समता और सहभागिता के लिए आरक्षण मांगती औरतें / संतोष श्रीवास्तव

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सुप्रसिद्ध समाज सेवी, गांधीवादी एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता निर्मला देशपांडे को नहीं लगता कि महिलाओं को आरक्षण देने की ज़रूरत है। आरक्षण कमजोरों के लिए होता है। महिलाएँ शक्तिस्वरूपा हैं कमजोर नहीं... वे संसार रचती हैं... अपने ही रचे संसार में थोड़ी-सी जगह अपने लिए मांगकर वे क्यों अपने को कमजोर सिद्ध करने पर तुली हैं। उन्हें आरक्षण न देकर उन्हें उनके अंदर छुपी आत्मशक्ति को बटोरने की कला सिखानी चाहिए।

अकसर देखा यह गया है कि सुशिक्षित, आधुनिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाएँ अपने खिलाफ हुए अन्याय का खुलकर विरोध नहीं कर पातीं जबकि अशिक्षित एवं साधारण महिलाएँ कर पाती हैं। शायद इसकी वजह है उनका सामाजिक रुतबा। उनका आत्मसम्मान और इंसान होने का गौरव परिवार री इज्जत के नाम पर बलि चढ़ जाता है जबकि गरीब तबके की औरतें इन सब बातों पर विचार नहीं करतीं।

बचपन से देखती आ रही हूँ सिनेमा हॉल में महिलाओं के लिए आरक्षित दर्शक दीर्घा, ट्रेन में महिलाओं के लिए आरक्षित बोगी, बस में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें। पूरी ती पूरी महिला स्पेशल लोकल ट्रेन, महिला स्पेशल लोकल ट्रेन, महिला स्पेशल लोकल बस... महाराष्ट्र की बसों में सबसे आगे की सीट अपंगों के लिए फिर वरिष्ठ नागरिकों के लिए फिर स्त्रियों के लिए तो लगता है हम क्या इतनी बेचारी हैं? राजनीति में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग करने क्या स्त्रियों को दलितों जनजातियों की पंक्ति में नहीं बिठा दिया? क्या स्त्री अपने बूते पर राजनीति में स्थान नहीं पा सकती।

आरक्षण की मांग के पक्ष-विपक्ष में कितने राजनीतिक दल उठ खड़े हुए। समानता के अधिकार को लेकर पूरे देश में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में सैकड़ों संगठन आंदोलनरत हैं। कई बार सरकार इन मांगों को मान भी लेती है। उसी आधार पर महिलाओं ने भी आरक्षण के समर्थन में तीव्र आंदोलन छेड़ रखा है। इस विश्वास के साथ कि भारतीय संसद महिला आरक्षण विधेयक अवश्य पास करेगी। लेकिन कई राजनीतिक दल इसके विरोध में हैं। शायद उनका मानना हो कि अगर वह विधेयक पास हो जाता है तो महिलाओं के अधिकारों में आमूल वृद्धि होगी जो पुरुषों के अधिकारों की कटौती का हिस्सा होगा और फिर कोई जानबूझकर अपने अधिकारों में क्यों कटौती करवाए। अन्य दूसरे दल जो आरक्षण के पक्ष में हैं यह मानते हैं कि महिलाओं को स्वावलंबी बनाना राष्ट्र के विकास की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। सदियों से दबी, कुचली, हीन भावनाओं से ग्रसित महिला अपने इस स्वरूप को त्याग कर आगे आने के लिए छटपटा रही है तो उसे अवसर क्यों न दिया जाए। इस आरक्षण विधेयक के पास होने से उन्हें भी राजनीतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में आने का अवसर मिलेगा।

