सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 9 / जयनन्दन
अम्मा ने कहा, 'हमारे सारे खेत तुम्हारे आने की बाट जोह रहे थे मतीउर, अब सँभालो तुम इन्हें। आज से इनके मालिक-मुख्तियार सब तुम्हीं हो। यहाँ पहले जैसी बदहाली नहीं है, गाँव के सभी लड़कों ने मिलकर एक नयी सुबह लाने की तैयारी की है। तुम्हारे तौफीक मामू, भैरव, सल्तनत, तारानाथ, चन्द्रदेव आदि सभी जी-जान से भिड़े हैं कि खेती ऐसा काम बन जाये कि पढ़े-लिखे लोग इसे पहली पसंद बनायें। तुम इस अभियान में इनकी मदद करो। चूँकि खेती करने का जो हुनर और धैर्य तुममें है, वह किसी में नहीं है।'
तौफीक ने उसे महत्व देते हुए समझाया, 'यहाँ कई और भी चुनौतियां हैं, जिनका तुम्हें सामना करना है और करारा जवाब भी देना है। निकहत और सल्तनत के भविष्य को रौंदनेवाले तत्व अब भी इस फिराक में हैं कि इन्हें घर से बेघर करके दोजख में ढकेल दें। बदकिस्मती से इस खेल में तुम्हारा दोनों भाई और शफीक मियाँ भी शामिल हैं। हालाँकि ये जानबूझकर नहीं नादानी और नासमझीवश ऐसा कर रहे हैं।'
निकहत रसोईघर के दरवाजे को पकड़कर मासूमियत से चुपचाप खड़ी थी और मतीउर को एकटक देखे जा रही थी। मतीउर उठकर उसके पास गया और आत्मीयता के तल से निकालकर भीगी हुई आवाज में पूछा, 'कैसी है तू, आपा? '
'क्या कहूँ, देख लो खुद ही। तुम्हारे यहाँ रहे बिना हमारी खैरियत का अल्लाह ही मालिक है।'
'मैं अब आ गया हूँ, आपा...तुमलोगों के बिना मेरे दिन भी अच्छे नहीं गुजरे। यहाँ की बहुत याद आती रही...सबसे ज्यादा तुम्हारी और अम्मी की। सल्तनत आपा की तो जानता था कि भैरव है। जब सुना कि तौफीक मामू यहाँ आ गये तो मुझे बहुत तसल्ली मिली। अपने इस घर को ममानी ने एक बड़े मकसद के लिए देकर सबको यहाँ बसाया, मैं तो वाकई इनका गुलाम हो गया हूँ। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है इस घर का इस शक्ल में ढलना।'
घर में भैरव दाखिल हुआ। वह और मतीउर दोनों एक-दूसरे को देखकर खिल उठे। हुलसते हुए मतीउर भी आगे बढ़ा और भैरव भी। दोनों गले से लिपट गये। भैरव ने उसे अच्छी तरह नापते हुए कहा, 'चलो, शुक्र है तुम दुबले नहीं हुए शहर में। बहुत मन लग रहा था न...आने का नाम नहीं ले रहे थे...चिट्ठी न जाती तो आते भी नहीं।'
'सच पूछो तो रोज मन होता था कि भाग आयें लेकिन मन मसोस कर रह जाता था कि आकर करेंगे भी क्या? गाँव तो पुरखों और अपनों से बनता है लेकिन शहर में जो एकाध अपने होते हैं वे भी अपने नहीं रह जाते। अतीकुर और मुजीबुर भाई साहेब ने दो माह बाद ही मुझे अलग कर दिया था और कहा था कि शहर में रहना है तो किसी पर बोझ बनकर नहीं, आत्मनिर्भर बनकर रहना होगा। मैं एक सेठ के गोदाम में ट्रकों पर बोरा लादने और उससे उतारने का काम करता था। उन्हें इतना भी धक-विचार नहीं हुआ कि ऐसे कुली-कबाड़ी के काम की बुनियाद पर मुझे एक रहने लायक घर भी नहीं मिल सकता, जबकि मैंने उन्हें कह रखा था कि अपने परिवार के गुजर-बसर के लिए हर हाल में मुझे गाँव में पैसे भेजने हैं। उनके कानों पर एक जूँ तक नहीं रेंगी।'
'अब उस दुखद प्रसंग को भूल जाओ, मतीउर। तुम्हारे अपने इस गाँव में ही एक नया अध्याय शुरू होने जा रहा है, जिसमें तुम्हारी भूमिका सबसे अलग हटकर होगी। तुम हमारे इस अभियान में एकदम खास आदमी होनेवाले हो।'
'तुमलोगों ने जितना कुछ किया है, मैं सुनकर अभिभूत हूँ। मेरे लायक जो भी काम होगा, मुझे बताना। मैं अब पूरी तरह तुमलोगों के साथ हूँ।'
बातों का सिलसिला बहुत देर तक चलता रहा। यह सुविधा थी इस घर में कि खाते-पीते या अन्य काम निपटाते हुए भी घर कभी सभागार में, कभी मनोरंजन गृह में बदल जाता था। आगे भैरव ने फुलेरा बाँध के बारे मे अम्मा के पूछने पर जानकारी दी, 'जमीन को समतल करने का काम तेजी से चल रहा है। आज प्रखंड विकास पदाधिकारी अमीन लेकर आये थे...जमीन की उन्होंने नापी-जोखी की। कुल 170 बीघे का रकबा आँका गया।'
जमीन की लेवेलिंग की बात आयी तो तौफीक ट्रैक्टर की प्रगति के बारे में बताने लगा, 'शफीक मियाँ खेत और घर का बँटवारा करना चाहते हैं। उन्होंने दो भाग करके एक प्रपोजल भी बनाया है। दोनों पर गोटी गिरा दी जायेगी, जो जिसके हिस्से में पड़े। चलो अच्छा ही है...मेरा हिस्सा अलग हो जायेगा तो मैं अपनी वाली जमीन ट्रैक्टर फाइनांस कराने के लिए बैंक के पास आराम से बंधक रख सकूँगा।'
'अब तो उस ट्रैक्टर का ही काम है। पिछले सप्ताह जो थोड़ी वर्षा हुई तो देख रहा हूँ कि आहर और पोखर में काफी पानी जमा हो गया है। मतीउर आ ही गया है...ट्रैक्टर का असल इंचार्ज तो इसे ही होना है।'
'मुझे यकीन नहीं हो रहा कि मैं जो देख-सुन रहा हूँ वह सच है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं शहर में ही हूँ और गाँव का ख्वाब देख रहा हूँ...खुशियों और सुकूनों से भरा यह घर...आहर...पोखर...सहकारिता भूमि...ट्रैक्टर...इतना कुछ एक साथ कैसे हो सकता है? ' मतीउर ने माथा चकराने वाले अंदाज में कहा।
