श्रृंखला / अखिलेश / पृष्ठ 4
6.33 पर घंटी बजी। उसने फोन उठा करके स्पीकर चालू कर दिया। सुनिधि भी सुन रही थी...
'सुनिधि छह के पहले पहुँच गई न। क्या बोले थे उससे तुम - बहुत जरूरी है - यही न।' इस बार कोई फर्क आवाज थी।
'आपने फोन क्यों किया है?'
'पूछने के लिए।'
'पूछिए।'
'दीपावली की रात सात दीये जला कर सुनिधि के साथ सोते हो, इस बार होली की रात में क्या होगा?'
'पूछ लिया न! अब फोन काटूँ?'
'नहीं कुछ बताना भी है।'
'क्या?'
'तुमने अपने ऊपर हमले का जो हल्ला मचाया था, कुछ नहीं हुआ। फाइनल रिपोर्ट लगनेवाली है।'
'मैं जानता था, यही होगा।'
'फिर इतना तूफान क्यों मचाया था? क्या उखाड़ लिया?'
'तो मेरा ही क्या बिगड़ गया। ज्यादा से ज्यादा मेरा कॉलम बंद हो गया, जिसका मुझे कोई अफसोस नहीं हैं।'
'इतनी जल्दबाजी में क्यों हो, बदला बड़े धीरज से लिया जाता है।'
'क्या कर लेगा कोई मेरा?'
'मारे जा सकते हो या जेल भी जा सकते हो।'
'किस गुनाह में?'
'गुनाह से सजा नहीं मिलती है, सजा गुनाह के सुबूत से मिलती है। सुबूत के कारण ही अनेक गुनहगार आजाद रहे हैं और लाखों बेगुनाह जेल के शिकंजों के पीछे हैं।'
'क्या सबूत है मेरे खिलाफ?'
'सबूत होना खास बात नहीं है। खास है - सबूत इकट्ठा करना और उसे क्रम देना, - एक थीम प्रदान करना।'
इस पूरे संवाद को सुनिधि ने सुना था और कहा था, 'मामला गंभीर होता जा रहा है। हमें पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए। वह सर्विलांस के जरिए या चाहे जैसे, फोन करनेवालों का पता करे और उनको पकड़े।' वह उसी समय रतन कुमार के साथ कोतवाली गई थी। कोतवाल वहाँ मौजूद था।
कोतवाल से उसकी वार्ता इस मोड़ पर समाप्त हुई थी कि रतन कुमार आए दिन कोई न कोई कहानी ले कर आता है और उस कहानी में कोई सच्चाई नहीं होती। कोतवाल ने कहा, 'रतन कुमार जी मैं साहित्यिक पत्रिकाओं को मौका निकाल कर पढ़ता हूँ और यह कह सकता हूँ कि कहानियों को यथार्थवादी होना चाहिए। आपकी कहानी यथार्थवादी नहीं है।'
'मैं कहानी ले कर नहीं आया हूँ इस वक्त मेरे पास सच्चाई है। जानते हैं कोतवाल साहब, सच्चाई कभी भी निपट यथार्थवादी नहीं होती है।'
'लेकिन आपकी सच्चाई पर किसी को भरोसा क्यों नहीं होता है?'
'जिन्हें सच्चाई पर भरोसा नहीं होता, वे सच्चाई की समझ नहीं रखते है।'
'आप कुछ कार्रवाई करें सर!' सुनिधि ने हस्तक्षेप किया।
'करता हूँ कुछ कार्रवाई।' कोतवाल भद्दे तरीके से बोला था।
उसकी यातना का सिलसिला अभी थमने वाला नहीं था। एक रात उसे बहुत सारे कुत्तों के रोने की और भौंकने की आवाज सुनाई देने लगी। थोड़ी देर बाद लगा कि वे कुत्ते उसके घर के बहुत पास उसके दरवाजे़ पर मुँह लगा कर रो रहे हैं। रुलाई और भौंकने की ये बड़ी तेज, मनहूस और नजदीकी आवाजें थीं। लग रहा था जैसे वे कुत्ते अब उसके घर से बिल्कुल सट कर रो रहे थे। जब बरदाश्त नहीं हुआ तो वह किवाड़ खोल कर बाहर निकला। उसके हाथ में डंडा था जो कुत्तों को मार कर भगाने के लिए कम, उनसे बचाव के लिए अधिक था लेकिन डंडे का उपयोग नहीं हुआ क्योंकि बाहर सन्नाटा था। उसने देखा बाहर निरभ्र शांति थी। वहाँ न आवाजें थीं न कुत्ते। गोया कुत्ते नहीं कोई टेप शोर मचा रहा था जिसमें कुत्तों का रुदन और भौंकना रिकार्ड था। ऐसा लगातार होता रहा और उस दिन खत्म हुआ जब देर रात वह लौटा था। उसने देखा, उसके घर के सामने तमाम विदेशी नस्ल के खूँखार, लहीम-शहीम अनेक रंगों और आकारों के कुत्ते मँडरा रहे है। उसे लगा निश्चय ही वे उसी के लिए घात लगाए हैं। वह उलटे कदम वापस चला गया था। रात उसने रेलवे स्टेशन पर आनेवाली गाड़ियों की स्थिति की उद्घोषणा सुनते हुये बिताई थी। इसके बाद सब सामान्य रहा था। लेकिन निश्चिंत होने के बजाय वह घनघोर रूप से चिंतित हो गया था। उसे लग रहा था, यह तूफान के पहले की शांति है और बहुत ज्यादा उसके साथ बुरा होनेवाला है। वह सहमा और घबराया हुआ दिखने लगा। कुल मिला कर वह बेहद बुरे दौर से से गुजर रहा था। बाबा से फोन पर बात करते हुए उसका मन भर आता था, रुलाई भी आने लगती थी लेकिन वह सँभालने का यत्न करता था और सफलतापूर्वक रोना दबा लेता था। इस कसरत में उसकी बोलने की शैली बदल जाती थी। तब बाबा उधर से हेलो हेलो करते और पूछते, 'तू रतन ही बोल रहा है न!'
