सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 10 / जयनन्दन

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नयी लगन और गहरी संलिप्तता से फटाफट कई लड़के ट्रैक्टर चलाना सीख गये। तीन दिन बाद ही फुलेरा बाँध की जमीन की जुताई का कार्यक्रम बना लिया गया। डीसी से उन्हें लीज का अनुमति पत्र प्राप्त हो गया था। डीसी को तौफीक ने टेकमल के खूनी इरादे की जानकारी देते हुए इदरीश को मोहरा बनाकर गाँव की शांति भंग करने के लिए उसके द्वारा चली जा रही चाल का पूरा विवरण बयान कर दिया, ताकि भविष्य में ऐसी कोई अप्रिय घटना होने पर टेकमल की गर्दन सीधे पकड़ी जा सके। डीसी ने आश्वासन देते हुए कहा, 'ऐसा कुछ भी होने का आसार दिखाई पड़े या गुप्त सूचना मिले तो कार्यालय में तुरंत इत्तिला करें। गुनाह करनेवाला कितना भी बड़ा बाहुबली हो, उसके खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई करने से जरा भी नहीं हिचकेंगे। मुझे इसकी अपुष्ट जानकारी पहले से है कि वह हमारे कुछ मातहत अधिकारियों को पटाकर रखा हुआ है, जिनकी मदद से वह अपनी निरंकुशता और ऐंठ बहाल रखता है।'

उन्होंने आगे आग्रह करते हुए फिर कहा, 'जब तक मैं यहाँ पदस्थापित हूँ टेकमल की लगाम ढीली नहीं की जायेगी। लेकिन आपलोगों को उस स्थिति के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि मेरा कभी भी तबादला हो सकता है और हमारी जगह लेने वाला अधिकारी टेकमल का समर्थक निकल सकता है या उसके रवैये के प्रति उदासीन रहने की नीति अपना सकता है।'

टेकमल ने इदरीश को झिड़कते हुए जोरदार फटकार लगायी, 'अनाड़ी की तरह तुम्हें हरकत करने की किसने सलाह दी थी? अगर तुम्हें बंदूक की नोक पर उन दोनों बहनों को अगवा कर लेना था तो मुझसे पहले कहे होते, मैं अपना कुछ और आदमी वहाँ लगा दिया होता। फिर देखते कि वहाँ कोई होंठ भी कैसे फड़फड़ा लेता। दूसरी बात कि अगर तुमने पिस्तौल निकाल ली और उस लौंडे ने हमला कर दिया तो उस पर सीधे गोली दाग क्यों नहीं दी?'

'दाग तो देता ही हुजूर। छाती में नहीं तो टाँग तो छेद ही देता साले की। बहन की तरह एक पैर का अपाहिज बना घूमता फिरता। लेकिन वह इतनी तेजी से झपट पड़ा कि मुझे मौका ही नहीं मिला। मुझे माफ कर दीजिए इस बार, बहुत बड़ा सबक मिल गया मुझे।' गिड़गिड़ाते हुए कहा इदरीश ने।

'दिक्कत यह है कि तुम्हारे इस अनाड़ीपन के कारण अब बहुत दिनों तक उनके खिलाफ कुछ भी करना मुमकिन नहीं होगा। चूँकि कुछ भी होगा तो शक की सुई खट से तुम्हारे ऊपर चली जायेगी। खामखा तुम बदनाम भी हुए और कोई काम भी न हुआ।'

'हुजूर, बदनाम हो ही गये हैं तो छोड़ेंगे नहीं...उनके ट्रैक्टर के सभी चक्कों में गोली मार देंगे...जोतें साले कैसे जोतते हैं फुलेरा बाँध की जमीन!'

'इस तरह की बेवकूफी करने से हमारे मकसद को कोई फायदा नहीं पहुँचनेवाला है। नाहक वे लोग पकड़वाकर हाजत के भीतर करवा देंगे। झंझट मेरा बढ़ जायेगा तुम्हें निकलवाने का। जनता में हमारी किरकिरी होगी सो अलग।'

'क्या करें हुजूर देखा नहीं जाता। ट्रैक्टर लाकर इस तरह इतरा रहे हैं कि मेरी छाती पर साँप लोटने लगा है। शफीक और अतीक-मुजीब भी अब वापस लौट जानेवाले हैं। वे लोग काफी मायूस और नाउम्मीद हो गये हैं। शुक्र है कि वे अब भी मेरे फेवर में हैं और मुझसे उनका मोहभंग नहीं हुआ है। शफीक ने अपने हिस्सेवाली जमीन और घर मेरे हवाले कर दिया है।'

'अच्छा! तुमने तो यार गजब का जादू कर दिया है उन लोगों पर! लेकिन जमीन लेकर करोगे क्या...तुम तो उन्हें आबाद करने से रहे...परती ही रहेगी सारी जमीन। तुमसे होगा भी नहीं...अब बैठकर खाने की तुम्हें आदत जो हो गयी है। पिस्तौल धारण करने के बाद तो देह और भी मेहनतचोर हो जाती है। एक फायदा होगा कि तुम उनके बगल में रहकर खुफियागीरी कर सकोगे और न होगा तो चुनाव के समय हम संपर्क ऑफिस के तौर पर उसे इस्तेमाल में लायेंगे।'

इदरीश ने समर्थन में अपनी मुंडी हिला दी।

फुलेरा बाँध की जमीन की कई-कई बार गहरी जुताई की गयी। इसमें मवेशियों का गोबर-गनौरा पहले ही खूब डाल दिया गया था। गाँव में जहाँ-तहाँ जमा इस तरह की देसी खाद की ट्रैक्टर से भी ढुलाई कर ली गयी। लड़कों में ट्रैक्टर से काम करने का गजब का उफान था। बारी-बारी से वे भिड़ जाते थे और थकते ही नहीं थे। नयी जमीन पर अंततः मूँगफली (चीनियाबादाम) की फसल ही उपयुक्त समझी गयी। मतीउर ने बड़ी-बड़ी क्यारी बनवायी और ट्रैक्टर के फाल द्वारा लाइन से खींचे गये गड्ढे में दो-दो फुट की दूरी पर बीज गिरवाये। इस काम में सबने सहयोग किया। बीज गिराने के बाद ट्रैक्टर के पीछे से फाल हटाकर सपाट पट्टा लगाकर जमीन समतल बना दी गयी। एक महीने में चीनियाबादाम के दाने मिट्टी की कोख में अंकुरित होकर बाहर झाँकने लगेंगे।

अषाढ़ अब खत्म होनेवाला था। अम्मा और तौफीक के सारे खेतों का कर्णधार मतीउर अब उनके लिए जुगाड़-पाती में लग गया था। धनहर खेतों के लिए उसने धान का बिजड़ा गिरा दिया था। ट्रैक्टर से चास करने में उसे खूब मजा आ रहा था। बैलों से हल जोतने में दिन-दिन भर झींकना पड़ता था और काम बहुत कम निकल पाता था। अब बैल रखने का झंझट खत्म।

ट्रैक्टर होने से यह सहूलियत थी कि कभी मतीउर, तो कभी भैरव, तो कभी तौफीक जुताई करने लग जाते थे। तौफीक अब मतीउर के साथ खेती में पूरा समय देने लगे थे। तौफीक ही नहीं, लगभग पूरा परिवार ही मतीउर का सहायक बन गया था। उसकी अम्मी मिन्नत अब पूरे मनोयोग से अपने बेटे के आगे-पीछे जुटी रहती थी। खाना बनाकर निकहत जब फुर्सत में होती तो वह भी माँ के साथ खेत पहुँच जाती। कभी खाना लेकर, कभी पानी लेकर, कभी बीज लेकर, कभी खाद लेकर, कभी कुदाल या गैंता लेकर। ट्रैक्टर की ड्राइविंग सल्तनत भी सीख गयी थी और सबके मना करने के बावजूद जब जुताई हो रही होती तो दस-बीस मिनट वह भी चला लेती।

सल्तनत को शुरू से ही वर्जनाओं को तोड़ने में आनंद मिलता रहा था...चाहे बुर्के की सरहद को तोड़ना हो...अन्तरजातीय प्यार करना हो...ऊँची तालीम लेनी हो...अनशन पर बैठना हो...खेत-खलिहान घूम-घूमकर जन संपर्क चलाना हो और अब औरत होकर हल जोतना हो...।

यों तो सभी किसानों की जमीनें पूरे गाँव की चैहद्दी में दूर-दूर तक फैली थीं। बहुत बड़ा प्लॉट एक ही जगह हो ऐसा किसी के साथ नहीं था। हाँ, ऐसा जरूर था कि उस खास एक ही खंधे अर्थात बाँध, जिसे लोग घोघरा बाँध कहते थे, में तौफीक के पाँच कट्ठे-सात कट्ठे के कई प्लॉट थे। इसी घोघरा में जकीर के भी कई प्लॉट थे। यहाँ उसने अपने एक खेत के कोने में ट्यूबवेल लगवा रखा था, जिसकी क्षमता आराम से पाँच-सात बीघा जमीन सींचने की थी। मतीउर ने इसका अधिकतम उपयोग शुरू कर दिया।

इस ट्यूबवेल के पास एक पेड़ था जो धड़ के मामले में दो पेड़ था...या कह सकते हैं कि वहाँ दो पेड़ था जो जड़ के तौर पर एक पेड़ था। जड़ जामुन की थी जिसकी दो मोटी शाखाओं के बीच एक आम का पेड़ उभर आया था। इसकी विशालता अद्भुत थी। उनके फलों में एक विचित्रता समाविष्ट रहा करती थी। आम का आकार बहुत छोटा होता था और उसे खाते हुए ऐसा लगता था कि आम के साथ जामुन भी खा रहे हैं। यही स्थिति जामुन के साथ थी। जामुन अपने आकार से बड़ा फलता था और उसे खाते हुए आम का स्वाद भी लिया जा सकता था।

एक सौ फुट की परिधि में इस पेड़ की टहनियाँ छितरायी हुई थीं और नीचे उनकी बहुत गाढ़ी छाया उतरती थी। धूप-पानी से राहत के लिए किसान इसी पेड़ के नीचे आश्रय तलाशते थे। पेड़ के ऊपर चिड़ियों-चुरगुनों के सैकड़ों घोंसले थे। कोई नीचे बैठ जाये तो उनके कलरव का वैविध्य किसी कंसर्ट की अनुभूति देने लगता था। जकीर ने इस पेड़ के बगल में कतार से कई और गाछ लगा दिये थे, जो अब बड़े-बड़े हो गये थे। सल्तनत इस जगह जब भी आती थी खिंचकर बैठ जाती थी और देर तक पक्षियों की आवाजें सुनती थी तथा उनके कौतुक देखती थी...इस डाल से उस डाल पर फुदकना...तिनका-तिनका चुनकर घोंसला बनाना...अपने चूजे के लिए दाना लाकर उनके मुँह में डालना...एक-दूसरे को चोंच मारकर खिलंदड़ी करना...नर-मादा के बीच यौन क्रिया का होना। यहाँ आकर उसे अनायास जकीर के अस्तित्व का भी आभास होने लगता था। उसका लगाया ट्यूबवेल, उसके लगाये वृक्ष, उसकी बनवायी कोठरी...प्रतीत होता था जैसे किसी संत के आश्रम में आ गये। आसपास के सारे किसान दोपहर का कलेवा इसी जगह करते थे।

