श्रृंखला / अखिलेश / पृष्ठ 3
'और सर।' अब तक सूचना निदेशक को यकीन हो गया था कि मुख्य सचिव रतन कुमार का प्रशंसक बिल्कुल नहीं है, 'सर इसका जो नाटक है कि चीजों को, व्यक्तियों और संस्थाओं को उनके पूरे नाम से पुकारो, सर ये उसकी एक कमी के कारण है। सुनते हैं कि इतना पढ़ाकू होने के बावजूद इसे शार्ट फार्मवाले लफ्जों के मतलब समझ में नहीं आते। लोग बताते हैं कि इसीलिए ये दिमाग से तेज होते हुए भी किसी कंपटीशन में सेलेक्ट नहीं हुआ। सर ये मो.क.चं.गां. का अर्थ नहीं जानता था जबकि गांधी वांङ्मय इसको रटा हुआ था।'
'क्या इसको बहुत कम दिखता है?' मुख्य सचिव ने पूछा।
'काफी कम। किताबें पत्रिकाएँ आँखों से सटा कर पढ़ता है तब अक्षर दिखते हैं। सर इसी इसलिए पढ़ते वक्त इसकी नाक कागज पर रगड़ खाती चलती है।'
'और कुछ?'
'सर इसकी याददाश्त बड़ी जबरदस्त है। एकदम कंप्यूटर है इसका दिमाग। सब सेव हो जाता है सर।'
'शराब वगैरह ज्यादा पीता है?'
'शायद ऐसा नहीं है सर।' सूचना निदेशक ने मायूस हो कर कहा।
'इसको सरकार से पत्रकार कोटे में मकान वगैरह मिला है?'
'नहीं सर।'
'सरकार से कोई फायदा?'
'नो सर।' लग रहा था, सूचना निदेशक निराशा के मारे रो पड़ेगा।
'इसकी उम्र क्या है?'
'यंग है सर।'
'कोई अपनी प्रापर्टी बनाई है इस बीच?'
'नहीं सर।'
'ठीक।' यह इशारा था कि बैठक खत्म। इस समय घड़ी में शाम के चार बज रहे थे। 16.15 पर मुख्य सचिव ने जो दूसरी बैठक की उसके विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि उस बैठक के बारे मुख्य सचिव के निजी सचिव का कहना है कि ऐसी कोई बैठक रखी ही नहीं गई थी। उस दौरान साहब अपने कक्ष में अकेले बैठे मोबाइल पर लंबी वार्ता कर रहे थे जो लगभग पैंतालीस मिनट हुई होगी। जबकि चपरासी का कहना है कि एक महिला कमरे में गई थी और कुछ देर बाद लौट आई थी।
एक अंदेशा है कि अपराध अनुसंधान विभाग का महानिरीक्षक मुख्य सचिव के कमरे में घुसा था, वह समय ठीक 16.15 का था। उसके विभाग के एक इंस्पेस्टर ने बीस दिन रतन कुमार की खुफिया पड़ताल करके एक रिपोर्ट बनाई थी। मुख्य सचिव के कमरे में जाते समय महानिरीक्षक के दाएँ हाथ की चुटकी में उस रिपोर्ट की फाइल थी और 16.50 पर कमरे से निकलने वक्त वह फाइल नहीं थी।
मुख्य सचिव के विशेष कार्याधिकारी और स्टाफ अफसर की जानकारियों के मध्य भी इस बारे में मतैक्य नहीं था। विशेष कार्याधिकारी ने अपनी अघोषित तीसरी पत्नी से उसके हाथ के बने गलावटी कबाब खाते हुए कहा था कि मुख्य सचिव आज चार बजे ही दफ्तर छोड़ गया था। सूचना निदेशक से बैठक खत्म होते ही वह गुपचुप गाड़ी में बैठ कर कहीं चला गया था। और तीन घंटे बाद लौटा था। 'जानती हो वह कहाँ गए थे?' उसने अघोषित तीसरी पत्नी से पूछा था। पत्नी बोलती कम थी, उसने भौंहों को उचका कर पूछा, 'कहाँ?' विशेष कार्याधिकारी कबाब लगे हाथ को उसके पल्लू से पोछते हुए फुसफुसाया, कि मुख्य सचिव आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री पद के सबसे मजबूत दावेदार विपक्षी नेता के पास गए थे। 'जानती हो क्यों?' उसने पूछा था जिसके प्रत्युत्तर में पत्नी की भौंहें उचकी थीं। तब उसने कहा था, 'ये मुख्यमंत्री और भावी मुख्यमंत्री दोनों के हाथ में लड्डू पकड़ाते हैं।' इसके बाद उसने अघोषित पत्नी को खींच कर ऐसी हरकत की थी कि वह उसे धक्का दे कर हँसने लगी थी।
स्टाफ अफसर की डफली का अलग राग था। उसके अनुसार मुख्य सचिव सूचना निदेशक के साथ ही निकले थे और सीधे मुख्यमंत्री के कक्ष में चले गए थे। उनके साथ कुछ जरूरी फाइलें भी गई थीं जिनके बारे में मुख्यमंत्री ने वार्ता करने का निर्देश दिया था।