वह इतना परेशान हो गया था कि पिछली खराब मुलाकात की याद को भुला कर पुनः वह शहर कोतवाल से मिलने चला गया था। जब पहली बार चाय पीने और उसके कॉलम की तारीफ करने कोतवाल उसके घर आया था तो एक खुशमिजाज आदमी लग रहा था लेकिन दफ्तर में वह समझदार और मानवीय नहीं लगा था। रतन कुमार ने सोचा कि हो सकता है, दफ्तर में कोतवाल खराब आदमी हो जाता है और घर पर बेहतर। अतः वह सुबह उसके बंगले पर चला गया था जहाँ वह अपनी सुंदर पत्नी के साथ लॉन में चाय पी रहा था। संयोग से उसकी पत्नी भी हिंदी की पत्रिकाएँ पढ़ती थी और साहित्यिक पत्रिकाओं में विशेष रूप से कहानियों की पाठिका थी।
रतन कुमार को कोतवाल ने वहीं बुला लिया और चाय भी पेश की। इससे रतन कुमार को यकीन हो गया कि कोतवाल का दिमाग आफिस में खराब रहता है। अनुकूल स्थितियाँ देख कर उसने कोतवाल से अपना दुखड़ा रोया।
'बिस्किट भी लीजिए।' कोतवाल ने दुखड़ा सुन कर प्यार जताया, 'आपको किसका खौफ है? नक्सलवाद से पूरा हिंदुस्तान डरता है तो किसकी हिम्मत जो आपसे पंगा ले?' कोतवाल स्वयं बिस्किट प्लेट से उठा कर कुतरने लगा।
कोतवाल की सुंदर बीवी ने संदर्भ को विस्तार दिया : 'साहित्य समाज का दर्पण होता है। माफ कीजिएगा जनाब ये नक्सल भी देश को भरमा रहे हैं। वे गरीबी, भूख, अत्याचार और राज्य के दमन को काफी बढ़ाचढ़ा कर बताते हैं। मैं कहती हूँ कि ये सब चीजे़ं हमारे देश में हैं ही नहीं। इसीलिए आजकल की कहानियों में इनकी चर्चा बिल्कुल नहीं होती है। मैं कहती हूँ कि वे फर्स्ट क्लास की कहानियाँ इसीलिए हैं कि वे इन झूठी और फालतू बकवासों से आजाद हैं।'
रतन कुमार पछतावे से भर उठा। उसे इस बात का तीव्र अहसास हो रहा था कि अपनी सुबह तबाह करने का वह स्वयं जिम्मेदार है।
उसने जनादेश के संपादक से भी मुलाकात की थी। उसकी बातें सुन कर वह बड़े जोश में आ गया था, 'अपुन है न!' उसने रतन कुमार से कहा, 'तुम निश्चिंत रहो। अगर तुम्हारे साथ कुछ हुआ तो हम उनकी...।'
'मगर मैं चाहता हूँ कि मैं बच जाऊँ, मैं सकून से रहूँ। आप कुछ कर सकते हैं?'
'डरते क्यों हो बादशाओ।' संपादक ने गाया, 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में हैं।'
अंततः वह हर तरफ से नाउम्मीद हो गया था और अपने आँखों के दर्द, अंधकार की समस्या और अनहोनी की आशंका के घमासान में निहत्था हो गया था। इस विकल्प को वह पहले ही खारिज कर चुका था कि इस घर को छोड़ कर दूसरा कोई मकान ले कर उसमें चला जाय। उसने जान लिया था कि जो लोग उसकी हर सूचना हर सच्चाई हर कदम से वाकिफ हैं उनके लिए उसका नया ठिकाना ढूँढ़ना बेहद सरल काम होगा। बल्कि वह ऐसा फंदा तैयार करेंगे जिससे वह उसी नए मकान में जाएगा जहाँ पहले से उसे बरबाद करने की तैयारी वे कर चुके होंगे। वह सुनिधि के फ्लैट में कुछ दिन रहने के ख्याल को इसलिए रद्द कर चुका था कि इसके लिए वह राजी नहीं होगी। यदि उसकी विपत्ति से पिघल कर हो गई तो भी कुछ हासिल नहीं होगा सिवा सुनिधि को भी अपने नर्क में गर्क कर देने के या सुनिधि के जीवन को नर्क बना देने के। यही बाबा के मामले में था। पहले उसने सोचा, बाबा हमेशा मुश्किलों से बचाते रहे हैं। उन्होंने असंख्य दुखों, घावों, अपशकुनों, अभावों से उसकी हिफाजत की है। वह बारिश में छाता उसके सिर पर कर देते थे और खुद छाते की मूठ पकड़े बाहर भीगते रहते थे। गर्मी में उनके हिस्से का शरबत, लस्सी, वगैरह भी उसे मिल जाता था और जाड़े में अपने स्वेटर का ऊन खोल कर पोते के लिए स्वेटर उन्होंने खुद बुना था। लोग हँसी उड़ाते, बाबा औरतों वाला काम कर रहे हैं पर बाबा मनोयोग से सलाई ऊन में फँसा कर ऊपर नीचे करते रहते थे। लेकिन इस बार शत्रु ऋतुओें से ज्यादा ताकतवर और खतरनाक थे। बाबा को भी मुसीबत में डालने से क्या फायदा - उसने सोचा था और आखिर कर अकेला हो गया था।