पिछले कुछ वर्षों में बल्कि देखा जाए तो स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय से महिलाओं से जुड़े इस नए शब्द आरक्षण ने तूल पकड़ा है। लंबे समय तक फैले शून्य के बाद पंचायती राज्य की कल्पना के क्रम में राजीव गांधी के मन में स्त्री को उचित प्रतिनिधित्व देने का विचार आया। यह विधेयक उसी कल्पना के महल पर खड़ा है। देखते ही देखते स्थानीय सरकारों, नगर पालिका, पंचायतों का चेहरा बदल गया। बड़ी संख्या में औरतों ने घरों से निकलकर लोक प्रशासन की कमान संभाली। पुरुषों को परिवार और अपने पद खतरे में नजर आने लगे। उन्हें लगा कि अगर औरतों का दखल बढ़ा तो सब कुछ गड़बड़ा जाएगा। जबकि उनके पदों पर रहते कितना कुछ सही हो रहा है, यह तो सभी को पता है। संसद और विधानसभा में औरतों की सहभागिता बढ़नी ही चाहिए। समता और सहभागिता के नाम पर औरतों को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का कानून बनना ही चाहिए। लेकिन इस अनिवार्य मुद्दे पर विपक्षी दलों ने जमकर हंगामा किया। देखा जाए तो कानून औरतों को आरक्षण देने में कहीं भी बाधक नहीं है। इसी वजह से स्थानीय लोक प्रशासन में औरतों को 33 प्रतिशत आरक्षण देने में कोई दिक्कत भी नहीं आई। बाधाएँ राजनीतिक सुविधा और असुविधाओं ने खड़ी की हैं। केंद्रीय सरकार आज इस हालत में नहीं है कि वह अपनी मर्जी से यह बिल पारित कर दे।

महिला आरक्षण विधेयक एक गंभीर मसला बनता जा रहा है। आखिर आरक्षण के विषय को लेकर विभिन्न कार्य क्षेत्रों से जुड़ी महिलाएँ क्या सोचती हैं? जनता दल की वरिष्ठ नेता मृणाल गोरे का कहना है-आखिर महिलाओं के आरक्षण की नौबत ही क्यों आई है? 1975 में स्टेट्स आॅफ वूमेन कमीशन आया। यह कमीशन अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष होने की वजह से आया था जिसमें महिलाओं की स्थिति के बारे में रिपोर्ट दी गई थी तथा महिलाओं को विधानसभा और लोकसभा को छोड़ ग्राम पंचायतों, जिला और तालुकों तक आरक्षण देने की बात कही गई थी लेकिन पिछले पच्चीस वर्षों में परिस्थितियाँ सुधरने के बजाय बिगड़ती गईं। इसलिए विधानसभा और लोकसभा के लिए भी आरक्षण की ज़रूरत पड़ने लगी। आज सिर्फ़ महिलाएँ ही नहीं किसी भी कौम को अपने बलबूते पर विकास करना मुश्किल होता जा रहा है। अत: महिलाओं को आरक्षण देकर पुरुषों की बराबरी देने की बात डॉ. राममनोहर लोहिया ने की।

महिलाओं को सत्ता में अधिकार मिल सके इसलिए आरक्षण ज़रूरी हो गया। 1996 से महिला आरक्षण की चर्चाएँ होने लगीं। विभिन्न दलों की महिलाओं ने भी आवाज उठाई। कई नेताओं ने विरोध जताया। उन्हें डर था कि उनकी सीटें कम हो जाएंगी। कुछ महिला संगठन भी हरकत में आए। उनका कहना था कि महिलाएँ एक हैं, उन्हें जाति के आधार पर विभाजित नहीं किया जा सकता। 33 प्रतिशत आरक्षण में से संविधान में अनुसूचित जाति के लिए जो 13 प्रतिशत आरक्षण है वह तो रहेगा ही पर इस 33 प्रतिशत में से 27 प्रतिश्त आरक्षण अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए होना चाहिए। मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण देना उचित नहीं क्योंकि धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