अब सही क्या था और गलत क्या था इसे ठीक ठीक बताना असंभव हो चुका था। एक प्रकार से देखा जाय, सही और गलत का विभाजन ही समाप्त हो गया था। दरअसल देखें तो मुख्यसचिव की उपस्थिति एक टेक्स्ट हो गया था जिसके अपने अपने पाठ थे। इस तरह का प्रत्येक पाठ सत्य के ढीले ढाले चोले में हकीकत का एक अंदाजा भर होता है, वह जितना यथार्थ हो सकता है उतना ही मिथ्या और संसार की कौन सी मिथ्या है जो कमोबेश यथार्थ नहीं होती है जैसे कि हर कोई यथार्थ रंचमात्र ही सही, मिथ्या अवश्य होता है। इसीलिए प्रत्येक यथार्थ के अनेक संस्करण होते हैं, उनकी कई कई व्याख्याएँ होती हैं लेकिन सर्वाधिक कठिन घड़ी वह होती है जब किसी ऐसी स्थिति से सामना होता है जिसके बारे में यह बूझना असंभव हो जाता है कि वह वास्तविकता है अथवा आभास अथवा वह ये दोनों है अथवा ये दोनों ही नहीं है। मुख्य सचिव की दूसरी बैठक का मर्म ऐसे ही मुकाम पर पहुँच गया था।
गौरतलब यह है कि जिस प्रकार सूचना निदेशक के साथ बैठक का रतन कुमार से ताल्लुक था उसी प्रकार क्या दूसरी बैठक भी रतन कुमार के प्रसंग से जुड़ी थी अथवा यह कयास बिल्कुल बकवास है? यदि रतन कुमार को ले कर मुख्य सचिव ने दूसरी बैठक भी की थी तो उसमें क्या चर्चा हुई इसका उत्तर ढूँढ़ सकना अब नामुमकिन दिखता है। लगभग इससे भी ज्यादा पेचीदा मसले ने रतन कुमार को घेर लिया था। जब मुख्य सचिव ने सूचना निदेशक तथा नामालूम के साथ बैठकें की थीं, उसके अगले दिन रतन कुमार के सिर में तेज दर्द था और आँखों में कड़ुवाहट थी। वह बीती रात जाग कर अपना कॉलम लिखता रहा था जिसमें उसने यह अभिव्यक्त किया था:
' मित्रो, धन शक्ति देता है और शक्ति से धन आता है। और बाद में धन स्वयं में शक्ति बन जाता है, इसलिए अकूत से अकूत धन की लिप्सा उठती है और भ्रष्टाचार का जन्म होता है। अतः भ्रष्टाचार से भिड़ना है तो शक्ति के पंजे मरोड़ने होंगे। मैं दोहराव का आरोप सहने का खतरा उठाते हुए भी कहना चाहूँगा कि भ्रष्टाचार से अर्जित संपदा विदेशी खातों में जमा है और इन खातों के कोड हैं।'
अपना स्तंभ लिख चुकने के बाद उसने सोचा था, मैं सो जाऊँगा और दोपहर तक सोता रहूँगा। पर हमेशा की तरह वही हुआ कि फोन नंबर वितरित न करने की होशियारी के बावजूद उसका फोन बजने लगा था। वह जग कर चिड़चिड़ाया और फोन उठा कर बात करने लगा। वही बातें थीं : लोग हमले को ले कर अपना समर्थन दे रहे थे या पुलिस महकमे को निकम्मा कह रहे थे।
अब उसकी नींद उचट गई थी। उसने इधर उधर करके बाकी वक्त बिताया अथवा गँवाया फिर विश्वविद्यालय चला गया था। शाम को जब वह सुनिधि के फ्लैट में था तो उसका सिर दर्द से टीस रहा था और आँखों से लगातार पानी रिस रहा था। सुनिधि चाय बना कर ले आई, साथ में खाने के लिए भी कुछ - 'कुछ आराम हुआ?' उसने रतन से पूछा।
'नहीं, वैसा ही है। लगता है, कुछ बेढंगा और अनचाहा हो रहा है।'
'हुआ क्या है?' सुनिधि घबरा गई थी।
'मेरी आँखों में लगातार पीड़ा रहती है और अँधेरा सा भरा रहता है। सो जाने पर पीड़ा खत्म हो जाती है पर अँधेरा बना रहता है। जबसे मेरे ऊपर हमला हुआ है, अंधकार और कष्ट मेरी आँखों का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। मुझे लगता है, कहीं मैं अंधेपन के गड्ढे में न गिरने वाला होऊँ। डॉक्टर के पास गया वह कहते हैं कोई खास बात नहीं है। इससे मुझे सकू़न मिला लेकिन मैं क्या करूँ कष्ट बरदाश्त नहीं होता और अंधकार से डर लगता है।'
'क्या इसकी वजह से देखने में भी कमी आई है?'