अब उसके पास यही रास्ता बचा था कि इंतजार करे। वह बाट जोहने लगा था हादसे का। उसे नहीं मालूम था कि हादसा सोमवार को, मंगल को, शुक्र, इतवार किस रोज होगा? वे दिन या रात, कब आएँगे या कितने जन रहेंगे उसे बिल्कुल नहीं पता था। उसको यह भी साफ नहीं था कि उसे प्रताड़ित किया जाएगा या मार दिया जाएगा? वह किसी बात से वाकिफ नहीं था लेकिन इस बात को ले कर उसे शक नहीं था कि वह बख्शा नहीं जाएगा। इस दहशत भरी जिंदगी में उसके पास बचाव का कोई तरीका था, कवच था तो महज इतना कि यह सारा कुछ जो हो रहा है उसकी कोई यथार्थ सत्ता न हो। यह एक दुःस्वप्न हो जो नींद खुलने पर खत्म हो जाएगा। उसका डर और उसकी समस्याएँ वास्तविक न हो कर उसकी चेतना का विकार हों, इसलिए वह मानसिक उत्पीड़न के बावजूद मूलभूत रूप से बचा रहेगा। इसकी भयंकर परिणति यही हो सकती थी कि सत्य के स्तर पर वह सुरक्षित और धरती पर बना रहेगा किंतु अपनी चेतना और अनुभूति के स्तर पर लहूलुहान या मृत हो जाएगा। इसमें तसल्ली की बात इतनी थी कि जैसा भी हो वह जीवित रहेगा। वह अपने लिए मिट जाएगा पर बाबा और सुनिधि के लिए मौजूद होगा।
लेकिन संकट के वास्तविक नहीं आभासी होने की आकांक्षा दीर्घायु नहीं हो पाती थी। जीवन दोहत्थड़ मार कर उसे झकझोर देता और हकीकत के धरातल पर ला कर पछाड़ देता था। तब वह पुनः अथाह बैचेनी के साथ बुरा घटित होने की प्रतीक्षा प्रारंभ कर देता था।
4 जनवरी 2011 मंगलवार के दिन वास्तविकता और भ्रम की टक्कर ज्यादा पेचीदा, विस्तृत और विवादास्पद हो गई। उस दिन रतन कुमार ने आरोप लगाया कि उस पर हमला किया गया था। उसने अपने जख्म दिखाए जो घुटनों, कुहनियों और माथे पर अधिक चटक थे। उसने जो बयान किया वो संक्षेप में यह था : सुबह के 5.30 का समय था तभी उसके घर की कालबेल बजी थी। यह वक्त अखबार वाले के अखबार फेंक जाने का होता था। अखबार फेंक कर वह घंटी बजा देता था। हमलावरों की ताकत असीम थी, उन्हें रतन कुमार के हाकर की इस आदत के बारे में भी पता था। इसलिए सुबह 5.30 पर घंटी हाकर ने नहीं उन्होंने बजाई थी। रतन कुमार ने दरवाजा खोला किंतु उसकी चौखट पर अखबार नहीं कुछ लोग थे। जाड़े में सुबह इस वक्त पर अँधेरा ही रहता है और रतन कुमार को वैसे भी ठीकठाक कहाँ दिखायी देता था। उसने उन लोगों को पहचानने से इनकार किया। इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं थी, वे धड़धड़ाते हुए भीतर आ गए। कमरे में जीरो पावर का एक बल्ब जल रहा था। इतनी कम रोशनी में आगंतुकों को ठीक से देख पाना रतन कुमार के लिए मुमकिन नहीं था। उसने रोशनी करने के लिए स्विच बोर्ड की तरफ हाथ बढ़ाया तभी एक ने उसकी कोहनी पर जोर से मारा था। इसी घाव को बाद में रतन कुमार ने सार्वजनिक किया था। किस चीज से प्रहार किया गया था यह वह बता नहीं पाया। क्योंकि जीरो पावर के अँधेरे में उसे नहीं दिखा, कि हाकी, छड़, कुंदा - किस चीज से मारा गया था।
'मुझसे आपको क्या शिकायत है, आप किस बात का गु़स्सा निकाल रहे हैं? मेरा कसूर क्या है?' उसने सवाल किया था।
उसका कसूर यह बताया गया कि अखबार में ऊटपटाँग की बातें लिख कर उसने अनेक प्रतिष्ठित लोगों की भावनाओं को आहत किया है और अनेक पवित्र एवं महान संस्थाओं तथा पार्टियों की छवि मिट्टी में मिलाने का गु़नाह किया है।
'पर अब मेरा कॉलम बंद हो गया है।' वह मिमियाया
वे चारों हँसे, एक बोला, 'बंद नहीं हो गया हमने उसे बंद कराया। लेकिन तुम अपराध तो कर चुके हो इसलिए सजा दी जाएगी तुमको?'