'मतीउर...तुम्हें हकीकत से रूबरू करवाने के लिए शाम को हम तुम्हें लेकर सब कुछ दिखाने चलेंगे।'
शाम में मतीउर को लेकर भैरव और सल्तनत आहर के अलँग (बाँध) पर आ गये। भैरव ने कहा, 'देखो, मतीउर, यह है हमारे खेतों का अमृत कुंड।'
हर्ष मिश्रित आश्चर्य से मतीउर की आँखें आहर के पूरे भूगोल को देखती रह गयीं। जो टूट-फूट कर अस्तित्वहीन हो गया था उसका ऐसा कायाकल्प। इस कायाकल्प के मूल में निश्चित रूप से इन दोनों की बेचैनी और कोशिशें ही कारक रही हैं। मतीउर ने फख्र से दोनों को निहारा। प्रेम के इस एक जोड़े का इतना बड़ा कमाल! क्या बादल में समायी बेइंतहा बिजली की तरह प्रेम की तरलता में भी इतनी-इतनी ऊर्जा समाविष्ट रहती है! आहर का लंबा-चैड़ा विस्तार अति रमणीक लग रहा था। यत्र-तत्र ढेर सारे पक्षी जल-विहार कर रहे थे। गाँव के कुछ लोग बंसी लेकर मछली फँसा रहे थे। एकाएक कितना प्राणवंत और बहूद्देशीय हो गया था यह आहर। उसकी बाँध इतनी चैरस और मजबूत कर दी गयी थी कि उस पर आराम से ट्रक दौड़ाया जा सकता था। उसके किनारे लगाये गये पौधे तेजी से फुरफुराने लगे थे। गाँव के किसानों और सहकारिता के लड़कों द्वारा उसकी नियमित देखभाल की जा रही थी...खाद, पानी, कोड़नी-निकौनी और डोर-डंगरों से रक्षा। बिना किसी प्रेरणा, प्रोत्साहन और सरकारी पहल के पर्यावरण संरक्षण का इतना बड़ा कार्य-निष्पादन! यह पूरा आहर भर जाये तो गाँव की दो तिहाई खरीफ फसल तो जरूर ही उपज जायेगी। नहर के कारण पानी का इतना बड़ा जलागार रख-रखाव के बिना ध्वस्त होता चला गया था। किसी को इसे दुरुस्त करने की तरफ न ध्यान आया और न साहस हुआ। नाहक झेलते रहे सुखाड़ का अभिशाप। उन्हें बाँध का एक चक्कर लगाने में पूरा पैंतालीस मिनट लग गया।
इसके बाद वे पोखर पर आ गये जो गाँव की आबादी से बिल्कुल ही सटा हुआ था। खस्ताहाल हो-होकर एक नाले में तब्दील हो गया यह पोखर अब किसी तीर्थस्थल का सुंदर विशालकाय सरोवर लगने लगा था। इसमें पूरब और पश्चिम तट पर दो स्नानघाट पहले से बने हुए थे जो जर्जर होकर बेकाम हो गये थे। दोनों ही घाटों का अब नवनिर्माण से भाग्योदय हो गया था। वे खूब फब रहे थे। इन घाटों पर दर्जनों महिलाएँ कपड़ा धोना, बर्तन माँजना, नहाना आदि क्रियाओं को संपन्न कर रही थीं। आपस में उनके बोलने-बतियाने, झगड़ने, चुगली करने, बच्चों को डाँटने-डपटने आदि से एक ऐसा कोलाहल सृजित हो रहा था जो कर्णकटु नहीं था। इस कोलाहल में गाँव के दुख-सुख व हर्ष-विषाद तथा जीवन-संघर्ष के गतिशील रहने की आहट समायी थी। इन महिलाओं में धर्म और जाति की कोई सीमारेखा या निर्धारित खाँचा नहीं था। जहाँ तुफैल अंसारी की घरवाली बर्तन माँज रही थी, उसी के बगल में दशरथ यादव की मेहरारू अपने बेटे को नहला रही थी। बेटा तड़फड़ा रहा था...रो रहा था।
दक्षिण में ऊपर से ढलान देकर एक घाट जानवरों के लिए खास तौर पर बनाया गया था। वहाँ बहुत सारे जानवर दिख रहे थे...कुछ पगुराते हुए, कुछ एक-दूसरे से छेड़-छाड़ करते हुए, कुछ मचल-मचलकर पानी पीते हुए, कुछ पानी में घुसकर मस्ती करते हुए। दो-तीन भैंसें गहरे पानी में प्रविष्ट करके तैर रही थीं और भीतर के ताप से मुक्ति पा रही थीं। इन्हीं के आसपास दो-तीन किशोर भी तेज-तेज तैरने की होड़ कर रहे थे। तात्पर्य यह कि पोखर अपने चरित्र से पूरी तरह समाजवादी व्यवस्था का चित्र दिखा रहा था। यहाँ बाघ और बकरी एक ही घाट में पानी पी रहे थे। यह सामाजिकता और समरसता का एक केन्द्र था। पछियारी टोले की गनौरवाली को पुरवारी टोले की मंगतूराम की घरवाली से अगर नेनुआ या करेला का बीज माँगना है तो पोखर-घाट से सर्वसुलभ जगह दूसरी नहीं हो सकती थी। सुबह-शाम दोनों को ही आना था नहाने या कपड़ा धोने। ज्यादा दिन नहीं हुए कि मतीउर इस पोखर की दुर्गति से विस्मृत हो जाता। यह गाँव की नालियों और कचड़ों का घूरा बनकर रह गया था। आज इसका पानी बनारस के गंगाजल से भी कहीं ज्यादा साफ और स्वास्थ्यकर था। गाँव की नालियों का निकास कहीं और मोड़ दिया गया था। कूड़ा और कचड़ा फेंकने और इसमें बहाने की आदत सबने अपने-आप ही छोड़ दी थी, चूँकि इसका दुष्परिणाम वे भुगत चुक थे। पोखर के बिना गाँव की रंगत बिगड़ गयी थी...परेशानी बढ़ गयी थी और आपसी लगाव प्रभावित हो गया था।
मतीउर ने मन ही मन तय किया कि सुबह का स्नान वह इसी पोखर में आकर किया करेगा। जब से उसने यहाँ होश सँभाला, इस पोखर को इस रूप में कभी नहीं देखा कि कि इसमें नहाया जा सके। मतीउर ने अपनी आँखों में गर्व भरकर भैरव को निहारा, जैसे कह रहा हो 'लाजवाब काम किया है तुमने, दोस्त!' भैरव ने उसके चेहरे पर ठहरे मौन संवाद को भाँपते हुए कहा, 'यह सब लतीफगंज विकास कमिटी का कमाल है मतीउर, मेरा नहीं।'
मतीउर ने कहा, 'तुम किसी काम के हो, यह तुमने कब स्वीकार किया है कि आज करोगे?'
