श्रृंखला / अखिलेश / पृष्ठ 2
'क्या बहुत गर्म?' सुनिधि ने पूछा
'हाँ।'
'क्या वाकई ?'
'हाँ। और तुम्हारी देह से प्रकाश भी झर रहा है।'
'और क्या?'
'और जैसे आतिशबाजी हो रही हो।' उसने कहा था और सुनिधि के दोनों वक्षों के मध्य चूमा था, 'यहाँ तिल है तुम्हारे।'
उसने तिल देखा था सुनिधि की गरदन के बाईं तरफ भी जहाँ केशों का इलाका खत्म होता था। उसने तिल देखा था नितंब पर और स्कंध पर और नाभि के थोड़ा ऊपर।
सुनिधि खौफ, हर्ष, अचंभा और उन्माद से सिहर उठी थी कि सात दीयों के नीम उजाले में वह उसके सूक्ष्मतम कायिक चिह्नों की शिनाख्त कर पा रहा है।
उस रात सात दीपक रात भर जलते रहे थे और वे दोनों रात भर जगते रहे थे। इसे यूँ भी कहा जा सकता है : सात दिए रात भर जगते रहे दो लोग रात भर जलते रहे।
वे उन दोनों के सबसे हँसमुख दिन थे। सुनिधि बड़ी पगार पर एक कंपनी में काम कर रही थी। वह भी विश्वविद्यालय में लेक्चरर हो गया था। कहते हैं कि इंटरव्यू के लिए बनी विशेषज्ञों की चयन समिति का एक सदस्य घनघोर पढ़ाकू था, जिसके बारे में चर्चा थी कि साक्षात्कार के समय प्रत्याशी के जाने और दूसरे के आने के अंतराल में वह किताब पढ़ने लगता था। यहाँ तक कि जब उसे प्रश्न नहीं पूछना रहता था जो वह पढ़ने लगता था। इस अध्ययनशील बौद्धिक की भृकुटि रतन कुमार को देख कर टेढ़ी हो गई थी। वह टेढ़ी भृकुटि के साथ ही बोला था, 'एक अध्यापक को जीवन भर पढ़ना होता है, आप इन आँखों के साथ कैसे पढ़ेंगे?' यह कह कर उसने पढ़ने के लिए अपनी किताब हाथ में ले ली थी। वह पृष्ठ खोलने जा रहा था कि उसे रतन कुमार की आवाज सुनाई पड़ी, 'पढ़ने के लिए अपनी आँखों और किताब को कष्ट क्यों दे रहे हैं, मैं जबानी सुना देता हूँ।' रतन कुमार ने आँखें मूद लीं और उस किताब को अक्षरशः बोलने लगा था। अर्द्धविराम, पूर्णविराम के साथ उसने पुस्तक का एक अध्याय सुना दिया था। इस किस्से में अतिरंजना का पर्याप्त हिस्सा होना निश्चित लगता है लेकिन यह तय है कि कमोबेश कुछ करिश्मा हुआ था, क्योंकि रतन कुमार को सिफारिश और जातिगत समीकरण के बगैर चुन लिया गया था।
नौकरी पा जाने के बाद वह बाबा को अपने पास रखने के लिए लाने प्रतापगढ़ गया था पर अकेला ही लौटा था बाबा कहीं जाने के लिए तैयार नहीं थे। उनकी दलील थी, 'इंसान जहाँ जिंदा रहे उसे वहीं मौत चुनना चाहिए। मैं यहीं प्रतापगढ़ में मरूँगा।'
'इनसान केवल जिंदगी चुनता है बाबा। मौत अपनी जगह और तरीका खुद तय करती है।' उसने बाबा से जिरह की।
'इनसान के हाथ में कुछ नहीं है न मौत के हाथ में। सब ऊपर वाले की मर्जी है। बस ये समझ कि उसकी मर्जी है कि तेरा बाबा प्रतापगढ़ में रहे।' बाबा ने एक तरह से इस प्रसंग को यहीं खत्म कर दिया था।
वह खाली हाथ वापस आ कर अपने अध्यापक जीवन में विधिवत दाखिल हो गया था। उसकी बाकी मुरादें पूरी हो रही थीं। वह अपने बचपन को याद करता था जब उसकी आँखों को देखते ही बाबा की आँखों में अँधेरा छा जाता था जो धीरे धीरे चेहरे पर इतना उतर आता कि चेहरा स्याह पड़ जाता था। उन दिनों लड़के उसकी आँखों का मजाक बनाते और बड़े उसके बंजर भविष्य को ले कर कोहराम मचाते थे। उसे खुद यही लगता था कि उसका जीवन काँटों की सेज है लेकिन अब वह काफी़ खुशनसीब नौजवान था उसके पास पसंदीदा नौकरी थी और सुनिधि के रूप में अद्वितीय हमजोली।
वह हर शाम सुनिधि के फ्लैट की तरफ चला जाता। वहाँ जाने का उसमें इतना उतावलापन रहता कि वह सुनिधि को फोन करके उसके होने न होने की दरियाफ्त तक नहीं करता था। इसलिए कई बार वहाँ जाने पर सुनिधि के फ्लैट में ताला पड़ा मिलता। तब वह उसके आने तक वहीं इर्द गिर्द सैर करने लगता था। सुनिधि ने उसे इस स्थिति में कई बार देखा था। एक बार उसने कहा, 'तुम आने के पहले फोन कर लिया करो तो इस तरह इंतजार नहीं करना पड़ेगा।'