रतन कुमार का कहना था कि उनकी इस बात पर उसका मिजाज गर्म हो गया था, उसने चीखते हुए कहा था, 'आप लोग सजा देंगे, क्यों? आप न्यायाधीश हैं, यमराज हैं या जल्लाद?' यह सुन कर वे लोग हँसने लगे थे। हँसते हुए ही उनमें से एक ने उसके माथे पर किसी चीज को दे फेंका था। वह क्या थी, इसे भी वह देख नहीं पाया था। बस जब माथे पर लगी थी, उसके स्पर्श और आघात के एहसास के आधार पर कह सकता था कि वह लोहे की कोई गोल चीज थी। कुल मिला कर यह निश्चित हो गया था कि कमरे में इतना प्रकाश था कि उन चारों को आराम से दिखाई दे रहा था कि वे रतन कुमार के हाथ और माथे को देख कर निशाना साध सकें और रतन कुमार को बमुश्किल इतना भी नहीं दिख रहा था कि वह जान सके कि उस पर किस आयुध से प्रहार किया गया है।
जब इस प्रकरण को ले कर बहसबाजी शुरू हुई तो उपरोक्त बिंदु सबसे प्रमुख मुद्दे के रूप में उभर कर सामने आया। रतन कुमार ने आरोप लगाया था कि चार लोगों ने उसके घर में घुस कर उसे मारा पीटा था और उसकी दोस्त सुनिधि के साथ बलात्कार की धमकी दी थी। उन्होंने यह भी धमकाया था कि कि किसी दिन एक ही समय पर प्रतापगढ़ में उसके बाबा और यहाँ राजधानी में खुद वह चार पहिया वाहन से रौंदे जाएँगे। वे इस पर ठहाका लगा कर हँसे थे कि अलग अलग जगहों पर अलग अलग लोग एक ही समय पर एक ही तरीके से मारे जाएँगे। अंत में उसने यह कह कर सबको चौंका दिया था कि वह चारों को पहचान गया है। उसने चारों की जो शिनाख्त की थी वह अचंभे नहीं महाअचंभे में डाल देने वाली थी। उसने कहा, उनमें एक मुख्य सचिव स्वयं था और शेष तीन थे - शहर कोतवाल, प्रमुख सचिव गृह और मुख्यमंत्री का एक विश्वसनीय सलाहकार। रतन कुमार का कथन था कि ये चारों उस पर हमला करके बड़े खुश थे और जश्न मना रहे थे। उसी उत्सवी वातावरण में उनमें से एक ने कहा था कि रतन कुमार जैसी चुहिया का टेटुआ दबाने का काम उनके राज्य का कोई बहुत मामूली बिलार भी कर सकता था लेकिन वे खुद इसलिए आए कि इस तरह जो मजा मिल रहा है वह दुर्लभ है। अपने शिकार को अपने दाँतों से चीथ कर खाना कुछ और ही लुत्फ देता है। दूसरी बात, खुद आने में भी कोई खतरा नहीं है क्योंकि अपनी आँखों की कम ज्योति के कारण रतन कुमार उन्हें ठीक से देख नहीं सकेगा। इस पर कोतवाल ने एक जुमला कसा था - 'स्वाद भी सुरक्षा भी।' ध्यान देने की बात यह है कि यह सब कहते हुए वे अपने पद और परिचय नहीं बता रहे थे। बस हँस रहे थे और रतन कुमार के सामने चुनौती फेंक रहे थे - 'सूरदास, हमें पहचानो हम हैं कौन...।' रतन कुमार ने अपने ऊपर हमले के संदर्भ में बोलते हुए कहा था, 'मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता, लेकिन जिस प्रकार ये चार ओहदेदार लोग मुझ पर हमला करने आए, उससे यह लगता है कि मुझ पर हमला राज्य की इच्छा से हुआ है। अब राज्य मेरे जैसे आदमी से क्यों इतना डरा है कि हमला करने की नौबत आ जाए, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। हाँ बीच बीच में उनकी होने वाली बातों से यह अनुमान लगाया ही जा सकता है कि मुझ पर राज्य के गुस्से कारण जनादेश में छपनेवाला मेरा स्तंभ 'अप्रिय' था। वे बीच-बीच में व्यंग्य कर रहे थे कि 'बहुत चला था कूट रचना और शाट फार्म के विरोध का झंडा उठाने... देख उस झंडे का डंडा कहाँ घुस गया। पीछे हाथ लगा कर देख।' मुख्य सचिव ने टाई लगा रखी थी। उसने टाई को ढीला करते हुए पैर फैला कर मेरे मुँह पर रखा था।'
रतन कुमार को इस बार पहले की भाँति समर्थन नहीं प्राप्त हो रहा था। बल्कि यूँ कहा जाए कि कोई उसकी बात को गंभीरतापूर्वक नहीं ले रहा था। उसके आरोप इसी पर खारिज हो जाते थे कि प्रदेश के चार इतने बड़े अधिकारी खुद उसके घर जा कर हमला करेंगे, यह बात किसी को विश्वासयोग्य नहीं लगती थी। लोग यह स्वीकार करते थे कि सत्ता अपने से टकराने वालों को गैरकानूनी दंड देने में प्रायः संकोच नहीं करती है जबकि वह चाहे तो वैध तरीके से ही विरोधी की जिंदगी बरबाद कर सकती है। इसके बावजूद रतन कुमार का वर्णन इतना ड्रामाई, कोरी कल्पना और मसाला लगता था कि वह लोगों के गले नहीं उतरता था। आखिर मौज लेने के लिए इतने बड़े हुक्मरान इतना बड़ा जोखिम कैसे उठा सकते है। संदेह की दूसरी वजह यह थी कि रतन कुमार आला हाकिमों के गुस्से की वजह अपने स्तंभ को बता रहा था। पहली बात कि वह स्तंभ बंद हो चुका था और दूसरी, उस स्तंभ में इन अधिकारियों के खि़लाफ एक बार भी कटूक्ति नहीं कही गई थी। ये चारों अपने नाम भी पूरे पूरे लिखते थे न कि शार्ट फार्म में, जिसको ले कर रतन कुमार ने न जाने कैसी बहकी बहकी बातें की थीं। फिर आखिर इन चारों को क्या पड़ी थी कि उसकी खाल खींचने उसके घर चले गए। जाहिर है यह सब रतन कुमार का दिमागी फितूर है या चर्चित होने के लिए की गई एक बेतुकी नौटंकी। खुद विश्वविद्यालय के कई अध्यापकों का मानना था कि कॉलम बंद होने से रतन कुमार बौखला गया था और यह सब अन्य कुछ नहीं अपने को चर्चा के केंद्र में ले आने का एक घृणित हथकंडा है। जबकि उच्च न्यायालय के दो न्यायमूर्ति लंच में बातचीत के बीच इस परिणाम पर पहुँचे : ये ब्लैकमेलिंग का केस है। दरअसल ये लौंडा सरकार से कोई बड़ी चीज हथियाना चाहता है।