'अब इससे ज्यादा क्या कमी होगी।'
'डॉक्टर ने कुछ इलाज बताया?'
'नींद। डॉक्टर ने हँस कर कहा था, 'दो दिनों तक भरपूर नींद लो सब ठीक हो जाएगा' लेकिन लोग हैं कि सोने नहीं देते। मुझे फोन करते हैं और घर पर मिलने चले आते हैं।'
'तुम फोन बंद कर दिया करो।' सुनिधि की सलाह हुई।
'बाबा, बाबा के कारण मैं फोन बंद नहीं कर सकता। कब कोई चौपहिया उन्हें सड़क पर कुचलता हुआ चला जाय और मेरा फोन बंद रहे... मैं फोन को बंद कैसे रख सकता हूँ।'
'हर काल पर फोन क्यों फोन उठा लेते हो?'
'इसलिए कि फोन न उठाने के लिए स्क्रीन पर काल का ब्यौरा पढ़ना पड़ेगा और मैं स्क्रीन पर अक्षर और नंबर ठीक से पढ़ नहीं पाता हूँ। अक्षर और संख्याएँ मुझे चीटियों की तरह दिखती हैं। दूसरे, मैं डरता हूँ कि मोबाइल से निकलनेवाली तरंगें मेरी आँखों में घुस न जाएँ और मैं पूरा अंधा हो जाऊँ और...।'
'और!' सुनिधि उसके इस अंदरूनी घमासान को जान कर विकल थी।
'बाबा को कुछ हो जाने पर खुद बाबा नहीं, कोई दूसरा होगा मुझे खबर देने वाला...। हो सकता है वह फोन उसका ही हो जिसे मैं न उठाऊँ...।'
शायद अच्छे दिन खत्म हो चुके थे। आँखों की तकलीफ और अंधकार की समस्या से उसे बड़े जतन के बाद भी छुटकारा नहीं मिल रहा था। उसने किसी की सलाह पर ब्रह्ममूहुर्त में उठ कर ध्यान लगाना शुरू कर दिया था। उसने सोचा था कि आँखों की तकलीफ में न सही किंतु अँधेरे की शिकायत में कमी जरूर आएगी लेकिन सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया था। किसी आकृति, ध्वनि, गंध अथवा स्पर्श को याद करके ध्यान केंद्रित करने पर वह पाता कि ध्यान का वह केंद्र किसी अँधेरे से उदित हो रहा है। वह तय करता कि उन क्षणों में उसकी वेदना कुछ समय के लिए समय के घेरे से मुक्त हो जाए। हर कोई रूप आकृतियों से, ध्वनि ध्वनियों से, स्पर्श स्पर्शों से स्वतंत्र हो जाए। कुछ भी न बचे उसमें कुछ वक्त के लिए, शेष रहे केवल एक विराट अनुभूति। वह सभी से विरक्त और विस्मृत हो जाता था लेकिन अँधेरा उसका पीछा नहीं छोड़ता था। अंततः किसी उदात्त आध्यात्मिक आस्वाद के बजाय उसमें यह अहसास बचता था कि अथाह अँधेरे में संसार डूब गया है। या दुनिया पर अँधेरे की चादर बिछ गई है।
उसने इस बात की पड़ताल भी की कि क्या आँखों की तकलीफ और आँखों में अँधेरे का कोई संबंध हैं, क्योंकि दोनों का उभार एक साथ हुआ था। परखने के लिए उसने दर्द निवारक दवा खा ली थी। इससे उसकी पीड़ा में काफी कमी आ गई थी जो छः घंटे तक बरकरार रही थी किंतु अँधेरे की वह यातना, जब तक वह जगता रहता था, पिंड नहीं छोड़ती थी। बल्कि एक तरह से कहा जाय कि वह स्वप्न में भी अँधेरा देखता था। सपने में कोई वाकया, कोई किस्सा शुरू हो कर पूर्ण होता था तो वह अँधेरे की पृष्ठभूमि में होता था। जैसे अँधेरे का कोई पर्दा हो जिस पर स्वप्न नहीं स्वप्न के निगेटिव की फिल्म चल रही है। इस तरह उसका जीवन अँधेरे में था और उसका स्वप्न भी अँधेरे में था।