'मुझे तुम्हारा मिलन पसंद है और तुम्हारा इंतजा़र भी। मैं तुम्हारी गैरहाजिरी में भी तुमसे मुलाकात करता हूँ और एक संत की तरह बेखुदी में चला जाता हूँ। तुम्हारे फ्लैट के बाहर टहलते हुए मैं कई बार इसी तरह संत बना हूँ।'
'तुम्हारा संत बनना बढ़िया बात है।' सुनिधि ने अपने फ्लैट के लॉक की डुप्लीकेट चाबी उसको दी, 'इसे अपने पास रखो। आइंदा से मेरे घर के बाहर नहीं भीतर आराम से संत बनाना।'
उसने चाबी पाकेट में रखते हुए कहा था, 'घर के अंदर मैं संत नहीं शैतान बनना चाहूँगा।' उसकी बात पर सुनिधि ने बनावटी गुस्सा दिखाया जिस पर वह बनावटी ढंग से डर गया था।
पर उस फ्लैट के लॉक को खोलना भी मुश्किल काम था। उसकी कमजोर आँखें लॉक के छिद्र को ठीक से देख नहीं पाती थीं। वह अंदाजा से चाबी यहाँ वहाँ कहीं रखता और आखिरकार एक बार दरवाजा खुल जाता था।
वह जाड़े की शाम थी। तूफानी ठंड पड़ रही थी। हिमाचल में बर्फबारी हुई थी, जिससे उत्तर प्रदेश भी सर्द हवाओं से भर उठा था। आज उसके पास कई थैले थे जिन्हें दीवार पर टिका कर वह लॉक खोल रहा था। किंतु उसकी उँगलियां ठंड से इतनी सिकुड़ गई थीं कि वह चाबी ठीक से पकड़ नहीं पा रहा था।
तभी सुनिधि आ गई थी और दरवाजा खोल कर दोनों भीतर पहुँचे सुनिधि ने सबसे पहला काम यह किया कि चाय के लिए पानी उबालने लगी। कुछ क्षणों के बाद दोनों के हाथ में चाय के ग्लास थे। चाय के गर्म घूँट से कुछ राहत पा कर सुनिधि ने आँखें इधर उधर फेर कर पूछा, 'आज बड़े थैले हैं तुम्हारे पास।'
'देखो जरा इनमें क्या है!' उसने दिखाया - तरह तरह की खाने की वस्तुएँ थीं और एक थैले में खूबसूरत नया स्वेटर था, 'ये सब तुम्हारे लिए।'
'बड़े खुश हो।'
'हाँ आज पहली बार वेतन मिला है। सोने में सुहागा यह कि एक और अच्छी बात हुई है।'
'इतनी देर क्यों लगा रहे हो बताने में?'
'बात यह है कि तुम जानती ही हो, मैं अखबारों के लिए कभी कभी लिखता रहा हूँ। आज सुबह जब मैं यूनिवर्सिटी के लिए निकल रहा था तभी 'जनादेश' के संपादक का फोन आया मेरे पास। वह कह रहा था कि मैं उसके अखबार के लिए नियमित कॉलम लिखूँ। मैंने अपने कॉलम का नाम भी तय कर दिया है 'अप्रिय'।'
'हमेशा प्रिय बोलने वाला रतन कुमार तू अप्रिय कैसे लिखेगा रे?' सुनिधि हँसी, उठ कर आलमारी तक गई, लौटते समय उसके पास रेड वाइन की एक बॉटल थी, 'ये खुशी चाय नहीं मदिरा से सेलिब्रेट की जाएगी मेरे कॉलमिस्ट।'
' शब्दों के शार्ट फार्म (लघु रूप) दरअसल सत्य को छुपाने और उसे वर्चस्वशाली लोगों तक सीमित रखने के उपाय होते हैं। अगर तुम सत्ता से लड़ना चाहते हो तो उसकी प्रभुता संपन्न संस्थाओं और व्यक्तियों को उनके पूरे नाम से पुकारो।'
रतन कुमार के स्तंभ 'अप्रिय' की पहली किस्त से साभार
स्वयं रतन कुमार को अंदाजा नहीं था कि उसका स्तंभ 'अप्रिय' इतना लोकप्रिय हो जाएगा। वह न पेशेवर पत्रकार था न राजनीतिक विश्लेषक लेकिन 'अप्रिय' ने पत्रकारिता, राजनीति, समाज में इतनी जल्दी जो ध्यानाकार्षण और शोहरत हासिल किया, वह बेमिसाल था। उसकी लोकप्रियता का आकलन इससे भी किया जा सकता है कि बांग्ला, उर्दू और गुजराती के अखबारों ने इसे अपने अपने अखबार में छापने के लिए जनादेश के संपादक से अनुमति माँगी थी। जबकि इसी प्रदेश के एक अंग्रेजी अखबार का रतन कुमार से अनुरोध था कि वह जनादेश के बदले उसके अखबार में लिखे।
अप्रिय की अभी तक की दस किस्तों ने रतन कुमार को एक नामचीन शख्सियत बना दिया था। ये दसों किस्तें वस्तुतः एक लेखमाला की तरह थीं जो शब्दों के लघुरूप और कूट संरचनाओं (कोड) पर आधारित थी। उसने प्रारंभ में ही आज के अखबारी फैशन के विपरीत राजनीतिक दलो को उनके पूरे नाम से पुकारा था। उसे भाजपा, सपा, बसपा, माकपा, आदि को उस तरह नहीं पूरे नाम से लिखा था। इसका कारण बताते हुए उसने कहा : 'किसी राजनीतिक दल का पूरा नाम एक प्रकार से उसका मुख्तसर घोषणापत्र होता है। उनके नाम के मूल और समग्र रूप में उनका इतिहास, उनके विचार सरोकार और जनता को दिखाए गए सपने शामिल रहते हैं।' उसने अपने