सल्तनत ने संदर्भ बदलते हुए कहा, 'क्या अब हमलोगों को फुलेरा बाँध भी चलना है? '
'चल सकते हैं,' भैरव ने कहा, 'अभी सूरज डूबा नहीं है, रोशनी रहते हम वहाँ चक्कर मारकर लौट सकते हैं।'
'तुमदोनों बढ़ो, मैं जरा झटपट एक काम कर लेती हूँ।' सल्तनत ने कहा।
'कौन-सा काम?' भैरव ने पूछा।
'मैं कर के आती हूँ न...तुम चलो तो ? '
'अब बताओगी भी...मेरे करने लायक होगा तो तुमसे जल्दी मैं कर लूँगा। अपने पैर की तकलीफ का तो तुम्हें खयाल ही नहीं रहता।' भैरव ने एक अपनत्व भरी झिड़की से उसे राजी करने की कोशिश की।
'हम आ रहे थे तो हरिजन टोली का जोखू माँझी जाल लेकर जा रहा था। मछली पकड़ने में उसकी उस्तादी का सभी लोहा मानते हैं। अब तक वह जाल डालकर एकाध खेप निकाल चुका होगा। आज मतीउर आया है...मछली का यह बेहद शौकीन है। क्यों नहीं एक-डेढ़ किलो हम उससे खरीद लें? '
'तो ऐसा कहो न! मैं जाकर ले आता हूँ। इसके लिए तुम्हें जाने की क्या जरूरत है? अगर वह अब तक नहीं निकाल पाया होगा तो उसे कह दूँगा कि घर में पहुँचा देगा।' भैरव ने उसे अधिकार से बरजते हुए कहा।
'तुम दोनों ही न जाओ और मैं चला जाऊँ तो कैसा रहेगा? ' मतीउर ने छोटे होने के नाते अपना पक्ष रखा।
'जी नहीं...इस काम के लिए सिर्फ और सिर्फ मैं जाऊँगा। तुमलोग धीरे-धीरे फुलेरा बाँध की तरफ बढ़ते चलो।'
भैरव तेजी से मुड़कर चल पड़ा। मतीउर उसकी इच्छा-पालन कार्रवाई पर मोहासिक्त होकर उसे फौरन जाते हुए देखता रह गया। सल्तनत ने उसका भाव समझते हुए कहा, 'भैरव ऐसा ही है, मतीउर...इस पोखर से भी कहीं ज्यादा पवित्र...ज्यादा तरल और ज्यादा गहरा। मेरी परेशानियों को वह अपने दामन में समेट लेने का एक भी मौका खाली जाने नहीं देता।'
'जानता हूँ, आपा...मछली तो बगल से ही लाना था...तुम तारे तोड़कर लाने के लिए भी कह दो तो यह आदमी आसमान में सीढ़ी लगा लेगा। तुम भी तो ऐसी ही हो, इसके बिना तुम्हारी साँस भी ठीक से कहाँ चलती है।'
सल्तनत ने इस मौके को बिल्कुल अनुकूल समझकर टेकमल और इदरीश की शैतान-कथा सुना डाली...टेकमल की गीदड़-धमकी...उसके द्वारा इदरीश का बेजा इस्तेमाल...पंचायत के बहाने से कौमी तंजीम के सदस्यों द्वारा एकतरफा और पूर्वनियोजित फैसले थोपवाने की साजिश तथा गोली चलवाकर खून-खराबे की नीयत का प्रदर्शन। मतीउर अचम्भित रह गया...दुश्मनी का इतना खुल्लमखुल्ला और घिनौना इजहार। गाँव को कमबख्तों ने क्या युद्ध का मैदान बना दिया? इतना कुछ सहना पड़ रहा है इन्हें? प्यार के दुश्मन बन जाने की बुरी आदत क्या यह दुनिया कभी नहीं छोड़ेगी? मतीउर का जबड़ा कस गया। मन ही मन उसने संकल्प किया कि तुम्हें देख लूँगा, टेकमल।
जब मछली के लिए कहकर भैरव आ गया तो वे फुलेरा बाँध तक पहुँच चुके थे। टीलों, पहाड़ी के अवशेषों, झाड़ियों और खर-पतवारों से पूरी तरह भरी रहनेवाली यहाँ की जमीनें किसी काम की कभी बन जायेंगी, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। अभी यह जमीन खेती करने के लिए एकदम फिट हो गयी थी। मतीउर ने गर्दन उठाकर दूर तक नजर दौड़ायी...170 बीघे का भूखंड...बीच में कोई मेड़ नहीं...कोई पार्टीशन नहीं...दो-चार ट्यूबवेल बिठा दिया जायें तो यहाँ से सोना उगाया जा सकता है। मतीउर को पहली बार लगा कि लोग जितनी खोपड़ी शहरों में कारखाना लगाने में करते हैं, उसका आधा भी अगर गाँव के खेतों और परती जमीनों के ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने के बारे में लगायें तो प्रगति की गति कई गुना ज्यादा तेज की जा सकती है।
मतीउर ने कहा, 'भैरव बाबू! तुमलोग यहाँ इतना बड़ा-बड़ा काम कर रहे थे और मैं वहाँ नाहक स्साला बोरा ढोने में वक्त बरबाद कर रहा था।'
'नहीं मतीउर, तुम्हारा समय वहाँ बरबाद नहीं हुआ...तुममें एक नयी समझदारी आयी...ज्ञान बढ़ा...तुम्हारी झिझक खत्म हुई...आत्मविश्वास बढ़ा...गाँव और शहर में फर्क की जानकारी हुई...अपने रिश्तेदारों की अहमियत से वाकिफ हुए...गाँव से बिना गये यह सब सीखने में काफी वक्त लग सकता था।'
भैरव ने कहा तो मतीउर उसका मुँह देखता रह गया। फिर कहा, 'भैरव बाबू, तुम्हारे जैसे ही लोग होते हैं जो बेकार की चीजों से भी काम की चीजें बना लेते हैं।'
सल्तनत को हँसी आ गयी। फिर समर्थन करते हुए कहा, 'भैरव ने ठीक कहा है, मतीउर, तुम्हें देखकर लगता ही नहीं कि तुम वही मतीउर हो जो मंदबुद्धि-सा ठिठुरा, सहमा, चुपचाप और मुरझाया रहता था। कुछ भी हो जाये, घट जाये...उस पर कोई असर नहीं। उसके सिर्फ मिट्टी, फसलें, पशु, पक्षी, पेड़, पहाड़, आसमान, नदी, नाले आदि से ही सरोकार दिखते थे।'
मतीउर ने महसूस किया कि उसके बारे में यह आकलन बिल्कुल ठीक है।
भैरव ने अब जमीन की तरफ सबका ध्यान केन्द्रित किया, 'अब बताओ, इसमें पहली फसल क्या लगनी चाहिए? '
'पहले तो इसमें गोबर-खाद डालने की जरूरत है। ट्रैक्टर आ जाये तो यह काम आसानी से हो सकता है। उसके पहले बैलगाड़ी भी लगायी जा सकती है। पहली फसल ऐसी लगनी चाहिए जिसमें पानी की ज्यादा जरूरत न हो। इस खयाल से आधी जमीन में मूँगफली और आधी में गन्ना लगाना उचित रहेगा।' मतीउर ने कहा।