उसके लिखने पढ़ने में भी ये चीजें अवरोध डालने लगी थीं। उसका दर्द बढ़ जाता था इनसे। इस मुश्किल का निदान उसने यह सोचा था कि वह बोल कर लिखवा दिया करे और दूसरे से पढ़वा कर पढ़ लिया करे। लेकिन उसने पाया कि इस विधि को वह साध नहीं सका है। अपना कॉलम जब उसने बोल कर लिखाया तो उसमें न वह मौलिकता थी न गहराई जिनके लिए उसका 'अप्रिय' मशहूर था। उसमें प्रहार और बल भी न थे। अतः उसने वे पन्ने फाड़ डाले थे। उसने रास्ता यह ढूँढ़ा कि वह स्वयं से बोला था और स्वयं सुन कर अपनी चेतना की स्लेट पर लिख लेता था। इस प्रकार बोलने के पहले ही उसके अंदर 'अप्रिय' की पूरी अगली किस्त लिख उठी थी। तब उसी लिखे हुए को वह बोला था जिसे सुनिधि ने लिपिबद्ध किया था। निश्चय ही यह लिखत उसके स्तंभ के रंगों और आवाजों का काफी कुछ हमरूप था। पढ़ने में भी उसने ढंग बदल लिया था। जब सुनिधि या उसका कोई छात्र उसे कोई पृष्ठ पढ़ कर सुनाता तो वह तुरंत हृदयंगम नहीं करता था। उस वक्त वह जो सुन रहा होता था उसे अपने दिमाग के टाइपराइटर पर टाइप करता जाता था फिर उसका दिमाग उस टाइप को अंदर ही अंदर पढ़ता था और सदा के लिए कंठस्थ कर लेता था। स्मरण शक्ति उसकी बेमिसाल पहले से ही थी, आँखों में दर्द रहने के बाद उसमें और इजाफा हो गया था। पहले उसे किसी पाठ को दोहराते वक्त यदा कदा अटकना भटकना भी पड़ सकता था, अब पूर्ण विराम अर्द्धविराम सहित अक्षरशः सुना सकने की क्षमता उसमें प्रकट हो चुकी थी।
दस दिन हुए होंगे, इतवार की सुबह शहर कोतवाल की गाड़ी उसके दरवाजे पर रुकी। कोतवाल सादी वर्दी में आया था, उसने रतन कुमार के ड्राइगरूम के सोफा पर बैठते हुए कहा, 'मैं आपका प्रंशसक हूँ। इधर से गुजर रहा था, सोचा आपके यहाँ एक प्याली चाय पीता चलूँ।'
रतन कुमार ने कोतवाल को शक से देखा लेकिन ऊपर से अपनी सहजता बनाए रखी, 'आपको चाय पिला कर मुझे खुशी होगी। लेकिन मुझे ठीक से दिखता नहीं, दूध, पानी, चीनी में कोई चीज कम ज्यादा हो सकती है या दो या सभी चीजें।'
'ओह! मुझे माफ करें। वैसे भी मेरा मकसद आपसे मिलना था, चाय एक बहाना भर है। चाय पिलाने से बेहतर है, अपनी लाइब्रेरी दिखाएँ।'
उसने रतन कुमार के स्टडी में किताबों को देखा। कुछ को निकाल कर पन्ने भी पलटे थे। अखीर में हाथ की धूल झाड़ते हुए बोला था 'अच्छी किताबें हैं।'
'जी शुक्रिया।' रतन ने रस्म निभाया।