मत को स्पष्ट करने के लिए माकपा का जिक्र किया था। उसने लिखा था: 'माकपा का मूल नाम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) है। इस संज्ञा से पता चलता है कि इसका निर्माण कम्यूनिज्म, मार्क्सवाद, क्रांति और सामाजिक परिवर्तन के सरोकारों के तहत हुआ था। आप सभी को मालूम है कि तमाम की तरह यह पार्टी भी आज इन सब पर कायम नहीं है। इसलिए 'माकपा' उसके लिए एक रक्षाकवच है। यह संबोधन अपने उद्देश्यों से इस पार्टी के फिसलन को ढँकता है और ऐसे भ्रम की रचना करता है कि साम्यवाद और सर्वहारा कभी इसकी बुनियादी प्रतिज्ञा थे ही नहीं। यही बात अपने नाम का संक्षिप्तीकरण करने वाले अन्य राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है।' इसे उसने कुछ दूसरे उदाहरणों से प्रमाणित भी किया था।
अगले दिन कुछ पाठकों ने काट करते हुए प्रतिक्रिया दी थी : आप दूर की हाँक रहे हैं। शार्ट फार्म महज वक्त और जगह की किफायत करने के इरादे से प्रचलन में लाए गए हैं। इस पर उसने अगली किस्त में उत्तर दिया था : 'फिर मुलायम सिंह यादव को मुसिया, नरेंद्र मोदी को नमो, सोनिया गांधी को सोगां और नारायण दत्त तिवारी को नांदति क्यों नहीं लिखा जाता।' उसने इन नामों को इस प्रकार नहीं लिखा था किंतु उसने अपने स्तंभ में लोगों की जाति हटा दी थी। अत: यहाँ पर अटल बिहारी वाजपेयी अटल बिहारी हो गए थे और शरद यादव सिर्फ शरद। उसने कई बाहुबली नेताओं को भी उनकी जाति से बेदखल कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि बबलू श्रीवास्तव सिमट कर बबलू हो गए, धनंजय सिंह धंनजय, अखिलेश सिंह अखिलेश बन कर रह गए।
नतीजा यह निकला : संपादक को अनगिनत मेल और फोन मिले जिनमें अधिसंख्य रतन कुमार की तारीफ में थे। कई ने रतन कुमार का मोबाइल नंबर माँगा था। लेकिन संपादक ने किसी को नंबर नहीं दिया। इसकी एक वजह यह थी कि उसे शक था कि प्रशंसकों में कुछ रतन कुमार के विरोधी हो सकते हैं जिन्हें नंबर देना रतन कुमार को खतरे में डालना था। दूसरा कारण यह था कि रतन कुमार ने संपादक को अपना फोन नंबर देने से रोक रखा था। क्योंकि आँखों के कष्ट के कारण मोबाइल स्क्रीन पर एस.एम.एस देखने पढ़ने में उसे दिक्कत होती थी। फिर भी जाने कहाँ से लोगों ने पता कर लिया था और उसे अपने कॉलम पर प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिदिन अनगिनत संदेश मिलते। वह उन्हें पढ़ता नहीं था। शाम को सुनिधि के फ्लैट पर वह अपना मोबाइल सुनिधि को दे देता था। और कहता था, 'तुम पढ़ कर सुनाओ।'
[[श्रृंखला / अखिलेश / पृष्ठ 1] ऐसा नहीं कि उन संदेशों में उसकी शान में कसीदे ही पढ़े गए होते थे। विरोध की भी आवाजें रहतीं। अनेक पार्टियों और नेताओं के समर्थकों ने उसके खिलाफ राय दी थी। जिसे उन्होंने पत्रों और प्रेस विज्ञप्तियों के मार्फत दैनिक जनादेश में भी अभिव्यक्त किया था। इनका मत था कि रतन कुमार उनके नेताओं को अपमानित करने के इरादे से उनके नाम को तोड़मरोड़ रहा है। उन्होंने तोहमत लगाई थी कि वह इस काम के एवज में भारतीय लोकतंत्र की दुश्मन किसी विदेशी एजेंसी से अनुदान पा रहा है।
अगले सप्ताह कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी उससे खफा हो गए थे। क्योंकि उसने अपने स्तंभ में उन अधिकारियों के अविकल नामों की एक सूची प्रस्तुत की थी जो अपने नाम संक्षेप में लिखते थे। इस सूची से उनको कोई असुविधा नहीं हुई जिनके नाम दूसरों ने प्यार से अथवा अपनी सहूलियत के लिए छोटे कर दिए थे। लेकिन जिन्होंने अपनी संज्ञा का नवीनीकरण अपने आप किया था वे रतन कुमार से बहुत नाराज थे या उसे पागल, सनकी कहते हुए उस पर हँस रहे थे। रतन कुमार ने सूची में बी.आर. त्रिपाठी को बचई राम त्रिपाठी, जी.डी. शर्मा को गेंदा दत्त शर्मा, पी.