जिस दिन धनरोपा शुरू हुआ उस दिन घर में एक उत्सववाले खास दिन की चहल-पहल उतर आयी...कई व्यंजन, कई पकवान और कई तरह के चटकदार भोजन। निकहत ने अम्मा के निर्देशन में अपनी पाक कला के तरकश में जितने तीर थे, सारे लगा दिये। खेतों में मतीउर, तौफीक और भैरव जी-जान से भिड़ गये थे। भैरव के पिता प्रभुदयाल भी आ गये और वे भी उन्हें साथ देने लगे। दोनों परिवारों के बीच संबंधों की प्रवाहित अन्तर्धारा में व्याप्त अपनापन अब साफ महसूसा जा सकता था। करीब पचास धनरोपनी महिलाएँ एक साथ लगा दी गयी थीं। एक महिला दो से ढाई कट्ठे में रोपा कर लेती है। इस हिसाब से इनके लिए खेत तैयार करना, मोरी (पहले चरण के खेत से उखाड़े गये धान के छोटे पौधे) उपलब्ध कराना, मेड़ दुरुस्त करना...कई तरह की व्यस्तताएँ थीं, जिसके लिए एक तजुर्बेकार मास्टर माइंड किसान की खास जरूरत थी। इस मायने में प्रभुदयाल जी से उपयुक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता था। लविस के कुछ लड़के भी मदद के लिए स्वतः आ गये थे।

सभी परिवार जनों और धनरोपनियों के लिए अम्मा, अम्मी, निकहत और सल्तनत एक साथ इसी गाछ के नीचे अपनी विषिष्ट तैयारी लेकर हाजिर हो गयीं। मिट्टी और कादो में सबके हाथ-पैर लिटाये-पिटाये थे। पसीने और थकान से सबके चेहरे लाल थे। सबने ट्यूबवेल पर जाकर अच्छी तरह हाथ-मुँह धोये। सबको पत्तल देकर खाना परोसा जाने लगा। विभिन्न बर्तनों में सजी चटपटी और लजीज खाद्य सामग्रियों से भूख बढ़ा देनेवाली खुशबू निकलकर पूरे विश्राम स्थल पर पसर गयी। भैरव लंबी साँस लेते हुए खुशबू को भीतर उतारने लगा। सल्तनत ताड़ गयी और कनखियों से देखकर हल्के-से मुस्कान बिखेरती हुई काम में लग गयी।

खाने के बाद जरा सुस्ताकर सभी चले गये। भैरव परोसने में लग गया था इसलिए सबके निवृत्त हो जाने के उपरांत उसने खाना शुरू किया। घर की अन्य महिलाएँ भी चली गयीं, सिर्फ सल्तनत रह गयी। वह देख रही थी उसका हुलिया। खेत के कादो और धूप में लगातार रहने से उसका रंग साँवला हो गया था। भैरव ने खाते हुए पूछा, 'इतना क्या देख रही हो?'

'कब नहीं देखती हूँ तुम्हें? कितना भी देखती हूँ, फिर भी देखना पूरा नहीं होता। आज काफी थक गये लगते हो!' उसके माथे से कादो का एक थक्का निकालते हुए कहा सल्तनत ने।

'थक गया था लेकिन अब कोई थकान नहीं है। निकहत ने कमाल किया है...इतना अच्छा भोजन और वह भी तुम्हारे हाथ से तुम्हारे सम्मुख। सुबह से लगता है तुम भी बहुत व्यस्त रही। थकी हुई तो तुम भी दिख रही हो।'

'निकहत के साथ लगी रही सुबह से। थक गयी थी लेकिन अब मुझे भी थकान नहीं है।'

दोनों हँस पड़े एक साथ।

'आज तो मामू ने भी गजब कर दिया है, लगता ही नहीं कि खेती-गृहस्थी से वे वर्षों दूर रहे। मतीउर के लिए इससे बड़ा वरदान और क्या होगा...एक तो मामू और ऊपर से बाउजी भी हाथ बँटाने आ गये।'

'सच पूछो तो पूरे धनरोपा ऑपरेशन का हीरो मतीउर ही है, हमलोग तो बस शामिल बाजा हैं। मतीउर के बिना हम सब अधूरे थे। उसने आकर हमें पूर्णता दी है...उस दिन भी इदरीश के चंगुल से मतीउर ने जिस तरह तुम्हें मुक्त करवाया, ऐसी जाँबाजी कोई हीरो ही दिखा सकता था।' भैरव ने कहा।

'लेकिन जानते हो, मतीउर का इस तरह जोखिम उठाना मुझे बहुत डरा गया है। पहले इदरीश की खार तुमसे थी, अब उसमें मतीउर भी शामिल हो गया है।'

'इदरीश कुछ नहीं कर पायेगा...तुम नाहक इस तरह का खयाल अपने मन में लाती हो...खयाल रखना ही है तो अपना रखो। तुम्हें बताया था न कि उससे निपटने की हमने भी तैयारी कर ली है।'

'तैयारी का कुछ मतलब तब निकलता है जब दुश्मन को भी अपनी जान का डर हो। इदरीश तो एक पागल, झक्की और दूसरों के इशारों पर नाचनेवाला कठपुतला है। ऐसा आदमी जिद पर आकर अपनी परवाह नहीं करता। जब उसे यह लग जायेगा कि उसने अपनी सारी लड़ाइयाँ हार लीं तो वह आत्मघाती मंसूबा लेकर कुछ भी करने पर उतारू हो जायेगा।'

'सल्तनत...तुम अब किसी की प्रेमिका या किसी की बहन भर नहीं हो। यह सब बातें तुम्हारे दिमाग में इसलिए आती हैं कि प्यार को तुमने अपनी धड़कन का हिस्सा बना लिया है। अपने प्यार पर तुम कोई खरोंच तक आने नहीं देना चाहती। अपनी तरलता को थोड़ा कम करो, सल्तनत।'

'कैसे कम करूँ? तुम्हारे और मतीउर के बिना जिंदगी में रह क्या जायेगा। सुबह रूपेश आया था...।'

'रूपेश !' चौंक पड़ा भैरव, चूँकि रूपेश के आने में किसी न किसी गोपनीय सूचना मिलने का अभिप्राय छिपा होता था। 'मुझसे तो उसने भेंट नहीं की?'

'तुम निकल चुके थे घर से। उसने मुझे बताया कि आज कोई गड़बड़ी हो सकती है। बाहर के अपरिचित अपराधकर्मियों की मार्फत टेकमल ने उपद्रव व आतंक फैलाने की योजना बनायी है। रूपेश ने बताया कि इदरीश कुछ चेहरों और गाँव की गलियों की पहचान करवाने के लिए किसी अजनबी को अपने साथ आज घुमानेवाला है। मैंने तुरंत समिति के कुछ लड़कों को खबर करके बुलवा लिया।'

'अच्छा तो तुमने बुलवाया है इन लड़कों को? अब समझ में आया इनके आने का औचित्य! इसीलिए देख रहा हूँ कि कुछ लड़के आने के बाद आसपास की गश्त लगा रहे हैं और हर आने-जानेवालों को सतर्कता से देख रहे हैं! '

धनरोपा वाले खेतों से होकर दो-तीन लड़के इस तरफ ही आते हुए दिख गये। वे पास आ गये तो भैरव ने पूछा, 'क्यों, सब ठीक है न! '

एक लड़के ने सामने का एक तड़बन्ना दिखाते हुए कहा कि वहाँ कुछ लोगों के साथ इदरीश बैठकर ताड़ी पी रहा है। भैरव ने सूचना को सही मानते हुए अनुमान लगाया कि ताड़ी पीने के बाद वह इस तरफ आ सकता है। उसने उन लड़कों के साथ सल्तनत को घर चले जाने का इशारा किया।

धान की फसल लहलहाने लगी। कई वर्षों बाद धान की ऐसी खेती यहाँ खुशियों की महमहाती बालियाँ उगानेवाली थीं। चुन्नर यादव का छोटा भाई रात में आल्हा टेरने लगा था। उसके आल्हा टेरने का मतलब होता था आसन्न सुख भरे दिनों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति। औरतें कंधा जोड़कर रात में झूमर गाने लगी थीं।

नहर में पानी दो-तीन दिन ही उस अवस्था में आ सका जब नदी बाढ़ से लबालब उपरा गयी। इन दो-तीन दिनों का भी अच्छा उपयोग कर लिया गया। आहर और पोखर की दशा ठीक होने से उसे खजाने के तौर पर इस्तेमाल के लिए भर लिया गया।

गाँववालों पर इतराहट का एक नया चँदोवा तन गया। आसपास के गाँवों में भी इस तरह की योजनाओं को शुरू करने के लिए लविस के लड़कों की कवायद तेज हो गयी। गाँववालों के साथ वे बैठकें करने लगे। खासकर अब तक अलग-थलग रहे युवा बेरोजगार लड़कों को प्रेरित करने...कन्विंस करने का काम शुरू कर दिया गया था। संगठन का नतीजा उनके सामने था, जिसे अनुकरणीय मानने में किसी में कोई संशय नहीं था।

ऐसे समय में जब किसानों की उम्मीदें अच्छी फसल के रूप में खेतों में लहलहा रही थीं, विधान सभा चुनाव की घोषणा हो गयी। पहले से ही इस विषय पर सहमति बना ली गयी थी कि विधान सभा में अपना एक उम्मीदवार जरूर खड़ा करके जिताना है ताकि इस क्षेत्र के बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करने का आधार तैयार हो सके। नहर का पुनरुद्धार, रेल स्टेशन पर गाड़ियों की समयबद्ध उपलब्धता, टूट-फूट कर गड्ढों में बदल गयी सड़कों को जीवनदान और बिजली की पुनर्बहाली आदि कई ऐसे सार्वजनिक महत्व के काम थे, जिन्हें सरकार और उसके प्रतिनिधि ही कामयाब कर सकते थे।

लविस की ओर से उम्मीदवार किसे बनाया जाये, यह एक अहम मुद्दा था जिसे हल करना था। तौफीक के नाम पर सबकी आम सहमति थी लेकिन वे खुद उम्मीदवार नहीं होना चाहते थे। लड़कों के नाराज होने पर उन्होंने समझाया, 'अगर मैं उम्मीदवार बन जाता हूँ तो संदेश यही जायेगा और यही प्रचारित किया जायेगा कि यहाँ जो कुछ भी किया गया वह नेता बनने के लिए एक सुनियोजित अभियान था। जाहिर है कि हमारी निष्ठा एवं निस्वार्थ भावना इससे आहत होगी। हमारा लक्ष्य इससे गतिरोध को प्राप्त होगा। दूसरी बात कि हमारे उम्मीदवार बन जाने भर से ही जीत जाना तय नहीं हो जाता। चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवार की पात्रता को कई समीकरण और परिस्थियों की कसौटी पर कसना पड़ता है। पूर्व विधायक, जो एक राष्ट्रीय पार्टी का थोपा हुआ उम्मीदवार था और जीतने के बाद उसने अपनी शक्ल शायद ही कभी कभार दिखायी, महज जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर यहाँ से उतारा गया था। अब वही समीकरण लेकर टेकमल अपने बेटे को उतारने जा रहा है। जाहिर है इस समीकरण के आसपास ही हमें भी अपना निर्णय करना होगा।'

कुछ लड़के चौंक गये। चन्द्रदेव ने पूछा, 'मतलब आप उम्मीदवार नहीं होंगे तो क्या सल्तनत भी नहीं बनायी जायेंगी?'