'आपकी खतरनाक किताबें नहीं दिखाई दे रही हैं जिन्होंने खतरनाक विचारों को पैदा किया।' कोतवाल मुस्कुरा कर बोला।
'वैसी किताबें वहाँ नहीं यहाँ हैं।' रतन कुमार ने हँस कर अपनी खोपड़ी की तरफ इशारा किया, 'जो आप देख रहे हैं उससे बड़ी लाइब्रेरी इधर है।' रतन कुमार से हाथ मिला कर कोतवाल विदा हुआ।
रतन कुमार को लगा कि यह एक भला आदमी है। उसे अपने ऊपर गुरूर भी हुआ कि शहर कोतवाल भी उसको पढ़ता और पसंद करता है। उसको तसल्ली हुई, शहर कोतवाल से पहिचान बुरे वक्त में काम आएगी।
वाकई जब बुरे दिन सघन हुए, सबसे पहले इस कोतवाल की ही याद आई थी।
आँखों का दर्द और अंधकार की दिक्कत अभी भी बनी हुई थी। जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि शायद उसके अच्छे दिन खत्म हो गए थे। वह राँची से व्याख्यान दे कर अपने शहर आया तो सुबह का समय था। अलस्सुबह और देर रात में अपना शहर देखना हमेशा मोह जगाता है। इसी तरह की मनःस्थिति में वह अपने घर का ताला खोल रहा था। लेकिन ताला खुला हुआ था। वह खुद पर हँसा, 'सब कुछ याद हो जाता है पर ताला लगाना भूल जाता हूँ।' वह भीतर गया और पाया कि ताला लगाना वह भूला नहीं था बल्कि ताला टूटा हुआ था। उसने सामानों, चेक बुक, थोड़े से कैश और सुनिधि द्वारा दिए गए तोहफों की पड़ताल की, उन्हें अपनी आँखों पर रख कर देखा, सुरक्षित थे। उसका पूरा घर महफूज था मगर उलट पुलट दिया गया था। अच्छी तरह तलाशी ली गई थी उसकी नामौजूदगी में। हर जगह कागज, किताबें और कपड़े फैले हुए थे।
वह थाने में रिपोर्ट लिखाने गया जहाँ उसकी प्राथमिकी नहीं दर्ज हुई। थाना मुंशी की दलील थी कि जब चोरी हुई नहीं, न डाका न कोई नुकसान फिर जुर्म क्या हुआ? उसने कहा, 'मेरे कमरे की तलाशी ली गई है। सारे सामान बिखरे हैं।'
'किस चीज का तलाशी ली गई?' मुंशीजी ने पूछा।
'पता नहीं।'
'कुछ नुकसान हुआ?'
'नहीं।'
'किसी पर शक?'
'नहीं।'
'फिर यहाँ काहे को आए हैं? फालतू में टाइम खराब करते हैं पुलिस का अपना भी।'
थाने से निकलने पर उसने बड़ी शिद्दत से कोतवाल को याद किया था और मुलाकात के लिए कोतवाली चला गया था। आज वह वर्दी में कुर्सी पर बैठा था। उसकी वर्दी, बिल्ला, कैप उसके साथ थे और फब रहे थे। उसने कोतवाल को सब हाल सुनाया।
'कोई बात नहीं, हम दो तीन लोगों को भेज देते हैं वे सब सामान ठीक से लगा देंगे।' कोतवाल ने हमदर्दी जतायी।
'सवाल यह है कि ऐसा आखिर हुआ क्यों?'
'पता नहीं।' कोतवाल ने मजाक किया, 'लगता है उन्हें किसी और घर में जाना था भटक कर आपके यहाँ पहुँच गए।' उसने घंटी बजा कर चाय लाने का आदेश दिया।
चाय पीते हुए उसने पूछा, 'रतन जी आप राँची क्यों गए थे?'
'एक सेमिनार में।' उसने बताया।
'आप राँची ही क्यों गए सेमिनार में?'