मुंबई भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा कि अध्यक्ष पारुल मेहता का कहना है-महिलाओं के लिए आरक्षण होना ही चाहिए। इस देश में संख्या कि दृष्टि से महिलाओं का प्रतिशत लगभग 50 प्रतिशत के आसपास है। महिलाओं में सम्बंधित समस्याओं को समझने के लिए प्रत्येक संस्था चाहे वह लोकसभा हो, विधानसभा हो, नगरपालिका, सरकारी या गैर सरकारी कार्यालय हो महिलाओं के बारे में उनसे जुड़ी बातों के बारे में एक महिला ही अच्छी तरह से समझ सकती है। इसका अर्थ यह नहीं कि महिलाओं के बारे में पुरुष या पुरुषों के बारे में महिला नहीं समझ सकती लेकिन सदन में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व होगा तो उनके साथ-साथ समाज के इस वर्ग का भी अच्छी तरह से भला हो सकता है। व्यक्तिगत तौर पर देखा जाए तो महिलाओं के सर्वांगिण विकास के लिए उनका हर क्षेत्र में रहना आवश्यक है। समय काफी बदल गया है। समय के साथ चलने की सबको अपनी आदत बनानी चाहिए। कुछ सालों में हर क्षेत्र में महिलाओं ने काफी प्रगति की है। उनका दायरा व्यापक हो गया है। जनसंख्या कि दृष्टि से देखा जाए तो एक बड़ा वर्ग है जो देश को किसी भी क्षेत्र में प्रभावित कर सकता है। ऐसी हालत में उनकी सहभागिता आवश्यक है।

निर्णय में महिलाओं की सहभागिता रहेगी तो उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ेगी। दकियानूसी नजर से ऊपर उठकर जन प्रतिनिधियों के तौर पर महिलाओं को हर क्षेत्र में आरक्षण देना आवश्यक है। समय की मांग है अब इसे ज़्यादा दिन नहीं टाला जा सकता। मुंबई महानगरपालिका जैसे कुछ क्षेत्रों में जहाँ महिलाओं को प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया गया है... बहुत बेहतरीन कर दिखाया है उन्होंने। महिलाएँ जब सदन में रहेंगी तो निश्चित तौर पर महिलाओं की आवाज को वे बुलंद करेंगी।

महिला समाजवादी पार्टी मुंबई की अध्यक्ष आयशा शेख मुस्लिम महिलाओं के लिए भी आरक्षण चाहती हैं। महिलाओं को अधिकार देने अथवा उन्हें आरक्षण देने की बात इसलिए की जा रही है क्योंकि सदियों से उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है। पिछड़ी जातियों की महिलाओं को आरक्षण नहीं दिया जाएगा तो वे अपने समाज का और अपना विकास कैसे कर पाएंगी। महिलाओं को अधिकारों से दूर रखा जाता है। उन्हें अधिकार नहीं दिए जाते। इनकी वजह साफ है क्योंकि जब भी अधिकार देने की बात आती है पुरुष प्रधान समाज उसके विरोध में आवाज उठाता है तथा अधिकारों का वितरण भी पुरुष ही करता है। अगर महिलाओं को बराबर का हिस्सेदार बनाया जाए तो यह नाइंसाफी न हो। आज सारी दुनिया में आबादी के लिहाज से जितने पुरुष हैं तकरीबन उतनी ही महिलाएँ हैं लेकिन क्या तमाम देशों की हुकूमतों में उतनी ही औरतें हैं जितने कि पुरुष? यह कड़वा सच है। महिलाओं को घर के कामों के दायरे में बाँधकर पुरुष सदा से उस पर हुकूमत करता आया है। महिलाओं को आरक्षण के माध्यम से ही विकास की सीढ़ी पर चढ़ाया जा सकता है। महिला आरक्षण को लेकर उठ रहे विवाद सभी राजनीतिक पार्टियों की देन हैं। 33 प्रतिशत आरक्षण में पिछड़े वर्ग की महिलाओं के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं को भी आबादी के मुताबिक आरक्षण दिया जाएगा तभी वे आगे आएंगी। आरक्षित सीट होने का लाभ महिलाओं को मिलेगा अन्यथा ओपन सीट पर कोई भी उच्च वर्ग की महिला चुनाव लड़ेगी। यही होता भी आया है। आरक्षण होने से हर वर्ग की महिलाओं को लाभ मिलेगा।