तौफीक ने सल्तनत की तरफ देखा, जिसका मतलब था कि इसका जवाब सल्तनत ही दे। सल्तनत ने चन्द्रदेव को स्नेह से देखा और मुस्कराते हुए कहा, 'मैं जानती हूँ कि तुम सभी साथियों ने अपने हृदय में मुझे बहुत ऊँचा आसन दे रखा है, मैं इसके लिए सबका तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ। एक बात हमें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि हमारे बीच से उम्मीदवार कौन बनेगा, यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि उम्मीदवार जो भी बनेगा उसे जीतना है और जीतकर लविस के उद्देश्यों के अनुरूप अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करना है। सिटिंग सांसद टेकमल और सीटिंग विधायक भूरेलाल की तरह जनता की तिजोरी में डाका डालना और अपने खानदान की किस्मत चमकाना हमारी राजनीति का हिस्सा नहीं हो सकता। हमें अपनी साख बनाने और ऐश करने के लिए नहीं बल्कि एक कठिन टास्क पूरा करने के लिए विधान सभा या लोक सभा पहुँचना है। ऐसा नहीं कि हमें उम्मीदवार बनाकर किसी को पारितोषिक देना है या उसके काम का मूल्यांकन करना है। जिसे भी हम भेजेंगे उसमें हम सबके चेहरे प्रतिबिम्बित होंगे, हम सबका मान बढ़ेगा, उसके गौरव से हम सभी गौरवान्वित होंगे। वह भले ही अकेला जीतकर जायेगा, लेकिन वह हम सबकी सामूहिक जीत होगी। इसलिए मेरा आप सभी से निवेदन है कि आप इस पहलू पर ध्यान मत दीजिए कि उम्मीदवार कौन होगा और क्यों होगा? ध्यान हमें इस पर देना है कि जो जीत सके उसे ही उम्मीदवार होना है।'

उपस्थित सारे लड़के सल्तनत के निहितार्थ से अच्छी तरह वाकिफ हो गये। उन्हें आभास हो गया कि निर्णय किसी ऐसे नाम पर होना है जो चुनावी समीकरण के अनुकूल साबित हो।

एक लड़के ने अपनी रुष्टता जाहिर करते हुए कहा, 'अगर हमलोग भी जात-पाँत की संकीर्णता और क्षुद्रता को ही आधार बनाकर राजनीति करेंगे तो फिर उनमें और हममें फर्क क्या रह जायेगा?'

'बेशक यह हमारे लिए दुखद है,' तौफीक ने कहा, 'लेकिन मौजूदा सियासी सूरतेहाल का जो विकृत खाका है उसमें सैद्धान्तिक होकर फिट नहीं हुआ जा सकता। चुनाव के गटर को पार करना है तो उसमें घुली गंदगी, कीचड़ और प्रदूषण में उतरना ही पड़ेगा। इस गटर के डर से ही अच्छे लोग, काम करनेवाले लोग, सफेद कपड़े की तरह स्वच्छ आचरण रखनेवाले लोग उतरते ही नहीं गंदगी में, नतीजा होता है कि बुरे और बदनाम लोगों का ही जमावड़ा बनकर रह जाते हैं प्रतिनिधि सदन। सवाल यह है कि अगर वाकई आपको काम करना है...नया विहान लाना है...समाज का नक्शा बदलना है तो वहाँ गये बिना नहीं हो सकता। और वहाँ जाना है तो आपको बुरे, गंदे, घिनौने और कमीने लोगों से मुकाबला करना होगा...और इनसे मुकाबला करना है तो आपको उन्हीं की शैली में उन्हीं की तरह अस्लों से जवाब देना होगा। आपलोग सभी जानते हैं कि इस समय चुनाव जीतने के लिए जातिवाद सबसे बड़ा औजार है।'

सारे लड़के चुप हो गये। शायद इसका कोई माकूल जवाब अब किसी के पास नहीं था।

चन्द्रदेव ने पूछा, 'तो कौन है वह जो जीत दर्ज कराने की पात्रता रखता है?'

तौफीक ने कहा, 'इसका निर्णय करना मुश्किल काम नहीं है।'

भैरव ने पूछा, 'इस क्षेत्र के निवासियों में किस जाति की संख्या सबसे ज्यादा है?'

किसी ने कहा, 'यह तो सभी जानते हैं कि टेकमल की जाति के लोग तादाद में सबसे ज्यादा हैं।'

तौफीक ने पूछा, 'अपने सदस्यों में टेकमल की जाति के कौन-कौन लोग हैं? '

एक लड़के ने कहा, 'मैं हूँ, रामपुकार है, तारानाथ है, धेनूचंद है, खेमकरण है, रामजीत है, सम्पत है, जगदेव है।'

'ठीक है...जितने भी लोग हैं, उनमें हमें एक नाम चाहिए...और वह एक नाम हम लाटरी करके निकाल लेते हैं।' तौफीक ने युक्ति सुझायी।

चन्द्रदेव ने कहा, 'माफ कीजिए अंकल, मुझे लगता है कि लॉटरी से नाम निकालना उचित तरीका नहीं है। मान लीजिए कोई ऐसा नाम निकल गया जो इस पद को सँभालने की बिल्कुल योग्यता नहीं रखता। आखिर उसमें हाजिरजवाब होने की, बोलने की, तार्किक होने की, विश्लेषण करने की क्षमता भी तो होनी चाहिए। अपने क्षेत्र की समस्या रखनी है, विधान सभा में भाषण देना है...जनता के बीच भाषण देना है, प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देशित और अनुशासित करना है...। '

'चन्द्रदेव, तुम्हारा कहना ठीक है लेकिन हम लॉटरी जिनके बीच करने जा रहे हैं, उनमें कोई ऐसा नाम नहीं है जो स्नातक की डिग्री से कम पढ़ा हो, बल्कि आधे से ज्यादा तो स्नातकोत्तर भी पास हैं। इनमें से जो भी चुना जायेगा, वह नाकाबिल नहीं होगा। लॉटरी के अलावा अगर हम अन्य कोई भी विधि अपनायें वह निर्विवाद और निष्पक्ष नहीं हो पायेगा। संसद और विधान सभा में तो ऐसे-ऐसे लोग पहुँच जाते हैं जिनकी तालीम से, इंसानियत से और जनता की भलाई से जानी दुश्मनी रहती है। ज्यादा दूर न जाकर बगल के टेकमल को ही देख लो। इस तरह देखो तो मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि अपने लड़कों में जो कोई भी चुना जायेगा वह हर कसौटी पर सर्वथा उपयुक्त साबित होगा।'

शायद अब किसी में कोई संशय नहीं रह गया।

सबके नाम की पर्ची बनाकर मोड़ दी गयी और एक पर्ची निकाल ली गयी। संयोगवश पहली पर्ची में तारानाथ का नाम निकल आया। जाहिर है इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी थी। इस तरह तय हो गया कि लतीफगंज विकास समिति की ओर से तारानाथ विधान सभा का उम्मीदवार होगा।

तारानाथ के नाम से टेकमल की नींद उड़ गयी। उसके दरबारियों का आकलन तो कुछ और ही था। उनके अनुसार उम्मीदवार तौफीक को या नहीं तो सल्तनत को या नहीं तो भैरव को बनना था। वह निश्चिंत था कि इनमें से किसी के उम्मीदवार होने से उसके वोट बैंक पर कोई असर नहीं पड़ेगा, मगर तारानाथ के होने से जातीय वोट बैंक में सेंध लगनी ही लगनी थी। अन्य जातियों के वोट भी गिरेंगे तो इसके ही पक्ष में। टेकमल के नाम पर एक तो आम उदासीनता इसलिए होगी कि उसे दो-दो बार लोगों ने मौका देकर देख लिया...कुछ भी हिल-डुल नहीं सका...उसने कुछ भी नहीं किया। लविस द्वारा बिना किसी साधन, स्रोत और मान्यता के काफी कुछ कर दिखाना और काफी आशाएँ जगा देना भी उसके खिलाफ ही हवा बहा देनेवाला था। जनता का भरोसा जीतने का जहाँ तक सवाल होगा, तारानाथ का ही पलड़ा भारी रहेगा। पूरे क्षेत्र में फैले हर जाति और वर्ग के लविस के सदस्य भी इसके प्रचारक होंगे। टेकमल बिना विशेष मगजमारी के सीधे-सीधे समझ सकता था कि इस परिस्थिति में उसकी दाल गलना आसान नहीं है। लिहाजा उसके पास एक ही ब्रह्मास्त्र बचता था।

उसने तारानाथ के बाप की तलब की और उस पर अपना रौब गालिब करने लगा, 'तारानाथ को तुम मैदान से हटा लो, वह गलत लोगों के चक्कर में पड़ गया है। उसे शरीफों वाली खुशहाल जिंदगी जीनी है तो मैं उसका बन्दोबस्त कर दूँगा। अच्छी नौकरी दिला दूँगा।'

तारानाथ के बाप ने उसे कोसते हुए कहा, 'इस तरह की फुसलाने और बहलाने वाली सयानागीरी करने का जमाना लद गया है, टेकमल। होशियारी अब औरों को भी समझ में आने लगी है। मैं आपके झाँसे में आकर अपने बेटे को मैदान से हटा भी दूँ तो ऐसा नहीं है कि आपका मैदान साफ हो जायेगा। लविस का कोई दूसरा सदस्य उम्मीदवार बन जायेगा। वह उम्मीदवार इसलिए है कि लविस का सदस्य है, इसलिए नहीं कि मेरा बेटा है। फिर मैं उसे कैसे रोक सकता हूँ? '

टेकमल ने अपने अंदर के शातिरपन को चेहरे के भाव में उजागर करते हुए कहा, 'प्रतिद्वन्द्वी की लड़ाई लड़ते हुए अगर उसे कुछ हो गया तो वह लविस की ही क्षति नहीं होगी, बल्कि तुम्हारी निजी क्षति भी होगी और मेरे खयाल में तुम्हारी क्षति इतनी बड़ी और ऐसी होगी कि उसकी भरपाई नहीं हो पायेगी, जबकि लविस में फिर कोई ऐरा-गैरा सदस्य बन जायेगा। इसलिए सिर्फ अपना सोचो और कोई दूसरा खड़ा हो जायेगा यह बहाना छोड़कर अपने बेटे को मैदान से हटा लो।'

'मतलब, आप सीधे-सीधे कह रहे हैं कि मैं नहीं हटाऊँगा तो मेरे बेटे की हत्या कर देंगे?'