'क्योंकि वहीं पर सेमिनार था।'
'हूँ।' उसने अल्पविराम दे कर कहा, 'आजकल नक्सल बेल्ट में ही सेमिनार होते हैं क्या? आप पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बीच रहे। इस बार भी आप राँची चले गए।'
'गया था, पर मैं आदिवासियों के बीच वक्त गुजारने गया था, बस।' उसे पसीना आ गया था।
'कोई बात नहीं। चाय पिएँ, ठंडी हो रही है।'
और संयोग था अथवा षड्यंत्र, ठीक उसी समय उसका मोबाइल बजने लगा। उस तरफ संपादक था, 'बास, तेरे को अभी अपना कॉलम कुछ दिन रोकना पड़ेगा। बात ये हैं...'
रतन कुमार ने बात बीच में काट दी थी, 'आप परेशान न हों, मुझे बुरा नहीं लग रहा है।' उसने अब फोन काट दिया।
उसे कॉलम बंद होने का अफसोस नहीं था, महज इतना ही था कि बाबा अखबार में उसकी फोटो देख कर बहुत खुश होते थे, अब नहीं होंगे। मगर उसे इस बात की उलझन अवश्य थी कि संपादक जो अभी पिछले हफ्ते तक 'अप्रिय' की इतनी तारीफ करता था और कहता था कि इसे सप्ताह में दो बार क्यूँ न छापा जाय, यकायक बंद करने का फरमान क्यों जारी करने लगा।
जनादेश के दूसरे संपर्कां के जरिए पूछताछ में एक नहीं अनेक वजहें सामने आ रही थीं जिससे किसी एक नतीजे पर पहुँचाना कठिन हो गया था। एक सूत्र का कथन था कि संपादक के पास मुख्यमंत्री सचिवालय से कॉलम रोकने की कोशिश पहले से हो रही थी किंतु संपादक अड़ा हुआ था। तब मुख्यमंत्री सचिवालय ने उस भूखंड का आवंटन तकनीकी कारणों से रद्द करने की धमकी दी जिसे बहुत कम कीमत में संपादक ने मुख्यमंत्री के सौजन्य से ग्रेटर नोएडा में हासिल किया था। साथ ही आठ एयरकंडीनर आठ ब्लोवर, तीन गीजर वाला उसका घर था जिसका बिजली भुगतान बकाया न चुकाने के कारण रुपए सात लाख पहुँच गया था। संपादक ने उसे माफ करने की अर्जी लगा रखी थी लेकिन उसके पास कनेक्शन काट देने की नोटिस भेज दी गई। तब उसने अपने प्रिय स्तंभ 'अप्रिय' को बंद करने का निर्णय भावभीगे मन से किया।
लेकिन अखबार का समाचार संपादक इसे खारिज करते हुए यह बता रहा था : 'सर्कुलेशन वाले 'अप्रिय' को प्रसंद करते थे लेकिन मार्केटिंग ने टँगड़ी मार दी। उनकी रिपोर्ट थी कि विज्ञापनदाता कॉलम पर नाक भौं सिकोड़ते हैं। उन्होंने इसे तत्काल रोकने की पैरवी की थी।'
जबकि फीचर एडीटर ने गपशप में अपनी एक प्रिय लेखिका को बताया और लेखिका ने अपने देवर को बताया। देवर जो रतन कुमार का विद्यार्थी था, रतन कुमार से बोला, 'सर, आपका कॉलम क्यों बंद हुआ?'
'क्यों?'