एस. अटोरिया को पन्ना लाल अटोरिया लिखा था और कोष्ठक में कहा था : (कृपया इनकी जाति हटा कर इन्हें पढ़ें)। सूची के अखीर में उसने टिप्पणी की थी : 'जो शख्स अपने नाम को असुंदर होने के कारण छुपा रहा है वह दरअसल अपने यथार्थ को छुपा रहा है। यही नहीं, वह सौंदर्यविरोधी कार्रवाई भी कर रहा है क्योंकि उसका नाम रखते वक्त उसके पिता, माँ, दादी, बाबा आदि के मन में जो ममता और सुंदरता रही होगी, वह उसका तिरस्कार कर रहा है। यह अनायास नहीं है कि यथार्थ और सौंदर्य के उपासक प्रायः अपने नामों को संक्षिप्त नहीं करते हैं। रवींद्रनाथ टैगौर, कबीरदास, तुलसीदास, यामिनी राय, विवान सुंदरम्, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, हबीब तनवीर, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने अपने नाम को छोटा करने की जरूरत नहीं महसूस की थी। प्रेमचंद जैसे उदाहरण जरूर हैं जो धनपत राय से प्रेमचंद बन गए थे किंतु ध्यान रहे, यह नाम संकीर्ण करने का उदाहरण नहीं है दूसरी बात यह ब्रिटिश हुक़ूमत के दमन से बचने का तरीका था और तीसरी बात धनपत राय के प्रेमचंद बनने का निर्णय उनका नहीं था बल्कि जमाना पत्रिका के संपादक दया नारायण निगम ने यह काम किया था।'
अभी 'पूरे नाम से पुकारो' विवाद चल ही रहा था कि उसने स्तंभ की पाँचवीं किस्त का प्रारंभ करते हुए लिखा था : 'किसी सत्ता से भिड़ने का सबसे कारगर तरीका है कि उसके समस्त सूत्रों, संकेतों, चिह्नों, व्यवहारों, रहस्यों, बिंबों को उजागर कर दो। हर सत्ता अपनी हिफाजत के लिए - शोषण और दमन करने की वैधता प्राप्त करने के लिए - समाज में बहुत सारी कूट संरचनाएँ तैयार करती है। ये कूट संरचनाएँ एक प्रकार से पुरानी लोककथा के राक्षस की नाभि हैं जहाँ उसका प्राण बसता है। वक्ष पर आघात करने से, गरदन उतार देने से वह राक्षस नहीं मरता है। वह मरता है नाभि पर मर्मांतक प्रहार से। इसलिए सत्ता से लड़ना है, उसका शिकार करना है तो उसकी नाभिरूपी ये जो कूट संरचनाएँ हैं उन्हें उजागर करना होगा। खोल कर रख देना होगा। पाठको! हर कोड को डिकोड करो, हर सूत्र की व्याख्या करो, हर गुप्त को प्रकट करो। क्योंकि कूट संरचनाएँ सामाजिक अन्याय और विकृतियों के चंगुल में फँस कर फड़फड़ा रहे सामान्य मनुष्य के सम्मुख लौहयवनिकाएँ होती हैं।'
रतन कुमार इतना चर्चा में आ गया कि व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा था यहाँ तक कि इलाहाबाद के एक कथा साहित्य के आयोजन में भी उसे बतौर विशेष वक्ता आमंत्रित किया गया था। वहाँ उसने जो कहा उसका सारांश है : 'मित्रो कला को यथार्थ और यथार्थ को कला बना दो। क्योंकि दोनों अकेले रहने पर सत्ता संरचनाएँ होती हैं, इसीलिए संसार के समस्त श्रेष्ठ लेखकों ने यथार्थ को कला बनाया और कला को यथार्थ बनाया। ध्यान में हमेशा रहना चाहिए कि आख्यान यथार्थ का उपनिवेश नहीं है जहाँ यथार्थ स्वयं को लाभकारी और मनमाने ढंग से काबिज कर ले। साथ ही आख्यान कला की तानाशाही भी कदापि नहीं है जो अपनी सनकों का भार लादती फिरे और जीवन तथा समाज की आवाजों को अनसुना करती रहे।'
वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक सेमिनार में उसके उद्गार ने वहाँ कोहराम मचा दिया था। उसने मत व्यक्त किया था : 'संस्कृत भी एक कूट संरचना है। इसके समस्त साहित्य और ज्ञान को बोलियों में लिखना इस सत्ता संरचना का विखंडन होगा। संस्कृत के श्लोकों, मंत्रों, कवित्त को अवधी, ब्रज, मागधी, बुंदेलखंडी में बोलो तो उनकी रहस्यमयता, अंहकार, श्रेष्ठता, महात्म्य और वर्चस्व की किलेबंदी ढह जाएगी।'
वाराणसी से लौटते वक्त वह बाबा के पास प्रतापगढ़ में रुक गया था। बाबा बहुत खुश हुए थे, जैसे वह अभी भी बच्चा हो। अपने बगल बैठे हुए रतन कुमार का सिर उन्होंने अपनी गोद में रख कर उसके बालों को सहलाया, 'बचवा तुम्हारी फोटू अखबारों में छपती है देख कर छाती चौड़ी हो जाती है।'
'बाबा फोटो ही देखते हो या मेरा लिखा पढ़ते भी हो।'
'पढ़ता हूँ पर कितना समझ पाता हूँ, पता नहीं।'
'क्या समझे हो?'