'देखो, जिससे लड़ने और जिसे हराने के लिए कोई लंगोट कस कर मैदान में उतरेगा तो वह सामनेवाला जैसे भी मैदान जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत लगायेगा ही...कोई यह तो नहीं कह देगा कि आओ भाई, मैं हट जाता हूँ, तुम जीत जाओ।'

'टेकमल जी, मेरा बेटा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरा है, जिसका निर्णय जनता के वोट के द्वारा होना है। लेकिन आप तो ऐसा कह रहे हैं जैसे वह मुर्गे की लड़ाई में पैर में चाकू बाँधकर मैदान में उतरा है और शारीरिक ताकत से पेट में चाकू घोंपकर इसका निर्णय होगा।'

'वोट के लिए आदमी की लड़ाई और मुर्गे की लड़ाई में ज्यादा अंतर नहीं है। तुम्हारा बेटा भी तो एक तरह से मुर्गा ही बनाया गया है। तुम जरा खुद देखो कि इसे लड़ानेवाले खुद क्यों लड़ नहीं रहे? '

'अगर वे खुद लड़ लेते तो आपमें यह खलबली कैसे समाती। खैर, आप मुझे समझा, डरा या बहका नहीं सकते, टेकमल जी...आप एक बेकार की कोशिश कर रहे हैं। आपमें ताकत है तो आजमाइश कर लीजिए...इस तरह प्रतिद्वन्द्वी को मैदान से हटने के लिए कहना यह साबित करता है कि आप कितने डर गये हैं। ...चलता हूँ...राम-राम।'

उसे सन्नाटे में छोड़कर तारानाथ के पिता आराम से चलते बने।

नामजदगी का पर्चा भर देने के बाद प्रचार-कार्य शुरू कर दिया गया। लविस की उपलब्धियों और तारानाथ के जीतने के उपरांत जनहित में होनेवाले कार्यों से संबंधित पम्पलेटों, पोस्टरों, नारों और भाषणों से पूरा क्षेत्र पाट दिया गया। तौफीक जानते थे कि चुनाव कैसे लड़ा जाता है और इसमें क्या-क्या उपकरण इस्तेमाल में लाने पड़ते हैं। ट्रैक्टर तो मुख्य प्रचार गाड़ी का काम कर ही रहा था, मदद के लिए तौफीक के कुछ शहरी दोस्तों की भी गाड़ियाँ आ गयी थीं। डीसी का भी नैतिक समर्थन इनके साथ था और अप्रत्यक्ष रूप से वे कुछ मदद भी भिजवा रहे थे। चर्चा थी कि फुलेरा बाँध की जमीन को लेकर टेकमल से उनकी तनातनी हो गयी थी और उसने इन्हें देख लेने की धमकी दे डाली थी। डीसी फनफनाकर बिना कुछ कहे मजा चखाने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे थे। वह अवसर शायद आ गया था जब टेकमल धूल चाटे और खाक में मिल जाये। कहते हैं मदद के लिए दूरदराज के क्षेत्रों से कई जीपें आ गयी थीं, सबने अंदाज लगा लिया था कि यह उन्हीं का सौजन्य है।

तारानाथ के पक्ष में तो जैसे हवा बहने लगी थी। सल्तनत, भैरव और तौफीक ने प्रचार का पूरा कमान सँभाल लिया था। सल्तनत भाषण करती थी तो लोग एकटक सुनते रह जाते थे। इस क्षेत्र की वह पहली ऐसी लड़की थी और वह भी मुस्लिम समुदाय से, जो धाराप्रवाह बोलती थी और सुननेवालों पर अपनी आवाज का मानो सम्मोहन उड़ेल देती थी। तौफीक और भैरव भी बोलते थे, इनके साथ कुछ अन्य लड़के तारानाथ, चन्द्रदेव आदि भी, लेकिन यह सबकी एकमुश्त स्वीकारोक्ति थी कि सल्तनत की वक्तृत्व कला का किसी से कोई मुकाबला नहीं। भैरव ने कहा था, 'तुम बोलती हो तो ऐसा लगता है कि तुम्हारा बोलना और उसे मेरा सुनना कभी खत्म न हो। तुम कयामत तक बोलती रहो और मैं तुम्हें अपलक देखते हुए सुनता रहूँ। कविताओं, शाइरियों, छोटी-छोटी बोध कथाओं, मुहावरों, लोकोक्तियों और प्रेरक प्रसंगों का जिस तरह तुम इस्तेमाल करती हो, मुझे हैरत होती है कि तुमने अपने ज्ञान-भंडार में इन्हें कब और कैसे संचित कर लिया। कई वर्षों से हम एक-दूसरे में हुए हर उतार-चढ़ाव के गवाह रहे हैं, मगर इसकी तो मुझे हवा तक नहीं लगी कि कब तुमने अपने भीतर एक विलक्षण वक्ता की सिफत उतार ली।'

'भैरव, वे सारे इल्म जो तुम्हें मुझमें दिखते है, तुम्हारे ही जुटाये हुए है। वे सारी चमकने-दमकने वाली चीजें जो मेरे अंदर हैं, मैंने तुम्हीं से ग्रहण की हैं। तुम इतने उदार हो कि मैं तुमसे ले लेती हूँ और तुम्हें पता भी नहीं चलता।'

'यह तुम्हारी ग्रहणशीलता का कमाल है सल्तनत कि तुम इस तरह ले लेती हो कि देनेवाले को भी पता नहीं चलता। वर्षा का पानी देखो समान रूप से हर जगह बरसता है लेकिन कोई उसे मोती बना देता है और कोई जहर।'

'तुम तो बस वैसे ही हो, मुझमें तो कोई त्रुटि तुम्हें दिखती ही नहीं।'

'तुम सचमुच ऐसी हो, सल्तनत।' भैरव ने उसके हाथ चूम लिये और सल्तनत ने उसकी पेशानी पर अपने होंठ रख दिये।

टेकमल भी अपने बेटे नेकमल के लिए पूरा जोर लगाये हुए था। उसके चाटुकार सभासद भिड़ गये थे जन संपर्क, जयजयकार, गोष्ठी और सभा करने में। जीपों और कारों पर लाउडस्पीकर बँधवाकर नेकमल को वोट देने की अपील कर करके वातावरण की शांति में एक शोर भरा जा रहा था। यथासंभव वे पूरी उछल-कूद मचा रहे थे लेकिन वे देख रहे थे कि पब्लिक का रिस्पांस एकदम ठंडा है। उन्हें इसका आभास मिलना शुरू हो गया कि स्थिति काबू में नहीं है और जनता का रुख उनके अनुकूल नहीं है।

टेकमल ने सबका हौसलाआफजाई करते हुए कहा, 'बिना हताश हुए प्रचार कार्य को आगे बढ़ाते रहिए। आखिरी और निर्णायक कार्रवाई तो मतदान केन्द्र पर होगी, जिसके लिए आप सभी लोग पर्याप्त रूप से सक्षम हैं। चुनाव सिर्फ जनता के बल पर ही नहीं जीता जाता। हरेक मतदान केन्द्र के लिए स्थानीय लुमेड़ों को पटाकर सेट कर देने का अभियान जारी है। पैसा और अस्ला की बदौलत वोट का होलसेल प्रबंध इस तरह कर दिया जायेगा कि तौफीक ऐंड पार्टी मुँह टापते रह जायेंगे।'

रूपेश ने टेकमल के इन मंसूबों से भैरव को अवगत करा दिया था। यों तौफीक पहले से अनुमान लगा रहे थे कि टेकमल हारी हुई बाजी जीतने के लिए कोई भी कुकर्म करने पर आमादा हो सकता है। बूथ कब्जा करके बोगस पोलिंग करवाने में उसकी कुटिल वृत्ति पहले से ही मशहूर रही है। तौफीक ने इस सीनाजोरी से टक्कर लेने की यथासाध्य तैयारी की लेकिन उसे इसका इल्म था कि टेकमल को अपने बलबूते एकदम रोक देना नामुमकिन होगा। अतः उसने डीसी को आगाह कर दिया कि प्रशासनिक सख्ती में इजाफा कर दिया जाये, मतकेन्द्रों के आसपास धारा 144 लगा दी जाये और उपद्रवी तत्त्वों को देखते ही गोली मार देने का आदेश जारी किया जाये। डीसी ने भरोसा दिलाया कि वे फेयर ऐंड फ्री इलेक्शन कराने के लिए हर संभव उपाय करेंगे।

