संज्ञान / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित

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युवल हरारी ने अपनी पुस्तक 'सेपियन्स' में जो कुछ सुंदर स्थापनाएं दी हैं, उनमें से मुझे सबसे प्रिय यह है कि मनुष्य में काल्पनिक चीज़ों के आधार पर संगठिन होने की अद्भुत क्षमता है, और यही उसकी सफलता का रहस्य भी है!

यह सच है और अगर आप तनिक भी वस्तुनिष्ठ होकर सोचेंगे तो पाएंगे कि मनुष्य ने स्वयं को पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ प्राणी के रूप में स्थापित किया और इसके बावजूद वो सदैव भय, आशंका, विभ्रम, विरोधाभासों से ग्रस्त रहता है, इन दोनों बातों का एक ही कारण है। वह श्रेष्ठ इसलिए है, क्योंकि वो किन्हीं मानवीय संदर्भों के आधार पर संगठित होना जानता है। हरारी ने इसे मिथिकल ग्लू कहा है। किंतु वह अंतर्विरोधों से इसलिए घिर गया है, क्योंकि जिन संदर्भों के आधार पर वह संगठित होता है, वे काल्पनिक हैं। जिन चीज़ों ने समाज को बनाया है, उन्हीं ने मनुष्य को सर्वचेतना से विच्छिन्न भी किया है।

ईश्वर, राष्ट्र, न्याय, मानवाधिकार, निगमें- इन सबका कहीं अस्तित्व नहीं। जब मनुष्य विपदा की घड़ी में कहता है- ईश्वर, यह तेरा कैसा न्याय है, तो यह एक अत्यंत असंगत कथन होता है, क्योंकि न तो ईश्वर है, न न्याय है। जिस भाषा में यह वाक्य सोचा जाता है, वह भी एक परिकल्पित प्रणाली है। ये व्यवस्थाएं मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए बनाई हैं। अगर हम ब्रह्मांड में जाएं तो पाएंगे कि हम भौतिकी के नियमों के तो अधीन हैं, किंतु उपरोक्त मानवीय संदर्भ यहां आकर लुप्त हो गए हैं। वे धरती पर ही वास्तविक मालूम होते हैं। अगर हम धरती पर भी अन्य प्राणियों या वनस्पतियों की चेतना में कायान्तरण कर सकें तो पाएंगे कि उपरोक्त संदर्भों का लोप हो गया है। जो चीज़ें शेष रह जाएंगी, वे यही हैं कि हम कैसे अपने प्राणों की रक्षा करें, भोजन प्राप्त करें, संतानें उत्पन्न करें, जो जेनेटिक सूचनाएं हमारे भीतर इनकोडेड हैं, उनका पालन करें और संसार से ऐसे विदा हो जाएं, जैसे हमारा कभी अस्तित्व ही नहीं था।

ऐसा नहीं है कि मनुष्य स्वयं कभी उस दशा में नहीं था। वास्तव में हमारा ज्ञात इतिहास, जो कि सभ्यताओं का तारतम्य है, धरती पर जीवन के अध्याय में एक छोटे-से फ़ुटनोट से बढ़कर नहीं है। मनुष्य का स्वयं का सुदीर्घ इतिहास तो उन्हीं नियमों के अधीन रहा है, जिनसे पशु संचालित होते हैं। आज से कोई 25 लाख साल पहले अफ्रीका में मनुष्यों की उत्पत्ति हुई थी। यानी सभी मनुष्य अफ्रीका के मूलनिवासी हैं और उनकी एक ही जाति (होमो) है। इनकी एक प्रजाति सेपियन्स, यानी हम-सब, भी पूर्वी अफ्रीका में ही उपजी। ये ही सेपियन्स फिर पूरी दुनिया में फैले। यह प्रक्रिया 70 हज़ार साल पहले शुरू हुई। 70 हज़ार से 30 हज़ार वर्ष पूर्व तक की टाइमलाइन संज्ञानात्मक क्रांति की अवधि भी है। किंतु उससे पूर्व के सवा 24 लाख सालों में मनुष्य ने क्या किया? होमो इरेक्टस नामक एक मनुष्य-प्रजाति तो 20 लाख सालों तक इस धरती पर रही। उसने इस अवधि में क्या किया? इसके दो ही उत्तर हैं- एक, उसने उन पशुओं की तरह जीवन बिताया, जिनसे कालान्तर में उसे श्रेष्ठ हो जाना था, और दो, वैसा उसने स्वयं को उन सभी मिथकों से मुक्त रखकर किया, जिन्होंने कालान्तर में संस्कृति और इतिहास की परिघटनाएं रचना थीं।