'क्योंकि वह एडीटर की वाइफ को पंसद नहीं था। हर हफ्ता वह बोलती थी कि इसमें तो फालतू की बात रहती है।'
बाद में पता चला कि एडीटर की वाइफ के पिता का नाम डी.पी.एस. (दद्दा प्रसाद सिंह) था और बड़े भाई का एल.पी.एस. (लालता प्रसाद सिंह) था। वाइफ उसी रोज से रतन से खार खाए हुई थी जब उसने शब्दों के संक्षिप्त रूप पर कलम चलाई थी।
खैर 'अप्रिय' अध्याय समाप्त हुआ - रतन कुमार ने संतोष कर लिया और सुनिधि से यह कह कर खुशी जाहिर की, 'चलो अब न मुझे बोलना पड़ेगा न तुम्हें लिखना। मेरी आँखों को भी आराम मिलेगा।'
उसने अपना मोबाइल सुनिधि को दिया, 'मैसेज बाक्स में चौदह नंबर पर देखो।'
सुनिधि ने रोमन अक्षरों को जोड़ जोड़ कर पढ़ना शुरू किया: 'खेद है कि हम आपका स्तंभ 'अप्रिय' कुछ अपरिहार्य कारणों से आगे प्रकाशित करने में असमर्थ हैं।'
'वह खुद मुझे बोल चुका था, फिर यह मैसेज क्यों?' रतन कुमार ने स्वगत कथन किया और जबाव में भी उसने स्वगत कथन किया, 'इस मैसेज को उसने कई जरूरी जगहों पर फारवर्ड करके भूल सुधार को सबूत पेश किया होगा।'
सुनिधि मोबाइल के संदेश पर नजर गड़ाए हुए थी कि हथेली में झनझनाहट हुई और वह फोन बजने लगा। अब उसने पुनः स्क्रीन देखा और चौंक गई - स्क्रीन पर न कोई नाम था न नंबर। उस पर टिमटिमा रहा था - UNKNOWN NUMBER।
'कैसी अजीब काल है? लिखा है अननोन नंबर।'
रतन कुमार ने फोन पर कहा, 'हैलो।'
'इस वक्त मेहबूबा के फ्लैट में बैठे मजे़ कर रहे हो।' उधर से कहा गया।
'सही कह रहे हैं आप।' रतन कुमार ने पूछा, 'आपको कैसे मालूम?'
'मुझे सब मालूम है। मैं बता सकता हूँ कि तुम इस वक्त क्रीम रंग की कमीज और नीले रंग की पतलून पहने हुए हो।'
'आप कौन हो?'
'मैं एक कोड हूँ। मेरी पहिचान को डिकोड करो तुम। क्या लिखते हो तुम - हाँ मैं एक कूट संरचना हूँ।' ठहाका सुनाने के बाद फोन काट दिया गया। उसने बगैर कोई वक्त गँवाए सुनिधि से कहा, 'काल लॉग से इसके नंबर पर फोन मिलाओ।' लेकिन काल लॉग में 'अननोन नंबर' गायब था।
'कौन था?' सुनिधि ने मोबाइल उसे लौटाते हुए सवाल किया।
'पता नहीं, कह रहा था -'मैं कूट संरचना हूँ। वह एक कुटिल संरचना है।'
'पर नंबर की जगह 'अननोन'।'
'इस तरह के नंबर अमूमन केंद्र सरकार के गुप्तचरों के पास रहते हैं लेकिन आजकल कुछ और लोगों के पास भी यह सुविधा है।' उससे आगे नहीं बोला गया। लग रहा था, वह निढाल हो चुका है। उसके मस्तक पर पसीने के कण थे। जैसे किसी ने वहाँ स्प्रे कर दिया हो।
यह प्रकरण यहीं खत्म नहीं हुआ था। यह इब्दिता था। कुछ अंतराल के बाद पुनः 'अननोन' था पर इस बार आवाज दूसरी थी। उसने जो कुछ कहा उससे रतन कुमार हतप्रभ और खौफजदा हो गया था। अजीब बात थी कि इसे रतन कुमार के बारे में बेपनाह जानकारियाँ थीं। मालूम था, आँखों की बीमारी पैदाइशी थी जिसे ले कर रतन कुमार ने प्रतापगढ़ में कुणाल नामक अपने एक लँगोटिया यार से बारह साल की अवस्था में झूठ बोला था कि एक तेज बुखार की चपेट में उसकी आँखें खराब हुई थीं। उसके परिवार की हादसे में मौत का विवरण, उसके खानदान का समूचा सजरा, सारी परीक्षाओं में प्राप्त उसके विषयवार अंक, उसके प्रिय स्वाद, कपड़े और जगहें उसे ज्ञात थे। वह यहाँ तक जानता था कि वह कौन सी दवाएँ खाता था और कौन से व्यायाम करता था। उसने यह भी बताया, 'तुमने सुनिधि कल के साथ फिल्म देखी थी और रेस्टोरेंट में डिनर किया था। डिनर का बिल दो सौ अस्सी रुपए था जिसे कुमारी सुनिधि ने चुकाया था।' इसके बाद 'कुमारी' पर जोर दे कर उसने डकार ली थी जो वास्तव में अट्टहास था। इस पर रतन कुमार भड़क गया था, 'कौन है बे तू सामने आ।'
