तब शायद उसका रतन के प्रति लगाव अपने उत्कर्ष पर होता लेकिन वह यह सोच कर परेशान हो जाती कि कहीं इसकी आँखें पहले से भी ज्यादा खराब न हो गई हों। यदि वह एक दिन पूरी तरह अंधा हो गया तब? और आश्चर्यजनक रूप से ऐसी मनःस्थिति में उसके भीतर रतन कुमार के लिए प्यार कतई बढ़ता और उमड़ता नहीं था। वह अथाह खौफ से थर्रा उठती थी और रतन एवं स्वयं से छिटक कर दूर जा गिरती थी। फिर वह धीरे धीरे यह ख्याल करके अपने को सामान्य बनाती कि ऐसा नहीं होगा। उसकी नेत्र ज्योति बेहतर नहीं हुई होगी तो बदतर भी नहीं होगी। एक दिन लायब्रेरी के पास उसने पूछा, 'रतन पहले की बनिस्बत अब कैसा दिखता है?'

'बेहतर।' रतन ने बताया।

'क्या किसी नए डॉक्टर को दिखाया था।' वह उत्साहित हुई थी।

'डॉक्टर ने कहा था : 'तुम्हारी ज्योति तुम्हारे पास नहीं है इसलिए कम देखते हो।' अब मेरी ज्योति मेरे पास है।' उसने सुनिधि की हथेली को छुआ, 'अब तुम मेरे पास हो, मुझे सब दिखता है।'

'मतलब?' सुनिधि आधी भौचक्की आधी परम खुश थी।

'मतलब यह कि तुम्हारे टॉप की नीली बटनें वाकई खूबसूरत हैं।'

वह चौंक पड़ी थी।

और जब एक रेस्तरां के हल्के उजाले में उसने कहा, 'तुमने अपनी भौहें ठीक कराई हैं, अच्छी लग रही हैं।' तब वह और ज्यादा चौंक पड़ी थी। मगर अड़तालीस घंटे बाद वह एक सिनेमाहाल की सीढ़ियाँ ठीक से न देख सकने के कारण गिर पड़ा था। उसे टिटनेस का इंजेक्शन लगवा कर और मरहमपट्टी कराने के बाद सुनिधि ने पूछा, 'तुम्हें सीढ़ियाँ नहीं दिखतीं पर मेरी भौहें दिखती हैं, माजरा क्या है?'

'माजरा यह है कि मैं तुम्हारी भौंहें देखने में मसरूफ था, इसलिए सीढ़ियाँ न देख सका।' ऐसा वाक्य कह चुकने के बाद कायदन उसे मुस्कराना चाहिए था लेकिन वह बहुत शांत हो गया था। उसमें बहुत अवसाद, सचाई, उदात्तता और खामोशी उतर आई थी। ऐसा लग रहा था, उसकी बीमार आँखें छलक आएँगी, 'वाकई मुझे ठीक से दिखाई नहीं देता है। बात बस इतनी है कि मैं दो सीढ़ियों के बीच की जगह को भाँप नहीं पाया और गिर पड़ा।' वह रुका, जैसे कुछ खास बताने या छुपाने की तैयारी कर रहा हो। उसने एक लंबी साँस ली, गोया कोई दास्तान सुनाने जा रहा हो। वह बोला, 'तुम मेरी बात का यकीन नहीं करोगी, लेकिन सच यह है कि मेरे साथ ऐसा होता है... ऐसा होता है मुझमें कि मैं कभी कभी एकदम बहुत साफ देखने लगता हूँ। जैसे मेरी आँखों की बिगड़ी हुई रोशनी इकट्ठा हो कर वापस आ गई हो और तब मैं बहुत छोटी छोटी बारीक चीजें भी देखने लगता हूँ। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। तभी जब मैं गुस्सा, प्यार, नफरत या किसी दूसरे जज्बात से लबालब भरा होता हूँ। मेरी बात का भरोसा करो, तब मैं सूई में तागा तक डाल सकता हूँ। खोई हुई राई का दाना ढूँढ़ सकता हूँ। और इधर ऐसा हो रहा है क्योंकि तुम्हें देख कर मुझमें भावनाओं का समंदर उमड़ा हैं। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ सुनिधि।'

सुनिधि हँसी, उसे उसकी बात पर रत्ती भर एतबार नहीं हुआ। उसने यही नतीजा निकाला था कि इसने बड़ी होशियारी से इस मौके़ को अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के अवसर के रूप में इस्तेमाल कर लिया। यह ढंग उसे पसंद आया था इसलिए वह हँसी थी मोहक तरीके़ से। अगले ही क्षण वह चुप हो गई थी जैसे एक युग के लिए मौन इख्तियार कर लिया हो। और दुबारा हँस पड़ी थी जैसे एक युग के बाद हँसी हो।

लेकिन उसने झूठ नहीं कहा था, यह यूनिवर्सिटी छोड़ने के दो बरस बाद साबित हुआ था : दीपावली की अमावस्या वाली रात थी। सुनिधि के बेडरूम की लाइटें बुझी हुई थीं। सिर्फ एक मेज पर सात मिट्टी के दीप जल रहे थे। हर दीए की तेल में डूबी बाती का एक सिरा टिमटिमा रहा था। इस तरह सात टिमटिम रोशनियाँ कमरे में काँप रही थीं। कमरे में मद्धिम - झीनी-सी रोशनी थी। जैसे उनींदेपन में प्रकाश धीमे-धीमे साँस ले रहा हो। उन दीयों की रोशनी में सुनिधि के वक्ष भी जल रहे थे। सुनिधि की नग्न लंबी पीठ पर उसने धीमे से दाईं हथेली रखी, 'पीठ भी जल रही है।'

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