संसार में स्त्री / पवित्र पाप / सुशोभित

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संसार में स्त्री
सुशोभित


संसार भावना से नहीं चलता, व्यवस्था से चलता है। ईश्वर की बनाई इस दुनिया में स्त्री व्यवस्था की प्रतिनिधि है। तो स्त्री व्यवस्था से संचालित होती है या भावना से? यही तो रहस्य है!

स्त्री भावना से संचालित होती है किंतु वैसी भावना जिसे व्यवस्था में बदला जा सके। या वैसी भावना जो किसी व्यवस्था के भीतर है। फिर वैसा सदैव भले ना हो, बहुधा तो यही है।

स्त्री कहती है, मैं अपनी भावना का निवेश उसमें करूंगी, जो व्यवस्था के अनुकूल है। फिर भले वो सुंदर ना हो, व्यवस्थानुरूप होने के कारण वही शुभ है। इसीलिए विवाह स्त्री की सबसे बड़ी आकांक्षा है। प्रेम में उसे व्यवस्था चाहिए। मान्यता चाहिए। दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य चाहिए।

फिर ऐसा भी होता है कि व्यवस्था प्रमुख हो जाती है, प्रेम गौण हो जाता है! यह संसार ऐसी स्त्रियों से भरा हुआ है, जिन्होंने व्यवस्था के लिए प्रेम का बलिदान दे दिया है। या जिन्होंने प्रेम का पुनर्सीमन व्यवस्था के भीतर करने में सफलता पाई है।

और चूंकि परिवार समाज की प्राथमिक इकाई है और स्त्री उसकी धुरी, इसलिए इस बलिदान पर उसको एक सीमा से अधिक क्षोभ नहीं होता। नियमपूर्वक वह जब-तब उसका दु:ख भर मना लेती है, जैसे कोई मृतकों की पुण्य स्मृति को संजोता हो। किंतु उसकी भावना पर दायित्वचेतना का अधिकार अधिक है। वह वैसी ही है, या बाध्यताओं ने उसे वैसा बना दिया है, ये अवश्य मुझको नहीं मालूम।

यह संसार ऐसे पुरुषों से भी भरा है, जिन्हें व्यवस्थाप्रिय स्त्रियों ने त्याग दिया है। स्त्री के साहचर्य ने उनके भीतर प्रेरणा जगाई थी। वैसी भावना पुरुष के भीतर स्त्री ही जगा सकती है। किंतु भावना व्यवस्था को भंग करती है।

स्त्री के द्वारा त्याग दिए जाने से उन पुरुषों की चेतना अवरुद्ध हो गई। किंतु उन्हें निर्णय कर लेना चाहिए कि वे भावना चाहते हैं या व्यवस्था, या दोनों का युगपत।

यदि उन्हें भावना श्रेयस्कर मालूम होती है तो उन्हें एक व्यवस्था के भीतर उस भावना का प्रबंध करना चाहिए। एक घर बनाना चाहिए। घर स्त्री का सबसे बड़ा स्वप्न है।

यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो इस बात का दुःख उन्हें नहीं होना चाहिए कि किसी नगण्य के लिए स्त्री ने उन्हें त्याग दिया, जो उनकी प्रेरणा बनी थी।

स्त्री ने नगण्य को नहीं चुना है, व्यवस्था को चुना है। स्त्री ने प्रेम को नहीं त्यागा है, उस भावना को त्यागा है, जिसका संस्थानीकरण नहीं किया जा सकता था। जिसमें नीड़ नहीं बनाया जा सकता था।

संसार जिसे निष्ठुरता कहेगा, स्त्री उसे ही लोक व्यवहार समझकर कर लेगी अंगीकार।