'गन्ना तो ठीक है...लेकिन इसकी बिक्री कहाँ होगी? चीनी मिल जब से बंद हुई, गन्ने का यहाँ भविष्य ही अंधकारमय हो गया।' सल्तनत ने अपनी राय दी।
'तब तो मूँगफली पर ही पूरा ध्यान केन्द्रित करना होगा।' मतीउर ने कहा।
शाम ढल चुकी थी। जानवर घर लौटने लगे थे। अषाढ़ का शुक्ल पक्ष चल रहा था। अँजोरिया रात थी, लेकिन चाँद बादलों से ढका था। पानी बरसने की अपेक्षाओं वाले ये दिन थे। धान का बिजड़ा गिराने का समय हो गया था। खेतों में किसानों की गतिविधि शुरू हो गयी थी। मतीउर सही समय पर गाँव आ गया था। घर आते हुए कई ग्रामीणों से उसने राम-सलाम किया और खेती का हालचाल पूछा।
टेकमल का दरबार सजा था। उसकी कीर्तन मंडली के लोग बारी-बारी से कीर्तन गाने में मशगूल हो गये थे। उस तक सारी अद्यतन सूचनाएँ विश्वस्त चारणों द्वारा परोसी जा रही थी। संसद का मानसून सत्र चल रहा था, जिसमें पीछे बैठकर ऊँघने के लिए उसे डेढ़ महीने के दिल्ली प्रवास से गुजरना पड़ा। कभी-कभी ऊँघने के स्थान पर उसे कुछ पार्टी वाले हल्ला करने या कुर्सी फेंकने या माइक उखाड़ने आदि का गुरुतर दायित्व भी साग्रह सौंप देते थे। चूँकि सभी जानते थे कि ऐसे कार्य को बखूबी अंजाम देने में उससे ज्यादा दक्षता किसी नेता को हासिल नहीं है। वह निर्दलीय सांसद था इसलिए उसे सुविधा से कोई भी पार्टीवाले हायर कर लेते थे। उसके बेपेंदी के होने का यह एक अतिरिक्त लाभ था। ऐसे मौके उसे सार्थकता प्रदान करते थे और उसे गाँव में न होने का अफसोस जरा कम हो जाता था। यों संसद में ऊँघने और झपकी ले-लेकर सोने का आनंद भी कम नहीं था, चूँकि इसी काम के उसे मोटे भत्ते मिलते थे। कुछ पाने के लिए कुछ तो गँवाना ही पड़ता है।
उसने अपने पूरे क्षेत्र में नये-नये बने दरारों, सूराखों, हादसों तथा त्रासदियों की खबर लेकर एक लंबी साँस ली। अपनी धौंस कायम रखने के लिए जहाँ भी उसे टाँग घुसाने की जरूरत पड़ती थी अपने कारकूनों को वह भिड़ा देता था। कोने-कोने के शातिर प्रतिनिधि उसके कुख्यात दस्ते में शामिल थे। इधर कुछ दिनों से उसकी वक्रदृष्टि का केन्द्र लतीफगंज में चल रही गतिविधियाँ बन गयी थीं। आज भी सभा में लतीफगंज के कई ग्रह-नक्षत्र मौजूद थे...करामत, नन्हकू, शफीक, फजलू, अतीकुर, मुजीबुर और उसके कुछ हिन्दू नामधारी पुछल्ले। इदरीश तो खैर उसके लश्कर का अब स्थायी मुलाजिम था।
नन्हकू मियाँ ने नून-तेल लगाकर चुगली करने का प्रलाप शुरू कर दिया, 'जनाब टेकमल साहेब, उनके हौसले बढ़ते जा रहे हैं...उनकी तादाद बढ़ती जा रही है। वे जो भी काम हाथ में ले रहे हैं, उनमें कोई खलल नहीं पड़ रहा है। फुलेरा बाँध की जमीन डीसी ने उनकी कमिटी के नाम से अलॉट कर दिया...अब उसमें हल चलनेवाला है...इसके लिए नया ट्रैक्टर आ रहा है।'
'नन्हकू मियाँ,' उसे रोकते हुए टेकमल ने कहा, 'मुझे इन बातों की जानकारी हो चुकी है। मैं दिल्ली जाता हूँ तो अपना एक कान यहीं छोड़कर जाता हूँ। लतीफगंज में जो किले फतह किये जा रहे हैं, उन्हें होने दीजिए। दुश्मन को पहले ऊँचाई पर चढ़ने देना चाहिए ताकि गिराये जाने पर फिर उनके उठने का कोई चाँस न रहे।'
'गुस्ताखी के लिए माफी चाहता हूँ हुजूर, तब तक कहीं देर न हो जायें! कहीं वे इतनी ऊँचाई पर न चले जायें कि हम उन्हें गिराने के लिए छोटे पड़ जायें। उनके कार्यक्रमों की मकबूलियत इतनी बढ़ती जा रही है कि दूर-दराज के गाँवों के लड़के भी इनकी तरफ आकर्षित होने लगे हैं। सुना है कि अगले विधान सभा चुनाव में ये लोग अपना उम्मीदवार लेकर मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। शायद उन्हें मालूम हो गया है कि आप अपने लड़के नेकमल को विधान सभा चुनाव में इस क्षेत्र से खड़ा करनेवाले हैं। कहीं ये लोग लोक सभा चुनाव के वक्त भी खतरे की घंटी न बन जायें? देख रहा हूँ कि जिले के कुछ आला अफसर अपना वरद हस्त इनकी ओर बढ़ाते जा रहे हैं।' इदरीश ने खैरख्वाही जताते हुए कहा।
'तुम बात तो बड़ी अक्लमंदी की कर रहे हो, इदरीश, लेकिन अभी तकाजा यही है कि इन सबको अपनी-अपनी सीमा में कूद-फाँद करने दिया जाये...जानते ही हो कि सुनार की सौ चोट भी लुहार की एक चोट की बराबरी नहीं कर सकती।'
'टेकमल जी, इस लुहार की चोट के लिए कितना इंतजार करना होगा? जिसे आप सुनार समझ रहे हैं कहीं वह लुहार निकल आया तो? ' करामत ने अपनी बेचैनी दिखायी।
'आपका अंदेशा बेजा नहीं है, करामत मियाँ...हमें इसीलिए अपना कदम फूँककर उठाना होगा। उन्हें कैसे रोका जाये...कैसे तोड़ा जाये...कैसे पस्त किया जाये, इसका रास्ता ढूँढ़ना होगा। लोकतंत्र में राजनीतिक गुंडागर्दी का भी अपना एक व्याकरण होता है। सीधे-सीधे सीनाजोरी और लंठई करने से अगले का नुकसान तो हो सकता है लेकिन अपना भला नहीं हो सकता। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमारे किसी प्रहार से उसकी तरफ जनता की हमदर्दी सैलाब बनकर उमड़-घुमड़ जाये। यार, हमारे भीतर की असलियत चाहे जो भी हो बाहर का आवरण एक एम्पी का है...कानून बनानेवाला...न्याय दिलानेवाला। पार्लियामेंट में हमको बैठना पड़ता है...अपने को जनता का सेवक बताना पड़ता है। लोकतंत्र की बाहुबलि चक्की लुके-छिपे, अनभिज्ञ और अनजान बनकर चलायी जाती है...आपलोग जैसा कह रहे हैं, वैसा नहीं हो सकता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं चिंतित नहीं हूँ...बहुत चिंतित हूँ।'