'यही कि तू बड़ा दिमागवाला हो गया है।' बाबा ने हँस कर उसके बालों को हिलोर दिया, 'मालुम है, एक दिन कलक्टर साहेब मुझे बुलवाए थे। कप्तान भी वहीं बैठे थे। दोनों बड़ी देर तक तुम्हारे बारे में पूछते रहे।'
वह चौंक कर उठ बैठा, 'मेरे बारे में पूछते रहे या पूछताछ करते रहे?'
'बिलावजह शक मत किया कर। कलक्टर और कप्तान साहेब दोनों तुम्हारी तारीफ कर रहे थे और पूछ रहे थे तेरे बचपन के बारे में, तेरी आँखों, तेरी आदतों के बारे में। उन्होंने बड़े गौर से मेरी बातें सुनीं। चाय पिलाई। मेरा तो रुआब बढ़ गया रे रतन।' बाबा की आवाज भावुकता के कारण भर्रा उठी थी।
उसने इस यात्रा में भी दोहराया था, 'बाबा चलो न मेरे साथ। मेरा बहुत मन है कि तुम मेरे पास रहो।'
बाबा ने भी दोहराया था, 'अब आखिरी बेला है मेरी जिंदगी की। जहाँ जिया वहीं मरूँ बस यही ख्वाहिश है।'
वह अकेले ही लौटा था। जब वह पहुँचा, रात हो चली थी। पहले सोचा कि सुनिधि के फ्लैट पर चला जाए, लेकिन उसने घड़ी देखी और मन बदल लिया। रेस्टोरेंट में खाना खा कर सीधे अपने मकान पर आ गया। वह अभी घर में घुसा ही था कि पुकार घंटी बजी... 'कौन हो सकता है इस वक्त' बुदबुदाते हुए उसने उठ कर दरवाजा खोला। वे चार लोग थे जो भीतर घुसे थे। आते ही उनमें से एक ने रतन कुमार को धकेल दिया जिससे वह भहराता सँभलता मेज और बेड के बीच की जगह में गिर पड़ा। उनमें से दूसरा हँसा, 'अबे सूरदास की औलाद, दिखाई पड़ता नहीं और बड़का डिकोडबाज बने हो।' उसने अपना रिवाल्वर निकाला, 'सिर्फ एक बार दगेगी ये और टिटहरी जैसा तू खत्म।' उसने रतन कुमार को एक लात लगाई, 'शांती से रह और शांति से सबको रहने दे पत्रकार बनने का शौक क्यूँ चर्राया है? मास्टर है मास्टरी कर।' जाते समय चारों ने हाथ पैर रतन कुमार पर आजमाए थे और एक ने लंबी फालवाला कोई औजार उसकी गरदन पर रख कर कहा था, 'ऐ काँणे अभी मार दूँ तुझको।'
उनके चले जाने के बाद रतन कुमार ने उठ कर दरवाजा बंद किया। उसने पाया कि वह डरा हुआ है लेकिन उसमें मृत्यु की दहशत नहीं थी। दरअसल उसका यह अधंविश्वास अभी तक बरकरार था कि उसकी मृत्यु सड़क दुर्घटना में होगी न कि किसी हथियार से। इसीलिए सामने आता हुआ कोई वाहन उसके लिए रिवाल्वर या धारदार हथियार से अधिक खौफनाक था। उसने एक गिलास पानी पिया था और थाने में रिपोर्ट लिखाने के लिए मजमून तैयार करने लगा था।
क्या रतन कुमार पर वाकई हमला हुआ है ?
उत्तर www.livejanadesh.com पर दें या 54343 पर एस.एम.एस. करें।
इत्तेफाक था या इसके पीछे कोई योजना थी कि रतन कुमार पर हमले के प्रसंग ने तूल पकड़ लिया। एक अन्य समाचारपत्र ने रायशुमारी के लिए उपरोक्त प्रश्न को दूसरे ढंग से पूछा था : रतन कुमार पर हमले की बात झूठ का पुलिंदा है?