जनता के मोहभंग एवं उपेक्षा को देखते हुए टेकमल में बौखलाहट बढ़ने लगी। उसके खरीदे हुए हुड़दंगी कार्यकर्ता लविस के पोस्टर और बैनर उखाड़ने लगे। किसी गली या सड़क पर आमना-सामना हो जाने से ऐसा लगता था जैसे वे हमला कर बैठेंगे या पकड़कर कच्चा चबा जायेंगे। तनाव बढ़ते-बढ़ते आखिर एक भिड़ंत हो ही गयी। एक गाँव के मैदान में लविस की ओर से तारानाथ के लिए सभा हो रही थी। सल्तनत को संबोधित करना था। सुनने वालों की अच्छी भीड़ जुट गयी थी। सल्तनत के नाम पर अब सुननेवाले खिंचे चले आते थे। सल्तनत कह रही थी, 'आपलोगों ने अपने वोटों का महत्व आज तक नहीं समझा। या तो आपको वोट देने नहीं दिया गया और दिया गया तो आपने उम्मीदवार की जाति देखी, काम नहीं। वोट के प्रति अपनी इस लापरवाही के कारण आप हर उस सुविधा से वंचित रहे, जो आपको मिलनी चाहिए थी। अब तक आपने काफी कुछ गँवा दिया...काफी भुगतान भुगत लिया...अब इस वोट में निहित ताकत का आप सर्वोत्तम उपयोग करें। आप अपना वोट व्यक्तिगत हित के लिए नहीं, एक सार्वजनिक मकसद के लिए दें। आप अपना वोट सल्तनत को नहीं, भैरव को नहीं, तौफीक को नहीं, तारानाथ को नहीं, अपने आपको दीजिए। तारानाथ एक व्यक्ति जरूर है...एक नाम जरूर है, लेकिन वह हम सब की सामूहिक आकांक्षाओं का प्रतीक है। तारानाथ एक व्यक्ति जरूर है, लेकिन वह एक गारंटी कार्ड है सड़क के सड़क की तरह होने का...रेल को रेल की तरह होने का...नहर को नहर की तरह होने का...आहर-पोखर को आहर-पोखर की तरह होने का, बिजली को बिजली की तरह होने का...स्कूल को स्कूल की तरह होने का। अगर यह सब नहीं करना होता...सिर्फ राजनीतिक पद हासिल कर अपना उल्लू सीधा करना मकसद होता, तो हम तारानाथ को उम्मीदवार नहीं बनाते...उम्मीदवार मैं बनती...या भैरव बनता या तौफीक मामू बनते। कई वर्षों से जिसे आप जिताते रहे हैं, वह अगर करने के नाम पर कुछ न किया होता, फिर भी माफी के काबिल था, लेकिन उसने जो किया वह कतई माफी के लायक नहीं है। उसने आम जनता के लिए गिरने के गड्ढे खोदे...बनी-बनायी सुविधाओं को चैपट करने में साथ दिया, और तो और उसने बदअमनी फैलाने की भी कोशिश की। एक-दो महीने पहले की बात है, उसने कुछ लोगों को भड़काकर गाँव में दंगा और मारकाट करवाने की योजना बनायी थी। मेरी जाती जिंदगी को उसने अपना राजनीतिक बिसात बनाकर चालें चलना शुरू कर दिया। मेरे साथ ज्यादतियाँ होती रहीं, मेरे अपने कहानेवालों ने मुझे मुसीबतों के पहाड़ के नीचे ठेलकर मुझे कुचल देने की कोशिश की। मुझे अपना एक पैर गँवाना पड़ा...मेरी बहनों को और मेरी माँ को जिल्लतों के दरिया से गुजरना पड़ा। यह सारा कुछ महज इसलिए कि मुझे दुबककर, छुपकर, आँख-मुँह बंदकर रहना मंजूर नहीं था। मैं जाति और मजहब के दायरे में बँधकर अपनी जिंदगी को एक तंग चारदीवारी में रखने को राजी नहीं थी। मैंने भैरव के साथ मिलकर सार्वजनिक मुद्दों के लिए खेतों, खलिहानों, घरों, गलियों और चैराहों पर जा-जाकर संघर्ष करने का रास्ता चुना। मेरी यही खता है...मेरा यही जुर्म है। जो नहीं चाहते गाँवों का भला हो...मजहब और जाति की दीवार टूटे, वे मेरे दुश्मन बन गये। लेकिन मुझे उनकी परवाह नहीं है...मुझे मरने की चिंता नहीं है। मैं आपकी बेटी हुई...आपके लिए काम आ गयी बस जन्म लेना सार्थक हो गया। यह पूरा क्षेत्र खुशहाल था...मगर इसकी खुशहाली में इसके अपनों ने ही सेंध लगा दी। हमारे अरमान हैं कि फिर से इसे खुशहाली वापस मिले। यह बिल्कुल संभव है...सिर्फ आपको अपने वोट देने में एहतियात वरतना है। आप वोट उसे दें जो आपका खिदमतगार होना चाहता है, उसे न दें जो आपका मुख्तार बन जाना चाहता है.....।'

सल्तनत का वक्तव्य चल ही रहा था कि मैदान के दूसरे छोर पर टेकमल के आदमियों ने माइक लगाकर हल्ला-गुल्ला और गाली-गलौज शुरू कर दी। उनकी मंशा जाहिर हो गयी कि किसी तरह लफड़ा पैदा करने के लिए खुचटी मोल ले रहे हैं। लविस के लड़कों पर भी गुस्सा तारी होने लगा। लगा कि अब आमने-सामने का टकराव शुरू हो जायेगा। भाषण सुन रही जनता स्थिति की नजाकत को भाँपकर एक-एक करके सरकने लगी। भैरव ने अपने लड़कों को बिल्कुल शांत और संयमित रहकर मैदान खाली कर देने की हिदायत दी। कुछ लड़के तो बुरी तरह जिदियाकर उनसे आज दो-दो हाथ कर लेने पर उतारू हो गये। भैरव ने सीधे मना कर दिया, 'दरअसल यही तो वे चाहते हैं कि हिंसा और खूनी झड़प का दौर शुरू हो जाये जिससे चुनाव स्थगित करने की माँग करने का उन्हें बहाना मिल जाये। हमें उन्हें किसी भी कीमत पर यह मौका नहीं देना है।'

लड़के खून के घूँट पीकर मैदान खाली करने के लिए अपना सामान समेटने लगे। इसी बीच उधर से पत्थरबाजी शुरू हो गयी। लड़के बचते-बचाते जीपों पर लदने लगे और लदते-लदते छह-सात पत्थर आकर किसी के पैर को, किसी की पीठ को, किसी के सिर को निशाना बना गये। सल्तनत को मंच से उतारकर ले जाते-ले जाते भैरव भी चपेट में आ गया और एक पत्थर उसके ललाट को भी लहूलुहान कर गया। जीप जल्दी से भगाकर लतीफगंज लायी गयी। एक डॉक्टर के पास जाकर सबकी मरहम पट्टी करायी गयी।

बाद में रूपेश ने बताया कि वे सल्तनत को बुरी तरह घायल कर देना चाहते थे ताकि वह भाषण देने के काबिल न रह जाये। उसके मोहिनी और पटाऊ भाषण से उन्हें सबसे ज्यादा चिढ़ हो रही थी। भैरव की वजह से उनकी मुराद अधूरी रह गयी। सल्तनत ने भैरव को जी भर कर प्यार किया, इतना प्यार कि भैरव की पीड़ा जैसे सल्तनत की पीड़ा बन गयी। सल्तनत जानती थी कि उसे बचाने के लिए पत्थर तो क्या, गोली भी खानी पड़े तो यह आदमी परवाह नहीं करेगा। सल्तनत ने कहा, 'आन्दोलन के लिए तुम्हारी जरूरत ज्यादा है। अतः मेरे लिए पत्थर खाना कतई अक्लमंदी की बात नहीं होगी।'

'अक्लमंद जो होते हैं, वे प्यार नहीं करते, सल्तनत। तुम जानती हो कि मैं कभी अक्लमंद नहीं रहा।'

'कहीं तुम यह तो नहीं कह रहे कि मैं अक्लमंद हो गयी हूँ अर्थात...।'

'अब मैं क्या कहता हूँ, अगर यह जान जाऊँ, फिर तो अक्लमंद हो गया।'

खिलखिलाकर हँस पड़ी सल्तनत। भैरव को ऐसा लगा जैसे इस हँसी ने उसके घाव को पूरी तरह भर दिया।

पत्थरबाजी के जो अभियुक्त थे, लड़के उन्हें पहचानते थे। तौफीक ने थाने में जाकर उनके नाम से प्राथमिकी दर्ज करवा दी और डीसी के पास इसकी खबर भिजवा दी ताकि पुलिस इस मामले को हलके से न ले। तौफीक सोचने लगे थे कि टेकमल के आदमी अगर चाहते तो गोली भी चला सकते थे और एक बहुत बड़ी घटना को अंजाम दे सकते थे। लेकिन उसने ऐसा नहीं करवाया...सिर्फ पत्थरबाजी तक ही सीमित रह गये...क्यों? इसके पीछे जरूर कोई ऐसी चाल होगी जिसका सिरा अभी पर्दे की ओट में है। उसने शुक्र मनाया कि चलो कोई बड़ी क्षति नहीं हुई।

अगले दिन जब पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए उन्हें ढूँढ़ रही थी तो अचानक रूपेश प्रकट हुआ और बताने लगा,'टेकमल ने अपने बेटे नेकमल को चुनाव मैदान से हटाने का फैसला कर लिया है। इतना ही नहीं, वह एक पम्पलेट जारी करने जा रहा है जिसमें यह अपील होगी कि वह लविस के तारानाथ का समर्थन करता है, इसलिए उसे चाहनेवाले लोग तारानाथ को वोट दें।'

तौफीक, सल्तनत, भैरव, तारानाथ समेत सभी लोग अचम्भित रह गये...टेकमल में और ऐसा चमत्कारिक परिवर्तन...मानो कुत्ते की दुम अचानक सीधी हो गयी या फिर एक माँस नोचनेवाला गिद्ध अचानक राम-राम जपनेवाला तोता बन गया! इसे यकीन करना आसान नहीं था, लेकिन रूपेश ने आज तक कोई गलत खबर नहीं दी थी। कई कोणों से इसके विश्लेषण शुरू हो गये...क्या तारानाथ की जीत को सुनिश्चित मानकर अपनी इज्जत बचाने के लिए उसने यह रास्ता अपना लिया! या क्या उसकी आँखों पर पड़ा पर्दा हट गया! या क्या उसे अपनी हैसियत का एहसास हो गया!