'ठीक है टेकमल जी, आप एक तजुर्बेकार नेता हैं...दस-पन्द्रह साल से राजनीति कर रहे हैं...किसे कैसे ठीक करना है...आप से ज्यादा भला कौन जान सकता है? हमारे लिए आपका क्या हुक्म है...पंचायत की ओर से हमें बुलाया गया है। हम जब आये तो आप दिल्ली जा चुके थे। काफी दिन हमें यहाँ रह जाना पड़ा...अब शहर लौटना है।' शफीक ने एक फरियादी की तरह अपनी स्थिति स्पष्ट की।
'करामत और नन्हकू मियाँ ने आपको बताया नहीं? क्यों करामत जी ? '
'हम इन्हें सब कुछ समझा चुके हैं, हुजूर। इन्होंने कुछ कोशिशें भी करके देख लीं। वे कह रहे हैं कि उन्हें बिरादरी में रहने या उससे निकाले जाने की कोई परवाह नहीं है। किसी के सामने वे हथियार डालनेवाले नहीं हैं।' नन्हकू मियाँ ने अपनी बेचारगी का बयान किया।
'देखिए, आपलोग जायज-नाजायज कुछ भी करके मामला फरिया लीजिए। शादी के वक्त जैसे बेमुरौव्वत होकर पेश आये और उसे इदरीश के घर जाने पर मजबूर कर दिया गया, वैसी ही परिस्थिति फिर से पैदा कर डालिए।' उकसाते हुए कहा टेकमल ने।
'वैसा अब नहीं हो सकता, हुजूर। उस समय सल्तनत अकेली और असहाय थी। इस समय उसके साथ जहाँ खुलकर जकीर की अम्मा है, तौफीक है, मतीउर है, वहीं मंडली के कई दर्जन लड़के हैं।'
'अतीकुर और मुजीबुर को कहो...एक बार पूरा जोर लगाकर देख ले। दोनों उनके अपने भाई हैं...वीटो का इस्तेमाल करें। कितनी बुरी बात है कि ये चुड़ैल लड़कियाँ अपने शौहर को छोड़कर एक हिन्दू लड़के के साथ बेहयाई कर रही हैं और अपने खानदान एवं बिरादरी का नाम मिट्टी में मिला रही हैं।'
'उनकी इस बदचलनी के कारण ही हम गाँव में मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे। सच पूछिए तो हमने इसी कारण से गाँव में आना-जाना एकदम कम कर दिया। हमें बताया गया कि आप अपनी दिलचस्पी और जोर लगाकर कोई रास्ता निकालने में मदद करनेवाले हैं। हम इसी भरोसे से गाँव आ गये।' अतीकुर ने अपना दुखड़ा रोया।
'यार, तुम पढ़े-लिखे समझदार आदमी हो...जानते हो कि हमारा भला भी इसी में है कि तुम्हारी बहनें इदरीश के साथ रहें और भैरव से उनका गँठजोड़ खत्म हो। दोनों के अलग होते ही जनसेवा का तम्बू अपने आप धराशायी हो जायेगा। तौफीक को मैं जानता हूँ, जवानी का जब जोश था तब बिना अवलंब वह उखड़ गया। अब इस उम्र में भैरव और सल्तनत के न रहने से वह भला क्या टिकेगा।' टेकमल ने गहरे पैठकर मोती चुनने की कोशिश की।
'क्या आप भैरव को डरा-धमकाकर या लोभ-लालच देकर सलटा नहीं सकते?' मुजीबुर ने तरकीब सुझायी।
'सब आजमा चुका हूँ, यार...साला वह लड़का और उसका बाप दोनों ही एक नंबर के हरामी हैं। अब यही हो सकता है कि तुमलोग अपनी तरफ से एक बार पूरी ताकत लगा दो...न हो तो कुछ दिनों के लिए अपने पूरे परिवार को अपने साथ शहर लेते जाओ...और अगर इनमें से कुछ भी न कर पाओ तो यह आखिरी उपाय है और अचूक भी...गाँव में दंगा करवा दो। दंगा छिड़ जाये फिर मेरे ब्रिगेड को चमत्कार दिखाने का मौका मिल जायेगा। दंगे की आड़ में खतरे की सभी घंटियों का सफाया करके अपना वर्चस्व बनाना सबसे अचूक नुस्खा है। पिछले दिनों चुनाव जीतने के लिए कई राज्यों में कई मुख्य मंत्रियों ने इसे आजमाया, तुमलोग देख ही चुके हो।' टेकमल ने जैसे किसी गुत्थी को सुलझाते हुए कहा।
'आप ठीक कहते हैं हुजूर, इस देश में हिन्दू और मुसलमान के एक साथ रहने का सबसे ज्यादा फायदा सियासतदान ही उठाते हैं। कुछ लोग मुसलमानों को मरवाकर और कुछ लोग मुसलमानों को बचाकर सत्ता पर काबिज हो जाते हैं।' नन्हकू मियाँ ने कहा।
'तो फिर हम चलते हैं, हुजूर। देखते हैं क्या हो सकता है।' करामत ने उठते हुए कहा। उसके साथ लतीफगंज के सभी लोग उठकर खड़े हो गये।
टेकमल ने दरवाजे तक उनका साथ दिया। जाते-जाते उनके दिमाग में एक बार फिर से घुसेड़ डाला, 'अपनी इज्जत बचाने के लिए आदमी को कभी-कभी हथियार उठाये बिना काम नहीं चलता है। अगर इस तरह का मन बन जाये तो मुझे इत्तिला कर देना...मैं पहले ही दिल्ली चला जाऊँगा। स्थिति बिगड़ने की खबर सुनकर फिर इसे सँभालने के बहाने वापस आ जाऊँगा।'
कीर्तन मंडली के बीच कहीं रूपेश भी बैठा हुआ था। वह अंतिम निष्कर्ष टोहने के लिए टेकमल के पीछे-पीछे आ गया। उसे लगा जैसे लतीफगंज के ये चाटुकार आदमी नहीं, बंदर हैं और यह रक्तपिपासु टेकमल अपने मनोनुकूल इशारे पर नचानेवाला एक बहुरूपिया मदारी है। रूपेश को यह भी महसूस हुआ कि भले ही ये जीहुजूरी में लगे हैं लेकिन इनके चेहरे पर एक असमंजस और बेवकूफ बन जाने का भाव भी अटका हुआ है।
जब टेकमल दोबारा लौटकर अपने आसन पर विराजमान हुआ तो सारे छँटे हुए शोहदे सभासद की तरह फिर से अपनी-अपनी जगह पर टिक गये। टेकमल का नालायक और आवारा बेटा नेकमल काफी देर से पूरे तमाशे को जज्ब कर रहा था। उसने पूछा, 'बाउजी, आपको क्या लगता है, लतीफगंज के ये दुअन्नी-चवन्नी मार्का करामत, नन्हकू, शफीक जैसे नखहीन और दंतहीन लोग कोई मोर्चा खोलने और उस पर टिकने के दमखम रखनेवाले लोग हैं? इन पर आप भरोसा करके कहीं दलदली मिट्टी पर तो पैर नहीं रख रहे?'