रतन कुमार प्रसंग की मीडिया में जो इतनी अधिक चर्चा हो रही थी, उसके बारे में बहुत सारे लोगों का मानना था कि यह मीडिया के भेड़ियाधसान और परस्पर होड़ का नतीजा है। कुछ इसमें मुख्य विपक्षी दल का हाथ खोज लिए थे जिसके अनुसार सरकार की फजीहत करने के लिए विपक्षी नेता ने भीतर ही भीतर इस प्रसंग की आँच को हवा दी थी। तीसरी चर्चा, जो आमतौर पर पत्रकारों के बीच ही सीमित थी, यह कि ये रतन कुमार छटा हुआ अंधा है। कॉलम की शोहरत से पेट न भरा तो ये नया शगूफा छेड़ दिया। फिलहाल वस्तुस्थिति यह थी रतन कुमार के मुद्दे पर माहौल गर्म हो रहा था।
एक अखबार ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक का साक्षात्कार छापा था जिसमें सवाल था : रतन कुमार के हमलावरों को पकड़ सकने में पुलिस विफल क्यों रही है? इसका जवाब उसने यूँ दिया था : रतन कुमार पुलिस का सहयोग नहीं कर रहे हैं। हम उन पर आरोप कतई नहीं लगा रहे हैं कि उनकी दिलचस्पी गुनहगारों को पकड़े जाने से ज्यादा इस बात में है कि पुलिस बदनाम हो लेकिन इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि उनके बयान में इतने अधिक अंतर्विरोध हैं कि उन पर हमले की बात गढ़ी गई दास्तान लगने लगती है। रतन कुमार हमलावरों का न हुलिया बता पाते हैं न नाम। कहते हैं कि नाम बताने का अपराधियों ने कष्ट नहीं किया और हुलिया बताना इसलिए मुमकिन नहीं क्योंकि उन्हें साफ दिखाई नहीं पड़ता है। बस इतना सुराग देते हैं कि दो मोटे थे दो पतले। सबसे मुश्किल बात यह है कि रतन कुमार को अपने से किसी की दुश्मनी से साफ साफ इनकार है और ऐसी किसी वजह से हमला होने को आशंका को वह खारिज करते हैं। दूसरी तरफ वह कहते हैं कि उनके घर पर न लूटपाट हुई न छीनाझपटी। अब ऐसी दशा में अपराधियों को गिरफ्तार करना काफी मुश्किल हो जाता है किंतु हम पूरी कोशिश कर रहे हैं और उम्मीद है कि जल्द ही सच्चाई पर से परदा हटेगा।
उपर्युक्त अखबार के प्रतिद्वंद्वी अखबार ने बढ़त लेते हुए अपने संपादकीय पृष्ठ पर आमने सामने स्तंभ में राज्य के पुलिस महानिदेशक और रतन कुमार मय अपनी अपनी फो़टो के परस्पर रूबरू थे। पुलिस महानिदेशक खल्वाट खोपड़ी वाला था। उसकी वर्दी पर अशोक की लाट की अनुकृति चमन रही थी और उसकी खोपड़ी के ऊपर धरी कैप के सामने भी अशोक की लाट टँगी हुई थी, इसलिए उसका खल्वाट अदृश्य था और उनसठ का वह 65 का दिखने के बजाय 55 का लग रहा था। रतन कुमार की तसवीर से लग रहा था कि वह एक कृशकाय नौजवान है। उसके होंठों पर मामूलीपन था और आँखों में चौकन्नेपन की फ़़ुर्ती थी लेकिन कुल मिला कर लगता था कि उसकी नींद पूरी नहीं हुई है। ऐसा उसके बिखरे हुए बालों और पुरानी टाइप के कालर वाली कमीज के कारण भी हो सकता था।
पुलिस महानिदेशक की टिप्पणी का सार था : रतन कुमार एक महत्वपूर्ण पत्रकार हैं और मैं स्वयं उनका स्तंभ 'अप्रिय' बड़े चाव से पढ़ता हूँ। मेरे परिवार के सदस्य मुझसे भी अधिक उनके प्रशंसक हैं। इसके बावजूद कहना चाहता हूँ कि प्राथमिकी में उनकी शिकायतें ठोस तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। उनके स्तंभ को ध्यानपूर्वक पढ़नेवाले जानते होंगे कि वह ऐसी बातें लगातार लिखते रहे हैं जो मौलिक, विचारोत्तेजक होने के बावजूद यथार्थवादी जरा कम होती हैं जबकि लेखन का महान तत्व है यथार्थ। कहना जोखिम भरा होने के बावजूद कह रहा हूँ कि उनकी प्राथमिकी भी जैसे उनके स्तंभ की एक किस्त हो। फिर भी हम गहन छानबीन कर रहे हैं और हमारी तफ्तीश जरूर ही किसी मुकाम पर पहुँच जाएगी। निश्चय ही हमें मालूम है कि रतन कुमार जी स्तंभकार पत्रकार होने के साथ साथ विश्वविद्यालय में सम्माननीय अध्यापक भी हैं, इसलिए कोई मुलाजिम उनके मामले में लापरवाही, बेईमानी करने की गुस्ताखी नहीं कर सकता। अंत में श्री रतन कुमार जी से अनुरोध है कि कृपया वह अपने आरोप के समर्थन में कुछ तथ्य और प्रमाण भी पेश करें, ताकि हमें अपराधियों तक पहुँचने में मदद मिले।