सल्तनत बेसाख्ता कह गयी, 'टेकमल अगर अभी भी अपना रवैया बदल ले और हमारे कार्यक्रमों के साथ जुड़ जायें तो उसके किये सारे पाप को हम माफ कर सकते हैं।'

भैरव ने जरा गहराई से विचार-मंथन करते हुए कहा, 'उसके बारे में इतनी जल्दी कोई राय बना लेना उचित नहीं होगा। जिसकी नस-नस में कुटिलता, नृशंसता और छल समाया हो, वह अगर रंग बदल रहा है तो जरूर इसके पीछे कोई खतरनाक अंजाम छिपा है। हमें इसका अध्ययन करना चाहिए।'

तौफीक ने कहा, 'उसकी योजना चाहे जो भी रही हो...मौजूदा सत्य यही है कि उसने हमारे पक्ष में आने का ऐलान किया है, जिससे हमारी जीत का मार्ग एकदम अवरोधरहित हो गया है। आगे अगर उसने कोई चालाकी दिखायी तो ऐसा नहीं कि हम आँख मूँदे हुए रहेंगे। अभी हमें अपनी ओर से न उत्साहित होने की जरूरत है, न उस पर कोई टिप्पणी करने की जरूरत है। उसके इस रवैये में कितनी शुद्धता और सच्चाई है, इसका पता तो अपने आप ही चल जायेगा।'

खबर सच निकली। टेकमल ने सचमुच ही मैदान छोड़ दिया। ऑफिशियली नाम वापस लेने की तारीख बीत चुकी थी इसलिए मतपत्र पर तो उसका नाम आना ही था। लेकिन आम जनता के बीच उसने यह संदेश जारी कर दिया कि दौड़ में वह शामिल नहीं है। दौड़ में अब जो भी प्रतिद्वन्द्वी बचे थे, बहुत कमजोर थे और उनसे अब किसी प्रकार की कोई होड़ नहीं रह गयी थी। मतदान में जिस अशांति और उपद्रव की आशंका थी, वैसा कुछ भी नहीं हुआ। मन ही मन अंदेशा लगा था कि टेकमल पता नहीं कौन-सा गुल खिला दे! पहले जब आमने-सामने का खुला टकराव था तो मनःस्थिति में निपटने की तैयारी समाविष्ट रहती थी। अब मैदान छोड़ने की घोषणा करके मानो उसने और भी डरा दिया था। क्या पता निश्चिंत और इत्मीनान हालत में लाकर कोई ऐसा कांड कर जाये जो सारे किये-धरे को चैपट कर दे।

शुक्र है उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उसके और उसके आदमियों की कहीं पंख तक फड़फड़ाने की आहट नहीं आयी और तारानाथ भारी मतों से चुनाव जीत गया। तारानाथ...एक गरीब किसान का बेटा...जिसने कभी एक साथ पाँच हजार रुपये तक नहीं देखे...एक भोला और सीधा-सादा युवक...बंदूक और गोली तो क्या उसने कभी हाथ में डंडे तक नहीं पकड़े...किसी से ऊँची जबान में बात तक नहीं की...सायकिल और बैलगाड़ी के अलावा मोपेड तक कभी नहीं चलाया...ऐसे शरीफ और नेक लड़के के रास्ते से तमाम बुराइयों का एक बाहुबली पिटारा अपने आप हट गया। एकजुटता हो, संगठनात्मक निष्ठा हो, ईमानदारी से समाज बदलने का संकल्प हो तो इस तरह मामूली और सुपात्र आदमी भी सत्ता के गलियारे तक दूरी तय कर सकता है, इसे साबित करने के लिए यह एक करारी मिसाल कायम हो गयी।

तारानाथ जैसे छोटे और गुमनाम व्यक्ति की जीत पूरे सूबे में एक बड़ी खबर बन गयी। उसे लग रहा था जैसे यह सब कुछ सपने में घटित हो रहा है। वह इसका सारा श्रेय तौफीक, सल्तनत और भैरव को दे रहा था। तौफीक कह रहे थे, 'इसका श्रेय लतीफगंज विकास समिति के हर सदस्य को जाता है। दरअसल यह जीत तारानाथ के रूप में लविस की जीत है...संगठन और एकजुटता की जीत है।'

लड़कों ने एक यादगार विजय जुलूस निकालकर इसे सेलीब्रेट करने की इच्छा जतायी। तौफीक ने इससे असहमति व्यक्त करते हुए कहा,'विजय जुलूस हम तब निकालेंगे जब उन कार्यों को हम संपन्न कर लेंगे जिसके हमने वायदे किये हैं और जिन्हें एजेंडा बनाकर हमने राजनीति में कदम रखे हैं।' जरा गहराई में उतरते हुए उन्होंने कहा, 'हाँ, तुमलोग इतना कर सकते हो, ट्रैक्टर में जितने लोग लद सकते हो लद जाओ और अपने क्षेत्र के हर गाँव का दौरा कर लो।'

लड़कों ने ऐसा ही किया। सल्तनत ने ड्राइविंग सीट सँभाल ली। बगल में भैरव ने जगह ले ली। इंजन और डाला में तमाम लड़के घुँघरू की तरह सज गये। जिन-जिन गलियों और गाँवों में ट्रैक्टर जा सकता था, वहाँ-वहाँ जाकर सबने हाथ जोड़-जोड़कर गाँववालों के प्रति आभार जताया।

टेकमल के गाँव भुआलचक भी वे गये। उसकी विशाल कोठी के सामने एक मातमी सन्नाटा पसरा था। उसके चिलमची, मशालची, बावर्ची, बंदूकची कोई नजर नहीं आ रहे थे। इदरीश भी कई दिनों से लापता हो गया था। कुछ लोग कह रहे थे कि टेकमल के रवैये (खासकर नाम वापस लेने) से क्षुब्ध होकर वह अतीकुर-मुजीबुर के पास चला गया है।

लड़कों का काफिला जब गश्त लगाकर लौटा तो लविस केन्द्र अर्थात अम्मा निवास पर जश्न का माहौल बन गया। अम्मा ने मतीउर से कहकर एक टोकरी फूलों की माला मँगवा ली थी। उसने बारी-बारी से हरेक लड़के को माला पहनायी और मिठाई खिलायी। गाँववालों की भी भीड़ जुट आयी थी जिनमें चुन्नर यादव, फल्गू महतो और नगीना सिंह भी शामिल थे। नगीना सिंह गुलाल लेकर आये और सभी लड़कों के ललाट में लगाकर उनका अभिनंदन करने लगे। भैरव और सल्तनत को गुलाल लगाया तो दोनों ने श्रद्धासिक्त होकर उनके पैर छू लिये। नगीना सिंह की आँखें नम हो गयीं। भीगी आवाज में उन्होंने कहा,'तुम दोनों की दोस्ती मुझे कभी अच्छी नहीं लगी। सल्तनत पर जुल्म होते थे तो मुझे लगता था कि ठीक हो रहा है। आज मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी दोस्ती अमर रहे। तुम दोनों के बीच प्यार कभी कम न हो।' दोनों को उन नगीना सिंह ने गले से लगा लिया जो इस गाँव के सबसे बड़े जोतदार थे। तौफीक, मतीउर, निकहत, मिन्नत, अम्मा आदि देख रही थीं यह अप्रत्याशित दृश्य। यह एक यादगार अवसर था कि नगीना सिंह जैसा परंपरावादी और कूपमंडूक आदमी एक विजातीय प्रेम को मान्यता दे रहा था। तौफीक ताली बजाने लगे तो उनकी देखा-देखी सभी उनका साथ देने लगे।

अम्मा ने एलान किया, 'मेरे बच्चो, यह कामयाबी जितना तारानाथ की है उतना ही चन्द्रदेव, रामपुकार, खेमनाथ, धेनुचंद, सम्पत...की है,' एक-एककर सभी लड़कों का नाम लेकर आगे कहा, 'और उससे ज्यादा सबको रास्ता दिखानेवाले मियाँ तौफीक की है...और सबसे ज्यादा सभी को एक सूत्र में बाँध कर रखनेवाले मेरी लाड़ली सल्तनत और मेरे दुलारे भैरव की है। मुझे लगता है कि ये फल जो आज हमें मिला है, मुहब्बत के दरख्त में ही फला है। अगर आपलोग मुझसे इत्तफाक रखते हैं तो मेरे साथ बोलिए...सल्तनत और भैरव की मुहब्बत जिन्दाबाद...।'

वहाँ जमा सारे लोगों ने एक स्वर में कहा, 'जिन्दाबाद...जिन्दाबाद।'

'अम्मा...।' भीड़ से एक अलग आवाज उभरी, 'आज मैं भी जिन्दाबाद कहने और मुबारकबाद देने आया हूँ।' सबने उस आवाज की तरफ देखा, वे फजलू मियाँ थे।

अम्मा ने खुशी जताते हुए कहा, 'आपका इस्तकबाल है, फजलू मियाँ...शुक्रिया कि हमारे बीच आप भी आ गये और आप ऐसे समय में आये कि अभी बहुत देर नहीं हुई है। मतीउर, मिठाई खिलाओ फजलू मियाँ को।'

हर्ष-उल्लास का दौर देर रात तक जारी था। आज अम्मा के कहने पर मिन्नत और निकहत माँ-बेटी ने मिलकर लविस के सभी सदस्यों के लिए एक भोज की तैयारी कर डाली थी। खाना-पीना शुरू हो गया था। इसी दरमियान भैरव को पूछते हुए दबे पाँव एक आदमी ने घर में प्रवेश किया। भैरव ने उसे देखते ही पहचान लिया, वे रूपेश के पिता जगधर शर्मा थे। उनके चेहरे पर एक बेचैनी ठहरी हुई थी। भैरव ने पूछा, 'क्या हुआ चचा, सब कुशल-मंगल तो है? '

उन्होंने कहा, 'चार दिन हो गये, रूपेश घर नहीं आया। बिन बताये वह आज तक घर से कभी गैरहाजिर न रहा। टेकमल के अड्डे पर पूछने से भी कुछ अता-पता नहीं चल रहा, कोई वहाँ साफ-साफ बताने के लिए तैयार नहीं है। लगता है जैसे वे टाल-मटोल कर रहे हैं।'

भैरव के दिमाग को अचानक एक झटका लगा। अब जाकर उसे समझ में आया कि पिछले तीन-चार दिनों में इतनी-इतनी घटनाएँ घटीं और रूपेश की परछाईं तक नजर क्यों नहीं आयी। मतदान होने, मतगणना होने, परिणाम घोषित होने जैसे सभी मौकों पर टेकमल और उसके दरबारियों की प्रतिक्रिया जानने हेतु रूपेश की उसे याद आती रही, लेकिन वह नदारद रहा। जुलूस जब निकालने का निर्णय हुआ तब तो उसने खास तौर पर उसकी तलाश की, ये जानने के लिए कि टेकमल क्या सोच रहा है...क्या रणनीति बना रहा है...कहीं ऐसा नहीं कि उनके ट्रैक्टर पर वह निशाना साध ले!