इस वाकए के रतन कुमार के वर्णन में जो सबसे बड़ी खामी, सबसे गहरा अंतर्विरोध था वह था - देखना। रतन कुमार को जानने वालों को यह ज्ञात था कि उसको ठीक से दिखता नहीं है और अँधेरे अथवा जीरो पॉवर की हल्की लाइट में करीब करीब बिल्कुल ही नहीं देख सकता है। रतन कुमार स्वयं इस बात को स्वीकार करता था। यह उसके बयान से भी सिद्ध होता था। क्योंकि उसने बताया था कि 5:30 पर अँधेरा होता है और वह बाहर खड़े इन लोगों को नहीं पहचान सका था। कमरे में लाइटें जलाने के लिए उसने स्विच बोर्ड की तरफ हाथ बढ़ाया तो प्रहार हुआ। और उसका हाथ नीचे झूल गया। अर्थात रोशनी की दशा वैसी की वैसी रही। इतनी कम कि वह देख नहीं सका था, उसके हाथ पर किस चीज से प्रहार किया गया। रतन कुमार ने हमेशा यही कहा कि कमरे में और उसकी आँखों में रोशनी कम होने के कारण वह आगंतुकों को पहचान नहीं पा रहा था। तब फिर आखिर कौन सा चमत्कार हुआ कि उसने देख लिया : ये हैं : मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह, मुख्यमंत्री का मुख्य सलाहकार और शहर कोतवाल।
'हाँ, चमत्कार हुआ।' रतन कुमार का जवाब था : 'मेरे साथ कभी-कभी चमत्कार होता है। यह सच है कि मेरी आँखों में देखने की सामर्थ्य बहुत कम है लेकिन मेरे साथ ऐसा कुछ बार हुआ है कि जब मुझमें कोई भावना बहुत ज्यादा होती है - फट पड़ने की सीमा पर - एकदम बेकाबू - तो मुझे अपरंपार दिखने लगता है। बहुत ज्यादा। तब मैं सूई में धागा तक डाल सकता हूँ और किसी अँधेरे कोने में पड़ा सरसों का दाना ढूँढ़ कर उठा सकता हूँ। और उस रोज जब ये चारों मुझे पीट कर, परेशान कर, बेइज्जत करके जाने लगे थे तब मेरे अंदर घृणा की भावना भयंकर रूप से उमड़ी थी। इतनी घृणा जीवन में कभी नहीं हुई थी। वह घृणा बादलों को चीर देनेवाली थी। तभी मुझे सभी कुछ तेज रोशनी में दिखने लगा था - ये चारों भी दिखे थे। मेरी याददाश्त भी अच्छी है जो हर वक्त अच्छी रहती है। मैं बता सकता हूँ कि इन लोगों के कपड़े कैसे थे उस रोज और पैरों के जूते किस तरह के थे। मैं इनके बालों की सफेदी और गंज, चेहरे, हथेलियों के कुछ चिह्नों को बता सकता हूँ।'
कोई इस बात पर यकीन करने के लिए तैयार नहीं था सिवा सुनिधि के। सुनिधि ने एक बार फैसला भी कर लिया था कि वह लाज शरम तज कर कहेगी कि, 'हाँ, इसके साथ ऐसा होता है। यह पिछली दीपावली पर रात में सात दीयों के मद्धिम उजाले में मेरे शरीर के तिलों को देख सका था।' लेकिन उसे ऐसा करने से रतन कुमार ने ही रोक दिया था। कहा था : 'इस पर लोग हँसेंगे, विश्वास नहीं करेंगे।'
जो रतन कुमार से सहानुभूति रखते थे उनको भी इस वृत्तांत पर एतबार नहीं था किंतु वे यह मानते थे कि रतन कुमार तिकड़मी और फर्जी इनसान नहीं है जो इस तरह के किस्से गढ़ कर शोहरत या कोई अन्य चीज हासिल करने की जुगत करेगा। इसलिए उन्हें यह मामला उसकी दिमागी हालत के ठीक न होने का लगता था। विचित्र बात थी, यही तर्क सत्ता के लोगों का भी था। उनका भी कहना था : इस शख्स को कोई मानसिक रोग है और इसके द्वारा 'अप्रिय' स्तंभ में लिखी बातें भी मनोरोग की ही उत्पत्ति थीं।
रतन कुमार को भी ऐसा महसूस हुआ : 'हो न हो यह भी मिथ्याभास हो। आखिर इसके पहले भी यथार्थ और मिथ्या के संशय मुझको हो चुके हैं। कहीं उसी का उग्र रूप - विस्फोटक मनोविकार तो नहीं है यह सब। क्या मोबाइल पर आए अननोन नंबरों की तरह ही उस पर हुए हमलों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह पूरी दास्तान मेरे दिमाग में घटी और बुलबुले की तरह फूट कर विलीन हो गई। अब भी मेरी आँखों में दर्द रहता है और अँधेरा। क्या इन दोनों दुःखों ने मिल कर एक झूठे महादुःख की गप्प तैयार की जिसका लोगों पर असर महज एक चुटकुले की तरह हो रहा है।' उसने संतोष कर लिया : 'यह सब अघटित है। राज्य के प्रति मेरी घोर नफरत की काल्पनिक उड़ान है, बस।'
'लेकिन मेरे घाव। मेरे मत्थे का और मेरी कोहनी का घाव - वह तो है। पीठ के घावों के बारे में, खुद मुझे नहीं मालूम था, सुनिधि ने देखा और बताया था। तब अगर ये जख्म सच हैं फिर वह वाकया झूठ कैसे हो सकता है?' और इसी के बाद उसने पुनः पुराना रास्ता पकड़ लिया था। उसने अपने मन को शक्ति दी थी, सुनिधि को चूमा था और बाबा को फोन किया था, इसके बाद वह भूख हड़ताल पर बैठ गया था। उसकी माँग थी, अपराधियों पर कार्रवाई हो।
लेकिन अगले दिन वह अनशन स्थल से लापता हो गया था। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि वह भूख बरदाश्त नहीं कर सका था और भाग कर दो किमी की दूरी पर एक दुकान पर गोलगप्पे खा रहा था। कुछ ने आँखों देखा हाल की तरह बयान किया : उसे नींद में चलने का रोग है। वह साढ़े तीन बजे रात को उठ कर खड़ा हो गया और मुँदी हुई आँखों के बावजूद चलने लगा। वह काफी दूर चला गया था और वह लौट कर वापस नहीं आया था।
पता नहीं इन बातों में कौन सच थी कौन झूठ? या सभी सच थीं और सभी झूठ। लेकिन इतना अवश्य था कि रतन कुमार अगली सुबह अनशन स्थल से गायब था और फिर उसे किसी ने नहीं देखा था। विश्वविद्यालय में भी उसके बारे में कोई सूचना न थी। वह जहाँ रहता था उस मकान में ताला लटका था और पड़ोसी भी कुछ बता सकने में असमर्थ थे। सुनिधि उसके मोबाइल पर फोन करती रहती थी लेकिन वह हमेशा बंद रहता था। फिर भी उसने हार नहीं मानी थी, जब वक्त मिलता वह उसका नंबर मिला देती थी। नतीजा पूर्ववत : उसका मोबाइल बंद होता था। इस प्रकार जब आठ दिन बीत गए तो वह अपने फ्लैट में फफक कर रोने लगी थी।
कार में सुनिधि ने बाबा से प्रश्न किया 'अनशन स्थल से वह अचानक कहाँ चला गया था?'