रतन कुमार ने अपना पक्ष एक संबोधन के रूप में प्रस्तुत किया था। उसमें लिखा था : प्रिय दोस्तो! यह बिल्कुल सही है कि अपने खिलाफ हुई कारगुजारी को उजागर करने वाले तथ्य और सबूत मैं पेश नहीं कर पा रहा हूँ लेकिन क्या तथ्यों और सबूतों को मुहैया कराना - उनकी खोज करना और उन्हें सुरक्षित रखना पीड़ित का ही कर्तव्य होता है। इन चीजों की नामौजूदगी के कारण पुलिस कह रही है कि उसे अपराधियों को गिरफ्तार करने में असुविधा हो रही है। हमलावारों की गिरफ्तारी और दंड से अधिक मेरी रुचि इसकी पड़ताल में है कि वे लोग क्यों मेरे विरुद्ध हैं? बेशक वे चार गुंडे थे और उन्हें किसी ने हमला करने का आदेश दिया था। मैं जानना चाहता हूँ कि मेरी किस बात से कोई इतना प्रतिशोधमय हो गया? मैं भी कहता हूँ कि वे लुटेरे नहीं थे। मेरे पास लूट के लिए कुछ खास है भी नहीं। मेरे घर में कोई कीमती सामान नहीं, सिवा मेरी कलम, कागज और मेरे दिमाग के। मेरे घर का तो पंखा भी बहुत धीमी चाल से टुटरूँ टूँ चलता है और खड़खड़ करता है। इसलिए तय है कि कोई या कुछ लोग मुझसे रंजिश रखते हैं लेकिन क्यों, इसी का मुझे जवाब चाहिए। किंतु पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठती है और रटंत लगाए है कि कानून बगैर सबूतों के काम नहीं करता। साथियो, सबूत की इसी लाठी से राज्य ने हर गरीब, प्रताड़ित और दुखियारे को मारा है। आज इस देश में असंख्य ऐसे परिवार हैं जो अन्न, घर, स्वास्थ्य, शिक्षा से वंचित हैं किंतु राज्य इनकी पुकार सुनने की जरूरत नहीं महसूस करता है। क्योंकि इन परिवारों के पास अपनी यातना को सिद्ध करने वाले सबूत नहीं हैं। हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार के अनगिनत मुजरिम गुलछर्रे उड़ाते हैं क्योंकि उनके अपराध को साबित करने वाले सबूत नहीं हैं। पुलिस, सेना जैसी राज्य की शक्तियाँ जनता पर जुल्म ढाती हैं तथा लोगों का दमन, उत्पीड़न, वध, बलात्कार करके उन्हें नक्सलवादी, आतंकवादी बता देती हैं और कुछ नहीं घटता है। क्योंकि सबूत नहीं है। इसी सबूत के चलते देश के आदिवासियों से उनकी जमीन, जंगल और संसाधन छीन लिए गए क्योंकि आदिवासियों के पास अपना हक साबित करने वाले सबूत नहीं हैं। न जाने कितने लोग अपने होने को सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, बैंक की पासबुक, ड्राइविंग लाइसेंस या पैन कार्ड नहीं हैं। वे हैं लेकिन वे नहीं हैं। दरअसल इस देश में सबूत ऐसा फंदा है जिससे मामूली और मासूम इनसान की गरदन कसी जाती है और ताकतवर के कुकृत्यों की गठरी को पर्दे से ढाँका जाता है।
और जब यह मुद्दा, जो प्रदेश की विधान सभा के नेता विपक्ष के शब्दानुसार मुद्दा नहीं बतंगड़ था, टेलिविजन के एक राष्ट्रीय चैनल पर उठ गया तो प्रदेश के मुख्य सचिव ने एक ही तारीख में दो बैठकें बुलाईं। पहली बैठक 15.40 पर और दूसरी 16.15 पर। पहली बैठक प्रदेश के सूचना निदेशक के साथ हो रही थी। मगर उसके पहले 'मुद्दा नहीं बतंगड़ है' की चर्चा।
विधान सभा के नेता विपक्ष की एक प्रेस कांफ्रेंस में रतन कुमार पर हमले के बारे में प्रश्न होने पर उन्होंने हँसते हुए कहा था - यह बतंगड़ है, जो सरकार के पुलिस महकमे की शिथिलता और बदजबानी के कारण मुद्दा बनता जा रहा है। मैं इसे दिशाहीन नहीं दिशाभ्रष्ट सरकार कहता हूँ। इस सरकार की प्रत्येक योजना तथा जाँच की तरह रतन कुमार जी का प्रकरण भी दिशाभ्रष्ट हो गया है। हालाँकि रतन कुमार जी का भी कसूर है कि वह साफ साफ बता नहीं रहे हैं कि हमला सरकार द्वारा प्रायोजित है जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गला घोटने के इरादे से किया गया है।' इसके बाद उन्होंने कई अन्य प्रश्नों का जवाब देने के बाद अंत में मुख्यमंत्री से इस्तीफे की माँग की थी।