'आऊँगा सामने तुम्हें मार डालने के लिए। मुझे अपनी नई रिवाल्वर का इंतजार है, मैं तुम्हें उसी से मारूँगा।'
रतन कुमार कुछ बोला नहीं, साँस लेता रहा।
'क्या सोच रहे हो? यही न कि 'मेरी मौत रिवाल्वर से हो ही नहीं सकती, मैं एक्सीडेंट से मरूँगा।' उसने हूबहू रतन कुमार के बोलने की शैली की नकल उतारी थी। और रतन कुमार के हाथ से मोबाइल गिर पड़ा था। वह ढह गया था, 'मेरे साथ क्या हो रहा है?' वह परेशान हो गया था लेकिन शाम तक उसने अपने को सँभाल लिया और कल क्लास में देनेवाले अपने लेक्चर की तैयारी करने लगा था। मगर जब देर रात सोने के लिए उसने बिजली गुल की और बिस्तर पर पहुँचा तो वह डर पुन: प्रकट हुआ। जैसे वह डर के झूले पर सवार था जो बहुत तेज घूम रहा था। वह डर का झूला इतना तेज घूमता था कि पलक झपकते उसके अनेक चक्कर पूरे हो जाते थे। चक्रवात सा चल रहा था। उसकी आँखों का दर्द कल के लेक्चर की तैयारी से अथवा डर के झूले के घूर्णन से बढ़ गया था। अंधकार की समस्या वैसी ही थी, अँधेरे में अंधकार और घना हो चुका था। उसे अविश्वसनीय लग रहा था कि कोई उसका इतना राई रत्ती जान सकता है। अर्धरात्रि तक उसे लगने लगा : 'वह मैं ही तो नहीं जो अपने को फोन कर रहा हूँ। मैं अपने सामने अपने राज खोल रहा हूँ और मैंने ही डकार की तरह अट्टहास किया था।' उसे महसूस हो रहा था : 'रतन कुमार अपने शरीर से बाहर चला गया है जो नई नई आवाजों में फोन करके मुझे त्रस्त कर रहा है। रतन कुमार ही मेरी मौत का फरमान सुना रहा था और मेरे भेद बताने की शेखी बघार रहा था। क्या सचमुच मेरी हत्या की जाएगी और मैं ही हत्यारा रहूँगा।' उसने तर्क किया यह एक असंभव स्थिति है, ऐसा भला कहीं होता है! लेकिन जो घटित हो रहा था वह भी तो असंभव था। आखिर कोई दूसरा किसी की इतनी बातें कैसे जान सकता है। उसने इस पर भी विचार किया कि संभवतः यह एक मतिभ्रम है, जिसका रिश्ता उसकी आँखों के दर्द और अँधेरे की समस्या से है। उसने खुद से कहा, 'मुमकिन है, मेरी आँखों की रोशनी कम हो गई हो और दिमाग अति सक्रिय हो कर तरह तरह के करतब दिखा रहा है।' लेकिन उसको इन सब पर विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि उसे पक्का यकीन था कि वह किसी प्रकार के मनोरोग की गिरफ्त में कतई नहीं है। इसके समर्थन में उसके पास दलील थी कि सुनिधि तब पास में थी जब पहली बार अननोन फोन आया था, बल्कि उस समय मोबाइल सुनिधि के ही हाथ में था। इस दलील के विरुद्ध दलील यह थी : 'ठीक है कि सुनिधि बगल में थी लेकिन उसने फोन की वार्ता सुनी नहीं थी। इसलिए हो सकता है कि अननोन की लिखत ने मुझे डरा दिया हो और वार्ता की सारी बातें यथार्थ नहीं, मेरे मस्तिष्क की गढ़ंत हों। इस विवाद का निराकरण करने का एक ही तरीका था, जिसे उसने आजमाया...। अगली बार जब उसके मोबाइल पर UNKNOWN उभरा तो उसने बात करने में देर लगाई क्योंकि इस बार उसे भय नहीं क्रोध आ गया था। वह फोन पर कोई भद्दी सी बात, बहुत घटिया गाली देना चाहता था जिसे करीब बीस साल हुआ था उसने उच्चारित नहीं किया था। किसी तरह उसने अपने पर काबू पाया और कहा, 'देखिए मैं अभी व्यस्त हूँ आप शाम 6 बजे के बाद फोन करें।' उसने फोन काट कर सुनिधि को मिलाया, 'सुनिधि तुम हर हाल में अपने फ्लैट पर छः के पहले पहुँचो, बहुत जरूरी है।'