'अरे बेटे, भरोसा कौन किस पर करता है? आज राजनीति का जो चेहरा हो गया है उसमें भरोसा तो अपने आप पर भी नहीं है। बस जो चल रहा है उसे चलाते जाना है। महाभारत में सभी अर्जुन ही तो नहीं होते, कुछ तो शिखंडी भी होते हैं। शिखंडी होने की भी अपनी एक अहमियत है। कुछ कर सकते हैं तो ठीक है...नहीं कर सकते तब भी हमारे हाजमे पर कोई असर नहीं होने का। कम से कम इनकी मार्फत एक वोट बैंक तो वहाँ सुरक्षित है ही।' किसी महारथी जुआड़ी की तरह अपने कुछ पत्ते खोलते हुए कहा टेकमल ने। नेकमल को लगा कि सचमुच यह ऐसे ही उसका बाप नहीं है।
'बाउजी, लेकिन आपको यह नहीं लगता कि विधान सभा में अगर तौफीक ने उम्मीदवार खड़ा कर दिया तो वह हम पर काफी भारी पड़ेगा? ' नेकमल राजनीति की पहली सीढ़ी को फलाँगने में कोई संशय नहीं रहने देना चाहता था।
'तुमसे ज्यादा तुम्हारे कैरियर की चिंता मुझे है। तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारा रंग-ढंग, तुम्हारा आचार-विचार आदि देखते हुए यह तो तय ही है कि तुम्हें सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही करना है। हक भी बनता है कि नेता के बेटे को नेता बनने का मौका सबसे पहले मिले। पूरे देश में यही रिवाज चल रहा है। इसलिए तुम्हें जीताना और नेता की पहचान देना मेरा दायित्व है। विधान सभा चुनाव में क्या होगा, तुम यह मुझ पर छोड़ दो।' टेकमल ने फाइनली वह मास्टर चाबी घुमा दी जो हर ताले के लिए एक होती है। उसका बेटा गदगद हो गया कि चलो बाप अपना उत्तराधिकार सौंपने के लिए उसकी पात्रता को खारिज नहीं कर रहा है।
शफीक ने अपने घर में निर्णायक कदम उठाने के लिए अपने शुभचिंतकों, पड़ोसियों और कुछ रिश्तेदारों की एक जरूरी मीटिंग बुलायी। उसने पूछा, 'अब आपलोग हमें मशविरा दीजिए कि हम क्या करें? टेकमल को आपलोग बहुत बड़ा बिघ्ननिवारक समझ रहे थे, उसकी क्या वकत है, इसका इजहार आज हमलोगों ने उसके मुँह से ही सुन लिया।'
'शफीक, क्या इजहार सुन लिया...मैं समझा नहीं तुम्हारे कहने का मतलब?' करामत ने जरा ताज्जुब करते हुए पूछा।
'करामत साहब! आप नाहक क्यों इतना अनजान बन रहे हैं? उसके कहने का मतलब आपने नहीं समझा होगा, मुझे तो ऐसा नहीं लगता।' शफीक ने उसे झकझोरने की कोशिश की।
'मियाँ, मुझे तो लगा कि उसने हमें पूरा सपोर्ट करते हुए कुछ तरकीबें बतायीं और अपना साथ देने का भरपूर आश्वासन दिया।' करामत ने अपनी बात कही।
'करामत साहब, हकीकत यह है कि वह हमें इस्तेमाल करना चाह रहा है। अपनी सियासी रोटी सेंकने के लिए हमें जलावन बनाना चाह रहा है। चित भी मेरी और पट भी मेरी का खेल खेलना चाह रहा है। उसने कहा...कुछ उपाय न सूझे तो दंगा करवा दो। आप जानते हैं इसका मतलब?' शफीक ने वहाँ उपस्थित हर चेहरे पर एक सरसरी निगाह दौड़ायी। हर चेहरा मानो एक प्रश्नवाचक चिह्न बन गया। शफीक ने अपने सवाल का खुद ही उत्तर दे दिया,'कहता है वह खुद दिल्ली चला जायेगा और तब उसकी गैरहाजिरी में हमलोग दंगा कर देंगे। दंगा आज तक जहाँ भी हुआ है सबसे ज्यादा खून मुसलमानों का बहा है...सबसे ज्यादा तबाह मुसलमान ही हुए हैं। यहाँ आपलोगों को लग रहा है कि मुसलमान की तादाद अच्छी-खासी है तो आप मार-काट मचाकर फायदे में रहेंगे और आपकी यहाँ धौंस जम जायेगी। अगर ऐसा सोच रहे हैं तो यह आपकी कूढ़मगजी है। यहाँ भी आपका ही खून बहेगा...आपके ही लोग मारे जायेंगे...चूँकि आपको याद रखना चाहिए कि आसपास के उन गाँवों का फासला ज्यादा नहीं है जहाँ हिन्दुओं की तादाद ज्यादा है।'
करामत, नन्हकू, अतीक, मुजीब, इदरीश, फजलू आदि सभी भौंचक्के रह गये। विचार का यह पहलू भी हो सकता है इसका उन्हें कतई इल्म न था। उन्हें लगा कि वाकई जो शफीक कह रहा है उसमें दम है। किसी के पास कोई जवाब नहीं था...कोई खंडन नहीं था। सबको मौन देखकर शफीक ने फिर कहा, 'दो आदमी को सजा देने के लिए पूरे गाँव में जलजला पैदा कर देना...दुश्मनी का दोजख उढ़ेल देना कहाँ तक मुनासिब है? दो आदमी में बने रिश्ते को खत्म करने के लिए गाँव के हजारों वाशिंदों के बीच कायम सारे रिश्तों को हलाक कर देना एक पागलपन से ज्यादा और क्या होगा? '
सबकी आँखें फैलती जा रही थीं। अतीक-मुजीब तक को यकीन नहीं आ रहा था कि अचानक शफीक मियाँ इस तरह की सूफीयाना वाणी बोलने लगेंगे।
इन बातों से फजलू मियाँ को काफी बल मिला। वह करामत और नन्हकू के साथ रहता था लेकिन उनकी कई बातों से उसकी रजामंदी नहीं थी। आज उसे लगा कि शफीक ने उसके भीतर से असहमति निकालकर अपनी जुबान दे दी। वह उत्साहित होकर कहने लगा, 'शफीक मियाँ, आप इतने अक्लमंद हैं, अल्लाह कसम मुझे पहली बार इसका इल्म हुआ। मैं भी इसी लाइन पर सोच रहा था लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी कि आप सभी लोग नाराज हो जायेंगे। आपने बिल्कुल ठीक फरमाया... हम नाहक ऐसे हाथों का खिलौना बनते जा रहे हैं जो वहशी हैं, जो असमाजिक हैं और ऐसे लोगों की खिफाफत कर रहे हैं जो हमारे अपने हैं तथा हमारी भलाई चाहनेवाले लोग हैं।'
इदरीश की मानसिक स्थिति साँप-छछुंदर की होती जा रही थी। उसने जरा चिड़चिड़ाकर पूछा, 'आप जरा साफ-साफ बतायेंगे कि कौन हमारे अपने और भलाई चाहनेवाले हैं? अचानक कौन-सा फितूर सवार हो गया आपलोगों के ऊपर कि सुर ही बदल दिया आपने? इस सुर में मेरा क्या होगा, इसकी चिन्ता भी आपलोगों ने छोड़ दी?'