इन मिथकों और कल्पनाओं का संस्कृति, इतिहास और मानव-सम्बंधों से गहरा नाता है और अगर मनुष्य को आज इनसे वंचित कर दिया जाए तो उसका दयनीय पतन हो जाएगा। किंतु अंतत: वे हैं कल्पनाएं ही। पिछले कुछ समय से विज्ञान की अकादमियों में नेचरल सिलेक्शन और इंटेलीजेंट डिज़ाइन पर बहस चल रही है। नेचरल सिलेक्शन डार्विन का उद्विकास का सिद्धांत है। वह सभी जीव-संरचनाओं में लाखों सालों के अनुकूलन से उपजी विकास-प्रक्रियाएं देखता है, और ये प्रक्रियाएं वस्तुनिष्ठ हैं। किंतु मनुष्य के इतिहास में निश्चित ही एक क्वान्टम लीप भी है, एक कॉग्निटिव रिवोल्यूशन है, जो नेचरल सिलेक्शन को झुठलाती है। यह वही गुत्थी है, जिसने होमो सेपियन्स के जेनेटिक ढांचे में तो बदलाव करके उसे एक लम्बी छलांग लगाने के लिए तैयार किया, लेकिन उसने वैसा सेपियन्स के समकक्ष निएंडरथल्स के लिए नहीं किया। उसने उन्हें विनष्ट होने दिया।

यह क्या गुत्थी थी? इसका उत्तर इंटेलीजेंट डिज़ाइन के तर्क से दिया जाता है, कि किसी न किसी अत्यंत मेधावी प्रणाली ने सचेत होकर यह किया है। यह विचार ईश्वर का स्थानापन्न है और विज्ञान में रहस्य के तत्व का समावेश करता है। किंतु इसमें ईश्वर जैसी संलग्नता नहीं है। मुझे यह शब्द अच्छा लगता है- इंटेलीजेंट डिज़ाइन। हमें इसकी वंदना नहीं करनी, इसका उपासनागृह नहीं बनाना, इसके द्वारा रचे गए काल्पनिक नियमों का पालन नहीं करना, इसके प्रति भावुक-सजलता से भी ग्रस्त नहीं होना, वो तमाम बातें जो धर्मों और सम्प्रदायों और संस्कृतियों को जन्म देती हैं। हमें केवल इस पर अचरज करना है, कि यह कैसे हुआ। यह आश्चर्य ही मनुष्य का मूल धर्म है।

कोई दस साल पहले जब सेपियन्स छपकर आई तो ख़ूब पढ़ी गई। वह अंतरराष्ट्रीय बेस्टसेलर कहलाई। जो पुस्तक कहती थी कि मनुष्य को संगठित करने वाले सभी मूल्य काल्पनिक हैं, उसे अनेक मनुष्यों ने एकजुट होकर पढ़ा। अब यह कौन-सा मिथिकल ग्लू था? शायद मनुष्य के भीतर ज्ञान के वृक्ष का फल चखने की जो तृष्णा है, जो विद्या-व्यसन है, प्रश्नाकुलता है, वही इसे यहां खींच लाती है। संज्ञानात्मक क्रांति का विजय-रथ एक अनुकूल पड़ाव पर स्वयं को रोक नहीं सकता। वह अपने आलम्बनों पर भी प्रहार करेगा। इवोल्यूशन अपनी गति से चलेगा और इंटेलीजेंट डिज़ाइन समय-समय पर निर्णायक हस्तक्षेप करेगी।

मनुष्य की मान्यताएं काल्पनिक मूल्यों पर आधारित हैं- यह जान लेना कठिन अवश्य है- किंतु इसके बाद हम कम से कम विपदा में ईश्वर से यह प्रश्न नहीं करेंगे कि क्या यही तेरा न्याय है? क्योंकि कहीं कोई ईश्वर नहीं है और कहीं कोई न्याय नहीं है।