रूपेश ने लविस के लिए एक बहुत बड़ी भूमिका निभायी। उसके सहयोग के बिना टेकमल जैसे आतंक केन्द्र से इतनी आसानी से निपट लेना कतई मुमकिन नहीं था। उसकी विश्वसनीयता का भैरव हृदय से कायल और कृत्तज्ञ था। एक दिन भैरव ने कहा था उससे, 'रूपेश, तुम इतनी बुद्धिमता और सफाई से टेकमल की कब्र खोद रहे हो कि उसे पता भी नहीं चल रहा। तुम्हारे इस तरह जोखिम उठाने और हिम्मत करने के प्रति मैं वाकई तुम्हारा ऋणी हूँ, यार।'

उसने कहा था, 'मैं कोई एहसान नहीं कर रहा, भैरव। गाँव की बिगड़ी तस्वीर को बदलने जैसे एक बड़े मिशन में तुम और तुम्हारे साथी जी-जान लगा रहे हैं...उसमें पूरी तरह अपने को झोंक दे रहे हैं...मैं भी गाँव की ही एक इकाई हूँ, भैरव, फिर क्या इतने बड़े काम में मेरा कोई फर्ज नहीं बनता? चाहता तो हूँ कि मैं भी तुम्हारे साथ खुलकर आ जाऊँ...साले टेकमल चांडाल की कमीनगी और कसाईपन अब बर्दाश्त नहीं होता।'

भैरव ने उसके दोनों कंधों को आत्मीयता से हिलाकर उसके विश्वास को पुख्ता बनाते हुए कहा था, 'तुम्हें मैं हमेशा अपने साथ ही महसूस करता हूँ, रूपेश। बस हम कुछ सीढ़ी और ऊपर चढ़ लें, फिर तुम ताल ठोंककर आ जाओ हमारे साथ। अभी हमें टेकमल की अंदरूनी खबरों की वाकई बहुत जरूरत है।'

रूपेश ने उसकी बात मान ली थी, 'ठीक है भैरव, तुम कमांडर हो यार और मैं एक सिपाही हूँ, जिस रूप में चाहो मेरा उपयोग कर लो।'

दोनों ठहाका लगाते हुए गले से लिपट गये थे।

रूपेश के अचानक इस तरह गायब हो जाने की सूचना ने भैरव को मानो भीतर से हिलाकर रख दिया। उसके भीतर एकबारगी एक बड़ा संशय खड़ा हो गया...कहीं ऐसा तो नहीं कि टेकमल को रूपेश की सच्चाई का पता लग गया? उसकी गुप्तचरी पर अपनी सारी असफलताओं का दोषारोपण कर ऐसा तो नहीं कि उसने उसकी हत्या करवा दी? भैरव चिंतित हो उठा। जगधर शर्मा चुपके से आये थे उसके पास, चूँकि सार्वजनिक तौर पर रूपेश टेकमल का खास आदमी माना जाता था। उसने उन्हें ढाढ़स बँधाते हुए कहा, 'मैं अपना पूरा जी-जान लगाकर रूपेश की तलाश करूँगा, चचा। उसका न होना हमारे लिए भी एक बहुत बड़ा नुकसान है। वह मेरा जिगरी दोस्त है और लविस का सच्चा हितैषी भी।'

भैरव ने सचमुच कई तरह से उसका पता लगाने की कोशिश की। अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं रह गया कि टेकमल ने उसे मरवाकर कहीं गायब करवा दिया। मतलब साफ था कि शत्रु भाव से वह अपना फन उठाये अब भी डँसने के लिए तैयार था। अतः किसी भी तरह इस मुगालते में रहना एक बेवकूफी थी कि उसने समर्थन देकर अपना रवैया बदल लिया। भैरव उसके शोक में बहुत दिनों तक बहुत उदास रहा। उसे कई बार यह अपराध बोध मथने लगता कि रूपेश को मौत के मुँह में ठेलने की जिम्मेवारी उसकी ही है।

तौफीक ने उसकी रिसती व्यथा पर मरहम लगाते हुए कहा, 'जिस तरह रूपेश को खत्म किया गया, यह दुखद और अफसोसनाक है। लेकिन बदलाव की बड़ी मुहिम चलायी जाती है तो ऐसे नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना पड़ता है। हो सकता है आनेवाले दिनों में हमें और भी बड़े शोक से गुजरना पड़े। क्या पता कल मेरी ही बारी हो।'

भैरव उसका मुँह देखता रह गया और सल्तनत जैसे कुछ पल के लिए एकदम कठुआ गयी। उसने कहा, 'ऐसा न कहिए, मामू। ऐसी बातें सुनकर मैं एक नामालूम-से सदमे में घिर जाती हूँ। हमें कोशिश करना चाहिए कि बिना नुकसान उठाये भी अपना काम पूरा कर लें।'

'मैं जोखिम की बात कह रहा हूँ, सल्तनत। कोशिश तो सभी लोग ऐसी करते ही हैं।'

सल्तनत के मन में भैरव का खयाल आ गया तो जैसे एकबारगी उसका चेहरा पीला पड़ गया। भीतर एक अन्तर्संवाद गूँजने लगा। 'नहीं...बिल्कुल नहीं...भैरव की कीमत पर मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। इस मुद्दे पर मुझे बहादुर नहीं दुर्बल ही बनकर रहना गवारा है। नहीं चाहिए मुझे कोई तमगा या बड़े से बड़ा त्याग करने का खिताब। भैरव ही मेरी दुनिया है...भैरव ही मेरा तमगा है...भैरव ही मेरी क्रांति है...भैरव ही मेरा कुल जमा हासिल है। इस मामले में दुनिया मुझे स्वार्थी, क्षुद्र और नासमझ कहना चाहे तो कहे, मुझे परवाह नहीं। अगर किसी एक को जाना है...शहीद होना है तो मैं जाऊँगी...मैं शहीद होऊँगी। चूँकि मैं कई बार कह चुकी हूँ कि मुझे खुद के मरने का डर नहीं है, लेकिन भैरव के बिना जीने का डर मेरे लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह है।'

धान में बालियाँ निकलने लगी थीं और उसमें दूध भरने लगा था। रात को इन बालियों की महक बाँध से होती हुई गाँव तक पहुँच जाती थी। ज्यों-ज्यों ये बालियाँ गदरा रही थीं, त्यों-त्यों किसानों की उम्मीदें भी गदराती जाती थीं। अभी इनकी जड़ों में कम से कम पन्द्रह-बीस दिन भरपूर पानी की जरूरत थी। मगर आहर और पोखर एक बार लबालब भरने के बाद दोबारा फिर भर न सके और लगातार खाली होते चले गये। नदी एकाध बार और उफनती तो शायद नहर में एकाध धक्का पानी फिर ठेला जाता। मगर ऐसा नहीं हुआ। वर्षा भी शुरू में तो जमकर हुई, बाद में बस फुहार और फलासी तक ही सिमटकर रह गयी। किसानों की सोलह आने की उम्मीद क्रमशः घटने लगी और लगभग बारह आने पर आकर रुक गयी। उन्हें फिर भी संतोष था कि जहाँ पिछले तीन सालों से वे एक दाने के लिए तरस रहे थे, वहाँ बारह आना फसल भी कोई कम बड़ा तोहफा नहीं है। ट्यूबवेल के आसपास के खेतों को मतीउर ने रात-दिन पानी से पटा-पटा करके शत प्रतिशत परिणाम देने के लायक बनाये रखने में कामयाबी पा ली थी।

इधर चीनियाबादाम के पेड़ भी जोरदार जम गये थे और नीचे उसकी जड़ों में पुष्ट फलियाँ लगने लगी थीं। फुलेरा बाँध हरी-भरी वादियों का एक लंबा-चैड़ा लैंडस्केप जैसा लग रहा था। जहाँ तक निगाह जा रही थी मूँगफली के ठेहुने भर ऊँचे और छतनार पौधे बिहँसते और झूमते एक नयी छटा उकेर रहे थे। इस खेती की एक सिफत है कि इसमें ज्यादा सुश्रुषा की जरूरत नहीं पड़ती। बस कभी-कभी पौधों के बीच उग आये खर-पतवार की निकौनी कर देनी होती है। मतीउर का अनुकरण करते हुए लड़के एक साथ भिड़ जाते थे और काम फटाफट पूरा हो जाता था। अब जब फसल तैयार हो गयी है और बेहतर परिणाम की आशा बँध गयी है, जानवरों से या फिर मुफ्तखोर व शातिर तत्त्वों से निगहबानी करनी पड़ रही थी।

एक दिन मतीउर कुछ लड़कों की मदद से कच्ची फलियों के रसास्वादन और जीफेरन के लिए एक कट्ठा फसल उखाड़कर घर ले आया। अनुमान लगाया गया कि प्रति कट्ठा तीस किलो की दर से पैदावार ठहरेगी। अर्थात एक बीघा में छह क्विंटल और एक सौ सत्तर बीघा में एक हजार बीस क्विंटल। बाजार भाव प्रति किलो सात रुपये पचास पैसे यानी सात सौ पचास रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से एक हजार बीस क्विंटल से कुल आय सात लाख पैंसठ हजार रुपये। इसे बयालीस सदस्यों में विभाजित करने पर प्रति सदस्य अठारह हजार दो सौ चौदह रुपये पड़ेंगे। सबने संतोष जाहिर किया कि एक फसल में इतनी आय कम नहीं है। लड़कों की नजर में तौफीक मियाँ की वह थ्योरी मानो सच साबित होने जा रही थी जिसमें उन्होंने कहा था कि हम चाहें तो कृषि को उद्योग की तरह लाभकारी बना सकते हैं।

कच्चे बादाम को आग में ओराहा गया और आँगन में बैठकर सबने एक साथ एक-एक फली तोड़-तोड़कर खाने की प्रक्रिया शुरू की। लग रहा था जैसे कोई फिल्मकार पंजाब की सांझा चूल्हा संस्कृति का एक दृश्य फिल्मा रहा हो। कच्ची फलियों की मिठास का सबने खूब लुत्फ उठाया। मतीउर ने कहा कि दस दिनों के अंदर फसल पूरी तरह तैयार हो जायेगी। एक-एक पौधे को जमीन से निकालकर उसकी फलियों को अलग करने का काम काफी मेहनत भरा है। हरेक को इसमें लगना होगा तब जाकर डेढ़-दो सप्ताह में काम पूरा हो सकेगा।

सभी लोग उस दिन का इंतजार करने लगे। उनके रास्ते में अब भी कोई दुश्मन है, इसका उन्हें कोई इल्म नहीं रह गया था। यह एक बहुत बड़ी भूल साबित हुई। जिस दिन से उस काम को अंजाम देना था, उसके दो दिन पहले पूरी योजना पर जैसे वज्राघात कर दिया गया। सबने अपना सिर पीट लिया। जब तक फसल घर में न आ जाये, किसान को निश्चिंत नहीं होना चाहिए, इस कहावत ने फिर से उनकी अक्ल को झकझोर कर उन्हें पाश्चात्ताप के गड्ढे में ढकेल दिया। दुश्मनों ने रात में ट्रैक्टर से पूरे बाँध की जुताई कर दी और तैयार फसल को पूरी तरह मिट्टी में मिला दिया। अनुमान था कि एक साथ दो-तीन ट्रैक्टर चलवा दिये गये। उस बाँध से गाँव की दूरी इतनी थी कि जरा-सी भी आहट किसी को नहीं लगी।

यह एक बहुत बड़ा सदमा था जिसकी कसक हरेक की छाती में शूल बनकर चुभने लगी। एक सपना जो सच में ढलने के सारे संघर्ष लाँघ चुका था, पलक झपकते बालू की भीत्ति की तरह भरभराकर ढह गया। खेत में मचान बनाकर रात में भी अगोरवाही कर ली जाती तो आफत टूटने का ऐसा मंजर सामने न आता।