फजलू मियाँ उसी की लय में बोल पड़े, 'अपनी आँखों से खुदगर्जी का चश्मा हटाकर देखो तो दिखाई पड़ेगा, इदरीश...अपने लोग तौफीक मियाँ हैं, मतीउर है, सल्तनत है, अम्मा है, लतीफगंज विकास समिति के सभी लड़के हैं। इनके जरिये से जो भला हो रहा है उसे इस गाँव का अंधा भी महसूस करने लगा है। तुम्हारा मामला इतना बड़ा नहीं है कि इसके लिए सबको कुर्बान कर दिया जाये।'
'आपने भैरव का नाम क्यों छोड़ दिया, उसे भी गिन लिया होता।' तंज कसते हुए इदरीश ने कहा।
'बेशक मैं भैरव का नाम भी जोड़ना चाहूँगा, उस लड़के ने भी भला ही किया है गाँव का। उसने मुहब्बत की है, यह अगर उसकी खता है तो यह हमारी उससे भी बड़ी और नाकाबिलेमाफ खता होगी जब हम गाँव में नफरत की आँधी बहायेंगे और गाँव की भलाई करनेवालों को गिराने के लिए रास्ते में गड्ढे खोद देंगे।'
'फजलू मियाँ, अब ऐसा तो मत कीजिए कि हम आपस में ही लड़ने-भिड़ने लगें? इदरीश को हम इंसाफ दिलाने चले थे...मसला यह है हमारे सामने। अगर टेकमल का कहा हमें खारिज कर देना है तो विचार इस पर होना चाहिए कि दूसरा क्या रास्ता हो सकता है?' करामत ने अपने रुतबे का उपयोग करके बहस पर लगाम लगा दी।
नन्हकू बहुत देर से चुपचाप सुन रहे थे और शफीक के बदले रुख पर पसोपेश में पड़ गये थे। बीच-बचाव की उन्हें एक युक्ति सूझी, 'यहाँ हम सभी लोग बैठे हैं...अतीकुर और मुजीबुर भी मौजूद है...क्यों नहीं सल्तनत, निकहत आदि को बुलाकर हम उन पर एक जबर्दस्त साझा दबाव बनायें? अतीक-मुजीब अपने पूरे हक के साथ उन्हें ताकीद करें कि पूरे खानदान और पूरी बिरादरी की इज्जत दांव पर है, वे अब अपनी हरकत से बाज आयें।'
सबने इसका समर्थन किया और ठीक इसी वक्त उन सबके लिए बुलावा भेज दिया गया।
सल्तनत, निकहत, मिन्नत, तौफीक, मतीउर और अम्मा एक साथ ही सभा-स्थल पर दाखिल हुए, जैसे वे पहले से ही तैयार बैठे हों। इन्हें टेकमल के दरबार में हुए वार्तालाप की जानकारी हो चुकी थी। इसलिए इस तरफ भी आरपार की कार्रवाई करने की मानसिकता बना ली गयी थी।
करामत ने बात शुरू की, 'पंचायत ने जो फैसला दिया है उसे अमल में लाया जाये, इसी के वास्ते एक और कोशिश के तौर पर सारे लोग यहाँ जुटाये गये हैं।'
'मेरी जाती जिंदगी में दखल देने का हक किसी को नहीं है, पंचायत को भी नहीं। खासकर उस पंचायत को तो बिल्कुल नहीं जिसके पंच वे लोग हैं जिसने मेरे साथ ज्यादती और जुल्म करने में साथ निभाया। आगे कहिए अगर बुलाने का कोई और सबब हो तो?' दो टूक जवाब दे दिया सल्तनत ने। तमतमाकर उठ खड़ा हो गया अतीक। उसने आँख तरेरते हुए कहा, 'सल्तनत, इतने बुजुर्ग और मोतवर लोगों के सामने तुम्हें तमीज से पेश आना चाहिए।'
अपनी आँखों में बेपनाह नफरत और गुस्सा भरकर देखा सल्तनत ने, 'तमीज का तुम्हें खयाल है तो तुम्हें अपनी उम्र का भी खयाल होना चाहिए। तुमसे उम्र में बड़ी हूँ मैं, मेरा नाम लेकर बुलाते हुए तुम्हें जरा भी शर्म आती है? छोटे मामू हमारे अब्बा की उम्र के हैं और तुम दोनों की तालीम की डगर पर आगे बढ़ाकर रोशनी देने वाले शख्स ये ही हैं...है तमीज तुमलोगों में कि इनसे जरा दुआ-सलाम भी कर लें? दो साल में तुमलोगों ने अम्मी के......।'
'बस करो,' बीच में ही टपक पड़ा मुजीबुर, 'तुम्हारे मुँह से यह सब जरा भी अच्छा नहीं लगता। जो अपनी पूरी बिरादरी और खानदान के नाम पर धब्बा हो, उसके मुँह से ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं। तुम्हारी मनमानी अब बहुत हो गयी, अब तुम्हें हर हाल में सुधरना होगा। निकहत, तुम्हें भी। इदरीश हमलोगों का लिहाज करके अभी भी अपनत्व बनाये हुए है...अपने दरवाजे खुले रखे हुए है। अब इसका ज्यादा इम्तहान लेना ठीक नहीं।'
'बर्दाश्त करने का इम्तहान अब हम भी देने के लिए तैयार नहीं हैं। तुम्हारे जैसे जालिम और बर्बर सलूक करनेवाले को अब हम भाई मानने के लिए भी राजी नहीं हैं। आज से तुमदोनों का नाम हमारे दुश्मनों की फेहरिश्त में होगा।' इस बार निकहत ने अपना गुस्सा दिखाकर सबको चैंका दिया।
'तुम्हारे मानने, न मानने से तुम्हें मनमरजी करने की इजाजत नहीं मिल जाती। आज से तुम दोनों को इदरीश मियाँ के घर रहना होगा नहीं तो सचमुच हम दुश्मन ही की तरह तुमदोनों के साथ आज पेश आयेंगे। अब तक तुमने हम सबकी शराफत देखी है, आज तुम्हें हम अपनी हैवानियत से भी तअर्रुफ करा देंगे। इदरीश मियाँ, अपना असली रूप दिखाइए और इन दोनों को अपने साथ ले जाइये।' अतीकुर ने एक मँजे हुए डॉन की तरह इदरीश को इशारा किया तो चीते की तरह फुर्ती दिखाते हुए इदरीश ने कमर से एक पिस्तौल निकाल ली और फटाक से दरवाजे से होते हुए आँगन की तरफ एक हवाई फायर कर दिया। फिर सबको हड़काते हुए कहा, 'खबरदार जो किसी ने मुझे रोकने की कोशिश की। सल्तनत और निकहत, चुपचाप हमारे साथ चलो।'
पल भर के लिए तो निकहत, सल्तनत और तौफीक सन्न रह गये। इस फिल्मी नजारे की तो किसी को भी कोई उम्मीद न थी। इदरीश पिस्तौल ताने हुए सल्तनत और निकहत की तरफ बढ़ने लगा। पल भर के लिए सबकी अक्ल गुम हो गयी।
ठीक इसी वक्त एक और फिल्मी करतब दिखाते हुए मतीउर अपनी जगह से छलाँग लगाकर कूद पड़ा इदरीश पर और उसकी पिस्तौल की बिना परवाह किये उसके जबड़े पर ताबड़तोड़ तीन-चार घूँसे जड़ दिये और उसके हाथ मरोड़कर उससे पिस्तौल छीन ली। चीखते हुए कहा, 'तुम्हारी गुंडागर्दी अब नहीं चलेगी, इदरीश। आज से कान खोलकर सुन लो...मेरी इन बहनों की तरफ नजर उठाकर भी तुमने देखा तो माँ कसम मैं तुम्हारी आँखें निकाल लूंगा।...और अतीकुर-मुजीबुर, तुम दोनों भी आज साफ-साफ समझ लो...भाई की तरह अगर पेश नहीं आये तो दुश्मन की तरह तुम्हें भी हम नहीं बख्शेंगे। तुमलोग अपने को भाई कहते भी किस मुँह से हो, कौन-सी जिम्मेदारी निभायी तुमलोगों ने बड़े भाई होने की? माँ तक को जो नहीं पूछता वो चला है रिश्ते का दम भरने।'
मतीउर का यह अप्रत्याशित और आक्रामक रूप देखकर सबके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। इदरीश और अतीक-मुजीब ने ऐसी खतरनाक योजना बना रखी है, इसकी जरा भी भनक करामत, नन्हकू, फजलू आदि को नहीं थी। उनलोगों ने यहाँ से कन्नी काटकर निकल जाना ही बेहतर समझा। वे जाने लगे तो तौफीक ने उन्हें दुत्कारते हुए संबोधित किया, 'क्यों मोहतरम हजरात, मुराद पूरी हो गयी कि कुछ कसर बाकी है? जाते-जाते जरा यह फैसला तो करते जाइए कि आप सबके इस अजीज हीरो को आपके हवाले कर दिया जाये या पुलिस के?'