'टीना बिटिया मैंने यह सवाल उससे किया था।' बाबा ने अपने कोट की भीतरी जेब से एक कागज निकाला, 'इसे पढ़ लो, उसी का लिखा हुआ है।'
सुनिधि ने कार किनारे कर के रोक दी और कागज को खोला। रतन की लिखावट थी। जिस रात वह अनशन स्थल से लापता हुआ था, उसका वर्णन करते हुए उसने लिखा था कि वह आधी रात का समय था। एक तो ठंड थी, दूसरे उसकी आँखों में दर्द था, तीसरे उसे भूख महसूस हो रही थी, शायद इन्हीं वजहों से उसे नींद नहीं आ रही थी। हालाँकि वह सोने की कोशिश कर रहा था और आँखें मूँदे पड़ा था। तभी कुछ लोग एक ट्रक ले कर आए। उनके साथ तीन चार खतरनाक कुत्ते भी ट्रक से उतरे। उन लोगों ने उसे अनशन स्थल से उठा कर ट्रक में उछाल दिया फिर खुद आ गए। कुत्ते भी छलाँग मार कर ट्रक के भीतर थे। ट्रक धुर्र धुर्र करता हुआ पहले से ही स्टार्ट था, चल पड़ा। वह कर ही क्या सकता था। क्योंकि वे कई थे, अधिक ताकतवर थे और हथियारबंद थे। वे कुछ खाने लगे। खाने की कोई चीज उसे पेश की, कहा, 'लो तुम भी खा लो।' उसने मना किया, 'मैं कैसे खा सकता हूँ, मैं भूख हड़ताल पर हूँ।'
'भूख हड़ताल पर हो। ये तो हम भूल गए थे।' एक ने कहा, बाकी सब हँस पड़े। दूसरे ने एक लोकप्रिय फिल्मी संवाद की तर्ज पर कहा, 'खाना नहीं खाएगा, तो गोली खाएगा।' दहशत के मारे वह दी हुई चीजें खाने लगा।
इसके बाद का वर्णन करते हुए उसने लिखा था, 'उन्हे हँसते हुए देख कर मुझे इलहाम सा हुआ कि ये मुझको मार डालेंगे। मैंने सोचा कि बचने की एक ही उम्मीद है कि किसी भीड़भाड़वाली जगह पर मैं ट्रक से कूद जाऊँ। इसके दो नतीजे थे, एक मौत से बचाव था, दूसरा था मौत। मैंने सोचा मरना तो पड़ेगा मुझे, चाहे चलती ट्रक से कूद कर मरूँ या इनके हाथों मारा जाऊँ। ट्रक के विकल्प में इस उम्मीद की गुंजाइश भी थी कि मुमकिन है बच जाऊँ। चोट लगेगी, हाथ, पैर की हड्डियाँ टूटेंगी पर जीवन बचा रहेगा। मुझे यह कबूल था। उस क्षण में मैंने यह भी सोचा कि मैं पुनः अनशन स्थल पर पहुँचूँगा और कहूँगा कि मेरी टूटी हुई हड्डियाँ देखिए। ये मेरी हड्डियाँ नहीं टूटी हैं इस देश के लोकतंत्र को फ्रैक्चर हो गया है। मेरा अपाहिजपन दरअसल इस देश के शक्तिपीठों की क्रूरता और न्यायप्रणाली की विकलांगता को दर्शाता है।'
लेकिन ऐसा वक्तव्य देने का अवसर उसे नहीं मिला था। क्योंकि ट्रक बहुत तेज गति से चल कर एक सुनसान मैदान में रुका था। जब ट्रक तेज गति में था तो उसके लिखे कागज के अनुसार जो उनका मुखिया लग रहा था उसने कहा, 'पच्चासी की स्पीड में चल रहा है ट्रक। तुम्हें कुचलने में इसे क्या दिक्कत और मुरौव्वत होगी। तुम्हारा यह भरोसा भी टूटने से रह जायगा कि तुम्हारी मौत एक्सीडेंट से होगी। लेकिन हम तुम्हें मारेंगे नहीं। सिर्फ यह अहसास कराना चाहते हैं कि तुम यह जानो कि तुम हमेशा हमारी निगरानी में हो, हमारी दया और इन्सानियत के नाते जिंदा हो। हम जिस पल चाहें, तुम्हारा किस्सा खत्म।' इसके बाद ट्रक रोक कर उसे उस सुनसान मैदान में छोड़ दिया गया था और वे गोलियाँ दागते हुए चले गए थे। वह भयभीत, शर्मशार वहाँ खड़ा थर-थर काँप रहा था ठंड और खौफ से। उसने अंत में लिखा था : 'ठंड और खौफ के अहसास के अलावा मुझे यह बात भी सता रही थी कि उनका दिया खाने के बाद मेरी भूख हड़ताल टूट चुकी थी। एक ओर मैं बेइज्जती से गड़ा जा रहा था कि खा लेने के बाद मेरे अपने लोग भी अब मुझे धोखेबाज, पेटू और भगोड़ा समझेंगे। दूसरी तरफ मुझे यह आशंका भी थी कि कहीं दोबारा न दबोच लिया जाऊँ। मैं घर नहीं लौटा और भागता रहा। मैंने अपना मोबाइल बंद रखा। इसलिए कि कहीं वे मुझे फोन करके कोई नया फरमान न सुना दें।' सुनिधि ने कागज को तहा कर बाबा के सिपुर्द किया और कार स्टार्ट की, 'इस वक्त वह कहाँ है?'