मेहनतकश व संघर्षशील महिलाओं को संभ्रात या कठपुतली किस्म की महिलाओं के मुकाबले कैसे तैयार कर नई चुनौती का मुकाबला किया जाए? सबसे अधिक दबी-कुचली महिलाएँ सत्ता हासिल करने और इसके जरिए समाज परिवर्तन का ख्वाब दिल में संजोए आगे बढ़कर सामंती, ब्राह्मणवादी व सामंती कुल के वर्चस्व की ताकतों का मुकाबला करें यही लक्ष्य होना चाहिए। राजनीति का आज रूप काजल की कोठरी वाला हो गया है। उसे धो-पोंछकर थोड़ा साफ-सुथरा बनाने के लिए महिलाओं की सहभागिता आवश्यक है। इन्हीं विचारों के मद्देनजर और आरक्षण विवाद खत्म न होने से नाराज महिलाओं ने खुद ही मैदान में उतरने का संकल्प ले लिया है।

वर्ष 2004 में उन्होंने प्रण किया था कि वे विधान सभा एवं लोकसभा चुनावों में भागीदारी करेंगी भले ही आरक्षण मिले न मिले। नवगठित वूमनेस्ट पार्टी आॅफ इंडिया कि राष्ट्रीय अध्यक्षा वर्षा काले ने महिला के लिए महिलाओं द्वारा महिला पार्टी गठित की है तथा सैकड़ों की तादाद में इकट्ठा कर महिलाओं को अपने अधिकारों को छीनकर लेने के लिए तैयार किया और उन्हें शपथ दिलाई। काले ने ऐलान किया कि अब महिलाओं को आरक्षण देने का नाटक बंद करना होगा। अब महिलाएँ स्वयं चुनावों में अपनी पार्टी के बैनर तले उतरेंगी। मौजूदा राजनीतिक भ्रष्टाचार, अन्याय, अत्याचार एवं शोषण से दु: खी महिलाओं को अब अपनी खुद की पार्टी गठित करनी होगी, अब वह वक्त आ गया है। महिलाओं ने आगामी विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों में उतरने तथा आगामी छह वर्षों में महिलाओं के कैबिनेट में प्रवेश के लिए शपथ ली। वूमनेस्ट पार्टी आॅफ इंडिया सदस्यता अभियान शुरू करेगी और एक साल में केवल महाराष्ट्र में ही पांच लाख सदस्य बनाने का लक्ष्य रखेगी।

विदेशों में महिलाएँ राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। रूस, फिलीपींस, ग्रीस, आॅस्ट्रेलिया एवं कंबोडिया में महिलाओं ने राजनीतिक संगठन तैयार किए हैं तथा वे प्रभावशाली राजकीय शक्ति के रूप में उभर रही हैं। जो भारतीय महिलाएँ विदेशों में रह रही हैं वे वहाँ महिलाओं के हित के कार्यों में संलग्न हैं। मेरे जर्मन प्रवास के दौरान बर्लिन में हिन्दी और हिन्दुस्तानी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए आयोजित कार्यशाला में भाग लेते हुए मेरी मुलाकात भारतीय मूल की सइसीला शर्मा से हुई। उनका वहाँ एक प्रोजेक्ट है लेडीज कार्नर। यह भारतीय महिलाओं की संस्था है। भारत और जर्मनी के माहौल में पर्यावरण में यहाँ तक कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति में भी कोई समानता नहीं है। भारत में आज भी मनुस्मृति को माना जाता है जबकि जर्मनी की हर महिला स्वयंसिद्धा है। भारत की पचासवीं या सौंवीं महिला ही स्वयंसिद्धा है। महिला को विवाह करके घर बसाना है या नहीं इस पर जर्मनी में समाज की पाबंदी नहीं है, जबकि भारत की हर महिला का व्यक्तित्व समाज की बंदिशों से बंधा है। देखना यह है कि आरक्षण का मुद्दा उन्हें कितना राजनीति की गलियों में ला पाता है।