सब दायें-बायें देखने लगे। किसी ने होंठ तक नहीं फड़फड़ाये।
तौफीक ने आगे कहा, 'इस तरह मुँह चुराने से आप बरी नहीं हो जायेंगे...आपलोगों को चुल्लू भर पानी में डूबकर मरना होगा। एक नामुराद दरिंदे और हैवान की तरफदारी में इतने अंधे व हठधर्मी हो गये कि पूरे गाँव के अमन-चैन, भाईचारे और प्रेम को दाँव पर लगा देने में जरा-सी भी हिचकिचाहट नहीं हुई। जुर्म, दहशत और हैवानियत के सरगना टेकमल को आपलोगों ने अपना आका बना लिया और उसके कहने पर आपलोग यहाँ दंगा करवायेंगे...वाह, क्या खूब! इसे कहते हैं कौम और मजहब का सच्चा अलमबरदार होना...सच्चा हितैषी होना...सच्चा राहबर होना। चलिए शुरू कीजिए...आपलोगों की जेब में भी तो पिस्तौलें या रिवाल्वर होंगी ही...आका ने दिया ही होगा...तो निकालिए और भून दीजिए हम सबको। बना दीजिए गाँव को कब्रिस्तान और राज कीजिए हम सबकी कब्रों पर। लानत है आप जैसे मुल्लों, मौलवियों, हाफिजों और रहनुमाओं पर जिन्हें अच्छे-बुरे और पाक-नापाक में फर्क करने की तमीज तक नहीं आती। क्या यही रास्ता दिखायेंगे आप भूले-भटके अवाम को...यही गोली चलाने का...कत्ल करने का...मारकाट मचाने का?'
सबके सिर झुक गये और उनकी आँखें निस्तेज जैसी हो गयीं। इस बार अम्मा ने मोर्चा सँभाल लिया, 'कान खोलकर सुन लो तुमलोग...सल्तनत और भैरव की जोड़ी हम कभी टूटने नहीं देंगे और इस करमजले जल्लाद इदरीश का नापाक इरादा भी कभी पूरा होने नहीं देंगे। अब तुमलोग जैसे ढोंगियों-पाखंडियों को हमलोग अपनी बिरादरी से निष्कासित करते हैं। आज से हमारे तुमलोगों से कोई रिश्ते नहीं रहेंगे।'
पासा इस तरह उलटा पड़ जायेगा इसका किसी को अनुमान नहीं था। मतीउर अब तक इदरीश की कलाई मरोड़कर दबोचे हुए था। हट्टा-कट्ठा, बलिष्ठ और मिट्टी के सपूत मतीउर से टकराने में यहाँ कोई सक्षम नहीं था। उसकी इस हालत पर बिना तरस खाये एक-एक कर उनके हमदर्द निकलते चले गये थे। अतीक-मुजीब और शफीक मूक तमाशबीन जैसे मुँह बाये हुए थे। तौफीक ने इस प्रहसन का पटाक्षेप करने के उद्देश्य से कहा, 'मतीउर, छोड़ दो अब इस बेहया को। इसे हाजत के भीतर भी करवा दें तो इसके गॉडफादर हजरत टेकमल इसे छुड़वा ही लेगा।'
मतीउर ने उसे दुरदुराते हुए झटक दिया। मिन्नत बहुत देर से तमाशा देखती जा रही थी। चलते-चलते उसने कहा, 'अतीक-मुजीब, हमें खुशी नहीं दे सकते तो तकलीफ तो न दो। मेरी कोख को इतना शर्मिंदा न करो कि मुझे तुम्हारे जन्म देने पर अफसोस करना पड़े। जाओ, चुपचाप अपना घर सँभालो और आदमी को पहचानना सीखो। चलो मेरे बच्चो, यहाँ अब मेरा दम घुट रहा है।'
मिन्नत घर से निकल गयी। उसके पीछे-पीछे सल्तनत, निकहत, अम्मा, मतीउर और तौफीक भी निकल गये।
ट्रैक्टर आ गया। लाल रंग का चमचमाता हुआ नया ट्रैक्टर। तौफीक खुद ही चलाकर लाये शहर के शोरूम से। लविस (लतीफगंज विकास समिति) के सारे लड़के साथ गये थे और डाला में लदकर वापस आये। इस गाँव के लिए यह एक बड़ी घटना थी। भैरव के साथ जकीर अक्सर ट्रैक्टर का सपना देखा करता था। ट्रैक्टर आकर रुका तो गाँववालों की भीड़ जुट गयी। अम्मा ने इंजिन के ऊपर अगरबत्ती दिखायी और नारियल फोड़ा। भैरव शहर से ही लड्डू लेकर आया था। सल्तनत नारियल और लड्डू सबमें बाँटने लगी। सभी लोग खुशी से आह्लादित थे। लविस के लड़कों में एक विशेष उत्साह और जोश दिखाई पड़ रहा था। गाँव के कुछ बड़े जोतदार चुन्नर यादव, फल्गू महतो, नगीना सिंह आदि भी आ गये थे। धीरे-धीरे ये लोग भी लविस को मान्यता देने लगे। लगातार मिल रही सफलता का इन पर असर होने लगा था। शुरू में ये लोग थोड़े कटे-कटे रहे। आहर और पोखर जीर्णोद्धार में इनका योगदान बहुत सहमा और फीका रहा था।
तौफीक से मिलकर चुन्नर यादव ने कहा,'यह बहुत शानदार काम हुआ है, कामरेड, हमको बहुत खुशी हो रही है।'
नगीना सिंह ने कहा, 'जो हमलोग नहीं कर पाये उसे आप एक-एक कर फतह करते जा रहे हैं...अब आप हमें भी अपने साथ समझिए, तौफीक भाई।'
फल्गू महतो ने भी अपनी खुशी छलका दी, 'गाँव में बहुत सारा शक-शुबहा व्यक्त किया जा रहा था, आपने सबका निराकरण कर दिया। अब हम आपसे और दूर रहकर अलग-थलग नहीं होना चाहते।'
तौफीक ने इनके समर्थन को एक महत्वपूर्ण ताकत मानते हुए अपना आभार जताया और कहा, 'यह ट्रैक्टर किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे गाँव का है। आप इसे अपनी मदद दीजिए और इससे मदद लीजिए।'
तौफीक अब कुछ लड़कों को ड्राइविंग सिखाने लगे। मतीउर, भैरव, तारा, चन्द्रदेव आदि उनकी सीट के आसपास ट्रैक्टर पर सवार हो गये। अम्मा के घर के सामने काफी खुली जगह थी, जहाँ टेड़ा-मेढ़ा, आड़ा-तिरछा कैसे भी चलाया जा सकता था। गाँव की औरतें, बच्चे, बूढ़े सब हसरत से देख रहे थे। पड़ोसवाले घर की खिड़की से अतीक-मुजीब, शफीक और उसकी बेगम भी ट्रैक्टर के दृश्य को नजर बचाकर ईर्ष्या भाव से उचक-उचक कर देख रहे थे। इन्हें लगने लगा था जैसे उनका कुछ खो गया है और जो खो गया है इनके हिस्से में आ गया है। शफीक ने तीन-चार दिन पहले अपनी जमीन और घर का दो भाग करवा लिया था। चूँकि कलकत्ता में स्थायी तौर पर बस जाने वाले दो अन्य भाई हनीफ एवं रदीफ का खेत-घर से कोई मतलब नहीं रह गया था। वे वहाँ खूब खुश और सुखी थे। अब शफीक शहर लौट जाने की तैयारी कर रहे थे। हवा में खबर थी कि वे अपने हिस्से के खेत और घर इदरीश को सुपुर्द करने वाले हैं। इसका आशय यह था कि इतना कुछ होने के बावजूद इदरीश के प्रति शफीक के दृष्टिकोण में कोई फर्क नहीं आया था। तौफीक को इसी बात का जरा दुख हुआ, वरना उसे कोई आपत्ति नहीं थी...उसकी सम्पति वह चाहे जो करे।