तौफीक ने सबको सांत्वना देते हुए कहा, 'किसान को बेफिक्र कभी नहीं होना चाहिए, यह सबक है हमारे लिए। खैर, हमें आघात जरूर पहुँचा है, लेकिन हम पस्त नहीं हुए हैं। उन्होंने हमारी फसलें रौंदी हैं, हमारी हिम्मत नहीं। हमारा काम उगाना है, हम फिर उगायेंगे और उनके रौंदने की मंशा को कड़ी चुनौती देंगे।'

इस घटना ने पूरे इलाके में सनसनी मचा दी। डीसी ने एक पत्र लिखकर अपनी हार्दिक संवेदना व्यक्त की और कहा कि इस वारदात के पीछे जिसके हाथ होने की आशंका दिखती हो, उसका नाम बतायें, वे कार्रवाई करेंगे।

टेकमल ने भी एक पैगाम भिजवाया और इस घटना पर दुख व्यक्त करने का स्वाँग करते हुए इसे कायराना हरकत करार दिया। तौफीक जरा चौंक गये...टेकमल अपने शातिर दोमुँहेपन का ऐसा नरम मुखौटा क्यों दिखा रहा है...जरूर उसकी कोई कुटिल चाल छिपी होगी।

बात सच ही निकल गयी। एक दिन लविस कार्यालय में टेकमल का चार-पाँच कारों और जीपों का एक काफिला आकर रुका। लविस के सभी लड़के धड़धड़ाकर नीचे उतर आये और किसी अप्रिय स्थिति के लिए तैयार होने लगे। इसी बीच उसके एक दूत ने आकर खबर दी कि नेताजी तौफीक साहब से मिलना चाहते हैं। तौफीक ने टेकमल को ऊपर बुलवा लिया। हॉलनुमा कमरे में एक गोलमेज के चारों ओर कुर्सियाँ लगी थीं और उन पर तौफीक, भैरव, सल्तनत, तारानाथ, चन्द्रदेव, खेमकरण सहित अधिकांश लड़के विराजमान थे। टेकमल को भी एक कुर्सी दी गयी। टेकमल ने कमरे के पूरे क्षेत्रफल का जायजा लिया और कहने लगा,'भाई तौफीक मियाँ, बहुत अच्छा नेतृत्व दे रहे हो इन लड़कों को। तारानाथ के विजयी होने पर मेरी बधाई स्वीकार करो और इसी के साथ मैं अपना अफसोस भी लेकर आया हूँ कि मूँगफली की पूरी फसल को बरबाद करके किसी ने बहुत बड़ा अत्याचार किया है। हम उसके नाम लानत भेजते हैं।'

'टेकमल, तुम इतने औपचारिक कब से होने लगे भाई। अच्छे नहीं लगते यार तुम्हारे मुँह से ऐसे अल्फाज। आगे कहो, इतना ही कहने तो तुम नहीं आये होगे।'

'तुम मुझे मौका देकर देखो तौफीक, मैं उतना बेरहम नहीं हूँ जितना लोग समझते हैं। शिष्टाचार और शालीनता का निर्वाह करना मुझे भी आता है, यार।'

'चलो, यह वाकई एक अच्छी खबर है। चाय पियोगे?'

'तुम्हारे घर आया हूँ, जहर भी पिलाओगे तो पी लूँगा।'

'सल्तनत, निकहत को आवाज दे दो, हम सबके लिए चाय और इनके लिए एक प्याली जहर।'

सभी हँस पड़ते हैं। कुछ देर यों ही फालतू के हँसी-मजाक करके आत्मीय बनने का पाखंड करता रहा टेकमल। अब तक चाय आ गयी थी। चुस्की लेते हुए वह अपने असल मुद्दे पर आ गया, 'लोक सभा चुनाव नजदीक है। जिस तरह विधान सभा में मैंने तुम्हारी मदद की, उसी तरह लोक सभा में मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। तुम्हारे जो अभियान चल रहे हैं, उन्हें अब मेरा पूरा सपोर्ट रहेगा। यह मेरा वादा है। अब तक गलतफहमी में जो हो गया उसके लिए वाकई मैं दुखी हूँ। अब तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं होगी।'

तौफीक ने बारी-बारी से अपने सभी लड़कों के चेहरे देखे, जैसे वे पढ़ रहे हों कि उनके जवाब क्या हैं। उन्होंने कहा, 'हमने विधान सभा में तुमसे कोई मदद नहीं माँगी थी, टेकमल। तुम्हें हमने कभी नहीं कहा कि मैदान से तुम अपने बेटे को हटा लो।'

'तो क्या मैंने अपनी ओर से पहल करके दोस्ती का हाथ बढ़ाया, यह अच्छा नहीं किया?'

'दोस्ती जैसे पाक लफ्ज की तौहीन न करो, टेकमल! विधान सभा मैदान से हटकर तुमने एहसान नहीं किया हमारे ऊपर, बल्कि तुमने अपनी इज्जत बचायी और लोक सभा के लिए हमें पटाने का एक बैंकग्राउंड तैयार किया। तुम्हारी दिक्कत यही है कि तुम खुद को सबसे होशियार और ताकतवर समझ लेते हो।'

'तौफीक मियाँ, मैं तुम्हारे घर आया हूँ, इसका मतलब यह नहीं कि तुम मुझे बहुत गरजू समझकर हिकारत की जबान में बात करो। मैं एक बार फिर कहना चाहता हूँ कि मेरे दोस्ती के बढ़े हुए हाथ की उपेक्षा न करो।'

'दोस्ती के हाथ,' एकाएक फनफना उठे तौफीक, 'तुमने रूपेश को मरवा दिया, महज यह जानकर कि उसकी हमसे करीबी थी, ये तुम्हारे दोस्ती के हाथ हैं? तुमने हमारी चीनियाबादाम की तैयार फसल को ट्रैक्टरों से रौंदवा दिया और आज उस घटना पर दुख व्यक्त करके हमें बुड़बक बनाना चाह रहे हो। क्या हम जानते नहीं कि इस इलाके में किसी के पास इतना साहस और सामर्थ्य नहीं कि इतना बड़ा कारनामा कर जाये और कहते हो, दोस्ती के हाथ? अब तक जिसे मैंने छिपाकर रखा था, आज उसे भी उजागर कर देता हूँ...तुमने भैरव और सल्तनत को मरवाने की सुपारी दे रखी है, कहो तो सुपारी लेनेवाले को खड़ा कर दूँ मैं तुम्हारे सामने...क्या ये हैं तुम्हारे दोस्ती के हाथ?'

सारे लड़के अचरज से तौफीक के मुँह देखते रह गये। सल्तनत और भैरव की आँखें तो ताज्जुब से फटी की फटी रह गयीं। उनकी हत्या के सौदे हो गये और मामू ने इसे छुपाये रखा! सल्तनत की आँखों से जैसे चिनगारी निकलने लगी और घृणा से उसके जबड़े कस गये।

टेकमल ने इत्मीनान की एक लंबी साँस लेकर अपने घाघ अंदाज को कायम रखते हुए कहा, 'मैं यही तो कहने आया हूँ तौफीक कि जो हो गया उन्हें भूलकर दोस्ती की बात शुरू हो, लेकिन लगता है तुमलोगों ने दुश्मनी करने की ही ठान ली है।'

'दोस्ती का बड़ा दम भरने चले हो तो लो करो दोस्ती। शर्त यह है कि लोक सभा का चुनाव हम लड़ेंगे, तुम नहीं। तुम तीन बार जीतकर अपनी सर्वनाश-लीला दिखा चुके...अब रहा-सहा भी चैपट करने के लिए तुम्हें एक बार फिर लोक सभा भेजने की जोखिम नहीं उठायी जा सकती।'

'तौफीक, तुम काफी चबर-चबर कर चुके। मत भूलो कि खुलकर दुश्मनी पर उतर जाऊँगा तो मेरे सामने अपने इन थके-हारे और भूखे-बेरोजगार कारकूनों को लेकर एक मिनट नहीं टिक सकोगे। कान खोलकर सुन लो, लोक सभा चुनाव में अगर तुमने दखलअंदाजी करने की कोशिश की तो महादेव की सौगंध, सूखी हुई नहर में पानी नहीं खून की धारा बहा दूँगा। तुमने ठीक कहा कि मैंने सुपारी दी है और देखना अब तमाशा कि एक-एक कर तुम्हारे आदमी कैसे मारे जाते हैं? अब तुम्हें अपनी असली ताकत दिखाऊँगा।' टेकमल की आवाज और भंगिमा जैसे पूरी तरह राक्षसी हो गयी। वह तमतमाकर उठ गया अपने आसन से।

तौफीक उसे एक मुँहतोड़ जवाब सौंपना ही चाहते थे कि सल्तनत ने अपना तेवर रौद्र कर लिया, 'ताकत तुम्हें ही नहीं, हमें भी दिखाने आता है, टेकमल। देखो मेरे हाथ में क्या है?' सल्तनत ने अपने कंधे में लटके बैग से एके 56 निकाल लिया। देखकर भैरव और तौफीक के चेहरे भी सन्न रह गये, चूँकि सल्तनत ने कभी इस तरह के हथियारों का पक्ष नहीं लिया था। उसने आगे कहा, 'ऐसा खिलौना अब तुम्हारे पास ही नहीं, हमारे पास भी है और ये तुम्हें और तुम्हारे आदमी को ही नहीं हमें भी चलाने आते हैं। तुम हमारे घर में नहीं होते तो चलाकर आज दिखा देती। इस मुगालते में मत रहना टेकमल कि तुम हम पर गोलियाँ चलाओगे तो हम तुम पर फूल बरसायेंगे। भैरव को अगर कुछ हुआ तो माँ भवानी की सौगंध तुम जहाँ भी रहोगे, तुम्हें मैं मारूँगी अपने इन्हीं हाथों से...।'

'देख लूंगा मैं तुम्हें बदजबान लड़की...अब तुमलोगों की खैर नहीं...।' पैर पटकता हुआ टेकमल हॉल से बाहर निकल गया।

अम्मा दीवार के पीछे से सारे घटना-क्रम पर कान लगायी हुई थी। टेकमल के जाते ही उसने ताली बजाकर खुशी जताते हुए व शाबाशी देते हुए हॉल में प्रवेश किया और सल्तनत को अपने सीने से लगा लिया। हुलास भरे स्वरों में कहा, 'आज मुझे भरोसा हो गया कि टेकमल को दबाने और कुचलने में हम कहीं से भी उन्नीस नहीं पड़ेंगे। लोक सभा चुनाव में हमारा उम्मीदवार जरूर उतरेगा और वह उम्मीदवार दूसरा कोई नहीं, सिर्फ और सिर्फ भैरव होगा।'

अम्मा के इस प्रस्ताव का तौफीक, सल्तनत और तारानाथ सहित सभी लड़के हर्षनाद करते हुए तालियाँ बजाकर समर्थन करने लगे। अब तक वहाँ आ चुकी मिन्नत, निकहत और मतीउर भी उनमें शामिल हो गये।

समाप्त।