सत्ता पार्टी के मुँहजोर प्रवक्ता ने शाम की नियमित प्रेसवार्ता में जवाब दिया : 'रतन कुमार पर हमले के शक की सुई माननीय नेता, विपक्ष की ओर घूम सकती है। क्योंकि वह अपने नाम को शार्ट फार्म में लिखते हैं और अंत में अपनी जाति भी लिखते हैं, जिसका रतन कुमार जी हमेशा विरोध करते रहे हैं। लगता है कि माननीय नेता विपक्ष को इससे मिर्ची लग गई है, जो वह इस प्रकार अनापशनाप बोल रहे हैं। उनके बारे में हमारा यही कहना है कि उन्होंने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है।'
अगली प्रेस वार्ता में नेता विपक्ष ने उस प्रवक्ता को 'यमला पगला दिवाना' कहा था और कहा था, 'भगवान मूर्खों को सद्बुद्धि दे।' और हँस पड़े थे। उनका यह बयान बाद की बात है, उसके दो दिन पहले जब मुख्य सचिव ने मध्याह्न में दो बैठकें की थीं और 15.40 पर सूचना निदेशक उनके कमरे में थे। सूचना निदेशक 2001 बैच का आई.ए.एस. अधिकारी था और चाहे जो सरकार हो, वह महत्वपूर्ण पदों पर तैनात रहा।
'तुम ये बताओ कि रतन कुमार क्या बला है?' मुख्य सचिव ने एक फाइल पर हस्ताक्षर करते हुए पूछा।
'सर! सर बस ये है कि सर... रतन कुमार वाकई एक बला है सर!' सूचना निदेशक कुशल वक्ता था किंतु अपने से वरिष्ठ अफसरों, मंत्रियों के सामने घबरा कर बोलने का अभिनय करता था। वस्तुतः यह उसका सम्मान दर्शाने का तरीका था कि महोदय, आप देखें आप इतने खास है कि आपने सामने मेरी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई है। उसकी यह अदा मुख्य सचिव को पसंद आई।
'चाय पियो।' मुख्य सचिव अपनेपन से बोला। वह अपना बड़प्पन दिखा रहा था कि मातहत अफसरों के साथ उसके बर्ताव में सरलता रहती है।
सूचना निदेशक ने ऐसा धन्यग्रस्त चेहरा बनाया कि जैसे मुख्य सचिव के अपनत्व से उसकी घबराहट खत्म हो गई। उसने 'थैंक यू सर' कह कर चाय का घूँट लिया, 'सर, ये रतन कुमार कोई प्रोफेशनल पत्रकार नहीं है, यूनिवर्सिटी में लेक्चरार भर है, सर। अपने कॉलम में क्या कूट रचना, डिकोड वगैरह बकता रहता है सर।'
'पर काफी पढ़ा जाता है वह। सुनते हैं कुछ दिन आंध्र प्रदेश के आदिवासियों के बीच रहने के कारण उसका कॉलम नहीं छपा तो अखबार की बिक्री घट गई।'
सूचना निदेशक को लगा, मुख्य सचिव रतन कुमार का प्रशंसक है सो उसने कहा, 'कुछ भी हो सर, ये शख्स है जीनियस।'
'अच्छा!' मुख्य सचिव ने ऐसे कहा जैसे उसे कोई नई जानकारी मिली हो, 'तुम ये बता सकते हो कि रतन कुमार के बारे में अफवाहें क्या हैं?'
'अफवाहें?' सूचना निदेशक ने न समझने का अभिनय किया। हालाँकि वह जान गया था, अफवाहें से मुख्य सचिव का आशय है, रतन कुमार की कमजोरियाँ।
'हाँ अफवाहें।' मुख्य सचिव बोला, 'हर मशहूर आदमी के बारे में अफवाहें होती हैं मसलन कुछ सच्ची झूठी चर्चाएँ जो अंततः उसके खिलाफ जाती हैं।'
'सर, एक यह कि रतन कुमार को दिखता बहुत कम है।'
'यह अफवाह है या फैक्ट।'
'फैक्ट सर फैक्ट...।' उस पर फिर सिट्टी पिट्टी गुम होने का दौरा पड़ा।
मुख्य सचिव ने फिर बड़ापन दिखाया, 'इसके परिवार में कौन कौन हैं?'
'एक बूढ़ा बाबा है सर। बाकी लोग, इसके बचपन में एक एक्सीडेंट में मर गए थे।'
'बीवी?'
'शादी नहीं हुई, सर।'
'आँखों के कारण कौन लड़की चुनेगी इसे।'
'नहीं सर, इसकी एक प्रेमिका है सुनिधि। सुनते हैं बचपन की दोस्ती है।'
'ओह!' मुख्य सचिव हँसा।
'जी सर।' सूचना निदेशक मुस्कुराया।
'और कोई बात?'