'घर पर।' बाबा ने बताया, 'इधर उधर भटकने के बाद वह मेरे पास प्रतापगढ़ आ गया था। कहता था, नौकरी चाकरी नहीं करेगा, वहीं रहेगा। मगर मैं उसे ले कर यहाँ आया। आखि़र इनसान को मुखालिफ हवा से लड़ना होता है। यूँ ही धनुष बाण नहीं रख देना चाहिए। जितनी मुझमें अक्ल है समझा चुका हूँ मगर वह घर से बाहर निकलने को तैयार नहीं हो रहा है। अब तुम ही समझाओ टीना बिटिया। हो सकता है, तेरी बात असर करे। उसने बार बार तुम्हारा नाम लिया और सुबह से ही तुमको बुलाने के लिए कह रहा था।'
सुनिधि बोली नहीं। वह उसी लय में कार चलाती रही। वह सोच रही थी, इस बार रतन की कहानी पर विश्वास नहीं किया जाएगा। उसके सारे वृत्तांत को प्रसिद्धि की प्यास, कपट की कहानी, बददिमाग का बयान सरीखे शब्दों से नवाजा जाएगा। उसकी बातें मनोविकार हों अथवा उनमें सौ प्रतिशत यथार्थ हो, इतना निश्चित था कि दोनों ही परिस्थितियों में वह तबाह हो रहा था। एक क्षण के लिए मान ही लिया जाए, यह सब उसके किसी काल्पनिक भय का सृजन है तो भी कहा जा सकता है कि वह उसके भीतर इतना फैल चुका था कि छुटकारा जल्दी संभव नहीं दिख रहा था। और यदि वाकई किसी सत्ता के निशाने पर था वह, तो पार पाना ज्यादा कठिन था।
स्थिति आशंकाओं से बहुत अधिक गूढ़, दुखद और किंकर्तव्यविमूढ़ कर देनेवाली थी। बाबा ने तीन बार जब अपनी पहचान बताई तब उसने दरवाजा खोला था। पहले उसने जरा सा खोल कर बाहर की थाह ली थी। उस समय उसका चेहरा देख कर सुनिधि दहल उठी थी। इतना थका हुआ, डरा हुआ और हारा हुआ चेहरा उसने पहले कभी नहीं देखा था। यह और भी त्रासद इसलिए कि वह चेहरा रतन का था।
अंदर पहुँच कर बाबा दूसरे कमरे में चले गए। जाते हुए उन्होंने कहा, 'टीना बिटिया, मैं दफ्तर और घर की दौड़ाभागी से थक गया हूँ। अब थोड़ी देर आराम करूँगा।' उनके जाने के बाद रतन ने दरवाजे को परखा कि वह बंद है कि नहीं। बंद था। उसने भीतर से ताला लगा दिया।
वह आ कर बैठा और यह दिखलाने का भरसक जतन करने लगा कि वह सहज और निडर है। सुनिधि ने उससे पूछा, 'क्या हालचाल हैं?'
'बढ़िया और तुम्हारा?'
'मैं भी ठीक हूँ।'
सुनिधि ने उसे सहज दिखाने की असहज स्थिति से उबारने के लिए इधर उधर की बातें शुरू कर दीं। अपने दफ्तर पर चर्चा की। इंटरनेट और मोबाइल पर पढ़े कुछ लतीफे सुनाए और इधर देखी हुई एक रोमांटिक फिल्म पर अपनी मुख्तसर टिप्पणी प्रस्तुत की। वह गौर से सुन रहा था और उसके चेहरे पर उचित भावनाएँ भी उभर रही थीं, इससे सुनिधि को तसल्ली हुई। लेकिन वह इस बात से चौंक पड़ी थी और चिंतित हो गई थी कि वह अपनी भावनाएँ अजीब ढंग से छिपा लेना चाहता था। जब उसे हँसी आती थी तो वह अपनी हथेली से होठों को ढँक ले रहा था। अपनी आँखें हमेशा चारों ओर नचाता रहता था। जैसे हर कोने अंतरे से उसे खतरा था और वह लगातार नजर रख रहा था। उसके एक हाथ में कोई पत्रिका थी जिसे वह बोलते समय गोल करके मुँह के सामने कर लेता था। इससे आवाज गूँजती हुई सी और परिवर्तित हो उठती थी। सुनिधि को पक्का यकीन हो गया, वह किसी अदृश्य शत्रु से सावधानी बरतते हुए अपनी शिनाख्त को छिपाना चाह रहा है।
'यहाँ मेरे और बाबा के सिवा कोई नहीं है। दरवाजा बंद है और ताला जड़ा है, फिर तुम इतना डर किससे रहे हो?'
'तुम उनकी ताकत के बारे में नहीं जानती हो।' वह फुसफुसाया, 'वे कभी भी कहीं भी पहुँच सकते हैं। वे सब देख सकते हैं, सुन सकते हैं, कर सकते हैं। वे इनसान के दिमाग में चिप लगा देते हैं और उसके सारे भेद जानते रहते हैं।'
'तुम्हारे दिमाग में तो अभी चिप नहीं लगाया है न?'
'लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है जो उनसे छिपा रहता है। मैंने तुम्हें 'अननोन कॉल' के बारे में बताया था न, इधर वह बहुत ज्यादा आने लगा था। मैं डर के मारे हमेशा मोबाइल बंद रखता हूँ। न जाने वे कब कौन सा निर्देश भेज दें...।' उसने पहलू बदला, 'मैं अखबार नहीं पढ़ता, टी.वी. भी नहीं देखता क्योंकि वे इनके जरिए भी मुझे संदेश दे देंगे जिसे मजबूरन मुझको मानना पड़ेगा। मैंने घर से बाहर निकलना छोड़ दिया है और घर के दरवाजे़ बमुश्किल खोलता हूँ, अतः बचा हूँ और तुम्हारी आँखों के सामने हूँ। लेकिन इसका खामियाजा भी भुगत रहा हूँ। अखबार, टी.वी. से दूर हो जाने के कारण मैं बाहरी दुनिया से पूरी तरह कट गया हूँ। मुझे कुछ भी नहीं मालूम कि देश दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है।' उसने सुनिधि से गुजारिश की, 'तुम्हीं बता दो इधर की खास खबरें।'
सुनिधि क्या बताए, वह पसोपेश में पड़ गई। सुंदर, सुखी दृश्य केवल विज्ञापनों में थे, अखबारों और टी.वी. के समाचार चैनलों के बाकी अंशों में हत्या, लूट, दमन, बलात्कार, षड्यंत्र और हिंसा व्याप्त थी। उसे लगा, रतन को ये सब बताने का अर्थ है उसकी आशंकाओं, दहशत और नाउम्मीदी की लपटों को ईंधन देना। यह बताना तो और भी मुसीबत की बात थी कि अनशन स्थल से गायब होने के बाद समाचार माध्यमों में उसकी कितनी नकारात्मक छवि पेश हुई थी। वह भगोड़ा, भुक्खड़, डरपोक और सनकी इनसान बताया जा चुका था।
लेकिन रतन के आग्रह को टालना भी संभव नहीं दिख रहा था। वह उसको देखते हुए उत्तर का इंतजार कर रहा था। जब से आई, पहली बार उसने रतन की पुतलियों को अपने चेहरे की तरफ स्थिर देखा था। अब उसे कुछ न बताने का अर्थ था उसकी पुतलियों को फिर से अविराम भटकाव के लिए बेमुरौव्वत छोड़ देना।
उसने झूठ बोलना शुरू किया : तुम यहाँ घर में बंद हो और बाहर आग लगी हुई है। ऐसा लगता है जैसे देश में बगावत हो गई है। तमाम लोग सरकार, धनिकों और धर्माधीशों के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि 1942 के 'भारत छोड़ो' के बाद पहली बार इस देश में सत्ता के विरोध में ऐसा गुस्सा पनपा है...।'
'विश्वास नहीं हो रहा है...।'
'न करो, पर इससे सच्चाई नहीं बदल जाएगी। सच यह है कि देश की सारी सेज परियोजनाओं पर किसानों ने कब्जा कर लिया है और सेना ने उन पर गोली चलाने से इनकार कर दिया है।' सुनिधि को लगा कि पिछले दिनों घटे ट्यूनीशिया, मिस्र के जनविद्रोह उसकी कल्पना शक्ति को रसद-पानी दे रहे हैं, 'और छात्र, उनकी पूछो मत, बाप रे बाप! कोई भरोसा नहीं करेगा कि ये फास्ट फूड, बाइक, मस्ती और मनोरंजन के दीवाने लड़के हैं। वे अपने अपने शहरों, कस्बों और गाँवों में गुट बना कर धावा बोल रहे है।'
'अरे नहीं...' रतन कुमार खड़ा हो गया। वह खुशी और अविश्वास से हिल रहा था।
'न मानो तुम। पर इसका क्या करोगे कि औरतें भी कूद पड़ी हैं इस लड़ाई में। और बूढ़े भी।' उसे महसूस हुआ, वह कुछ ज्यादा ही गपोड़ी हो गई है लेकिन उसका मन लग गया था गप्प हाँकने में। उसने जारी रखा : 'अखबार, टी.वी. से दूर रहे इसीलिए नावाकिफ हो कि जिस रोज अनशन स्थल से गायब हुए, समाचार जान कर सत्तरह हजार लोग इकट्ठा हो गए थे। वे तुम्हारी जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे और तुम्हें ढूँढ़ कर लाने की माँग कर रहे थे।' वह हँसी : 'जान कर अच्छा लगेगा, तुम्हारे कॉलम अप्रिय की जय हो के नारे भी गूँजे थे।'
'हे भगवान, कितने प्यारे और भले आदमी हैं धरती पर।' प्रसन्नता रतन कुमार की आवाज में छलकी, अचानक वह खुशी से चिल्लाया, 'सुनिधि, आज फिर मेरी आँखों में रोशनी आ गई है। मैं इस वक्त साफ साफ देख रहा हूँ।' वह भागा हुआ गया और बाबा को ले आया, 'बाबा, मुझे दिख रहा है। यह कुछ ही देर के लिए होगा लेकिन फिलहाल मैं देख पा रहा हूँ। तुम्हारे कुर्त्ते पर नीले रंग की बटनें लगी हैं और रंगमहल वस्त्रालयवाले कैलेंडर में सबसे बारीक हरफों में छपा है - सन 1928 में स्थापित। मैं बगैर आँखों के नजदीक लाए कोई किताब पढ़ कर सुना सकता हूँ तुमको।' वह एक किताब ला कर सामान्य दूरी से पढ़ने लगा।
बाबा भौचक्का हो कर उसे देख रहे थे। उन्हें इसी तरह हतप्रभ छोड़ कर वह उठा, 'सुनिधि, मैं तुम लोगों को चाय बना कर पिलाता हूँ।' वह किचन में जा कर आग पर बरतन चढ़ाने लगा। बाबा सोच रहे थे, 'रतन ड्रामा कर रहा है। उसने टीना से कुर्ते की छीटों का रंग, कैलेंडर की लिखावट को पहले से पता कर लिया होगा और किताब में जो लिखा है उसे मैं क्या जानूँ।'
सुनिधि चुप थी। उसके मन में चल रहा था : 'दीपावली की रात सात चिरागों के उजियाले में इसने मेरे शरीर के लक्षण देखे थे और खुश हुआ था। आज मेरे झूठे किस्सों ने इसके भीतर को जगमग किया।' उसके टखने काँपने लगे, वह बेहद बेचैन होने लगी। गहरे अफसोस और उदासी से उसने सोचा, 'काश, मेरे किस्से सच होते।' End Text End Text
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